Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ प्रज्ञापना सूत्र
तीर्थ में साधुओं के यावत्कथिकसामायिक - चारित्र होता है। क्योंकि उनके उपस्थापना नहीं होती, अर्थात्उन्हें महाव्रतारोपण के लिए दूसरी बार दीक्षा नहीं दी जाती। इस प्रकार के सामायिकचारित्र की आराधना के कारण से जो आर्य हैं वे सामायिकचारित्रार्य कहलाते हैं ।
छेदोपस्थापनिक - चारित्रार्य — जिस चारित्र में पूर्वपर्याय का छेद, और महाव्रतों में उपस्थापन किया जाता है वह छेदोपस्थापनचारित्र है । वह दो प्रकार का है - सातिचार और निरतिचार । निरतिचार छेदोपस्थापनचारित्र वह है - जो इत्वरिक सामायिक वाले शैक्ष (नवदीक्षित) को दिया जाता है अथवा एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने पर अंगीकार किया जाता है । जैसे पार्श्वनाथ के तीर्थ से वर्द्धमान के तीर्थ में आने वाले श्रमण को पंचमहाव्रतरूप चारित्र स्वीकार करने पर दिया जाने वाला छेदोस्थापनचारित्र निरतिचार है। सातिचार छेदोपस्थापनचारित्र वह है जो मूलगुणों (महाव्रतों) में से किसी का विघात करने वाले साधु को पुनः महाव्रतोच्चारण के रूप में दिया जाता है। यह दोनों ही प्रकार का छेदोपस्थापनचारित्र स्थितकल्प में - अर्थात् - प्रथम और चरम तीर्थंकरों के तीर्थ में होता है, मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के तीर्थ में नहीं। छेदोपस्थापनचारित्र की आराधना करने के कारण साधक को छेदोपस्थापनचारित्रार्य कहा जाता है।
परिहारविशुद्धिचारित्रार्य का स्वरूप —- परिहार एक विशिष्ट तप है, जिससे दोषों का परिहार किया जाता है। अत: जिस चारित्र में उक्त परिहार तप से विशुद्धि प्राप्त होती है, उसे परिहारविशुद्धिचारित्र कहते हैं। उसके दो भेद हैं-निर्विशमानक और निर्विष्टकायिक ! जिस चारित्र में साधक प्रविष्ट होकर उस तपोविधि के अनुसार तपश्चरण कर रहे हों, उसे निर्विशमानकचारित्र कहते हैं और जिस चारित्र में साधक तपोविधि के अनुसार तप का आराधन कर चुके हों, उस चारित्र का नाम निर्विष्टकायिकचारित्र है। इस प्रकार के चारित्र अंगीकार करने वाले साधकों को भी क्रमशः निर्विशमान और निर्विष्टकायिक कहा
ता है। नौ साधु मिलकर इस परिहारतप की आराधना करते हैं । उनमें से चार साधु निर्विशमानक होते हैं। जो इस तप को करते हैं और चार साधु उनके अनुचारी अर्थात् वैयावृत्त्य करने वाले होते हैं तथा एक साधु कल्पस्थित 'वाचनाचार्य होता है । यद्यपि सभी साधु श्रुतातिशयसम्पन्न होते हैं, तथापि यह एक प्रकार का कल्प होने के कारण उनमें एक कल्पस्थित आचार्य स्थापित कर लिया जाता है । निर्विशमान साधुओं का परिहारतप इस प्रकार होता है - ज्ञानीजनों ने पारिहारकों का शीतकाल, उष्णकाल और वर्षाकाल में जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट तप इस प्रकार बताया है - ग्रीष्मकाल में जघन्य चतुर्थभक्त, मध्यम षष्ठभक्त और उत्कृष्ट अष्टमभक्त होता है, शिशिरकाल में जघन्य षष्ठभक्त (बेला), मध्यम अष्टमभक्त (तेला) और उत्कृष्ट दशमभक्त ( चौला) तप होता है । वर्षाकाल में जघन्य अष्टमभक्त, मध्यम दशमभक्त और उत्कृष्ट द्वादशभक्त (पंचौला) तप । पारणे में आयम्बिल किया जाता है । भिक्षा में पांच (वस्तुओं) का ग्रहण और दो का अभिग्रह होता है । कल्पस्थित भी प्रतिदिन इसी प्रकार आयम्बिल करते हैं । इस प्रकार छह महीने तक तप करके पारिहारिक ( निर्विशमानक) साधु अनुचारी ( वैयावृत्य करने वाले) बन जाते हैं; और जो चार अनुचारी थे, वे छह महीने के लिए पारिहारिक बन जाते हैं । इसी प्रकार कल्पस्थित