Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय स्थानपद]
[१५१
उपपात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, (तथा) स्वस्थान की अपेक्षा से (भी) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, जहाँ उन (नरकावासों) में धूमप्रभापृथ्वी के बहुत-से नैरयिक रहते हैं, जो काले, काली कान्तिवाले, गम्भीर रोमाञ्चकारी, भयानक, उत्त्रासदायक, वर्ण से परम कृष्ण कहे गए हैं। ____ हे आयुष्मन् श्रमणो! वे (नारक वहाँ) नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, सदैव परस्पर त्रासित, नित्य उद्विग्न और सदैव अविच्छिन्नरूप से परम अशुभ नरकभय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए जीवनयापन करते हैं।
१७३. कहि णं भंते! तमप्पभापुढविनेरइयाणं पजत्ताऽपजत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ?
गोयमा! तमप्पभाए पुढवीए सोलसुत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हिट्ठा वि एगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे चोद्दसुत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं तमप्पभापुढविनेरइयाणं एगे पंचूणे णरगावाससतसहस्से हवंतीति मक्खातं।
ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता निच्चंधयारतमसा ववगयगह-चंद-सूर-नक्खत्तजोइसपहा मेद-वसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुब्भिगंधा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा णरगा असुभा नरगेसु वेदणाओ, एत्थ णं तमप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। ___उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे। तत्थ णं बहवे तमप्पभापुढविणेरइया परिवसंति।
काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो!
ते णं णिच्चं भीता णिच्चं तत्था णिच्चं तसिया णिचं उव्विग्गा णिच्चं परममसुहं संबद्धं नरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति।
[१७३ प्र.] भगवन् ! तमःप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ कहे हैं ? __ [१७३ उ.] गौतम! एक लाख सोलह हजार योजन मोटी तमःप्रभापृथ्वी के ऊपर का एक हजार योजन (प्रदेश) अवगाहन (पार) करके और नीचे का एक हजार योजन (प्रदेश) छोड़कर मध्य में एक लाख चौदह हजार योजन (प्रदेश) में, वहाँ तमः प्रभापृथ्वी के नैरयिकों के पांच कम एक लाख नारकावास हैं, ऐसा कहा गया है।
वे नरक (नारकावास) भीतर से गोल, बाहर से चौरस और नीचे से छु रे के (आकार के से तीक्ष्ण) संस्थान से युक्त हैं। वे सदैव (घने) अंधेरे से (भरे होते हैं,) वे ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों के प्रकाश से वंचित हैं, उनके तल मेद, वसा, मवाद की मोटी परत, रक्त और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त रहते हैं, अतएव वे अपवित्र, बीभत्स, अतिदुर्गन्धित, कर्कश स्पर्शयुक्त, दुःसह