Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
द्वितीय स्थानपद]
[१३३
[१५३ उ.] गौतम! सूक्ष्म-अप्कायिकों के जो पर्याप्तक और अपर्याप्तक हैं, वे सभी एक प्रकार के हैं, अविशेष (विशेषतारहित—सामान्य या भेदरहित) हैं, नानात्व रहित हैं, और आयुष्मन् श्रमणो! वे सर्वलोकव्यापी कहे गए हैं। ___ विवेचन–अप्कायिकों के स्थानों का निरूपण—प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. १५१ से १५३ तक) में बादर, सूक्ष्म, पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक अप्कायिकों के स्वस्थान, उपपात और समुद्घात, इन तीनों अपेक्षाओं से स्थानों का निरूपण किया गया है।
___ 'घणोदधिवलएसु' इत्यादि शब्दों की व्याख्या 'घणोदधिवलएसु-स्व-स्वपृथ्वी-पर्यन्त प्रदेश को वेष्टित करने वाले वलयाकारों में। 'पायालेसु'-वलयामुख आदि पातालकलशों में। क्योंकि उनमें भी दूसरे में देशतः त्रिभाग में और तीसरे में विभाग में सर्वात्मना जल का सद्भाव रहता है।
___ 'भवणेसु कप्पेसु विमाणेसु'–भवनपतियों के भवनों में, कल्पों-देवलोकों में, तथा विमानोंसौधर्मादि-कल्पगत विमानों में, तथा इसके प्रस्तटों एवं विमानावलियों में जल बावड़ी आदि में होता है। ग्रैवेयक आदि विमानों में बावड़िया नहीं होती, अतः वहां जल नहीं होता। तेजस्कायिकों के स्थानों का निरूपण
१५४. कहि णं भंते! बादरतेउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ?
गोयमा! सट्ठाणेणं अंतोमणुस्सखेत्ते अड्डाइजेसु दीव-समुद्देसु निव्वाघाएणं पण्णरससु कम्मभूमीसु, बाघायं पडुच्च पंचसु महाविदेहेसु।
एत्थ णं बादरतेउक्काइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता।
उववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजइभागे।
[१५४ प्र.] भगवन् ! बादर तेजस्कायिक-पर्याप्तक जीवों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं?
[१५४ उ.] गौतम! स्वस्थान की अपेक्षा से—मनुष्यक्षेत्र के अन्दर ढाई द्वीप-समुद्रों में, निर्व्याघात (बिना व्याघात) से पन्द्रह कर्मभूमियों में, व्याघात की अपेक्षा से—पांच महाविदेहों में (इनके स्थान हैं)।
इन (उपर्युक्त)स्थानों में बादर तेजस्कायिक-पर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं।
उपपात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में, तथा स्वस्थान की अपेक्षा से (भी) लोक के असंख्यातवें भाग में (वे) होते हैं।
१५५. कहि णं भंते! बादरतेउकाइयाणं अपजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा! जत्थेव बादरतेउकाइयाणं पज्जत्तगाणं तत्थेव बादरतेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा
पन्नत्ता।
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ७४-७५
२. पाठान्तर-तीसु वि लोगस्स असंखेजतिभागे