Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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ही क्षण में सभी कुछ जान लेता है तो उसे सदा के लिए सब कुछ जानते रहना चाहिए । यदि उसका ज्ञान सदा पूर्ण नहीं है तो वह सर्वज्ञ कैसा ?२०२
यदि उसका ज्ञान सदा पूर्ण है तो क्रम और अक्रम का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । यह सदा एकरूप है। वहां पर दर्शन और ज्ञान में किसी भी प्रकार का कोई अन्तर नहीं है। ज्ञान सविकल्प है और दर्शन निर्विकल्प है, इस प्रकार का भेद आवरण रूप कर्म के क्षय के पश्चात् नहीं रहता २०३ जहां पर उपयोग की अपूर्णता है, वहीं पर सविकल्पक और निर्विकल्पक का भेद होता है। पूर्ण उपयोग होने पर किसी प्रकार का भेद नहीं होता। एक समस्या और है, और वह यह है कि ज्ञान हमेशा दर्शनपूर्वक होता है किन्तु दर्शन ज्ञानपूर्वक नहीं होता । २०४ केवली को एक बार जब सम्पूर्ण ज्ञान हो जाता है तब फिर दर्शन नहीं हो सकता, क्योंकि दर्शन ज्ञानपूर्वक नहीं होता । एतदर्थ ज्ञान और दर्शन का क्रमभाव नहीं घट सकता ।
दिगम्बरपरम्परा में केवल युगपत पक्ष ही मान्य रहा है। श्वेताम्बरपरम्परा में इसकी क्रम, युगपत और अभेद ये तीन धाराएं बनी। इन तीनों धाराओं का विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के महान् तार्किक यशोविजयजी ने नई दृष्टि से समन्वय किया है ।२०५ ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से क्रमिक पक्ष संगत है। यह दृष्टि वर्तमान समय को ग्रहण करती है। प्रथम समय का ज्ञान कारण है और द्वितीय समय का दर्शन उसका कार्य है। ज्ञान और दर्शन कारण और कार्य का क्रम है । व्यवहारनय भेदस्पर्शी है। उसकी दृष्टि से युगपत पक्ष भी संगत हैं । संग्रहऩय अभेदस्पर्शी है, उसकी दृष्टि से अभेद पक्ष भी संगत है। तर्कदृष्टि से देखने पर इन तीन धाराओं में अभेद पक्ष अधिक युक्तिसंगत लगता है
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दूसरा दृष्टिकोण आगमिक है । उसका प्रतिपादन स्वभावस्पर्शी है। प्रथम समय वस्तुगत भिन्नताओं को जानना और दूसरे समय में भिन्नतागत अभिन्नता को जानना स्वभावसिद्ध है। ज्ञान का स्वभाव ही इस प्रकार का है कि भेद में अभेद और अभेद में भेद समाया हुआ है, तथापि भेदप्रधान ज्ञान और अभेदप्रधान दर्शन का समय एक नहीं होता । २०६
प्रज्ञापना में उपयोग और पश्यता के सम्बन्ध में अन्य चर्चा नहीं है । अवधि पद में अवधिज्ञान के सम्बन्ध में भेद, विषय, संस्थान, आभ्यन्तर और बाह्य अवधि, देशावधि, अवधि की क्षय वृद्धि, प्रतिपाति और अप्रतिपाति, इन सात विषय की विस्तृत चर्चा है । अवधिज्ञान के दो भेद हैं एक तो जन्म से प्राप्त होता है, दूसरा कर्म के क्षयोपशम से । देवों नारकों में जन्म से ही अवधिज्ञान होता है, किन्तु मनुष्यों और तिर्यच पंचेन्द्रियों का अवधिज्ञान क्षायोपशमिक है । यद्यपि दोनों प्रकार के ज्ञान क्षयोपशमजन्य ही हैं तथापि देव
२०२. सन्मति ० प्रकरण २ / १० २०३. सन्मति ० प्रकरण २/११
२०४. सन्मति ० प्रकरण २/२२
२०५. ज्ञानबिन्दु, पृष्ठ १५४-१६४
२०६. (क) विशेष वितरण के लिए देखिए धर्मसंग्रहणी गाथा १३३६ - १३५९
(ख) तत्त्वार्थसूत्र, सिद्धसेन गणी टीका, अध्याय १, सू. ३१, पृ. ७७/१
(ग) नन्दीसूत्र, मलयगिरि वृत्ति पृ. १३४-१३८
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