Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापना सूत्र
लाख योजन से ऊपर (की संख्याएँ) हैं। और ७. सातवीं तमस्तमा नरकपृथ्वी में ऊपर और नीचे साढ़े बावन-हजार छोड़कर मध्य में तीन हजार योजनों में नरक (नारकावास) होते हैं, ऐसा कहा है ॥ १३४१३५॥
(नारकावासों की संख्या) (छठी नरक तक लाख की संख्या में)—१. (प्रथम पृथ्वी में) तीस (लाख), २. (दूसरी में) पच्चीस (लाख), ३.. (तीसरी में) पन्द्रह (लाख), ४. (चौथी पृथ्वी में) दस लाख, ५. (पांचवीं में) तीन (लाख), तथा ६. (छठी पृथ्वी में) पाँच कम एक (
) और ७. सातवीं नरकपृथ्वी में) केवल पांच ही अनुत्तर नरक (नारकावास) हैं ॥१३६ ॥
विवेचन–नैरयिकों के स्थानों की प्ररूपणा–प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. १६७ ये १७४) में सामान्य नैरयिकों तथा तत्पश्चात् क्रमशः पृथक्-पृथक् सातों नरकों के नैरयिकों के स्थानों की संख्या तथा उन स्थानों के स्वरूप एवं उन स्थानों में रहने वाले नारकों की प्रकृति एवं परिस्थिति पर प्रकाश डाला गया है। आठों सूत्रों में उल्लिखित निरूपण कुछ बातों को छोड़ कर प्रायः एक सरीखा है।
नारकावासों की संख्या सातों नरकों के नारकावासों की कुल मिला कर ८४ लाख संख्या होती है ; जिसका विवरण संग्रहणी गाथाओं में दिया गया है। इसके अतिरिक्त नारक कहाँ (किस प्रदेश में) रहते हैं?, इसका विवरण भी पूर्वोक्त संग्रहणी गाथाओं में दिया है, जैसे कि—१ हजार योजन ऊपर और १ हजार योजन नीचे छोड़ कर बीच के एक लाख अठहत्तर हजार योजन प्रदेश में प्रथम पृथ्वी के नारक रहते हैं; इत्यादि। सातों पृथ्वियों के नारकों के स्थानादि का वर्णन प्रायः समान है। ..
___ नारकावासों की भूमि - नारकावासों का भूमितल कंकरीला होने पर भी नारकों के पैर रखने पर कंकड़ों का स्पर्श ऐसा लगता है, मानों छुरे से पैर कट गए हों। उनमें प्रकाश का अभाव होने से सदैव गाढ़ अन्धकार व्याप्त रहता है। बादलों से आच्छादित काली घोर रात्रि की तरह वहाँ सदैव अन्धकार रहता है; क्योंकि प्रकाशक ग्रह-सूर्य-चन्द्रादि का या उनकी प्रभा का वहाँ अभाव है। वहाँ मेद, चर्बी, मवाद, रक्त, मांस आदि दुर्गन्धित वस्तुओं के कीचड़ से भूमितल व्याप्त रहता है, इसलिए वे नरकावास सदैव गन्दे, घृणित या दुर्गन्धयुक्त रहते हैं। मरी हुई गाय, भैंस आदि के कलेवरों की-सी दुर्गन्ध से भी अत्यन्त अनिष्ट घोर दुर्गन्ध वहाँ रहती है। धौंकनी से लोहे को खूब धौंकने पर जैसे गहरे नीले रंग की (कपोत के रंग-जैसी) ज्वाला निकलती है, वैसी ही आभा वाले नारकावास होते हैं, क्योंकि नारकों के उत्पत्तिस्थान को छोड़ कर वे सर्वत्र उष्ण होते हैं। यह कथन छठी-सातवीं पृथ्वी के सिवाय अन्य पृथ्वियों के विषय में समझना चाहिए। आगे कहा जायेगा कि छठी और सावती नरक के नारकावास कापोतवर्ण की अग्नि के वर्ण-सदृश नहीं होते। उन नारकावासों का स्पर्श तलवार की धार के समान अतीव कर्कश और दुःसह होता है। वे देखने में भी अत्यन्त अशुभ होते हैं। उन नरकों की वेदनाएँ भी दुःसह शब्द, रूप, गन्ध, रस
और स्पर्श के कारण अतीव अशुभ या असुखकर होती हैं। १. देखिये संग्रहणी गाथाएँ–पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. १ पृ. ५४-५५