Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम प्रज्ञापनापद] कोत्थलवाहगा जूया हालाहला पिसुया सतवाइया गोम्ही हत्थिसोंडा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा। सव्वेते सम्मुच्छिम-णपुंसगा।
[५७-१ प्र.] वह (पूर्वोक्त) त्रीन्द्रिय-संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना किस प्रकार की है ?
[५७-१ उ.] त्रीन्द्रिय-संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना अनेक प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है-औपयिक, रोहिणीक, कंथु (कुंथुआ), पिपीलिका (चींटी, कीड़ी), उद्देशक, उद्देहिका (उदईदीमक), उत्कलिक, उत्पाद, उत्कट, उत्पट, तृणहार, काष्ठाहार (धुन), मालुक, पत्राहार, तृणवृन्तिक, पत्रवृन्तिक, पुष्पवृन्तिक, फलवृन्तिक, बीजवृन्तिक, तेदुरणमज्जिक (तेवुरणमिजिक या तम्बुरुण-उमज्जिक), त्रपुषमिंजिक, कार्पासास्थिमिंजिक, हिल्लिक, झिल्लिक, झिंगिरा (झींगूर), किंगिरिट, बाहुक, लघुक, सुभग, सौवस्तिक, शुकवृन्त, इन्द्रिकायिक (इन्द्रकायिक), इन्द्रगोपक (इन्द्रगोप-बीरबहूटी), उरुलुंचक (तुरुतुम्बक), कुस्थलवाहक, यूका (जू), हालाहक, पिशुक (पिस्सू-खटमल), शतपादिका (गजाई), गोम्ही (गोम्मयी), और हस्तिशौण्ड। इसी प्रकार के जितने भी अन्य जीव हों, उन्हें त्रीन्द्रिय-संसारसमापन्न समझना चाहिए।) ये (उपर्युक्त) सब सम्मूछिम और नपुंसक हैं।
[२] ते समासतो दुविहा पण्णत्ता। तं जहा–पज्जत्तगा य अपजत्तगा य। एएसि णं एवमाइयाणं तेइंदियाणं पजत्ताऽपजत्ताणं अट्ठ जातिकुलकोडिजोणिप्पमुहसतसहस्सा भवंतीति मक्खायं। से तं तेंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा।
[५७-२] ये (पूर्वोक्त त्रीन्द्रिय जीव) संक्षेप में, दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-पर्याप्तक और अपर्याप्क। इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक त्रीन्द्रियजीवों के आठ लाख जाति कुलकोटि-योनिप्रमुख (योनिद्वार) होते हैं, ऐसा कहा है। यह हुई उन त्रीन्द्रिय-संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना।
_ विवेचन—त्रीन्द्रिय-संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना–प्रस्तुत सूत्र (सू. ५७) में तीन इन्द्रियों वाले अनेक जाति के जीवों का निरूपण किया गया है।
गोम्ही का अर्थ-वृत्तिकार ने इसका अर्थ-'कर्णसियालिया' किया है। हिन्दी भाषा में इसे कनसला या कानखजूरा भी कहते हैं।' चतुरिन्द्रिय-संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना
५८. [१] से किं तं चउरिदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा? चउरिदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहाअंधिय णेत्तिय मच्छिय मगमिगकीडे तहा पयंगे य। ढिंकुण कुक्कुड कुक्कुह णंदावत्ते य सिंगिरिडे॥ ११०॥
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय, वृत्ति, पत्रांक ४२ पाठान्तर- २. पोत्तिय।।
३. मसगाकीडे, मणसिरकीडे, मगासकीडे।