Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम प्रज्ञापनापद] वाए उड़वाए अहोवाए तिरियवाए विदिसीवाए वाउब्भामे वाउक्कलिया वायमंडलिया उक्कलियावाए मंडलियावाए गुंजावाए झंझावाए संवट्टगवाए घणवाए तणुवाए सुद्धवाए, जे यावऽण्णे तहप्पगारे।
[३४-१ प्र.] वे बादर वायुकायिक किस प्रकार के हैं ?
[३४-१ उ.] बादर वायुकायिक अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं—पूर्वी वात (पूर्वदिशा से बहती हुई वायु), पश्चिमी वायु, दक्षिणी वायु, उत्तरी वायु ऊर्ध्ववायु, अधोवायु, तिर्यग्वायु (तिरछी चलती हुई हवा), विदिग्वायु (विदिशा से आती हुई हवा), वातोद्घाम (अनियत-अनवस्थित वायु), वातोत्कलिका (समुद्र के समान प्रचण्ड गति से बहती हुई तूफानी हवा), वात-मण्डलिका (वातोली), उत्कलिकावात (प्रचुरतर उत्कलिकाओं—आंधियों से मिश्रित हवा), मण्डलिकावात (मूलतः प्रचुर मण्डलिकाओं—गोल-गोलचक्करदार हवाओं से प्रारम्भ होकर उठने वाली वायु), गुंजावात (गूंजती हुईसनसनाती हुई–चलने वाली हवा) झंझावात (वृष्टि के साथ चलने वाला अंधड़), संवर्तकवात (खण्डप्रलयकाल में चलने वाली वायु अथवा तिनके आदि उड़ाकर ले जाने वाली आंधी), घनवात (रत्नप्रभादि पृथ्वियों के नीचे रही हुई सघन–ठोस वायु), तनुवात (घनवात के नीचे रही हुई पतली वायु) और शुद्धवात (मशक आदि में भरी हुई या धीमी -धीमी बहने वाली हवा।
अन्य जितनी भी इस प्रकार की हवाएँ हैं, (उन्हें भी बादर वायुकायिक ही समझना चाहिए)। [२] ते समासतो दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जगा य। _[३४-२] वे (पूर्वोक्त बादर वायुकायिक) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-पर्याप्तक और अपर्याप्तक।
[३] तत्थ णं ते ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता। [३४-३] इनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे असम्प्राप्त (अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं किये हुए) हैं।
[४] तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा एतेसि णं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखेज्जाई जोणिप्पमुहसयसहस्साइं। पज्जत्तगणिस्साए अपज्जत्तया वक्कमंति—जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखेजा। से त्तं बादरवाउक्काइया। से तं वाउक्काइया। ___ [३४-४] इनमें से जो पर्याप्तक हैं, उनके वर्ण की अपेक्षा से गन्ध की अपेक्षा से रस की अपेक्षा से और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों प्रकार (विधान) होते हैं। इनके संख्यात लाख योनि-प्रमुख होते हैं। (सूक्ष्म और बादर वायुकायिक की मिला कर ७ लाख योनियां हैं)। पर्याप्तक वायुकायिक के आश्रय से, अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक (पर्याप्तक वायुकायिक) होता है वहाँ नियम से असंख्यात (अपर्याप्तक वायुकायिक) होते हैं। यह हुआ—बादर वायुकायिक (का वर्णन) । (साथ ही), वायुकायिक जीवों की (प्ररूपणा पूर्ण हुई)।
विवेचन–वायुकायिक जीवों की प्रज्ञापना- प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. ३२ से ३४ तक) में वायुकायिक जीवों के दो मुख्य प्रकार तथा उनके भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा की गई है।