Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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विषय- परिचय ]
निर्वर्तनासमय, इन्द्रियलब्धि, इन्द्रिय-उपयोग आदि तथा इन्द्रियों की अवगाहना, अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा आदि १२ द्वारों के माध्यम से चर्चा की गई है । अन्त इन्द्रियों के भेद-प्रभेद का विचार
प्रस्तुत किया गया है।
सोलहवें प्रयोगपद में सत्यमनः प्रयोग आदि १५ प्रकार के प्रयोगों का चौबीस दण्डकवर्त्ती जीवों की अपेक्षा से विचार किया गया है । अन्त में ५ प्रकार के गतिप्रपात के स्वरूप का चिन्तन किया गया है। सत्रहवें लेश्यापद में छह उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में समकर्म, समवर्ण, समलेश्या, समवेदना, समक्रिया और समआयु नामक अधिकार हैं। दूसरे में कृष्णादि ६ लेश्याओं के आश्रय से जीवों का निरूपणं किया गया है। तीसरे उद्देशक में लेश्यासम्बन्धी कतिपय प्रश्नोत्तर हैं । चतुर्थ उद्देशक में परिणाम, वर्ण, रस, गन्ध, शुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, उष्ण, गति, परिणाम, प्रदेश, अवगाढ़, वर्गणा, स्थान और अल्प - बहुत्व नामक अधिकार हैं । लेश्याओं के वर्ण और स्वाद (रस) का भी वर्णन है। पांचवें में 'लेश्याओं के परिणाम बताए हैं और छठे उद्देशक में किस जीव के कितनी लेश्याएँ होती हैं ? इसका
निरूपण है ।
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अठारहवें पद का नाम कायस्थिति है । इसमें जीव और अजीव दोनों अपनी-अपनी पर्याय में कितने काल तक रहते हैं, इसका चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। स्थितिपद और कायस्थितिपद में अन्तर यह है कि स्थितिपद में तो २४ दण्डकवर्त्ती जीवों की भवस्थिति — एक भव की अपेक्षा से आयुष्य का विचार है, जबकि कायस्थितिपद में जीव मर कर उसी भव में जन्म लेता रहे तो ऐसे सब भवों की परम्परा की कालमर्यादा यानी सब भवों के आयुष्य का कुल जोड़ कितना होगा ?, इसका विचार किया गया है। इसके अतिरिक्त कायस्थितिपद में 'काय' शब्द से निरूपित धर्मास्तिकाय आदि का उस-उस रूप में रहने के काल (स्थिति) का भी विचार किया है। अतः इसमें जीव, गति, इन्द्रिय, योग, वेद आदि से लेकर अस्तिकाय और चरम इन द्वारों के माध्यम से विचार प्रस्तुत किया गया है। उन्नीसवें सम्यक्त्वपद में २४ दण्डकवर्ती जीवों के क्रम से सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, मिश्रदृष्टि का विचार किया गया है।
बीसवें अन्तक्रियापद में बताया गया है कि कौन-सा जीव अन्तक्रिया ( कर्मनाश द्वारा मोक्षप्राप्ति) कर सकता है, और क्यों ? साथ ही अन्तक्रिया शब्द वर्तमान भव का अन्त करके नवीन भवप्राप्ति, (अथवा मृत्यु) के अर्थ में भी यहाँ प्रयुक्त किया गया है। और इस प्रकार की अन्तक्रिया का विचार चौबीस दण्डकवर्ती जीवों से सम्बन्धित किया गया है। कर्मों की अन्तरूप अन्तक्रिया तो एकमात्र मनुष्य ही कर सकते हैं; इसका वर्णन ६ द्वारों के माध्यम से किया गया है ।
इक्कीसवें अवगाहना - संस्थान ( या शरीर ) पद में शरीर के विधि ( भेद), संस्थान, प्रमाण, पुद्गलों