Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय स्थानपद ]
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विग्रहगति में यथोक्त स्वस्थान - प्राप्ति के अभिमुख— उपपात अवस्था में स्थान का विचार करने पर ये लोक के असंख्यातवें भाग में ही होते हैं, क्योंकि उपपात के समय वे बहुत थोड़े होते हैं । समुद्घात की अपेक्षा से विचार करें तो मारणान्तिक समुद्घातवश दण्डरूप में आत्मा प्रदेशों को फैलाने पर भी वे थोड़े होने से लोक के असंख्यातवें भाग में ही समा जाते हैं । स्वस्थान की अपेक्षा से भी वे लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। क्योंकि मनुष्यक्षेत्र कुल ४५ लाख योजनप्रमाण लम्बा- -चौड़ा है, जो कि लोक का असंख्यातवां भागमात्र हैं ।
बादर तेजस्कायिक अपर्याप्तकों के स्थान—पर्याप्तकों के आश्रय से ही अपर्याप्त जीव रहते हैं, इस दृष्टि से जहाँ पर्याप्तकों के स्थान हैं, वहीं अपर्याप्तकों के हैं । उपपात की अपेक्षा से लोक के दो ऊर्ध्वकपाटों तथा तिर्यग्लोकतट्ट में बादर तेजस्कायिक अपर्याप्तक रहते हैं । आशय यह है कि अढाई द्वीप - समुद्रों से निकले हुए, अढाई द्वीप - समुद्रप्रमाण विस्तृत एवं पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में स्वयम्भूरमण समुद्रपर्यन्त जो दो कपाट हैं, वे केवलिसमुद्घातसमय के कपाट की तरह ऊपर भी लोक के अन्त को स्पृष्ट (छुए हुए) हैं और नीचे भी लोकान्त को स्पृष्ट (छुए हुए) हैं, ये ही 'दो ऊर्ध्वकपाट' कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त तट्ट का अर्थ है - स्थाल ( थाल) । अर्थात् — स्थालसदृश तिर्यग्लोकरूप तट्ट ( स्थाल) कहलाता है । आशय यह है कि स्वयम्भूरमणसमुद्र की वेदिकापर्यन्त अठारह सौ योजन मोटा समस्त तिर्यग्लोकरूप ट्ट (स्थाल) है।
निष्कर्ष यह है कि उपपात की अपेक्षा से लोक के दो ऊर्ध्वकपाटों एवं तिर्यग्लोकरूप तट्ट में बादर तेजस्कायिक अपर्याप्तक जीवों के स्थान हैं।
'लोयस्स दोसुद्धकवाडेसु तिरियलोयतट्ठे' इस पाठान्तर के अनुसार यह अर्थ भी हो सकता है— लोक के उन दोनों ऊर्ध्वकपाटों में जो स्थित हो, वह तट्ठ — ' तत्स्थ' । इस प्रकार — तिर्यग्लोक रूप तत्स्थ में अर्थात् — — उन दो ऊर्ध्वकपाटों के अन्दर स्थित तिर्यग्लोक में वे होते हैं । निष्कर्ष यह हुआ कि पूर्वोक्त दोनों ऊर्ध्वकपाटों में और तिर्यग्लोक में भी ( स्थित ) उन्हीं कपाटों में अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकजीवों का उपपातस्थान है, अन्यत्र नहीं ।
अभिमुखनामगोत्र अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक का प्रस्तुत अधिकार – यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि बादर अपर्याप्तक- तेजस्कायिक तीन प्रकार के होते हैं—
(१) एकभविक, (२) बुद्धायुष्क और (३) अभिमुखनामगोत्र । जो जीव विवक्षित भव के अनन्तर आगामी भव में बादर अपर्याप्त - तेजस्कायिकरूप में उत्पन्न होंगे वे एकभाविक कहलाते हैं, जो जीव पूर्वभव की आयु का त्रिभाग आदि समय शेष रहते बादर अपर्याप्त - तेजस्कायिक की आयु बांध चुके हैं, वे बुद्धायुष्क कहलाते हैं और जो पूर्वभव को छोड़ने के पश्चात् बादर अपर्याप्त - तेजस्कायिक की आयु, नाम और गोत्र का साक्षात् वेदन ( अनुभव) कर रहे हैं, अर्थात् बादर अपर्याप्त - तेजस्कायिक- पर्याप्त
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ७५