Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय स्थानपद]
[१६३
रमणीय एवं स्निग्ध (चिकने) केशों वाले, बाएं एक कान में कुण्डल के धारक, गीले (सरस) चन्दन में लिप्त शरीर वाले, शिलीन्ध्र-पुष्प के समान किंचित् लाल रंग के एवं क्लेश उत्पन्न न करने वाले, (अत्यन्त सुखकर) सूक्ष्म एवं अत्यन्त श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए प्रथम वय (कौमार्य) को पार किए हुए, दूसरी वय को अप्राप्त, (अतएव) नवयौवन में वर्तमान, तल-भंगक, त्रुटित तथा अन्य श्रेष्ठ आभूषणों एवं निर्मल मणियों
और रत्नों से मण्डित भुजाओं वाले, दस मुद्रिकाओं (अंगूठियों) से सुशोभित अग्रहस्त (हाथ की अंगुलियों) वाले, विचित्र चूड़ामणि के चिह्न से युक्त, सुरूप, महर्द्धिक, महाद्युतिमान्, महायशस्वी, महाबलवान्, महासामर्थ्यशाली (प्रभावशाली) महासुखी, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले, कड़ों तथा बाजूबंदों से स्तम्भित भुजाओं वाले, अंगद, कुण्डल तथा कपोल भाग को घर्षण करने वाले कर्णपीठ (कर्णभूषण) के धारक, हाथों में विचित्र आभूषण वाले, अद्भुत मालाओं से युक्त मुकुट वाले, कल्याणकारी श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और अनुलेपन के धारक, देदीप्यमान (चमकते हुए) शरीर वाले, लम्बी वनमालाओं के धारक तथा दिव्य वर्ण से, दिव्य गन्ध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन से, दिव्य संस्थान (आकृति) से, दिव्य ऋद्धि से, दिव्य द्युति से, दिव्य प्रभा से, दिव्य कान्ति से, दिव्य अर्चि (ज्योति) से, दिव्य तेज से और दिव्य लेश्या (शारीरिकवर्ण-सौन्दर्य) से दसों दिशाओं को प्रकाशित एवं प्रभासित (सुशोभित) करते हुए, वे (असुरकुमारों के इन्द्र चमरेन्द्र और बलीन्द्र) वहाँ अपने-अपने लाखों भवनावासों का अपने-अपने हजारों सामानिकों का, अपने-अपने त्रायस्त्रिंशक देवों का, अपने-अपने लोकपालों का, अपनी-अपनी अग्रमहिषियों का, अपनी-अपनी परिषदों का, अपनी-अपनी सेनाओं का, अपने-अपने सैन्याधिपतियों का, अपने-अपने हजारों आत्मरक्षक देवों का और अन्य बहुत-से भवनवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य (अग्रेसरत्व), स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व (महानता) और आश्विरत्व तथा सेनापत्य करते-कराते तथा पालन करते-कराते हुए महान् आहत (बड़े जोर से, अथवा अहत—व्याघातरहित) नाट्य, गीत, वादित, (बजाए गए) तंत्री, तल, ताल, त्रुटित और घनमृदंग आदि से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य उपभोग्य भोगों को भोगते रहते हैं।
१७९. [१] कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भते! दाहिणिल्ला असुरकुमारा देवा परिवसंति ?
___ गोयमा! जंबुद्दीवे मंदरस्स पव्वतस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेवा वेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं चोत्तीसं भवणावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं।
ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा, सो च्चेव वण्णओ' जाव पडिरूवा। एत्थ णं दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि १. 'वण्णओ' से सूत्र १७७ [१] के अनुसार पाठ समझना चाहिए।