Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आभ्यन्तर आकृति मसूर के दाने के सदृश, नाक की आभ्यन्तर आकृति अतिमुक्तक के फूल के सदृश तथा जीभ की आकृति छुरे के समान होती है। पर बाह्याकार सभी में पृथक्-पृथक् दृग्गोचर होते हैं। मनुष्य, हाथी, घोड़े, पक्षी आदि के कान, आंख, नाक, जीभ आदि को देख सकते हैं।
आभ्यन्तरनिर्वृत्ति की विषयग्रहणशक्ति उपकरणेन्द्रिय है। तत्त्वार्थसूत्र,१५० विशेषावश्यकभाष्य,१५१ लोकप्रकाश१५२ प्रभृति ग्रन्थों में इन्द्रियों पर विशेषरूप से विचार किया गया है। प्रज्ञापना में इन्द्रियोपचय, इन्द्रियनिर्वर्तन, इन्द्रियलब्धि, इन्द्रियोपयोग आदि द्वारों से द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय की चौबीस दण्डकों में विचारणा की गई है। प्रयोग : एक चिन्तन
सोलहवाँ प्रयोगपद है। मन, वचन, काया के द्वारा आत्मा के व्यापार को योग कहा गया है तथा उसी योग का वर्णन प्रस्तुत पद में प्रयोग शब्द से किया गया है, यह आत्मव्यापार इसलिए कहा जाता है कि आत्मा के अभाव में तीनों की क्रिया नहीं हो सकती। आचार्य अकलंकदेव ने तीनों योगों के बाह्य और आम्यन्तर कारण बताकर उसकी व्याख्या की है। संक्षेप में वह इस प्रकार है-बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से मनन के अभिमुख आत्मा का जो प्रदेशपरिस्पन्दन है वह मनोयोग कहलाता है। मनोवर्गणा का आलम्बन बाह्य कारण है। वीर्यान्तरायकर्म का क्षय, क्षयोपशम तथा नोइन्द्रियावरणकर्म का क्षय-क्षायोपशम इसका आभ्यन्तर कारण है।
बाह्य और आभ्यन्तर कारण-जन्य भाषाभिमुख आत्मा का प्रदेशपरिस्पन्द वचनयोग है। वचनवर्गणा का आलम्बन बाह्य कारण है और वीर्यान्तरायकर्म का क्षय-क्षयोपशम तथा मतिज्ञानावरण और अक्षरश्रुतज्ञानावरण आदि कर्म का क्षयोपशम आभ्यन्तर कारण है।
बाह्य और आभ्यन्तर कारण से उत्पन्न गमन आदि विषयक आत्मा का प्रदेशपरिस्पन्दन काययोग है। किसी भी प्रकार की शरीरवर्गणा का आलम्बन इसका बाह्य कारण है। वीर्यान्तरायकर्म का क्षय-क्षयोपशम इसका आभ्यन्तर कारण है।
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में वीर्यान्तरायकर्म का क्षय, जो आभ्यन्तर कारण है वह दोनों ही गुणस्थानों में समान है किन्तु वर्गणा का आलम्बनरूप बाह्य कारण समान नहीं होने से तेरहवें गुणस्थान में योगविधि होती है किन्तु चौदहवें में नहीं।१५३ यहाँ एक प्रश्न यह भी उद्बुद्ध होता है कि मनोयोग और वचनयोग में किसी न किसी प्रकार का काययोग का आलम्बन होता ही है। इसलिए केवल एक काययोग का मानना पर्याप्त है। उत्तर में निवेदन है—मनोयोग और वचनयोग में काययोग की प्रधानता है। जब काययोग मनन करने में सहायक बनता है, तब मनोयोग है और जब काययोग भाषा बोलने में सहयोगी बनता है, तब वह वचनयोग कहलाता है। व्यवहार की दृष्टि से काययोग के ही ये
१५०. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २, सूत्र १७/१८ १५१. विशेषावश्यकभाष्य तथा विभिन्न वत्तियाँ गाथा २९९३-३००३ १५२. लोकप्रकाश, सर्ग ३, श्लोक ४६४ से आगे १५३. तत्त्वार्थसूत्र राजवार्तिक ६/१/१०.
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