Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम प्रज्ञापनापद]
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अनेक प्रकार की तरतमता होती है। जैसे—भ्रमर, कोयल और कज्जल आदि में कालेपन की न्यूनता अधिकता होती है। अतः कृष्ण, कृष्णतर और कृष्णतम आदि अनेक कृष्णवर्गीय भेद हो गए। इसी प्रकार नील आदि वर्ण के विषय में समझना चाहिए। गन्ध, रस और स्पर्श से सम्बन्धित भी ऐसे ही अनेक भेद होते हैं। इसी प्रकार वर्गों के परस्पर मिश्रण से धूसरवर्ण, कर्बुर (चितकबरा) वर्ण आदि अगणित वर्ण निष्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार एक गन्ध में दूसरी गंध के मिलने से २, एक रस में दूसरा रस मिश्रण करने से एक स्पर्श के साथ दूसरे स्पर्श के संयोग से हजारों भेद गन्ध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से हो जाते हैं। ऐसे पृथ्वीकायिकों की लाखों योनियां – उपर्युक्त पृथ्वीकायिक जीवों की लाखों योनियां हैं। यही बात मूलपाठ में कही गई है—'संखेज्जाइं जोणिप्पमुहसयसहस्साई'- अर्थात् 'संख्यातलाख' योनिप्रमुख योनिद्वार। जैसे कि एक-एक वर्ण, गन्ध रस और स्पर्श में पृथ्वीकायिकों की संवृता योनि होती है। वह तीन प्रकार की है—सचित्त, अचित्त और मिश्र। इनके प्रत्येक के तीन-तीर भेद होते हैं-शीत, उष्ण और शीतोष्ण। इन शीत आदि प्रत्येक के भी तारतम्य के कारण अनेक भेद हो जाते हैं । यद्यपि इस प्रकार से स्वस्थान में विशिष्ट वर्णादि से युक्त योनियां व्यक्ति के भेद से संख्यातीत हो जाती हैं, तथापि वे सब जाति (सामान्य) की अपेक्षा एक ही योनि में परिगणित होती हैं। इस दृष्टि से पृथ्वीकायिक जीवों की संख्यात लाख योनियाँ होती हैं और वे सूक्ष्म और बादर सबकी सब मिलकर सात लाख योनियां समझनी चाहिए। अप्कायिक जीवों की प्रज्ञापना
२६. से किं तं आउक्काइया ? आउक्काइया दुविहा पण्णता। तं जहा-सुहुमआउक्काइया य बादर आउक्काइया य। [२६ प्र.] वे (पूर्वोक्त) अप्कायिक जीव किस (कितने) प्रकार के हैं ?
[२६ उ.] अप्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं -सूक्ष्म अप्कायिक और बादर अप्कायिक ।
२७. से किं ते सुहमआउक्काइया ?
सुहुमआउक्काइया दुविहा पन्नत्ता। तं तहा -पज्जत्तसुहुमआउक्काइया य अपज्जत्तसुहुमआउक्काइया य । से त्तं सुहुमआउक्काइया ।
[२७ प्र.] वे (पूर्वोक्त) सूक्ष्म अप्कायिक किस प्रकार के हैं ?
[२७ उ.] सूक्ष्म अप्कायिक दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं- पर्याप्त सूक्ष्म-अप्कायिक और अपर्याप्त-सूक्ष्म-अप्कायिक। (इस प्रकार) यह सूक्ष्म-अप्कायिक की प्ररूपणा हुई ।
२८. [१] से किं तं बादरआउक्काइया ? १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २७-२८