Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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बिइयं ठाणपयं
द्वितीय स्थानपद
प्राथमिक 0 प्रज्ञापनासूत्र का यह द्वितीय स्थानपद है। 9 प्रथम पद में संसारी और सिद्ध, इन दो प्रकार के जीवों के भेद-प्रभेद बताए गए हैं। उन-उन जीवों
के निवासस्थान का जानना आवश्यक होने से इस द्वितीय 'स्थानपद' में उसका विचार किया गया
0 जीवों के निवासस्थान का विचार करना इसलिए भी आवश्यक है कि अन्य दर्शनों की तरह जैनदर्शन
में आत्मा को सर्वव्यापक नहीं, किन्तु उस-उस जीव के शरीरप्रमाणव्यापी संकोचविकासशील माना गया है। इसके अतिरिक्त जैनदर्शन में अन्य दर्शनों की मान्यता की तरह आत्मा कूटस्थनित्य नहीं, किन्तु परिणामीनित्य मानी गई है। इस कारण संसार में नाना पर्यायों के रूप में उसका जन्म होता है तथा नियत स्थान से ही वह शरीर धारण करती है। अतएव कौन-सा जीव किस स्थान में होता है? इसका विचार करना अनिवार्य हो जाता है। दूसरे दर्शनों की दृष्टि से जीव सदैव सर्वत्र लोक में उपलब्ध हैं ही, वे केवल शरीर की दृष्टि से भले ही निवास स्थान का विचार कर लें, आत्मा की
दृष्टि से जीव के स्थान का विचार उनके लिए अनिवार्य नहीं। 0 प्रस्तुत 'स्थानपद' में अंकित मूलपाठ के अनुसार जीव के दो प्रकार के निवासस्थान फलित होते
हैं—(१) स्थायी और (२) प्रासंगिक। जन्म धारण करने से लेकर मृत्यु पर्यन्त जीव जहाँ (जिस स्थान में) रहता है, उस निवास स्थान को स्थायी कहा जा सकता है, शास्त्रकार ने जिसका उल्लेख 'स्वस्थान' के नाम से किया है। प्रासंगिक निवासस्थान का विचार 'उपपात' और 'समुद्घात' इन
दो प्रकारों से किया गया है। - जैनशास्त्रीय परिभाषानुसार पूर्वभय की आयु समाप्त (मृत्यु) होते ही जीव नये नाम (पर्याय) से
पहचाना जाता है। उदाहरणार्थ कोई जीव पूर्वभव में देव था, किन्तु वहाँ से मर कर वह मनुष्य होने वाला हो तो देवायु समाप्त होने से वह मनुष्य नाम से पहचाना जाता है। परन्तु जीव (आत्मा) सर्वव्यापक न होने से, शरीरप्रमाणव्यापी जीव को मृत्यु के पश्चात् नया जीवन स्वीकार करने हेतु यात्रा करके स्वजन्मस्थान में जाना पड़ता है। क्योंकि देवलोक तो उस जीव ने छोड़ दिया और मनुष्यलोक में अभी तक पहुँचा नहीं है, तब तक उसका यह यात्राकाल है। इस यात्रा के दौरान उस
जीव ने जिस प्रदेश की यात्रा की, वह भी उसका स्थान तो है ही। इसी स्थान को शास्त्रकार ने १. (क) प्रमाणनयतत्त्वालोक (रत्नाकरावतारिका) परि. ४
(ख) पण्णवणासुत्तं पद २ को प्रस्तावना भा. २, पृ. ४७-४८