Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम प्रज्ञापनापद]
शुभाशुभकर्मबन्ध तथा उसके फल की एवं कर्मबन्ध से मुक्ति की व्यवस्था घटित नहीं हो सकती। यही कारण है कि शास्त्रकार ने पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय से लेकर देवयोनि तक के समस्त संसारीसंसारसमापन्न जीवों का पृथक्-पृथक् कथन किया है। इस पर से यह भी ध्वनित किया है कि चार गतियों और ८४ लक्ष योनियों या २४ दण्डकों में जब तक परिभ्रमण एवं आवागमन है, तब तक संसारसमापन्नता मिट नहीं सकती। किसी देवी-देव या ईश्वर अथवा अवतार (भगवान) के द्वारा किसी की संसार-समापन्नता मिटाई नहीं जा सकती, वह तो स्वयं की रत्नत्रय-साधना से ही मिटाई जा सकती है। मनुष्य के ज्ञानार्य दर्शनार्य एवं चारित्रार्य-रूप भेद बताकर यह स्पष्ट कर दिया है कि उपशान्तकषायत्व, क्षीणकषायत्व, सूक्ष्मसम्परायत्व, वीतरागत्व तथा केवलित्व आदि से युक्त आर्यता प्राप्त करना मनुष्य के अपने अधिकार में है, स्वकीय-पुरुषार्थ के द्वारा ही वह
उच्चकोटि का आर्यत्व और सिद्धत्व प्राप्त कर सकता है। - पंचेन्द्रिय जीवों में नारकों और देवों की प्रज्ञापना से अन्यत्र विस्तृतरूप में ही है, किन्तु मनुष्यों की
प्रज्ञापना अन्यत्र इतनी विस्तृत रूप से नहीं है, अतएव प्रथम पद में मनुष्यों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है, जो जैनदर्शन के सिद्धान्त को स्पष्ट करने में उपयोगी है।
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