Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय स्थानपद]
[१४१ - [१६२ प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मवनस्पतिकायिकों के पर्याप्तकों एवं अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ (कहाँ) कहे गए हैं ?
[१६२ उ.] गौतम ! सूक्ष्मवनस्पतिकायिक, जो पर्याप्त हैं और जो अपर्याप्त हैं, वे सब एक ही प्रकार के हैं, विशेषता से रहित हैं, नानात्व से भी रहित हैं और हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे सर्वलोक में व्याप्त कहे गए हैं।
विवेचन-वनस्पतिकायिकों के स्थानों की प्ररूपणा–प्रस्तुत तीन सूत्रों में बादरसूक्ष्मवनस्पतिकायिकों के पर्याप्तक-अपर्याप्तक-भेदों के स्वस्थान, उपपातस्थान और समुद्घातस्थान की प्ररूपणा की गई है।
पर्याप्त-बादरवनस्पतिकायिकों के स्थान-जहाँ जल होता है, वहाँ वनस्पति अवश्य होती है, इस दृष्टि से समस्त जलस्थानों में पर्याप्त बादरवनस्पतिकायिक जीव होते हैं । उपपात की अपेक्षा से वे सर्वलोक में हैं, क्योंकि उनके स्वस्थान घनोदधि आदि हैं, उनमें शैवाल आदि बादरनिगोद के जीव होते हैं। सूक्ष्मनिगोद जीवों की भवस्थिति अन्तर्मुहूर्त की ही होती है, तत्पश्चात् वे बादर पर्याप्त-निगोदों में उत्पन्न होकर बदर निगोदपर्याप्त की आयु का वेदन करते हुए सुविशुद्ध ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से बादर पर्याप्तवनस्पतिकायिक नाम पा लेते हैं; उपपात की अपेक्षा से (वे) समस्त काल और समस्त लोक को व्याप्त कर लेते हैं।
समुद्घात की अपेक्षा से भी वे सर्वलोक में व्याप्त हैं; क्योंकि जब बादरनिगोद सूक्ष्मनिगोदसम्बन्धी आयु का बन्ध करके और आयु के अन्त में मारणान्तिकसमुद्घात करके आत्मप्रदेशों को उत्पत्तिदेश तक फैलाते हैं, तब तक उनकी पर्याप्तबादरनिगोद की आयु क्षीण नहीं होती। अतएव वे उस समय भी बादर पर्याप्तनिगोद ही रहते हैं और समुद्घातावस्था में वे समस्तलोक में व्याप्त होते हैं। इस दृष्टि से कहा गया है कि बादर पर्याप्तवनस्पतिकायिक समुद्घात की अपेक्षा से सर्वलोक में व्याप्त होते हैं।
स्वस्थान की अपेक्षा से वे लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, क्योंकि घनोदधि आदि पूर्वोक्त सभी स्थान मिल कर भी लोक के असंख्यातवें भागमात्र में ही हैं। द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय-सामान्य पंचेन्द्रियों के स्थानों की प्ररूपणा
१६३. कहि णं भंते ! बेइंदियाणं पज्जत्तगााऽपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता ?
गोयमा ! उड्ढलोए तदेक्कदेसभागे १, अहोलोए तदेक्कदेसभाए २, तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु ३, एत्थ णं बेइंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ७८