Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय स्थानपद ]
[ १३७
[प्र.] भगवन्! मारणान्तिक समुद्घात किये हुए पृथ्वीकायिक के तैजसशरीर की शारीरिक अवगाहना कितनी बड़ी होती है ?
[उ.] गौतम! ( उन की शरीरावगाहना, विस्तार और मोटाई की अपेक्षा से शरीरप्रमाण होती है, और लम्बाई की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट लोकान्तप्रमाण होती है।
उसके पश्चात् वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि अपने उत्पत्तिदेश तक दण्डरूप में आत्मप्रदेशों को फैलाते हैं और अपान्तरालगति ( विग्रहगति) में वर्तमान होते हुए वे बादर अपर्याप्तक- तेजस्कायिक की आयु का वेदन करने के कारण बादर अपर्याप्त - तेजस्कायिक नाम को धारण करते हैं । वे समुद्घात अवस्था में ही विग्रहगति में विद्यमान होते हैं तथा समुद्घात - गत जीव समस्त लोक को व्याप्त करते हैं । इस दृष्टि से समुद्घात की अपेक्षा से इन्हें सर्वलोकव्यापी कहा गया है।
दूसरे आचार्यों का कहना है— बादर अपर्याप्त - तेजस्कायिक जीव संख्या में बहुत अधिक होते है; क्योंकि एक-एक पर्याप्त के आश्रय से असंख्यात अपर्याप्तों की उत्पत्ति होती है । वे सूक्ष्मों में भी उत्पन्न होते हैं और सूक्ष्म तो सर्वत्र विद्यमान हैं । इसलिए बादर अपर्याप्तक - तेजस्कायिक अपने-अपने भव के अन्त में मारणान्तिक समुद्घात करते हुए समस्त लोक को आपूरित करते हैं । इसलिए इन्हें समग्र की दृष्टि से, समुद्घात की अपेक्षा सकललोकव्नापी कहने में कोई दोष नहीं है ।
स्वस्थान की अपेक्षा से बादर अपर्याप्तक- तेजस्कायिक—– लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, क्योंकि पर्याप्तों के आश्रय से अपर्याप्तों की उत्पत्ति होती है। पर्याप्तों का स्थान मनुष्यक्षेत्र है, जो कि सम्पूर्ण लोक का असंख्यातवां भागमात्र है । इसलिए इन्हें लोक के असंख्यातवें भाग में कहना उचित ही है ।
वायुकायिकों के स्थानों का निरूपण
१५७. कहि णं भंते! बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ?
गोयमा ! सट्टाणेणं सत्तसु घणवाएसु सत्तसु घणवायवलएसु तणुवाएसु सत्तसु वलएसु १ । अहोलोए पायलेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु भवणछिद्देसु भवणणिक्खुडेसु निरएसु निरयावलियासु णिरयपत्थडेसु णिरयछिद्देषु पिरयणिक्खुडेसु २।
उड्ढलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु विमाणछिद्देसु विमाणणिक्खुडे
३।
तिरियलाए पाईण-पडीण- दाहिण-उदीण सव्वेसु चेव लोगागासछिद्देसु लोगनिक्खुडेसु य ४ । एत्थ णं बायरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता ।
उववाएणं लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु, समुग्धाएण लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु ।
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ७५ से ७७