Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम प्रज्ञापनापद]
[९१ ___ 'आसालिया कहिं संमुच्छइ ?' इस वाक्य में प्रयुक्त 'संमुच्छइ' क्रियापद से स्पष्ट सूचित होता है कि 'आसालिका' या 'आसालिक' गर्भज नहीं, किन्तु सम्मूर्छिम हैं।
___ आसालिका की उत्पत्ति मनुष्यक्षेत्र के अन्दर अढाई द्वीपों में होती है; वस्तुतः मनुष्यक्षेत्र, अढाई द्वीप की ही कहते हैं, किन्तु यहाँ जो अढाई द्वीप में इनकी उत्पत्ति बताई है, वह यह सूचित करने के लिए है कि आसालिका की उत्पत्ति अढाई द्वीपों में ही होती है, लवणसमुद्र में या कालोदधि समुद्र में नहीं। किसी प्रकार के व्याघात के अभाव में वह १५ कर्मभूमियों में उत्पन्न होता है, इसका रहस्य यह है कि अगर ५ भरत एवं ५ ऐरवत क्षेत्रों में व्याघातहेतुक सुषम-सुषम आदि रूप या दुःषम-दुःषम आदिरूप काल व्याघातकारक न हों, तो १५ कर्मभूमियों में आसालिका की उत्पत्ति होती है। यदि ५ भरत और ५ ऐरवत क्षेत्र में पूर्वोक्त रूप को कोई व्याघात हो तो फिर वहाँ वह उत्पन्न नहीं होता। ऐसी (व्याघातकारक) स्थिति में वह पांच महाविदेहक्षेत्रों में उत्पन्न होता है। इससे यह भी ध्वनित हो जाता है कि तीस अकर्मभूमियों में आसालिका की उत्पत्ति नहीं होती तथा १५ कर्मभूमियों एवं महाविदेहों में भी इसकी सर्वत्र उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु चक्रवर्ती, बलदेव आदि के स्कन्धावारों (सैनिक छावनियों) में वह उत्पन्न होता है। इनके अतिरिक्त ग्राम-निवेश से लेकर राजधानी-निवेश तक में से किसी में भी इसकी उत्पत्ति होती है; और वह भी जब चक्रवर्ती आदि के स्कन्धावारों या ग्रामादि-निवेशों का विनाश होने वाला हो। स्कन्धावारों या निवेशों के विनाशकाल में उनके नीचे की भूमि को फाड़कर उसमें से यह आसालिका निकलती है। यही आसालिका की उत्पत्ति की प्ररूपणा है। आसालिका की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातर्वे भाग की, उत्कृष्ट बारह योजन की होती है। उसका विस्तार और मोटाई अवगाहना के अनुरूप होती है। आसालिका असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होता है। इसकी आयु सिर्फ अन्तर्मुहूर्त भर की होती है।
महोरगों का स्वरूप और स्थान—महोरग एक अंगुल की अवगाहना से लेकर एक हजार योजन तक की अवगाहना वाले होते हैं। ये स्थल में उत्पन्न होकर भी जल में भी संचार करते हैं, स्थल में भी; क्योंकि इनका स्वभाव ही ऐसा है। महोरग इस मनुष्यक्षेत्र में नहीं होते, किन्तु इससे बाहर के द्वीपों और समुद्रों में, तथा समुद्रों में भी पर्वत, देवनगरी आदि स्थलों में उत्पन्न होते हैं। अत्यन्त स्थूल होने के कारण ये जल में उत्पन्न नहीं होते। इसी कारण ये मनुष्यक्षेत्र में नहीं दिखाई देते। मूलपाठ में उक्त लक्षण वाले दस अंगुल आदि की अवगाहना वाले जो उरःपरिसर्प हों, उन्हें महोरग समझना चाहिए।
_ 'दर्वीकर' और 'मुकुली' शब्दों का अर्थ-दर्वी कहते हैं—कुडछी या चाटु को, उसकी तरह दर्वी या फणा करने वाला दर्वीकर है। मुकुली अर्थात्-फन उठाने की शक्ति से विकल, जो बिना फन का हो।
२. वही मलय वृत्ति, पत्रांक ४८
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ४७-४८ ३. वही मलय. वृत्ति पत्रांक ४७