Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ प्रज्ञापना सूत्र
[९१-४] इस प्रकार चर्मपक्षी इत्यादि इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों के बारह लाख जाति-कुलकोटि-योनिप्रमुख होते हैं, ऐसा कहा है।
[संग्रहणी गाथार्थ—] (द्वीन्द्रियजीवों की) सात लाख जातिकुलकोटि, (त्रीन्द्रियों की) आठ लाख, (चतुरिन्द्रियों की) नौ लाख, (जलचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की) साढ़े बारह लाख, (चतुष्पद-स्थलचर पंचेन्द्रियों की) दस लाख, (उर:परिसर्प-स्थलचर पंचेन्द्रियों की) दस लाख, (भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रियों की) नौ लाख तथा (खेचर-पंचेन्द्रियों की) बारह लाख, (यों द्वीन्द्रिय से लेकर खेचर पंचेन्द्रिय तक की क्रमशः) समझनी चाहिए ॥ १११॥
यह खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों की प्ररूपणा हुई। इस समाप्ति के साथ ही पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीवों की प्ररूपणा भी समाप्त हुई और इसके साथ ही समस्त तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की प्ररूपणा भी पूर्ण हुई।
विवेचन-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीवों की प्रज्ञापना—प्रस्तुत इकतीस सूत्रों (सू. ६१ से ९१ तक) में शास्त्रकार ने पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के जलचर आदि तीनों प्रकारों के भेद-प्रभेदों तथा उनकी विभिन्न जातियों एवं जातिकुलकोटियों की संख्या का विशद निरूपण किया है।
गर्भज और सम्मूर्छिम की व्याख्या—जो जीव गर्भ में उत्पन्न होते हैं, वे माता-पिता के संयोग से उत्पन्न होने वाले गर्भव्युत्क्रान्तिक या गर्भज कहलाते हैं। जो जीव माता-पिता के संयोग के बिना ही, गर्भ या उपपात के बिना, इधर-उधर के अनुकूल पुद्गलों के इकट्ठे हो जाने से उत्पन्न होते हैं, वे सम्मूच्छिम कहलाते हैं। सम्मूछिम सब नपुंसक ही होते हैं; किन्तु गर्भजों में स्त्री, पुरुष और नपुंसक,ये तीनों प्रकार होते हैं।
तिर्यञ्चयोनिक शब्द का निर्वचन—जो 'तिर्' अर्थात् कुटिल-टेढ़े-मेढ़े या वक्र, 'अञ्चन' अर्थात् गमन करते हैं, उन्हें तिर्यञ्च कहते हैं। उनकी योनि अर्थात्-उत्पत्तिस्थान को 'तिर्यग्योनि' कहते हैं। तिर्यग्योनि में जन्मने—उत्पन्न होने वाले तैर्यग्योनिक हैं। ___'उरःपरिसर्प' और 'भुजपरिसर्प का अर्थ—जो अपनी छाती (उर) से रेंग (परिसर्पण) करके चलते हैं, वे सर्प आदि स्थलचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय 'उरःपरिसर्प' कहलाते हैं और जो अपनी भुजाओं के सहारे चलते हैं, ऐसे नेवले, गोह आदि स्थलचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय प्राणी 'भुजपरिसर्प' कहलाते हैं। ___'आसालिका' (उरःपरिसर्प) की व्याख्या- 'आसालिया' शब्द के संस्कृत में दो रूपान्तर होते हैं-आसालिका और आसालिगा। आसालिका या आसालिगा किसे कहते हैं, वे किस-किस प्रकार के होते हैं और कहाँ उत्पन्न होते हैं? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में प्रज्ञापना सूत्रकार श्री श्यामार्य वाचक ने अन्य ग्रन्थ में भगवान् द्वारा गौतम के प्रति प्ररूपित कथन को यहाँ उद्धृत किया है। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ४४ २. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक ४३ ३. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक ४६