Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापना सूत्र
आदि। वल्ली - ऐसी बेलें जो विशेषतः जमीन पर ही फैलती हैं, वे वल्लियां कहलाती हैं। उदाहरणार्थकालिंगी (तरबूज की बेल), तुम्बी (तूम्बे की बेल), कर्कटिकी (ककड़ी की बेल), एला (इलायची की बेल) आदि। पर्वक-जिन वनस्पतियों में बीच-बीच में पर्व-पोर या गांठे हों वे पर्वक वनस्पतियां कहलाती हैं। जैसे-इक्षु, सुंठ, बेंत आदि। तृण-हरी घास आदि को तृण कहते हैं। जैसे-कुश, अर्जुन, दूब आदि। वलय -वलय के आकार की गोल-गोल पत्तों वाली वनस्पति वलय कहलाती है। जैसे-ताल (ताड़) कदली (केले) आदि के पौधे। औषधि-जो वनस्पति फल (फसल) के पक जाने पर दानों के रूप में होती है, वह औषधि कहलाती है। जैसे- गेहूँ , चावल, मसूर, तिल, मूंग आदि। हरित- विशेषतः हरी सागभाजी को हरित कहते हैं—जैसे-चन्दलिया, वथुआ, पालक आदि। जलरुह-जल में उत्पन्न होने वाली वनस्पति जलरुह कहलाती है। जैसे-पनक, शैवाल, पद्म, कुमुद, कमल आदि। कुहण-भूमि को तोड़ कर निकलने वाली वनस्पतियां कुहण कहलाती हैं। जैसे छत्राक (कुकुरमुत्ता) आदि।
प्रत्येकशरीरी अनेक जीवों का एक शरीराकार कैसे ? प्रथम दृष्टान्त : जैसे-पूर्ण सरसों के दानों को किसी श्लेषद्रव्य से मिश्रित कर देने पर वे बट्टी के रूप में एकरूप-एकाकार हो जाते हैं । यद्यपि वे सब सरसों के दाने परिपूर्ण शरीर वाले होने के कारण पृथक्-पृथक् अपनी-अपनी अवगाहना में रहते हैं, तथापि श्लेषद्रव्य से परस्पर चिपक जाने पर वे एकरूप प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक शरीरी जीवों के शरीरसंघात भी परिपूर्ण शरीर होने के कारण पृथक्-पृथक् अपनी-अपनी अवगाहना में रहते हैं, परन्तु विशिष्ट कर्मरूपी श्लेषद्रव्य से मिश्रित होने के कारण वे जीव भी एक-शरीरात्मक, एकरूप एवं एकशरीराकार प्रतीत होते हैं।
द्वितीय दृष्टान्त - जैसे तिलपपड़ी बहुत-से तिलों में एकमेक होने से (गुड़ आदि श्लेषद्रव्य से मिश्रित करने से) बनती है। उस तिलपपड़ी में तिल अपनी-अपनी अवगाहना में स्थित होकर अलगअलग रहते हैं, फिर भी वह तिलपट्टी एकरूप प्रतीत होती। इसी प्रकार प्रत्येक शरीरी जीवों के शरीरसंघात पृथक्-पृथक् होने पर भी एकरूप प्रतीत होते हैं। ____ अनन्तजीवों वाली वनस्पति के लक्षण – (१) टूटे हुए या तोड़े हुए जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पुष्प, फल, बीज का भंग प्रदेश समान अर्थात्-चक्राकार दिखाई दे, उन मूल आदि को अनन्तजीवों वाले समझने चाहिए। (२) जिस मूल, कन्द, स्कन्ध और शाखा के काष्ठ यानी मध्यवर्ती सारभाग की अपेक्षा छाल अधिक मोटी हो, उस छाल को अनन्तजीव वाली समझनी चाहिए। (३) जिस मूल, कंद, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, पत्र और पुष्प आदि के तोड़े जाने पर उसका भंगस्थान चक्र के आकार का एकदम सम हो, वह मूल, कन्द आदि अनन्तजीव वाला समझना चाहिए। (४) जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, छाल, शाखा, पत्र और पुष्प आदि के तोड़े जाने पर पर्व-गांठ या भंगस्थान रज से व्याप्त होता है, अथवा जिस पत्र आदि को तोड़ने पर चक्राकार का भंग नहीं दिखता और भंग (ग्रन्थि) स्थान भी रज
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ३० से ३२ २. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक ३३