Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। ___एत्थ णं बहवे णेरइया परिवसंति काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो!
ते णं तत्थ णिच्चं भीता णिच्चं तत्था णिच्चं तसिया णिच्चं उव्विग्गा णिच्चं परममसुहं संबद्धं णरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति।
[१६७ प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त नारकों के स्थान कहाँ, किस और कितने, तथा कैसे प्रदेश में कहे गए हैं ? नैरयिक कहाँ निवास करते हैं ?
[१६७ उ.] गौतम! स्वस्थान की अपेक्षा से (वे) सात (नरक-) पृथ्वियों में रहते हैं। तथा इस प्रकार हैं-(१) रत्नप्रभा में, (२) शर्कराप्रभा में, (३) वालुकाप्रभा में, (४) पंकप्रभा में, (५) धूमप्रभा में, (६) तमःप्रभा में और (७) तमस्तमःप्रभा में। इन (सातों नरक-पृथ्वियों) में चौरासी लाख नरकावास होते हैं, वे नरक (नारकावास) अन्दर से गोल और बाहर से चोकौर (होते हैं), नीचे से छुरे के आकार (संस्थान) से युक्त (संस्थित) हैं। सतत् अन्धकार होने से गाढ़ अंधकार (से ग्रस्त होते हैं)। (वे नारकावास) ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं। उनके तलभाग (फर्श) मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर (रक्त) और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त, अशुचि (गंदे), बीभत्स (घिनौने), अत्यन्त दुर्गन्धित, (धधकती) कापोत वर्ण की अग्नि जैसे रंग के, कठोरस्पर्श वाले, दुःसह एवं अशुभ नरक हैं। नरकों में अशुभ वेदनाएँ होती हैं। इन (ऐसे अशुभ नरकावासों) में पर्याप्तअपर्याप्त नारकों के स्थान कहे गए हैं।
उपपात की अपेक्षा से—लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा से—लोक के असंख्यातवें भाग में, और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी) लोक के असंख्यातवें भाग में, इनमें (पूर्वोक्त नरकावासों में) बहुत-से नैरयिक निवास करते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! वे (नारक) काले, काली आभा वाले, (भयवश) गम्भीर रोमाञ्च वाले, भीम (भयानक), उत्कट त्रासजनक, तथा वर्ण (रंग) से अतीव काले कहे गए हैं।
वे (वहाँ) नित्य भीत (डरते), सदैव त्रस्त (परमाधार्मिक असुरों से परस्पर) त्रासित (त्रास पहुँचाए हुए), सदैव उद्विग्न (घबराए हुए) तथा नित्य अत्यन्त अशुभ, अपने नरक का भय प्रत्यक्ष अनुभव करते रहते हैं।
१६८. कहि णं भंते! रयणप्पभापुडविणेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! रयणप्पभापुढविणेरइया परिवसंति ?
गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं रयणप्पभापुढविनेरइयाणं तीसं णिरयावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं।