Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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विवक्षित हैं और जहाँ कषायोदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति को लेश्या कहा है, वहाँ स्थिति, अनुभाग आदि चारों बन्ध के निमित्तभूत परिणाम लेश्या रूप में विवक्षित हैं।१६९
प्रस्तुत पद में छः उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में नारक आदि चौबीस दण्डकों के सम्बन्ध में आहार, शरीर, श्वासोच्छ्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया आयु आदि का वर्णन है। जिन नारक जीवों के शरीर की अवगाहना बड़ी है उनमें आहार आदि भी अधिक है। नारकों में उत्तरोत्तर अवगाहना बढ़ती है। प्रथम नरक की अपेक्षा द्वितीय में और द्वितीय से तृतीय में, पर देवों में इससे उल्टा क्रम है। वहां पर उत्तरोत्तर अवगाहना कम होती है और आहार की मात्रा भी। आहार की मात्रा अधिक होना दुःख का ही कारण है। दुःखी व्यक्ति अधिक खाता है, सुखी कम। सलेश्य जीवों की अपेक्षा नारक आदि चौबीस दण्डकों में समविषम आहार आदि की चर्चा है। द्वितीय उद्देशक में लेश्या के कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म, शुक्ल ये छः भेद बताकर नरक आदि चार गतियों के जीवों में कितनी-कितनी लेश्यायें होती हैं इसका विस्तार से निरूपण है। अपेक्षा दृष्टि से लेश्या अल्पबहुत्व का भी चिन्तन इसमें किया गया है। साथ ही २४ दण्डक के जीवों को लेकर लेश्या की अपेक्षा से ऋद्धि के अल्प और बहुत्व के सम्बन्ध में प्रकाश डाला है। तृतीय उद्देशक में जन्म और मृत्यु काल की लेश्या सम्बन्धी चर्चा है। अमक-अमक लेश्या वाले जीवों के अवधिज्ञान की विषय-मर्यादा पर भी प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ उद्देशक में एक लेश्या का दूसरी लेश्या में परिणमन होने पर उसके वर्ण,रस,गंध, स्पर्श किस प्रकार परिवर्तित होते हैं, इसकी विस्तृत चर्चा है। लेश्याओं के विविध परिणाम, उनके प्रदेश, अवगाहना, क्षेत्र और स्थान की अपेक्षा से अल्पबहुत्व द्रव्य और प्रदेश को लेकर किया गया है। पांचवें उद्देशक में एक लेश्या का दूसरी लेश्या में देव-नारक की अपेक्षा से परिणमन नहीं होता, यह बताया है। छठे उद्देशक में विविध क्षेत्रों में रहे हुए मनुष्य और मनुष्यनी की अपेक्षा से चिन्तन किया गया है। यह स्मरण रखना होगा कि जो लेश्या माता-पिता में होती है वही लेश्या पुत्र और पुत्री में भी हो, यह नियम नहीं है।
___ जीव को लेश्या की प्राप्ति के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त व्यतीत हो जाने पर तथा अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने पर जीव परलोक में जन्म ग्रहण करता है, क्योंकि मृत्युकाल में आगामी भव की और उत्पत्तिकाल में उसी लेश्या का अन्तर्मुहूर्त काल तक होना आवश्यक है। जीव जिस लेश्या में मरता है, अगले भव में उसी लेश्या में जन्म लेता है।१७०
उत्तराध्ययन में किस किस लेश्या वाले जीव के किस किस प्रकार के अध्यवसाय होते हैं तथा भगवती में लेश्याओं के द्रव्य और भाव ये भेद किए गए हैं। पर प्रज्ञापना का लेश्यापद बहुत ही विस्तृत होने पर भी उसमें उसकी परिभाषा एवं द्रव्य और भाव आदि बातों की कमी है। इस कमी के सम्बन्ध में आगमप्रभावक पुण्यविजयजी महाराज का यह मानना है कि यह इस आगम की प्राचीनता का प्रतीक है। १६९. जोगपउत्ती लेस्सा, कसायउदयाणुरंजिया होइ।
___ तत्तो दोण्णं कजं, बंधचउक्कं समुद्दिठं ॥ ४८९ ॥ -गो. जीवकाण्ड १७०. जल्लेसाई दव्वाइं आयइत्ता कालं करेइ, तल्लेसेसु उववज्जइ।
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