Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
११२]
[प्रज्ञापना सूत्र __ वे ज्वरादि रोग, भूत, प्रेत, यक्ष आदि की ग्रस्तता, महामारी आदि विपत्तियों के उपद्रव से भी रहित होते हैं। उनमें परस्पर स्वामि-सेवक का व्यवहार नहीं होता, अतएव सभी अहमिन्द्र जैसे होते हैं। उनकी पीठ में ६४ पसलियाँ होती हैं। उनका आहार एक चतुर्थभक्त (उपवास) के बाद होता है और आहार भी शालि आदि धान्य से निष्पन्न नहीं, किन्तु पृथ्वी की मिट्टी एवं कल्पवृक्षों के पुष्प, फल का होता है। क्योंकि वहाँ चावल, गेहूँ, मूंग, उड़द आदि अन्न होते हुए भी वे मनुष्यों के उपभोग में नहीं आते, वहाँ की पृथ्वी ही शक्कर से अनन्तगुणी मधुर है, तथा कल्पवृक्षों के पुष्प-फलों का स्वाद-चक्रवर्ती के भोजन से भी अनेक गुणा अच्छा है। वे इस प्रकार का स्वादिष्ट आहार करके प्रासाद के आकार के जो गृहाकार कल्पवृक्ष होते हैं, उनमें सुख से रहते हैं। उस क्षेत्र में डांस, मच्छर, जूं, खटमल, आदि शरीरोपद्रवकारी जन्तु पैदा नहीं होते। जो भी सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि वहाँ होते हैं, वे मनुष्यों को कोई पीड़ा नहीं पहुँचाते। उनमें परस्पर हिंस्य-हिंसकभाव का व्यवहार नहीं है। क्षेत्र के प्रभाव से वहाँ के जीव रौद्र (भयंकर) स्वभाव से रहित होते हैं। वहाँ के मनुष्यों (स्त्री-पुरुषों) का जोड़ा अपने अवसान के समय एक जोड़े (स्त्री-पुरुष) को जन्म देता है और ७९ दिन तक उसका पालन-पोषण करता है। उनके शरीर की ऊँचाई ८०० धनुष की और उनकी आयु पल्योयम के असंख्यातवें भाग जितनी होती हैं। वे मन्दकषायी, मन्दराग-मोहानुबन्ध के कारण मर कर देवलोक में जाते हैं। उनका मरण भी जंभाई, खांसी या छींक आदि से होता है, किन्तु किसी शरीरपीड़ापूर्वक नहीं।
अन्तरद्वीपगों के अन्तरद्वीप कहां और कैसी स्थिति में ?—आगमानुसार छप्पन अन्तरद्वीपगों के अन्तरद्वीप हिमवान् और शिखरी इन दो पर्वतों की लवणसमुद्र में निकली दाढ़ाओं पर स्थित हैं। हिमवान् पर्वत के अट्ठाईस अन्तरद्वीपों का वर्णन-जम्बूद्वीप में भरत और हैमवत क्षेत्रों की सीमा का विभाजन करने वाला हिमवान् नामक पर्वत है। यह भूमि में २५ योजन गहरा और सौ योजन ऊँचा तथा भरत क्षेत्र से दुगुना विस्तृत, हेममय चीनांशुक के-से वर्ण वाला है। उसके दोनों पार्श्व नाना वर्णों से विशिष्ट कान्तिमय मणिसमूह से परिमण्डित हैं। उसका विस्तार ऊपर-नीचे सर्वत्र समान है। वह गगनमण्डल को स्पर्श करने वाले रत्नमय ग्यारह कटों से सशोभित है. उसका तल वज्रमय है. तटभाग विविध मणियों और सोने से सुशोभित है। वह दस योजन में अवगाहित-जगह घेरे हुए है। वह पूर्व-पश्चिम में हजार योजन लम्बा और दक्षिण-उत्तर में पांच योजन विस्तीर्ण है। उसके मध्यभाग में पद्मह्रद है तथा चारों ओर कल्पवृक्षों की पंक्ति से अतीव कमनीय है। वह पूर्व और पश्चिम के छोरों (अन्तों) से लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। लवणसमुद्र के जल के स्पर्श से लेकर पूर्व-पश्चिम दिशा में दो गजदन्ताकार दाढ़ें निकली हैं। उनमें से ईशानकोण में जो दाढ़ा निकली है, उस प्रदेश में हिमवान् पर्वत से तीन सौ योजन की दूरी पर लवणसमुद्र में ३०० योजन लम्बा-चौड़ा तथा कुछ कम ९४९ योजन की परिधिवाला एकोरुक नामक द्वीप है। जो कि ५०० धनुष विस्तृत, दो गाऊ ऊँची पद्मवरवेदिका से चारों ओर से मण्डित है। उसी हिमवान् पर्वत के पर्यन्तभाग से दक्षिण-पूर्वकोण में तीन सौ योजन दूर स्थित लवणसमुद्र का अवगाहन