Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
१२६]
[ प्रज्ञापना सूत्र
'उपपातस्थान' कहा है। स्पष्ट है कि यह स्थान प्रासंगिक है, फिर भी अनिवार्य तो है ही। । दूसरा प्रासंगिक स्थान है—'समुद्घात' । वेदना मृत्यु या विक्रिया आदि के विशिष्ट प्रसंगों पर
जैनमतानुसार जीव के प्रदेशों का विस्तार होता है, जिसे जैन परिभाषा में 'समुद्घात' कहते हैं; जो कि अनेक प्रकार का है। समुद्घात के समय जीव के (आत्म-) प्रदेश शरीर स्थान में रहते हुए भी किसी न किसी स्थान में बाहर भी समुद्घात पर्यन्त रहते हैं। अतः समुद्घात की अपेक्षा से जीव के इस प्रासंगिक या कादाचित्क निवासस्थान का विचार भी आवश्यक है। इसीलिए प्रस्तुत पद में नानाविध जीवों के विषय में स्वस्थान, उपपातस्थान और समुद्घातस्थान, यों तीन प्रकार के निवासस्थानों का विचार किया गया है। षट्खण्डागम में भी खेत्ताणुगमप्रकरण में स्वस्थान, उपपात और समुद्घात
को लेकर स्थान-क्षेत्र का विचार किया गया है। । प्रस्तुत 'स्थानप्रद' में जीवों के जिन भेदों के स्थानों के विषय में विचार और क्रम बताया गया है,
उस पर से मालूम होता है कि प्रथमपद में निर्दिष्ट जीवभेदों में से एकेन्द्रिय जैसे कई सामान्य भेदों का विचार नहीं किया गया है, किन्तु 'पंचेन्द्रिय' जैसे सामान्य भेदों का विचार किया गया है। प्रथमपद-निर्दिष्ट सभी विशेष भेद-प्रभेदों के स्थानों का विचार प्रस्तुत पद में नहीं किया गया है, किन्तु मुख्य-मुख्य भेद-प्रभेदों के स्थानों का विचार किया गया है। । अन्य सभी जीवों के भेद-प्रभेदों के स्थान के विषय में विचार करते समय पूर्वोक्त तीनों स्थानों का विचार किया गया है, परन्तु सिद्धों के विषय में केवल 'स्वस्थान' का ही विचार किया गया है। इसका कारण यह है कि सिद्धों का उपपात नहीं होता; क्योंकि अन्य जीवों को उस-उस जन्मस्थान को प्राप्त करने से पूर्व उस-उस नाम, गोत्र और आयु कर्म का उदय होता है, इस कारण से नाम धारण करके, नया जन्म ग्रहण करने हेतु उस गति को प्राप्त करते हैं। सिद्धों के कर्मों का अभाव है, इस कारण सिद्ध रूप में उनका जन्म नहीं होता, किन्तु वे स्व (सिद्धि) स्थान की दृष्टि से स्वस्वरूप को प्राप्त करते हैं, वही उनका स्वस्थान है। मुक्त जीवों की लोकान्त-स्थान तक जो गति होती है, वह जैनमान्यतानुसार आकाश प्रदेशों को स्पर्श करके नहीं होती, इसलिए मुक्त जीवों का गमन होते हुए भी आकाशप्रदेशों का स्पर्श न होने से उस-उस प्रदेश में सिद्धों का 'स्थान' होना नहीं कहलाता। इस दृष्टि से सिद्धों का उपपातस्थान नहीं होता। समुद्घातस्थान भी सिद्धों को नहीं होता, क्योंकि समुद्घात कर्मयुक्त जीवों के होता है, सिद्ध कर्मरहित हैं। इसलिए सिद्धों के विषय में स्वस्थान'
का ही विचार किया गया है। १. (क) पण्ण्वणासुत्तं (मूलपाठ) भा. १., पृ. ४६ से ८०
(ख) पण्ण्वणासुत्तं पद २ की प्रस्तावना भा. २, पृ. ४७-४८ (ग) षटखण्डागम पुस्तक ७, पृ. २९९