Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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१२२]
[ प्रज्ञापना सूत्र
[१४६ - १ प्र.] ग्रैवेयक देव कितने प्रकार के हैं ?
[१४६ - १ उ.] ग्रैवेयक देव नौ प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार - (१) अधस्तन - अधस्तनग्रैवेयक, (२) अधस्तन-मध्यम-ग्रैवेयक, (३) अधस्तन - उपरिम-ग्रैवेयक, (४) मध्यम - अधस्तन-ग्रैवेयक, (५) मध्यम- मध्यम-ग्रैवेयक, (६) मध्यम - उपरिम-ग्रैवेयक, (७) उपरिम- अधस्तन-ग्रैवेयक, (८) उपरिम- मध्यम-ग्रैवेयक और (९) उपरिम- उपरिम- ग्रैवेयक में रहने वाले ।
[२] ते समासतो दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य । से तं गेवेज्जगा । [१४६-२] ये (उपर्युक्त नौ प्रकार के ग्रैवेयक देव) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं—पर्याप्तक और अपर्याप्तक। यह ग्रैवेयकों का निरूपण हुआ ।
१४७. [१] से किं तं अणुत्तरोववाइया ?
अणुत्तरोववाइया पंचविहा पण्णत्ता । तं जहा - विजया १ वेजयंता २ जयंता ३ अपराजिता ४ सव्वसिद्धा ५ ।
[१४७ - १ प्र.] अनुत्तरौपपातिक देव कितने प्रकार के हैं ?
[१४७-१ उ.] अनुत्तरौपपातिक देव पांच प्रकार के कहे गए हैं - ( १ ) विजय, (२) वैजयन्त, (३) जयन्त, (४) अपराजित और (५) सर्वार्थसिद्ध, (विमानों में रहने वाले ) ।
[२] ते समासतो दुविहा पण्णत्ता । तं जहा - पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य से त्तं अणुत्तरोववाइया । सेत्तं कप्पाईया । से त्तं वेमाणिया । से त्तं देवा । से त्तं पंचिंदिया । से त्तं संसारसमावण्णजीवपण्णवणा । सेत्तं जीवपण्णवणा । से त्तं पण्णवणा ।
॥ पण्णवणाए भगवईए पढमं पण्ण्वणापयं समत्तं ॥
[१४७-२] ये संक्षेप में दो प्रकार के हैं - पर्याप्तक और अपर्याप्तक । यह हुई अनुत्तरौपपातिक देवों की प्ररूपणा । साथ ही उक्त कल्पातीत देवों का निरूपण पूर्ण हुआ, और इससे सम्बन्धित वैमानिक देवों का निरूपण भी पूर्ण हुआ। इसके पूर्ण होने पर देवों का वर्णन भी पूर्ण हुआ। साथ ही पंचेन्द्रिय जीवों का वर्णन भी पूरा हुआ। इसकी समाप्ति के साथ ही उक्त संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना पूर्ण हुई; और इससे सम्बन्धित जीवप्रज्ञापना भी समाप्त हुई । इस प्रकार यह प्रथम प्रज्ञापनापद पूर्ण हुआ ।
विवेचन —- चतुर्विध देवों की प्रज्ञापना- प्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. १३९ से १४७ तक) में चार प्रकार के देवों के भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा की गई है। 1
भवनवासी देवों का स्वरूप- जो देव प्रायः भवनों में निवास किया करते हैं, वे भवनवासी देव कहलाते हैं। यह कथन बहुलता से नागकुमार आदि देवों की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि वे ( नागकुमारादि) ही प्राय: भवनों में निवास करते हैं, कदाचित् आवासों में भी रहते हैं; किन्तु असुरकुमार