Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
११६ ]
[ प्रज्ञापना सूत्र
सम्यक् चारित्र से युक्त जनों को चारित्रार्य बतलाया है। इन सबके अवान्तर भेद - प्रभेद विभिन्न अपेक्षाओं से बताए हैं। इन सब अवान्तर भेदों वाले भी ज्ञानार्य, दर्शनार्य एवं चारित्रार्य में ही परिगणित होते हैं। सरागदर्शनार्य और वीतरागदर्शनार्य — जो दर्शन राग अर्थात् कषाय से युक्त होता है, वह सरागदर्शन तथा जो दर्शन राग अर्थात् कषाय से रहित हो वह वीतरागदर्शन कहलाता है। सरागदर्शन की अपेक्षा से आर्य सरागदर्शनार्य और वीतरागदर्शन की अपेक्षा से आर्य वीतरागदर्शनार्य कहलाते हैं। सरागदर्शन के निसर्गरुचि आदि १० प्रकार हैं । परमार्थसंस्तव आदि तीन लखण हैं और निःशंकित आदि ८ आचार हैं। वीतरागदर्शन दो प्रकार का है - उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय । इन दोनों के कारण जो आर्य हैं, उन्हें क्रमशः उपशान्तकषायदर्शनार्य और क्षीणकषायदर्शनार्य कहा जाता है । उपशान्तकषाय- वीतरागदर्शनार्य वे हैं-जिनके समस्त कषायों का उपशमन हो चुका है अतएव जिनमें वीतरागदशा प्रकट हो चुकी है, ऐसे ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि । क्षीणकषायवीतरागदर्शनार्य वे हैं - जिनके समस्त कषाय समूल क्षीण हो चुके हैं, अतएव जिनमें वीतरागदशा प्रकट हो चुकी है, वे बारहवें से लेकर चौदहवें गुणस्थानवर्ती महामुनि। जिन्हें इस अवस्था में पहुँचे प्रथम समय ही हो, वे प्रथमसमयवर्ती, और जिन्हें एक समय से अधिक हो गया हो, वे अप्रथमसमयवर्ती कहलाते हैं । इसी प्रकार चरमसमयवर्ती और अचरसमयवर्ती ये दो भेद समयभेद के कारण हैं ।
क्षीणकषाय- वीतरागदर्शनार्य के भी अवस्थाभेद से दो प्रकार हैं- जो बारहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग हैं, वे छद्मस्थ हैं और जो तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवाले हैं, वे केवली हैं । बारहवें गुणस्थानवर्ती छद्मस्थक्षीणकषायवोतराग भी दो प्रकार के हैं - स्वयंबुद्ध और बुद्धबोधित । फिर इन दोनों में से प्रत्येक के अवस्थाभेद से दो-दो भेद पूर्ववत् होते हैं- प्रथमसमयवर्ती और अप्रथमसमयवर्ती, तथा चरमसमयवर्ती और अचरसमयवर्ती । स्वामी के भेद के कारण दर्शन में भी भेद होता है और दर्शनभेद से उनके व्यक्तित्व ( आर्यत्व) में भी भेद माना गया है। केवलिक्षीणकषायवीतरागदर्शनार्य के सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, ये दो भेद होते हैं। जो केवलज्ञान तो प्राप्त कर चुके, लेकिन अभी तक योगों से युक्त हैं, वे सयोगिकेवली, और जो केवली अयोग दशा प्राप्त कर चके, वे अयोगिकेवली कहलाते हैं । वे सिर्फ चौदहवें गुणस्थान वाले होते हैं। इन दोनों के भी समयभेद से प्रथमसमयवर्ती और अप्रथमसमयवर्ती अथवा चरमसमयवर्ती और अचरसमयवर्ती, यों प्रत्येक के चार-चार भेद हो जाते हैं। इनके भेद से दर्शन में भी भेद माना गया है और दर्शनभेद के कारण दर्शननिमित्तक आर्यत्व में भी भेद होता है ।
सरागचारित्रार्य और वीतरागचारित्रार्य - रागसहित चारित्र अथवा रागसहितपुरुष के चारित्र को सरागचारित्र और जिस चारित्र में राग का सद्भाव न हो, या वीतरागपुरुष का जो चारित्र हो, उसे वीतरागचारित्र कहते हैं । सरागचारित्र के दो भेद हैं- सूक्ष्मसम्पराय - सरागचारित्र ( जिसमें सूक्ष्म कषाय की विद्यमानता होती है) तथा बादरसम्पराय - सरागचारित्र ( जिसमें स्थूल कषाय हो, वह ) । इनसे जो आर्य हो, वह तथारूप आर्य होता है। सूक्ष्मसम्पराय चारित्रार्य के अवस्था भेद से चार भेद बताए हैं-प्रथमसमयवर्ती व