Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तीन प्रकार हैं। जो पुद्गल मन बनने के योग्य हैं, उन्हें मनोवर्गणा के पुद्गल कहा गया है, जब वे मन के रूप में परिणत हो जाते हैं तब उन्हें द्रव्य - मन कहते हैं । श्वेताम्बरपरम्परा के अनुसार द्रव्यमन का शरीर में कोई स्थानविशेष नहीं है, वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। दिगम्बरपरम्परा की दृष्टि से द्रव्यमन का स्थान ह्रदय है और उसका आकार कमल के सदृश है। भाषावर्गणा के पुद्गल जब वचन रूप में परिणत होते हैं तो वे वचन कहलाते हैं । औदारिक और वैक्रिय आदि शरीर वर्गणाओं के पुद्गलों से जो योग प्रवर्तमान होता है, वह काययोग है। १५४ इस प्रकार आलम्बनभेद से योग के तीन प्रकार हैं । जैनदृष्टि से मन, वचन और काया ये तीनों पुद्गलमय हैं और पुद्गल की जो स्वाभाविक गति है वह आत्मा के बिना भी उसमें हो सकती है पर जब पुद्गल मन, वचन और काया के रूप में परिणत हों तब आत्मा के सहयोग से जो विशिष्ट प्रकार का व्यापार होता है वह अपरिणत में असंभव है। पुद्गल का मन आदि रूप में परिणमन होना भी आत्मा के कर्माधीन ही है । इसलिए उसके व्यापार को आत्मव्यापार कहा है । मन, वचन और काया के प्रयोग के पन्द्रह प्रकार बताये हैं, जो निम्नलिखित हैं
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१. सत्यमनःप्रयोग २. असत्यमन: प्रयोग ३. सत्यमृषामन: प्रयोग ४. असत्यामृषामनःप्रयोग ५. सत्यवचनप्रयोग ६. असत्यवचनप्रयोग ७. सत्यमृषावचनप्रयोग ८. असत्यामृषावचनप्रयोग ९. औदारिककायप्रयोग १०. औदारिकमिश्रकायप्रयोग ११. वैक्रियकायप्रयोग १२. वैक्रियमिश्रकायप्रयोग १३. आहारककायप्रयोग १४. आहारकमिश्रकायप्रयोग १५. कार्मणकायप्रयोग |
प्रज्ञापना की टीका में आचार्य मलयगिरि ने इन पन्द्रह प्रयोग के भेदों में तेजसकायप्रयोग का निर्देश न होने से कार्मण के साथ तैजस को मिलाकर तैजसकार्मणशरीरप्रयोग की चर्चा की है । १५५
इन पन्द्रह प्रयोगों की जीव में और विशेष रूप से चौबीस दण्डकों में योजना बताई है। प्रयोग के विवेचन के पश्चात् इस पद में गतिप्रपात का भी निरूपण है। उसके पांच प्रकार बताये हैं— प्रयोगगति, तत्गति, बन्धनछेदनगति, उपपातगति और विहायोगति । इनके भी अवान्तर अनेक भेद-प्रभेद हैं।. लेश्या : एक विश्लेषण
सत्रहवां लेश्यापद है। लेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण है। जीव से पुद्गल और पुद्गल जीव प्रभावित होते हैं। जीव को प्रभावित करने वाले पुद्गलों के अनेक समूह हैं । उनमें से एक समूह का नाम लेश्या है। उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति में लेश्या का अर्थ आणविक आभा, क्रान्ति, प्रभा या छाया किया है।१५६ दिगम्बरपरम्परा के आचार्य शिवार्य ने लेश्या उसे कहा है जो जीव का परिणाम छायापुद्गलों से प्रभावित होता है । १५७ प्राचीन जैन वाङ्मय में शरीर के वर्ण, आणविक आभा और उससे प्रभावित होने वाले
१५४. दर्शन और चिंतन (हिन्दी) पृष्ठ ३०९ - ३११ – पंडित सुखलाल जी १५५. प्रज्ञापनाटीका पत्र ३१९ – आचार्य मलयगिरि १५६. लेशयति—श्लेषयतीवात्मनि जनयनानीति लेश्या
अतीव चक्षुराक्षेपिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया ।
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- बृहद्वृत्ति, पत्र ६५०