Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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कायस्थिति : एक विवेचन
__ अठारहवें पद का नाम कायस्थिति है। इसमें जीव और अजीव दोनों अपनी अपनी पर्याय में कितने काल तक रहते हैं, इस पर चिन्तन किया गया है। चतुर्थ स्थितिपद और इस पद में अन्तर यह है कि स्थितिपद में तो २४ दण्डकों में जीवों की भवस्थिति अर्थात् एक भव की अपेक्षा से आयुष्य का विचार है जबकि इस पद में एक जीव मरकर सतत उसी पर्याय में जन्म लेता रहे तो ऐसे सब भवों की परम्परा की काल-मर्यादा अथवा उन सभी भवों में आयुष्य का कुल जोड़ कितना होगा? स्थितिपद में तो केवल एक भव की आयु का ही विचार है जबकि प्रस्तुत पद में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय आदि अजीव द्रव्य, जो काय के रूप में जाने जाते हैं, उनका उस रूप में रहने के काल का अर्थात् स्थिति का भी विचार किया गया है।
इसमें जीव, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, आहार, भाषक, परित्त, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भव (सिद्धि), अस्ति (काय), चरिम की अपेक्षा से कायस्थिति का वर्णन है। वनस्पति की कायस्थिति 'असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा' बताई है। इसका तात्पर्य यह है कि कोई भी वनस्पति का जीव अनादि काल से वनस्पतिरूप में नहीं रह सकता। उस जीव ने वनस्पति के अतिरिक्त अन्य भव किये होने चाहिए। इससे यह स्पष्ट है प्रज्ञापना के रचयिता आचार्य श्याम के समय तक व्यवहारराशि-अव्यवहारराशि की कल्पना पैदा नहीं हुई थी। व्यवहारराशि-अव्यवहारराशि की कल्पना दार्शनिक युग की देन है। यही कारण है कि प्रज्ञापना की टीका में व्यवहारराशि और अव्यवहाराशि. ये दो भेद वनस्पति के किए गये हैं
और निगोद के जीवों के स्वरूप का वर्णन है। माता मरुदेवी का जीव अनादि काल से वनस्पति में था; इसका उल्लेख टीका में किया गया है।१७१
इस पद में अनेक ज्ञातव्य विषयों पर चर्चा की गई है। टीकाकार मलयगिरि ने मूल सूत्र में आई हुई अनेक बातों का स्पष्टीकरण टीका में किया है।
उन्नीसवाँ सम्यक्त्वपद है। इसमें जीवों के चौबीस दण्डकों में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि के सम्बन्ध में विचार करते हुए बताया है कि सम्यग्-मिथ्यादृष्टि केवल पंचेन्द्रिय होता है और एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि ही होता है। द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते। षट्खण्डागम में असंज्ञी पंचेन्द्रिय को मिथ्यादृष्टि ही कहा है। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक होते हैं। सम्यक्त्व से तात्पर्य है—व्यवहार से जीवादि का श्रद्धान और निश्चय से आत्मा का श्रद्धान है।१७२ जीव-अजीव आदि नौ पदार्थ हैं। उन परमार्थभूत पदार्थों के सद्भाव का उपदेश से अथवा निसर्ग से होने वाले श्रद्धान को सम्यक्त्व जानना चाहिए।१७३
१७१. प्रज्ञापना टीका पत्र ३७९ । ३८५ १७२. जीवादीसदहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं ।
ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवई सम्मत्तं ॥ -दर्शनाप्राभृत, २० १७३. जीवाऽजीवा य बंधो य, पुन-पावाऽऽसवो तहा।
संवरो णिज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव॥ तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं। भावेण सद्दहंतस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं-उत्तराध्ययन २८।१४-१५
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