Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
८६]
[प्रज्ञापना सूत्र
आकरनिवेशों में, आश्रमनिवेशों में, सम्बाधनिवेशों में और राजधानीनिवेशों में। इन (चक्रवर्ती स्कन्धावार आदि स्थानों) का विनाश होने वाला हो तब इन (पूर्वोक्त) स्थानों में आसालिक-सम्मूछिमरूप से उत्पन्न होते हैं। वे (आसालिक) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग-मात्र की अवगाहना से और उत्कृष्ट बारह योजन की अवगाहना से (उत्पन्न होते हैं।) उस (अवगाहना) के अनुरूप ही उनका विष्कम्भ (विस्तार) और बाहल्य (मोटाई) होता है। वह (आसालिक) चक्रवर्ती के स्कन्धावार आदि के नीचे की भूमि को फाड़ (विदारण) कर प्रादुर्भूत (समुत्थित) होता है। वह असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होता है, तथा अन्तर्मुहूर्त्तकाल की आयु भोग कर मर (काल कर) जाता है। यह हुई उक्त आसालिक की प्ररूपणा।
८३. से किं तं महोरगा?
महोरगा अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा—अत्थेगइया अंगुलं पि अंगुलपुहत्तिया विं वियत्थिं पि वियत्थिपुहत्तिया वि रयणिं पि रयणिपुहत्तिया वि कुच्छिं पि कुच्छिपुहत्तिया वि धणुं पि धणुपुहत्तिया वि गाउयं पि गाउयपुहत्तिया वि जोयणं पि जोयणपुहत्तिया वि जोयणसतं पि जोयणसतपुहत्तिया वि जोयणसहस्सं पि। ते णं थले जाता जले वि चरंति थले वि चरंति। ते णत्थि इहं, बाहिरएसु दीवसमुद्दएसु हवंति, जे यावऽण्णे तहप्पगारा। से त्तं महोरगा।
[८३ प्र.] महोरग किस प्रकार के होते हैं ?
[८३ उ.] महोरग अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं—कई महोरग एक अंगुल के भी होते हैं, कई अंगुलपृथक्त्व (दो अंगुल से नौ अंगुल तक) के, कई वितस्ति (बीता—बारह अंगुल) के भी होते हैं, कई वितस्तिपृथक्त्व (दो से नौ वितस्ति) के, कई एक रत्नि (हाथ) भर के, कई रत्निपृथक्त्व (दो हाथ से नौ हाथ तक) के भी, कई कुक्षिप्रमाण (दो हाथ के) होते हैं, कई कुक्षिपृथक्त्व (दो कुक्षि से नौ कुक्षि तक) के भी, कई धनुष (चार हाथ) प्रमाण भी, कई धनुषपृथक्त्व (दो धनुष से नौ धनुष तक) के भी, कई गव्यूति-(गाऊ—दो कोस दो हजारधनुष) प्रमाण भी, कई गव्यूतिपृथक्त्व के भी, कई योजनप्रमाण (चार गाऊ भर) भी, कई योजनपृथक्त्व के भी कई सौ योजन के भी, कई योजनशतपृथक्त्व (दो सौ से नौ सौ योजन तक) के भी और कई हजार योजन के भी होते हैं। वे स्थल में उत्पन्न होते हैं, किन्तु जल में विचरण (संचरण) करते हैं, स्थल में भी विचरते हैं। वे यहाँ नहीं होते, किन्तु मनुष्यक्षेत्र के बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं। इसी प्रकार के अन्य जो भी उर:परिसर्प हों, उन्हें भी महोरगजाति के समझने चाहिए। यह हुई उन (पूर्वोक्त) महोरगों की प्ररूपणा।
८४. [१] ते समासतो दुविहा पण्णत्ता। तं जहा—सम्मुच्छिमा य गब्भवक्कंतिया य।
[८४-१] वे (चारों प्रकार के पूर्वोक्त उर:परिसर्प स्थलचर) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैंसम्मूछिम और गर्भज।
[२] तत्थ णं जे ते समुच्छिमा ते सव्वे नपुंसगा।