Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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१३४]
[प्रज्ञापना सूत्र
___उववाएणं लोयस्स दोसु उड्ढकवाडेसु तिरियलोयतट्टे य, समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे।
[१५५ प्र.] भगवन् ! बादर तेजस्कायिकों के अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं?
[ १५५ उ.] गौतम! जहाँ बादर तेजस्कायिकों के पर्याप्तकों के स्थान हैं, वहीं बादर तेजस्कायिकों के अपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं।
___ उपपात की अपेक्षा से—(वे) लोक के दो ऊर्ध्वकपाटों में तथा तिर्यग्लोक के तट्ट (स्थालरूप स्थान) में एवं समुद्घात की अपेक्षा से—सर्वलोक में तथा स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं।
१५६. कहि णं भंते! सुहुमतेउकाइयाणं पजत्तगाणं अपज्जत्तगाण य ठाणा पण्णत्ता ?
गोयमा! सुहुमतेउकाइया जे पज्जत्तगा जे य अपजत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोयपरियावण्णगा पण्णत्ता समणाउसो!
[१५६ प्र.] भगवन्! सूक्ष्म तेजस्कायिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे गए हैं?
[ १५६ उ.] गौतम! सूक्ष्म तेजस्कायिक, जो पर्याप्त हैं और अपर्याप्त हैं, वे सब एक ही प्रकार के हैं, अविशेष हैं, (उनमें विशेषता या भिन्नता नहीं है) उनमें नानात्व नहीं है, हे आयुष्मन् श्रमणो! वे सर्वलोकव्यापी कहे गए हैं?
विवेचन तेजस्कायिक के स्थान का निरूपण—प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. १५४ से १५६ तक) में बादर-सूक्ष्म के पर्याप्त एवं अपर्याप्त तेजस्कायिकों के स्वस्थान, उपपात स्थान एवं समुद्घातस्थान की प्ररूपणा की गई है।
बादर तेजस्कायिक पर्याप्तकों के स्थान-स्वस्थान की अपेक्षा से वे मनुष्यक्षेत्र के अन्दरअन्दर हैं। अर्थात् मनुष्यक्षेत्र के अन्तर्गत ढाई द्वीपों एवं दो समुद्रों में हैं। व्याघाताभाव से वे पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह इन पन्द्रह कर्मभूमियों में होते हैं; और व्याघात होने पर पांच महाविदेह क्षेत्रों में होते हैं। तात्पर्य यह है कि अत्यन्तस्निग्ध या अत्यन्तरूक्ष काल व्याघात कहलाता है। इस प्रकार के व्याघात होने पर अग्नि का विच्छेद हो जाता है। जब पांच भरत पांच ऐरवत क्षेत्रों में सुषम-सुषम, सुषम, तथा सुषम-दुष्षम आरा प्रवृत्त होता है, तब वह अतिस्निग्ध काल कहलाता है। उधर दुष्षम-दुष्षम आरा अतिरूक्ष काल कहलाता है। ये दोनों प्रकार के काल हों तो व्याघात—अग्निविच्छेद होता है। अगर ऐसी व्याघात की स्थिति हो तो पंचमहाविदेह क्षेत्रों में ही बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक जीव होते हैं। अगर इस प्रकार के व्याघात से रहित काल हो तो पन्द्रह ही कर्मभूमिक क्षेत्रों में बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक जीव होते हैं।
१. पाठान्तर–दोसुद्धक्क