Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
१४४ ]
[ प्रज्ञापना सूत्र
[१६६ उ.] गौतम ! १. (वे ) ऊर्ध्वलोक में— उसके एकदेशभाग में (होते हैं), अधोलोक मेंउसके एकदेशभाग में ( होते हैं), और ३ तिर्यग्लोक में— कुओं में, तालाबों में, नदियों में हृदों में, वापियों में पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, सरोवर- पंक्तियों में, सरसरपंक्तियों में, बिलों में, बिलपंक्तियों में, पर्वतीय जलप्रवाहों में, झरनों में, छोटे गड्ढों में, पोखरों में, वप्रों में, द्वीपों में, समुद्रों में, और सभी जलाशयों तथा समस्त जलस्थानों में (होते हैं) । इन (सभी उपर्युक्त स्थलों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक पंचेन्द्रियों के स्थान कहे गए 1
उपपात की अपेक्षा से — (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), समुद्घात की अपेक्षा से— (वे) लोक के असंख्यतवें भाग में (होते हैं) और स्वस्थान की अपेक्षा से ( भी वे ) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं) ।
विवेचन—द्वि-त्रि- चतुः-पंचेन्द्रिय जीवों के स्थानों की प्ररूपणा — प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. १६३ से १६६ तक) में क्रमशः द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सामान्य पंचेन्द्रिय जीवों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थानों की प्ररूपणा की गई हैं।
द्वीन्द्रियादि जीवों के तीनों लोकों की दृष्टि से स्वस्थान- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सामान्य पंचेन्द्रिय, इन चारों के सूत्रपाठ एक समान हैं। ये सभी ऊर्ध्वलोक में उसके एकदेशभाग में— अर्थात्— मेरुपर्वत आदि की वापी आदि में होते हैं । अधोलोक में भी उसके एकदेशभाग में, अर्थात् — अधोलौकिक वापी, कूप तालाब आदि में होते हैं तथा तिर्यग्लोक में भी कूप तड़ाग, नदी आदि में होते हैं । ·
तथा पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार उपपात समुद्घात एवं स्वस्थान की अपेक्षा से द्वीन्द्रिय से सामान्य पंचेन्द्रिय तक के जीव लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं ।
नैरयिकों के स्थानों की प्ररूपणा
१६७. कहि णं भंते! नेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! नेरइया परिवसंति ?
गोयमा ! सट्टाणेणं सत्तसु पुढवीसु । तं जहा— रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पा धूमप्पभाए तमप्पभाए तमतमप्यभाए, एत्थ णं णेरइयाणं चउरासीति णिरयावाससतसहस्सा भवतीति मक्खायं ।
रगा अंत वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता णिच्चंधयारतमसा ववगयगहचंद-सूर-णक्खत- जोइसपहा मेद - वसा - पूय - रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुब्भिगंधा; काऊअगणिवण्णभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा णरगा असुभा णरगेसु वेणाओ, एत्थ णं णेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ।
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ७९