Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय स्थानपद]
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तीसा य १ पण्णवीसा २ पण्णरस ३ दसेव सयसहस्साई ४।
तिणि य ५ पंचूणेगं ६ पंचेव अणुत्तरा नरगा ७॥१३६॥ [१७४ प्र.] भगवन् ! तमस्तमपृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ कहे गए हैं?
[१७४ उ.] गौतम! एक लाख, आठ हजार मोटी तमस्तमपृथ्वी के ऊपर के साढ़े बावन हजार योजन (प्रदेश) को अवगाहन (पार) करके तथा नीचे के भी साढ़े बावन हजार योजन (प्रदेश) को छोड़कर बीच के तीन हजार योजन (प्रदेश) में, तमस्तमप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नारकों के पांच दिशाओं में पांच अनुत्तर, अत्यन्त विस्तृत महान् महानिरय (बड़े-बड़े नरकावास) कहे गए है। वे इस प्रकार हैं-(१) काल, (२) महाकाल, (३) रौरव, (४) महारौरव और (५) अप्रतिष्ठान।।
वे नरक (नारकावास) अन्दर से गोल और बाहर से चौरस हैं, नीचे से छुरे के समान तीक्ष्णसंस्थान ये युक्त हैं। वे नित्य अन्धकार से आवृत्त रहते हैं; वहाँ ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों की प्रभा नहीं है। उनके तलभाग मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त रहते हैं। अतएव वे अपवित्र, घृणित, अतिदुर्गन्धित, कठोरस्पर्शयुक्त, दुःसह एवं अशुभ (अनिष्ट) नारक (नारकावास) हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ होती हैं। यहीं तमस्तमःप्रभापृथ्वी के पर्याप्त नारकों के स्थान कहे गए हैं।
उपपात की अपेक्षा से (वे नारकावास) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, समुद्घात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं तथा स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। . हे आयुष्मन् श्रमणो! इन्हीं (पूर्वोक्त स्थलों) में तमस्तमःपृथ्वी के बहुत-से नैरयिक निवास करते हैं; जो कि काले, काली प्रभा वाले, (भयंकर) गंभीररोमाञ्चकारी, भयंकर, उत्कृष्ट त्रासदायक (आतंक उत्पन्न करने वाले), वर्ण से अत्यन्त काले कहे हैं।
वे (नारक वहाँ) नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, सदैव परस्पर त्रास पहुंचाये हुए, नित्य (दुःख से) उद्विग्न, तथा सदैव अत्यन्त अनिष्ठ तत्सम्बद्ध नरकभय का सतत साक्षात् अनुभव करते हुए जीवनयापन करते हैं।
[संग्रहणी गाथाओं का अर्थ-] (नरकपृथ्वियों की क्रमशः मोटाई एक लाख से ऊपर की संख्या में)-१. अस्सी (हजार), २. बत्तीस (हजार), ३, अट्ठाईस (हजार) ४. बीस (हजार), ५. अठारह (हजार), ६. सोलह (हजार) और ७. सबसे निचली की आठ (हजार), (सबके 'योजन' शब्द जोड़ देना चाहिए) ॥१३३॥
__ (नारकावासों का भूमिभाग-) (ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर छठी नरक तक; एक लाख से ऊपर की संख्या में)—१. अठत्तर (हजार), २. तीस (हजार), ३. छव्वीस (हजार), ४. अठारह (हजार) ५. सोलह (हजार), और ६. छठी नरकपृथ्वी में चौदह (हजार) ये सब एक