Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय स्थानपद]
[१४९ उपपात की अपेक्षा से (वे नारकावास) लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं); समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं); (और) स्वस्थान की अपेक्षा से (भी) लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं)।
जिनमें बहुत-से वालुकाप्रभापृथ्वी के नारक निवास करते हैं । हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे काले, काली आभा वाले गम्भीर-लोमहर्षक, भीम, उत्कट त्रासजनक, वर्ण से अत्यन्त कृष्ण कहे हैं।
वे नारक (वहाँ) नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, सदा (परमाधार्मिक असुरों द्वारा) त्रास पहुँचाये हुए, नित्य उद्विग्न और सदैव परम अशुभ तत्सम्बद्ध नरकभय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए जीवनयापन करते हैं।
१७१. कहि णं भंते! पंकप्पभापुढविनेरइयाणं पजत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ?
गोयमा! पंकप्पभाए पुढवीए वीसुत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हिट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अट्ठारसुत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं पंकप्पभापुढविनेरइयाणं दस णिरयावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं।
ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा खुरप्पसंठाणसंठिता णिच्चंधयारतमसा ववगय-गहचंद-सूर-नक्खत्तजोइसपहा मेद-वसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुब्भिगंधा काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरगेसु वेयणाओ, एत्थ णं पंकप्पभापुढविनेरइयाणं पजत्ताऽपजत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। ___उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे। तत्थ णं बहवे पंकप्पभापुढविनेरइया परिवसंति काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो!
ते णं निच्चं भीता निच्चं तत्था निच्चं तसिया निच्चं उब्बिग्गा निच्चं परममसुहं संबद्धं णरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति।
[१७१ प्र.] भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी के पर्याप्त एवं अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ कहे गए हैं?
[१७१ उ.] गौतम! एक लाख बीस हजार योजन मोटी पंकप्रभापृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन भाग अवगाहन (पार) करके और नीचे का एक हजार योजन भाग छोड़ कर, बीच के एक लाख अठारह हजार योजन प्रदेश में, पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के दस लाख नरकावास हैं, ऐसा कहा है।
वे नरक(नारकावास) अन्दर से गोल, बाहर से चौरस और नीचे से छुरे के आकार से युक्त, सदा अन्धकार से व्याप्त; ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित; मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त तलवाले, अपवित्र, बीभत्स, अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त, . कापोतरंग की (धधकती) अग्नि के वर्ण-सदृश, कठोरस्पर्शयुक्त हैं अतएव अत्यन्त दुःसह एवं अशुभ हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ होती हैं; जहाँ कि पंकप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नारकों के स्थान बताए गए हैं।