Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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मंगलाचरण]
१३ . कतिपय विशिष्ट शब्दों की व्याख्या–ववगयजरमरणभए'—जो जरा, मरण और भय से सदा के लिए मुक्त हो चुके हैं। यह सिद्धों का विशेषण है। जरा का अर्थ है-वय की हानिरूप वृद्धावस्था, मरण का अर्थ प्राणत्याग, और भय का अर्थ है-इहलोकभय, परलोकभय आदि सात प्रकार की भीति। सिद्ध भगवान् इससे सर्वथा रहित हो चुके हैं। सिद्धे-जिन्होंने सित यानी बद्ध अष्टविध-कर्मेन्धन को जाज्वल्यमान शुक्लध्यानाग्नि से ध्मात यानी दग्ध (भस्म) कर डाला है, वे सिद्ध हैं। अथवा जो सिद्ध—निष्ठितार्थ (कृतकृत्य) हो चुके हैं, वे सिद्ध हैं। या 'षिध्' धातु शास्त्र
और मांगल्य अर्थ में होने से इसके दो अर्थ और निकलते हैं – (१) जो शास्ता हो चुके हैं, अथवा (२) मंगलरूपता का अनुभव कर चुके हैं वे सिद्ध हैं। जिणवरिदं = जो रागादि शत्रुओं को जीतते हैं, वे जिन हैं। वे चार प्रकार के हैं— श्रुतजिन, अवधिजिन, मनःपर्यायजिन और केवलिजिन। यहाँ केवलिजिन को सूचित करने के लिए 'वर' शब्द प्रयुक्त किया गया है। जिनों में जो वर यानी श्रेष्ठ हो तथा अतीत-अनागत-वर्तमानकाल के समस्त पदार्थों के स्वरूप को जानने वाले केवलज्ञान से युक्त हो, वह जिनवर कहलाता है। परन्तु ऐसा जिनवर तो सामान्यकेवली भी होता है, अतः तीर्थकरत्वसूचक पद बतलाने के लिए ज़िनवर के साथ 'इन्द्र' विशेषण लगाया है, जिसका अर्थ होता है-'जिनवरों के इन्द्र'। यहाँ ऋषभदेव आदि अन्य तीर्थंकरों को वन्दन न करके तीर्थंकर महावीर को ही वन्दन किया गया है, इसका कारण है –महावीर वर्तमान जिनशासन (धर्मतीर्थ) के अधिपति होने से आसन्न उपकारी हैं। महावीरं-जो महान् वीर हो, वह महावीर है। आध्यात्मिक क्षेत्र में वीर का अर्थ है—जो कषायादि शत्रुओं के प्रति वीरत्व—पराक्रम दिखलाता है। महावीर का 'महावीर' यह नाम परीषहों और उपसर्गों को जीतने में महावीर द्वारा प्रकट की गई असाधारण वीरता की अपेक्षा से सुरों और असुरों द्वारा दिया गया है। तेलोक्कगुरुं – भगवान् महावीर का यह विशेषण हैतीनों लोकों के गुरु। गुरु उसे कहते हैं, जो यथार्थरूप से प्रवचन के अर्थ का प्रतिपादन करता है। भगवान् महावीर तीनों लोकों के गुरु इसलिए थे कि उन्होंने अधोलोकनिवासी असुरकुमार आदि भवनपति देवों को, मध्यलोकवासी मनुष्यों, पशुओं, विद्याधरों, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्कदेवों को, तथा ऊर्ध्वलोकवासी सौधर्म आदि वैमानिक देवों, इन्दों आदि को धर्मोपदेश दिया।
भगवान् महावीर के लिए प्रयुक्त 'जिनवरेन्द्र' 'महावीर' और 'त्रैलोक्यगुरु' ये तीनों शब्द क्रमशः उनके ज्ञानातिशय, पूजातिशय, अपायापगमातिशय, एवं वचनातिशय को प्रकट करते हैं। १. सितं-बद्धमष्टप्रकारं कर्मेन्धनं, ध्यातं—जाज्वल्यमानशुक्लध्यानानलेन यैस्ते सिद्धाः। यदि वा 'षिध संराद्धौ'
सिध्यन्तिस्म निष्ठितार्था भवन्तिस्म; यद्वा 'षिधुः शास्त्रे मांगल्ये च' - सेधन्तेस्म-शासितारोऽभवन् मांगल्यरूपतां वाऽनुभवन्तिस्मेति सिद्धाः। "ध्मातं सितं येन पुराणकर्म, यो वा गतो निर्वृतिसौधमूनि ।
ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमंगलो मे॥ -प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक-२-३ २. अयले भयभेरवाणं खंतिखमे परीसहोवसग्गाणं। देवेहिं कए महावीर' इति।