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વિનય ! સ્વાધ્યાયને ભલીશ
પૂઠાપરનાં ચિત્રને ટૂંકભાવશ્રુતજ્ઞાનજલથી પૂણુ ગંભીર અપાર કૃપ; વાચના પ્રચ્છના આદિ સ્વાગ્રાચપ રેટ; સ્વાધ્યાયદ્વારાએ શ્રુતજલનું દોહન–હાર આણવું; શ્રુતજ્ઞાનજલથી ભવ્યજીવારૂપ વનરાજીનો વિકાસ.
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आचार्यदेवश्रीविजयदान सूरि-ग्रन्थमाला-ग्रन्थांक - ( २० )
श्री स्वाध्याय - दोहनम्
[ पूर्वकालीन श्रुतस्थविरमहापुरुषव्रणातः जिनस्तवादिस्वाध्याय संग्रहः ]
संपादक:--
पूज्यपाद परमशासनप्रभावक आचार्यदेव श्रीमद् विजयरामचन्द्रसूरिविनेयाणुः मुनिकनकविजयः
खंभात ( स्थंभतीर्थ ) वास्तव्येन ' श्रेष्ठि श्री मुलचन्द डाह्याभाई दलाल' इत्यनेन स्वकीयधर्मपत्न्या विहितज्ञानपंचमीतपआराधनाया स्मृत्यर्थं वितीर्णद्रव्यसहाय्येन
प्रकाशयित्री - आचार्यदेवश्रीविजयदानसूरि-ग्रन्थमाला. गोपीपुरा, सुरत.
वि. सं. २४६६,
मूल्यम् - द्वौ आणको
वि. सं. १९९६,
क्राइ. स० १९४०
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પ્રકાશકઃ–માસ્તર હીરાલાલ રણછેાડદાસ આ સે॰ આચાર્યદેવ—— શ્રી વિજયદાનસુરિ જૈનગ્રન્થમાલા. ગોપીપુરા–સુરત.
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મુદ્રક-શા. ગુલાબચંદ લલ્લુભાઇ, મુદ્રણસ્થાન-મહાય પ્રી પ્રેસ.
દાણાપીઠ, ભાવનગર. -- ---
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પૂજ્યપાદ પરમ શાસનપ્રભાવક સિદ્ધાન્તમહેાધિ
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આચાર્ય દેવ શ્રીમદ્ વિજયપ્રેમસૂરીશ્વરજી
મહારાજ.
શ્રી મહેાધ્ય પ્રેસ–ભાવનગર.
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નિવેદન–
સ્વર્ગીય સાધુચરિત પૂજ્યપાદ સકલારામરહસ્યવેદી આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજયદાનસૂરીશ્વરજી મહારાજાના પુણ્યઅભિધાનથી સંકળાયેલ “આચાર્યદેવ શ્રી વિજયેદાનસૂરિ-ગ્રન્થમાલા' આજે એક નૂતન ગ્રન્થને પ્રકાશિત કરે છે. અત્યાર અગાઉ આ ગ્રન્થમાલાએ નાનાં-મોટાં લગભગ ઓગણીસ ગ્રન્થરો, વિદ્વાન જનસમાજની સમક્ષ રજૂ કર્યા છે.
પ્રસ્તુત ગ્રન્થ, ગ્રન્થમાલાના વીસમા ગ્રન્થ તરિકે આજે પ્રસિદ્ધિને પામે છે. એ રીતિએ આ ગ્રન્થમાલા ધીરે ધીરે પણ મક્કમ પગલે પોતાના કાર્યક્ષેત્રમાં પ્રગતિ કરી રહી છે. કેવલ કૃતજ્ઞાનની ભક્તિના માર્ગે શક્તિ અને સાધનની અનુકૂળતા મૂજબ પ્રયાણ કરવાને ગ્રન્થમાલા ઈચ્છે છે. '
પ્રસ્થમાલા હમણું જ જન્મવા પામી છે. સાધન કે સામગ્રી સ્થાયીરૂપે ગ્રન્થમાલા પાસે નથી. છતાંયે પૂજનીય પરમગુરુદેવશ્રી અને તેઓશ્રીના શાસનપ્રભાવક શિષ્યસમુદાયના પુણ્યપ્રભાવે ગ્રન્થમાલાનું કાર્ય આગળ વધે છે.
ખંભાતનિવાસી મુલચંદ ડાહ્યાભાઈ દલાલે (મુંબઈ) પિતાનાં ધર્મપત્ની શ્રીમતી સમરતબેનના જ્ઞાનપંચમી તપની આરાધનાની
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ઉજવણી નિમિત્તે, આ ગ્રન્થના પ્રકાશનકાર્યંને અંગેનું સઘણુંયે ખર્ચ ઉદારભાવે આપેલ છે. તે માટે સાચેજ તેઓની શ્રુતજ્ઞાનની ભક્તિ અનુમેદનીય તેમજ અનુકરણીય છે.
ગ્રન્થના પ્રકાશનને અંગેની સંપૂર્ણ સહાય ગ્રન્થમાલાને મળેલ હાવાથી, આ પુસ્તકનું મૂલ્ય રાખવાની ઇચ્છા નથી—નહતી; પણ મૂલ્ય નહિ હોવાના કારણે લગભગ ભેટનાં પુસ્તકાના ઓછાવત્તો દુરુપયેાગ થવાની સંભાવના છે. એ ભયથી ઉગરવાને તેમજ અભ્યાસકવ ની માગણીને પહેોંચી વળાય અને તેએ તેના લાભને ઉઠાવી શકે એ વિગેરે કારણોથી પ્રસ્તુત ગ્રન્થનું મૂલ્ય નજીવુ' નાછૂટકે રાખવુ પડયુ' છે.
આ ગ્રન્થના સંપાદન તેમજ પ્રકાશનકા તે અંગે મુદ્રણદોષજન્મ કે અજ્ઞાન-પ્રમાદદાષજન્ય જે ક્ષતિ રહેવા પામી હોય તે સર્વાં ક્ષતિઓનુ પરિમાર્જન વિદ્વાન વાચકવર્ગી કરશે, અને આ સ્વાધ્યાયગ્રન્થના પઠન-પાઠન દ્વારાએ શ્રી જિનભાષિત ધર્મની આરાધનાના માર્ગમાં આગળ પગલાં માંડશે. એજ ભાવના.
ફાલ્ગુન શુક્લા-પૂર્ણિમા વી. સ. ૨૪૬૬, વિ. સ. ૧૯૯૬ ગોપીપુરા, સુરત.
-પ્રકાશક
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॥ णमो वीयरायाण सव्वण्णूणं ॥
पूर्वकथन
स्वाध्यायधर्मनी महत्ता
स्वाध्याय ए तपधर्मनी आराधनानुं महत्त्वपूर्ण अंग छे, प्रायश्चित्त आदि छ प्रकारना अभ्यन्तर तपधर्मना एक प्रकार तरिके स्वाध्यायनी गणना छे. स्वाध्याय विना तपधर्मनी आराधना अखंडित रही शके तेम नथी. आत्मशुद्धि अने आत्मजागृतिना वातावरणने सरजाववामां स्वाध्यायनी अति आवश्यक्ता छे. _ 'सुष्टु अध्ययनम् ' ए स्वाध्याय शब्दनो व्युत्पत्तिगत भाव छ. आत्मपरिणामनी निर्मलता तेमज कठीन कर्मोनी निर्जरा माटे आ स्वाध्याय नामनो तपधर्म साचेज परम आलंबन छे. माटे ज तत्त्वज्ञानी पुरुषो, कल्याणकारी आराधक आत्माने एज मूजबनी हितशिक्षा पाठवी रह्या छे-के "स्वाध्यायान्मा प्रमदः-स्वाध्यायना मार्गने तुं भूल नहि"
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कारणके स्वाध्याय विना सघलीये आत्मसाधना छाळपर लींपणनी जेम वास्तविक फलथी वन्ध्य छे.
बारेय प्रकारना तपधर्ममा ' स्वाध्याय'-तप आत्मकल्याणने माटे परम आलंबन समान छे; परमज्ञानी पुरुषो स्पष्ट रीतीये स्वाध्यायधर्मनी महत्ताने आ शब्दोमां प्रतिपादे छे"बारसविहम्मि वि तवे सभितरबाहिरे कुसलदिडे । नवि अत्थि नवि अ होही, सज्झायसमं तवोकम्म।।१।।"
[कुशल पुरुषोए फरमावेल, बाह्य अने आभ्यन्तर बारेय प्रकारना तपने विषे, स्वाध्यायसमुं तपकर्म कोइ छे नहि अने थनार नथी. ]
कारण के
" सज्झायेण पसत्थं झाणं, जाणइ अ सत्वपरमत्थं ।
सज्झाये वट्टन्तो, खणे खणे जाइ वेरग्गं ॥२॥"
[ स्वाध्यायथी प्रशस्त-निर्मल ध्यान आवे छे, तेमज स्वाध्यायना योगे सर्व परमरहस्योन ज्ञान थाय छे, अने स्वाध्यायमां सदाकाल रमनार-आत्माराम जीव क्षणे क्षणे वैराग्यभावने पामे छे. ]
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अकारणवत्सल उपकारी महापुरुषो, स्वाध्यायधर्मनी महत्ताने अंगे आ रीतिये स्पष्ट प्रतिपादन करे छे, ते परमज्ञानी पुरुषोना आप्रतिपादननी वास्तविकताने स्वीकारनार आराधक आत्माओ स्वाध्यायनी महत्ताने अवश्य समजी शके तेम छे. स्वाध्यायधर्मना प्रकारो
वाचना, प्रच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा, अने धर्मकथा ए मूजब, स्वाध्यायधर्मनी आराधनाना पांच मार्गो छे. आ पांचेय मार्गो, सामान्यरीतिये स्वाध्यायधर्मनी अखंडित साधनाने सारु परम आवश्यक छे. विधिपूर्वक आ मार्गोनी साधना, स्वाध्यायधर्मनी अणीशुद्ध आराधनानी साहायक छे.
एकन्दरे वाचना आदि, स्वाध्यायधर्मना भेदो, तपधर्मनी आराधनाना अंगसमा छे. एटलाज कारणे स्वाध्यायधर्मनी आराधनीय रीतिओरूप वाचना विगेरे पांचेय गणी शकाय तेम छे.
___ ज्यारे बीजी रीतिये स्वाध्यायधर्मना स्वरूपने स्पष्ट करता परस्पर विभक्तएवा स्वाध्यायना मूलगत त्रण भेदो छे, प्रार्थाना, स्तवना, अने तत्त्वचिन्तन, ए त्रणेय प्रकारो स्वाध्यायधर्मना परमअंगो छे.
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आ मूजबना त्रणेय स्वाध्यायोमा प्रार्थना नामनो स्वाध्याय ए, एकान्त हितवत्सल परमउपकारी गुणवान पुरुषोनी सेवामां, विनीतभावे आर्द्रतापूर्वकनी आजीजीसमान होय छे. आवा प्रकारनी प्रार्थना बेशक अभिलाषनुं एक रूपान्तर गणाय, छतांये निराशंसभावे श्रीवीतराग परमात्मानी सेवामा रजू कराती आ प्रार्थनाओ आत्मकल्याणनी प्राप्तिमा अलबत परम सहायक छे.
गुणवान पुरुषोना गुणोनी स्तवनारूप स्वाध्यायधर्मनो बीजो प्रकार छे. आराध्य पुरुषोना गुणोनी स्तुति द्वाराये, पोताना दुष्कृतोनी निन्दा-गो, पण आ बीजा प्रकारना स्वाध्यायमां आवी जाय छे, पोतानी अधमतानुं पोताने भान थवा साथे, आराध्य पुरुषोनी उत्तमदशानी आछी पातळी स्मृति आ स्वाध्यायथी साधक आत्माने थाय छे, आना योगे साधक आत्माओ पोतानी साधनाने मार्गे खूबज सावध अने खबरदार बने छे. एकंदरे आत्मानी जागृतिने सारु आवा प्रकारना स्वाध्यायनी खास अगत्यता छे. ____ ज्यारे त्रीजा प्रकारनो स्वाध्याय, श्रीजिनशासनना परमरहस्यभूत तत्त्वोनी परिशीलनारूप छे, आवा प्रकारनी परिशीलनाना योगे हेय अने उपादेय पदार्थोनुं ज्ञान,
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आराधक आत्माओने प्राप्त थाय छे, ए सम्यग्ज्ञानना योगे श्रीजिनकथित तत्त्वोनी श्रद्धा निर्मल बने छे, अने चारित्रधर्मनी आराधनाना मार्गे पगला मांडी शकाय छे.
एटले सामान्यरीतिये स्वाध्यायधर्मना आ मूलभूत त्रणेय प्रकारो आत्मकल्याणना अभिलाषुक आत्माओ माटे सर्व प्रकारे स्पष्ट मार्गदर्शन आपे छे. प्रस्तुत ग्रन्थनुं प्रकाशन
प्रस्तुत 'स्वाध्यायदोहन ' ग्रन्थमा, स्वाध्यायधर्मना आ त्रणेय प्रकारोना विषयने प्रतिपादित करती कृतिओ, दोहनसंग्रहरूपे रजू करवामां आवी छे. केटलीक कृतिओ, प्रार्थनारूप स्वाध्यायमां गणी शकाय तेम छे. ज्यारे केटलीक कृतिओ गुणस्तवना-आत्मनिन्दाना स्वाध्यायरूप छे. तेमज केटलीक कृतिओ श्री जैनशासनना परमरहस्योना परिशीलनरूप तत्त्वचिन्त्वन स्वाध्यायमां आवे तेम छे.
__ आ ग्रन्थमांनी संस्कृत तेमज प्राकृतभाषाबद्ध पद्यमय कृति-रचनाओ, ए पूर्वकालीन श्रुतस्थविर महापुरुषोना ग्रन्थोमांथी यथामति-शक्ति चूंटी चूंटीने रजू करवामां आवेल छे, (जेने अंगेनो नाम-स्थान विगेरेनो निर्देश आ ग्रन्थमां अन्य स्थाने करवामां आव्यो छे. ) ..
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एक अवसरे ज्यारे श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित ग्रन्थy पठन-पाठन थयु, त्यारे तेमां आवतां अनेक प्रभुप्रार्थनारूप स्तवो वांचतां ए भावना थइ, के-' आवां आवां प्रार्थनारूप तेमज गुणस्तवादिरूप स्वाध्यायनी रचना-कृतिओनो एकाद अलग संग्रह थाय तो केवू सारुं ?"
वी० सं० २४६५ वि० सं० १९९५ नी सालन अषाढ चातुर्मास, पूजनीय परमगुरुदेवोनी आज्ञा मूजब, मुंबइ लालबाग (भूलेश्वर) खाते थतां, मारी पूर्वोक्त भावनाने मूर्तरूप आपनारा अनुकूल संयोगो मने सांपड्या, जेना फल परिपाक स्वरूप, आ रीतिये प्रकाशनने पामनार आ ग्रन्थ छे.
आ प्रसंगे एक स्पष्टता करी दउ,-संपादन के संशोधन कार्यने अंगेनो मने तेवा प्रकारनो अनुभव नथी. प्रस्तुत ग्रन्थ- संपादन कार्य में प्रथम ज हाथ धरेल छे. संपादनसंशोधन विषयनो मारो आ अनुभव नवो छे. कोइपण ग्रन्थसंशोधन विगेरेनुं कार्य ए अति अगत्य नी जुवाबदारी भरेलु होय छे. खूब तकेदारी, सतत अप्रमत्तशीलता तेमज बहु श्रुतता ए त्रणेयना सुमेळे ग्रन्थ- संपादनकार्य सफल अने संतोषप्रद बनी शके छे.
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जो के प्रस्तुत ग्रन्थनुं संपादन, तेवी रीतिये सफल तेमज संतोषप्रद बन्युं छे, एम कहेवानी धीट्ठाइ हुं नज करी शकुं. कारण के मारी अल्पशक्ति अने खामीओनो मने ख्याल छे. छतांये हुं कहीश के - सामान्यरीतिये आ ग्रन्थना संपादनसंशोधनकार्यमां शक्ति अने स्थिति मूजबनी खबरदारी राखवामां आवी छे. आवश्यक टीप्पणो गुजराती भाषामां परिशिष्ट तरिके रजू करवामां आव्यां छे तेमज बीजी पण शक्य काळजी रखाइ छे.
अपूर्णताओ जरुर छे, क्षतिओ नजरे चढे तेवी छे, जरुरी भाषाटीप्पणी करवा पडतां मूकाया छे. आ बधुंये हुं जाणु छं, पण शक्तिमूजब में आमां प्रयत्न कर्यो छे. मारा आ प्रयत्नमां मने अवसरे अवसरे सहाय आपनार मुनिराज श्री सुबुद्धिविजयजी महाराजश्रीने मारे आ प्रसंगे अवश्य याद करवा जोइए.
वली मारा परमोपकारी आराध्यपाद परमगुरुदेवोपूज्यपाद परमोपास्य सुगृहीतनामधेय सिद्धान्तमहोदधि परम गुरुदेव आचार्य महाराज श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजा तेमज पूज्यपाद परमशासनप्रभावक व्याख्यानवाच - स्पति गुरुदेव आचार्य महाराज श्रीमद् विजयरामचन्द्र
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सूरीश्वरजी महाराजाने हुं केम भूली शकुं ? कारण के-जेओनी अस्सीम कृपा-करुणाष्टिना योगे मारा जेवो अल्प-दीन-साधारण पण आजे श्रीवीतराग परमात्माना धर्ममार्गे खोडातो खोडातो पण गति करी रह्यो छे.
शक्तिमूजव जे कांइ, दर्शन-ज्ञान-चारित्ररुप-रत्नत्रयीनी आराधना मारा जीवनमां थती होय तो ते सघलोये प्रभाव अकारणवत्सल ते परमोपकारी गुरुदेवोनो छे.
प्रान्ते-प्रेसदोष के अज्ञान-प्रमादजन्य जे कांइ स्खलनाओ आ ग्रन्थमा रहेवा पाभी होय तेनुं परिमार्जन करी, स्वाध्यायरत वाचकवर्ग, पूर्वकालीन श्रुतस्थविर महापुरुषोनी आ स्वाध्याय कृतिओना वाचन-मनन-परिशीलरूप स्वाध्यायपाठथी ध्यानना अनलनी चीणगारीओने प्रकटावो अने दुष्कृत-कर्ममलना पूंजने प्रजाळो-एज अभिलाषा.
वीरसं.२४६६, वि.सं. १९९६ फाल्गुन शुक्ला-पंचमी, ता. १४-३-४० गुरुवार अंधेरी-मर्जबान रॉड
मुनि कनकविजय
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છ છછશ
કo@aહ જ હશે કે કanકહ@ @ @ @ @ @oO
O OOOOOOOOOOOO0o88@@@ @ @@@ હાઇ સ્વસ્થ
નામ ૦૦૦૦૦OOOOO૦૦૦ જેeneક પૂજ્યપાદ પરમ શાસનપ્રભાવક વ્યાખ્યાનવાચસ્પતિ
આચાર્ય દેવ શ્રીમદ્ વિજયરામચન્દ્ર સૂરીશ્વરજી
મહારાજ, ૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦OOCOOC000 +૦૦૦૦શ્રી મહાદય પ્રેસ-ભાવનગર
27 Fr.
૦૦૦૦૦૦OOOOOOOWOOOOOOO૦૦ શાળામાં
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आवश्यक विषयनोंध
अध्याय- प्रथम - ( १ )
विषय
श्री आदिनाथ आदि चोवीस तीर्थंकरोना स्तव
...
श्री नन्दनमहामुनिनी आराधना; ...
ग्रन्थ
श्रीत्रिष्टिशलाका पुरुष चरित्र
...
...
विषय
श्री वीतराग स्त्रोत्रना वीश प्रकाश...
श्री महादेव स्तोत्र श्री अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका श्री अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका
अध्याय - द्वितीय - (२)
....
१-५५; १ थी ६९,
६९-७३
कलिकाल सर्वज्ञ श्री
हेमचंद्रसूरीश्वरजी म.
....
...
ग्रन्थकर्त्ता
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008
....
....
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७४-९९
९९ - १०४
१०४ - १०८
१०८ - ११२
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रचयितापू० कलिकालसर्वज्ञ-भगवान् श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी म.
___ अध्याय-तृतीय-(३) विषयश्री नवपदस्वरूप दर्शन.... ___ ... ... ११३-११४ श्री ऋषभजिनेश्वर स्तव (२)
११५-११७ श्री नवपद स्वरूपदर्शन.....
११७-११८ श्री महामुनि स्तव ....
.... ११८-११९ श्री नवपदविषयक देशना
, १२०-१२३ श्री नवपदाराधनविधि ....
.... १२३-१२४ श्री नवपद स्तवन
१२४-१२५ श्री नवपद स्वरूपदर्शक स्तव
१२५-१३५ आत्मनि नवपदमयता..... .....
...... १३६-१३७ ग्रन्थ
ग्रन्थकर्तासिरि सिरिवालकहा ... पूजनीय सूरिदेव श्रीरत्नशेखरसूरिजी.
विषयश्री परमात्म-स्तवन-(२) ..... .... १३७-१४४
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ग्रन्थ
ग्रन्थ कर्ताश्रीउपमीति भवप्रवंचा कथा .... पू० श्रीसाधुचरित सिद्धर्षिगणि विषय
पृष्ठश्री धर्मस्वरूप दर्शनम्...
... १४४-१४६ श्री तत्त्वत्रयी स्वरूप ....
.... १४६-१५० श्री युगादि जिनस्तवः ....
... १५०-१५२ श्री अष्टविधकर्मस्वरूप...
१५२-१५५ श्री पार्श्वनाथ जिनस्तव....
१५५-१५६ षड़िधा अन्तिमाराधना...
१५७-१६० श्री पार्श्वनाथजिनस्तवः
१६१-१६२ श्री धर्माराधनशिक्षा ... ..... १६२-१६८ ग्रन्थ
ग्रन्थकर्ताश्री पार्श्वनाथचरितम् .... पूजनीय आचार्यदेव श्री भावदेवसूरि श्री हृदयप्रदीपषट्त्रिंशिका ... .... १६८-१७२
( कर्ता- प्राचीन महर्षि ) श्री साधारणजिनस्तवः ... .... १७३-१७७
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( कर्ता- परमार्हत श्री कुमारपालभूपाल ) श्री लोडणपार्श्वनाथ जिनस्तवः .... .... १७७-१७८
( कर्ता- श्रीऋद्धिचन्द्रमुनि ) श्रीजिनप्रतिमास्तोत्रम्, कर्ता-श्रीहरिभद्रसूरिवर...१७८-१७९ श्री आदिजिन स्तवः (१-२) ... .... १७९-१८१ कर्ता-(१) उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज,
(२) उपाध्याय श्रीमद् विनयविजयजी महाराज. श्री भूतवर्तमानमाविजिनस्तवः ... ... १८१-१८३
(कर्ता-- श्री श्रीचन्द्रसूरि ) श्री गौतमस्वामिस्तवः ... ... .... १८३-१८४
( कर्ता--- श्री देवानन्दसूरि ) श्री चतुर्विशति जिनस्तवः ... ... १८५
( कर्ता-- प्राचीन महर्षि ) परिशिष्ट--१-२
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ધર્મશ્રદ્ધાસુ
-: ખંભાતનિવાસી મુલચંદ ડાહ્યાભાઈ દલાલ - મુંબઈ. : –
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शुद्धि-सूचन
अशुद्ध
रुद्यानैरिव,
यथा समयमेव
अबोद्धृणामिव
पद्माकर ! दिवाकर !
भव्यजीव मनो
ऽसमोह्ययम्
मूढानामे-क
दुखार्ते
ब्रजमपि
ssed मनो
पापद्रुन्मूलने
राप्यत्रै
पटूयति
ऽपिजगत्पते !
शुद्ध
रुद्यानै-रिव
यथासमयमेव
अबोद्धणामिव
पद्माकरदिवाकर !
भव्यजीवमनो
समो यम्
मूढाना - मेक
दुःखार्तेः
वज्रमपि
ssed मनो
पापडून्मूलने
रप्यत्रै
पटूयते
ऽपि जगत्पते !
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अशुद्ध
व्याधिस्तस्येव
क्षाणात्
उर्मयोऽपि
र्नित्य संक्रांता
निर्वृत्तिकारणम्
जगत्त्र्या
न्यस्तान्यमुनि
घाती
भृंगी
संसारिकं
विजृभितं
दृष्टोऽसि
निःसंगवा
द्यातिनि
बैक गन्ध
ज्येष्टानां
त्यज्याम्यहम्
न्निन्हुवते
शुद्ध
व्याधितस्येव
क्षणात्
ऊर्मयोऽपि
नित्यसंक्रांता
निर्वृतिकारणम्
जगत्त्रय्या
न्यस्तान्यमूनि
घाति
भृंगी
सांसारिकं
विजृम्भितं
यैर्दृष्टोऽस
निःसंगत्वा
घाती नि
बैकगन्ध
ज्येष्ठानां
त्यजाम्यहम्
न्निनुवते
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कामरागस्नेहरत्नतः
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अशुद्ध कामरागस्नेह रखतः -मवि गरिष्टो वीर० यद्यावती बन्ध्या -स्रातघणकम्म बंधणतत्तभायरिजं पंच विहा झाणलीलज्ञानाथ्य कारकः मुररी कृत्य भूवनभूषण ! गुरूः विकसंत्येव किभियं
गरिष्ठो वीत० पद्मावती वन्ध्या -खातघणकम्मबंधणतत्तमार्यार जं पंचविहा .. झाणलीणसानाथ्यकारकः मुररीकृत्य भुवनभूषण ! गुरुः विकसत्येव किमियं
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१४१ १४१ १४१
३ १० १७
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पृष्ठ १४३ . १४३ १४५
पंक्ति
७ १३
مہ
- शुद्ध कारुणिकस्य कारुण्यं गतशीर्षों याक् तद्ध्येयं सद्गन्ध-नीचे
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अशुद्ध कारूणिकस्य - कारूण्यं गतशिर्षो यादक तद्धेयं सनन्ध-नीचैसदा सुतवीभवत् मत्त्वा प्रभुणातवस्तवेन
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यदा
१४८ १५१ १५३ १५५ १५५८ १६५ १७३ . १७३९
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२ ६
सुखी भवेत मत्वा प्रभूणातव स्तवन
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॥ शा० प्र०
॥ ॐ असिआउसाय नमः ॥
आचार्यदेव श्रीमद्विजयदानसूरीशेभ्यो नमः ॥
स्वाध्याय - दोहन
- सं० मुनि कनकविजय.
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अध्याय
(१) [त्रिषष्टि-पर्वान्तर्गत-जिनस्तवादिः]
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अध्याय - १ ]
3
१
[ स्वाध्यायदोहन
*श्री आदिनाथ - जिनस्तवः
तुभ्यं नमस्तीर्थनाथ ! समाधीकृतविष्टप ! | कृपारससरिन्नाथ ! नाथ ! श्रीनाभिनंदन ! मत्यादिभिस्त्रिभिर्ज्ञानैः, सहोत्थैर्नाथ ! शोभसे । नंदनादिभिरुद्यानैरिव, मेरुमहीधरः
देवेदं भारतं वर्ष, दिवोऽप्यद्याऽतिरिच्यते । त्रैलोक्य मौलिरत्नेन यदऽलंक्रियते त्वया त्रैलोक्यमौलिरत्नेन,
असौ त्वज्जन्मकल्याण - महोत्सवपवित्रितः । आसंसारं जगन्नाथ !, वंद्यस्त्वमिव वासरः नारकाणामपि सुखं जज्ञे त्वजन्मपर्वणा । अर्हतामुदयः केषां न स्यात्संतापहारकः जंबूद्वीपस्य भरत क्षेत्रे नष्टो निधानवत् । त्वदाऽऽज्ञाबीज केनातः परं धर्मः प्रकाशताम्
"
॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
11 8 11
॥ ५ ॥
॥ ६ ॥
त्वत्पाद प्राप्य संसारं, तरिष्यंति न केऽधुना ? | अयोsपि यानपात्रस्थं, पारं प्राप्नोति वारिधेः ॥ ७ ॥
* भगवतो जन्मसमये सौधर्मसभायां शकेन्द्रसंरब्धः ।
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त्रिषष्टिः पर्व-१-सर्ग-२-] 4
[ अध्याय-१कल्पवृक्ष इवाऽवृक्षे, नदीस्रोतो मराविव । भगवन्नवतीर्णोऽसि, लोकपुण्येन, भारते ॥८॥.
॥१॥
*श्री आदिनाथ-जिनस्तवः नमस्तुभ्यं नगन्नाथ !, त्रैलोक्यांऽभोजभास्कर !। संसारमरकल्पद्रो !, विश्वोद्धरणबांधव ! वंदनीयो मुहूर्तोऽयं, यत्र ते धर्मजन्मनः । अपुनर्जन्मनो जन्म, दुःखच्छिद्विश्वजन्मिनाम् युष्मजन्माऽभिषेकांऽभः-पुरैराप्लाविताऽधुना । अयत्नक्षालितमला, सत्या रत्नप्रभा प्रभो ! मनुष्याः खलु ते धन्या, ये त्वां द्रक्ष्यंत्यहनिशम् । यथा समयमेव त्वां, द्रष्टारः कीदृशा वयम् ?
॥२॥
1
॥३॥
॥४॥
॥५॥
भरतक्षेत्रजंतूनां, मोक्षमार्गोऽखिलः खिलः । त्वया नूतनपांथेन, नाथ ! प्रकटयिष्यते साऽस्तु तावत्तव सुधा–सध्रीची धर्मदेशना ।
त्वदर्शनमपि श्रेयो, विश्राणयति जन्मिनाम् * मेरौ जन्माऽभिषेकस्नात्रादऽनु शक्रेण संस्तुतः ।
॥६॥
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अध्याय-१]
5 [स्वाध्यायदोहनन कश्चिदुपमापात्रं, भवतो भवतारक ! ।
मस्त्वत्तुल्यमेव त्वां, यदि ते तर्हि का स्तुतिः ? ॥ ७ ॥ नाऽस्मि वक्तुमलं नाथ!, सद्भूतानपि ते गुणान् । स्वयंभूरमणांभोधेर्मातुमंभांसि कः क्षमः ? ॥८॥
*श्री आदिनाथ-जिनस्तवः गुणांस्तव यथाऽवस्थान , वयं वक्तुमनीश्वराः। स्तुमस्तथाऽपि प्रज्ञा हि, त्वत्प्रभावाझ्शायते ॥ १ ॥ त्रसस्थावरजंतूनां हिंसायाः परिहारतः । स्वामिन्नभयदानैक-सत्रिणे भवते नमः ॥२॥ नमस्तुभ्यं मृषाधाद-परित्यागेन सर्वथा । पथ्यतथ्यप्रियवचः-सुधारसपयोधये भगवन्नदत्तादान-प्रत्याख्यानखिलाऽध्वनि । प्रथमायाऽध्वनीनाय नमस्तुभ्यं जगत्पते ! ॥४॥ अखंडितब्रह्मचर्य-महातेजोविवस्वते ।
भगवन्मन्मथध्वांत-मथनाय नमोऽस्तु ते ॥५॥ * प्रभोर्दीक्षामहणादऽनन्तरं शकेन्द्रसंकलितः ।
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त्रिषष्टिः पर्व-र-सर्ग-३] 6
[ अध्याय-१सर्वमेकपदे नाथ !, पृथिव्यादिपरिग्रहं । पलालवत्त्यक्तवते तुभ्यं मुक्त्याऽऽत्मने नमः ॥६॥
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तुभ्यं नमः पंचमहा-व्रतभारककुद्मते । संसारसिंधुतरण-कमठाय महात्मने ॥७॥ महाव्रतानां पंचाना-मिव पंचाऽपि सोदराः । बिभ्रते समितीस्तुभ्य-मादिनाथ ! नमोनमः ॥ ८ ॥
आत्मारामैकमनसे, वचःसंवृत्तिशालिने । सर्वचेष्टानिवृत्ताय, नमस्तुभ्यं त्रिगुप्तये
॥ ९॥
*श्री आदिनाथ-जिनस्तवः स्वामिन् ! कधी-दरिद्रोऽहं, क च त्वं गुणपर्वतः । अभिष्टोष्ये तथापि त्वां, भक्त्याऽतिमुखरीकृतः ॥१॥ अनंतैर्दर्शन-ज्ञान-वीर्याऽऽनंदैर्जगत्पते !। रत्नै रत्नाकर इव त्वमिहैको विराजसे ॥२॥
* कैवल्यज्ञानप्राप्त्यनन्तरं सौधर्मेन्द्रकृतः।
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अध्याय-१]
7 [स्वाध्यायदोहनदेवेह भरतक्षेत्र चिरं नष्टस्य सर्वथा । धमस्याऽसि प्ररोहाय, बीजमेकं तरोरिव ॥३॥ अनुत्तरसुराणां त्वं, तत्रस्थानामिह स्थितः। वेत्सि छिनत्सि संदेहं, न माहात्म्याऽवधिस्तव ॥४॥ फलं त्वद्भक्तिलेशस्य, निवासः स्वर्गभूमिषु । यत्सुराणां समग्राणां, महर्द्धिद्युतिभास्वताम् ॥५॥ देव ! त्वद्भक्तिहीनानां तपांस्यतिमहांत्यपि । अबोद्धणामिव ग्रंथा-ऽभ्यासः क्लेशाय केवलम् ॥ ६ ॥ यस्त्वां स्तवीति यो द्वेष्टि, समस्त्वमुभयो स्तयोः। शुभाऽशुभं फलं किंतु, भिन्नं चित्रीयते हि नः ॥ ७ ॥ धु श्रियापि न तोषो मे, नाथ! नाथाम्यदस्ततः । भगवन् ! भूयसी भूया-त्वयि भक्तिर्ममाऽक्षया ॥ ८ ॥
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-
*श्री आदिनाथ-जिनस्तवः जयाऽखिलजगन्नाथ !, जय विश्वाऽभयप्रद !।
जय प्रथमतीर्थेश , जय संसारतारण ! * समवसरणभुवि श्रीभरतनरेश्वरसंदृब्धः ।
॥१॥
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त्रिषष्टिः पर्व--सर्ग-३-४] 8
[अध्याय-1अद्याऽवसर्पिणीलोक-पद्माकर ! दिवाकर ! । त्वयि दृष्टे प्रभात में, प्रनष्टतमसोऽभवत् ॥ २ ॥ भव्यजीव मनोवारि-निर्मलीकारकर्मणि ।। वाणी जयति ते नाथ !, कतकक्षोदसोदरा ॥ ३ ॥ तेषां दूरे न लोकाग्रं, कारुण्यक्षीरसागर !। समारोहंति ये नाथ !, त्वच्छासनमहारथम् ॥ ४ ॥ लोकाऽग्रतोऽपि संसार-मग्रिमं देव ! मन्महे । निष्कारणजगबंधु-यंत्र साक्षात्त्वमीक्ष्यसे ॥ ५ ॥ त्वदर्शनमहानंद-स्यदनिष्यंदलोचनैः । स्वामिन् ! मोक्षसुखाऽऽस्वादः संसारेऽप्यनुभूयते ॥ ६ ॥ रागद्वेषकषायाद्यै, रुद्धं जगदरातिभिः । इदमुद्वेष्ट्यते नाथ ! त्वयैवाऽभयसत्रिणा ॥ ७ ॥ स्वयं ज्ञापयसे तत्त्वं मार्ग दर्शयसि स्वयम् । स्वयं च त्रायसे विश्वं, त्वत्तो नाथामि नाथ ! किम् ॥ ८ ॥
नानावस्कंदसंग्राम-हतग्रामभुवो मिथः । मित्रीभूयेह तिष्ठति, राजानस्तव पर्षदि
॥ ९ ॥
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अध्याय- १
-
1
9
[ स्वाध्यायदोहन
त्वत्पद्ययमायातः करटी करटस्थलीम् । करेण केशरिकर, कृष्ट्वा कंडूयते मुहुः
॥ ११ ॥
इतश्च महिषमिव, महिषोऽयं मुहुर्मुहुः । स्नेहतो जिह्वया मार्ष्टि, हेषमाणमिमं हयम् लीलालोलितलांगूल, उत्कर्णो नमिताऽऽननः । घ्राणेन व्याघ्रवदनं जिघ्रत्ययमितो मृगः पार्श्वयोरग्रतः पश्चा-ललंतं निजपोतवत् । अयं तरुणमार्जारः समाश्लिष्यति मूषिकाम् ॥ १३ ॥
॥ १२ ॥
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अयं च निर्भयो भोगं, कुंडलीकृत्य कुंडली ।
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अदभ्रबभ्रोरभ्यर्णे, निषीदति वयस्यवत्
देव ! ये केचिदन्येऽपि, जीवाः शाश्वतवैरिणः ।
निर्वैरास्तेऽत्र तिष्ठति, त्वत्प्रभावोऽसमोह्ययम् ॥ १५ ॥
॥ १४ ॥
६
*श्री आदिनाथ - जिनस्तवः
देवैरप्यपरिज्ञेयगुणं कः स्तोतुमीश्वरः ? त्वां स्तोष्यामस्तथापीश विलसद्बालचापलाः ॥ १ ॥
* अष्टापदपर्वते भरतभ्रातृभिः कृतः ।
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त्रिषष्टिः पर्व-१-सर्ग-५] 10
[ अध्याय-१तपस्यतामप्यऽधिकास्त्वां नमस्यति ये सदा । वरिवस्यंति ये तु त्वां, योगिनामपि तेऽधिकाः ॥ २॥ नमस्यतां प्रतिदिनं, विश्वाऽऽलोकदिनेश्वर ! । धन्यानामवतंसंति, त्वत्पादनखरश्मयः ॥३॥ न किंचित्कस्यचित्साम्ना, बलाद्वा गृह्यते त्वया। त्रैलोक्यचक्रवर्ती त्वं, तथाऽप्यसि जगत्पते ! ॥४॥ स्वामिस्त्वमेको जगतां, समं चेतस्सु वर्तसे । पीयूषदीधितिः सर्व-जलाशय-जलेष्विव ॥५॥ त्वां स्तोता स्तूयते देव!, सर्वैस्त्वामर्चिताऽर्च्यते । त्वां नन्ता नम्यते सर्वा, स्वयि भक्तिर्महाफला ॥ ६ ॥ त्वं देव दुःखदावाऽमि-तप्तानामेकवारिदः । मोहांऽधकारमूढानामे-कदीपस्त्वमेव हि रोराणामीश्वराणां च, मूर्खाणां गुणिनामपि । साधारणोपकारी त्वं, छायाद्रुम इवाऽध्वनि ॥८॥
9
-
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अध्याय-१ ]
[स्वाध्यायदोहन
*श्री आदिनाथ-जिनस्तवः अवज्ञायाऽज्ञतां स्वस्य, सर्वज्ञ ! त्वां स्तवीम्यहम् । यन्मां मुखरयत्येषा, दुर्वारा भक्तिमानिता ॥१॥ जयंत्यादिमतीर्थेश !, त्वत्पाद-नखदीप्तयः । वनपंजरतां यांत्यो, भवाऽरित्रस्तदेहिनाम् ॥२॥ देव ! त्वञ्चरणांऽभोज-मीक्षितुं राजहंसवत् । धन्याः प्रतिदिनं दूरा-दपि धावंति देहिनः ॥ ३ ॥ घोरसंसारदुखातैः, शीतातैरिव भास्करः। शरणीक्रियसे देव !, त्वमेवैको विवेकिभिः ॥४॥ ये त्वां पश्यंति भगवन् !, नेत्रैरनिमिषैर्मुदा । परलोके ऽप्यनिमिषी-भावस्तेषां न दुर्लभः ॥५॥ देव ! त्वद्देशनावाग्भि-र्याति कर्ममलो नृणाम् । क्षीरेण क्षोमवस्त्राणा-मिव मालिन्यमांजनम् ॥ ६ ॥ स्वामित्रषमनाथेति, जप्यमाना तवाऽभिधा । आलंबते सर्वसिद्धि-समाकर्षणमंत्रताम् * श्री बाहुबलि-नरेश्वरेण-संकलितः ।
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निषष्टिः पर्व-१-सर्ग-५ ] 12 [ अध्याय-१
न ब्रजमपि भेदाय, न शूलमपि हि छिदे। तेषां शरीरिणां नाथ!, येऽधित्वभक्तिवर्मिताः ॥ ८ ॥
*श्री आदि-जिनस्तवः त्वां जडोऽपि जगन्नाथ ! युक्तमानी स्तवीम्यहम् । . लल्ला अपि हि बालानां युक्ता एव गिरो गुरौ ॥१॥ देव ! त्वामाऽऽश्रयन् जंतु-गुरुकर्मापि सिध्यति । अयोऽपि हेमीभवति स्पर्शासिद्धरसस्य हि ॥२॥ त्वां ध्यायंतः स्तुवंतश्च, पूजयतंश्च देहिनः । धन्याः स्वामिन्नाऽऽददतेमनोवाग्वपुषां फलम् ॥३॥ पृथ्व्यां विहरतः स्वामिन्नपि ते पादरेणवः । महामतंगजायते, पापद्रुन्मूलने नृणाम् ॥४॥ नैसर्गिकेण मोहेन जन्मांधानां शरीरिमाम् । विवेकलोचनं नाथ ! त्वमेको दातुमीशिषे ॥५॥ सुचिरं चंचरीकंति ये भवत्पादपद्मयोः ।
तेषां न दूरे लोकाऽयं मेर्वादि मनसामिव ॥६॥ * श्रीभरतनरेश्वरसंहब्धः ।
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त्रिषष्टि० पर्व - १ सर्ग -६ ]
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[ अध्याय-१
देव ! त्वद्देशनावाग्भिर्गलंत्याऽऽशु शरीरिणाम् । कर्मपाशा जंबूफलानीव वारिदवारिभिः
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इदं याचे जगन्नाथ ! त्वां प्रणम्य मुहुर्मुहुः । त्वयि भक्तिस्त्वत्प्रसादादऽक्षयास्त्वब्धिवारिवत् ॥ ८ ॥
* श्री आदिनाथ - जिनस्तवः
अपि सर्वात्मना ज्ञातुमशक्या योगिपुंगवैः ।
7
स्तुत्याः क्व ते गुणाः स्तोता क्वाऽहं नित्यप्रमद्वरः ॥ १ ॥
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तथापि नाथ स्तोष्यामि यथाशक्ति भवद्गुणान् । दीर्घाऽध्वनि व्रजन् खंजः किं केनाऽपि निवार्यते १ ॥ २ ॥
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भवदुःखाSSतपक्लेश-- विवशानां शरीरिणाम् ।
छत्रच्छायायमानांऽप्रि-च्छाय ! त्रायस्व नः प्रभो ! ॥ ३ ॥
कृतार्थस्त्वं स्वयं नाथ ! कृते लोकस्य केवलम् । एवं विहरसे स्वार्थायोद्याति किम इस्करः ! ॥ ४ ॥
10
* शक्रेन्द्रसंकलितः ।
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अध्याय-१]
14 [स्वाध्यायदोहनमध्यंदिनाऽऽदित्य इव त्वयि प्रभवति प्रभो!। संकुचत्यभितः कर्म देहच्छायेव देहिनाम् ॥५॥ तियचोऽपि हि धन्यास्ते ये त्वां पश्यति सर्वदा । भवदर्शनवंध्यास्तु त्रिविष्टपसदोऽपि न ॥६॥ प्रकृष्टेभ्यः प्रकृष्टास्ते भविकास्त्रिजगत्पते ! । एको हृदयचैत्येषु येषां त्वमऽधिदेवता ॥७॥ एकं याचे भवत्पादान् ग्रामादामं पुरात्पुरम् । विहरत्नपि मा जातु विहासीहृदयं मम ॥८॥
*श्री आदिनाथ-जिनस्तवः कुम्भैानमिवांऽभोधेः स्तवनं मादशैस्तव । स्तोष्यामि तदपि स्वामिन् ! भक्त्या ह्यस्मि निरंकुशः॥ १ ॥ त्वदाऽऽश्रितास्तु त्वत्तुल्या भवंति भविनः प्रभो ! । यांति दीपस्य संपर्का-द्वर्त्तयोऽपि हि दीपताम् ॥२॥ माद्यदिद्रियदंतींद्राऽमदीकरणभेषजम् । तव स्वामिन् ! विजयते शासनं मार्गशासनम् ॥३॥ * भरत चक्रिवरसंस्तुतः ।
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विषष्टिः पर्व-१-सर्ग-६ ] 15 [ अध्याय-१
हत्त्वा घातीनि कर्माणि शेषकर्माण्युपेक्षसे । भुवनानुऽग्रहायैव मन्ये त्रिभुवनेश्वर ! ॥४॥ पादलनास्तव विभो ! लंघते भविनो भवम् । उदन्वंतं पक्षिराज-पक्षमध्यगता इव ॥५॥ जयत्यनंतकल्याण--दुमोल्लासनदोहदम् । विश्वमोहमहानिद्रा-प्रत्यूषं दर्शनं तव ॥६॥ त्वत्पदाऽभोजसंस्पर्शाद्दीयते कर्म देहिवाम् । इंदोर्मूदुभिराप्यौदंतिदंताः स्फुटंति हि ॥७॥ वृष्टिारिधरस्येव मृगांकस्येव चंद्रिका । जगन्नाथ ! प्रसादस्ते सर्वसाधारणः खलु ॥ ८॥
.. ११
*श्री आदिनाथ-जिनस्तवः त्वत्प्रभावास्तवीमि त्वामऽप्राज्ञोऽपिजगत्पते ! । शशिनं पश्यतां दृष्टि-मंदापि हि पटूयति ॥ १ ॥ * भरतनरेश्वरसंदृब्धः ।
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अध्याय-1]
16 [स्वाध्यायदोहनमोहांऽधकारनिर्मग्र-जगदाऽऽलोकदीपक्रम् । आकाशवदनंतं ते स्वामिन् ! जयति केवलम् ॥ २ ॥ प्रमादनिद्रामन्नानां बाथ! कार्येण मादृशाम् । एवं गताऽऽगतानि त्वं करोष्यर्क इवाऽसकृत् ॥ ३ ॥ जन्मलक्षार्जितं कर्म त्वदालोकाद्विलीयते । कालेन दृषदीभूतमप्याज्यं वह्निना द्रवेत् ॥ ४ ॥ एकांतसुखमातोऽपि साध्वी च सुखदुःखमा । यत्र कल्पद्रुमेभ्यस्त्वं विशिष्टफलदोऽभवः ॥ ५ ॥ समस्तभुवनेशेदं भुवनं भूषितं त्वया । राज्ञा पुरीव ग्रामेभ्यो, भुवनेभ्यः प्रकृष्यते ॥ ६ ॥ पिता माता गुरुः स्वामी यत्सर्वेऽपि न कुर्वते । एकोऽप्यनेकीभूयेव त्वं हितं विदधासि तत् ॥ ७ ॥ निशा निशाकरेणेव हंसेनेव महासरः । वदनं तिलकेनेव शोभते भुवनं त्वया ॥ ८ ॥
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विष पर्व-२-सर्ग-२-३ ]
17
[ अभ्यास-1
*श्री अजितनाथ-जिनस्तवः जय त्रिभुवनाधीश !, जय विश्वैकवत्सल !। जय पुण्यलतोद्भेद-नवांबुद ! जगत्प्रभो ! ॥ १ ॥ स्वामिन् ! विमानाद्विजया-दवतीर्णोऽसि भूतले।। इदं जगत् प्रीणयितुं, सरिदोघ इवाऽचलात् ॥ २ ॥ बीजं मोक्षद्रमस्येव, ज्ञानत्रितयमुज्जवलम् । स्वामिन्नाऽऽजन्मसिद्धं ते, शीतलत्वमिवांऽभसः ॥ ३ ॥ ये त्वां त्रिभुवनाधीश !, धारयति सदा हृदि । संमुखीनाः श्रियस्तेषा-मादर्शप्रतिबिंबवत् ॥ ४ ॥ उल्बणैर्वाध्यमानानां, कर्मरोगैः शरीरिणाम् । दिष्टया त्वमऽगदंकारः, प्रतीकारकरोऽभवः ॥ ५ ॥ त्वदर्शनसुधासारा-स्वादस्य त्रिजगत्पते ! । मरुपांथा इव चयं, न तृप्यामो मनागपि ॥ ६ ॥
* जन्माऽभिषेकसमये मेरौ शन्द्रसंदृब्धः ।
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अध्याय-१]
[स्वाध्यायदोहनरथः सारथिनेवाऽद्य, कर्णधारेण नौरिव । पथा व्रजतु लोकोऽयं, त्वया नेत्रा जगत्पते ! ॥ ७ ॥ त्वत्पादपद्मशुश्रषा-समयाऽधिगमेन नः । भगवन्निजमैश्वर्य, कृतार्थमधुनाऽभवत् ॥ ८ ॥
*श्री अजितनाथ-जिनस्तवः भगवन्नजितस्वामिन् !, विजयस्व जगद्गुरो ! । त्रैलोक्यपद्मिनीषंड-विकासनदिवाकर ! ॥ १ ॥ मतिश्रुतावधिमनः-पर्ययैर्नाथ ! शोभसे । ज्ञानेश्चतुर्भिरुदामै-रणवैरिव मेदिनी ॥ २ ॥ त्वं हेलयापि कर्माणि, प्रोन्मूलयितुमीशिषे । अयं परिकरस्तु ते, लोकानां मार्गदर्शकः ॥ ३ ॥ भगवन्नंतरात्मा त्वं, मन्येऽहं सर्वदेहिनाम् ।। तेषामऽद्वैतसौख्याय, यतसे कथमन्यथा ? ॥ ४ ॥ हित्वा कषायान् मलवत्-कृपाजलपरिप्लुतः। त्वमेवाऽसि विशुद्धात्मा, निर्लेपः पद्मपत्रवत् ॥ ५ ॥ * प्रभोर्दीक्षाग्रहणानन्तरं सगरनरेशकृतः ।
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त्रिष० पर्व २-३ सर्ग -५-१] 19
[ अध्याय-१
राज्येऽपि न्यायनिष्ठस्य, न स्वो न च परस्तव । प्राप्तावसरमेतत्तेऽधुना, साम्यं किमुच्यते
॥ ६ ॥
वितर्कयामि भगवन् !, दानं यद् वार्षिकं तव । त्रैलोक्याऽभयदानोरु - नाटकस्याऽऽमुखं हि तत् ॥ ७ ॥
11
धन्यास्ते विषया प्रामा, नगर्यः पत्तनानि च । मलयानिलवद्यानि, प्रीणयन् विहरिष्यसे
१४
* अष्टापदस्थ - जिनस्तवः अपारघोरसंसार - पारावारतरी समाः । निर्वाणकारणीभूता, भगवंतः पुनीत नः स्याद्वादवादप्रासाद-प्रतिष्ठासूत्रधारताम् । नयप्रमाणैर्विद्भ्यो, युष्मभ्यमनिशं नमः आयोजनं गामिनीभि-र्वाणीसारणिभिर्भृशम् |
अशेषजगदुद्यानाऽ-प्यायकेभ्यो नमोऽस्तु वः युष्मद्दर्शनतोऽस्माभिरपि सामान्यजीवितैः अवाप्तमाssपंचमार - जीवितव्यफलं परम् * सगरपुत्रजहनुनृपादिकृतः ।
॥ ८ ॥
॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
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अध्याय-१]
20
[स्वाध्यायदोहन
कल्याणकैगें जन्म-प्रव्रज्याज्ञानमुक्तिभिः । नारकाणामपि सुख-प्रदेभ्यो वो नमो नमः ॥५॥ मेघानामिव वायूना-मिव चंद्रमसामिव । अर्काणामिव भवतां, साधारण्यं श्रियेऽस्तु नः ॥ ६॥ अष्टापदगिरावत्र, धन्यास्ते पक्षिणोऽपि हि । निरंतरायाः पश्यंति, भवतो ये दिने दिने ॥७॥ जीवितं चरितार्थ नः, कृतार्थो विभवश्च नः । युष्मदाऽऽलोकनाऽर्चाभि-श्चिररात्राय संप्रति ॥८॥
*श्री संभवनाथ-जिनस्तवः नमो भगवते तुभ्यं, विश्वनाथाय तायिने । तृतीयतीर्थनाथाय, सनाथाय महर्दिभिः ॥१॥ ज्ञानस्त्रिभिश्चतुर्भिश्वाऽ-तिशयैः सहजन्मभिः । जगद्विलक्षणोऽप्यष्ट-सहस्रस्फुटलक्षणः ॥२॥ सदैव हि प्रमत्तानां, प्रमादच्छेदकारणम् । इदं त्वजन्मकल्याणं, कल्याणायाऽद्य मादृशाम् ॥ ३ ॥ * जन्माऽभिषेकसमये शकेन्द्रसंदृब्धः ।
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त्रिष० पर्व -३ - सर्ग - १ ] 21
सकलापि श्लाघनीया, यामिनीयं जगत्पते ! । अकलंक तनुर्यस्या- मुद्गास्त्वं सुधाकरः
2
अमर्त्यलोकवन्मर्त्य - लोकोऽप्यस्त्वधुना प्रभो ! ।
3
देवैस्त्वद्वंदना हेतो- रेहिरे या हिरापरैः
देव ! त्वद्दर्शनसुधा--स्वादसंतुष्टचेतसाम् । पर्याप्तं जीर्णसुधयाऽ-तः परेण सुधांधसाम्
भगवन् ! भरतक्षेत्र — सरोवरसरोरुह ! | भूयान्मधुव्रतस्येव त्वयि मे परमो लयः
"
१६
* श्री संभवनाथ - जिनस्तवः
[ अध्याय-१
चतुर्ज्ञानधर ! चतु - यमधर्मप्रदर्शक ! | चतुर्गतिप्राणिगण- प्रीतिदायिञ्जय प्रभो !
* दीक्षास्वीकृत्यनन्तरं श्रीशक्रेण संदृन्धः ।
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11 4 11
॥ ६ ॥
मानवा अपि ते धन्या, ये त्वां पश्यंति नित्यशः । त्वदर्शनोत्सवोऽधीश !, स्वाराज्यादतिरिच्यते ! ॥ ८ ॥
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॥ १ ॥
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अध्याय-१]
[स्वाध्यायदाहनधन्यास्तास्त्रिजगन्नाथ !, भरतक्षेत्रभूमयः । तीर्थेश ! जंगमं तीर्थ, यासु त्वं विहरिष्यसे ॥ २ ॥ अस्मिन् वससि संसारे, संसारेण न लिप्यसे । पंकजं पंकजमपि, याति पंकिलतां नहि ॥ ३ ॥
तवाऽसिधारासोदय, जयतीदं महाव्रतम् । कर्मपाशच्छेदनाय, प्रभविष्णु जगत्प्रभो ! ॥ ४ ॥ निर्ममोऽपि कृपालुस्त्वं, निग्रंथोऽपि महर्द्धिकः । तेजव्यपि सदा सौम्यो, धीरोऽपि भवकातरः ॥ ५ ॥ नितांतं पूजनीयः सः, नाकिनां मानवोऽपि सन्। विहरन् कार्यसे येन, पारणं विश्वतारणम् ॥ ६ ॥ महोपकारजनकं, स्वामिन्नविरतस्य मे ।
औषधं व्याधिस्तस्येव, भवदर्शनमीदृशम् ॥ ७ ॥ त्रिजगन्नाथ ! नाथामि, त्वयि भूयान्मनो मम । अनुस्यूतमिवोत्कीर्ण--मिव श्लिष्टमिवाऽनिशम् ॥ ८ ॥
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त्रिष० पर्व - ३ सर्ग २ - ३ ]
23
[ अध्याय- १
१७
* श्री अभिनन्दन - जिनस्तवः
स्वामिंश्चतुर्थतीर्थेश ! चतुर्थाऽरनभोरवे ! | चतुर्थ पुरुषार्थ श्री — प्रकाशक ! जय प्रभो ! ॥ १॥
चिरान्नाथेन भवता, सनाथमधुना जगत् । विवेक चौरमहाद्यै— नैवोपद्रोष्यते क्वचित् पादपीठलूठन्मूर्ध्नि, मयि पादरजस्तव । चिरं निविशतां पुण्य - - परमाणुकणोपमम् ॥ ३॥ मदृशौ त्वन्मुखाऽऽसक्ते, हर्षबाष्पजलोर्मिभिः । अप्रेक्ष्यप्रेक्षणोद्भूतं, क्षाणात्क्षालयतां मलम् मम त्वद्दर्शनोद्भूता - श्विरं रोमांचकंटकाः । नुदंतां चिरकालोत्था – मसद्दर्शन वासनाम् त्वदाssस्यलासिनी नेत्रे, त्वदुपास्तिकरौ करौ । त्वद्गुणश्रोतृणी श्रोत्रे, भूयास्तां सर्वदा मम
11 8 11
11 9 11
॥ ६ ॥
कुंठाऽपि यदि सोत्कंठा, त्वद्गुणग्रहणं प्रति । ममैषा भारती तार्ह, स्वस्त्यैतस्यै किमन्यथा ॥ ७ ॥
* जन्मकल्याणकसमये शक्रदृब्धः ।
|| 2 ||
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अध्याय-१]
24 [स्वान्वायदोहन तव प्रेष्योऽस्मि दासोऽस्मि, सेवकोऽस्म्यस्मि किंकरः। ओमिति प्रतिपद्यस्व, नाथ ! नातः परं ब्रूवे ॥८॥
*श्री सुमतिनाथ-जिनस्तवः । देवत्वजन्मकल्याणेनाऽपि-कल्याणभाग्मही । किं पुनः पादकमलै-यंत्र त्वं विहरिष्यसे ॥ १ ॥ त्वदर्शनसुखप्राप्त्या, कृतकृत्या दशोऽधुना । कृतार्थाः पाणयश्चैते, भगवन् ! पूजितोऽसि यैः ॥ २ ॥ जिननाथ ! तव स्नात्र-चर्चाऽर्चाऽऽदिमहोत्सवः । मन्मनोरथचैत्यस्य, चिरात् कलशतां ययौ ॥ ३ ॥ जगन्नाथ ! प्रशंसामि, संसारमपि संप्रति । यत्र त्वदर्शनं देव !, मुक्तरेकं निबंधनम् ॥ ४ ॥ उर्मयोऽपि हि गण्यते, स्वयंभूरमणोदधेः । तवाऽतिशयपात्रस्य, न पुनर्मादृशैर्गुणाः ॥ ५ ॥ धर्मैकमंडपस्तंभ !, जगदुद्योतभास्कर !। कृपावल्लीमहावृक्ष ! रक्ष विश्वं जगत्पते ! ॥ ६ ॥ * जन्माऽभिषेकसमये शक्रकृतः ।
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त्रिष० पर्व - ३ स्वर्ग-४-५ ] 25
[ अध्याय-१
7
निर्वृतेः संवृतद्वार - समुद्घाटन कुंचिका । धन्यैः शरीरिभिर्देव !, श्रोष्यते तव देशना
मन्मनस्युज्ज्वलाऽऽदर्श - सन्निभे ! भुवनेश्वर ! | त्वन्मूर्तिर्नित्य संक्रांता, भूयान्निर्वृत्तिकारणम् ॥ ८ ॥
१९
* श्री पद्मप्रभ - जिनस्तवः
अस्मिन्नसारे संसारे, मरौ संचारिणां चिरात् । त्वदर्शनमभूदेव !, देहभाजां सुधाप्रपा रूपेणाप्रतिरूपं त्वाम-श्रांतं पश्यतां सताम् । कृतार्थेयं समभवद् – देवानां निर्निमेषता नित्यांधकारे प्रद्योतः सुखं निरयिणामपि । अभूत्ते तीर्थनाथत्व - रूपकस्य सुखं ह्यदः पुण्यैः संसारिणां देव !, कृपासारणिवारिणा । सिक्त्वा नयसि वृद्धित्वं, चिराद्वर्म महीरुहम्
"
जगत्त्रितयनाथत्वं, ज्ञानत्रितयधारिता । इदमाऽऽजन्मसिद्धं ते, शीतलत्वमिवांऽभसां * जन्माभिषेकक्षणे मेरुगिरौ शक्रदृब्धः ।
॥ १ ॥
॥ २ ॥
11 3 11
11 8 11
॥ ५ ॥
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अध्याय-१ ]
26 . [स्वाध्यायदोहनपद्मवर्ण ! पनचिन्ह !, पद्मगंधिमुखानिल !। पद्मानन ! पद्मान्वित-पद्मासन ! जय प्रभो! ॥६॥ अपारो दुस्तरश्चायं सदा संसारसागरः । जानुदघ्नोऽधुना नाथ !, त्वत्प्रसादाद्भविष्यति ॥ ७ ॥ न कल्पांतरसाम्राज्यं, नानुऽत्तरनिवासिताम् । वांच्छामि किंतु शुश्रूषां, भवतः पादपद्मयोः ॥८॥
*श्री सुपार्श्वनाथ-जिनस्तवः अविज्ञेयस्वरूपे त्वय्य-र्थवादाऽऽग्रहो मम । आदित्यमंडलाऽदाने, फालदानं करिव तथापि त्वत्प्रभावेण, स्तोष्ये त्वां परमेश्वर ! । स्पंदते चंद्रकांता हि, चंद्रकांतिप्रभावतः ॥२॥ दत्से समस्तकल्याणै-र्यत्सुखं श्वभ्रिणामपि । तिर्यग्नरामराणां तत् , कथं नाऽसि सुखप्रदः ? ॥ ३ ॥
10
* मेरुगिरौ सौधर्मेन्द्रसंस्तुतः । .
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त्रिष० पर्व-३-सर्ग-५-६ ] 24 [ अध्याय-1
अप्युद्योतो जगत्ल्य्या -मस्मिञ्जन्मोत्सवे तव । उदेष्यत्केवलज्ञान-तरणेररुणायते त्वत्प्रसादस्य संपर्का-दिवैताः ककुभोऽखिलाः । प्रसादं कलयामासु-रधुना परमेश्वर ! ॥५॥ अमी च वांति सुखदाः, पवनाः पावनाकृते । सुखदे त्वयि नाथे, हि जगतां कः प्रतीपकृत् ॥६॥ धिग्नः प्रमादिनो धन्या-न्यासनान्यपि तानि नः । देव ! त्वजन्मकल्याणं, चलित्वाऽज्ञापि यैः क्षणात् ॥ ७ ॥ निदानं देव ! बध्नामि, निषिद्धमपि संप्रति । त्वदर्शनफलं मेऽस्तु, त्वयि भक्तिर्निरंतरा ॥८॥
२१. *श्री सुपार्श्वनाथ-जिनस्तवः निःशेषभुवनकोश-पद्मकोशविवस्वते । तुभ्यं नमो भगवते, श्रीमते सप्तमाऽर्हते गतं दुःखेन विश्वस्या-विर्भूतं च मुदा प्रभो !। विश्वं तीर्थपरावृत्त्या, परावृत्तमिवाऽधुना * भगवतः केवलज्ञानप्राप्त्यनंतरं सौधर्मेन्द्रकृतः ।
॥१॥
॥२॥
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अध्याय-१ ]
28
[ स्वाध्यायदोहन
धर्मचक्रस्तववचो - रत्नदंडेन भाखता । निर्वाणवैताढ्य गिरे - र्द्वारमद्योदूघटिष्यते उन्नतस्येव मेघस्य, भगवन् ! दर्शनं तव । विश्वस्य जीवलोकस्य, संतापच्छेदनान्मुदे अनंतज्ञान ! भगवन् !, देशनावचनं तव । दरिद्रैर्द्रविणमित्र, चिरादस्माभिराप्स्यते
"
॥ ३ ॥
२२
* श्री चन्द्रप्रभ - जिनस्तवः
त्वामऽनंतगुणं स्तोतुं प्रवृत्तोऽस्मि हसास्पदम् । आधारबुध्या गगन-स्योत्पाद इव टिट्टिभः
* मेरौ जन्माऽभिषेकसमये सौधर्मेन्द्र संदृब्धः ।
11 8 11
कृतार्था दर्शनेनाऽपि तवाऽद्यवचनेन तु । । विशेषतो भविष्यामो मुक्तिद्वारप्रकाशिना
अनंतदर्शनज्ञान - वीर्यानंदमयाऽऽत्मने । सर्वाऽतिशयपात्राय, तुभ्यं योगाSSत्मने नमः ॥ ७ ॥
इंद्रादिपदवीप्राप्तिः कियदेतज्जगत्पते !
1
त्वादृशैरपि भूयते
तव शुश्रूषया यस्मान्,
11 9 11
॥ ६ ॥
॥ ८ ॥
॥ १ ॥
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त्रिप० पर्व - ३ सर्ग - ६ ]
29
[ अध्याय-2
व्यापिप्रज्ञस्त्वत्प्रभावात् - मोऽस्मि नु तव स्तवे । दिशोऽश्रुतेऽभ्रलेशोऽपि, पौरस्त्याऽनिलसंगमात् ॥ २ ॥
भविना दृष्टमात्रो वा ध्यातमात्रोऽपिवा प्रभो ! | कर्मपाशच्छेदनायाऽ - पूर्व शस्त्रं किमप्यसि शुभानां कर्मणामऽद्य, जगत्यभ्युदयः खलु । पंकजानामिवाऽऽदित्ये, त्वयि विश्वतमश्छिदि
निजं फलमsदत्वाऽपि, गलिष्यत्यशुभं मम ।
2
शेफालिकापुष्पमिव, निशाकर कराहतम्
1
कर्माणि भवमूलानि, छेत्तुमत्राऽऽगमः प्रभो ! | द्रुमानिवोन्मूलयितुं वने मत्तमतंगजः
"
॥ ३ ॥
अलंकारो यथा मुक्ता-हारादिहृदयस्य मे । बहिरेष तथाऽतस्त्वं, भूयास्त्रिभुवनेश्वर !
॥ ४ ॥
प्रव्रज्याधारि रूपं ते, दूरे विश्वाऽभयप्रदम् । मूर्त्याऽनयापि भगवन् !, दुःखं हरसि जन्मिनाम् ॥ ६ ॥
11 4 11
॥ ७ ॥
॥ ८ ॥
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अध्याय-१]
30 . [ स्वाध्यायदोहन
२३ *श्री चन्द्रप्रभ-जिनस्तवः सुरासुरनरैर्मूर्ध्नि, धार्यमाणमिदं प्रभो ! । शासनं ते विजयते, त्रिलोकीचक्रवर्तिनः . ॥१॥ ज्ञानत्रयधरः पूर्व, मनःपर्ययभृत्ततः। केवली चाऽधुना दिष्ट्या, दृष्टस्त्वमधिकाऽधिकम् ॥ २॥ तव ज्ञानमिदं नाथ !, केवलाऽभिधमुज्ज्वलम् । विश्वोपकारकृज्जीया-च्छाया मार्गतरोरिव तावदेवांऽधकाराणि, न यावहिवसेश्वरः । मदाऽधास्तावदेवेभा, यावत्पंचाननो न हि ॥४॥ तावदेव हि दारिद्रयं, न यावत्कल्पपादपः । तावदेव पयोदौस्थ्य, न यावद्वाएकोऽम्बुदः तावदिवससंतापो, न यावत्पूर्णचंद्रमाः। कुबोधास्तावदेवेह, न यावत्त्वं निरीक्ष्यसे दृश्यसे नित्यमपि यः, सेव्यसे च शरीरिभिः । ताननुमोदयामीश !, सर्वदाऽपि प्रमद्वरः ॥७॥
* केवलज्ञानप्राप्त्यनन्तरं शक्रेन्द्रसंदृब्धः ।
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[ अध्याय-१
त्रिष० पर्व-३-सर्ग-७] 31
इदानीं त्वत्प्रसादेन, स्वदर्शनफलं मम । सम्यक्त्वमुत्तममिदं, भूयादाऽऽजन्मनिश्चलम्
॥८॥
___ *श्री सुविधिनाथ-जिनस्तवः धर्महHदृढस्तंभ !, सम्यग्ज्ञानसुधाइद !। जगदानंदजीमूत !, जय त्रिभुवनेश्वर ! जगदीश ! तव ब्रूमः, किं नामाऽतिशयांतरम् । यन्माहात्म्यगुणक्रीति, त्रिलोकी याति दासताम् ॥२॥ स्वर्गराज्येऽपि न भाजे, तथा दास्ये यथा तव । भात्यद्रौ न तथा रत्न-मप्यंऽनिकटके यथा ॥३॥ शिवं यियासुरायासी-वैजयन्ताच्छिवांऽतिकात् । मार्गभ्रांतस्य लोकस्य, मार्ग दर्शयितुं ध्रुवम् ॥४॥ भरतक्षेत्रगेहस्य, चिरात्त्वमऽसि दैवतम् । निःशंकं तत्र धर्मोऽद्य, गृहस्थ इव नंदतु ॥५॥ विश्वनाथ ! त्वदीयस्य, रूपस्याऽस्याऽतिशायिनः। .. अवतारणतां यातु, सर्वोऽयं दिविषद्गणः * जन्माऽभिषेकसमये शकेन्द्रसंदृब्धः ।
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अध्याय-१]
[ स्वाध्यायदोहन ज्योत्स्नायिते प्रभापूरे, लीयमानानि सस्पृहम् । दिष्ट्यात्वयि चकोरंति, लोचनानि चिरात्प्रभो! ॥७॥ वासागारे सभायां वा, तिष्ठतश्चलतोऽपि मे। त्वन्नाममंत्रस्मरण-मस्तु सर्वार्थसिद्धिदम् ॥८॥
___२५ *श्री सुविधिनाथ-जिनस्तवः
वीतरागोऽसि चेद्रागः, पाणिपादे कथं तव ? । कौटिल्यं च त्वया मुक्तं, किं केशाः कुटिलास्तव ? ॥ १ ॥
प्रजानां यदि गोपस्त्वं, दंडहस्तोऽसि किं न हि ? । निःसंगोयदि वाऽसि त्वं, तत्किं त्रैलोक्यनाथता? ॥ २ ॥ यदि त्वं निर्ममस्ततिक, सर्वत्र करुणापरः ? । त्यक्ताऽलंकरणश्चेत्त्वं, तकि रत्नत्रयप्रियः ? ॥३॥ विश्वस्याऽप्यनुकूलश्चेत् , तत्कि मिथ्यादृशां द्विषन् ?। स्वभावसरलश्चेत्त्वं, छमस्थोऽस्थाः कथं पुरा ? ॥ ४ ॥ * केवलज्ञानप्राप्त्यनन्तरं शक्रः स्तौति ।
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विष० पर्व-३-सर्ग-७-८] 33
[ अध्याय-१दयावान्यदि वाऽसि त्वं, न्यग्रहीमन्मथं कथम् ? । यदि च त्वं गतभयो, भवाद् भीतोऽसि तत्कथम् ? ॥ ५ ॥ यापेक्षापरोऽसि त्वं, तत्कि विश्वोपकारकः ?। अदीप्तो यदि वाऽसि त्वं, दीप्तभामंडलः कथम् ? ॥ ६ ॥ यदि शांतस्वभावस्त्वं, तत्कुतस्तप्तवाँश्चिरम् ? । अरोषणोऽसि यदि च, रुषितः कर्मणां कथम् ? ॥ ७ ॥
अविज्ञेयस्वरूपाय, महद्भयोऽपि महीयसे । सिद्धाऽनन्तचतुष्काय, तुभ्यं भगवते नमः . ॥ ८ ॥
. २६ .
*श्री शीतलनाथ-जिनस्तवः जयेक्ष्वाकुकुलक्षीर-रत्नाकरनिशाकर !। जगन्मोहमहानिद्रा-विद्रावणदिवाकर ! त्वामाऽऽलोकयितुं त्वां च, स्तोतुं त्वामऽर्चितुं तथा ।
आशंसाम्यात्मनोऽनन्ता-दृशो जिह्वा भुजा अपि ॥ ३ ॥ * मेरौ जन्मकल्याणकमहोत्सवसमये शकेन्द्रसंहब्धः । .
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34
[ स्वाध्यायदोहन
स्वामिन् दशमतीर्थेश !, तव पादाऽरविंदयोः न्यस्तान्यमुनि पुष्पाणि, संपन्नं तु फलं मयि ॥ ३॥ अमंद दददाऽऽनंद, दुःखतापाऽर्दिताऽत्मनाम् ।
अध्याय- १ ]
6
मर्त्यलोकेऽवातरस्त्वं, जीमूत इव नूतनः वसंतसमयेनेव, दर्शनेन तव प्रभो ! । स्युरद्य नूतनश्रीकाः, प्राणिनः पादपा इव त्वद्दर्शनपवित्राणि, यानि तानि दिनानि मे । दिनानि शेषाणि पुनः, कृष्णपक्षतमस्विनी
7
8
२७
* श्री शीतलनाथ - जिनस्तवः
त्वत्पादपंकजनख -द्युतिजालजलाऽऽप्लवैः ।
9
स्नायं स्नायं पुनंति स्वं धन्यास्त्रिभुवनेश्वर !
"
11 8 11
* समवसरणभुवि शक्रेन्द्रसंदृब्धः ।
॥ ५ ॥
स्थूतानीवात्मना नित्यं, कुकर्माणि शरीरिणाम् । त्वयाऽद्य विघटतां, द्रागऽयस्कांतेन लोहवत् अत्र वा दिवि वा तिष्ठ - स्तिष्ठन्नऽन्यत्र वा क्वचित् । त्वद्वाहनमहं भूयां, त्वामेव हृदये वहन्
॥ ६ ॥
॥ ७ ॥
॥ ८ ॥
॥ १ ॥
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त्रिष० पर्व - ३-४-सर्ग-८-१] 35
भास्करेणेव गगनं, हंसेनेव महासरः । पार्थिवेनेव नगरं, शोभते भारतं त्वया
J0
आलोक स्तिमिरेणेव सूर्यास्तेंदूदयांतरे । मिध्यात्वेन पराभूतो, धर्मस्तीर्थद्वयाऽन्तरे
जगदंधमिदं जज्ञे, निर्विवेकविलोचनम् । अपथेषु प्रववृते, दिङ्मूढमिव सर्वतः अधर्मो धर्मबुद्धया चाS - देवता देवताधिया । गुरुबुद्ध्या चाऽगुरवो, भ्रांतैर्जगृहिरे जनैः
2
नरकाऽवटपाताय, जगत्यस्मिन्नुपस्थिते । निसर्गकरुणां भोधि - स्तत्पुण्यैस्त्वमवातरः
[ अध्याय- १
॥ २ ॥
तन्मिथ्यात्वाऽपसारेण, सम्यक्त्वं जगतोऽधुना । भावि प्रभो ! केवलं ते, घातीकर्मक्षयादिव
॥ ३ ॥
|| 8 ||
॥ ५ ॥
॥ ६ ॥
3
मिथ्यात्वाऽऽशीविषो लोके, प्रभविष्णुरसौ चिरम् । तावदेव न यावत्ते, प्रसरेद्वचनामृतम्
116 11
11 2 11
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अध्याय-१]
[स्वाध्यायदोहन
२८ .. *श्री श्रेयांसनाथ-जिनस्तवः सर्वकल्याणकश्रेष्ठ, जन्मकल्याणकं तव । विश्राणयतु कल्याणं, कल्याणीभक्तिके मयि ॥१॥ स्नपयाम्यथ चर्चामि, किमर्चामि स्तवीमि किम् ?। त्वामितीश ! न तृप्तिमें, त्वदाऽऽराधनकर्मणि ॥२॥ वृषः कुतीर्थिकव्याघ्र-त्रासितस्त्वयि रक्षके । अमुष्मिन् भरतक्षेत्रे, वैरं चरतु संप्रति अद्य स्वयमधिष्ठाय, हृदयाऽऽयतनं मम । दिष्ट्या देवाधिदेव ! त्वं, सनाथीकुरुषेतराम् ॥४॥ न तथा भूषणं नाथ !, ममैभिर्मुकुटादिभिः । यथा शिरोऽप्रलुठितै-स्त्वत्पादनखरश्मिभिः ॥५॥ न तथा त्रिजगन्नाथ !, स्तूयमानस्य मागधैः। मम प्रमोदो भवति, त्वद्गुणान् स्तुवतो यथा ॥६॥ रत्नसिंहासनस्थस्य, नहि मध्येसभं तथा । उच्चस्त्वं त्वत्पुरो भूमि-निषण्णस्य यथा मम ॥७॥ * मेरौ शकेन्द्रसंदृन्धः।
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त्रिष० पर्व-४-सर्ग-१.२]
37
[ अध्याय-१
स्वराज्यसंभवामेतां, न कांक्षामि स्वतंत्रताम् । परतंत्रश्चिरं भूयां, नाथेन भवता प्रभो !
॥८॥
*श्री श्रेयांसनाथ-जिनस्तवः अमंदाऽनंदनिःस्यद-दायिने परमेश्वर ! । मोक्षकारणभूताय, मोक्षायैव नमोऽस्तु ते ॥१॥ तव दर्शनमात्रेऽपि, कर्माण्यन्यानि विस्मरन् । आत्मारामी भवेदेही, किं पुनः श्रुतदेशनः ? ॥२॥ क्षीरोदः किमुदीर्णोऽसि, कल्पवृक्षः किमुद्गतः । वर्षाऽब्दोऽवतीर्णो वा, स्वामिन् ! संसारधन्वनि ॥ ३ ॥ पीड्यमानस्य विश्वस्याऽ-सद्ग्रहैः क्रूरकर्मभिः । एकादशो जिनेंद्रस्त्वं, त्राता ज्योतिष्मतां पतिः ॥४॥ त्वयेक्ष्वाकुकुलं नाथ !, निसर्गेणाऽपि निर्मलम् । निर्मलीक्रियतेऽत्यन्तं, स्फटिकाऽइमेव वारिणा ॥५॥ + ‘स्वाराज्य. ' इत्यपि पाठो युक्तः, 'देवलोकराज्यसंभवां इत्यर्थः । * धर्मदेशनपरिषदि इन्द्रादिः स्तौति ।
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अध्याय- १ ]
38
[ स्वाध्यायदोहन
जगत्त्रयस्य निःशेष- संतापहरणात् प्रभो ! | पादमूलं तवाऽशेष- च्छायाभ्योऽप्यतिरिच्यते
10
त्वत्पादपद्मयोभृंगी--भूय संप्राप्तसंमदः । नाऽहं भुक्त्यै न वा मुक्त्यै, स्पृहयालुर्जिनेश्वर ! ॥ ७ ॥
॥ ६ ॥
भवे भवे भवदीयौ, चरणौ शरणं मम |
अभ्यर्थये जगन्नाथ !, त्वत्सेवा किं न साधयेत् ? ॥ ८ ॥
३०
*श्री वासुपूज्यस्वामि-जिनस्तवः
चक्रिणां नैव चक्रेण, न चक्रेणाऽर्धचक्रिणाम् । न चेशानस्य शूलेन, न वज्रेण ममाऽपि वा न चात्रैरपरेन्द्राणां यानि भेद्यानि जातुचित् । तानि कर्माणि भिद्यंते, दर्शनेनाऽपि नाथ ! ते नैव क्षीरोदवेलाभि-र्न प्रभाभिः क्षपापतेः । नैव वारिधराssसारैर्न च गोशीर्षचंदनैः
1
न वा निरंतरै: रंभा - Ssरामैः शाम्यंति ये खलु । सर्वे ते दुःखसंतापाः, शीर्यन्ते दर्शनेन ते
* मेरौ कृताऽभिषेक इन्द्रः स्तौति ।
॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
11 8 11
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2
विष० पर्व-४-सर्ग-२.३] 39
[ अध्याय-१न ये नानाविधैः क्वाथै-चूर्णैश्च विविधैर्न ये । न च प्राज्यैः प्रलेपैर्ये, न च ये शस्त्रकर्मभिः ॥५॥ न च मंत्रप्रयोगैर्ये, छिद्यते जातु देहिनाम् । आमयास्ते प्रलीयन्ते दर्शनेनाऽपि ते प्रभो ! ॥६॥ खलूक्त्वा यदि वाऽनल्प-मल्पमेतद् ब्रवीम्यहम् । यत्किचिदऽप्यसाध्यं तत् , साध्यते दर्शनेन ते ॥ ७ ॥ त्वदर्शनस्याऽस्य फल-मिच्छाम्येतज्जगत्पते । भूयो भूयः संप्रतीव, भवदर्शनमस्तु मे ॥८॥
-
*श्री वासुपूज्यस्वामि-जिनस्तवः नितान्तभीषणमितः, प्रसृतं मोहदुर्दिनम् । प्रतिक्षणमितश्चाशा, वेला इव नवा नवाः महायाद इवेतश्च, दुर्वारो मकरध्वजः । इतश्च विषयाः पापाः, प्रौढा दुःपवना इव इतः कषायाः क्रोधाद्या-महावर्ता इवोल्बणाः । रागद्वेषादयश्चेतो, नगदंता इवोत्कटाः * समवसरणभुवि शक्रद्विपृष्टविजयाः स्तुवन्ति।
॥२॥
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40
महोर्मय इवेतश्च, नानादुः ख परंपराः । इतश्चाऽऽतरौद्रध्यान - मौर्वानल इवोच्चकैः
अध्याय- १ ]
[ स्वाध्याय दोहन
इतश्च ममता वेत्र - वल्लीव स्खलनास्पदम् । इतश्च व्याधयोऽनल्पा, नक्रस्तोमा इवोद्धताः
अस्मिन्नपारे संसारे, पारावारेऽतिदारुणे । पतितानुद्धर चिरात् प्राणिनः परमेश्वर ! परेषामुपकाराय, केवलज्ञानदर्शने । तवेमे त्रिजगन्नाथ !, तरोः पुष्पफले इव कृतार्थमद्य मे जन्म, कृतार्थो विभवोऽद्य मे । कर्तुं लेभे मयाऽयं यत्, त्वत्सपर्या महोत्सवः
३२
*श्री विमलनाथ - जिनस्तवः
मोहेन तिमिरेणेव परितोऽपि प्रसारिणा । नितांतकोपनैर्नक्तं चरैरिव जटाधरैः
बुद्धिसर्वस्वहरणैश्चार्वाकैस्तस्करैरिव । अत्यंतमायानिपुणैर्गोमायुभिरिव द्विजैः
* मेरौ शक्रेन्द्रसंस्तुत: ।
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॥ ५॥
॥ ६ ॥
॥ ७ ॥
॥ ८ ॥
॥ १ ॥
॥ २ ॥
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त्रिष० पर्व-४-सर्ग-३] 41
[ अध्याय-१भ्रमद्भिमंडलीभूय, कौलाचार्यैर्वृकैरिव । उलूकैरिवपाखंडै-वल्गद्भिरपरैरपि
॥ ३ ॥ सिद्धेनेव विवेकाक्षं, मिथ्यात्वेन विलुपता। सद्भूतानां पदार्थाना-मविज्ञानेन सर्वतः ॥४॥ अभूच्चिरमयं कालो, यामिन्येव जगत्पते ! !। प्रभातं त्वधुना जज्ञे, त्वया नाथेन भास्वता त्वत्पादपद्यामाऽऽसाद्य, लंधिताऽलंधिता खलु । निम्नैरपि हि संसार-निम्नगा निम्नगा जनैः ॥६॥ भवच्छासननिःश्रेणि-मधिरुह्याऽचिरादपि । मन्येऽध्यासितमेवोच्चै-र्लोकाऽयं भव्यजंतुभिः ॥७॥ अस्माकमप्यनाथानां, चिरान्नाथोऽस्युपस्थितः । निदाघाऽऽतपतप्तानां, पांथानामिव वारिदः ॥८॥
*श्री विमलनाथ-जिनस्तवः देव ! त्वदर्शनेनाऽद्य, दुःखं संसारिकं ययौ।
शरीरिणां भुवः पंक-इव वार्षिकवारिणा. * धर्मदेशनभुवि शकेन्द्रकृतः ।
॥१॥
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अध्याय-१]
42 [स्वाध्यायदोहनपुण्योऽयं दिवसः स्वामि-स्त्वदर्शननिबन्धनम् । यत्राऽमलीभविष्यामो, दुःकर्ममलिना वयम् ॥२॥ अंगाऽवयवराजत्वं, प्रत्यपद्यंत नो दृशः यास्त्वदर्शनमासाद्य, सद्योऽधुः शुद्धिमात्मनः ॥३॥ पूतास्त्वत्पादसंपर्काद्-भरतक्षेत्रभूमयः । अपि ताः पापनाशाय, किं पुनस्तव दर्शनम् ॥४॥ मिथ्यादृशामुलूकाना-मिव त्वदर्शनं विभो ! । केवलाऽऽलोकमार्तंड-तिरोभावनिबन्धनम् ॥५॥ त्वदर्शनसुधापान-समुच्छ्वसितवर्मणाम् । अद्य देव ! त्रुटिष्यंति, कर्मबन्धाः शरीरिणाम् ॥ ६ ॥ विवेकदर्पणोन्मार्टि-समुत्पादनकर्मठाः । कल्याणतरुबीजाऽऽभाः, पांतु त्वत्पादपांसवः ॥७॥ स्वामिन् ! पीयूषगंडूष-इव ते देशनावचः । संसारमरुममाना-मस्तु नः स्वास्थ्यहेतवे
॥८॥
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त्रिष० पर्व ४-सर्ग ४ ]
43
[ अध्याय-१
*श्री अनंतनाथ-जिनस्तवः तवाऽग्रे भूमिलुठनै-र्ये हि भूरेणुनाऽचिताः । गोशीर्षचंदनेनाऽग-रागस्तेषां न दुर्लभः ॥१॥ भक्त्यैकमपि यैः पुष्पं, त्वन्मूर्धन्यधिरोप्यते । ते छत्राऽशून्यशिरसः, संचरंति निरन्तरम् ॥२॥ अंगरागस्तवांडगे यै-रेकदाऽपि विधीयते । देवदूष्यांऽशुकधरा-स्ते भवंति न संशयः निधीयते भवत्कंठे, पुष्पदामैकदापि यैः । लुठन्ति तेषां कंठेषु, दोलताः सुरयोषिताम् ॥४॥ ये वर्णयन्त्येकदाऽपि, त्वद्गुणानतिनिर्मलान् । ते गीयंते सुरस्त्रीभि-रपि लोकातिशायिनः ॥५॥ ये चारुचारीचतुरं, भक्त्या वल्गंति ते पुरः। ऐरावणकरिस्कंधाऽऽ-सनं तेषां न दुर्लभम् ध्यायंति परमात्मानं, ये त्वां देव ! दिवानिशम् ।
त्वादशीभूय ते लोके, ध्येयतां यांति सर्वदा ॥७॥ * मेरौ शकेन्द्रसंस्तुतः ।
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अध्याय-१]
44
[स्वाध्यायदोहन
स्नात्रांऽगरागनेपथ्याऽऽ-कल्पप्रभृतिकल्पने । अधित्वन्मेऽधिकारोऽस्तु, सदाऽपि त्वत्प्रसादतः ॥८॥
*श्री अनन्तनाथ-जिनस्तक देहभाजां मनोवित्तं, विषयैस्तस्करैरिव । तावदुलंध्यते यावन्-न त्वमेषामऽधीश्वरः प्रसर्पत्कोपतिमिरं, दृशोऽन्धकरणं नृणाम् । दूरादपसरत्येव, त्वदर्शनसुधांऽजनात् ॥२॥ मानेन भूतेनेवाऽऽत्ता-स्तावदज्ञाः शरीरिणः । यावद्भवद्वचो मंत्र-इव तैर्न हि शुश्रुवे त्वत्प्रसादात् त्रुटन्माया-निगडानां शरीरिणाम् । संप्राप्ताऽऽर्जवयानानां, मुक्तिनं हि दवीयसी ॥४॥ यथा यथा देहभाजो, निरीहास्त्वामुपासते । चित्रं तथा तथा तेषा-मस्युत्कृष्टफलप्रदः संसारसरितो राग-द्वेषौ द्वे श्रोतसी इव ।
तद्द्वीप इव माध्यस्थ्ये, स्थीयते तव शासनात् ॥६॥ * समवसरणभुवि सौधर्मेन्द्रकृतः ।
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[ अध्याय-1
त्रिष० पर्व-४-सर्ग-५] 45
देहिनां निर्वृतिद्वार-प्रवेशोत्सुकचेतसाम् । मोहांऽधकारदीपत्वं, त्वं धारयसि नाऽपरः विषयैः कषायराग-द्वेषमोहैरनिर्जिताः । भूयास्म त्वत्प्रसादेन, प्रसीद परमेश्वर !
॥७॥
॥२॥
1
*श्री धर्मनाथ-जिनस्तवः नमस्तुभ्यं पंचदशायाs-ऽहते परमेश्वर !। परमध्येयरूपाय, परमध्यायिनेऽपि च देवेभ्यो दानवेभ्योऽपि, मान्मन्ये गरीयसः। त्रैलोक्यवंद्यो यत्र त्व-मुदभूस्तीर्थनायकः अपाग्भरतवर्षेऽस्मिन् , ममाऽद्यैवाऽस्तु मर्त्यता। मोक्षसाधनसाधीय-स्त्वच्छिष्यत्वजिघृक्षया नारकेभ्यो नाकसदां, को भेदः सुखिनामपि । भवेद्येषां प्रमत्तानां, न भवत्पाददर्शनम् विजृभितं तावदेव, चूकैरिव कुतीर्थिकैः । .. न यावत्रिगन्नाथ !, रवेरिव तवोदयः * मेरौ शकेन्द्रस्तुतः ।
॥३॥
॥४॥
॥५॥
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अध्याय-१]
46 [स्वाध्यायदोहनतव वर्षांऽबुदस्येव, धर्मदेशनवारिणा। भरताऽधं सर इवाऽ-शेष पूरिष्यतेऽचिरात् ॥६॥ अनंतान् देहिनो मुक्ति, प्रापयन् परमेश्वर !। अरिदेशमिवोर्वीश-स्त्वं कर्ता भवमुद्वसम् ॥७॥ त्वत्पादपद्मलीनेन, षट्पदेनेव चेतसा। भगवन् ! कल्पवासेऽपि, प्रयांतु मम वासराः ॥ ८ ॥
*श्री धर्मनाथ-जिनस्तवः विजयस्व जगच्चक्षु-श्वकोराऽनंदचंद्रमाः। मिथ्यात्वध्वांतमार्तड !, धर्मनाथ ! जगत्पते ! ॥ १ ॥ चिरं व्यहार्षीश्छद्मस्थो, गतछद्मा तथाऽप्यसि । अनन्तदर्शनोऽपि त्वं, दर्शनांऽतरबाधकः ॥२॥ त्वद्देशनापयःपूरैः, परितः प्लाविताऽऽत्मनाम् । अह्राय कर्ममालिन्य-मपयाति शरीरिणाम् ॥ ३ ॥ तथा न मेवच्छायासु, तरुच्छायासु नाऽपि वा।
यथा शाम्यति संतापः, पादमूले तव प्रभो ! ॥४॥ * समवसरणभूम्यां सौधर्मेन्द्रः स्तौति ।
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अध्याय-१
॥५॥
विष० पर्व-५-सर्ग-५] 47
इह त्वदर्शनाऽऽलोक-निस्यंदवपुषः प्रभो !। पांचालिकावदुत्कीर्णा, इव भांति शरीरिणः पृथग्विरुद्धमप्येत-देकत्र मिलितं चिरात् । त्वत्प्रभावाजगढुंधो !, बंधूभूतं जगत्त्रयम् त्रिखंडभरतक्षेत्र-मूलायतनदैवत ! । अनन्यशरणान-ऽस्माँस्त्रायस्व परमेश्वर ! भूयो भूयो जगन्नाथ !, त्वामदः प्रार्थयामहे। त्वपादपंकजद्वंद्वे-ऽस्मन्मनो भ्रमरायताम्
॥६॥
॥ ७ ॥
॥८॥
"श्री शांतिनाथ-जिनस्तवः भगवन् ! भवते विश्व-जनीनायाऽद्भुतर्द्धये । संसारमरुमागक-च्छायाविटपिने नमः संचितैनस्तमस्विन्याः, प्रभातसमयो मया । त्वदीयं दर्शनं दिष्ट्याऽ-धिगतं परमेश्वर ! ॥२॥ लोचनान्यपि धन्यानि,-यैदष्टोऽसि जगत्पते ! 1.
तेभ्योऽपि पाणयो धन्या--स्त्वत्संस्पर्शोऽन्वभावि यैः॥ ३ ॥ * जन्माभिषेकसमये शकेन्द्रकृतः ।
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अध्याय-१-] 48 [स्वाध्यायदोहन
विद्याधराणां महर्द्धि-श्चक्रवर्ती कदाऽप्यसि । प्रकृष्टोऽस्येकदा देवो, बलदेवोऽसि चैकदा ॥४॥ एकदाऽप्यच्युतेंद्रोऽसि, ज्ञानी चक्रभृदेकदा । एकदा त्वं महेंद्रोऽसि, अवेयकविभूषणम् ॥५॥ महासत्त्वोऽवधिज्ञान-धरो राजाऽसि चैकदा। सर्वार्थसिद्धाऽलंकारो-ऽहमिंद्रः पुनरेकदा क क जन्मनि नाभूस्त्व-मुत्कृष्टः परमेश्वर!। तीर्थकृज्जन्मना त्वऽद्य, पर्याप्ता वर्णना गिरः नेशोऽस्मि त्वद्गुणान् वक्तुं, स्वमर्थ किं तु वच्म्यहम् । भवे भवे भवतु मे, भक्तिस्त्वत्पादपद्मयोः ॥८॥
३९ श्री शान्तिनाथजिनस्तवः श्रेयोदशाप्रवेशोऽद्य, जगतोऽपि जगत्पते ! । ज्ञानाऽदित्येन भवता, सुदिनोत्सवकारिणा ॥ १ ॥ पुण्यैरस्मादृशामेते, तव कल्याणकोत्सवाः । कल्याणचिंतामणयः, प्रभवंति जगद्गुरो ! ॥२॥
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त्रिष० पर्व-६-सर्ग-१] 49
[ अध्याय-1कषायादिमलालीढं, मनः: सर्वशरीरिणाम् । क्षालयंति जगन्नाथ !, त्वदर्शनजलोर्मयः ॥ ३ ॥ कर्मच्छिदे बद्धयत्न-स्तीर्थकृत्कर्म यत् पुरा। आर्जयस्तत्तव स्वार्थाऽ-नपेक्षाऽन्योपकारिता ॥४॥ घोरसंसारभीतानां, महादुर्गमिव प्रभो!। . जगत्यऽदस्ते समव-सरणं शरणं नृणाम् ॥५॥ जानासि सर्व सर्वेषां, भावं सर्वहितोऽसि च। प्रार्थनीयं न तत् किंचि-त्तथापि प्रार्थ्यसे मया ॥६॥ यथा हि विहरन्नुा , ग्रामाकरपुरादिकम् । क्षणे क्षणे त्वं त्यजसि, मा त्याक्षीमन्मनस्तथा ॥७॥ त्वत्पादपंकजध्यान-षट्पदीभूतचेतसः।.. व्यतिक्रामतु मे कालो, भगवस्त्वत्प्रसादतः ॥८॥
- ४०
*श्रीकुंथुनाथ-जिनस्तवः अद्य नीराणि क्षीरोद-प्रभृतीनामुदन्वताम् ।.. पद्मप्रभृतिहूदानां, पद्मानि च पयांसि च ॥१॥ * मेरौ इन्द्रादिः स्तौति ।
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50
अध्याय-१]
[ स्वाध्यायदोहणाऔषध्यः क्षुद्रहिमक्त्-प्रभृतीनां महीभृताम् । भद्रशालप्रभृतीनां, वनानां कुसुमान्यपि ॥२॥ मलयाऽधित्यकादीनां, भूभीनां चंदनानि च । युष्मत्स्नात्रोपयोगेन, कृतार्थानि जगत्पते !
॥३॥
(त्रिभिर्विशेषकम् ) कृतार्थमिदमैश्वर्य-मखिलानां दिवौकसाम् । देव ! त्वजन्मकल्याण-महोत्सवविधानतः ॥ ४ ॥ उत्कृष्टो भूभृतामद्य, तीर्थभूतोऽयमद्य च । प्रासाद इव बिबेन, त्वया मेरुरलंकृतः ॥५॥ अद्य चढूंषि चक्षुषि, पाणयश्चाऽद्य पाणयः । दर्शनेन स्पर्शनेन, भवतो भुवनेश्वर ! ॥६॥ अद्य नः सफलं नाथाऽ-वधिज्ञानं निसर्गजम् । येन ते जन्म विज्ञाय, जन्मोत्सवमकृष्महि ॥७॥ यथाऽद्य हृदयद्वारे, स्नात्रकाले ममाऽभवः । तथैव हृदयखांकन प्रपि भूपश्चिरं प्रभो! ॥८॥
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शिष० पर्व - ६-सर्ग-१-२] 51
४१
* श्रीकुंथुनाथ - जिनस्तवः
1
॥ २ ॥
चतुर्घाधर्मदेष्टारं चतुर्गात्रं चतुर्मुखम् । चतुर्थपुरुषार्थेशं, त्वां स्तुमः परमेश्वरम् चतुर्दशमहारत्नीं, निःसंगवाश्वमत्यजः । रत्नत्रयीं त्वनवद्यां दधासि जगदीश्वर ! मनो हरसि विश्वस्य निर्मनस्कस्तथाऽप्यऽसि । उत्तप्तस्वर्णवर्णस्त्वं, ध्यायसे चेन्दुसन्निभः निःसंगोऽपि महद्धिस्त्वं, ध्येयोऽपि ध्यातृताऽऽस्पदम् । कोटिशोऽध्यावृतो देवा दिभिः कैवल्यभागऽसि ॥ ४ ॥
॥ ३ ॥
-
विश्वस्य रागं तनुषे, वीतरागोऽसि च स्वयम् । अकिंचनोऽपि भवसि जगतः परमध्ये
[ अध्याय- १
॥ १ ॥
11 4 11
॥ ६ ॥
अविज्ञेयप्रभावायाs - ज्ञेय रूपाय तायिने । नमो भगवते सप्त - दशाय भवतेऽर्हते सप्त-दशाय प्रणामोऽपि त्वयि विभो !, ऽचिन्त्यचिन्तामणिर्नृणाम् । किं पुनर्मनसा ध्यानं, स्तवनं वचसाऽपि वा
॥ ७ ॥
* समवसरणभुवि शक्रेन्द्रकृतः ।
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52
प्रणामे स्तवने ध्याने, प्रभो ! त्वद्विषये मम । प्रवृत्तिः सर्वदाऽप्यस्तु कृतमऽन्यैर्मनोरथैः
अध्याय- १ ]
[ स्वाध्यायदोहन
४२.
*श्री अरनाथ - जिनस्तवः
नष्टाऽष्टादशदोषाया-ष्टादशायाऽर्हते प्रभो ! | अष्टादशविधब्रह्म-भृतां ध्येयाय ते नमः
ज्ञानत्रयं गर्भतोऽपि, यथैवाऽयतने तव । तथैवाऽखिलमप्येतत्, तीर्थनाथ ! जगत्रयम्
मोहाऽवस्वापिनीं दत्त्वा, रागद्वेषादिदस्युभिः । चिरं जगदवस्कन्नं, स्वामिस्त्रायस्व संप्रति
पथि श्रांतैरिव रथ- स्तृष्णाऽऽक्रांतैरिवाऽपगा । तप्तैरिव तरुच्छाया, निमज्जद्भिरिवोडुपः
1
रोगिभिरिव भैषज्यं, ध्वान्ताऽन्धैरिव दीपकः । हिमातैरिव मार्तंडो, मार्गमूढैरिवाऽप्रगः
* मेरौ इन्द्रादिः स्तौति ।
॥ ८ ॥
॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
॥ ४ ॥
॥ ५ ॥
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त्रिषष्टिः पर्व-६-सर्ग-२-६ ] 53
[ अध्याय-१
व्याघ्रभीतैरिवार्चिष्मा-नैर्नाध्यविधुरैश्चिरात् । तीर्थनाथ ! त्वमस्माभि-नाथः प्राप्तोऽसि संप्रति ॥ ६ ॥
.. (त्रिभिर्विशेषकम् ) भवन्तं नाथमाऽऽसाद्य, सुरासुरनरा अमी । स्वस्वस्थानेभ्य आगच्छं-त्यमांत इव हर्षतः ॥७॥ भवतो नाथ ! नाथामि, न खल्वन्यत् किमप्यहम् । नाथामि किंत्विदं मे त्वं, नाथो भूया भवे भवे ॥ ८ ॥
४३ *श्रीअरनाथ-जिनस्तवः जय त्रिभुवनाऽधीश !, जय विश्वकवत्सल !। जय कारुण्यजलधे !, जयाऽतिशयशोभित ! ॥१॥ विश्वप्रकाशनं भानो-रमोधैर्भानुभिः सदा । विश्वसंतापहरणं, ज्योत्स्नया च हिमद्युतेः ॥२॥ जगज्जीवनमंऽभोभिः, प्रावृडंऽभोधरस्य च ।। जगदाऽऽश्वासनं वायो-गेत्या संततयापि च ॥३॥
* समवसरणभुवि शकेन्द्रकृतः ।
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अध्याय-१]
54 [ स्वाध्यायदोहनयथा निष्कारणामिह, तथा ते परमेश्वर !। जगत्रयोपकाराय, प्रवृत्ति यति प्रभो! ॥४॥ अंधकारमयं चाऽसी-दंधं वा जगदऽप्यदः । सप्रकाशं सेक्षणं वा, त्वया जज्ञेऽधुना पुनः ॥ ५ ॥ नारकाणां खिलः पंथा, भविताऽतः परं प्रभो !। तिर्यग्योनावपि गतिः, स्तोकस्तोका भविष्यति ॥६॥ सीमग्रामांऽतराणीव, स्वर्गाश्च प्राणिनाममी । प्रत्यासन्ना भविष्यन्ति, मुक्तिरप्यदवीयसी ॥७॥ त्वयि विश्वोपकाराय, विहरत्यवनीमिमाम् ।। भावि किं किं न कल्याण-मसंभाव्यमपि प्रभो ! ॥ ८ ॥
-
४४
*श्रीमल्लिनाथ-जिनस्तवः ज्ञानत्रयनिधानाय, प्रधानाय जगत्रये । एकोनविंशतितमाऽ-याऽर्हते ते नमो नमः दिष्ट्या त्वदर्शनेनाऽनु-गृहीतोऽस्मि चिरादहम् । सामान्यपुण्येने ह्यर्हन् , देवः साक्षान्निरीक्ष्यते ॥२॥ * मेरौ जन्माऽभिषेकसमये शक्रकृतः ।
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विपर्व-६-सर्ग-६] 55
[ अध्याय-१देवानामद्य देवत्वं, चरितार्थ चिरादऽभूत् । तव देवाधिदेवस्य, जन्मोत्सवनिरीक्षणात् एकतोऽच्युतनाथस्य, प्राणिमात्रस्य चाऽन्यतः । समानुग्रहबुद्धे ! त्वं, पाहि नः पततो भवे ॥४॥ अस्मिन्मेरुगिरिर्धात्र्याः, सुवर्णमुकुटायते । इन्द्रनील इव न्यस्त-स्त्वमतीव विराजसे ॥५॥ स्मरणेनाऽपि मोक्षायाऽ-नीहमानस्य जायते । दृष्ट्वा स्तुत्वा याच्यसे किं, ततोऽप्यभ्यधिकं फलम् ॥ ६ ॥ थर्माण्येकत्र सर्वाणि, तव चैकत्र दर्शनम् । फलाऽप्तिसाधकत्वेन, द्वितीयमतिरिच्यते
॥७॥ नेन्द्रत्वे नाऽहमिन्द्रत्वे, मन्ये मोक्षेऽपि नो तथा । यथासुखं स्याल्लुठतः, पुरस्त्वत्पादपद्मयोः ॥८॥
४५ *श्रीमल्लिनाथ-जिनस्तवः दिष्ट्या प्रणमतां माले, त्वत्पादनखरश्मयः । भवन्ति भवभीतानां, रक्षातिलकसन्निभाः * समवसरणभुवि इन्द्रादिकृतः ।
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अध्याय-१]
56 [स्वाध्यायदोहन आजन्मब्रह्मचारित्वा-दीक्षा ते जन्मतोऽपि हि । व्रतपर्यायदेशीयं, मन्ये जन्माऽपि तत्तव ॥२॥ किं देवसद्मना तेन, न यत्र तव दर्शनम् । इदं तु भूतलं श्रेय-स्त्वदाऽऽलोकपवित्रितम् ॥३॥ नृदेवतिर्यग्जन्तूनां, भीतानां भववैरितः । दुर्ग त्वदीयं समव-सरणं शरणं प्रभो ! ॥४॥ कुकर्माण्यन्यकर्माणि, त्वत्पादप्रणति विना । यैः कर्माण्येव सूयंते, संसारस्थितिकारणम् ॥५॥ दुर्ध्यानान्यन्यध्यानानि, भवद्धयानं विना खलु । यैरात्मा बध्यते बाढं, निजैतेव तंतुभिः ॥ ६ ॥ कथाश्च दुःकथा एव, भवद्गुणकथां विना ।
रिव, वाग्मिर्विपदमभुते त्वत्पादपद्मसेवायाः, प्रभावेण जगद्गुरो ! । भवच्छेदोऽस्तु यद्वाऽस्तु, त्वयि भक्तिर्भवेभवे ॥८॥
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त्रिष० पर्व-६-सर्ग-७]
57
[ अध्याय-१
*श्रीमुनिसुव्रतस्वामि-जिनस्तवः अद्याऽवसर्पिणीकाल-सरोवरसरोरुह !। दिष्ट्या प्राप्तोऽसि भगवन्न-स्माभिर्धमरैश्चिरात् ॥१॥ अजायत तव स्तोत्रा-ध्यानात् पूजादिकादऽपि । वाङ्मनोवपुषां श्रेयः, फलमद्यैव देव ! मे ॥२॥ यथा यथा नाथ ! भक्ति-गुरुर्भवति मे त्वयि । लघूभवंति कर्माणि, प्राक्तनानि तथा तथा ॥३॥ स्वामिन्नविरतानां नः, स्याजन्मैतन्निरर्थकम् । • यदि त्वदर्शनं न स्या-दिदं पुण्यनिबंधनम् ॥४॥ तवांऽगस्पर्शनस्तोत्र-निर्माल्याऽऽघ्राणदर्शनैः । गुणगीताऽऽकर्णनैश्च, कृतार्थानीन्द्रियाणि नः ॥५॥ मेरुमौलिरयं भाति, नीलरत्नत्विषा त्वया । प्रावृषेण्यांबुदेनेव, नयनाऽऽनन्ददायिना ॥६॥
स्थितो भरतवर्षेऽपि, सर्वगः प्रतिभासि नः । .. यत्र तत्र स्थितानां यद्-भवस्यतिच्छिदे स्मृतः ॥७॥
* मेरौ जन्माभिषेकक्षणे शक्रसंदृब्धः ।
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अध्याय- १ ]
10
58
[ स्वाध्याय दोन
"
अस्तु च्यवनकालेऽपि त्वत्पादस्मरणं मम | यथा प्राग्जन्मसंस्कारा-तदेवस्याद्भवान्तरे
४७
*श्रीमुनिसुव्रतस्वामि-जिनस्तवः
त्वत्पाददर्शनस्यैव, प्रभावोऽयं जगत्पते ! । यत्वगुणान् वर्णयितुं, मादृशोऽपि प्रगल्भते देशनासमये पुण्यां, तब गां परमेश्वर ! | वंदामहे श्रुतस्कंध-वत्सप्रसविनीमिह त्वद्गुणग्रहणात् सद्यो, भवंति गुणिनो जनाः । स्निग्धद्रव्यस्य योगाद्धि, स्निग्धीभवति भाजनम् ॥ ३ ॥
1
116 11
॥ १ ॥
"
ये हि त्यक्ताऽन्यकर्माणः शृण्वन्ति तव देशनाम् । त्यक्तप्राक्तनकर्माण - स्ते भवंति क्षणादपि त्वन्नामरक्षामंत्रेण, संवर्मितमिदं जगत् । अंहः पिशाचै नैवाऽतः, परं देव ! प्रसिष्यते कस्यापि न भयं नाथ ! त्वयि विश्वाऽभयप्रदे स्वस्थानयायिनो मे तु त्वद्वियोगभवं भयम्
* समवसरणभुवि शकादिसंदृन्धः ।
।
॥ २ ॥
N ४ ॥
॥ ५ ॥
॥ ६ ॥
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त्रि पर्व - ७ सर्ग - ७-११ ] 59
[ अध्याय--१
अपि शाश्वतवैरान्धा, बहिरंगा न केवलम् |
3
शाम्यति तेऽन्तिके स्वामि- नंतरंगा अपि द्विषः ॥ ७ ॥
ऐहिकामुष्मिकाऽभीष्ट - दानकामगवी प्रभो ! | त्वन्नामस्मृतिरेवाऽस्तु, यत्र तत्र स्थितस्य मे
116 11
४८
* श्री शान्तिनाथ - जिनस्तवः देवाधिदेवाय जगत्-तायिने परमात्मने । श्रीमते शांतिनाथाय, षोडशायाऽर्हते नमः श्रीशांतिनाथ ! भगवन् !, भवांऽभोनिधितारण ! | सर्वार्थसिद्धमंत्राय, त्वन्नाम्नेऽपि नमोनमः ये तवाष्टविधां पूजां कुर्वति परमेश्वर ! | अष्टाऽपि सिद्धयस्तेषां, करस्था अणिमादयः धन्याऽन्यक्षीणि यानि त्वां पश्यंति प्रतिवासरम् ।
•
तेभ्योऽपि धन्यं हृदयं, तद्दृष्टो येन धार्यसे
॥ ४ ॥
देव ! त्वत्पाद संस्पर्शा - दपि स्यान्निर्मलो जनः । अयोsपि भवति, स्पर्शवेधिरसान्न किम् ? ॥ ५ ॥
* दशमुखः स्वगृहचैत्ये स्तौति ।
11 3 10
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
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अध्याय-१]
[स्वाध्यायदोहनत्वत्पादाऽब्जप्रणामेन, नित्यं भूलंठनैः प्रभो ! ।
शृंगारतिलकीभूयान् , मम भाले किणावलिः ॥६॥ पदार्थैः पुष्पगंधाद्यै-रुपहारीकृतैस्तव । प्रभो ! भवतु मद्राज्य-संपडल्लेः सदा फलम् ॥ ७ ॥ भूयो भूयः प्रार्थये त्वा-मिदमेव जगद्विभो!। भगवन् ! भयसी भूयात्-त्वयि भक्ति भवे भवे ॥ ८ ॥
*श्रीनमिनाथ-जिनस्तवः व्याहर्ता मोक्षमार्गस्य, संहर्ता सर्वकर्मणाम् । प्रहर्ता च कषायाणां, जय त्वं परमेश्वर ! ॥१॥ कुमतस्याऽपनेतारं, नेतारं जगतामपि । सद्बोधस्य प्रणेतारं, त्वां नमामि जगद्गुरो! ॥२॥ विश्वेश्वर्यस्याऽधिका, न्यकर्ता विश्वपाप्मनाम् । अविकोंपका च, सनाथं भवता जगत् ॥३॥
* मेरौ शक्रसंदृन्धः ।
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त्रिष० पर्व-७-८-सर्ग-११-५] 61
अध्याय-१धर्मबीजसमुद्धत्रे, धऽतिशयसंपदाम् । श्रुतस्कन्धविधात्रे च, भगवन् ! भवते नमः ॥ ४ ॥ प्रत्यादेष्टुः कुमार्गाणा-मादेष्टुर्मुक्तिवर्त्मनः। धर्मः प्रभविता त्वत्त-उपदेष्टुरतः परम् नव्यतीर्थप्रतिष्ठातु-रनुष्ठातुस्तपःश्रियाम् । प्रभो ! जगदधिष्टातु-र्भवतः किंकरा वयम् ॥६॥ आदातर्यपवर्गस्य, विश्वस्याऽभयदातरि । त्वयि त्रैलोक्यशरणे, प्रपन्नशरणोऽस्म्यहम् ॥७॥ अस्मिन् भवे यथाभूस्त्वं, प्रभुर्मम जगत्पते ! ।। भवाऽन्तरेष्वपि तथा, भूया नाऽन्यो मनोरथः ॥ ८॥
*श्री नमिनाथ-जिनस्तवः केवलज्ञानसंज्ञेन, चक्षुषा वीक्षसेऽखिलम् । जगदेतत्तदेवं ते, त्रिनेत्राय नमः प्रभो ! पंचत्रिंशदतिशय-वचसे :परमेष्टिने । चतुस्त्रिंशदतिशयाऽ-न्विताय भवते नमः * समवसरणभुवि शकेन्द्रसन्हब्धः।
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वव्याय-१]
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[ स्वाध्यायदोहन
मालवकैशिकीमुख्य-ग्रामरागमनोरमाम् । सर्वभाषानुगां नाथ !, तव वाचमुपास्महे त्वदर्शनात् प्रणश्वंति, कर्मपाशाः शरीरिगाम् । तााऽवलोकनान्नाग-पाशा इव दृढा अपि ॥४॥ त्वदर्शनादेहभाजो-ऽधिरोहंति शनैः शनैः । निश्रेणिमिव मोक्षस्य, गुणस्थानकमालिकाम् ॥५॥ स्मृतः श्रुतः स्तुतो ध्यातो, दृष्टः स्पृष्टो नमस्कृतः। येन तेन प्रकारेण, स्वामिन् ! भवसि शर्मणे ॥६॥ स्वामिन् ! पुण्यानुबंधीनि, पूर्वपुण्यानि नः खलु । यस्त्वं दृग्गोचरं नीतो-ऽसाधारणगतिप्रदः ॥७॥ यथा तथा ममास्त्वन्यत्, स्वर्गराज्यादि सर्वतः । मा जातु हृदयाद्यान्तु, नाथ ! त्वद्देशनागिरः ॥८॥
५१ *श्रीनेमिनाथ-जिनस्तवः शिवगामिन् ! शिवाकुक्षि-शुक्तिमुक्तामणे ! प्रभो ! । शिवानामेकनिलय ! भगवस्त्वं शिवकरः ॥१॥ * मेरौ जन्मस्नात्रावसरे शकसंदृब्धः ।
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त्रि पर्व -८- सर्ग-९] 63
तुभ्यमभ्यर्णमोक्षाय, समक्षाऽशेषवस्तवे । विविधर्द्धिनिधानाय, द्वात्रिंशायाऽर्हते नमः
हरिवंशः पवित्रोऽयं, पवित्रा भारती च भूः । यस्मिँश्चरमदेहस्त्व-मवातारीर्जगद्गुरो !
कृपाया एक आधारो, ब्रह्मणश्चैक मास्पदम् । ऐश्वर्यस्याऽऽश्रयश्चैक-स्त्वमेव त्रिजगद्गुरो !
भवतो दर्शनेनैवाऽ - तिमहिम्ना जगत्पते ! | देहिनां मोहविध्वंसा - देशना कर्म सिध्यति
3
विनैवकारणं त्राता, विना हेतुं च वत्सलः । विना निमित्तं भर्ता त्वं, हरिवंशैकमौक्तिकः
अद्याऽपराजितादेतद्-भरतक्षेत्रमुत्तमम् |
4
शर्मणे यत्र लोकस्य, बोधिदस्त्वमवातरः
नित्यं भजंतु त्वत्पादा, मानसे मम हंसताम् ।
चरितार्था भवतु च त्वगुणस्तवनेन गीः
9.
[ अध्याय-
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
11 8 11
॥ ५ ॥ .
॥ ६ ॥
॥ ७ ॥
112 11
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-अध्याय-१ ]
[स्वाध्यायदोहन
*श्रीनेमिनाथ-जिनस्तवःनमस्तुभ्यं जगन्नाथ !, विश्वविश्वोपकारिणे । आजन्मब्रह्मनिष्ठाय, दयावीराय तायिने दिष्ट्या कर्माणि घातिनि, स्वामिन् ! घातितवानसि । शुक्लध्यानेन दिवसै-श्चतुःपञ्चाशतापि हि
॥२॥ न केवलं यदुकुलं, त्वया नाथ ! विभूषितम् । इदं जगत्त्रयमपि, केवलाऽऽलोकभास्वता अस्ताघो यस्तथा स्वामि-न्नपारश्च भवांबुधिः । गुल्फगोष्पदमानं स, स्यात्त्वत्पादप्रसादतः ॥४॥ सर्वस्य भिद्यते स्वान्तं, ललनाललितैः प्रभो ! । अभेद्यो वज्रहृदय-स्त्वत्तो नान्यो जगत्यपि ॥५॥ त्वयि व्रतनिषेधिन्यो, बन्धूनां ता गिरोऽधुना। भवन्ति पश्चात्तापाय, तवद्धिं पश्यतामिमाम् ॥६॥
दुराग्रहैबन्धुवगै-र्दिष्ट्या न स्खलितस्तदा । जगत्पुण्यैरस्खलितो-त्पन्नकेवल ! पाहि नः * समवसरणभुवि शक्रसंदृन्धः ।
॥७॥
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त्रिष० पर्व ९- सर्ग - ३ 1
65
यत्र तत्र स्थितस्याऽपि, यद्वा तद्वाऽपि कुर्वतः । त्वमेव देव ! हृदये, भूयाः किमपरेण मे ?
५३
* श्रीपार्श्वनाथ - जिनस्तवः
नमः प्रियंगुवर्णाय, जगतः प्रियहेतवे । तुभ्यं दुस्तर संसार - पारावार कसेतवे
1
ज्ञानरत्नैककोशाय, व्याकोशेन्दीवरत्विषे । भव्याऽरविन्दांशुमते, तुभ्यं भगवते नमः
फणभृल्लक्ष्मणेऽष्टाग्र-सहस्रनरलक्ष्मणे । तुभ्यं नमः कर्मतमो - विध्वंसशशलक्ष्मणे
जगत्रयपवित्राय, ज्ञानत्रितयधारिणे । कर्मस्थलखनित्राय, सुचरित्राय ते नमः सर्वाऽतिशयपात्रायाऽ-तिमात्र करुणावते ।
सर्वसंपदमत्राय, नमस्ते परमात्मने
* मेरौ जन्मस्नात्राऽवसरे शक्रसन्दृब्धः ।
[ अध्याय- १
॥ ८ ॥
॥ १ ॥
॥२॥
॥ ३ ॥
11 8 11
॥ ५ ॥
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-अध्याय-१-]
66 [स्वाध्यायदोहनदूरीभूतकषायाय, मुदितक्षीरवार्धये । रागद्वेषविमुक्ताय, नमस्ते मुक्तिगामिने ॥६॥ फलं त्वत्पादसेवाया, यद्यस्ति परमेश्वर !। तदैतदेव मे भूयात् , त्वयि भक्तिर्भवे भवे ॥७॥
•
५४
.
॥२॥
*श्रीपार्श्वनाथ-जिनस्तवः सर्वत्रापि भवद्भूत-भाविभावाऽवभासकृत् । भवतां केवलज्ञान-मिदं जयति निर्मलम् अस्मिन्नपारे संसार-पारावारे शरीरिणाम् । यानपात्रं त्वमेवाऽसि, निर्यामोऽपि त्वमेव हि सर्ववासरराजोऽयं, वासरखिजगत्पते ! । त्वत्पाददर्शनमहो-त्सवो यत्राऽजनिष्ट नः विवेकदृष्टिलुंटाक-मज्ञानतिमिरं नृणाम् । त्वद्देशनौषधिरसं, विना न हि निवर्तते नद्यामिव नवं तीर्थं, तव तीर्थ भवेऽधुना । उत्तारणाय भवति, प्राणिनामहहोत्सवः * केवळज्ञानप्रायनन्तरं शकेन्द्रसंदृब्धः । .
॥३॥
॥४॥
॥५॥
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त्रिष० पर्व-१०-सर्ग-२] 67
[ अध्याय-१सिद्धाऽनन्तचतुष्काय, सर्वाऽतिशयशालिने । औदासिन्यनिषण्णायै-कप्रसन्नाय ते नमः अत्यन्तोपद्रवकरे, प्रतिजन्म दुरात्मनि । मेघमालिनि करुणा, करुणा कुत्र ते न हि ॥ ७ ॥ तिष्ठतो यत्र कुत्राऽपि, गच्छतो यत्र कुत्रचित् । त्वत्पादपद्मशरणं, माऽपयातु हृदो मम ॥८॥
५५ *श्रीमहावीरस्वामि-जिनस्तवः नमोऽहते भगवते, स्वयंबुद्धाय वेधसे । तीर्थंकरायाऽदिकृते, पुरुषेषूत्तमाय ते नमोलोकप्रदीपाय, लोकप्रद्योतकारिणे। लोकोत्तमाय लोकाऽधी-शाय लोकहिताय ते ॥२॥ नमस्ते पुरुषवर-पुंडरीकाय शंभवे । पुरुषसिंहाय पुरु-पैक गन्धद्विपाय ते चक्षुर्दायाऽभयदाय, बोधिदायाऽध्वदायिने । धर्मदाय धर्मदेष्ट्रे, नमः शरणदायिने ॥ ४ ॥ * समवसरणभुवि शकेन्द्र सन्दब्धः ।
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अध्याय-१ ]
68 [स्वाध्यायदोहनधर्मसारथये धर्म-नेत्रे धर्मैकचक्रिणे।। व्यावृत्तच्छद्मने सम्यग-ज्ञानदर्शनधारिणे जिनाय ते जापकाय, तीर्णाय तारकाय च । .. विमुक्ताय मोचकाय, नमो बुद्धाय बोधिने ॥६॥ सर्वज्ञाय नमस्तुभ्यं, स्वामिने सर्वदर्शिने | सर्वाऽतिशयपात्राय, कर्माष्टकनिषूदिने तुभ्यं क्षेत्राय पात्राय, तीर्थाय परमात्मने । स्याद्वादवादिने वीत-रागाय मुनये नमः ॥८॥ पूज्यानामपि पूज्याय, महद्भयोऽपि महीयसे । आचार्याणामाऽऽचार्याय, ज्येष्टानां ज्यायसे नमः ॥ ९ ॥ नमो विश्वंभुवे तुभ्यं, योगिनाथाय योगिने । पावनाय पवित्रायाऽ-नुत्तरायोत्तराय च ॥१०॥ संप्रक्षालनाय योगा-चार्याय प्रवराय च। अग्राय वाचस्पतये, मांगल्याय नमोऽस्तु ते ॥ ११ ॥ नमः परस्तादुदिता-यैकवीराय भास्वते । ॐ भूर्भुवःस्वरितिवाक्-स्तवनीयाय ते नमः ॥ १२ ॥ नमः सर्वजनीनाय, सर्वार्थायाऽमृताय च । उदितब्रह्मचर्यायाऽऽ-प्ताय पारंगताय ते ॥ १३ ॥
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त्रिष० पर्व १०-सर्ग-१ ] 69
[ अध्याय-१नमस्ते दक्षिणीयाय, निर्विकाराय तायिने । वज्रऋषभनाराच-वपुषे तत्त्वदृश्वने ॥ १४ ॥ नमः कालत्रयज्ञाय, जिनेन्द्राय स्वयंभुवे । ज्ञानबलवीर्यतेजः-शक्त्यैश्वर्यमयाय ते ॥१५॥ आदिपुंसे नमस्तुभ्यं, नमस्ते परमेष्ठिने । नमस्तुभ्यं महेशाय, ज्योतिस्तत्त्वाय ते नमः ॥ १६ ॥ तुभ्यं सिद्धार्थराजेन्द्र-कुलक्षीरोदधीन्दवे । महावीराय धीराय, त्रिजगत्स्वामिने नमः ॥१७॥
-
*श्रीनंदनमहामुनेः अन्तिमाराधना ज्ञानाचारोऽष्टधा प्रोक्तो, यः कालविनयादिकः । तत्र मे कोऽप्यतिचारो, योऽभूनिन्दामि तं त्रिधा ॥१॥ यः प्रोक्तो दर्शनाचारो-ऽष्टधा निःशंकितादिकः। तत्र मे योऽतिचारोऽभूत् , त्रिधाऽपि व्युत्सृजामि तम् ॥२॥ * पञ्चविंशतितमे भवे श्रीमहावीरपरमात्मनो जीवस्य ।
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अध्याय-१ ]
70 [ स्वाध्यायदोहनया कृता प्राणिनां हिंसा, सूक्ष्मा वा बादराऽपि वा। मोहाद्वा लोभतो वाऽपि, व्युत्सृजामि त्रिधाऽपि ताम् ॥३॥ हास्यभीलोभक्रोधायै-यन्मृषा भाषितं मया । तत्सर्वमपि निन्दामि, प्रायश्चित्तं चरामि च ॥४॥ अल्पं भूरि च यत्क्वापि, परद्रव्यमदत्तकम् । आत्तं रागादथ द्वेषात्-तत्सर्वं व्युत्सृजाम्यहम् ॥५॥ तैरश्चं मानुषं दिव्यं, मैथुनं मयका पुरा । यत्कृतं त्रिविधेनाऽपि त्रिविधं व्युत्सृजामि तत् ॥ ६ ॥ बहुधा यो धनधान्य-पश्वादीनां परिग्रहः । लोभदोषान्मयाऽकारि, व्युत्सृजामि त्रिधाऽपि तम् ॥ ७ ॥ पुत्रे कलत्रे मित्रे च, बन्धौ धान्ये धने गृहे । अन्येष्वपि ममत्वं य-त्तत्सर्व व्युत्सृजाम्यहम् ॥ ८ ॥ इन्द्रियैरभिभूतेन, य आहारश्चतुर्विधः । मया रात्रावुपाभोजि, निन्दामि तमपि त्रिधा ॥९॥ क्रोधो मानो माया लोभो, रागो द्वेषः कलिस्तथा । पैशून्यं परनिर्वादोऽ-भ्याख्यानमपरं च यत् ॥१०॥ चारित्राचारविषयं, दुष्टमाऽऽचरितं मया । तदहं त्रिविधेनाऽपि, व्युत्सृजामि समन्ततः ॥ ११ ॥
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त्रिष० पर्व - १० - सर्ग - १ ]
71
"
यस्तपः स्वतिचारोऽभूद्, बाह्येष्वाभ्यन्तरेषु च ।
त्रिविधं त्रिविधेनाऽपि निन्दामि तमहं खलु ॥ १२ ॥
[ अध्याय- १
धर्मानुष्ठानविषये, यद्वीर्यं गोपितं मया ।
वीर्याचाराऽतिचारं च, निन्दामि तमपि त्रिधा ॥ १३ ॥
हतो दुरुक्तश्च मया, यो यस्याहारि किचन । यस्याऽपाकारि किंचिद्वा, मम क्षाम्यतु सोऽखिलः || १४ || यश्च मित्रममित्रो वा स्वजनोऽरिजनोऽपि वा । सर्व: क्षाम्यतु मे सर्व, सर्वेष्वपि समोऽस्म्यहम् ॥ १५ ॥ तिर्यक्त्वे सति तिर्यञ्चो, नारकत्वे च नारकाः । अमरा अमरत्वे च, मानुषत्वे च मानुषाः ये मया स्थापिता दुःखे, सर्वे क्षाम्यन्तु ते मम । क्षाम्याम्यहमपि तेषां मैत्री सर्वेषु मे खलु
॥ १६ ॥
॥ १७ ॥
जीवितं यौवनं लक्ष्मी, रूपं प्रियसमागमः | चलं सर्वमिदं वात्या - नर्तिताऽब्धितरंगवत् ॥ १८ ॥
1
व्याधिजन्मजरामृत्यु - प्रस्तानां प्राणिनामिह ।
विना जिनोदितं धर्मं, शरणं कोऽपि नाऽपरः ॥ १९ ॥ सर्वेऽपि जीवाः स्वजना, जाताः परजनाश्च ते । विदधीत प्रतिबन्धं तेषु को हि मनागपि
।। २० ।।
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अध्याय-१ ]
72 [स्वाध्यायदोहनएक उत्पद्यते जन्तु-रेक एव विपद्यते ।। सुखान्यनुभवत्येको, दुःखान्यपि स एव हि ॥२१॥ अन्यद्वपुरिदं ताव-दन्यद्धान्यधनादिकम् । बन्धवोऽन्येऽन्यश्च जीवो, वृथा मुह्यति वालिशः ॥ २२ ॥ वसारुधिरमांसाऽस्थि-यकृद्विण्मूत्रपूरिते। वपुष्यशुचिनिलये, मूच्छा कुर्वीत कः सुधीः ॥ २३ ॥ अवक्रयाऽऽत्तवेश्मेव, मोक्तव्यमऽचिरादपि । लालितं पालितं वाऽपि, विनश्वरमिदं वपुः ॥२४ ॥ धीरेण कातरेणाऽपि, मतव्यं खलु देहिना । तन्नियेत तथा धीमान् , न म्रियेत यथा पुनः ॥ २५ ॥ अर्हन्तो मम शरणं, शरणं सिद्धसाधवः । उदीरितः केवलिभि-धर्मः शरणमुच्चकैः ॥२६॥ जिनधर्मो मम माता, गुरुस्तातोऽथ सोदराः । साधवः साधर्मिकाश्च, बन्धवोऽन्यत्तु जालवत् ॥ २७ ॥ ऋषभादीस्तीर्थकरान्-नमस्याम्यखिलानऽपि । भरतैरावतविदे-हाऽर्हतोऽपि नमाम्यहम् ॥ २८ ॥ तीर्थकृद्भयो नमस्कारो, देहभाजां भवच्छिदे । . भवति क्रियमाणः स, बोधिलाभाय चोच्चकैः ॥ २९ ॥
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त्रिष० पर्व-१०-सर्ग-१] 73
[ अध्याय-१सिद्धेभ्यश्च नमस्कारं, भगवद्भयः करोम्यहम् । कर्कंधो ऽदाहि यैानाऽ-ग्निना भवसहस्रजम् ॥ ३० ॥ आचार्येभ्यः पञ्चविधाऽऽ-चारेभ्यश्च नमो नमः । यै र्धार्यते प्रवचनं, भवच्छेदे सदोद्यतैः ॥३१॥ श्रुतं बिभ्रति ये सर्व, शिष्येभ्यो व्याहरन्ति च । नमस्तेभ्यो महात्मभ्य-उपाध्यायेभ्य उच्चकैः ॥ ३२ ॥ शीलव्रतसनाथेभ्यः, साधुभ्यश्च नमो नमः । भवलक्षसन्निबद्धं, पापं निर्नाशयन्ति ये ॥ ३३ ॥ सावद्ययोगमुपधिं, बाह्यमाऽऽभ्यन्तरं तथा । यावज्जीवं त्रिविधेन, त्रिविधं व्युसृजाम्यहम् ॥ ३४ ॥ चतुर्विधाऽऽहारमपि, यावज्जीवं त्यज्याम्यहम् । उच्छासे चरमे देह-मपि हि व्युत्सृजाम्यहम् ॥ ३५ ॥ दुष्कर्मगर्हणां जन्तु-क्षमणां भावनामपि । चतुःशरणं च नम-स्कारं चानशनं तथा ॥३६॥
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॥ ॐ ऐ नमः ॥ द्वितीयः अध्यायः (२) [ श्री वीतरागस्तोत्रादि-जिनस्तवाः ]
वीतरागस्तोत्रम् ।
यः परात्मा परञ्ज्योतिः, परमः परमेष्ठिनाम् । आदित्यवर्ण तमसः, परस्तादाऽऽमनन्ति यम् ॥१॥ सर्वे येनोदमूल्यन्त, समूलाः केशपादपाः । मूर्धा यस्मै नमस्यन्ति, सुराऽसुरनरेश्वराः ॥२॥ प्रावर्त्तन्त यतो विद्याः, पुरुषार्थप्रसाधिकाः । यस्य ज्ञानं भवद्भाविभूतभावाऽवभासकृत् ॥३॥ यस्मिन्विज्ञानमानन्दं, ब्रह्म चैकाऽऽत्मतां गतम् । स श्रद्धेयः स च ध्येयः, प्रपद्ये शरणं च तम् ॥४॥ तेन स्यां नाथवास्तस्मै, स्पृहयेयं समाहितः। ततः कृतार्थो भूयासं, भवेयं तस्य किङ्करः ॥५॥
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वीत. प्रकाश० १-२-३] 75
[ अध्याय-2तत्र स्तोत्रेण कुयों च, पवित्रां स्वां सरस्वतीम् । इदं हि भवकान्तारे, जन्मिनां जन्मनः फलम् ॥६॥ काहं पशोरपि पशुतिरागस्तवः क च ?। उत्तितीपुररण्यानी, पद्भयां पङ्गुरिवारम्यतः ॥ ७ ।। तथापि श्रद्धामुग्धोऽहं, नोपालभ्यः स्खलन्नपि । विशृङ्खलापि वाग्वृत्तिः, श्रद्दधानस्य शोभते ॥८॥
प्रियङ्गुस्फटिकस्वर्णपद्मरागाञ्जनप्रभः । प्रभो ! तवाऽधौतशुचिः, कायः कमिव नाऽक्षिपेत् ? ॥१॥ मन्दारदामवन्नित्यमवासितसुगन्धिनि । तवाऽङ्गे भृङ्गतां यान्ति, नेत्राणि सुरयोषिताम् ॥२॥ दिव्याऽमृतरसाऽऽस्वादपोषप्रतिहता इव ।। समाविशन्ति ते नाथ !, नाऽङ्गे रोगोरगव्रजाः ॥३॥
त्वय्यादर्शतलालीन-प्रतिमाप्रतिरूपके । क्षस्त्स्वेदविलीनत्वकथाऽपि वपुषः कुतः ? . ॥४॥
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अध्याय-२]
___76
[स्वाध्यायदोहन
॥
५
॥६॥
न केवलं रागमुक्तं, वीतराग ! मनस्तव । वपुःस्थितं रक्तमपि, क्षीरधारासहोदरम् जगद्विलक्षणं किं वा, तवान्यद्वक्तुमीश्महे ? । यदविस्रमबीभत्सं, शुभ्रं मांसमपि प्रभो ! जलस्थलसमुद्भूताः, सन्त्यज्य सुमनःस्रजः । तव निःश्वाससौरभ्य-मनुयान्ति मधुव्रताः लोकोत्तरचमत्कारकरी तव भवस्थितिः । यतो नाऽऽहारनीहारौ, गोचरश्चर्मचक्षुषाम्
॥८॥
सर्वाऽभिमुख्यतो नाथ !, तीर्थकृन्नामकर्मजात् । सर्वथा सम्मुखीनस्त्वमानन्दयसि यत्प्रजाः ॥१॥ यद्योजनप्रमाणेऽपि, धर्मदेशनसद्मनि । सम्मान्ति कोटिशस्तिर्यग्नदेवाः सपरिच्छदाः ॥२॥ तेषामेव स्वस्वभाषापरिणाममनोहरम् । .. अप्येकरूपं वचनं, यत्ते धर्माऽवबोधकृत् ॥३॥
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वीत० स्तो० प्र० ३-४ ]
77
[ अध्याय-१
साग्रेऽपि योजनशते, पूर्वोत्पन्ना गदाम्बुदाः । यदऽञ्जसा विलीयन्ते, त्वद्विहाराऽनिलोर्मिभिः ॥४॥ नाऽविर्भवन्ति यद्भूमौ, मूषकाः शलभाः शुकाः । क्षणेन क्षितिपक्षिप्ता अनीतय इवेतयः स्त्रीक्षेत्रपद्रादिभवो, यद्वैराग्निः प्रशाम्यति । त्वत्कृपापुष्करावर्त्तवर्षादिव भुवस्तले । त्वत्प्रभावे भुवि भ्राम्यत्यशिवोच्छेदडिण्डिमे । सम्भवन्ति न यन्नाथ !, मारयो भुवनाऽरयः ॥ ७ ॥ कामवर्षिणि लोकानां, त्वयि विश्वकवत्सले । अतिवृष्टिरवृष्टिर्वा, भवेद्यन्नोपतापकृत् ॥ ८ ॥ स्वराष्ट्र-परराष्ट्रेभ्यो, यत्क्षुद्रोपद्रवा द्रुतम् । विद्रवन्ति त्वत्प्रभावात्, सिंहनादादिव द्विपाः ॥९॥ यत्क्षीयते च दुर्भिक्षं, क्षितौ विहरति त्वयि । सर्वाऽद्भुतप्रभावाढये, जङ्गमे कल्पपादपे ॥१०॥ यन्मूलः पश्चिमे भागे, जितमार्तण्डमण्डलम् । मा भूद्वपुर्दुरालोकमितीवोत्पिण्डितं महः . . . ॥ ११ ॥
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अध्याय-२]
[ स्वाध्यायदोहनस एष योगसाम्राज्यमहिमा विश्वविश्रुतः । कर्मक्षयोत्थो भगवन् !, कस्य नाश्चर्यकारणम् ? ॥ १२ ॥ अनन्तकालप्रचितमनन्तमपि सर्वथा । त्वत्तो नाऽन्यः कर्मकक्षमुन्मूलयति मूलतः ॥ १३ ॥ तथोपाये प्रवृत्तस्त्वं, क्रियासमभिहारतः । यथाऽनिच्छन्नुपेयस्य, परां श्रियमऽशिश्रियः ॥ १४ ॥ मैत्रीपवित्रपात्राय, मुदिताऽऽमोदशालिने । कृपोपेक्षाप्रतीक्षाय, तुभ्यं योगात्मने नमः ॥१५॥
॥१॥
10
॥२॥
मिथ्यादृशां युगान्ताऽर्कः, सुदृशाममृताञ्जनम् । तिलकं तीर्थकृल्लक्ष्म्याः , पुरश्चक्रं तवैधते एकोऽयमेव जगति, स्वामीत्याख्यातुमुच्छ्रिता । उच्चैरिन्द्रध्वजव्याजात्तर्जनी जम्भविद्विषा यत्र पादौ पदं धत्तस्तव तत्र सुरासुराः । किरन्ति पङ्कजव्याजाच्छ्रियंपङ्कजवासिनीम् दानशीलतपोभावभेदाद्धर्मं चतुर्विधम् । मन्ये युगपदाऽऽख्यातुं, चतुर्वक्त्रोऽभवद्भवान्
॥३॥
॥४॥
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घीत. स्तो० प्र० ४-५] 79
[अध्याय-२त्वयि दोषत्रयात्रातुं, प्रवृत्ते भुवनत्रयीम् । प्राकारत्रितयं चक्रुखयोऽपि त्रिदिवौकसः अधोमुखाः कण्टकाः स्युर्धात्र्यां विहरतस्तव । भवेयुः सम्मुखीनाः किं, तामसास्तिग्मरोचिषः? ॥ ६॥ केशरोमनखश्मश्रु, तवाऽवस्थितमित्ययम् । बाह्योऽपि योगमहिमा, नाप्तस्तीर्थकरैः परैः ॥७॥ शब्दरूपरसस्पर्शगन्धाख्याः पञ्च गोचराः । भजन्ति प्रातिकूल्यं न, त्वदऽग्रे तार्किका इव ॥ ८ ॥ त्वत्पादावृतवः सर्वे, युगपत्पर्युपासते । आकालकृतकन्दर्पसाहायकभयादिव
॥९॥ सुगन्ध्युदकवर्षेण, दिव्यपुष्पोत्करेण च । भावित्वत्पादसंस्पर्शा, पूजयन्ति भुवं सुराः ॥१०॥ जगत्प्रतीक्ष्य ! त्वां यान्ति, पक्षिणोऽपि प्रदक्षिणम् । का गतिमहतां तेषां, त्वयि ये वामवृत्तयः? ॥११॥ पश्चेन्द्रियाणां दौःशील्यं, क भवेद्भवदन्तिके ?।। एकेन्द्रियोऽपि यन्मुश्चत्यनिलः प्रतिकूलताम् ॥१२॥ मू| नमन्ति तरवस्त्वन्माहात्म्यचमत्कृताः । तत्कृतार्थं शिरस्तेषां, व्यर्थ मिथ्यादृशां पुनः ॥१३॥
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अध्याय-२]
80 [स्वाध्यायदोहनजघन्यतः कोटिसङ्घयास्त्वां सेवन्ते सुरासुराः । भाग्यसम्भारलभ्येऽर्थे, न मन्दा अप्युदासते ॥१४॥
गायन्निवालिविरुतैर्नृत्यन्निव चलैदलैः । त्वद्गुणैरिव रक्तोऽसौ, मोदतेऽशोकपादपः ॥१॥ आयोजनं सुमनसोऽधस्तान्निक्षिप्तबन्धनाः । जानुदनीः सुमनसो, देशनोव्यां किरन्ति ते ॥२॥ मालवकैशिकीमुख्यग्रामरागपवित्रितः । तव दिव्यो ध्वनिः पीतो, हर्षाद्रीवैर्मगैरपि ॥३॥ तवेन्दुधामधवला, चकास्ति चमरावली । हंसालिरिव वक्त्राब्जपरिचर्यापरायणा ॥४॥ मृगेन्द्रासनमारूढे, त्वयि तन्वति देशनाम् । श्रोतुं मृगाः समायान्ति, मृगेन्द्रमिव सेवितुम् ॥५॥ भासां चयैः परिवृतो, ज्योत्स्नाभिरिव चन्द्रमाः। चकोराणामिव दृशां, ददासि परमां मुदम् ॥६॥ दुन्दुभिर्विश्वविश्वेश ! पुरो व्योम्नि प्रतिध्वनन् । जगत्याप्तेषु ते प्राज्यं, साम्राज्यमिव शंसति ॥७॥
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पति स्तो०प्र० ६] 81
[ अध्याय-२तवोर्ध्वमूर्ध्व पुण्यार्द्धक्रमसब्रह्मचारिणी । छत्रत्रयी त्रिभुवनप्रभुत्वप्रौढिशंसिनी
॥८॥ एतां चमत्कारकरी, प्रातिहार्यश्रियं तव । चित्रीयन्ते न के दृष्ट्वा, नाथ ! मिथ्यादृशोऽपि हि ?॥९॥
लावण्यपुण्यवपुषि, त्वयि नेत्रामृताऽञ्जने । माध्यस्थ्यमपि दौःस्थ्याय, किं पुनद्वेषविप्लवः ? ॥१॥ तवापि प्रतिपक्षोऽस्ति, सोऽपि कोषादिचिप्लुतः । अनया किंवदन्त्यापि, किं जीवन्ति विवेकिनः ? ॥ २ ॥ विपक्षस्ते विरक्तश्चेत्स त्वमेवाथ रागवान् । न विपक्षो विपक्षः किं, खद्योतो द्युतिमालिनः ? ॥ ३ ॥ स्पृहयन्ति त्वद्योगाय, यत्तेऽपि लवसत्तमाः। योगमुद्रादरिद्राणां, परेषां तत्कथैव का ? ॥४॥ त्वां प्रपद्यामहे नाथं, त्वां स्तुमस्त्वामुपास्महे । त्वत्तो हि न परस्त्राता, किं ब्रूमः ? किमु कुर्महे ? ॥ ५ ॥
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अध्याय-२ ]
[स्वाध्यायदोहनस्वयं मलीमसाचारैः, प्रतारणपरैः परैः। कञ्च्यते जगदप्येतत्कस्य पूत्कुर्महे पुरः ? ॥६॥
नित्यमुक्तान जगज्जन्मक्षेमक्षयकृतोद्यमान् । वन्ध्यास्तनन्धयप्रायान् , को देवाश्चेतनः श्रयेत् ? ॥ ७ ॥
कृतार्था जठरोपस्थदुःस्थितैरपि दैवतैः ।। भवादृशान्निन्हुवते, हाहा ! देवास्तिकाः परे
॥८॥
खपुष्पप्रायमुत्प्रेक्ष्य, किश्चिन्मानं प्रकल्प्य च । सम्मान्ति देहे गेहे वा, न गेहेनर्दिनः परे
॥९॥
कामरागनेहरागावीषत्करनिवारणौ । दृष्टिरागस्तु पापीयान् , दुरुच्छेदः सतामपि ॥१०॥ प्रसन्नमास्यं मध्यस्थे, दृशौ लोकम्पृणं वचः। .. इति प्रीतिपदे बाढं, मूढास्त्वय्यप्युदासते... ॥ ११ ॥ तिष्ठेद्वायुवेदद्रिचलेजलमपि क्वचित् । तथापि प्रस्तो रागाद्यैाप्तो भवितुमर्हति ॥ १२ ॥
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वीत स्तो० प्र०-७-८ ]
83
[ अध्याय-२
धर्माधर्मी विना नाङ्गं, विनाङ्गेन मुखं कुतः । मुखाद्विना न वक्तृत्वं, तच्छास्तारः परे कथम् ? ॥१॥
अदेहस्य जगत्सर्गे, प्रवृत्तिरपि नोचिता । न च प्रयोजनं किश्चित्स्वातन्त्र्यान्न पराज्ञया क्रीडया चेत्प्रवर्तेत, रागवान्स्यात्कुमारवत् । कृपयाऽथ सृजेत्तर्हि, सुख्येव सकलं सृजेत्
॥३॥
दुःखदौर्गत्यदुर्योंनिजन्मादिक्लेशविह्वलम् । जनं तु सृजतस्तस्य, कृपालोः का कृपालुता ? ॥४॥ कर्मापेक्षः स चेत्तर्हि, न स्वतन्त्रोऽस्मदादिवत् । कर्मजन्ये च वैचित्र्ये, किमनेन शिखण्डिना ? ॥ ५ ॥ अथ स्वभावतो वृत्तिरविता महेशितुः । परीक्षकाणां तर्वेष, परीक्षाक्षेपडिण्डिमः ॥६॥
12
13
सर्वभावेषु कर्तृत्वं, ज्ञातृत्वं यदि सम्मतम् । मतं नः सन्ति सर्वज्ञा, मुक्ताः कायभृतोऽपि च ॥ ७ ॥
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अध्याय- २ ]
84
[ स्वाध्यायदोहन
14
सृष्टिवाद कुहेवाकमुन्मुच्येत्यप्रमाणकम् । त्वच्छासने रमन्ते ते येषां नाथ ! प्रसीदसि
सत्त्वस्यैकान्तनित्यत्वे, कृतनाशाऽकृतागमौ ! स्यातामेकान्तनाशेऽपि कृतनाशाऽकृतागमौ
॥ १ ॥
2
आत्मन्येकान्तनित्ये स्यान्न भोगः सुखदुःखयोः । एकान्ताऽनित्यरूपेऽपि न भोगः सुखदुःखयोः ॥ २ ॥
3
पुण्यपापे बन्धमोक्षौ, न नित्यैकान्तदर्शने । पुण्यपापे बन्धमोक्षौ, नानित्यैकान्तदर्शने
क्रमाक्रमाभ्यां नित्यानां युज्यतेऽर्थक्रिया नहि । एकान्तक्षणिकत्वेऽपि युज्यतेऽर्थक्रिया नहि
॥ ८ ॥
5
यदा तु नित्यानित्यत्वरूपता वस्तुनो भवेत् । यथाऽऽत्थ भगवन्नैव तदा दोषोऽस्ति कश्चन गुडो हि कफहेतुः स्यान्नागरं पित्तकारणम् । द्वयात्मनि न दोषोऽस्ति, गुडनागरभेषजे
॥ ३ ॥
118 11
॥ ५ ॥
॥ ६ ॥
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वीत. स्तो० प्र० ९]
85
[ अध्याय-२
द्वयं विरुद्ध नैकत्राऽसत्प्रमाणप्रसिद्धितः । विरुद्धवर्णयोगो हि, दृष्टो मेचकवस्तुषु
10
विज्ञानस्यैकमाकारं, नानाकारकरम्बितम् । इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥८॥ चित्रमेकमनेकं च, रूपं प्रामाणिकं वदन् । योगो वैशेषिको वापि, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥९॥ इच्छन्प्रधानं सत्त्वाद्यैर्विरुद्धैर्गुम्फितं गुणैः । साङ्ख्यः सङ्ख्यावतां मुख्यो, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ॥१०॥ विमतिः सम्मतिर्वापि, चार्वाकस्य न मृग्यते । परलोकात्ममोक्षेषु, यस्य मुह्यति शेमुषी ॥११॥ तेनोत्पादव्ययस्थेमसम्मिन्नं गोरसादिषत् । त्वदुपझं कृतधियः, प्रपन्ना वस्तु वस्तुसत् ॥ १२ ॥
14
यत्राल्पेनापि कालेन त्वद्भक्तेः फलमाप्यते । कलिकालः स एकोऽस्तु, कृतं कृतयुगादिभिः
॥१॥
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अध्याय-२ ]
86 [ स्वाध्यायदोहनसुषमातो दुःषमायां, कृपा फलवती तव । मेरुतो मरुभूमौ हि, श्लाध्या कल्पतरोः स्थितिः ॥२॥
त्वच्छा
श्राद्धः श्रोता सुधीवक्ता, युज्येयातां यदीश ! तत् । त्वच्छासनस्य साम्राज्यमेकच्छत्रं कलावपि ... ॥ ३ ॥ युगान्तरेऽपि चेन्नाथ !, भवन्त्युच्छृङ्खलाः खलाः । वृथैव तर्हि कुष्यामः, कलये वामकेलये ॥४॥ कल्याणसिद्धयै साधीयान, कलिरेव कषोपलः । विनाग्निं गन्धमहिमा, काकतुण्डस्य नैधते ॥५॥ निशि दीपोऽम्बुधौ द्वीपं, मरौ शाखी हिमे शिखी। कलौ दुरापः प्राप्तोऽयं, त्वत्पादाब्जरजःकणः ॥ ६ ॥
6
युगान्तरेषु भ्रान्तोऽस्मि, त्वदर्शनविनाकृतः । नमोऽस्तु कलये यत्र, त्वदर्शनमजायत
बहुदोषो दोषहीनात्वत्तः कलिरशोभत । विषयुक्तो विषहरात्फणीन्द्र इव रखतः
॥ ८॥
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वीत. स्तो०प्र० १०-११] 87
[ अध्याय-२
मत्प्रसत्तेस्त्वत्प्रसादस्त्वत्प्रसादादियं पुनः । इत्यन्योन्याश्रयं भिन्धि, प्रसीद भगवन् ! मयि ॥ १ ॥ निरीक्षितुं रूपलक्ष्मी, सहस्राक्षोऽपि न क्षमः ।। स्वामिन् ! सहस्रजिह्वोऽपि शक्तो वक्तुं न ते गुणान् ॥ २॥ संशयानाथ ! हरसेऽनुत्तरस्वर्गिणामवि । अतःपरोपि किं कोपि, गुणःस्तुत्योऽस्ति वस्तुतः ? ॥३॥ इदं विरुद्धं श्रद्धत्तां, कथमश्रद्दधानकः ? । आनन्दसुखसक्तिश्च, विरक्तिश्च समं त्वयि ॥४॥ नाथेयं घट्यमानापि, दुर्घटा घटतां कथम् । उपेक्षा सर्वसत्त्वेषु, परमा चोपकारिता ॥५॥ द्वयं विरुद्धं भगवस्तव नान्यस्य कस्यचित् । निर्ग्रन्थता परा या च, या चोच्चैश्चक्रवर्तिता नारका अपि मोदन्ते, यस्य कल्याणपर्वसु । पवित्रं तस्य चारित्रं, को वा वर्णयितुं क्षमः ? ॥७॥
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अध्याय-२ ]
88 [स्वाध्यायदोहनशमोऽद्भुतोऽद्भुतं रूपं, सर्वात्मसु कृपाद्भुता । सर्वाद्भुतनिधीशाय, तुभ्यं भगवते नमः
॥
८
॥
निघ्नन्परीषहचमूमुपसर्गान्प्रतिक्षिपन् । प्राप्तोऽसि शमसौहित्यं, महतां कापि वैदुषी ॥ १ ॥ अरक्तो भुक्तवान्मुक्तिमद्विष्टो हतवान्द्विषः । अहो ! महात्मनां कोऽपि, महिमा लोकदुर्लभः? ॥ २ ॥ सर्वथा निर्जिगीषेण, भीतभीतेन चाऽऽगसः । त्वया जगत्रयं जिग्ये, महतां कापि चातुरी ॥ ३ ॥ दत्तं न किञ्चित्कस्मैचिन्नाऽऽत्तं किञ्चित्कुतश्चन । प्रभुत्वं ते तथाप्येतत्कला कापि विपश्चिताम् ॥ ४ ॥ यदेहस्यापि दानेन, सुकृतं नार्जितं परैः । उदासीनस्य तन्नाथ !, पादपीठे तवालुठत् ॥ ५ ॥ रागादिषु नृशंसेन, सर्वात्मसु कृपालुना । भीमकान्तगुणेनोचैः, साम्राज्यं साधितं त्वया ॥ ६ ॥ सर्वे सर्वात्मनाऽन्येषु, दोषास्त्वयि पुनर्गुणाः । स्तुतिस्तवेयं चेन्मिथ्या, तत्प्रमाणं सभासदः ॥ ७ ॥
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चीत० स्तो० प्र० १२-१३ ] 89
[ अध्याय-२महीयसामपि महान , महनीयो महात्मनाम् । अहो ! मे स्तुवतः स्वामी, स्तुतेर्गोचरमागमत् ॥ ८ ॥
-
पटुभ्यासाऽऽदरैः पूर्वं, तथा वैराग्यमाहरः । यथेह जन्मन्याजन्म, तत्सात्मीभावमागमत्
॥ १ ॥
दुःखहेतुषु वैराग्यं, न तथा नाथ ! निस्तुषम् । मोक्षोपायप्रवीणस्य, यथा ते सुखहेतुषु विवेकशाणौ वैराग्यशत्रं शातं तथा त्वया । यथा मोक्षेऽपि तत्साक्षादकुण्ठितपराक्रमम् यदा मरुन्नरेन्द्र श्रीस्त्वया नाथोपभुज्यते । यत्र तत्र रतिर्नाम, विरक्तत्वं तदापि ते ॥ ४ ॥ नित्यं विरक्तः कामेभ्यो, यदा योगं प्रपद्यसे । अलमेभिरिति प्राज्यं, तदा वैराग्यमस्ति ते ॥ ५ ॥ सुखे दुःखे भवे मोक्षे, यदौदासीन्यमीशिषे । सदा वैराग्यमेवेति, कुत्र नासि विरागवाम् ? ॥ ६ ॥
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अध्याय-२ ]
90 [स्वाध्यायदोहनदुःखगर्भे मोहगर्भ, वैराग्ये निष्ठिताः परे । ज्ञानगर्भ तु वैराग्यं, त्वय्येकायनतां गतम् ॥ ७ ॥ औदासीन्येऽपि सततं, विश्वविश्वोपकारिणे । नमो वैराग्यनिनाय, तायिने परमात्मने ॥ ८ ॥
1
अनाहूतसहायस्त्वं, त्वमकारणवत्सलः । अनभ्यर्थितसाधुस्त्वं, त्वमसम्बन्धबान्धवः
॥१॥
॥२॥
अनक्तस्निग्धमनसममृजोज्वलवाक्पथम् । अधौतामलशीलं त्वां, शरण्यं शरणं श्रये अचण्डवीरप्रतिना, शमिना शमवर्तिना। त्वया काममकुट्यन्त, कुटिलाः कर्मकण्टकाः अभवाय महेशायागदाय नरकच्छिदे । अराजसाय ब्रह्मणे, कस्मैचिद्भवते नमः
॥ ३ ॥
॥४॥
अनुक्षितफलोदप्रादनिपातगरीयसः । असङ्कल्पितकल्पद्रोस्त्वत्तः फलमवाप्नुयाम्
॥५॥
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वीत० स्तो० प्र०१४-१५ ] 91
असङ्गस्य जनेशस्य, निर्ममस्य कृपात्मनः । मध्यस्थस्य जगत्रातुरनङ्कस्तेऽस्मि किङ्करः
6
फलानुध्यानवन्ध्योऽहं, फलमात्रतनुर्भवान् । प्रसीद यत्कृत्यविधौ, किङ्कर्तव्यजडे मयि
अगोपिते रत्ननिधाववृते कल्पपादपे । अचिन्त्ये चिन्तारत्रे च त्वय्यात्माऽयं मयार्पितः ॥ ७ ॥
"
१४
मनोवचः कायचेष्टाः, कष्टाः संहृत्य सर्वथा ।
1
थत्वेनैव भवता, मनःशल्यं वियोजितम्
संयतानि न चाक्षाणि, नैवोच्छृङ्खलितानि च । इति सम्यक्प्रतिपदा, त्वयेन्द्रियजयः कृतः
2
[ अध्याय- २
योगस्याष्टाङ्गता नूनं, प्रपञ्चः कथमन्यथा ? | आबालभावतोऽप्येष, तव सात्म्यमुपेयिवान्
3
॥ ६ ॥
॥ ८ ॥
॥ १ ॥
॥ २॥
॥ ३ ॥
विषयेषु विरागस्ते, चिरं सहचरेष्वपि । योगे सात्म्यमदृष्टेऽपि, स्वामिन्निदमलौकिकम् ॥ ४ ॥
4
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पण्याय-२ ]
92 [स्वाध्यायदोहनतथा परे न रज्यन्त, उपकारपरे परे । यथाऽपकारिणि भवानहो ! सर्वमलौकिकम् ॥५॥
हिंसका अप्युपकृता, आश्रिता अप्युपेक्षिताः । इदं चित्रं चरित्रं ते, के वा पर्यनुयुञ्जताम् ॥६॥ तथा समाधौ परमे, त्वयाऽऽत्मा विनिवेशितः। सुखी दुःख्यस्मि नास्मीति, यथा न प्रतिपन्नवान् ॥ ७ ॥
ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं, त्रयमेकात्मतां गतम् । इति ते योगमाहात्म्यं, कथं श्रद्धीयतां परैः ? ॥८॥
जगज्जैत्रा गुणास्त्रातरन्ये तावत्तवासताम् । उदात्तशान्तया जिग्ये, मुद्रयैव जगत्रयी ॥१॥ मेरुस्तृणीकृतो मोहात्पयोधि!ष्पदीकृतः। गरिष्ठेभ्यो गरिष्टो यैः, पाप्मभिस्त्वमपोहितः ॥२॥ च्युतश्चिन्तामणिः पाणेस्तेषां लब्धा सुधा मुधा । यैस्त्वच्छासनसर्वस्वमज्ञानात्मसात्कृतम्
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बीत० स्तो० प्र० १६ ] 93
[ अध्याय-२
3
यस्त्वय्यपि दधौ दृष्टिमुल्मुकाकारधारिणीम् । तमाशुशुक्षणिः साक्षादालप्यालमिदं हि वा 118 11
4
त्वच्छासनस्य साम्यं ये, मन्यन्ते शासनान्तरैः । विषेण तुल्यं पीयूषं तेषां हन्त ! हतात्मनाम् ॥ ५ ॥
6
अनेडमूका भूयासुस्ते येषां त्वयिमत्सरः ।
7
शुभोदय वैकल्यमपि पापेषु कर्मसु
तेभ्यो नमोऽञ्जलिरयं, तेषां तान्समुपास्महे । त्वच्छासनामृतरसैयैरात्माऽसि च्यताऽन्वहम्
भुवे तस्यै नमो यस्यां तव पादनखांशवः । चिरं चूडामणीयन्ते, ब्रूमहे किमतः परम् १
॥ ६ ॥
१६
त्वन्मतामृतपानोत्था, इतः शमरसोर्मयः ।
1
पराणयन्ति मां नाथ, परमानन्दसम्पदम्
116 11
11 6 11
जन्मवानस्मि धन्योऽस्मि, कृतकृत्योऽस्मि यन्मुहुः |
8
जातोऽस्मि त्वद्गुणग्रामरामणीयकलम्पटः
॥ ९ ॥
॥ १ ॥
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अध्याय-२]
94 [ स्वाध्यायदोहनइतश्चानादिसंस्कारमूछितो मूर्छयत्यलम् ।। रागोरगविषावेगो, हताशः करवाणि किम् ? ॥२॥ रागाहिगरलाघ्रातोऽकार्ष यत्कर्मवैशसम् । तद्वक्तुमप्यशक्तोऽस्मि, धिग्मे प्रच्छन्नपापताम् ॥ ३ ॥ क्षणं सक्तः क्षणं मुक्तः, क्षणं क्रुद्धः क्षणं क्षमी । मोहाद्यैः क्रीडयेवाहं, कारितः कपिचापलम् ॥४॥ प्राप्यापि तव सम्बोधि, मनोवाक्कायकर्मजैः । दुश्चेष्टितैर्मया नाथ ! शिरसि ज्यालितोऽनलः ॥५॥ त्वय्यपि त्रातरि त्रातयन्मोहादिमलिम्लुचैः। रत्नत्रयं मे हियते, हताशो हा ! हतोऽस्मि तत् ॥६॥ भ्रान्तस्तीर्थानि दृष्टस्त्वं, मयैकस्तेषु तारकः । तत्तवांहौ विलग्नोऽस्मि, नाथ ! तारय तारय ॥७॥ भवत्प्रसादेनैवाहमियती प्रापितो भुवम् । औदासीन्येन नेदानी, तव युक्तमुपेक्षितुम् ॥८॥ ज्ञाता तात ! त्वमेवैकस्त्वत्तो नान्यः कृपापरः । नान्यो मत्तः कृपापात्रमेधि यत्कृत्यकर्मठः ॥ ९ ॥
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बीत० स्तो० प्र० १७-१८ ]
95
[ अध्याय-२
स्वकृतं दुष्कृतं गर्हन् , सुकृतं चानुमोदयन् । नाथ ! त्वच्चरणौ यामि, शरणं शरणोज्झितः ॥१॥ मनोवाकायजे पापे, कृतानुमतिकारितैः। मिथ्या मे दुष्कृतं भूयादपुनः क्रिययान्वितम् ॥२॥ यत्कृतं सुकृतं किञ्चिद्रत्नत्रितयगोचरम् । तत्सर्वमनुमन्येऽहं, मार्गमात्रानुसार्यपि सर्वेषामर्हदादीनां, यो योऽर्हत्त्वादिको गुणः । अनुमोदयामि तं तं, सर्वं तेषां महात्मनाम् ॥४॥ त्वां त्वत्फलभूतान् सिद्धास्त्वच्छासनरतान्मुनीन् । त्वच्छासनं च शरणं, प्रतिपन्नोऽस्मि भावतः ॥५॥ क्षमयामि सर्वान्सत्त्वान्सर्वे क्षाम्यन्तु ते मयि । मैत्र्यस्तु तेषु सर्वेषु, त्वदेकशरणस्य मे एकोऽहं नास्ति मे कश्चिन्न चाहमपि कस्यचित् । त्वदंहिशरणस्थस्य, मम दैन्यं न किञ्चन ॥७॥ यावन्नाप्नोमि पदवी, परां त्वदनुभावजाम् । तावन्मयि शरण्यत्वं, मा मुचः शरणं श्रिते ॥८॥
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96
अध्याय-२ ]
[ स्वाध्यायदोहन
१८ न परं नाम मृदेव, कठोरमपि किञ्चन । विशेषज्ञाय विज्ञप्यं, स्वामिने स्वान्तशुद्धये ॥१॥ न पक्षिपशुसिंहादिवाहनासीनविग्रहः । न नेत्रवक्त्रगात्रादिविकारविकृताकृतिः ॥२॥ न शूलचापचक्रादिशस्त्राङ्ककरपल्लवः । नाङ्गनाकमनीयाङ्गपरिष्वङ्गपरायणः ॥ ३ ॥ न गर्हणीयचरितप्रकम्पितमहाजनः । न प्रकोपप्रसादादिविडम्बितनरामरः
न जगज्जननस्थेमविनाशविहिताऽऽदरः । न लास्यहास्यगीतादिविप्लवोपप्लुतस्थितिः तदेवं सर्वदेवेभ्यः, सर्वथा त्वं विलक्षणः । देवत्वेन प्रतिष्ठाप्यः, कथं नाम परीक्षकैः ?
॥६॥
अनुश्रोतः सरत्पर्णतृणकाष्ठादि युक्तिमत् । प्रतिश्रोतः श्रयद्वस्तु, कया युक्त्या प्रतीयताम् ? ॥ ७ ॥ अथवाऽलं मन्दबुद्धिपरीक्षकपरीक्षणैः । ममापि कृतमेतेन. वैयात्येन जगत्प्रभो ! ॥८॥
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वीर० स्तो० प्र० १९-२०]
97
[ अध्याय-२
॥९॥
यदेव सर्वसंसारिजन्तुरूपविलक्षणम् । परीक्षन्तां कृतधियस्तदेव तव लक्षणम् क्रोधलोभभयाक्रान्तं, जगदस्माद्विलक्षणः । न गोचरो मृदुधियां, वीतरागः कथश्चन
॥ १० ॥
१९
तव चेतसि वर्तेऽहमिति वार्ताऽपि दुर्लभा । मच्चित्ते वर्त्तसे चेत्त्वमलमन्येन केनचित् ॥ १ ॥ निगृह्य कोपतः काश्चित् , काश्चित्तुष्ट्यानुगृह्य च । प्रतार्यन्ते मृदुधियः, प्रलम्भनपरैः परैः ॥ २ ॥ अप्रसन्नात्कथं प्राप्यं, फलमेतदसङ्गतम् । चिन्तामण्यादयः किं न, फलन्त्यपि विचेतना:? ॥ ३ ॥ वीतराग ! सपर्यायास्तवाज्ञापालनं परम् । आज्ञाऽऽराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च ॥ ४ ॥ आकालमियमाज्ञा ते, हेयोपादेयगोचरा । आश्रवः सर्वथा हेय, उपादेयश्च संवरः ॥ ५ ॥
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अध्याय-२ ]
98
[ स्वाध्यायदोहन
आश्रवो भवहेतुः स्यात्संवरो मोक्ष कारणम् ।
4
इती माती मुष्टिरन्यदस्याः प्रपञ्चनम्
इत्याज्ञाराधनपरा, अनन्ताः परिनिर्वृताः । निर्वान्ति चान्ये कचन, निर्वास्यन्ति तथाऽपरे ॥ ७ ॥
5
हित्वा प्रसादनादैन्यमेकयैव त्वदाज्ञया ।
सर्वथैव विमुच्यन्ते, जन्मिनः कर्म पञ्जरात्
२०.
पादपीठलुठन्मूर्ध्नि, मयि पादरजस्तव । चिरं निवसतां पुण्यपरमाणुकणोपमम् मद्दृशौ त्वन्मुखासक्ते, हर्षवाष्प जलोर्मिंभिः । अप्रेक्ष्यप्रेक्षणोद्भूतं, क्षणात्क्षालयतां मलम् त्वत्पुरो लुठनैर्भूयान्मद्भालस्य तपस्विनः । कृताऽसेव्यप्रणामस्य, प्रायश्चित्तं किणावलिः
7
मम त्वद्दर्शनोद्भूताश्विरं रोमाञ्चकण्टकाः ।
8
तुदन्तां चिरकालोत्थाम सद्दर्शनवासनाम्
॥ ६ ॥
॥ ८ ॥
11 3 11
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
11 8 11
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श्री महादेवस्तोत्रम् ] 99
[ अध्याय-२त्वद्वक्त्रकान्तिज्योत्स्नासु, निपीतासु सुधास्विव । मदीयैर्लोचनाम्भोजैः, प्राप्यतां निर्निमेषता ॥ ५ ॥ त्वदास्यलासिनी नेत्रे, त्वदुपाम्तिकरौ करौ । त्वद्गुणश्रोतृणी श्रोत्रे, भूयास्तां सर्वदा मम ॥ ६ ॥ कुण्ठाऽपि यदि सोत्कण्ठा, त्वद्गुणग्रहणं प्रति । ममैषा भारती तर्हि, स्वस्त्येतस्यै किनन्यया ? ॥ ७ ॥ तव प्रेष्योऽस्मि दासोऽस्मि, सेवकोऽस्म्यस्मि किङ्करः । ओमिति प्रतिपद्यस्व, नाथ ! नातः परं ब्रुवे ॥ ८ ॥
11
श्रीहेमचन्द्रप्रभवाद्वीतरागस्तवादितः । कुमारपालभूपालः, प्राप्नोतु फलमीप्सितम्
अथ श्रीमहादेवस्तोत्रम् । प्रशान्तं दर्शनं यस्य, सर्वभूताभयप्रदम् । माङ्गल्यं च प्रशस्तं च, शिवस्तेन विभाव्यते ॥ १ ॥ महत्त्वादीश्वरत्वाञ्च, यो महेश्वरतां गतः । राग-द्वेषविनिर्मुक्तं, वन्देऽहं तं महेश्वरम् ॥ २ ॥ महाज्ञानं भवेद्यस्य, लोकालोकप्रकाशकम् । महादया दमो ध्यानं, महादेवः स उच्यते ॥ ३ ॥
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अध्याय-२ ]
100 [स्वाध्यायदोहनमहान्तस्तस्करा ये तु, तिष्ठन्तः स्वशरीरके । निर्जिता येन देवेन, महादेवः स उच्यते ॥ ४ ॥ रागद्वेषौ महामल्लौ, दुर्जयो येन निर्जितौ । महादेवं तु तं मन्ये, शेषा वै नामधारकाः शब्दमात्रो महादेवो, लौकिकानां मते मतः। शब्दतो गुणतश्चैवाऽर्थतोऽपि जिनशासने शक्तितो व्यक्तितश्चैव, विज्ञानं लक्षणं तथा । मोहजालं हतं येन, महादेवः स उच्यते ॥ ७ ॥ नमोऽस्तु ते महादेव !, महामदविवर्जित !। महालोभविनिर्मुक्त !, महागुणसमन्वित! ॥ ८ ॥ महारागो महाद्वेषो, महामोहस्तथैव च । कषायश्च हतो येन, महादेवः स उच्यते ॥ ९ ॥ महाकामो हतो येन, महाभयविवर्जितः। महाव्रतोपदेशी च, महादेवः स उच्यते ॥१०॥ महाक्रोधो महामानो, महामाया महामदः । महालोभो हतो येन, महादेवः स उच्यते महानन्दो दया यस्य, महाज्ञानी महातपाः । महायोगी महामौनी, महादेवः स उच्यते ॥१२॥
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श्री महादेवस्तोत्रम् ] 101
[ अध्याय-२महावीर्य महाधैर्य, महाशीलं महागुणः । महामञ्जुक्षमा यस्य, महादेवः स उच्यते ॥१३॥ स्वयम्भूतं यतो ज्ञानं, लोकालोकप्रकाशकम् । अनन्तवीर्यचारित्रं, स्वयम्भूः सोऽभिधीयते ॥१४॥ शिवो यस्माजिनः प्रोक्तः, शङ्करश्च प्रकीर्तितः । कायोत्सर्गी च पर्यती, स्त्रीशस्त्रादिविवर्जितः ॥१५॥ साकारोऽपि ह्यनाकारो, मूर्तीमूर्तस्तथैव च । परमात्मा च बाह्यात्मा, अन्तरात्मा तथैव च ॥ १६ ॥ दर्शन-ज्ञानयोगेन, परमात्माऽयमव्ययः। परा क्षान्तिरहिंसा च, परमात्मा स उच्यते ॥१७॥ परमात्मा सिद्धिसम्प्राप्तौ, बाह्यात्मा तु भवान्तरे। अन्तरात्मा भवेदेह इत्येषत्रिविधः शिवः ॥१८॥ सकलो दोषसम्पूर्णो, निष्कलो दोषवर्जितः । पञ्चदेहविनिर्मुक्तः, सम्प्राप्तः परमं पदम् ॥१९॥ एकमूर्तिस्त्रयो भागा, ब्रह्म-विष्णु-महेश्वराः । तान्येव पुनरुक्तानि, ज्ञान चारित्र-दर्शनात् ॥ २० ॥ एकमूर्तिस्त्रयो भागा, ब्रह्म-विष्णु-महेश्वराः । परस्परं विभिन्नानामेकमूर्तिः कथं भवेत् ? .. ॥ २१ ॥
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अध्याय-२ ]
102 [ स्वाध्यायदोहनकार्य विष्णु, क्रिया ब्रह्मा, कारणं तु महेश्वरः । कार्य-कारणसम्पन्ना, एकमूर्त्तिः कथं भवेत् ? ॥ २२ ॥ प्रजापतिसुतो ब्रह्मा, माता यद्यावती स्मृता । अभिजिज्जन्मनक्षत्रमेक मूर्तिः कथं भवेत् ? ॥२३ ॥ वसुदेवसुतो विष्णुर्माता च देवकी स्मृता । रोहिणी जन्मनक्षत्रमेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥२४ ॥ पेढालस्य सुतो रुद्रो, माता च सत्यकी स्मृता । मूलं च जन्मनक्षत्रमेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ २५ ॥ रक्तवर्णो भवेद् ब्रह्मा, श्वेतवर्णो महेश्वरः । कृष्णवर्णो भवेद् विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ २६ ॥ अक्षसूत्री भवेद् ब्रह्मा, द्वितीयः शूलधारकः । तृतीयः शङ्खचक्राङ्क एकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥२७ ।। चतुर्मुखो भवेद् ब्रह्मा, त्रिनेत्रोऽथ महेश्वरः । चतुर्भुजो भवेद् विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ २८ ॥ मथुरायां जातो ब्रह्मा, राजगृहे महेश्वरः । द्वारामत्यामभूद् विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ २९ ॥ हंसयानो भवेद् ब्रह्मा, वृषयानो महेश्वरः । गरुडयानो भवेद् विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ ३० ॥
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श्री महादेवस्तोत्रम् ] 103
[ अध्याय-२पद्महस्तो भवेद् ब्रह्मा, शूलपाणिमहेश्वरः । चक्रपाणिर्भवेद् विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ ३१ ॥ कृते जातो भवेद् ब्रह्मा, त्रेतायां च महेश्वरः । द्वापरे जनितो विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ ३२ ॥ ज्ञानं विष्णुः सदा प्रोक्तं, चारित्रं ब्रह्म उच्यते । सम्यक्त्वं तु शिवं प्रोक्तमहन्मूर्तिस्त्रयात्मिका ॥ ३३ ॥ क्षिति-जल-पवन-हुताशन-यजमाना-ऽऽकार्श-सोम-सूर्याख्याः। इत्येतेऽष्टौ भगवति, वीतरागे गुणा मताः ॥ ३४ ॥ क्षितिरित्युच्यते क्षान्तिर्जलं या च प्रसन्नता। निःसङ्गता भवेद्वायुर्हताशो योगें उच्यते ॥ ३५ ॥ यजमानो भवेदात्मा, तपोदानदयादिभिः। अलेपकत्वादाकाशसङ्काशः सोऽभिधीयते ॥ २६ ॥ सौम्यमूर्तिरुचिश्चन्द्रो, वीतरागैः समीक्ष्यते । ज्ञानप्रकाशकत्वेन, आदित्यः सोऽभिधीयते ॥३७ ।। पुण्यपापविनिर्मुक्को, रागद्वेषविवर्जितः । श्रीअर्हद्भ्यो नमस्कारः, कर्तव्यः शिवमिच्छता ॥ ३८ ॥ अकारेण भवेद् विष्णू रेफे ब्रह्मा व्यवस्थितः । हकारेण हरः प्रोक्तस्तस्यान्ते परमं पदम् ॥ ३९ ॥
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अध्याय-२ ]
104 [स्वाध्यायदोहनअकार आदिधर्मस्य, आदिमोक्षप्रदेशकः । स्वरूपे परमं ज्ञानमकारस्तेन उच्यते ॥४०॥ रूपिद्रव्यस्वरूपं वा, दृष्ट्वा ज्ञानेन चक्षुषा । दृष्टं लोकमलोकं वा, रकारस्तेन उच्यते ॥४१॥ हता रागाश्च द्वेषाश्च, हता मोहपरीषहाः । हतानि येन कर्माणि, हकारस्तेन उच्यते ॥ ४२ ॥ सन्तोषेणाभिसम्पूर्णः, प्रातिहार्याष्टकेन च । ज्ञात्वा पुण्यं च पापं च, नकारस्तेन उच्यते ॥ ४३ ॥ भवबीजाङ्कुरजनना, रागाद्याः, क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ ४४ ॥
अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका । अनन्तविज्ञानमतीतदोषमबाध्यसिद्धान्तममर्त्यपूज्यम् । श्रीवर्द्धमानं जिनमाप्तमुख्यं, स्वयम्भुवं स्तोतुमहं यतिष्ये ॥ १॥ अयं जनो नाथ ! तव स्तवाय, गुणान्तरेभ्यः स्पृहयालुरेव । विगाहतां किन्तु यथार्थवादमेकं परीक्षाविधिदुर्विदग्धः ॥ २ ॥ गुणेष्वसूयां दधतः परेऽमी, मा शिश्रियन्नाम भवन्तमीशम् । तथापि सम्मील्य विलोचनानि, विचारयन्तां नयवर्ती सत्यम् ॥३॥
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अन्ययोग व्य० द्वा०]
105
[ अध्याय-२
स्वतोऽनुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाजो, भावा न भावान्तरनेयरूपाः । परात्मतत्त्वादतथात्मतत्त्वाद्, द्वयं वदन्तोऽकुशलाः स्खलन्ति ॥४॥ आदीपमाव्योम समस्वभाव, स्याद्वादमुद्राऽनतिभेदि वस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ॥५॥ कर्ताऽस्ति कश्चिजगतः स चैकः, स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः । इमाः कुहेवाकविडम्बनाः स्युस्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥ ६ ॥
न धर्मधर्मित्वमतीवभेदे, वृत्त्याऽस्ति चेन्न त्रितयं चकास्ति । इहेदमित्यस्ति मतिश्च वृत्तौ, न गौणभेदोऽपि च लोकबाधः ।। ७ ।। सतामपि स्यात् कचिदेव सत्ता, चैतन्यमौपाधिकमात्मनोऽन्यत् । न संविदानन्दमयी च मुक्तिः, सुसूत्रमासूत्रितमत्वदीयैः ॥ ८॥ यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र, कुम्भादिवन्निष्प्रतिपक्षमेतत् । तथापि देहाद् बहिरात्मतत्त्वमतत्त्ववादोपहताः पठन्ति ॥ ९ ॥ स्वयं विवादग्रहिले वितण्डापाण्डित्यकण्डूलमुखे जनेऽस्मिन् । मायोपदेशात् परमर्म भिन्दन्नहो! विरक्तो मुनिरन्यदीयः ॥१०॥ न धर्महेतुर्विहिताऽपि हिंसा, नोत्सृष्टमन्यार्थमपोद्यते च । स्वपुत्रघातान्नृपतित्वलिप्सासब्रह्मचारि स्फुरितं परेषाम् ॥ ११ ॥
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अध्याय-२ ]
स्वार्थावबोधक्षम एव बोधः, प्रकाशते नार्थकथाऽन्यथा तु ।
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परे परेभ्यो भयतस्तथापि, प्रपेदिरे ज्ञानमनात्मनिष्ठम् ॥ १२ ॥ माया सती चेद् द्वयतत्त्वसिद्धिरथासतीहन्त ! कुतः प्रपञ्चः ! मायैव चेदर्थसहा च तत्कि, माता च बन्ध्या च भवत्परेषाम् ? १३
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106
[ स्वाध्याय दोहन
अनेकमेकात्मकमेव वाच्यं, द्वयात्मकं वाचकमप्यवश्यम् ।
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अतोऽन्यथावाचकवाच्यक्लृप्तावतावकानां प्रतिभाप्रमादः || १४॥
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चिदर्थशून्या च जडा च बुद्धि:, शब्दादितन्मात्रमम्बरादि । न बन्धमोक्षौ पुरुषस्य चेति, कियज्जडैर्न प्रथितं विरोधि ।। १५ ।। न तुल्यकालः फलहेतुभावो, हेतौ विलीने न फलस्य भावः । न संविदद्वैतपथेऽर्थसंविद्, विलूनशीर्णं सुगतेन्द्रजालम् ॥ १६ ॥ विना प्रमाणं परवन्न शून्यः, स्वपक्षसिद्धेः पदमनुवीत । कुप्येत् कृतान्तः स्पृशते प्रमाणमहो ! सुदृष्टं त्वदसूयिदृष्टम् ॥ १७ ॥
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कृतप्रणाशाऽकृतकर्मभोगभवप्रमोक्षस्मृतिभङ्गदोषान् ।
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उपेक्ष्य साक्षात् क्षणभङ्गमिच्छन्नहो ! महासाहसिकः परस्ते ॥ १८ ॥
सा वासना सा क्षणसन्ततिश्च नाभेदभेदाऽनुभयैर्घटेते ।
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तटस्तटाऽदर्शिशकुन्त पोतन्यायात् त्वदुक्तानि परे श्रयन्तु ॥ १९ ॥
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अन्ययोग व्य० द्वा०] 107
[ अध्याय-२विनाऽनुमानेन पराभिसन्धिमसंविदानस्य तु नास्तिकस्य । न साम्प्रंत वक्तुमपि क चेष्टा, क दृष्टमात्रं च हहा ! प्रमादः ॥२०॥ प्रतिक्षणोत्पादविनाशयोगिस्थिरैकमध्यक्षमपीक्षमाणः । जिन ! त्वदाज्ञामवमन्यते यः, स वातकी नाथ ! पिशाचकी वा ॥२१॥
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अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वमतोऽन्यथा सत्त्वमसूपपादम् । इति प्रमाणान्यपि ते कुवादिकुरङ्गसन्त्रासनसिंहनादाः ॥ २२ ॥ अपर्ययं वस्तु समस्यमानमद्रव्यमेतच्च विविच्यमानम् । आदेशभेदोदितसप्तभङ्गमदीदृशस्त्वं बुधरूपवेद्यम् ॥ २३ ॥ उपाधिभेदोपहितं विरुद्धं, नार्थेष्वसत्त्वं सदवाच्यते च । इत्यप्रबुध्यैव विरोधभीता, जडास्तदेकान्तहताः पतन्ति ॥ २४ ॥ स्यान्नाशि नित्यं सहशं विरूपं, वाच्यं न वाच्यं सदसत्तदेव । विपश्चितां नाथ ! निपीततत्त्वसुधोद्गतोद्गारपरम्परेयम् ॥ २५ ॥ य एव दोषा:किल नित्यवादे, विनाशवादेऽपि समास्त एव । परस्परध्वंसिषु कण्टकेषु, जयत्यधृष्यं जिन ! शासनं ते ॥ २६ ॥ नैकान्तवादे सुखदुःखभोगौ, न पुण्यपापे न च बन्धमोक्षौ । दुर्नीतिवादव्यसनासिनैवं, परैर्विलुप्तं जगदप्यशेषम् ॥ २७ ॥
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अध्याय-२ ]
108 [स्वाध्यायदोहनसदेव सत् स्यात्सदिति त्रिधाऽर्थो, मीयेत दुर्नीतिनय-प्रमाणैः । यथार्थदर्शी तु नयप्रमाणपथेन दुर्नीतिपथं त्वमाऽऽस्थः ॥ २८ ॥ मुक्तोऽपि वाऽभ्येतु भवं भवो वा, भवस्थशून्योऽस्तु मितात्मवादे । षड्जीवकायं त्वमनन्तसङ्ख्यमाख्यस्तथा नाथ ! यथा न दोषः।।२९॥ अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावाद्, यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः । नयानशेषानविशेषमिच्छन् , न पक्षपाती समयस्तथा ते ॥ ३० ॥ वाग्वैभवं ते निखिलं विवेक्तुमाशास्महे चेन्महनीयमुख्य ! । लोम जङ्घालतया समुद्रं, वहेम चन्द्रद्युतिपानतृष्णाम् ॥ ३१ ॥
इदं तत्त्वाऽतत्त्वव्यतिकरकरालेऽन्धतमसे, जगन्मायाकारैरिव हतपरैहीं ! विनिहितम् । तदुद्धत्तुं शक्तो नियतमविसंवादिवचनस्त्वमेवातस्रातस्त्वयि कृतसपर्याः कृतधियः ॥ ३२ ॥
अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका। अगम्यमध्यात्मविदामवाच्यं, वचस्विनामक्षवतां परोक्षम् । श्रीवर्द्धमानाभिधमात्मरूपमहं स्तुतेर्गोचरमानयामि ॥ १ ॥ स्तुतावशक्तिस्तव योगिनां न किं, गुणानुरागस्तु ममापि निश्चलः । इदं विनिश्चित्य तव स्तवं वदन् , न बालिशोऽप्येष जनोऽपराध्यति।२।
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अयोग द्वात्रिंशिका ] 109
[ अध्याय-२क सिद्धसेनस्तुतयो महार्थी ?, अशिक्षिताऽऽलापकला क चैषा?। तथापि यूथाधिपतेः पथिस्थः, स्खलद्गतिस्तस्य शिशुर्न शोच्यः॥३॥ जिनेन्द्र ! यानेव विबाधसे स्म, दुरन्तदोषान् विविधैरुपायैः । त एव चित्रं त्वदसूययेव, कृताः कृतार्थाः परतीर्थनाथैः ॥ ४ ॥ यथास्थितं वस्तु दिशन्नधीश !, न तादृशं कौशलमाश्रितोऽसि । तुरङ्गशृङ्गाण्युपपादयद्भ्यो, नमः परेभ्यो नवपण्डितेभ्यः ॥ ५ ॥ जगत्यनुध्यानबलेन शश्वत्, कृतार्थयत्सु प्रसभं भवत्सु । किमाश्रितोऽन्यैः शरणं त्वदन्यः, स्वमांसदानेन वृथा कृपालुः ॥६॥
स्वयं कुमार्गग्लपिता नु नाम, प्रलम्भमन्यानपि लम्भयन्ति । सुमार्गगं तद्विदमादिशन्तमसूययाऽन्धा अवमन्वते च ॥ ७ ॥ प्रादेशिकेभ्यः परशासनेभ्यः, पराजयो यत्तव शासनस्य । खद्योतपोतद्युतिडम्बरेभ्यो, विडम्बनेयं हरिमण्डलस्य ॥ ८ ॥ शरण्य ! पुण्ये तव शासनेऽपि, संदेग्धि यो विप्रतिपद्यते वा । स्वादौ स तथ्ये स्वहिते च पथ्ये, संदेग्धि वा विप्रतिपद्यते वा ॥९॥ हिंसाद्यसत्कर्मपथोपदेशादसर्वविन्मूलतया प्रवृत्तेः । नृशंसदुर्बुद्धिपरिग्रहाच्च, ब्रूमस्त्वदन्यागममप्रमाणम् ॥ १० ॥
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अध्याय- २ ]
[ स्वाध्यायदोहन
हितोपदेशात् सकलज्ञकॢप्तेर्मुमुक्षुसत्साधुपरिग्रहाच्च । पूर्वापरार्थेष्वविरोधसिद्धेस्त्वदागमा एव सतां प्रमाणम् ॥ ११॥
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क्षिप्येत वाऽन्यैः सदृशीक्रियेत वा, तवाङ्गिपीठे लुठनं सुरेशितुः । इदं यथावस्थितवस्तुदेशनं, परैः कथङ्कारमपाकरिष्यते ? ॥ १२ ॥
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तद्दुःषमाकालखलायितं वा, पचेलिमं कर्म भवानुकूलम् |
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उपेक्षते यत्तव शासनार्थमयं जनो विप्रतिपद्यते वा ॥ १३ ॥
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परः सहस्राः शरदस्तपांसि युगान्तरं योगमुपासतां वा । तथापि ते मार्गमनापतन्तो, न मोक्ष्यमाणा अपि यान्ति मोक्षम् ॥ १४ ॥ अनात जाड्यादिविनिर्मितित्व सम्भावनासम्भविविप्रलम्भाः । परोपदेशाः परमाप्तक्लृप्त—पथोपदेशे किमु संरभन्ते ? ॥ १५ ॥ यदार्जवादुक्तमयुक्तमन्यैस्तदन्यथाकारमकारि शिष्यैः ।
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न विप्लवोऽयं तत्र शासनेऽभूदहो ! अधृष्या तत्र शासनश्रीः || १६ || देहाद्ययोगेन सदाशिवत्वं, शरीरयोगादुपदेशकर्म ।
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परस्परस्पर्धि कथं घटेत, परोपक्लुतेष्वधिदैवतेषु
प्रागेव देवान्तरसंश्रितानि, रागादिरूपाण्यवमान्तराणि । #मोहभ्यां करुणामपीश !, समाधि माध्यस्थ्ययुगाश्रितोऽसि ॥ १८ ॥
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अयोग द्वात्रिंशिका ] 111
[ अध्याय- २ जगन्ति भिन्दन्तु सृजन्तु वा पुनर्यथा तथा वा पतयः प्रवादिनाम् । त्वदेकनिष्ठे भगवन् ! भवक्षयक्षमोपदेशे तु परं तपस्विनः ॥ १९ ॥
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वपुश्च पर्यङ्कायं लथं च दृशौ च नासानियते स्थिरे च । न शिक्षितेयं परतीर्थनाथै जिनेन्द्र ! मुद्राऽपि तवान्यदास्ताम् ||२०|
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यदीयसम्क्त्वबलात् प्रतीमो भवादृशानां परमस्वभावम् । कुवासनापाशविनाशनाय, नमोऽस्तु तस्मै तव शासनाय ॥ २१ ॥
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अपक्षपातेन परीक्षमाणा, द्वयं द्वयस्याप्रतिमं प्रतीमः । यथास्थितार्थप्रथनं तवैतदस्थाननिर्बन्धरसं परेषाम् ॥ २२ ॥
अनाद्यविद्योपनिषन्निषण्णैर्विश्रृङ्खलैश्चापलमाचरद्भिः ।
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अमूढलक्ष्योऽपि पराक्रिये यत्, त्वत्किङ्करः किं करवाणि देव! ॥ २३ ॥
विमुक्तवैरव्यसनानुबन्धाः, श्रयन्ति यां शाश्वतवैरिणोऽपि । परैरगम्यां तव योगिनाथ !, तां देशनाभूमिमुपाश्रयेऽहम् ॥ २४ ॥
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मदेन मानेन मनोभवेन, क्रोधेन लोभेन च सम्मदेन | पराजितानां प्रसभं सुराणां वृथैव साम्राज्यरुजा परेषाम् ||२५|| स्वकण्ठपीठे कठिनं कुठारं, परे किरन्तः प्रलपन्तु किचित् ।
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मनीषिणां तु त्वयि वीतराग !, न रागमात्रेण मनोऽनुरक्तम् ॥ २६॥
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अध्याय-२ ]
112
[ स्वाध्यायदोहन
सुनिश्चितं मत्सरिणो जनस्य, न नाथ ! मुद्रामतिशेरते ते । माध्यस्थ्यमास्थाय परीक्षका ये, मणौ च काचेच समानुबन्धाः॥२७॥
इमां समक्षं प्रतिपक्षसाक्षिणामुदारघोषामवघोषणां ब्रुबे । 'नवीतरागात परमस्ति दैवतं,न चाप्यनेकान्तमृते नयस्थितिः।
न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो, न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु । यथावदाप्तत्वपरीक्षया तु, त्वामेव वीर ! प्रभुमाश्रिताः स्मः ॥२९॥ तमःस्पृशामप्रतिभासभाजं, भवन्तमप्याशु विविन्दते याः । महेम चन्द्रांशुदृशावदातास्तास्तर्कपुण्या जगदीश ! वाचः ॥ ३० ॥ यत्र तत्र समये यथा तथा, योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया । वीतदोषकलुषः स चेद्भवानेक एव भगवन् ! नमोऽस्तु ते ॥ ३१ ॥
इदं श्रद्धामात्रं तदथ परनिन्दा मृदुधियो, विगाहन्तां हन्त ! प्रकृतिपरवादव्यसनिनः ।
अरक्तद्विष्टानां जिनवर ! परीक्षाक्षमधियामयं तत्त्वालोकः स्तुतिमयमुपाधि विधृतवान्॥ ३२ ॥
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॥ ॐ नमो नाणस्स ॥
तृतीयः अध्यायः (३)
[ श्री विविधग्रन्थस्थं पठनीय-स्तवादि]
(१) श्री नवपद-स्वरूपदर्शनम् अरिहंसिद्धायरिया, उज्झाया साहुणो अ सम्मत्तं । नाणं चरणं च तवो, इय पयनवगं मुणेयव्वं ॥१॥ तत्थऽरिहंतेऽद्वारसदोसविमुक्के विसुद्धनाणमए । पयडियतत्ते नयसुरराए झाएह निचंपि ॥ २ ॥ पनरसभेयपसिद्धे, सिद्धे घणकम्म बंधणविमुक्के ।। सिद्धाणंतचउक्के, झायह तम्मयमणा सययं ॥३॥ पंचायारपवित्ते, विसुद्धसितदेसणुज्जुत्ते।
परउवयारिकपरे, निचं झाएह सूरिवरे ॥४॥ * दर्शयितारः श्रीगौतमगणधारिणः ।
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भयाय-३ ] __114 [स्वाध्यायदोहन
गणतित्तीसु निउत्ते, सुत्तत्थज्झावणंमि उज्जुत्ते । सज्झाए लीणमणे, सम्मं झाएह उज्झाए ॥५॥ सव्वासु कम्मभूमिसुं, विहरते गुणगणेहिं संजुत्ते । गुत्ते मुत्ते झायह, मुणिराए निट्ठियकसाए ॥६॥ सव्वन्नुपणीयागमपयडियतत्तत्थसद्दहणरूवं । दसणरयणपईवं, निचं धारेह मणभवणे जीवाजीवाइपयत्थसत्थतत्तावबोहरूवं च । नाणं सव्वगुणाणं, मूलं सिक्खेह विणएणं ॥८॥ असुहकिरियाण चाओ, सुहासु किरियासु जो य अपमाओ । तं चारितं उत्तम गुणजुत्तं पालह निरुत्तं ॥९॥ घणकम्मतमोभरहरणभाणुभूयं दुवालसंगधरं । नवरमकसायतावं, चरेह सम्मं तवोकम्मं ॥१०॥
एयाइं नवपयाई, जिणवरधम्ममि सारभूयाई । : कल्लाणकारणाई, विहिणा आराहियव्वाई ॥११॥
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सिरिवालकहा ]
115
[ अध्याय-३
(२) श्री ऋषभजिनेश्वर-स्तवः
भत्तिभरनमिरसुरिंदविंदवंदिअपय ! पढमजिणंदचंद !। चंदुजलकेवलकित्तिपूरपूरियभुवणंतरवेरिसूर ! ॥१॥ सूरुव्व हरिअतमतिमिर ! देव ! देवासुरखेयरविहिअसेव!। सेवागयगयमयरायपायपयडियपणामह ! कयपसाय ! ॥२॥
सायरसमसमयामयनिवास ! वासबगुरुगोयरगुणविकास!। कासुजलसंजमसीललील! लीलाइ विहिअमोहावहील! ॥३॥ हिलापरजंतुसु अकयसाव! सावयजणजणिअआणंदभाव! । भावलयअलंकिय ! रिसहनाह ! नाहत्तणु करि हरि दुक्खदाह ।। ४॥ इअ रिसहजिणेसर भुवणदिणेसर, तिजयविजय ! सिरिपालपहो!। मयणाहिअ ! सामिअ ! सिवगइगामिअ! मणह मणोरह पूरिमहो॥५॥
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* श्री मदनासुन्दरीसन्दृब्धः ।
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अध्याय-३]
116 [स्वाध्यायदोहन
(३)
श्री ऋषभजिनेश्वर-स्तवः सिरिसिद्धचक्कनवपयमहल्लपढमिल्लपयमय ! जिणिंद ! ।
असुरिंदसुरिदश्चियपयपंकज ! नाह ! तुज्झ नमो ॥१॥ सिरिरिसहेसरसामिय ! कामियफलदाणकप्पतरुकप्प!। कंदप्पदप्पगंजण ! भवभंजण ! देव ! तुज्झ नमो ॥२॥ सिरिनाभिकुलगरकुलकमलुल्लासपरमहंससम!। असमतमतमतमोभरहरणिकपईव ! तुज्झ नमो ॥३॥ सिरिमरुदेवासामिणिउदरदरीदरिअकेसरिकिसोर !। घोरभुयदंडखंडियपयंडमोहस्स तुझ नमो
॥४॥
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इक्खागुवंसभूसण :, गयदूसण ! दूरियमयगलमइंद। चंदसमवयण ! वियसियनीलुप्पलनयण ! तुज्झ नमो
॥५॥
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कल्लाणकारणुत्तमत्तत्तकणयकलससरिससंठाण ! । कंठट्ठियकलकुंतलनीलुप्पलकलिय ! तुज्झ नमो
* श्री श्रीपालकुमारसंस्तुतः ।
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सिरिवालकहा ] 117
[ अध्याय-३आईसर ! जोईसरलयगयमणलक्खलक्खियसरूव ! । भवकूवपडिअजंतुत्तारण ! जिणनाह ! तुज्झ नमो ॥७॥ सिरिसिद्धसेलमंडण ! दुहखंडण ! खयररायनयपाय !। सयलमहसिद्धिदायग! जिणनायग ! होउ तुज्झ नमो ॥८॥ तुज्झ नमो तुज्झ नमो तुज्झ नमो देव ! तुज्झ चेव नमो । पणयसुररयणसेहररुइरंजियपाय ! तुज्झ नमो ॥९॥
(४) श्री *नवपद-स्वरूपदर्शनम् जिअंतरंगारिजणे सुनाणे, सुपाडिहेराइसयप्पहाणे । संदेहसंदोहरयं हरंते, झाएह निच्चपि जिणेऽरिहंते दुट्ठट्टकम्मावरणप्पमुक्के, अणंतनाणाइसिरीचउक्के । समग्गलोगग्गपयप्पसिद्धे, झाएह निश्चंपि मणंमि सिद्धे ॥२॥ न तं सुहं देइ पिया न माया, जं दिति जीवाणिह सूरिपाया । तम्हा हु ते चेव सया महेह, जं मुक्खसुक्खाई लहुं लहेह ॥ ३ ॥ सुत्तत्थसंवेगमयस्सुएणं, सन्नीरखीरामयविस्सुएणं । पीणंति जे ते उवझायराए, झाएह निञ्चपि कयप्पसाए ॥४॥ * दर्शयिता श्रीचारणश्रमणमुनिः ।
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अध्याय-३ ]
118 [स्वाध्यायदोहनखते अ दंते अ सुगुत्तिगुत्ते, मुत्ते पसंते गुणजोगजुत्ते । गयप्पमाए हयमोहमाए, झाएह निचं मुणिरायपाए ॥५॥ जं दव्वछक्काइसुसदहाणं, तं दसणं सव्वगुणप्पहाणं । कुग्गाहवाही उ वयंति जेण, जहा विसुद्धण रसायणेण ॥ ६ ॥ नाणं पहाणं नयचक्कसिद्धं, तत्तावबोहिक्कमयं पसिद्धं । धरेह चित्तावसहे फुरतं, माणिक्कदीवुव्व तमो हरतं ॥ ७ ॥ सुसंवरं मोहनिरोहसारं, पंचप्पयारं विगयाइयारं । मुलोत्तराणेगगुणं पवित्तं, पालेह निचंपि हु सच्चरित्तं ॥ ८ ॥ बझं तहाभिंतरभेअमेअं, कयाइदुब्भेअकुकम्मभेअं । दुक्खक्खयत्थं कयपावनासं, तवं तवेहागमिअं निरासं ॥ ९ ॥
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(५)
महामुनि-स्तवः जेणेस कोहजोहो, हणिओ हेलाइ खंतिखग्गेणं । समयासिअधारेणं, तस्स महामणिवइ ! नमो ते ॥ १ ॥
१ श्रीश्रीपालराजा श्रीअजितसेनमुनिवरं स्तौति ।
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लिरिवालकहा ]
119
[ अध्याय-2
20
माणगिरिगरुअमयसिहरअट्ठयं महविक्कवजेणं । जेण हणिऊण भग्गं, तस्स महामुणिवह ! नमो ते ॥२॥ मायामयविसवल्ली, जेणऽजवसारसरलकीलेणं । उक्खणिआ मूलाओ, तस्स महामुणिवइ ! नमो ते ॥३॥ जेणिच्छामुच्छावेलसंकुलो लोहसागरो गरुओ। तरिओ मुत्तितरीए, तस्स महामुणिवइ ! नमो ते ॥ ४ ॥ जेण कंदप्पसप्पो, विवेअसंवेअजणिअजंतेण । गयदप्पुच्चिअ विहिओ, तस्स महामुणिवइ ! नमो ते ॥५॥ जेण निअमणपडाओ कोसुंभपयंगमंगसमरागो। तिविहोऽवि हुनिध्धूओ, तस्स महामुणिवइ ! नमो ते ॥ ६॥ दोसो दुट्ठगयंदो, वसीकओ जेण लीलमित्तेणं । उवसमसिणिनिउणेणं, तस्स महामुणिवइ ! नमो ते ॥ ७ ॥ मोहो महल्लमलोऽवि, पीडिओ ताडिऊण जेणेसो। वेरग्गमुग्गरेणं, तस्स महामुणिवइ ! नमो ते ॥८॥ एए अंतररिउणो, दुजेआ सयलसुरवरिंदेहिं । जेण जिआ लीलाए तस्स महामुणिवइ ! नमो ते ॥ ९ ॥
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अध्याय-३ ].
120
[स्वाध्यायदोहन
नवपद विषयक देशना । भो भो भव्वा ! भवोहंमि, दुल्लहो माणुसो भवो । चुल्लगाईहिं नाएहिं, आगमंमि विआहिओ ॥१॥ लद्धमि माणुसे जम्मे, दुल्लहं खित्तमारिअं । जं दीसंति इहाणेगे, मिच्छा भिल्ला पुलिंदया ॥२॥ आरिएसु अ खित्तेसु, दुल्लहं कुलमुत्तमं । जं वाहसुणियाईणं, कुले जायाण को गुणो ? ॥३॥ कुले लद्धेऽवि दुल्लभं, रुवमारुग्गमाउअं । विगला वाहिआऽकालमया दीसंति जं जणा ॥४॥ तेसु सव्वेसु लद्धेसु, दुल्लहो गुरुसंगमो । जं सया सव्वखित्तेसु, पाविजंति न साहुणो ॥५॥ महंतेणं च पुन्नेणं, जाएवि गुरुसंगमे । आलस्सईहिं रुद्धाणं, दुल्लहं गुरुदंसणं ॥६॥ कहं कहंपि जीवाणं, जाएऽवि गुरुदसणे । बुग्गाहियाणं धुत्तेहिं, दुल्लहं पज्जुवासणं १ श्रीअजितसेनमहामुनेः ।
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सिरिवालकहा ] 121
[ अध्याय-३गुरुपासेऽवि पत्ताणं, दुल्लहा आगमस्सुई। जं निदा विगहाओअ, दुजआओ सयाइवि ॥८॥ संपत्ताए सुईएवि, तत्तबुद्धी सुदुल्लहा । जं सिंगारकहाईसु, सावहाणमणो जणो ॥९॥ उवइटेऽवि तत्तंमि, सद्धा अञ्चंतदुल्लहा । जं तत्तरुइणो जीवा, दीसंति विरला जए ॥१०॥ जायाए तत्तसद्धाए, तत्तबोहो सुदुल्लहो । जं आसन्नसिवा केई, तत्तं बुझंति जंतुणो ॥ ११ ॥ तत्तं दसविहो धम्मो, खंती मद्दव अजवं । मुत्ती तवो दया सच्चं, सोयं बंभमकिंचणं ॥ १२ ॥ खंतीनाममकोहत्तं, महवं माणवज्जणं । अजवं सरलो भावो, मुत्ती निग्गंथया दुहा ॥ १३ ॥ तवो इच्छानिरोहो अ, दया जीवाण पालणं । सञ्चं वक्कमसावजं, सोयं निम्मलचित्तया ॥ १४ ॥ बंभमट्ठारभेअस्स, मेहुणस्स विवजणं । अकिंचणं न मे कज्जं, केणाऽवित्थित्तिऽणीहया ॥ १५ ॥ एसो दसविहोदेसो, धम्मो कप्पदुमोवमो । जीवाणं पुण्णपुण्णाणं, सव्वसुक्खाण दायगो ॥१६॥
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अध्याय-३ ]
122 [स्वाध्यायदोहनधम्मो चिंतामणी रम्मो, चिंतिअत्थाण दायगो। निम्मलो केवलालोअलच्छिविच्छिडिकारओ ॥ १७ ॥ कल्लाणिक्कमओ वित्तरूवो मेरूवमो इमो।। सुमणाणं मणोतुडिं, देइ धम्मो महोदओ ॥ १८ ॥ सुगुत्तसत्तखित्तीए सबस्सव य सोहिओ। धम्मो जयइ संवित्तो, जंबूदीवोवमो इमो ॥१९॥ एसो अ जेहिं पन्नत्तो, तेऽवि तत्तं जिणुत्तमा । एअस्स फलभूआ य, सिद्धा तत्तं न संसओ ॥ २० ॥ दंसंता एयमायारं तत्तमायरिआवि हु। सिक्खयंता इमं सीसे, तत्तमुज्झावयावि अ ॥ २१ ॥ साहयंता इमं सम्म, तत्तरूवा सुसाहुणो । एअस्स सद्दहाणेणं, सुतत्तं दंसणंपि हु ॥ २२ ॥ एअस्सेवावबोहेणं, तत्तं नाणंपि निच्छयं । एअस्साराहणावं, तत्तं चारित्तमेव य ॥२३॥ इत्तो जा निजरा तीएरुवं तत्तं तवोऽवि अ। एवमेआई सव्वाई, पयाई तत्तमुत्तमं ॥२४ ॥ तत्तो नवपइ एसा, तत्तभूआविसेसओ। सम्वेहिं भव्वसत्तेहिं, नेआ झेआ य निच्चसो ॥ २५ ॥
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123
सिरिवालकहा ]
[ अध्याय-1एयं नवपयं भव्वा ! झायंता सुद्धमाणसा । अप्पणो चेव अप्पंमि, सक्खं पिक्खंति अप्पयं ॥ २६ ॥ अप्पंमि पिक्खिए जं च, खणे खिज्जइ कम्मयं । न तं तवेण तिव्वेण जम्मकोडीहिंखिज्जए ॥२७ ।। ता तुज्झे भो महाभागा ! नाऊणं तत्तमुत्तमं । सम्मं झाएह जं सिग्धं, पावेहाणंदसंपयं ॥ २८ ॥
(७) *नवपदाराधन विधिः नव चेईहरपडिमा, जिन्नुद्धाराइ विहि विहाणेणं । नाणाविहपूआहिं, अरिहंताराहणं कुणई सिद्धाणवि पडिमाणं, कारावणपूअणापणामेहिं । तग्गयमणझाणेणं, सिद्धपयाराहणं कुणइ ॥२॥ भत्तिबहुमाणवंदणवेआवश्चाइकजमुज्जुत्तो। सुस्सूसणविहिनिउणो, आयरिआराहणं कुणइ ॥३॥ ठाणासणवसणाई, पढंतपाढंतयाण पूरंतो।
दुविहमत्ति कुणंतो, उवज्झायाराहणं कुणइ * श्री श्रीपालनरपतिना कृता ।
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बध्याय-३ ] 124 [स्वाध्यायदोहन
अभिगमणवंदणनमंसणेहिं असणाइवसहिदाणेहिं । वेआवच्चाई हिं अ, साहुपयाराहणं कुणई ॥५॥ रहजत्ताकरणेणं, सुतित्थजत्ताहिं संघपूआहिं । सासणपभावणाहिं, सुदंसणाराहणं कुणइ सिद्धंतसत्थपुत्थयकारावणरक्खणचणाईहिं । सज्झायभावणाईहिं, नाणपयाराहणं कुणइ वयनिअमपालणेणं, विरइक्कपराण भत्तिकरणेणं । जइधम्मणुरागेणं, चारित्ताराहणं कुणइ ॥८॥ आसंसाइविरहिअं, बाहिरभितरं तवोकम्मं । जहसत्तीइ कुणंतो, सुद्धतवाराहणं कुणइ ॥९॥
(८)
*नवपद स्तवनम् उप्पन्नसन्नाणमहोमयाणं, सपाडिहेरासणसंठिआणं । सहेसणाणंदियसज्जणाणं, नमो नमो होउ सया जिणाणं ॥१॥ सिद्धाणमाणंदरमालयाणं, नमो नमोऽणंतचउक्कयाणं । सूरीण दूरीकयकुग्गहाणं, नमो नमो सूरसमप्पभाणं ॥ २ ॥ * श्री श्रीपालनरपतिना कृतम् ।
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लिरिवालकहा]
125
[ अध्याय-1
सुत्तत्थवित्थारणतप्पराणं, नमो नमो वायगकुंजराणं । साहूण संसाहिअसंजमाणं, नमो नमो सुद्धदयादमाणं ॥३॥ जिणुत्ततत्ते रुइलक्खणस्स, नमो नमो निम्मलदसणस्स । अन्नाणसम्मोहतमोहरस्स नमो नमो नाणदिवायरस्स ॥४॥ आराहिआऽखंडिअसक्कियस्स, नमो नमो संजमवीरियस्स । कम्मदुमुम्मूलणकुंजरस्स, नमो नमो तिव्वतवोभरस्स ॥ ५ ॥
इअ नवपयसिद्धं, लद्धिविज्जासमिद्धं । पयडिअसरवग्गं, हीतिरेहासमग्गं ॥ दिसिवइसुरसारं, खोणिपीढावयारं, तिजयविजयचकं, सिद्धचकं नमामि
(९) *नवपदस्वरूपदर्शक-स्तवः
[१] सेसतिभवेहिं मणुएहिं, जेहिं विहियारिहाइठाणेहिं । अज्जिजइ जिणगुत्तं, ते अरिहंते पणिवयामि
॥१॥
* श्री श्रीपालनृपतिना संदृब्धः ।
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॥२॥
अध्याय-३-] 126 [स्वाध्यायदोहनजे एगभवंतरिया, रायकुले उत्तमे अवयरंति । महसुमिणसूइअगुणा, ते अरिहंते पणिवयामि जेसिं जम्मंमि महिम, दिसाकुमारीओ सुरवरिंदाय । कुव्वंति पहिट्ठमणा, ते अरिहंते पणिवयामि आजम्मपि हु जेसि, देहे चत्तारि अइसया हुंति । लोगच्छेरयभूया, ते अरिहंते पणिवयामि ॥४॥ जे तिहुनाणसमग्गा, खीणं नाऊण भोगफलकम्मं । पडिवजंति चरित्तं, ते अरिहंते पणिवयामि ॥ ५ ॥ उवउत्ता अपमत्ता, सिअझाणा खवगसेणिहयमोहा।। पावंति केवलं जे, ते अरिहंते पणिवयामि कम्मक्खइया तह, सुरकया य जेसिं च अइसया हुंति । एगारसगुणवीसं, ते अरिहंते पणिवयामि ॥७॥ जे अट्ठपाडिहारेहि, सोहिआ सेविया सुरिंदेहि ।। विहरंति सयाकालं, ते अरिहंते पणिवयामि ॥८॥ पणतीसगुणगिराए, जेअ विबोहं कुणंति भवाणं । महिपीढे विहरता, ते अरिहंते पणिवयामि
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127
सिरिवालकहा ]
[ अध्याय-३[२] जे दुचरिमंमि समए, दुसयरिपयडिओ तेरस अ चरमे । खबिऊण सिवं पत्ता, ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं ॥१॥ चरमंगतिभागोणावगाहणा जे अ एगसमयंमि । संपत्ता लोगग्गं, ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं ॥२॥ पुत्वपओगअसंगाबंधणछेयासहावतो वावि । जेसिं उड्डा हु गई, ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं ईसीपब्भाराए उवरिं, खलु जोयणमि लोगते । जेसिं ठिई पसिद्धा, ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं ॥४॥ जे अ अणंता अपुणब्भवा य असरीरया अणाबाहा । दसणनाणुवउत्ता, ते सिद्धा दितु मे सिद्धि ॥५॥ जेऽणंतगुणा विगुणा, इगतीसगुणा अ अहव अट्ठगुणा । सिद्धाणंतचउका, ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं जह नगरगुणे मिच्छो, जाणतोऽवि हु कहेउमसमत्थो । तह जेसिं गुणे नाणी, ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं ॥ ७ ॥ जे अ अणंतमणुत्तरमणोवम, सासयं सयाणंदं । सिद्धिसुहं संपत्ता, ते सिद्धा दितु मे सिद्धिं ॥८॥
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अध्याय-३-] _128 [स्वाध्यायदोहन
[३] जे पंच विहायारं, आयरमाणा सया पयासंति । लोयाणणुग्गहत्थं, ते आयरिए नमसामि ॥१॥ देसकुलजाइरूवाइएहिं बहुगुणगणेहिं संजुत्ता। जे हुंति जुगे पवरा ते आयरिए नमसामि ॥२॥ जे निश्चमप्पमत्ता, विगहविरत्ता कसायपरिचत्ता । धम्मोवएससत्ता, ते आयरिए नमसाभि जेसारणवारणचोयणाहिं पडिचोयणाहिं निश्चंपि । सारंति नियं गच्छं, ते आयरिए नमसामि . ॥४॥ जे मुणियसुत्तसारा, परोवयारिकतप्परा दिति । तत्तोवएसदाणं, ते आयरिए नमसामि ॥५॥ अत्थमिए जिणसूरे, केवलिचंदेऽवि जे पईवुव । पयडंति इह पयत्थे, ते आयरिए नमसामि जे पावभरकंते, निवडते भवमहंधकूवंमि । नित्थारयति जीए, ते आयरिए नमसामि ॥ ७ ॥ जे मायतायबांधवपमुहे हितोऽवि इत्थ जीवाणं । साहति हिअं कजं, ते आयरिए नमसामि ॥८॥
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सिरिवालकहा ] 129
[ अध्याय-३ जे बहुलद्धिसमिद्धा, साइसया सासणं पभावंति। रायसमा निश्चिता, ते आयरिए नमसामि ॥९॥
[४] जे बारसंगसज्झायपारगा धारगा तयत्थाणं । तदुभयवित्थाररया, तेऽहं झाएमि उज्झाए ॥१॥ पाहाणसमाणेऽवि हु, कुणंति जे सुत्तधारया सीसे । सयलजणपूयणिज्जे, तेऽहं झाएमि उज्झाए ॥२॥ मोहाहिदट्ठनट्ठप्पनाणजीवाण चेयणं दिति । जे केऽवि नरिंदा इव, तेऽहं झाएमि उज्झाए ॥३॥ अन्नाणवाहिविहुराण, पाणिणं सुअरसायणं सारं । जे दिति महाविज्जा, तेऽहं झाएमि उज्जाए ॥४॥ गुणवणभंजणमणगयदमणंकुससरिसनाणदाणं जे। दिति सया भवियाणं, तेऽहं झाएमि उज्झाए ॥ ५ ॥ दिणमासजीवियंताई, सेसदाणाइ मुणि जे. नाणं । मुत्तितं दिति सया, तेऽहं झाएमि उज्झाए. ॥६॥
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अध्याय-३ ]
180 [स्वाध्यायदोहनअन्नाणंघे लोयाण, लोयणे जे पसत्थसत्थमुहा । उग्घाडयंति सम्मं, तेऽहं झाएमि उज्झाए बावन्नवण्णचंदणरसेण जे लोयपावतावाई। उवसामयंति सहसा, तेऽहं झाएमि उज्झाए ॥८॥ जे रायकुमरतुल्ला, गणतत्तिपरा अ सूरिपयजुग्गा । वायंति सीसवग्गं, तेऽहं झाएमि उज्झाए ॥९॥
जे दंसणनाणचरित्तरूवरयणत्तएण इक्केण । साहंति मुक्खमग्गं, ते सव्वे साहुणो वंदे ॥१॥ गयदुविहदुट्ठझाणा, जे झाइअधम्मसुक्कझाणा य। सिक्खंति दुविह सिक्खं, ते सव्वे साहुणो वंदे ॥ २ ॥ गुत्तित्तएण गुत्ता, तिसल्लरहिया तिगारवविमुक्का । जे पालयंति तिपई, ते सव्वे साहुणो वंदे ॥ ३ ॥ चउविहविगहविरत्ता, जे चउविहचउकसायपरिचत्ता । चहा दिसंति धम्मं, ते सव्वे साहुणो वंदे ॥ ४ ॥ उज्झिअपंचपमाया, निजिअपंचिंदिया य पालेंति । पंचेव समिईओ, ते सव्वे साहुणो वंदे
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सिरिवालकहा ] 131
[ अध्याय-३छज्जीवकायरक्खणंनिउणा हासाइछक्कमुक्का जे । धारंति अ वयछकं, ते सव्वे साहुणो वंदे ॥६॥ जे जियसत्तभया, गयअट्ठमया नवावि बंभगुत्तीओ। पालंति अप्पमत्ता, ते सव्वे साहुणो वंदे ॥ ७ ॥ दसविहधम्म तह, बारसेव पडिमाओ जे अ कुव्वंति । बारसविहं तवोवि अ, ते सव्वे साहुणो वंदे ॥ ८ ॥ जे सत्तरसंजमंगा, उव्वूढाहारसहससीलंगा। विहरंति कम्मभूमिसु, ते सव्वे साहुणो वंदे ॥९॥
जं सुद्धदेवगुरुधम्मतत्तसंपत्तिसद्दहणरूवं । वणिजइ सम्मत्तं, तं सम्मइंसणं नमिमो ॥१॥ जावेगकोडाकोडीसागरसेसा न होइ कम्मठिई। ताव न जं पाविजइ, तं सम्मइंसणं नमिमो ॥२॥ भव्वाणमद्भपुग्गलपरियट्टवसेसभवनिवासाणं । जं होइ गंठिभेए, तं सम्मइंसणं नमिमो ॥३॥ जं च तिहा उवसमिअं, खओवसमियं च खाइयं चेव । भणि जिणिंदसमए, तं सम्महंसणं नमिमो ॥४॥
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अध्याय-३ ]
[स्वाध्यायदोहनपण वारा उवसमिअं, खओक्समियं असंखसो होइ । जं खाइअं च इक्कसि, तं सम्मइंसणं नमिमो ॥५॥ जं धम्मदुममूलं, भाविजइ धम्मपुरप्पवेसं च । धम्मभवणपीढं वा, तं सम्मइंसणं नमिमो ॥६॥ जं धम्मजयाहारं, उवसमरसभायणं च जं बिंति । मुणिणो गुणरयणनिहि, तं सम्मइंसणं नमिमो ॥ ७ ॥ जेण विणा नाणंपि हु अपमाणं निप्फलं च चारित्तं । मुक्खोऽवि नेव लब्भइ, तं सम्मइंसणं नमिमो ॥ ८ ॥ जं सद्दहाणलक्खणभूसणपमुहेहिं बहुअभेएहिं । वण्णिज्जइ समयंमी, तं सम्मईसणं नमिमो ॥९॥
सव्वन्नुपणीयागमभणियाण जहट्ठियाण तत्ताणं । जो सुद्धो अवबोहो तं सन्नाणं मह पमाणं जेणं भक्खाभक्खं पिज्जापिजं अगम्ममवि गम्म । किञ्चाकिच्चं नजइ तं सन्नाणं मह पमाणं ॥२॥ सयलकिरिआण मूलं सद्धा लोअंमि तीइ सद्धाए। जं किर हवेइ मूलं तं सन्नाणं मह पमाणं ॥३॥
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133
सिरिवालकहा ]
[ अध्याय-३जं मइसुअओहिमयं मणपजवरूवकेवलमयं च । पंचविहं सुपसिद्धं, तं सन्नाणं मह पमाणं ॥४॥ केवलमणोहिणंपि हु वयणं लोयाण कुणइ उवयारं । जं सुयमइरूवेणं तं सन्नाणं मह पमाणं सुयनाणं चेव दुवालसंगरूवं परूविअं जत्थ । लोयाणुवयारकरं तं सन्नाणं मह पमाणं तत्तुञ्चिय जं भव्वा पढंति पाढंति दिति निसुणंति । पूयंति लिहावंति अतं सन्नाणं मह पमाणं ॥७॥ जस्स बलेणं अजवि नजइ तिथलोयगोअरवियारो । करगहियामलयंपिव तं सन्नाणं मह पमाणं ॥८॥ जस्स पसाएण जणा हवंति लोयमि पुच्छणिज्जा य । पूज्जा य वण्णणिज्जा तं सन्नाणं मह पमाणं ॥९॥
[८] जं देसविरइरूवं सव्वविरइरूवयं च अणुकमसो। होइ गिहीण जईणं तं चारित्तं जए जयइ ॥१॥ नाणंपि दंसणंपि अ संपुण्णफलं फलंति जीवाणं । जेणं चिअ परिअरिया तं चारितं जए जयइ ॥२॥
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अध्याय - ३ ]
134
[ स्वाध्यायदोहन
जं च जईण जहुत्तरफलं सुसामाइयाइ पंचविहं ।
।
सुपसिद्धं जिणसमए तं चारित्तं जए जयइ जं पडिवन्नं परिपालियं च सम्मं परूवियं दिन्नं अन्नेसिं च जिणेहिं वि तं चारित्तं जए जयई छक्खंडाणमखंडं रज्जसिरिं चइअ चक्कवट्टीहिं । जं सम्मं पडिवन्नं तं चारित्तं जए जयइ जं पडिवन्ना दमगाइणोऽवि जीवा हवंति तियलोए । सयलजणपूयणिज्जा तं चारित्तं जए जयइ
॥ ५ ॥
॥ ६ ॥
जं पालंताण मुणीसराण पाए णमंति साणंदा | देविंददाणविंदा तं चारित्तं जए जयइ जं चाणंतगुणंपि हु वणिज्जइ सतरभेअदसभेअं समयंमि मुणिवरेहिं तं चारितं जए जयइ समिईओ गुत्तीओ खंतीपमुहाओ मित्तियाईओ | साहंति जस्स सिद्धिं तं चारितं जए जयइ
[ ९ ] बाहिरमभितरयं बारसभेयं जहुत्तरगुणं जं । वणिज्जर जिणसमए तं तवपयमेस वंदामि
॥ ३ ॥
118 11
॥ ७ ॥
।
॥ ८ ॥
॥ ९ ॥
॥ १ ॥
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सिरिवालकहा ] 135
[ अध्याय-1तब्भवसिद्धिं जाणंतएहि सिरिरिसहनाहपमुहेहिं । तित्थयरेहिं कयं जं तं तवपयमेस वंदामि ॥२॥ जेण खमासहिएणं कएण कम्माणमवि निकायाणं । जायइ खओ खणेणं तं तवपयमेस वंदामि ॥३॥ जेणं चिय जलणेण व जीवसुवन्नाउ कम्मकिट्टाई । फिटृति तक्खणं चिय तं तवपयमेस वंदामि ॥४॥ जस्स पसाएण धुवं हवंति नाणाविहाउ लद्धीओ। आमोसहिपमुहाओ तं तवपयमेस वंदामि ॥५॥ कप्पतरुस्स व जस्सेरिसाउ सुरनरवराण रिद्धीओ। कुसुमाइं फलं च सिवं तं तवपयमेस वंदामि ॥ ६ ॥
अञ्चतमसज्झाई लीलाइवि सव्वलोयकज्जाई। सिझंति झत्ति जेणं तं तवपयमेस वंदामि ॥७॥ दहिदुव्वियाइमंगलपयत्थसत्थंमि मंगलं पढमं । जं वनिजइ लोए तं तवपयमेस वंदामि . ॥८॥
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अध्याय-३ ]
136 [ स्वाध्यायदोहनआत्मनि नवपदमयता
[१०] जेवि य संकप्पवियप्पवजिया हुंति निम्मलप्पाणो । ते चेव नवपयाइं नवसु पएसं च ते चेव जं झाया झायतो अरिहंत रूवसुपयपिंडत्थं । अरिहंतपयमयं चिय अप्पं पिक्खेइ पच्चक्खं ॥२॥ रूवाईअसहावो केवलसन्नाणदंसणाणंदो । जो चेव य परमप्पा सो सिद्धप्पा न संदेहो ॥ ३ ॥ पंचप्पत्थाणमयायरियमहामंतझाणलीलमणो । पंचविहायारमओ आयच्चिअ होइ आयरिओ ॥४॥ महपाणज्झायदुवालसंगसुत्तत्थतदुभयरहस्सो । सज्झायतप्परप्पा एसप्पा चेव उवज्झाओ ॥५॥ रयणत्तएण सिवपहसंसाहणसावहाणजोगतिगो।। साहू हवेइ एसो अप्पुच्चिय निच्चमपमत्तो मोहस्स खओवसमा समसंवेगाइलक्खणं परमं । सुहपरिणाममयं नियमप्पाणं दंसणं मुणह नाणावरणस्स खओवसमेण जहाट्ठियाण तत्ताणं । सुद्धावबोहरूवो अप्पुच्चिय वुच्चए नाणं ॥८॥
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उपमितिमव प्र० कथा ] 137
[ अध्याय-३सोलसकसायनवनोकसायरहियं विसुद्धलेसागं । ससहावठिअं अप्पाणमेव जाणेह चारित्तं ॥९॥ इच्छानिरोहओ सुद्धसंवरो परिणओ अ समयाए । कम्माइं निजरंतो तवोमओ चेव एसप्पा ॥१०॥ एवं च ठिए अप्पाणमेव नवपयमयं विआणित्ता। अप्पमि चेव निच्चं लीणमणा होह भो भविया ॥ ११ ॥
*श्री परमात्म-स्तवनम् नमस्ते जगदानन्द !, मोक्षमार्गविधायक ! । जिनेन्द्र विदिताशेषभाव ! सद्भावनायक ! ॥१॥ प्रलीनाशेषसंसारविस्तार ! परमेश्वर !। नमस्ते वापथातीत :, त्रिलोकनरशेखर ! ॥२॥ भवाब्धिपतितानन्तसत्त्वसन्तानतारक !। घोरसंसारकान्तारसार्थवाह ! नमोऽस्तु ते अनन्तपरमानन्दपूर्णधामव्यवस्थितम् । भवन्तं भक्तितः साक्षात्पश्यतीह जनो जिन! ॥४॥
* श्री सुबुद्धिमन्त्रिणा संदब्धम्
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अध्याय-३ ]
138 [स्वाध्यायदोहनस्तुवतस्तावकं बिम्बमन्यथा कथमीदशः । प्रमोदातिशयश्चित्ते जायते भुवनातिगः पापाणुजनितस्तावत् तापः संसारिचेतसाम् । यावत्तेषां सदानन्द !, न मध्ये नाथ ! वर्तसे ॥६॥ येषां पुनर्विवर्तेथा, नाथ चित्तेषु देहिनाम् । पापाणवः क्षणात्तेषां, ध्वंसमायान्ति सर्वथा ॥७॥ ततस्ते द्राविताशेषपापपङ्कतया जनाः । सद्भावामृतसंसिक्ता, मोदन्ते नाथ सर्वदा ॥८॥ ते वराका न मुच्यन्तां, रागादिचरटैः कथम् । येषां नाथ भवान्नास्ति, तप्तिसानाथ्य कारकः ॥९॥
भवन्तमुररी कृत्य, नाथं निःशङ्कमानसाः । शिवं यान्ति मदादीनां, विधाय गलपादिकाम् ॥ १० ॥ न्यपतिष्यदिदं नाथ !, जगन्नरककूपके । अहिंसाहस्तदानेन यदि त्वं नाधरिष्यथाः ॥ ११ ॥ विलीनसकलक्लेशं निर्विकारं मनोहरम् । शरीरं पश्यतां नाथ, तावकीनमदो वरम् ॥ १२ ॥
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उपमितिभव प्र० कथा ] 139
[ अध्याय-३. अनन्तवीर्यः सर्वज्ञो, वीतरागस्त्वमञ्जसा । न भासि यदभव्यानां तत्तेषां पापजृम्भितम् ॥ १३ ॥ रागद्वेषमहामोहसूचकैर्वीतकल्मष !। हास्यहेतिविलासाक्षमालाथै हनि ! ते नमः ॥ १४ ॥ अनन्तगुणसंपूर्ण ! कियद्वात्र वदिष्यति ।। तावकस्तवने नाथ जडबुद्धिरयं जनः ॥ १५ ॥ तथापि गाढसद्भावबद्धोऽत्यर्थमयं जनः ।.. सद्भावोऽप्यथवा नाथ भवतैवावबुध्यते ॥ १६ ॥ तदस्य करुणां कृत्वा विधातव्या भवे भवे । भवोच्छेदकरी नाथ भक्तिरात्मनि निश्चला ॥१७॥
*श्री परमात्म-स्तवनम् अपार घोरसंसारनिममजनतारक ! किमेष घोरसंसारे, नाथ ! ते विस्मृतो जनः ॥१॥ सद्भावप्रतिपन्नस्य, तारणे लोकबान्धव !। त्वयाऽस्य भुवनान्द !, येनाद्यापि विलम्ब्यते ॥२॥
* श्रीविमलेन संदब्धम्
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अध्याय-३ ]
140
[स्वाध्यायदोहन
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आपन्नशरणे दीने, करुणामृतसागर! न युक्तमीदृशं कर्तुं, जने नाथ! भवादृशाम् भीमेऽहं भवकान्तारे, मृगशावकसन्निभः । विमुक्तो भवता नाथ !, किमेकाकी दयालुना ॥४॥ इतश्चेतश्च निक्षिप्तचक्षुस्तरलतारकः । निरालम्बो भयेनैव, विनश्येऽहं त्वयाविना अनन्तवीर्यसम्भार !, जगदालम्बदायक ! विधेहि निर्भयं नाथ !, मामुत्तार्य भवाटवीम् ॥६॥ न भास्करादृते नाथ !, कमलाकरबोधनम् । यथा तथा जगन्नेत्र !, त्वदृते नास्ति निर्वृतिः ॥ ७ ॥ किमेष कर्मणां दोषः, किं ममैव दुरात्मनः । किं वास्य हतकालस्य, किं वा मे नास्ति भव्यता ॥ ८ ॥ किं वा सद्भक्तिनिर्ग्राह्य !, सद्भक्तिस्त्वयि तादृशी । निश्चलाद्यापि संपन्ना, न मे भूवनभूषण ! ॥९॥ लीलादलितनिःशेषकर्मजालकृपापर !। मुक्तिमर्थयते नाथ !, येनाद्यापि न दीयते ॥१०॥
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उपमिति० कथा ] 141
[ अध्याय-1स्फुटं च जगदालम्ब ! नाथेदं ते निवेद्यते। नास्तीह शरणं लोके, भगवन्तं विमुच्य मे ॥ ११ ॥ त्वं माता त्वं पिता बन्धु स्त्वं स्वामी त्वं च मे गुरुः । त्वमेव जगदानन्द !, जीवितं जीवितेश्वर ! ॥ १२ ॥
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त्वयावधीरितो नाथ ! मीनवजलवर्जिते । . निराशो दैन्यमालम्ब्य, म्रियेऽहं जगतीतले ॥१३ ॥ स्वसंवेदनसिद्धं मे, निश्चलं त्वयि मानसम् । साक्षाद्भूतान्यभावस्य यद्वा किं ते निवेद्यताम् ॥ १४ ॥ मञ्चितं पद्मवन्नाथ !, दृष्टे भुवनभास्करे ! त्वयीहविकसंत्येव विदलत्कर्मकोशकम् ॥ १५ ॥ अनन्तजन्तुसन्तानव्यापाराक्षणिकस्य ते । ममोपरिजगन्नाथ !, न जाने कीदृशी दया ॥ १६ ॥ समुन्नते जगन्नाथ ! त्वयि सद्धर्मनीरदे ॥ नृत्यत्येष मयूगऽऽभो मदोर्दण्डशिखण्डिकः ॥१७ ॥ तदस्य किमियं भक्तिः किमुन्मादोऽयमीहशः दीयतां वचनं नाथ ! कृपया मे निबेद्यताम् ॥१८॥
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अध्याय-३-] 142 [स्वाध्यायदोहन
मञ्जरीराजिते नाथ ! सच्चूते कलकोकिलः । यथा दृष्टे भवत्येव लसत्कलकलाकुलः ॥ १९ ॥ तथैष सरसानन्दबिन्दुसन्दोहदायक !। . त्वयि दृष्टे भवत्येवं मूर्योऽपि मुखरो जनः ॥२०॥ तदेनं माऽवमन्येथा नाथाऽसंबद्धभाषिणम् । मत्वा जनं जगज्येष्ठ ! सन्तो हि नतवत्सलाः ॥ २१ ॥ किं बालोऽलीकवाचाल आलजालं लपन्नपि । न जायते जगन्नाथ ! पितुरानन्दवर्धनः ॥२२॥
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तथाऽश्लीलाक्षरोल्लापजल्पाकोऽयं जनस्तव । किं विवर्धयते नाथ ! तोषं किं नेति कथ्यताम् ॥ २३ ॥ अनाद्यभ्यासयोगेन विषयाऽशुचिकर्दमे । गर्ने सूकरसंकाशं, याति मे चटुलं मनः ॥२४ ॥ न चाहं नाथ ! शक्नोमि तनिवारयितुं चलम् । अतः प्रसीद तद्देव ! देव ! वारय वारय ॥२५॥ किं ममापि विकल्पोऽस्ति, नाथ ! तावकशासने । येनैवं लपतोऽधीश नोत्तरं मम दीयते ॥२६॥
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उपमितिः कथा ] 143 [ अध्याय-३
आरूढमियती कोटी तव किङ्करतां गतम् । मामप्येतेऽनुधावन्ति किमद्यापि परीषहाः ॥२७॥ किं चामी प्रणताशेषजनवीर्यविधायक !। उपसर्गा ममाद्यापि, पृष्ठं मुञ्चन्ति नो खलाः ॥ २८ ॥ पश्यन्नपि जगत्सर्व, नाथ ! मां पुरतः स्थितम् । कषायारातिवर्गेण किं न पश्यसि पीडितम् ॥ २९ ॥ कषायाभिद्रुतं वीक्ष्य, मां हि कारूणिकस्य ते ! विमोचने समर्थस्य नोपेक्षा नाथ ! युज्यते ॥ ३० ॥ विलोकिते महाभाग ! त्वयि संसारपारगे। आसितुं क्षणमप्येकं संसारे नास्ति मे रतिः ॥ ३१ ॥ किं तु किं करवाणीह नाथ ! मामेष दारुणः । आन्तरो रिपुसङ्घातः प्रतिबध्नाति सत्वरम् ॥ ३२ ॥ विधाय मयि कारूण्यं, तदेनं विनिवारय । उद्दामलीलया नाथ ! येनाऽऽगच्छामि तेऽन्तिके ॥ ३३ ॥ तवायत्तो भवो धीर ! भवोत्तारोऽपि ते वशः । एवं व्यवस्थिते किं वा स्थीयते परमेश्वर ! ॥३४॥
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अध्याय-३ ]
144 [स्वाध्यायदोहनतहीयतां भवोत्तारो मा विलम्बो विधीयताम् । नाथ ! निर्गतिकोल्लापं न शृण्वन्ति ? भवादृशाः ॥ ३५ ॥
*श्री धर्मस्वरूप-दर्शनम् धर्मरत्नं भवपुरे, चतुर्गतिचतुष्पथे । स्वर्णहट्ट नृजन्माऽऽप्य, सद्व्यैरेव लभ्यते ॥१॥ तत्प्रायः सुलभं येन, भवन्ति विपुलाः श्रियः।। दुर्लभं तत्पुनर्भाग्य, येन धर्मे मतिर्भवेत् ॥२॥ मालास्वप्नेक्षणमिदं, सुप्तानां मोहनिद्रया। धर्मशून्यमधीतादि तत्रोत्स्वप्नायितं पुनः ॥३॥ अघाटमपि कल्याणं, सुघटादपि कूटतः । यथा प्रशस्यते तद्वद्, मुग्धोऽपि सुकृती नरः ॥ ४ ॥ असाऽवनक्षरो लेखो, निर्देवं देवमंदिरम् । निर्जलं च सरो धर्म, विना यन्मानुषो भवः ॥५॥ धनैश्वर्याऽभिमानेन, प्रमादमदमोहिताः ।
दुर्लभं प्राप्य मानुष्यं, हारयध्वं मुधैव मा * दर्शयिता श्रीहरिश्चन्द्रमहामुनिः,
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श्री पार्श्वनाथ च० ]
145
छिन्नमूलो यथा वृक्षो, गतशिर्षो यथा भटः ।
धर्महीनो धनी तद्वत्, कियत्कालं ललिष्यति धराऽन्तःस्थं तरोर्मूलमुच्छ्रयेणाऽनुमीयते । अदृष्टोऽपि तथा प्राच्यधर्मो लक्षेत संपदा मूलभूतमतो धर्म सिक्त्वा भोगफलं बुधाः । गृह्णन्ति बहुशो मूढास्तमुच्छिद्यैकदा पुनः
[ अध्याय-३
5
आस्तां सिद्धिगतं सौख्यं, मनोऽभीष्टं यदैहिकम् । जनास्तदपि धर्माख्यवृक्षस्य कुसुमोपमम्
यद्यपि ज्वरितस्याऽर्त्तिर्जन्तोर्जनयते जलम् । तथाऽप्युष्णीकृतं तस्य, मुख्यपथ्यं तदेव हि
॥ ७ ॥
॥ ८ ॥
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कुलं गतमलं कामाऽनुरूपं रूपमव्यथम् । विश्वभोग्यं च सौभाग्यं, श्रीविलासो विकस्वरः ॥ ११ ॥ अनवद्या पुनर्विद्या, कीर्त्तिः स्फूर्तिमती सती । अभिरामो गुणग्रामः, सर्वं धर्मादवाप्यते ॥ १२ ॥ (युग्मम्)
॥ १३ ॥
तथा प्राक्कर्मदोषेण, पीड्यमानस्य यद्यपि । धर्मो न रतये, कार्यो नीरसोऽपि तथाऽप्यसौ ॥ १४॥
१०
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यदाहन
अध्याय-३ ] ___145 [ स्वाध्यायदोहन
अतो धर्म न मुश्चन्ति, कथश्चन विचक्षणाः । विपद्यऽपि गता बाढम्, मुच्यते किमु संपदि ? ॥ १५ ॥
*श्रीतत्त्वत्रयी स्वरूपम् मरुस्थलपथे यद्वद्दष्प्रापः कल्पपादपः । तथा भवेऽत्र जन्तूनां मानुष्यमतिदुर्लभम् आर्यदेशश्च तत्राऽपि, सुकुलं निर्मला मतिः। विशिष्टगुरुसम्पर्को भूरिभाग्यैरऽवाप्यते आसादिते पुनस्तस्मिन्नऽक्षयं सुखमिच्छुभिः । धारणीयं हृदि ज्ञात्वा, सम्यक्सम्यक्त्वमच्युतम् ॥३॥ यथा विना प्रतिष्ठानकाष्ठं पोतो न सिध्यति । प्रासादो निष्ठुरं पीठबन्धं च न विना भवेत् ॥४॥ गाढमूलं विना प्रौढिं, नाऽऽसादयति पादपः । सम्यक्त्त्वं च विना तद्वद्धर्मो नैवाऽवतिष्ठते
॥५॥ तद्देवगुरुधर्माणां, तत्त्वनिश्चयलक्षणम् । भवे भवति भव्यानामभव्यानां कदापि न ॥६॥
* दर्शयिता श्रीनरवाहनराजर्षिः,
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श्री पार्श्वनाथ च०] 147
[ अध्याय-३विश्वं विश्वमऽपि व्याप्तं, रागद्वेषादिभिर्भशम् । निःशेषा यस्य ते क्षीणा, वीतरागः स देवता ॥७॥ शान्तचित्तवचस्काये, सर्वसत्त्वोपकारिणि । वीतरागे विसंवादः, सहृदां हृदये कुतः ? ॥८॥ दुःखगर्भ सुखं रागे, निरागत्वे निरन्तरम् । तत् पुनः प्राप्यते देववीतरागप्रसादतः यादक संसेव्यते स्वामी, लेश्या भवति तादृशी ।। वीतरागे ह्यऽतो नाथे, नीरागं जायते मनः ॥१०॥ स्वपरोत्तारणे काष्ठयानतुल्यो भवाम्बुधौ । संविग्नः स्याद् गुरुर्धारः, सदा सदुपदेशकः ॥ ११ ॥ अन्तःपरिग्रहो रागो, बहिस्त्वऽनुचितोपधिः । स द्विधाऽप्युज्झितो येन, स महात्मा गुरुर्गुरुः ॥ १२ ॥ लोकेऽपि वन्द्यते त्यक्तबहिरन्तःपरिग्रहः । अत्र निस्तुषरागाणामक्षतानां निदर्शनम् ॥ १३ ॥ अश्रीदोऽपि गुरुः सेव्यश्चित्तक्लेशोपशान्तये । अफलोऽपि तरुस्तापं, हरते मार्गयायिनाम् ॥१४॥ धर्मतत्त्वं त्विदं ज्ञेयं, भुवनत्रयसम्मतम् । यद्दया सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च ॥ १५ ॥
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अध्याय
अध्याय-३-] 148 [स्वाध्यायदोहन
मूलमन्त्रं विना सिद्धिर्मालामन्त्रेण नो यथा । भूयोभिरपि नो कृच्छैस्तथा धर्भो दयां विना ॥ १६ ॥ तद्धेयं मनसा, तच्च वाच्यं वाचा मनिषिभिः । चेष्टितव्यं तदङ्गेन, येन कोऽपि न पीड्यते ॥ १७ ॥ यथाऽऽत्मनः प्रियं वाञ्छेत् , ततः कुर्वीत तत् परे । बुभुक्षुः शालिधान्यं यः, क्षेत्रेऽपि वपते स तत् ॥ १८ ॥ अहिंसैव परो धर्मः, शेषस्तु व्रतविस्तरः। अस्यैव परिरक्षायै, पादपस्य यथा वृतिः ॥१९॥ इति तत्त्वत्रयीरूपं, शमप्रमुखलक्षणैः। लक्षितं पञ्चभिर्धर्मस्थैर्याद्यैर्भूषितं पुनः ॥२०॥ सम्यक्त्वरत्नं यत्नेन, धार्य चित्तकरण्डके । रक्ष्यं शङ्कादिचौरेभ्यः, सहगामि भवाऽन्तरे ॥ २१ ॥ इतरोऽपीह नो मन्त्रो, नृणां सिद्ध्यति शङ्कया। सम्यक्त्वाऽऽख्य महामन्त्रः, किमु शाश्वतसौख्यदः॥२२॥ चारित्रयाने भन्नेऽपि, गुणमाणिक्यपूरिते । तरत्येव भवाऽम्भोधि, सम्यक्त्वफलकग्रहात् ॥ २३ ॥ तमोग्रस्तस्य सामस्त्याद् , जीवेन्दोर्यदि जायते । सञ्चैतन्यकला काऽपि, व्यक्ता मुक्तिस्ततो ध्रुवम् ॥२४॥
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श्री पार्श्वनाथ च०] 149 [ अध्याय-३
वृद्धिमायाति सद्धर्मः, स्तोकोऽपि वटबीजवत् । परं कृपणवत् कोऽपि, न ग्रन्थफलमश्नुते ॥ २५ ॥ निसर्गरुचिमुख्याश्च, कथ्यन्ते दशधा श्रुते । तारतम्यविभागेन, सर्वे सम्यक्त्वधारिणः ॥ २६ ॥ तथाहि-द्रव्यक्षेत्रादिभावा ये, जिनैःख्यातास्तथैव यः। श्रद्धत्ते स्वयमेवैतान , स निसर्गरुचिःस्मृतः ॥ २७ ॥ यः परेणोपदिष्टांस्तु, च्छद्मस्थेन जिनेन वा । तानेव मन्यते भावानुपदेशरुचिः स वै ॥ २८ ॥ रागो द्वेषश्च मोहश्च, यस्याऽज्ञानं क्षयं गतम् । तस्याज्ञायां रुचिं कुर्वन् , इहाज्ञारुचिरिष्यते ॥ २९ ॥ अधीयानः श्रुतं तेन, सम्यक्त्वमवगाहते । अङ्गाऽनङ्गप्रविष्टेन, यः स सूत्ररुचिः स्मृतः ॥ ३० ॥ स बीजरुचिरासाद्य, पदमेकमनेकधा। योऽध्यापयति सम्यक्त्वे, तैलबिन्दुमिवोदके ॥३१॥ श्रीसर्वज्ञागमो येन, दृष्टः स्पष्टार्थतोऽखिलः । आगमज्ञैरभिगमरुचिरेषोऽभिधीयते ॥ ३२ ॥ द्रव्याणां निखिला भावाः, प्रमाणैरखिलैनयैः। उपलम्भं गता यस्य, स विस्ताररुचिर्मतः ॥ ३३ ॥
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अध्याय-३ ]
150 [स्वाध्यायदोहनज्ञानदर्शनचारित्रतपःसमितिगुप्तिषु । यः क्रियासु रतो नित्यं, स विज्ञेयः क्रियारुचिः ॥ ३४ ॥ आज्ञाप्रवचने जैने, कुदृष्टावनभिग्रहः। यः स्याद् भद्रकभावेन, तं संक्षेपरुचिं विदुः ॥ ३५ ॥ यो धर्म श्रुतचारित्राऽस्तिकायविषयं खलु । श्रद्दधाति जिनाख्यातं, स धर्मरुचिरिष्यते ॥३६ ॥ इत्येवं सर्वभेदानां, मानसं मूलकारणम् । तस्मात् तदेव कर्तव्यमेकतानं मनीषिणा ॥३७॥
*श्री युगादि जिन-स्तवः जय त्रिभुवनाधीश !, श्री युगादिजिनेश्वर ! । नम्रामरशिरोरत्नदीपनीराजितक्रम ! अज्ञानतिमिरं हत्वा, नवभानुरिव प्रभो ! । प्रकाशितजगद्विद्याव्यवहार ! नमोऽस्तु ते
॥२॥ निष्कषायतया चेतःपटे शुभ्रगुणे तव ।। रागो लगतु मा किंतु, तेनाऽरञ्जि कथं जगत् ? ॥ ३ ॥
* श्री ललिताङ्गकुमारेण सन्डब्धः,
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श्री पार्श्वनाथ च० ] 151
[ अध्याय-३सद्गन्धशीतलस्वच्छौ नत्वा पादौ तव स्तवम् । कृत्वा श्रुत्वा च नाथ ! स्यादऽक्षाणां युगपत् सुखम् ॥४॥ त्रिलोकीसुभगं वीक्ष्य, त्वां चलाया अपि प्रभो!। स्तम्भस्वेदाताभावो, जायते कस्य नो दृशः ? ॥५॥ शमाई ! सुकृताऽऽराम ! भवभ्रान्तिभवं मम । त्वत्पादपादपच्छाया, तापं निर्वापयेत् चिरात् ॥६॥ तच्चित्रं यनिरालम्ब, चिरं भ्रान्तं भवार्णवे । त्वां चालम्ब्य मनो मे ऽद्य, शमनीरे ममज यत् ॥ ७ ॥ धमकोशाद् धनं दत्ते, सेवकेभ्यः प्रभुभवान् । प्रसन्नः समतावस्तु, कस्मैचन पुनर्निजम् ॥८॥ तथा मम जगन्नाथ ! प्रसीद नतवत्सल !। यथा क्षणमपि स्वामिन् , नैवोत्तरसि चेतसः ॥९॥ सर्वोऽपि वदति श्राद्धो, यत्त्वं मे नाथ जीवितम् । नाहं तु जीवितं येन, चलं मे त्वं तु निश्चलः ॥१०॥ न कुले न बले रूपे, न च न श्रीषु ते विभोः ।। यत् किंचिद् वीतरागत्वं, तत्र लीनं मनो मम ॥ ११ ॥ नानानामानि संकल्प्य, विवदन्तां विचक्षणाः। मन्दमेधास्त्वहं नाथ ! नीरागत्वे तव स्थितः ॥ १२ ॥
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अध्याय-३ ]
152
[ स्वाध्यायदोहन
I
विकल्पकल्पना लोलकल्लोलैर्नाथ ! रक्ष मे । धूयमानं मनःपोतं, यत्तरामि भवाम्बुधिम्
॥ १३ ॥
वपुः शस्तं प्रसन्ना दृग्, जन्तुरक्षाकरं वचः । अतस्त्वयि कथं नाथ !, सतां न रमते मनः ? ॥ १४ ॥
भ्रमन्तु भावाः प्रस्तावादितरे तारका इव । सर्वज्ञ ! तव तत्त्वाद्रौ, ध्रुवीयति मनस्तु मे ॥ १५ ॥
अलं परि है रम्यैरपि क्लेशकरैः प्रभो ! । सदानन्दमयं देहि, भावदेव ! प्रियं पदम्
* श्री अष्टविधकर्म स्वरूपम् ।
इह प्रकृत्या स्वच्छोsपि, जीवः कर्ममलावृतः । लभते विविधं दुःखं, भ्राम्यन् गतिचतुष्टये तच्च कर्माऽष्टधा ज्ञानदर्शनावरणे तथा । मोहनीयं वेद्यमायुर्नामगोत्राऽन्तरायकम्
मतिश्रुतावधिमनःपर्यायं केवलात्मकम् । ज्ञानं पञ्चविधं तस्याssवरणं चापि पञ्चधा
* श्री लोकचन्द्राख्यसूरि-देशनायाम्,
॥ १६ ॥
॥ १ ॥
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
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श्री पार्श्वनाथ च०] 153
[ अध्याय-३अचक्षु-श्चक्षु-रवधि-केवलं दर्शनावृति । निद्रा पञ्चेति नवधा, दर्शनावरणं भवेत् ॥४॥ कषायाः षोडशभिदास्त्रिके मिथ्यात्व-वेदयोः। हास्यादिषट्कं मोहः स्यादऽष्टाविंशतिनिर्मितः ॥५॥ सुखे दुःखे द्विधा वेद्यमायुः कर्म चतुर्विधम् । तिर्यग्-नारक-गीर्वाण--मनुष्यगतिभेदतः ॥६॥ अप्यनेकविधं नाम, शुभाशुभविभेदतः। द्विविधं गोत्रमप्युच्चै-र्नीच्चैर्भेदाद् द्विधा भवेत् ॥ ७ ॥ दान-लाभयोर्वीर्यस्य, तथा भोगोपभोगयोः । प्रत्यूहकरणात् पञ्चविधं कर्मान्तरायकम् ॥८॥ प्रतिकूलतया द्वेषादन्तरायादपह्नवात् । ज्ञान-दर्शनयोर्जीवो, बध्नात्यावरणद्वयम् अनुकम्पा-व्रतोद्योग-गुरुभक्ति--क्षमादिभिः । सुवेद्यं बध्यते कर्म, दुःखवेद्यं तथेतरैः ॥ १० ॥ सर्वज्ञगुरुसङ्घादौ, प्रत्यनीकतया भृशम् । दर्शनमोहनीयं स्यादनन्तभवकारकम् ॥ ११ ॥ राग-द्वेष--महामोहयुतस्तीव्रकषायभृत् । देश--सर्वचरित्राख्यमोहनीयस्य बन्धकः ॥ १२॥ ...
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अध्याय-३ ]
154 [ स्वाध्यायदोहनमिथ्यादृष्टिः कुशीलश्च, महारम्भपरिग्रहः । पापः क्रूरपरिणामो, नारकायुर्निबन्धकः ॥ १३ ॥ उन्मार्गदेशको मार्गनाशको बहुमायिकः । शठवृत्तिः सशल्यश्च, तिर्यग्योन्यायुरर्जयेत् ॥ १४ ॥ प्रकृत्याऽल्पकषायो यः, शील--संयमवर्जितः । दानशीलो मनुष्यायुर्गुणैर्बध्नाति मध्यमैः ॥ १५ ॥ अकामनिर्जराबालतपोऽणुव्रतसुव्रतैः । जीवो बध्नाति देवायुः सम्यग्दृष्टिश्च यो भवेत् ॥ १६ ॥ मनोवचनकायेषु, वक्रो गौरवलम्पटः । अशुभं नाम बध्नाति, शुभं तदितरैः पुनः ॥ १७ ॥ गुणैषी निर्मदो भक्तो, ह्यईदाद्याऽऽगमप्रियः । उच्चैर्गोत्रं निबध्नाति, नीचैस्तु तद्विपर्ययात् ॥१८॥ हिंसाद्यभिरतो मोक्षजिनपूजादिविघ्नकृत् । अर्जयत्यन्तरायाख्यं, कर्माभीष्टार्थबाधकम् ॥ १९ ॥ कोटाकोट्यः सागराणां, मोहनीस्य सप्ततिः । चतुर्णा ताः पुनस्त्रिंशद् , विंशतिनाम--गोत्रयोः ॥ २० ॥ आयुषस्तु त्रयस्त्रिंशत् , सागरा एव केवलाः । उत्कृष्टा स्थितिरित्येवमष्टानामपि कर्मणाम् ॥ २१ ॥
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श्री पार्श्वनाथ च०] 155
[ अध्याय-३जघन्या सा तु वेद्यस्य, मुहूर्ता द्वादश स्मृताः । नाम्नो गोत्रस्य चाष्टान्तर्मुहूर्त शेषकर्मणाम् ॥ २२ ॥ यथाप्रवृत्तिकरणात्, कर्माण्यात्माऽखिलान्यपि । अस्यैककोटाकोट्यन्तःस्थितीनि कुरुते सदा ॥ २३ ॥ अपूर्वकरणात् तेषां, तदा प्रन्थि भिनत्त्यसौ । प्राप्यानिवृत्तिकरणं, सम्यक्त्वं लभते ततः ॥ २४ ॥ तेन प्राप्यामृतेनेव, सञ्चैतन्यं सुखीभवेत् । लब्धाऽऽस्वाद इवाधत्ते, जिनधर्मे मनः शनैः ॥ २५ ॥ ग्रहस्थ--यतिधर्म च, प्रवृद्ध्या प्राप्नुवन्नथ । धौतकर्ममलस्तेन, लभते परमं पदम्
*श्री पार्श्वनाथ जिनस्तवः एकः पुरुषसिंहस्त्वं, मोहमत्तेभनिग्रहात् । इतीव विदधे नाथ ! सिंहासनमिदं सुरैः राग-द्वेषमहाशत्रु-जयोत्थयशसी इव । चकास्तश्चामरे शुभ्रे, पक्षयोरुभयोस्तव
॥ २॥
* श्री अश्वसेननृपतिःस्तौति,
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अध्याय-३ ]
156 [ स्वाध्यायदोहनज्ञानदर्शनचारित्रराज्यं त्वय्येकतां गतम् । अतस्तेषामिवैषा ते, मूनि च्छत्रत्रयी स्थिता ॥ ३ ॥ चतुर्धा दिशतो धर्म, चतुर्मुख ! तव ध्वनिः । दिव्यश्चतुर्दिशं याति, कषायानिव धर्षितुम् ॥४॥ मन्दरादीनि पुष्पाणि, पञ्चधा देशनाभुवि । किरन्ति तव पञ्चाक्षजयतोषादिवामराः शाखाशिखरमूलै: षड्दिग्गतैः शंसतीव ते । षण्णां जीवनिकायानां, रक्षां किकिल्लिरुल्लसन् ॥६॥ दग्धसप्तभयैधस्त्वात् , सप्तार्थिः सममप्यदः । धत्ते भामण्डलं नाथ ! त्वत्सङ्गादिव शैत्यताम् ॥ ७ ॥ भूत्वा दुन्दुमिरप्युच्चै नन्नष्टासु दिवसौ । अष्टकर्मरिपुवातविजयं शंसतीव ते ॥८॥ प्रातिहार्यश्रियं मूर्तामन्तरङ्गां गुणश्रियम् । इत्थं दृष्ट्वा मनो नाथ ! कस्य न स्यात् त्वयि स्थिरम् ? ॥९॥
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श्री पार्श्वनाथ च० ]
157
*श्री षड्विधा अन्तिमाऽऽराधना ।
अहो ! महानुभाव ! त्वमधुनाऽवहितो भवः । इयं सा धीर ! वेला ते, सुभटत्वस्य सम्प्रति
खेदं मनसि मा कार्षीर्मनागपि तवैव यत् । निजकर्मपरीणामोऽपराध्यति न चाऽपरः
[ अध्याय-३
यद्येन विहितं कर्म, भवेऽन्यस्मिन्निहाऽपि वा । वेदितव्यं हि तत्तेन, निमित्तं हि परो भवेत्
"
यश्च मित्रममित्रो वा स्वजनोऽरिजनोपि वा । तं क्षमस्व तस्मै च, क्षमस्व त्वमपि स्फुटम्
॥ १ ॥
॥ ३ ॥
अतोऽधिसह तत् सम्यग्, यदि द्वेक्ष्यधुना परम् । अथाऽपि तस्य नो किञ्चित् परलोकस्तु हार्यते ॥ ४ ॥
॥ २ ॥
गृहाण धर्मपाथेयं, कायेन मनसा गिरा ।
यत् कृतं दुष्कृतं किञ्चित्, तत् सर्वं गर्ह सम्प्रति ॥ ५ ॥
तिर्यक्त्वे सति तिर्यञ्चो, नांरकत्वे च नारकाः । अमरा अमरत्वे च मानुषत्वे च मानुषाः
॥ ६ ॥
॥ ७ ॥
* महासती मदनरेखया स्वभर्तृयुगबाहोः अन्त्यकाले कारापिता निर्यामणा.
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अध्याय-३ ]
158 [स्वाध्यायदोहनये त्वया स्थापिता दुःखे, सांस्तान् क्षमयाऽधुना। क्षाम्यस्व त्वमपि तेषां, मैत्रीभावमुपागतः ॥८॥ जीवितं यौवनं लक्ष्मी, रूपं प्रियसमागमः। चलं सर्वमिदं वात्यानर्तिताऽब्धितरङ्गवत् ॥ ९ ॥ व्याधि-जन्म-जरा-मृत्यु-ग्रस्तानां प्राणिनामिह ।। विना जिनोदितं धर्म, शरणं कोऽपि नाऽपरः ॥ १० ॥ सर्वेऽपि जीवाः स्वजना, जाताः परजनाश्च ते । विदधीत प्रतिबन्धं, तेषु को हि मनागपि ? ॥ ११ ॥ एक उत्पद्यते जन्तुरेक एव विपद्यते । सुखान्यनुभवत्येको दुःखान्यपि स एव हि ॥ १२ ॥ अन्यद् वपुरिदं यावदन्यद् धान्य-धनादिकम् ।। बन्धवोऽन्ये च जीवोऽन्यो, वृथा मुह्यति बालिशः ॥१३॥ वसा-रुधिर-मांसा-ऽस्थि-यकृद्-विण-मूत्रपूरिते । वपुष्यशुचिनिलये, मूच्छी कुर्वीत कः सुधी? ॥ १४ ॥ अवक्रयाऽऽत्तवेश्मेव, मोक्तव्यमचिरादपि । लालितं पालितं वाऽपि, विनश्वरमिदं वपुः ॥१५॥ धीरेण कातरेणाऽपि, मर्तव्यं खलु देहिना । तन्नियेत तथा धीमान्न म्रियेत यथा पुनः ॥ १६ ॥
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श्री पार्श्वनाथ च० ] 159
[ अध्याय-३
अर्हतः शरणं सिद्धान्, शरणं शरणं मुनीन् । उदीरितं केवलिभिर्धर्मं शरणमाश्रय
॥ १९ ॥
जिनधर्मो मम माता, गुरुस्ततोऽथ सोदराः । साधवः साधर्मिकाश्च, बन्धवस्त्विति चिन्तय ॥ १८ ॥ जीवघाता-नृता - दत्त-मैथुना-रम्भवर्जनम् । त्रिविधं त्रिविधेनाऽपि, प्रतिपद्यस्वभावतः अष्टादशानां त्वं पापस्थानकानां प्रतिक्रमम् | कुरुष्वाऽनुसर स्वान्ते, परमेष्ठिनमस्त्रियाम् ऋषभादींस्तीर्थकरान्नमस्य निखिलानपि । भरतैरावतविदेहाऽर्हतोऽपि नमस्कुरु
आचार्येभ्यः पञ्चविधाचारेभ्यश्च नमस्कुरु | यैर्धार्यते प्रवचनं भवच्छेदसदोद्यतैः
॥ १७ ॥
॥ २० ॥
॥ २१ ॥
तीर्थधो नमस्कारो, देहभाजां भवच्छिदे । भवति क्रियमाणः सन् बोधिलाभाय चोच्चकैः ॥ २२ ॥ सिद्धेभ्यश्च नमस्कारों, भगवद्भयो विधीयताम् । कर्मैोऽदाहि यैर्ध्यानाग्निना भवसहस्रजम्
॥ २३ ॥
॥ २४ ॥
श्रुतं बिभ्रति ये सर्वं, शिष्येभ्यो व्याहरन्ति च । तेभ्यो नम महात्मभ्य, उपाध्यायेभ्य उच्चकैः ॥ २५ ॥
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अध्याय-३ ]
160 [स्वाध्यायदोहन शीलव्रतसनाथेभ्यः, साधुभ्यश्च नमस्कुरु । क्षमामण्डलगाः सिद्धिविद्यां संसाधयन्ति ये ॥ २६ ॥ इत्थं पञ्चनमस्कारसमं यजीवितं व्रजेत् । न याति यद्यसौ मोक्षं, ध्रुवं वैमानिको भवेत् ॥ २७ ॥ सावधं योगमुपधिं, बाह्यं चाऽभ्यन्तरं तथा । यावज्जीवं त्रिविधेन, त्रिविधं व्युत्सृजाऽधुना ॥ २८ ॥ चतुर्विधाहारमपि, यावजीवं परित्यज । उच्छ्वासे चरमे देहमपि, व्युत्सृज सत्तम ! ॥ २९ ॥ धन--स्वजन-गेहादौ, ममत्वं मुश्च कोविद !। सर्व विघटते प्रान्ते, धर्म एकस्तु निश्चलः ॥ ३० ॥ दुष्कर्मगर्हणां जन्तुक्षामणां भावनामथ । चतुः शरणं च नमस्कारश्वाऽनशनं तथा ॥३१॥ इत्थमाराधनां षोढा, विधाप्य दयितं निजम् । पुनर्मदनरेखैवं, धीरयामास धीरधीः ॥ ३२ ॥ विभाव्यैतद् महाभाग ! विचिन्त्य नरकव्यथाम् । सर्वत्राऽप्रतिबद्धः सन्नेतदुःखं सह क्षणम् ॥ ३३ ॥ नरत्वं जिनधर्मादिसामग्री दुर्लभा पुनः। समचित्तैः क्षणं भूत्वा, तदस्या गृह्यतां फलम् ॥ ३४ ॥
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श्री पार्श्वनाथ च०] 161
[ अध्याय-३__ *श्रीपार्श्वनाथ जिन स्तवः जय त्रिभुवनोत्तंस ! पार्श्वनाथजिनेश्वर ! सुराऽसुरनत ! स्वामिन्नमेयमहिमानिधे ! ॥१॥ तव निध्यानसद्व्यानसिद्धयोगजुषां जिन !। व्याधिराधिरिवाऽसत्तिमियति न कदाचन ॥२॥ तव शान्तवपुःकान्तिनीरपूरप्लुतात्मनाम् । दुष्टोऽपि दहनोऽनिष्टं. द्वषो वा कर्तुमक्षमः ॥३॥ आस्तामन्यजलोल्लङ्घवार्ता धीरधियः प्रभो ! । त्वामवाप्य सदाधारं, तरन्ति भवसागरम् ॥४॥ ध्यातत्वन्नाममन्त्राणां, कथमाशीविषा भिये १। नेष्टे दृष्टिविषोऽप्येषां, नाथ ! मिथ्यात्वपन्नगः ॥५॥ यान्त्यभीष्टं सधन्वासित्वत्पादशरणाः पदम् । चौरैरक्षरिवाऽध्वस्ताः, क्रान्त्वा भवमिवाऽटवीम् ॥ ६ ॥ प्रभोः फणिमणिज्योतिः,प्लुष्टाऽन्तर्वैरिभूरुहाम् । तत्पल्लवनिभाः पुंसां, अन्ये सन्त्येव नाऽरयः ॥७॥ * श्री बन्धुदत्तसन्दृब्धः, ११
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अध्याय-३ ]
162 [ स्वाध्यायदोहनसनाथानां त्वया नाथ !, श्वापदा विपदे कुतः । तेषां कर्माष्टपाद्मोहशरभः करभायते ॥८॥ अत्राऽमुत्राऽपि नो तेषां, दोषदौर्गत्यजा विपत् ।। भवन्तं ये सदानन्दश्रेयोनिधिमधिश्रिताः ॥९॥ रोगा-ऽनल-जल-व्याल-चौरा-ऽरि-श्वापदा-ऽऽपदः । बहिरन्तरपि स्वामिन्न भिये त्वयि वीक्षिते ॥१०॥ तव स्तवनवज्राङ्गीकृतरक्षाः सदा प्रभो ! । यान्ति दुर्गमपि श्रेयो, भावदेवमुनिस्तुत ! ॥ ११ ॥
*श्री धर्माराधन-शिक्षा सर्वत्रौचित्यवर्तित्वमुपेक्षा परदूषणे । परेणात्ते गुणे दोषे, क्षमायां धर्मसंग्रहः
संग्रहः ॥१॥ औचित्याच्चक्षुषि न्यस्तं, श्रिये कजलमप्यहो !। अनौचित्येन पादस्थं न कुण्डलमपीष्यते ॥२॥ विमृश्या ऽऽय-व्ययं धर्मकार्य कुर्यात् तथा बुधः । निश्चय-व्यवहाराभ्यां, यथा बहुगुणं भवेत् ॥ ३ ॥
* कीर्तिधरगुरुणा विजयराजर्षिमुद्दिश्य दत्ता,
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श्री पार्श्वनाथ च० ]
163
केवलं व्यवहारोऽन्तं नैति नद्योघगामिवत् । सदोत्सर्गेऽप्यगच्छेदाद्, ऋजुगामीव नो मतः यथैवाऽछिन्दता वृक्षं, गृह्यते तस्य तत् फलम् | व्यवहारमनुल्लङ्घन्ध, ध्यातव्यो निश्चयस्तथा निश्चयस्तत्त्वसारोऽपि व्यवहारेण निर्वहेत् । सकलस्याऽपि देवस्य, रक्षा प्राहरिकैर्भवेत् निम्नोन्नतादि वैषम्यं, विदित्वा सर्ववस्तुषु । मध्याङ्कव्यवहारेण, सूत्रधारः प्रवर्तते
"
[ अध्याय-३
118 11
11 9 11
॥ ६ ॥
116 11
आत्मोत्कर्ष - परद्वेष-परे प्रायः कलौ जने । प्राप्य तत्त्वामृतं धीरः कलिं कृत्वा न हारयेत् ॥ ८ ॥ जिनेन निगृहीता ये, रागद्वेषादयो हठात् ।
"
तान् ये पुष्णन्त्यसौ, तेषां कथं नाथः प्रसीदति ? ॥ ९ ॥
अज्ञानाद् दृष्टिबन्धेन, पदबन्धेन गेहिनः । -रुध्यन्ते ते पुनः शोच्या, ये रुद्धा बन्धनं विना ॥ १० ॥ दूरेऽस्तु परदोषस्याssदानं स्वपरतापकम् । धत्तस्पर्शमात्रेऽपि हृद् वाग् मालिन्यमुल्बणम् ॥ ११ ॥ सन्तो गुणप्रियास्तेन, परेणात्ते गुणे भृशम् ।
हृष्टाः, नीचास्तु दूयन्ते येन ते दोषवत्सलाः ॥ १२ ॥
3
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[ स्वाध्यायदोहन
कृतप्रतिकृता वृद्धिः स्यात् सम्बन्धविरोधयोः । परोकं तेन नो धत्ते, योगी लाभनकोपमम् ॥ १३ ॥
अध्याय - ३ ]
164
महतां दूषणोद्धारादुपकारी खलः खलु । मुधा निदायकं सस्यक्षेत्रे, को नाऽभिनन्दति ? ॥ १४ ॥ अर्थमिच्छन्ति सन्तोऽपि किन्त्वनौपाधिकत्वतः । स्वगुणख्यापनान्मध्याः, नीचास्तु परदूषणात् ॥ १५ ॥ आस्तां स्वात्ताऽऽतपत्राभं, स्वगुणोच्चारणं स्वयम् । अन्येनाऽपि गुणे ह्यात्ते, साधुर्नम्रो ह्रिया भवेत् ॥ १६ ॥ दूषयित्वाऽन्यवस्तूनि, गुणारोपं स्ववस्तूनः । वणिग्धर्मेऽपि शौचात्मा, न कुर्यात् किं पुनर्यतिः १ ॥ १७ ॥ उद्धर्तुं नैव शक्यन्ते, सर्वतो भुवि कण्टकाः ।
स्वयं तु शक्यते मोक्तुं पादो निष्कण्टकक्षितौ ॥ १८ ॥
"
रक्ता देह - यशो - धर्मे, पत्र पुष्प - फलप्रभे ।
तदा त्वचिरनित्यस्थे, स्वल्पधी - मध्यमो - त्तमाः ॥ १९॥
चक्षुः - श्रवणवैकल्यात् पापानां मोहनिद्रया |
दिवाऽपि रजनी साऽपि धर्मिणां दिवसायते ॥ २० ॥
"
कलिकालकुवातेऽत्र, वाति यस्य विनश्यति ।
न सस्यं, शस्यते लोके, स एव पृथुभाग्यभूः ॥ २१ ॥
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श्री पार्श्वनाथ च० ] 165
[ अध्याय-३रजःक्रीडापरे लोके, धूलिपर्वसमे कलौ।। तद्वाक्यतिलकं मत्त्वा, रक्षत्यात्मानमात्मवित् ॥ २२ ॥ सुषमत्वात् सुखोत्तारास्तता अपि कृतादयः । दुस्तरो विषमावतः, स्वल्पोऽपि हि कलिः पुनः ॥ २३ ॥ पुरुषार्थद्विषं ज्ञात्वा, प्रकृति स्वार्थतत्पराम् । धूर्तमैच्या ततः स्वार्थ, यः करोति स चेतनः ॥२४॥ अजीर्ण तपसः क्रोधो, ज्ञानाजीर्णमहंकृतिः ।। परतप्तिः क्रियाजीणं, जित्वा त्रीन् निर्वृतो भव ॥ २५ ॥ सद्यः प्रीतिकरं लोके, वचो वाच्यं हितं मतम् । मूर्खः स्वमुखलालाभिरेव लूतेव बध्यते ॥ २६ ॥ सामकः कायिको दोषः, प्रायोऽत्यर्थस्तु वाचिकः । यतः पश्चादवस्थायि, व्यापकं च वचो जने ॥ २७ ॥ परार्थं व्यापयन् जीवो, रवं कान्दविकायते । नतु स्थूलोपयोगोऽपि, यस्य कः स्यात् ततोऽधम: ?॥२८॥ तुच्छा देहस्य सौन्दर्याद्, रज्यन्ते मध्यमा गिराम् । चित्तस्य तूत्तमा जीवे, सुदुर्लभं पुनस्त्रयम् ॥ २९ ॥ वीक्ष्य बाह्यान्नसंहर्षात् , खेदितव्यं जनार्जने । रज्येत् त्वन्तर्मुखीभूय, लक्ष्यं भित्त्वात्मपार्थिवः ॥ ३० ॥
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अध्याय-३ ]
166 [ स्वाध्यायदोहनशमसर्वस्वमादाय, जितो मोहमहारिणा ।। धत्ते यस्तजयेऽमर्ष, स योग्यो मुक्तिसम्पदः ॥ ३१ ॥ यदि शत्रुजये वाञ्छा, तदात्मानं विनिर्जय । अयमात्मा जितो येन, तेन सर्वे द्विषो जिताः ॥ ३२ ॥ बहिर्मुक्तोऽप्यमुक्तोऽन्तर्बद्धपक्षीव वल्गितः । निस्तुषोऽपि तिलस्तापकरोऽन्तःस्नेहधारणात् ॥ ३३ ॥ एकत्र वसतां यस्य वाक्-काय-मनसां भवेत् । परस्परं पृथग्भावः. कुतः तस्यात्मनः शिवम् ? ॥ ३४ ॥ एकान्ते मुखरोधेन, निर्लम्पटमतेः सतः।। क्षणाद् मोहज्वरे क्षीणे, भोगो भूरितरो भवेत् ।। ३५ ॥ यदाऽरिष्टकुलादन्यं, स्वं विदित्वा तदुज्झति । तदा व्यक्तगुणो जीवः, श्लाध्यः स्यात् परपृष्टवत् ।। ३६ ॥ मध्येछाद्यगृहं बद्धभूमिकस्याऽतिभीर्यथा । प्रदीपेन तथा लोक-मध्ये साधोरपि स्फुटम् ॥ ३७ ॥ सदोष: पादधानीव प्रमादीवाऽङ्गरक्षकः । धर्मेऽशस्यमुनिर्बाद न ग्राह्यस्तेन तं त्यजेत् ॥ ३८ ॥ यतित्वं यः समादाय, विरुद्धं चेष्टते कुधीः। आमपात्रमिव न्यायध्वस्तं कस्तं न निन्दति ? ॥ ३९ ॥
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जात ।
श्री हृदयप्रदीपषट्त्रिंशिका] 167
[ अध्याय-३पण्डितेन मनो लक्ष्ये, शिक्षणीयं मुहुर्मुहुः । शैक्षवद् वञ्चयित्वैनं, भवक्रीडारसं व्रजेत् ॥४०॥ घटी निरवधानस्य, गणकस्येव मञ्जति । युङ्ग्यात् तेन मनो लक्ष्ये, धन्वीवाऽभ्यासतः शरम् ॥४१॥ धीरः सचेतनो मौनी, यो मार्गे यात्यसङ्गतः । बलिष्ठैरपि मोहाद्यैः, स शिवं यात्यगञ्जितः ॥ ४२ ॥ अज्ञानाजायते दुःखं, सज्ञानाच्च सुखं पुनः। अभ्यस्यं तत् तथा तेन, स्वात्मा ज्ञानमयो भवेत् ॥ ४३ ॥ अल्पज्ञानेन नो शान्ति, याति दृप्तात्मनां मनः । स्तोकवृष्ट्या यतम्तप्तभूमिरूष्मायतेतराम् ॥४४॥ बह्वासङ्गेन जीवस्याऽत्यासन्ना अपि पापिनः ।। ज्ञातास्तेन स्वयं यान्ति, दोषा हीता इव ध्रुवम् ॥ ४५ ॥ विज्ञातभवतत्त्वस्य, दुःखं शोकेऽपि नो भवेत् । तानं स्वर्णं विदित्वा यो, गृहीते तस्य कः क्लमः ? ॥४६॥ पङ्गुरूपं नृणां भाग्य, व्यवसायोऽन्धसन्निभः । यथा सिद्धिस्तयोर्योगे, तथा ज्ञान-चरित्रयोः ॥४७॥ मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थाख्या महागुणाः । युक्तस्तैर्लभते मुक्ति, जीवोऽनन्तचतुष्टयम् । ॥४८॥
सानमः ।
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अध्याय-३ ]
168
[ स्वाध्यायदोहन
मैत्री परहिते चिन्ता, परार्तिच्छेदधीः कृपा ।
मुदिता सद्गुणे तुष्टिर्माध्यस्थं पाप्युपेक्षणम् ॥ ४९ ॥
क्षिप्तोऽपि लघुकर्माधः स्यादुच्चैस्तुम्बवज्जले ।
9
अश्मवद् गुरुकर्मा तु, नीतोऽप्यूर्ध्वमधो व्रजेत् ॥ ५० ॥
निर्माय स्वभवं चैत्यं, आदिमध्यान्त सुन्दरम् । निर्वाहकलशं कोऽप्यारोप्य, कीर्तिध्वजां नयेत् ॥ ५१ ॥
श्री हृदयप्रदीप त्रिंशिका
शब्दादिपञ्चदिषयेषु विचेतनेषु, योऽन्तर्गत हृदि विवेककलां व्यनक्ति । यस्माद् भवान्तरगतान्यपि चेष्टितानि, प्रादुर्भवन्त्यनुभवं तमिमं भजेथाः॥ १ ॥
जानन्ति केचिन्नतु कर्तुमीशाः, कर्तुं क्षमा ये न च ते विदन्ति । जानन्ति तत्त्वं प्रभवन्ति कर्त्तु, ते केऽपि लोके विरला भवन्ति । २
सम्यग् विरक्तिर्ननु यस्य चित्ते, सम्यग् गुरुर्यस्य च तस्त्ववेत्ता । सदानुभूत्या दृढनिश्चयो यः, तस्यैव सिद्धिर्न हि चापरस्य ॥ ३॥
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श्री हृदयप्रदीपषत्रिंशिका] 169
[ अध्याय-३विग्रहं कृमिनिकायसङ्कलं, दुःखदं हृदि विवेचयन्ति ये। गुप्तिबन्धमिव चेतनं हि ते, मोचयन्ति तनुयन्त्रयन्त्रितम् ॥ ४ ॥ भोगार्थमेतद् भविनां शरीरम् , ज्ञानार्थमेतत् किल योगिनां वै । जाता विषं चेद्विषया हि सम्यग , ज्ञानात्ततः किं कुणपस्य पुष्ट्या ? त्वङ्मांसमेदोऽस्थिपुरीपमूत्रपूर्णेऽनुरागः कुणपे कथं ते ? । दृष्टा च वक्ता च विवेकरूपस्त्वमेव साक्षात् किमु मुह्यसीत्थम् ॥६॥ धनं न केषां निधनं गतं वै, दरिद्रिणः के धनिनो न दृष्टाः । दुखैकहेतुनि धनेऽतितृष्णां, त्यक्त्वा सुखी स्यादिति मे विचारः ॥७॥ संसारदुःखान्न परोऽस्ति रोगः, सम्यग्विचारात् परमौषधं न । तद्रोगदुःखस्य विनाशनाय, सच्छास्त्रतोयं क्रियते विचारः ॥८॥ अनित्यताया यदि चेत् प्रतीतिस्तत्त्वस्य निष्ठा च गुरुप्रसादात् । सुखी हि सर्वत्र जने वने च, नो चेद्वने चाथ जनेषु दुःखी ॥९॥ मोहान्धकारे भ्रमतीह तावत् , संसारदुःखैश्च कदर्यमानः ! यावद्विवेकार्कमहोदयेन,यथास्थितं पश्यति नात्मरूपम् ॥ १० ॥ अर्थो ह्यनर्थो बहुधा मतोऽयम् , स्त्रीणां चरित्राणि शबोपमानि । विषेण तुल्या विषयाश्च तेषां, येषां हृदि स्वात्मलयानुभूतिः ॥११॥ कार्य च किं ते परदोषदृष्ट्या, कार्य च किं ते परचिन्तया च । वृथा कथं खिद्यसि बालबुद्धे !, कुरू स्वकार्य त्यज सर्वमन्यत् ॥१२॥
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अध्याय-३-]
170
[ स्वाध्यायदोहन
यस्मिन् कृते कर्मणि सौख्यलेशो, दुःखानुबंधस्य तथास्ति नान्तः । मनोऽभितापो मरणं हि यावत् , मूर्योऽपि कुर्यात् खलु तन्न कर्म।१३। यदर्जितं वै वयसाऽखिलेन, ध्यानं तपो ज्ञानमुखं च सत्यम् । क्षणेन सर्वं प्रदहत्यहो तत् , कामो बली प्राप्य बलं(छलं?)यतीनाम् १४ बलादसौ मोहरिपुर्जनानां, ज्ञानं विवेकं च निराकरोति । मोहाभिभूतं हि जगद्विनष्टं, तत्त्वावबोधादपयाति मोहः ॥ १५ ॥ सर्वत्र सर्वस्य सदा प्रवृत्तिर्दुःखस्य नाशाय सुखस्य हेतोः । तथापि दुखं न विनाशमेति, सुखं न कस्यापि भजेत् स्थिरत्वम्॥१६॥ यत् कृत्रिमं वैषयिकादि सौख्यम् , भ्रमन् भवे को न लभेत मर्त्यः । सर्वेषु तच्चाधममध्यमेषु, यदृश्यते तत्र किमद्भुतं च ॥ १७ ॥ क्षुधातृषाकामविकाररोषहेतुश्च तद् भेषजवद्वदन्ति । तदस्वतन्त्रं क्षणिक प्रयासकृत् , यतीश्वरा दूरतरं त्यजन्ति ।। १८ ॥ गृहीतलिङ्गस्य च चेद्धनाशा, गृहीतलिङ्गो विषयाभिलाषी । गृहीतलिङ्गो रसलोलुपश्चेद्, विडम्बनं नास्ति ततोऽधिकं हि ॥१९॥ ये लुब्धचित्ता विषयार्थभोगे, बहिर्विरागा हृदि बद्धरागाः । ते दाम्भिका वेषधराश्च धूर्ताः, मनांसि लोकस्य तु रञ्जयन्ति ॥२०॥ मुग्धश्च लोकोऽपि हि यत्र मार्गे, निवेशितस्तत्र रतिं करोति । धूर्तस्य वाक्यैः परिमोहिताना, केषां न चित्तं भ्रमतीहलोके ॥२१॥
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श्री हृदयप्रदीपषट्त्रिंशिका] 171
[ अध्याय-३ये निःस्पृहास्त्यक्तसमस्तरागास्तत्त्वैकनिष्ठा गलिताभिमानाः । सन्तोषपोषैकविलीनवाञ्छास्ते, रञ्जयन्ति स्वमनो न लोकम् ।।२२।। तावद्विवादी जनरञ्जकश्च, यावन्न चैवात्मरसे सुखज्ञः । चिन्तामणिं प्राप्य वरं हि लोके, जने जने कः कथयन् प्रयाति ? ॥२३॥ षण्णां विरोधोऽपि च दर्शनानाम् , तथैव तेषां शतशश्च भेदाः । नानापथे सर्वजनः प्रवृत्तः, को लोकमाराधयितुं समर्थः ।। २४ ॥ तदेव राज्यं हि धनं तदेव, तपस्तदेवेह कला च सैव ।। स्वस्थे भवेच्छीलताऽऽशये चेन्नो चेद्वृथा सर्वमिदं हि मन्ये ॥२५॥ रुष्टैर्जनैः किं यदि चित्तशान्तिस्तुष्टैर्जनैः कि यदि चित्तप्तापः । प्रीणाति नो नैव दुनोति चान्यान् , स्वस्थः सदोदासपरो हि योगी२६
एकःपापात् पतति नरके, याति पुण्यात् स्वरेकः, पुण्यापुण्यप्रचयविगमात् , मोक्षमेकः प्रयाति । संगान्ननं न भवति सुखं, न द्वितीयेन कार्यम् ,
तस्मादेको विचरति सदानन्दसौख्येन पूर्णः ।। २७ ।। त्रैलोक्यमेतद् बहुभिर्जितं यैर्मनोजये तेऽपि यतो न शक्ताः । मनोजयस्यात्र पुरो हि तस्मात्, तृणं त्रिलोकी विजयं वदन्ति॥२८॥ मनोलयान्नास्ति परो हि योगो, ज्ञानं तु तत्त्वार्थविचारणाच्च । समाधिसौख्यान परं च सौख्यम् , संसारसारं त्रयमेतदेव ॥२९॥
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अध्याय-३ ]
172 [ स्वाध्यायदोहनया सिद्धयोऽष्टावपि दुर्लभा ये, रसायनं चाञ्जनधातुवादाः । ध्यानानि मन्त्राश्च समाधियोगाश्चित्तेऽप्रसन्ने विषवद् भवन्ति॥३०॥ विन्दन्ति तत्त्वं न यथास्थितं वै, सङ्कल्पचिन्ताविषयाकुला ये । संसारदुःखैश्च कदर्थितानाम् , स्वप्नेऽपि तेषां न समाधिसौख्यम् ॥३१ श्लोको वरं परमतत्त्वपथप्रकाशी, न ग्रन्थकोटिपठनं जनरञ्जनाय । सञ्जीवनीति वरमौषधमेकमेव, व्यर्थः श्रमप्रजननो नतु मूलभारः।।३२ तावत् सुखेच्छा विषयादिभोगे, यावन्मनः स्वास्थ्यसुखं न वेत्ति । लब्धे मनः स्वास्थ्यसुखैकलेशे, त्रैलोक्यराज्येऽपि न तस्य वाञ्छा॥३३ न देवराजस्य न चक्रवर्तिनस्तद्वै सुखं रागयुतस्य मन्ये । यद्वीतरागस्य मुनेः सदात्मनिष्ठस्य चित्ते स्थिरतां प्रयाति ॥ ३४ ।। यथा यथा कार्यशताकुलं वै, कुत्रापि नो विश्रमतीह चित्तम् । तथा तथा तत्त्वमिदं दुरापं, हृदि स्थितं सारविचारहीनैः ॥ ३५ ॥
शमसुखरसलेशात् द्वेष्यतां संप्रयाता, विविधविषयभोगात्यन्तवाञ्छाविशेषाः । परमसुखमिदं यद् भुज्यतेऽन्तःसमाधौ, मनसि यदि तदा ते शिष्यते किं वदान्यत् ॥ ३६ ॥
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गूर्जरसम्राट श्रीकुमारपालविरचितं
साधारण जिनस्तवनम् ।
नम्राखिलाखण्डलमौलिरत्नरश्मिच्छटापल्लवितांहिपीठ !। विध्वस्तविश्वव्यसनप्रबन्ध ! त्रिलोकबन्धो! जयताजिनेन्द्र ! ॥१॥
मूढोऽस्म्यहं विज्ञपयामि यत्त्वामपेतरागं भगवन् ! कृतार्थम् । नहि प्रभुणामुचितस्वरूपनिरूपणाय क्षमतेऽर्थिवर्गः ॥२॥
मुक्तिं गतोऽपीश ! विशुद्धचित्ते गुणाधिरोपेण ममासि साक्षात् । भानुदेवीयानपि दर्पणेऽशुसङ्गान्न किं द्योतयते गृहान्तः ? ॥ ३ ॥
तवस्तवेन क्षयमङ्गभाजां भजन्ति जन्मार्जितपातकानि । कियच्चिरं चण्डरुचेमरीचिस्तोमे तमांसि स्थितिमुद्वहन्ति ॥ ४ ॥
शरण्य ! कारुण्यपरः परेषां, निहंसि मोहज्वरमाश्रितानाम् । मम त्वदाज्ञां वहतोऽपि मूनों, शान्ति न यात्येष कुतोऽपि हेतोः॥५॥
भवाटवीलचन्नसार्थवाह, त्वामाश्रितो मुक्तिमहं यियासुः । कषायचौरैर्जिन ! लुप्यमानं रत्नत्रयं मे तदुपेक्षसे किम् ? ॥६॥
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अध्याय-३ ]
174 [स्वाध्यायदोहनलब्धोऽसि स त्वं मयका महात्मा, भवाम्बुधौ बंभ्रमता कथंचित् । आः पापपिण्डेन नतो न भक्त्या, न पूजितो नाथ ! नतु स्तुतोऽसि॥७॥ संसारचक्रे भ्रमयन कुबोधदण्डेन मां कर्ममहाकुलालः । करोति दुःखप्रचयस्थभाण्डम् , ततः प्रभो ! रक्ष जगच्छरण्य ! ॥८॥ कदा त्वदाज्ञाकरणाप्ततत्त्वस्त्यक्त्वा ममत्वादि भवैककन्दम् । आत्मैक सारो निरपेक्षवृत्तिर्मोक्षेऽप्यनिच्छों भवितास्मि नाथ ! ॥९॥ तव त्रियामापतिकान्तिकान्तैर्गुणैर्नियम्यात्ममनःप्लवङ्गम् । कदा त्वदाज्ञाऽमृतपानलोलः, स्वामिन् ! परब्रह्मरतिं करिष्ये ॥१०॥ एतावती भूमिमहं त्वदंहिपद्मप्रसादाद्गतवानधीश । हठेन पापास्तदपि स्मराद्या, ही मामकार्येषु नियोजयन्ति ।। ११॥ भद्रं न किं त्वय्यपि नाथ ! नाथे, सम्भाव्यते मे यदपि स्मराद्याः । अपाक्रियन्ते शुभभावनाभिः,पष्ठिं न मुञ्चन्ति तथापि पापाः॥१२॥ भवाम्बुराशौ भ्रमतः कदापि, मन्ये न मे लोवनगोचरोऽभूः । निस्सीमसीमन्तकनारकादिदुःखातिथित्वं कथमन्यथेश ! ॥ १३ ॥ चक्रासिचापाङ्कुशवज्रमुख्यैः, सल्लक्षणैर्लक्षितमंहियुग्मम् । नाथ ! त्वदीयं शरणं गतोऽस्मि, दुरिमोहादिविपक्षभीतः ॥१४॥ अगण्यकारुण्य ! शरण्य ! पुण्य ! सर्वज्ञ ! निष्कन्टक ! विश्वनाथ !। दीनं हताशं शरणागतं च, मां रक्ष रक्ष स्मरभिल्लभल्लेः ॥ १५ ॥
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साधारण जिनस्तवनम् ] 175
[ अध्याय-३
त्वया विना दुष्कृतचक्रवालं, नान्यः क्षयं नेतुमलं ममेश ! | किं वा विपक्षप्रतिचक्रमूलम्, चक्रं विना च्छेत्तुमलम्भविष्णुः ॥ १६ ॥ यद्देवदेवोऽसि महेश्वरोसि, बुद्धोऽसि विश्वत्रयनायकोऽसि । तेनान्तरङ्गारिगणाभिभूतस्तवाग्रतो रोदिमि हा सखेदम् ॥ १७ ॥ स्वामिन्नधर्मव्यसनानि हित्वा मनः समाधौ निदधामि यावत् । तावत्कुधेवान्तरवैरिणो मामनल्पमोहान्ध्यवशं नयन्ति ॥ १८ ॥ त्वदागमाद्वेद्मि सदैव देव !, मोहादयो यन्मम वैरिणोऽमी । तथापि मूढस्य पराप्तबुद्धया, तत्सन्निधौ ही न किमप्यकृत्यम् ॥१९॥ म्लेच्छैर्नृशंसैरतिराक्षसैश्च, विडम्बितोऽमीभिरनेकशोऽहम् । प्राप्तस्त्विदानीं भुवनैकवीर !, त्रायस्त्र मां यत्तव पादलीनम् ॥ २० ॥ हित्वा स्वदेहेऽपि ममत्वबुद्धि, श्रद्धापवित्रीकृतसद्विवेकः । मुक्तान्यसङ्गः समशत्रुमित्रः स्वामिन्! कदा संयममातनिष्ये ॥ २१ ॥ त्वमेव देवो मम वीतराग, धर्मो भवद्दर्शितधर्म एव । इति स्वरूपं परिभाव्य तस्मान्नोपेक्षणीयो भवता स्वभृत्यः ॥ २२ ॥ जिता जिताशेषसुरासुराद्याः, कामादयः कामममी त्वयेश ! | त्वां प्रत्यशक्तास्तव सेवकं तु, निघ्नन्ति हि मां परुषं रुषैव ॥ २३ ॥ सामर्थ्यमेतद् भवतोऽस्ति सिद्धि, सन्वानशेषानपि नेतुमीश ! | क्रियाविहीनं भवदंहिलीनम्, दीनं न किं रक्षसि मां शरण्य ? ॥ २४ ॥
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अध्याय-३] 176 [स्वाध्यायदोहनत्वत्पादपद्मद्वितयं जिनेन्द्र !, स्फुरत्यजस्रं हृदि यस्य पुंसः । विश्वत्रयीश्रीरपि नूनमेति तत्राश्रयार्थ सहचारिणीव ॥२५ ॥ अहं प्रभो ! निर्गुणचक्रवर्ती, क्रूरो दुरात्मा हतकः सपाप्मा । ही दुःखराशौ भववारिराशौ, यस्मानिमग्नोऽस्मि भवद्विमुक्तः॥२६॥ स्वामिन्निमग्नोऽस्मि सुधासमुद्रे, यन्नेत्रपात्रातिथिरद्य मेऽभूः। चिन्तामणौ स्फूर्जति पाणिपने, पुंसामसाध्यो न हि कश्चिदर्थः ॥२७॥ त्वमेव संसारमहाम्बुराशौ, निमजतो मे जिन ! यानपात्रम् । त्वमेव मे श्रेष्ठसुखैकधाम, विमुक्तिरामाघटनाभिरामः ॥२८॥ चिन्तामणिस्तस्य जिनेश ! पाणौ, कल्पद्रुमस्तस्य गृहाङ्गणस्थः । नमस्कृतो येन सदापि भक्त्या, स्तोत्रैः स्तुतो दामभिरर्चितोऽसि २९ निमील्य नेत्रे मनसः स्थिरत्वं, विधाय यावजिन ! चिन्तयामि । त्वमेव तावन्न परोऽस्ति देवो, निःशेषकर्मक्षयहेतुरत्र ॥ ३० ॥
भक्त्या स्तुता अपि परे परया परेभ्यो, मुक्ति जिनेन्द्र ! ददते न कथञ्चनापि । सिक्ताः सुधारसघटैरपि निम्बवृक्षा, विश्राणयन्ति नहि चूतफलं कदाचित् ॥३१ ।।
भवजलनदिमध्यान्नाथ ! निस्तार्य कार्यः, शिवनगरकुटुम्बी निर्गुणोऽपि त्वयाऽहम् ।
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साधारणजिनस्तवनम् ]
177
[ अध्याय-३
नहि गुणमगुणं वा संश्रितानां महान्तो, निरुपमकरुणाः सर्वथा चिन्तयन्ति ॥३२॥ प्राप्तस्त्वं बहुभिः शुभैत्रिजगतश्चडामणिदेवता, निर्वाणप्रतिभूरसावपि गुरुः श्रीहेमचंद्रप्रभुः।। तन्नातः परमस्ति वस्तु किमपि स्वामिन् ? यदभ्यर्थये, किन्तु त्वद्वचनादरः प्रतिभवम् स्ताद्वर्द्धमानो मम ॥ ३३॥
श्री लोडणपार्श्वनाथ-जिनस्तवः
प्रभुलोडणपार्श्वजिनं सुकरं, भवपापतमोभरदूरकरम् । सततं जनसंततिशांतिकरं, जनतार्चितसुंदरपादधरम् ॥१॥ भविकाम्बुजवारविबोधकरं, नमतां नरनिर्जरदुःखहरम् । भवतां गुणकाननवारिभरं, भववारिधिपोतसमं सुचिरम् ॥२॥ जगतां जनसंततिजन्महरं, सकलं शिवदं सुखवारकरम् । यशसा किल निर्जितशीतकर, जितमन्मथमानमनंतकरम् ॥३॥ जयकारीयशोधनधीप्रवरं, भवभीममहोदधिभीतिहरम् । दशनच्छवितर्जितपद्मवरं, मनुजेप्सीतकार्यविधानपरम् ॥४॥ १२
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178
अध्याय-३ ]
[स्वाध्यायदोहनजनकिल्बिषपादपपर्युतरं, सुरनाथनतं जगदर्तिहरम् । घनकर्मकृशानुपयोनिकरं, विशदाऽत्रियुगं किलपद्मवरम् ॥५॥ क्षितिमेरुमहीधरधैर्यधरं, प्रणतासुरकिन्नरदेवनरम् । सुकृतव्रजनिर्जरसत्शिखरं, तनुदीप्तिपरिहतसूर्यमरम् ॥६॥ जनताम्बुजकाननसत्भ्रमरं, मदनोद्धतवारणसिंहपरम् । भवकर्दमनाशननीरधरं, सुयशःसुकृतैकगुणप्रकरम् ॥७॥ अवनीतलविश्रुतकीर्तिभरं, कमलापतिसेवितसाधुवरम् । जितमारमुद्गतशेषदरं, गुणनीरधिमानतदेवनरम् ॥८॥ इत्थं पार्श्वजिनोत्तमं शिवकरं भक्त्या नुतं सजिनं, दुःपापाम्बुधिशोषणे घटभवं, भास्वत्कलाभाजनम् ॥ श्रीमद्वाचकभानुचंद्रचरणद्वंद्वैकसेवावशात् । सद्यस्कंवरऋद्धिचंद्रशिशुना सत्पद्यबंधेन वै ॥९॥
याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य श्री हरिभद्रसूरिकृतम्
श्री जिनप्रतिमास्तोत्रम् नमिउणं सव्वजिणे, सिद्धेसूरी तहा उवज्झाए । साहू अ जुगप्पवरे, वुच्छं जिणकिलहं भत्तो ॥१॥ चुलसिलखसहसा, सगनवइतिवीसऊडलोगंमि । कोडीओ सत्तलरका, बावत्तरि भवणवासीसु ॥२॥
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श्री जिनप्रतिमास्तोत्रम् ] 179
[ अध्याय-३मेरुसु असी जिणाला, वरकारेसु असी दसकुरुसु । वीसं गयदंतेसु, जयंति तीसं कुलगिरीसु ॥३॥ वेयढेसु सत्तरिसयं च नंदीसरंमि बावण्णा । उसुआर माणुसुत्तर, कुंडल रुअगेसु चउचउरो ॥४॥ एवं सव्वग्गेणं, चउसयअडवण्ण तिरिय लोगंमि । । वंतरजोइसमझे, जिणाण भवणा असंखिजा ॥ ५ ॥ अण्णाई कित्तिमाई, नगनगरपुरेसु निगमगामेसु । विहिणा जिणभवणाई, भत्तीए वंदिमो ताई ॥ ६॥ इअ जिणहराणनिअरं, संखेवेणं मए समरकायं । भावेण भणिज्जं तं, भवविरहं कुणउ भव्वाणं ॥७॥
॥१॥
श्री आदिजिनस्तवः आदिजिनं वन्दे गुणसदनं, सदनंतामलबोधं रे । बोधकतागुणविस्तृतकीर्ति, कीर्तितपथमविरोधं रे रोधरहितविस्फुरदुपयोग, योगं दधतमभंगं रे । भंगं नयव्रजपेशलवाचं, वाचंयमसुखसंगं रे संगतपदशुचिवचनतरंग, रंग जगति ददानं रे। दानसुरद्रुममञ्जुलहृदयं, हृदयंगमगुणभानं रे
॥२॥
॥३॥
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यदाहन
अध्याय-३ ]
[ स्वाध्यायदोहनभानंदितसुरवरपुन्नाग, नागरमानसहंसं रे । हंसगति पंचमगतिवासं, वासवविहिताशंसं रे ॥४॥ शंसंतपदवचनमनवमं, नवमंगलदातारं रे । तारस्वरमघघनपवमानं, मानसुभटजेतारं रे इत्थं स्तुतः प्रथमतीर्थपतिः प्रमोदाच्छीमद्यशोविजयवाचकपुंगवेन ॥ श्रीपुंडरीकगिरिराजविराजमानो । मानोन्मुखानि वितनोतु सतां सुखानि
(२) श्रीमरुदेवातनुजन्मानं, मानवरत्नमुदारं रे । दारैस्सह हरिभिः कृतसेवं, सेवकजनसुखकारं रे ॥१॥ कारणगंधमृतेऽपि जनानां, नानासुखदातारं रे । तारस्वररसजितपरपुष्टं, पुष्टशमाकूपारं रे ॥२॥ पारंगतमिह जन्मपयोधे, योधेहितगुणधीरं रे। धीरसमूहस्संस्तुतचरणं, चरणमहीरुहकीरं रे कीरनसं यशसा जितचंद्र, चंद्रामलगुणवासं रे। वासवह्रदयकजाहिमपादं, पादपमिवसच्छायं रे ॥४॥
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श्रीभूतवर्तमानभाविजिनस्तवः] 181
[ अध्याय-३सच्छायाकब्बरपुरधरणिधरणिधवमिव कामं रे । कामं नमत सुलक्षणनाभि, नाभितनुजमुद्दामं रे ॥५॥ इत्थं तीर्थपतिः स्तुतः शतमखश्रेणी श्रितः श्रीनदीजीमूतोद्भूतभाग्यसेवधिरधिक्षिप्तःसमग्रैर्गुणैः ॥६॥ श्रीमन्नाभिनरेन्द्रवंशकमलाकेतुर्भवाम्भोनिधौ । सेतुःश्रीवृषभो ददातु विनयं स्वीयं सदा वांच्छितम् ॥ ७ ॥
श्री भूतवर्तमान भावि-जिनस्तवः नमिऊण वद्धमाणं सुरनरदेविंदविहियवरमाणं । भरहम्मि भूयसंपइभाविजिणिंदे थुणिस्समहं ॥१॥ केवलनाणी निवाणसायरो जिणमहायसा विमलो। सव्वाणुभूईसिरिहरदतो दामोयरसुतेओ ॥२॥
सामिजिणो मुणिसुव्वइ सुमई सिवमइजिणोय अत्थागो। 1 तह य नमेसरअनिलो जसोहरो जिणकयत्थो य ॥ ३ ॥
धम्मीसर सुद्धमई सिवकर जिण संदणो य संपइया । तीउस्सपिभरहे जिणेसरे नामओ वंदे ॥४॥ उसभं अजियं संभवमभिणंदण सुमइ पउमसुप्पासं । चंदप्पह सुविहिसीयल सिज्जसवासुपुज्जं च ॥५॥
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अध्याय-३ ]
182 [स्वाध्यायदोहनविमलमणतं धम्मं संति कुंथु अरं च मल्लि च । मुणिसुव्वइ नमि नेमि पासं तह वद्धमाणं च ॥६॥ वीरजिणस्स भगवओ वोलियचुलसीवरिससहस्सेहिं । पउमाइचउवीसं जह हूंति जिणा तहाथुणिमो ॥७॥ पढमं च पउमनाहं सेणियजीवं जिणेसरं नमिमो। बीयं च सूरदेवं वंदे जीवं सुपासस्स ॥८॥ तइयं सुपासनामं उदायिजीवं पणट्ठभववासं। वंदे सयंपभजिणं पुट्टिलजीवं चउत्थमहं ॥९॥ सव्वाणुभूयिनाम दढाउजीवं च पंचमं वंदे । छठे देवसुयं जिणं वंदे जीवं च कत्तीयं ॥१०॥ सत्तमयं उदयजिणं वंदे जीवं च संखनामस्स । पेढालं अट्ठमयं आणंदजीवं नमसामि ॥११॥ पुट्टिलजिणिंद नवमं सुरकयसेवं सुनंदजीवस्स। सयकित्तिजिणं दसमं वंदे सयगस्स जीवंति ॥ १२ ॥ एगारसमं मुणिसुव्वयं च वंदामि देवईजीवं । बारसमं अममजिणं किन्हजीवं जयपईवं
॥१३॥ निकसायं तेरसमं वंदे जीवं च वासुदेवस्स । बलदेवजियं वंदे चउदसमं निकुलायजिणं ॥१४॥
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श्री गौतमस्वामी - स्तवः ] 183
[ अध्याय-३
सुलसाजीवं वंदे पनरसमं निम्ममत्तजिणनामं । रोहिणिजीवं नमिमो सोलसमं चित्तगुत्तं ति सत्तरसमं च वंदे रेवतीजीवं समाहिनामाणं । संवर मट्ठारसमं सयाणिजीवं पणिवयामि दीवायणस्स जीवं जसोहर वंदिमो इगुणवीसं । कन्हाजिय गयतन्हं वीसइमं विजयमभिवंदे इगवीसइमं नारयजीवं देवं च मल्लिनामाणं । देवजिणं बावीसं अम्मडजीवस्स वंदे हं
॥ १५ ॥
॥ १६ ॥
11 26 11
॥ १८ ॥
॥ १९ ॥
अमरजीवं तेवीसं अणतविरियं जिणं वंदे । तह साइबुद्धिजीवं चडवीसं भद्दजिणनामं इह भर कालत्ति बावत्तरिजिणवरा सुनामेहिं । सिरिचंदसूरिथुणिआ सुहयकरा हुंतु सयकालं ॥ २० ॥
श्री गौतमस्वामि- स्तवः
श्रीइन्द्रभूर्ति वसुभूतिपुत्रं, पृथ्वीभवं गौतम गोत्ररत्नं । स्तुवन्ति देवासुरमानवेन्द्राः, स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ॥ १ ॥ श्रीवर्द्धमाना त्रिपदीमवाप्य, मुहूर्तमात्रेण कृतानि येन । अङ्गानि पूर्वाणि चतुर्दशापि, स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ॥ २ ॥
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अध्याय-३ ]
184 [ स्वाध्यायदोहनश्रीवीरनाथेन पुरा प्रणीतं, मंत्रं महानंदसुखाय यस्य । ध्यायंत्यमी सूरिवराः समग्राः, स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ॥ ३ ॥ यस्याभिधानं मुनयोऽपि सर्वे, गृह्णन्ति भिक्षाभ्रमणस्य काले। मिष्टान्नपानांबरपूर्णकामाः, स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ॥४॥
अष्टापदाद्रौ गगने स्वशक्त्या, ययौ जिनानां पदवंदनाय । निशम्य तीर्थातिशयं सुरेभ्यः, स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ॥ ५ ॥ त्रिपंचसंख्यर्शिततापसानां, तपःकृशानामपुर्नभवाय । अक्षीणलब्ध्या परमान्नदाता, स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ॥ ६ ॥ सदक्षिणं भोजनमेव देयं, साधर्मिकं संघसपर्ययश्च । कैवल्यवस्त्रं प्रददौ मुनीनाम् , स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ॥ ७ ॥ शिवं गते भर्तरि वीरनाथे, युगप्रधानत्वमिहैव मत्वा । पट्टाभिषेको विदधे सुरेन्द्रः, स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ॥ ८ ॥ त्रैलोक्यबीजं परमेष्ठिबीजं, सज्ञानबीजं जिनराजबीजं । यन्नाम चोक्तं विदधाति सिद्धि, स गौतमो यच्छतु वांछितं मे ॥ ९॥ श्रीगौतमस्याष्टकमादरेण, प्रबोधकाले मुनिपुंगवा ये । पठन्ति ते सूरिपदं सदैवानंदं लभन्ते सुतरां क्रमेण ॥१०॥
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[ अध्याय-३
साधारण जिनस्तवनम् ] 185
श्री चतुर्विंशति-जिनस्तवः
सुरकिन्नरनागनरेन्द्रनतं, प्रणमामि युगादिजिनमजितं । संभवमभिनंदनमथसुमति, पद्मप्रभमुजवलधीरमति ॥ १ ॥ वंदे च सुपार्श्वजिनेन्द्रमहं, चंद्रप्रभमष्टकुकर्मदहं । सुविधिप्रभुशीतलजिनयुगलं, श्रेयांसमशंसयमतुलबलं ।। २ ।। प्रभुमर्चय नृपवसुपूज्यसुतं, जिनविमलमनन्तमभिज्ञनतं । तं धर्ममधर्मनिवारिगुणं, श्रीशान्तिमनुत्तरशान्तिगुणम् ॥३॥
कुंथुश्रीअरमल्लीजिनान् , मुनिसुव्रतनमिनेमीस्तमसिदिनान् । श्रीपार्श्वजिनेन्द्रमिभेन्द्रसम, वंदे जिनवीरमभीरुतमम् ॥ ४॥ इति नागकिन्नरनरपुरंदरवंदितक्रमपंकजा, निर्जितमहारिपुमोहमत्सरमानमदमकरध्वजा । विलसंति सततं सकलमंगलकेलिकाननसन्निभा, सर्वे जिना मे हृदयकमले राजहंससमप्रभा
॥ इति स्वाध्यायदोहनग्रन्थः समाप्तः ॥
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स्वाध्याय दोहन ग्रन्थस्थ परिशिष्टाणि
क्रमांक १-२-३
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परिशिष्ट प्रथम-भाषाटीप्पणो
( प्रथम अध्यायना टीप्पणगत पद्योनो विशेषार्थ. )
શ, અથર્નાક્ષાદ્રિતમદા = વિના યને સાફ થયો છે મલ જે. શરથ ત્રિા = રોકાયેલે, બંધ થયેલે; -- પરૂ, પ્રત્યાથાનાધ્યનિ= (અદત્તાદાનના) પ્રત્યાખ્યાનના અત્યાર
અગાઉ બંધ થયેલા માર્ગને વિષે. પાક, અધ્વનીનાર = મુસાફર સમા. ( જગત્પતિને નમસ્કાર, ) દાહ, તમા# તે = વ્રતના ભારને જળવાને વૃષભ – બળદ સમાન
( આપને નમસ્કાર.) દાદ, સંસારિતપુતાળમકાઇ = સંસાર સાગરને તરી જવાને કાચબા
સમાન -( આપને નમસ્કાર છે. ) હા, વસંર્ઘત્તરા િ= વાણુના સંવરથી શોભતા –( આપને
નમસ્કાર ) ૭૮, રોણાચ= (ધર્મવૃક્ષના બીજને ) વાવવાને માટે (તું છે. )
+ જો કે ત્યાં પૃષ્ઠના અને ટીપણના આંકડાઓ આંગ્લ લીપીમાં છે, અહિં, અંકને ક્રમ તદનુસાર હોવા છતાંયે, બાળબોધ લીપી લીધેલ છે.
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છાશ, અવોપૃપામ્ = નહિ સમજી શકનારાઓને (ઝભ્યાભ્યાસ એ કેવલ
કલેશ છે તેમ ) કાર, ચિત્રીતે દિ = અમને આશ્ચર્ય કરે છે. છાશ, નાથા = આ હું પ્રાણું . ઢા, કુરમુરે = આ (જગત ) ખાલી કરાય છે. ઢાર, નાથામિ નાથ! = હે નાથ ! હું (તારી પાસે) માગું શું? રૂ, નાનાવરમગામમુવા =નાના પ્રકારના આક્રમણ અને
યુદ્ધોથી જેઓની ગ્રામભૂમિઓ લૂંટાઈ ગઈ છે. શાક, વટણી = હાથી (પિતા) કુંભસ્થળને. હા, સરસ્કવોચ્ચ = મહાન નલીયાની પાસે (ગોળ કુંડાળું
' વળીને સર્પ નિર્ભય રીતિયે બેઠેલ છે. ) ૨, સત્ર નિતિ = અહિં (દેવની ધર્મદેશનાની પરિષદમાં) રહે છે. ૨૦૧૭, ઇજાનામવસંતિ = ધન્ય પુરૂષના (મસ્તકે) મુકુટની જેમ
શોભે છે. ૨૦૧૮, ઉષત્તિઃ સર્વજ્ઞઢારા વિવ= જેમચન્દ્ર સર્વ સરે
વરના જલમાં એકસમાન પ્રતિબીબિત થાય છે તેમ. ૨૦૨, ત્યાં રસ્તા નીતિ = તને નમસ્કાર કરનાર, (જગતના) નમસ્કાર
ઝીલે છે. ૨૦૨૦, છાયામ ફુવાSધ્વનિ =જેમ ઘટાદાર રક્ષ, માર્ગમાં (પાન્થ
જનને સર્વ સાધારણ ઉપકારી છે તેમ). શર, મવત્રિહિનામ=સંસાર શત્રુઓથી ત્રાસી ઉઠેલ છેને,
(સારૂ)
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( ૪ ) શર, પોડનિમિષમાતા = પરકમાં દેવપણું. ૨૨ારૂ, જેfધત્વમવિમિતા =જે લેકે તાર વિષેની ભક્તિના
બખ્તરથી મજબૂત બનેલા છે. થરાદ, ચંરતીતિ =સેવાઓ-ઉપાસનાઓ કરે છે. રા, જાવં મેહિ મનામિવ = મનને જેમ મેરૂ દૂર નથી તેમ
લેકાગ્ર–મુક્તિસ્થાન– શરૂાદ, iઘૂજાનવ વાસ્તિવામિ = મેઘના જળથી જાંબુની જેમ
(જાંબુના ઝાડપર વરસાદનું પાણી પડતાં જાંબુઓ ખરી પડે છે.) ૨૩૭, નિત્યાનંદ:= સદાયે અતિ પ્રમાદશીલ. ૨૩૮, વર્ણન = પગથી પાંગલે-પગુ. રૂા, છત્રછાયા માનબ્રિછાય!= છત્રની છાયા સમાન છે ચરણની
છાયા જેની. (એવા હે પ્રભે !) રૂા૨૦, વાઘાતિ મિશઃ = સૂર્ય શું પિતાને સારૂ ગતિ
કરે છે કે ? ૨કા૨, વર્તts હિસીતામ= વાટ-દીવેટ પણ દીપક બને છે.
(પ્રકાશ આપે છે.) કાર, માદ્યરિંદ્રિયવંતાડવી,મેષન=મદેન્મત્ત ઈન્દ્રિય
હાથીઓને નિર્મદ બનાવવાને સારૂ ઔષધ સમાન. (સ્વામિન !
આપનું શાસન છે.) પા૩, રોણુ = બાકીના અઘાતી કર્મોની ઉપેક્ષા કરે છે. તેનું
કારણ કેવલ લેકે પકાર છે.
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( ૧ ) શાક, સવંત સિરાપક્ષમારા રુવ = ગરૂડની પાંખમાં રહેલા
માનને સાગર બંધ જેમ સુકર છે તેમશા, સાંતાકુમારનવોદ= અનંત કલ્યાણરૂપ વૃક્ષને
ઉલ્લસિત કરવાને સારુ દેહદ સમાન. બાદ, વંતિવંતાઃ રતિ ચિન્દ્રનાં કમળપણ કિરણથી હાથીના
દાંતે છે. ૨૭૭ આરતિવિંવત = આરિસામાં સંક્રમણ પામેલા પ્રતિબિં
બની જેમ. ૨૭૮ ૩ = તીવ્ર [ કર્મ ] વડે.
હા મહviધા ફુવ = મરુધર દેશ (મારવાડ ) ના મુસાફરની જેમ. ૨૮૨૦ ર જિ: = આ બાહ્ય આડંબરે. [દીક્ષા ગ્રહણ, વ્રત પાલન,
તપશ્ચર્યા કરવી વિગેરે બાહ્ય આડંબર ] ૨૨૨ નાટચાકડમુર્ણ દિ તત્વ=નાટકની શરૂઆતની ભૂમિકા - ૨૦૧૨ જિનાત્રા = ચિરકાલ. રર રર સુધાર:=[ જે રાત્રીએ અલંક્તિ દેહધારી ] સુધા
કર-ચન્દ્ર તું ઉદયને પામે. શરૂ પાદરા = આવવા જવામાં તત્પર-પ્રવૃત્તિપરાયણ. રેશક રામધમકા = ચાર મહાવતરૂપધર્મને બતાવનાર.
(બાવીસ જિનના શાસનમાં હિસાવિરતિ, અસત્યવિરતિ સ્ટેયવિરતિ અને પરિગ્રહવિરતિરૂપ ચાર પ્રકારના મહાવ્રતમય ધર્મ હોય છે. )
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( ૬ )
૨૨, પંજ્ઞ પંજ્તમપિ = કાદવમાં ઉત્પન્ન થયેલું પણ કમલ ( મલીનતાને નથી પામતું. )
૨૨૬ ચિર નિવિરાતાં = લાંબા કાળસુધી રહેા. ( અહિંથી શરૂ થતા એ છ શ્લોકેા વીતરાગસ્તાત્રના વીસમાં ‘પ્રકાશ’ના શ્લેાકેા મુજબ છે.) ૧૭ સંસ્કૃતના સમુદ્ઘાટનનું વિજ્ઞા=( નિવૃત્તિના ) બંધ રહેલા દ્વારને ઉધાડવાને સારૂ ચાવી–કીલી સમાન.
રદ્દા૮જ્ઞાનુવૃદ્ધોડજ્જુના = હમણાં (સંસાર સાગર) જાનુપ્રમાણ (રહેલ છે.) રદ્દા॰૧ અર્થવાવાપ્રદો મમ = સ્તુતિ કરવા વિષેને મારા આગ્રહ. ૨૬।૨૦ સ્ત્રિનામપિ=નારકને પણ.
૨૮ા નિર્ણળયતાનિરેઃ = મેાક્ષરૂપ વૈતાદ્રષ પર્યંતનુ –(દ્વાર આજે ઉપડશે. )
રાર રોહિાપુષ્પમિત્ર = રોફાલિકાના ફુલની જેમ.
હૈ।૨ વાગ્યે ચથા તવ = તારા દાસપણામાં (હું ) જેમ ( શેત્રું છું ) રૂર । વીતરાગોન ચેવાળ:= તું વીતરાગ છે, (છતાંએ તારા હાથપગમાં રાગ–લાલાશ કેમ છે ? ) ( સામાન્ય રીતિયે મહાન પુરૂષોના હાથ-પગ આદિ અમૂક અવયવેામાં લાલિમા હાયછે, ) ફરાક પ્રજ્ઞાનાં અદ્ ગોપસ્તવં = ( વીતરાગને ઉદ્દેશીને કહેવાય છે.
જો તું જગતની રક્ષા કરનાર ગાપ-રક્ષક છે(તા તું ગેાપગાવાલની જેમ દંડને હાથમાં શા સારૂ રાખતા નથી ? ) રૂરાદ્ ાિ રત્નત્રયાપ્રયઃ = ( જો તે. અલકાર આદિ બાહ્ય પરિગ્રહ
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( ૭ ) ત્યજી દીધેલ છે ) તે શા સારૂ રત્નત્રયીને પ્રિય માનોને
વિહરે છે ? ( રત્નત્રય-દર્શન-જ્ઞાન-ચારિત્રરૂપ ત્રણ રત્ન. ) રૂાઇ મદીય = મહાન પૂજનીય (આપને નમસ્કાર ). રૂપા રોમાનિયાવાવિવાર =જગતની મેહરૂપ મહા
નિદ્રાને દૂર કરવાને સારુ સૂર્ય સમા. રૂકાદ વીમૂત જુવ નૂતના = નૂતન મેઘની જેમ. રૂકા કૃwવક્ષતરવની = વદિ પક્ષની રાત સમાન. ૨૮૮ તાનાવાડમના = આત્માની સાથે પરવાઈ ગયેલા. રૂઠાર સ્નાર્થ નાથં =નાહી નાહીને. રૂપા૦ સૂર્યાસ્ત (યારે સૂર્યના અસ્ત પછી અને ચન્દ્રના ઉદયનીપૂર્વે. રૂપા૨ નિર્વિવેદવિદ્યોરનમૂ=વિવેકરૂપ નેત્રથી રહિત. રૂવાર નારદપતા =નરક ગતિના ફૂપમાં પડવાને સારુ રૂબરૂ મિથ્યાવિ =મિથ્યાત્વરૂપ સર્પ. રૂદાર વલ્યાનમતિ મ=િ કલ્યાણમયી ભક્તિવાલા મારા વિષે. રૂદાર વૃજ = એકપક્ષે ધર્મ, બીજા પક્ષે બળદ. રૂદારૂ મધ્યે મમ્ર સભાની મધ્યમાં. રૂદાઇ સરોવં= મહા-મહત્ત્વ. રૂહા મોક્ષાર્થે મેક્ષને સારૂ. રૂકાદ શુરાના = જેણે દેશના જિનનું વચન સાંભળેલ છે તે. રૂ૭૭ વર્ષાદ્ધિ:= વરસવાના સ્વભાવવાલે મેઘ. રૂા. સાધનિ=સંસારરૂપ મરૂધર (મારવાડ) ની ભૂમિમાં
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( ૮ ) ૨૭૨ ખિતાં પતિ =ચન્દ્ર. (કૂરગ્રહથી જેમ ચન્દ્ર રક્ષણ આપ
નાર છે તેમ કૂરપાપથી (૮) જિનેશ્વરદેવ રક્ષણ આપનાર છે.) ૩૮૨૦ સંઘidi = જેણે હર્ષ મેળવ્યું છે તે. રૂઢા માંss = કેળના ઘટાદાર ઉઘાનેથી. રૂાર સામયા = રોગે. રૂારૂ વંતૂવા રવાનામતવાદ = કહેવાથી સર્યું,
( છતાંયે) ઘણું કે થોડું હું કહું છું. રૂાક માથાર ફુવ=મહાન જલજતુની જેમ. રૂાવ નાતા =(સમુદ્રમાં રહેલા) પર્વત દત્તે. કવાર નિતાન્તો નૈ =ગુસ્સાથી(રાક્ષસની સમાન જટાધારીઓથી) કાર નમામિવિ કિ = શિયાલવા સમાન બ્રાહ્મણથી. કરૂ વિનેવ વિવેક્ષ નિભેર વિષ્ણુપતા=સિદ્ધપુરૂષ સમાન
ધિમાં જેમ આંખ મીંચી દે તેમ વિવેકનેને મીંચી નાંખતા
મિથ્યાત્વથી. કશા સ્વપાવપવામાલય= તારા ચરણરૂપ પુલને મેળવીને. કશ અધ્યાતિ = મેળવ્યું. કરા ત્રાઈમરીમવિધ્યાન = જ્યાં અમે નિર્મળ થઈશું. કરા૭ વિયવરત્વ = શરીરના અવયમાં રાજાપણને-મહત્ત્વને | ( અમારી દૃષ્ટિએ પામી ) કરાટ વેઢાઢોવામાáતિરોમાનિયંધનમ્ =(હે પ્રભો ! ઘુવડની
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જેમ, તારું દર્શન મિથાદષ્ટિ આત્માઓની દષ્ટિએ) કેવલ
જ્ઞાનના પ્રકાશરૂપ સૂર્યથી અંધાપાનું કારણ છે-કારણભૂત છે. કરાર વનgધાનસમુરાવવામ=( હે પ્રભે !)
તારા દર્શનના અમૃતપાનથી જેઓને દેહ શમુગ્ણવસિત
ઉલ્લસિત બનેલ છે. કરાર, વિપળોમુત્પનર્મદા: = વિવેકપ દર્પણ
અરિસાને સાફ કરવાને ઉપયોગી-સમર્થ. જરૂર છત્રાશૂન્યાસ = છત્રથી જેઓના મસ્તક શેભી રહ્યાં છે. કરાર સુદનિત તેષાં જુ વોર્જતા પુરવતામ્ = તેઓના કમાં
સુરસ્ત્રીઓની ભુજાલતાઓ આળોટે છે. કરારૂ વહાવતુi = સુન્દર પ્રકારના નૃત્યક્રીડનથી મનહર કછાક વિવધારતુ= તારે વિષે મારે અધિકાર છે. કકા મન મોવિત્ત = શરીરધારીઓનું (શુભ) મને દ્રવ્ય-ભાવના
કાદુ માન મૃતેનેવાડા = ભૂતની જેમ માનથી પીડાયેલા. કાકા છોતરી = બે પ્રવાહ. કાર અમરતવર્ષ = દક્ષિણ ભરતક્ષેત્રમાં. કદ્દાર કચરાનમ:= ચકોરનો જેમ જગતના ચક્ષુ
ઓને આનન્દ આપનાર ચન્દ્ર કદ્દાર તરછન્ન તથાગરિ =( હે પ્રભો ! જે કે આપ છદ્મસ્થ
તરિકે વિચરે છે ) [ ચાર પ્રકારના ઘાતકર્મોને ખપાવ્યા
પહેલાં ] છતાંયે આપ કપટ-છદ્મ વિનાના છે. કાર વિશ્વનાથ = વિશ્વના હિતકારીને, ( નમસ્કાર. )
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( ૨૦ ). કહાર સંતૈિનત્તમસ્વળ્યા = રાત્રિની જેમ સંચિત પાપને, (નાશ
કરવાને પ્રભાત સમાન.) વશ ચતુરામદારત્ની=(સ સારી અવસ્થામાં ચક્રવર્તિ હોવાને કારણે)
ચૌદ રત્નોને, ( નિઃસંગતાથી છોડયાં. ) ૧૨ જૈવમાસિક(કોડે દેવતાઓથી વીંટાયેલ હોવા છતાંયે )
(હે પ્રભે !) આપ કૈવલ્ય–એકાકિભાવને પામ્યા છે. (પણ આ અર્થ અસંગત લાગે છે, વિરોધભાસ જણાય છે. માટે )
અથવા કેવલજ્ઞાનના ધારનાર છે, વરાર નિમજ્ઞિિરવોદુ =ડૂબતાઓને નાવની જેમ. ફાર કરવામારિવાMિા =વાઘથી ડરેલાઓને અગ્નિની જેમ
(લેકવ્યવહાર એમ કહે છે કે અગ્નિ એ વાઘથી રક્ષણ આપે છે.) કરારૂ નાથામ=(હે નાથ ! આપને) હું પ્રાર્થના કરું છું. ५५।१ " अस्मिन् मेरुगिरि व्याः सुवर्णमुकुटायते, इन्द्रनील
રુવ રચત કરવમત વિરાણે”= (મુદ્રિત પ્રતમાં આ શ્લેક આ મૂજબનો છે-મિન ધારણા સુવર્ણमुकुटायते, इन्द्रनील इव न्यस्ता त्वमतीव विराजसे" છતાંયે અમૂક પ્રકારની અર્થસંગતિ અમને અમારા પશમ મૂજબ ન દેખાતાં આ રીતિયે આ પદ્યને અમૂક પરિવર્તનપૂર્વક મુકવું પડેલ છે. પણ એ ફેરફારને સ્પષ્ટ કરવા અને અમે કરેલ ફેરફારમાં ભૂલ થતી હોય તે તેને અંગે, તજજ્ઞોની તરફથી ખૂલાસો મળી જાય એજ ઈચ્છાથી અત્ર તેનું ટીપણુ કરેલ છે.)
=મેરૂપર્વત એ પૃથિવીપર સુવર્ણવર્ણ
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( ૨ ) મુકુટશે છે, અને હે પ્રભ!) તું મુકુટ પર જડેલા ઈન્દ્રનીલની
જેમ આ (મેરૂપર્વત) પર અતિ સુન્દરતાથી શોભી રહેલ છે, કવાર દિતીમતિરિ =(એક બાજૂયે સઘલાયે ધર્મો અને એક
બાયે (હે નાથ! તારું દર્શન ફલની પ્રાપ્તિનું સાધક
હેવાને કારણે) બીજું ( તારૂંદર્શન) અધિક છે. ધારૂ રક્ષાતિરાત્રિમ = (ભવભીત આત્માઓને માટે) રક્ષાને
સારૂના તિલકસમાન, (છે.) ઉદ્દા પર્યાયમૂત્રતપર્યાયના સમાન વાર નિત મિા = પિતાના તંતુથી (સપડાતી-બંધનને પામતી)
ભૂતાની જેમ. હદ્દાદ્દ થમસ્તિત્તરિવિં=જે વચનેના વેગે તેતર જેમ વિપત્તિને
પામે છે તેમ. ૧૭૭ ચાતુરભવને છેદ થાઓ અથવા ભવભવ તારી
ભક્તિ છે. ૧૭ અવિરતાનાં =અવિરત એવા અમારે. ( ઈન્દ્ર પોતે કહે છે). ૧૭૮ તિમસ := (હે પ્રભા ! તું ભરતક્ષેત્રમાં રહેવા
છતાંયે ) સર્વ સ્થાને અમને જણાય છે. ૧૮૧ અeતુ વિનંsf=વન કાલને અવસરે હો. (ઈન્દ્રકહે છે.) ૮ર થતધવત્રિકવિનીમૂન( હે પરમેશ્વર ! ) વાછરડાઓની
જેમ શ્રુતસ્કન્ધને જન્મ આપનારી (તારી વાણીને અમે વંદન
કરીએ છીએ. ) ૧૮ર પિરા=પિશાચોની જેમ પાપથી.
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( ૧૨ ). ૧૧૨ તો ન થઈ =તે (ચક્ષુઓથી)થી નીહાળેલ (જે હૃદયથી)
( હે નાથ ! ) તું સ્થાન મેળવાય છે. દૂધ વિનાવણિ =(મારા ભાસ્થળને વિષે) ઘા-ક્ષની પંક્તિ. દુકાદ શાહર્તા=(મોક્ષમાર્ગના) કહેનાર. દ્વા૭ વિજગોરા =અવિકૃતરીતિયે ઉપકારક ( આપ ) થી. દાટ સાતવ = સુન્દર રીતિને મેક્ષમાર્ગને આપનારાને (હે
પ્રભે ! આપને ) વિષે. દરા માર્જરિામુર્થગ્રામનામનો મામૂ= માલકેશ આદિ ગ્રામ
- સૂરેથી સુન્દર, (વાણીથી.) દ્રાર તાવનાત્eગરૂડને જેવાથી. રરાષ્ટ્ર ગુખસ્થાનવામાત્રિ =ગુણસ્થાનકની શ્રેણને. દરા મારત=મારું અન્ય ( ગમે તેમ) હે. દરૂાર અ ક્ષયકમેક્ષની નજીકમાં રહેલા (હે પ્રભો ! આપને
નમસ્કાર ) દાર મતો કરીનેનૈવ=આપના (અતિ મહિમાવંત) દર્શનથી જ. દારૂ વિના જ ગાતા કારણ વિના રક્ષણહાર-બેલી. રાક વપરામવાર =ધિને આપનાર ( હે વિભે!) તે
જન્મ લીધો છે. હકાર મસ્તો:= ગંભીર હકાર નાસ્ટિસૈ =સ્ત્રીઓની લલિતક્રીડાઓથી. દારૂ ચરબૂનો નિtsધુના=બાધેની (વ્રતને નિષેધ કરનારી)
તે વાણી હાલ.
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( ૩ ) દાઇ સુરાપુ હિં =આનન્દની વાત છે કે દુરાગ્રહવાલા
તે બાવ જનથી. શશી દશાશોનીવવિ=વિકસિત-ખીલી ઉઠેલા કમલની સમાન
કાન્તિવાલા. દર ચણાગરદન સ્ત્રફળ= ( જો કે મુદ્રિતપ્રતમાં સ્ત્રક્રમને
સ્થાને હૃક્ષો છે, પણ ચતુર્થીનું એકવચન હોવાને કારણે
પદની સંગતિ બની શકતી નથી. તે કારણે આ ફેરફાર કરવો પડેલ છે. એ ફેરફારને સ્પષ્ટ કરવા અને તજજ્ઞોને અમારી ક્ષતિ જણાતી હોય તે તે જણાવવાને સારુ અત્ર સૂચન છે. ) એકહજારને આઠ નર-મનુષ્યના લક્ષ્મ-ચિહ્ન
લક્ષણોને ધારણ કરનાર. ( હે દેવાધિદેવ! આપને નમસ્કાર) દારૂ સર્વપમત્રાય સર્વ કલ્યાણ સંપત્તિઓના અમત્ર-આધાસમા | ( હે જિન ! આપને નમસ્કાર. ) દર્દક નિમોડપ વમેવ દિનાવિક પણ ( હે દેવ! ) તું જ છે. ધાબ નિનામતઃ = આનન્દની વાત છે કે જનસમાજને
મહત્સવ રૂપ છે. ૬૮ સનીના = સર્વ જગતના હિતકારી આપને નમસ્કાર. દર-૨ તરzશ્વર = તત્વદષ્ટ આપને નમસ્કાર. ૭=૬ વાત્યાનર્વિતાધિતવ=પવનથી નાચી ઉઠતા સાગરના
તરંગની જેમ. ૭૨-૨ વાસ્કિર = મૂર્ખ. ૭૨-૩ કવાયત્તવ= ભાડે રાખેલા મકાનની જેમ.
પ્રથમોધ્યાયઃ સમાપ્ત: |
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द्वितीयः अध्याय
પૃછાંટીuri – કાર ર ર ર ર શ =ઉપરના સાડા ત્રણ લેકમાં, વર્
સર્વ નામની સાતેય વિભક્તિઓ દ્વારા જે સ્તુતિ કરવામાં આવેલ છે, તેને સંબંધ આ પ્રકારના સાડા પાંચ લેક
સુધી છે. ( અર્થાત ત્યારબાદના બે લેક સુધી છે. ) ૭ધાર માથાન=મહાન અરણ્ય=ગાઢ અટવીને. ૭પારૂ કેટલાક મુદ્રિત પુસ્તકોમાં પ્રથમ પ્રકાશને નવમે લેક છે, પણ
ટીકાકારે તેને સંગ્રહેલ નહિ હોવાથી અત્ર તેને સંગ્રહેલ નથી. ૭થાઇ પ્રિયંજુરદિશા તેવા પ્રકારના નામકર્મના યોગે, શ્રી અરિહંત
પરમાત્માઓને દેહ પંચવણેને હોય છે. તેનો આ ઉલ્લેખ છે. હાલ =નહિ જોવા છતાંયે નિર્મળ. ૭પ વચ્ચતરાત્રીનપ્રતિમાતા= હે જગન્નાથ ! જેમ
અરિસાના મધ્યભાગમાં દેહનું પ્રતિબિંબ, ઉષ્ણદિ ઋતુઓમાં પણ પરસેવા આદિથી રહિત હોય છે, તે પ્રકારની સ્થિતિ
આપના દેહને વિષે સ્વાભાવિક છે. ઉદા૭ ન =આપનું મન કેવળ રાગમુક્ત છે, એટલું નહિ પણ
આપના શરીરની અંદર રહેલું લેહી-રક્ત તે પણ રાગલાલશથી રહિત છે.
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(84)
૭દ્દા૮ અવિશ્રમથીÉ= દુગ્ધ વિનાનુ અને સુગ ન ચઢે તેવું. ૭૬ાર્ નોનશ્ચર્મચક્ષુવામ્=અહિં શબ્દશાસ્ત્રની દૃષ્ટિથી જો કે-નોષો એ મુજબ જોઇએ, છતાંયે-“ અમુક પ્રકારના છન્દોબન્ધની સુન્દરતાને સારૂ લિંગબદ્ધતાને અંગે ભિન્ન વચન હૈાવામાં દોષ નથી ( વી॰ સ્તા. ટીકા. )
આ ( ૨ ) પ્રકાશમાં, જન્મસિદ્ઘ ચાર અતિશય વર્ણવામાં આવેલ છે. ૭/૨૦ સમિમુલ્યતો નાથ !=હે નાથ ! સર્વાભિમુખ્ય નામના અતિશયના યાગે.
૭૭૪૨૨ સાથેઽવ યોજ્ઞનરાતે = અગ્રની સાથે તે સાગ્ર-સવાસા યેાજન સુધીમાં.
૭૭।૨ ક્ષિતિક્ષિક્ષા=રાજાની આજ્ઞાથી દૂર કરાયેલ (અનીતિએની જેમ) ૭૭ાર શ્રીક્ષેત્રાન્તિમવ: =સ્ત્રી, ક્ષેત્ર-જમીન, પત્ર-ગામ નગર વિગેરેથી ઉભા થયેલ ઉપદ્રવ–ખેડા.
૭૭ારે મરાયો છે ત્તિ-મે=અશિવને ઉચ્છેદ કરનાર ડિણ્ડિમ–ભેરી સમ આપ હાયે છતે.
૭૭ાક અતિવૃષ્ટિ=અકાલે વરસાદ.
૭૭ ૧ Cાવે= હાલતા ચાલતા કલ્પવૃક્ષસમા.
૭૭૨ માસૂમ્ પુકુંજોમિતીયોિિરત મદઃ = તેજના અભાર સમા આપને દેહ, અન્યાને દુ:ખથી જોઇ શકાય તેવા ન અને એ આશયથી, જાણે કે આપનાં સઘળાંયે દેહના તેજને
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એકઠું કરી લીધેલ હોય તેમ આપનાં મસ્તકની પાછળ સૂર્યના
તેજને છતીલેનાર ભામંડલ શોભે છે. ૮૭ જર્મલામુભૂતિ =ગાઢ ઝાડીની જેમ કર્મને મૂળથી ઉખેડી
નાખનાર. ૮૮ નિયામમિત =ક્રિયાના વારંવારના અભ્યાસથી. ૭૮૬ મૈત્રીવિઝાગા=મૈત્રી ભાવનાના પૂનીત પાત્ર સમા. ૭૮૦ કમવિદ્વિષા=ઈન્ટ ઉંચી કરેલી તર્જની આંગળીની જેમ
ઈન્દ્રધ્વજ છે. ૭૨ તામસા હિતામમિષઃ સૂર્યની સન્મુખ અલ્પકારને સમૂહ
સમર્થ બની શકે કે ? દશર ત્યાં પ્રપદ્યામ=આગલના અર્ધાપદ્યમાં આવેલા ત્રણેય પદને
સંબધ, ઉત્તરના ત્રણ પદોની સાથે છે. પૂર્વના પદે કાર્યરૂપ
છે, ઉત્તરના પદે કારણરૂપ છે. રાર સન્નક્ષેમાઇક્રોશમા==જગતના સર્જન, પાલન, અને
નાશમાં ઉદ્યમવાલાઓને. દારૂ કોપરદુરિત=રસના, સ્પર્શના આદિ ઈન્દ્રિના નિર્મ
ર્યાદવિકારોથી પીડાતા દેવોથી–(પેટ અને ઈન્દ્રિય-વિષયથી) રાક પુuપ્રાયમૂ= આકાશના કુસુમ-ફૂલની જેમ નિરર્થક. ૮રા મિરાના = પતિ-પત્નીને પ્રેમસંબધ કામરાગ, પુત્રા
દિપરિવારને વિષે વત્સલભાવ સ્નેહરાગ. સહેજે નિવાર્ય છે. દારૂ ભૂવા =મૂર્ખાઓ તારા વિષે ઉદાસીન રહે છે.
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( ૧૭ ) શ૮ ધfધ વિના નામૂકવેદને અપૌરુષેય માનનાર અને દેવને
સદાને શરીર રહિત સ્વીકારને આ પ્રશ્નનું મૂલ છે. ટફાટ રેસ્ય દેહરહિતને જગતની રચના કરવી શેભ
તજ નથી. ૮રૂાર ગુમાવ=બાલકની જેમ ક્રિીડા કરનાર હોવાથી રાગવાન
હેવાની શક્યતા છે. ૮૩૨૦ સુણરત્યયુનિઝમવિવિશ્વમુ=જ્યારે કરૂણ
નિધાન પરમાત્મા સ્વયમેવ જગતને સરજે છે, તે કાય, વાણી અને મનનાં દુઃખેથી, દરિદ્રતાથી, તિર્યંચનારક આદિ દુર્ગતિઓના પાતથી અને જન્મ–જરા-મરણ વિગેરેના
કલેશથી પીડિતજનને શા સારૂ સરજે ? ૮રા મિમના રિપિનાં સર્વ રીતિ અકિંચિકર એવા આથી
( ઈશ્વરથી) શું ? ૮૩૨ રિક્ષાહિરિ ઈએ પણ અમારા આ મન્તવ્યને અંગે
પૂછવું નહિ આ મૂજબને પરીક્ષકને ઢઢેરો પીટાય છે. દારૂ જ્ઞાત્વે વરિ નમતમ જ સર્વ કાલકસ્થ પદાર્થોના જાણ
વાપણાને કર્તૃત્વ સ્વીકારતા હે તે તે અમને સમ્મત છે. ૮ર૪ મુળેયકમાઇશ અપ્રામાણિક સૃષ્ટિવાદના અભિનિવેશ
અસદાગ્રહને છોડીને. &ાશ છાતનારાનામૌ=વસ્તુ માત્રને એકાત-નિશ્ચયપૂર્વક નિત્ય
જ માની લેવામાં, કરેલાને નાશ, અને નહિ કૃતને આગમ.
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( ૨૮ ) આ બને દોષ આવે છે. ( આ વસ્તુને ગુરુગમથી જાણ
લેવી જરૂરી છે, અત્ર લખતાં વિસ્તાર થાય તેમ છે. ) વાર 7 મો: ગુag: = આત્માને એકાન્ત નિત્ય સ્વીકારવામાં
- સુખદુ:ખને ભાગ ઘટી શકે તેમ નથી. દારૂ વધમોક્ષૌ=જે લેકે એકાન્ત દષ્ટિને રવીકારીને દર્શન વ્યવ
સ્થાને સ્વીકારે છે, તેઓના મન્તવ્યથી બધ–મક્ષ વિગેરે
તો સુસંગત રીતિયે ઘટી શકતા નથી. ૮૪ ચુક્યારે અર્થચિા નદિ અર્થક્રિયા જે પદાર્થમાત્રનું સ્વરૂપ છે,
તે એકાન્ત નિત્યની માન્યતાને ધરાવનારના મતવ્યથી ઘટી
શકતું નથી. લાલ કિલ્લાનિત્યસ્વરૂપતા=જે વસ્તુનું સ્વરૂપ નિત્યાનિત્ય પે સ્વી
કાર્ય બને તે૮૬ માસ્ત્રમાણપ્રસિદ્ધિતઃ= અસત પ્રમાણની પ્રસિદ્ધિથી-પ્રમાણું
- ભાસથી. ૮૭ નાના વત= અનેક પ્રકારના આકારથી મિશ્રિત
જ્ઞાનના સ્વરૂપને સ્વીકારનાર ૮૦ (૮) તથાગત =બૌદ્ધ. ૮૨૨ (૨) જો વૈષ વાં=નૈયાયિક અને વૈશેષિક કઈ રીતિ
અનેકાન્ત-સ્યાદ્વાદને ખંડિત કરી શકે તેમ નથી. ૮૨૨(૨૦) સંથાવતi=બુદ્ધિવાનને મુખ્ય. દારૂ(૨૨) અરજી કુહતિ મુવી=જેની બુદ્ધિ, પરલેક, આત્મા,
અને મેક્ષ વિગેરેમાંજ મૂંઝાઈ જાય છે,
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( ૧ )
'
૮૧૪ (૨) વસ્તુ વસ્તુલક્=વસ્તુૠત્યા સત્ વસ્તુને. (આ પા ટીકાકારને સમ્મત છે. અન્ય મુદ્રિત પુસ્તકામાં · વસ્તુતતુ સત્’ એ મૂજબ છે. )
૮૨ વદ્ધતેઃ મ્=( ટીકાકારને આ પાઠ સમ્મત છે. અન્ય મુ. પુ. માં વક્તે છે. )
દ્દાર શ્રાદ્ધ: શ્રોતા=સાંભલનાર વર્ગ શ્રદ્ધાલુ, ખેલનાર બુદ્ધિમાન– સમસ્ત શાસ્ત્રના અભૂત રહસ્યના રસસાગરને અવગાહી શકે તેવી સમ બુદ્ધિને ધરનાર.
૮ારૂ ને વામોયે= પ્રતિકૂલ આચરનાર કલિયુગપર ફાગઢ ગુસ્સા કુરીચે છીએ.
૮ાઇ જિવ ષો: =કલિયુગ-દુષમ કાળ એજ કસોટી છે. ૮૩૧ તુજી નેધà=અગ્નિ વિના કૃષ્ણાગરૂ–ધૂપની વાસ મ્હેકતી નથી.
૮ારૂ વર્શનવિનાળતઃ=તારા દર્શીન વિના.
૮ા૭ સ્વત્તઃ ઋદ્ધિશોમત = ઘણા દોષવાળા કલિકાલ પણ તારા જેવા સ॰થા દોષમુક્ત પુરૂષથી શાભે છે.
૮૭।શ્ વપ્રસાાનિય પુનઃ = હે નાથ ! સમભાવવાસિત બનવાથી મારા મનને હું પ્રસન્ન કરીને તારી આજ્ઞાને સારી રીતિયે આરાધું તાજ તારી મહેરબાતી. ( અને તે સમભાવના તારાજ આલંબનથી છે. )
૮૭ાર તુળસ્તુોક્તિ વસ્તુત: =આથી બીજો તારા કયા ગુણ સ્તુત્ય છે ?
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( ૨૦ ) ૮૭રૂ નિશ્ચિ મંદિ= એક બાજૂયે બહારથી વિષાના સુખને
સંગ, જ્યારે મનની વૈરાગ્યદશા બીજી બાજૂ. ૮૭૪ સુરા દતાં ચમ=સંભવિત બનવા છતાંયે એ દુઃસંભાવ્ય
કઈ રીતિયે ઘટે ? છા ટૂ વિ સ્તવ= હે ભગવન! તારા જીવનમાં જે બન્ને
ઘટનાઓ પરસ્પર વિરોધી છે, તે અન્ય કેઈનાયે જીવનમાં નથી. ૮૭૬ વરસ ચાઈર્વિસુ જેના પાંચેય કલ્યાણક પર્વના દિવસોમાં ૮૮ાર ચાપિ ન =બૌદ્ધાદિ અન્યદે, સુધિત આત્માઓને
પિતાના દેહના દાનથી પણ– ૮ટાર રીમાન્તગુનો =રાગાદિ આન્તર શત્રુઓને વિષે ચંડવૃત્તિ,
અને સર્વ જગતમાત્રના સર્વેની પ્રત્યે કાન્ત-કૃપાભાવ, ૮૮૩ મરડy= સર્વદા સર્વરીતિ અને વિષે. ૮૧૪ રામામ=સ્તુતિને કરનાર મારી સ્તુતિના વિષય સ્વામી
બન્યા. (અન્ય મુ. પુત્ર માં “રામ” પાઠ છે, પણ ટીકા
કારને સન્મત પાઠ * મારામ’ છે.) ટસ વિમા =હે સ્વામિન ! સુન્દર પ્રકારના પૂર્વ ભવના અભ્યા
સથી તેવી રીતિયે વૈરાગ્યની ઉન્નત સ્થિતિને આપે જીવનમાં
એકરસ બનાવેલ છે. હાર સુરતg વૈરાચં= હે જગન્નાથ! મોક્ષના ઉપાયને વિષે સાવધ
એવા આપને જેવી રીતિયે સુખના કારણેમાં વૈરાગ્યરસ અમન્દ રીતિયે હેતુવિના મેક્ષની પ્રાપ્તિ સુધી વહેતે જ રહે
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( ૨૧ ) છે, તે રીતિને દુઃખનાં કારણોમાં ક્ષણિક હેવાને કારણે તે
વૈરાગ્ય રહી શકતું નથી. શરૂ વિરારા ઊ=વિવેકની સરાણ ઉપર. ( ટીકાકારને “રા”
પાઠ સમ્મત છે. ) ટાઇ તિ=સરણપર ચઢાવેલ. ૨બર અનાદૂતારામ=બેલાવ્યા વિના સહાય આપનાર. ૨૦ાર અનરસિધમાક્ષસ્નેહ દશાવિના પણ સ્નેહાલ-કૃપાળુ
મનવાલા આપને. ૨૦૩ અરવીન્નતિના= સુભટત્રત કડીન-ચંડ હોય છે, જ્યારે તે
કૃપાસાગર ! આપ અચંડ સુભટવ્રતથી-( ટીકાકારના મતે
વી વ્રતિના' પાઠ છે. ) ૨૪ ગમવાર નહેરા =ભવ નહિ હોવા છતાંયે મહેશ-મહાદેવ એવા
આપને નમસ્કાર. (લેકમાં મહાદેવને ભવ કહેવાય છે. ) ૨૦ાવ અનુાિતા =સચ્ચાવિનાના પણ આલેક અને
પરલેકનાં ફળેથી પરિપૂર્ણ આપથી– ૨ાદ પરનુણાનવો =હે ત્રિલકબળે ! આપને કોઇપણ
ફલ મેલવાનું હવે બાકી નથી, કારણ કે આપ પિતે જ ફલ સ્વરૂપ છે-સિદ્ધ છો, જ્યારે હું ફળ સ્વરૂપ આપના ચિંતન
ધ્યાનથી વંધ્ય છું–રહિત છું. ૨ાશ મન:ફાળું વિનિતમ્aહે નાથ ! સ્વભાવથી જ આપે શલ્ય
સમા મનને છૂટું પાડી નાખ્યું.
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( ૨૨ )
શાર ચન્દ્રિયલય: ધૃતઃ = તેવા પ્રકારના અભ્યાસના યેાગે વિષયેાથી પેાતાની મેળેજ વળેલી ઇન્દ્રિયાને તે જીતી લીધી.
૨૨૩ આવાજમાવતોડવ્યેષ:=જન્મકાલથી-આબાલભાવથી જ આપ પેાતે ચેાગસ્વરૂપદશાને પામી ચૂકેલ છે.
શ્રાદ્ધ સ્વામિન મૌજિમ = જન્મથી માંડીને યાગને નહિ જોવા છતાંયે ( અભ્યાસદારાયે ) આપનું યાગમાં પ્રભુત્ત્વ તે સાચેજ અલૌકિક છે.
ગણાતા લેાકા, ઉપકારને વિષે તત્પર અન્યાપર તેવી કરુણા રાખી શકતા નથી કે જેવી અપકારી જાપર આપ રાખેા છે.
રાય ઉપજાવરે જે તારા શાસનથી બાહ્ય દેવ
૧૨૬ દિલા બબ્રુવતા=હિંસક ગણાતા ચંડકૌશિક જેવા પર આપ ઉપકાર કરવા તત્પર થયા, જ્યારે આશ્રિત શ્રીસુનક્ષત્ર મુનિ વિગેરે જેવાપર ઉપેક્ષાવૃત્તિને રાખી શકયા.
૨૨૭ ધ્યાતા ધ્યેય તથા યાનં=ધ્યાતા, ધ્યેય, અને ધ્યાન તારા વિષે એકસ્વરૂપ અનેલ છે.
રૂાo મુય જ્ઞાનથી=ઉદ્દાત્ત શાન્ત મુદ્રાથી જ આપે ત્રણેય જગતને જીતી લીધા છે.
૨૨ાર મોહિત =જે પાપવાન લાકાએ તને અવજ્ઞાભાવથી જોયે છે, તેનાથી તારી કાંઈ લઘુતા નથી જ થઇ. ( પેન્નિતઃ એ પાઠ ટીકાકારને સમ્મત છે. )
૨૩/૨ ૩૯મુન્નાભરધારિતમ્=સળગતા અંગારાને ધરનારી દિને.
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( ૨૩ )
૨૪ તમાજીનુŕળ:=એવાને અગ્નિ સાક્ષાત્,( આગલનું પદ્ય સ્તુતિકાર શબ્દો દ્વારાયે ઉચ્ચારવાને ઇચ્છતા નથી. )
૨૬ (૧), અનેડમૂ =હેરા અને મૂંગા. ૨૩૭ ( ૬ ), ગુમોર્ય=સારા ભાવિને માટે.
૧૩:૮ (૭ ), ચત્તુળન્નામામળીય૭વટ: = તારા ગુણસમૂહની રમણીયતા—સુંદરતાના હું લપટ થયા
૧૩।ર પાળયન્તિ=મને પરમ આનન્દ–સંપત્તિને પ્રાપ્ત કરાવે છે. ટીકાકારને પાપતામ્
કાર પ્રચ્છન્નપાવતામ્ = છૂપી પાપદશાને. પાઠ સમ્મત છે. )
૨૪ારૂ કોચવાદમ્ =મેાહાદિથી ક્રીડાની જેમ હું ક–િવાનરની પેઠે ચપળતાને પમાયા છું. ( છીયેવદમ્ પાઠ ટીકાકારને સમ્મત છે. )
કાર્રૂ, ( ૪ ), તીર્=તારી સ્તુતિ, સેવા, વિગેરે કરી શકું તેટલી સ્થિતિએ હું આવ્યો છું, તે તારી મહેરબાનીથી જ,
૨૪।૨૪ (૧), ચાત્યન્નર્મદ:=મારા અંગે જે યોગ્ય લાગે તે કાર્યને કરવાને તું સમ બન.
ધંધાર્ં સ્વમૂતાન્=તારા અરિહંતના ફળ સ્વરૂપ સિદ્ધોને. ફ્ર માં મુત્ર:=શરણે આવેલા મારાવિષે શરણ્યભાવને તું મા મૂક ( મામુન્નઃ પાઠ ટીકાકારને સમ્મત છે. )
પુ. માં મૈં નેત્રત્ર પાઠ સમ્મત છે. )
શ? 7 નેત્રયગાત્રાહિ=( અન્ય મુ. . પુ. માં વસ્ત્રાહિછે, પણ ટીકાકારને આ
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( ર ) ઉધાર ન કાકાનનવિના વિદિતા =જગતના સર્જન,
પાલન અને નાશમાં હે ભગવન્! આપે પ્રયત્ન આચર્યો નથી.
આચરવાની આપને જરૂર નથી. ઉદ્દારૂ સર્વ સ મ્ય =એ મૂજબ આપ સર્વ દેવો કરતાં– રાક મનુબ્રોત - પાણીના પ્રવાહની અનુકૂલ ગતિ કરતાં પાન, તૃણ,
કાષ્ટ વિગેરે પ્રતીત થઈ શકે છે, પણું– હાથ જૈન તારાં દેવત્વની પરીક્ષાની ધીઈથી સર્યું. ઉદ્દા સર્વહકારી તુagવસ્ટાન્=સર્વ સંસારીજનોના આચ
રણથી જે વિલક્ષણભાવ, તેજ તારૂં દેવત્વ-દેવલક્ષણ. છાર તા જેતસિ= હે વીતરાગ ! તારા હૈયામાં મારું સ્થાન હોવું
એ તે વાર્તાપે પણ દુર્લભ છે, છતાંયે જે તું સાચે મારા
ચિત્તમાં વસી જાય તે માટે અન્ય સઘળાથી સર્યું. ૨૭ારૂ ( ૨ ), vયા = પૂજાથી. ( અન્ય મુપુ. માં પર્યાવર
પાઠ છે, પણ ટીકાકારને આ સમ્મત છે. ] ૨૮૪ (૩) મુષ્ટિ =સાર. ૨૮ (૪) કરારના =હે વીતરાગ ! તારી મહેરબાનીરૂપ,
દીનતાની કોઈ જરૂર નથી, કેવળ તારી આજ્ઞાથી જ સંસારી
જતુઓ કર્મvજરથી મૂકાઈ જાય છે. ૧૮૬ જુથપરમાણુળોમ=પુણ્યના પરમાણુકણે સમાન. ૧૮૭ વિઢિ= ઘાની-ક્ષતની શ્રેણ.
૧૪
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( ૨ )
૧૮૮ સુન્તામ્=( આ પાડ ટીકાકારને સમ્મત છે, અન્ય મુ. પુ. માં જીન્તામ્ છે. )
૨૨:૨૬ નિનિમેષતા=નિાંને મેષપણું,દેવપણું. ૨૬:૨૦ સ્વસ્થતઐ=આ વાણીનું પણ કલ્યાણ. ૧૨:૨૨ શ્રીહેમનુંપ્રમવાર્=શ્રીહેમચન્દ્રસૂરિએ રચેલ આ વીતરાગ
સ્તવથી.
ર્શ્વાર્થનવિજ્ઞાનમ્ =આ ક્લાકના શરૂના બે ચરણાથી ચાર અતિશયેાનાં સૂચન દ્વ્રારાયે શ્રીવ માનસ્વામીની સ્તુતિ
ગ્રન્થકારી અત્ર કરે છે.
૨૦કાર પૃદયાલુ વ=હે જિન ! તારા અન્ય ગુણાને વિષે આ જન, મમતાવાલા છે, પણ કેવલ એક યથાવાદને જ અવગાહન કરવાને તૈયાર થા.
૨૦ા૨ે ન માવાન્તનેય
દ્રવ્ય ગુણુ કર્મ સમવાય વિગેરે અન્ય
પદાર્થોથી પ્રતિતિને પામી શકે તેમ નથી. ર૦ાઇ પ્રજાપા:=એકાન્તના આગ્રહપૂર્ણાંકના પ્રલાપા. ૨૦બા ત્રિતયં=ધમ, ધર્મી અને તેને સંબંધ. ૨૦ાદ અત્તરીય =તારા સિદ્ધાન્તાને નહિ માનનારાઓથી. ૨૦૦૭ અતવવાોપતા:=તત્ત્વવાદની વિરૂદ્ધની પરિસ્થિતિને સ્વીકારવાથી પીડિત બનેલા.
૨૦ા૮ મુનિરન્ચરીયઃ તારાથી અન્યશાસનમાં રહેલ ગૌતમમુનિ. ૨૦ા૨ પ૨ેવા પેાતાના પુત્રના નાશથી. રાજા બનવાની ઈચ્છા સમાન, તે પરમતવાલાએનું આ મન્તવ્ય છે.
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( ૨૬ )
૦૬ાર॰ =પરશાસનમાં રહેલા.
દ્દા મવરવામ=આપનાથી જૂદા મત ધરાવનારાઓની. ૨૦દ્દાર બતાવાના=હે જિન ! તારા શાસનથી રહિત લેાકેાની. ૨૦દ્દારૂ નૐ મૈં ગ્રચિત-જડપુરૂષ એ-સાંખ્યાએ પાતાનાં શાસ્ત્રોમાં પૂર્વાપર વિધપૂર્ણાંકનું કેટલુ" નથી સ્વીકાર્યું ?
૨૦ાઇ સુતનુજ્ઞા = બુદ્ધની ઇન્દ્રજાળ,
૨૦દ્દા′′ પતે = હું વીતરાગ ! તારા શાસનથી પર–ણિકવાદી બૌદ્ધ મહા સાહસિક છે.
૨૦/૬ તરતના શરાન્તોતમ્યાયાત્ = સમુદ્રની મધ્યમાં રહેલા જહાજપર ઉડતુ શત્રુન્તપક્ષી, કિનારાની શેાધમાં ઘેાડે દૂર નજર કરી, ગંભીર અને અપાર સાગરથી સુદૂર રહેલા કિનારાને નહિ જોવાથી પાછું તે જહાજપર આવી જાય છે, તે મુજબ. ૨૦૫૨૭ સૂપપામ્=સુખપૂર્વક ન ઘટી શકે તે
૨૦૭૨૮ આવેરામતિનતમમ્=વિકલાદેશ અને સકલાદેશ એ મૂજબના આદેશભેદથી પંડિતજાને સમજી શકાય તેવી સાતભંગીઓની પ્રરૂપણા આપે દર્શાવી.
૨૦૨૨ નવાઃ=શ્રી જિને પ્રરૂપેલ અનેકાન્ત વ્યવસ્થાને નહિ સમજતા જડ-અબુધ લેાકેા કેવલ એકાન્તવાદથી હાઇને પછડાય છે. ૨૦ા૨૦ વિપશ્ચિતાં નાથ ! હું બુદ્ધિમાન જનાના પૂજનીય નાથ ! ૨૦૭ાર? જૈવિદ્યુતમ્ = એકાન્તવાદને સ્વીકારનારા–જિનશાસનથી પર લાકે જગતના સભ્યગૂનાન-દર્શન આદિ ભાવપ્રાળુના લૂંટનારા બન્યા છે.
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( ૨૭ ) ૨૦૦રર સ્વમાSS =દુર્નયમાર્ગનું આપે નિરાકરણ કરેલ છે. ૨૦૮ર૩ થશા ન રોષ = અનઃ સંખ્યાથી જે રીતિ આપે છે જવ
નિકાયની પ્રરૂપણ કરી છે, તે તેવીજ રીતિયે નિર્દોષ છે. ૨૦૮ ર૪ મતથા તે તારૂં શાસન નિષ્પક્ષપાત છે. ૨૦૮ર વહેમ ચન્દ્રવુતિપાદor=એક રીતિયે સ્તુતિકાર શ્રી
હેમચન્દ્રસૂરિશ્વરજીનું પિતાનું નામ પણ સમજાઈ જાય છે. ૨૦૧૨ ગામમહેં-આત્મસ્વરૂપ શ્રી વર્ધમાનજિનને. ૨૦૧૨ રિઝ 7 રોચ =મોટા હાથીઓના માર્ગે જતું નાનું હાથીનું
બાળક ખલના પામે છે તે શોચનીય નથી. ૨૦૧૩ તુરાઘોડાના શિગડાઓને પેદા કરનારાઓ. ૨૦૧૪ ગુમાસ્ત્રપિતા=પતે કુમાર્ગમાં ડૂખ્યા છે. ૨૦૧૫ પારિખ્ય વસ્તુના અંશમાત્રને સ્વીકારનારા. ૨૦૧ થેસ્વાદુ, હિતકર, એવા પથ્થભેજનમાં. ૨૨૦૭ રાગમાં વિસ્તારમાં આગ એજ. ૨૨૦૮ પર થg=પર વાદિઓથી કઈ રીતિયે. ૨૨વા૨ અર્થ = =જે આ લેક તારા શાસને સ્વીકારેલી બાબતમાં
- વાદ કરે છે, યા શંકા રાખે છે. ૨૨૨૦ મોમાઈ=આપના શાસનથી આઘા રહેનારાઓ મરણ
પામીને એક દુનિયાથી મૂકાવા છતાયે વાસ્તવિક મેક્ષને
મેલવી શક્તા નથી. ૨૨ ૨૨ જિમુ અને ? શું હરકત પહોંચાડી શકશે કે ?
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( ૨૮ ) ૨૨૨ સધવપુપરવાદિઓના દેવતાઓને વિષે. ૨૨બ૨રૂ સમાધિમાથરશ્ચસુબ્રતોતિ = અહિં. પાઠાન્તરમાં
સમાધિમાચાર ગુnતોગણિ પણ છે. ૨૨૪ ટૂથ દ્વા =અપક્ષપાતપણાથી વિચારતાં તારા શાસન અને
ઇતરશાસન એ બન્નેની બે વસ્તુઓ અનુપમ દેખાય છે. ૨૨૬ દ્વિ =તારે સેવક હું. ૨૬ મનોમન કામ-વિષયાભિલાષથી. ૨૨૨૭ મોડયુવતH=કેવલ અધુરાગથી તારે વિષે હે વિતરાગ !
પંડિતાનુ મન રાગી નથી બન્યું. ૨૨૨૨૮ મત્સરિ નારા=સેવાઓ મત્સરી-ઈર્ષાલુ લેકેની
સરખી કોટિમાં આવે તેમ છે. ૨૨ા૨૨ અઘોષળ =ડડીમ વગાડવા પૂર્વક જાહેર કરું છું. શરાર પુતારા શાસનથી પર રહેલાઓને વિષે, અંગત ષમાત્રથી
અરૂચિ નથી. ૨૨રાર મહેમ રબ્રાંશુરાઘાત-સ્તુતિકારનું નામ આમાં સમજી
શકાય તેમ છે. રાપર માન ! રડતુર=
દની કલુષિતતાથી પર આપ એકજ છે. તે કારણથી આપને નમસ્કાર.
I દ્રિતીય ઉધ્યાયઃ સમાત: "
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तृतीयः अध्यायः
રા? તમયમur =તન્મય મનવાલા બનીને. શરૂાર વા#િપ પારકાના ઉપકારમાં તત્પર. રકારે ઉજ્જા=શ્રી ઉપાધ્યાયને. શિક્ષક નિરરંગનિરૂક્ત પૂર્વકિથિત. ૨૨પાક મરિમાનમા=ભક્તિના સમૂહથી નમી પડતા. ૨૨ ચંદુનવરિપૂર ચન્દ્રના જેવા ઉલ કેવલ
જ્ઞાનની કીર્તિના સમૂહથી. ૨૨૭ સેવાના કાર=સેવાને સારૂ આવેલા નિર્મદ-અભિ
માન વિનાના રાજાઓ. ૨૨૮ રાજસમનમવામચનિવાર =સાગરની જેમ સમતાઅમૃ
તના નિવાસસ્થાન હે પ્રભો ! શકાર ક્રાણુન્નસંગમસીરીઝ! કાસનાં પુષ્પની જેમ નિર્મલ
એવા સંયમ અને શીલની લીલાવાળા પ્રભ! ૨૨કા૨૦ માવચગાર !=ભાવલય-ક્ષપદથી અલંકૃત.
દ્વા૨ ઘarguથમય =શ્રસિદ્ધચક્રના નવ પદોમાંના પ્રથમપદમય. સદ્દાર રમતમતમતમારૂા .=અત્યન્ત અસમાન,
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( ૨૦ ) બહુજ વિસ્તારને પામેલા અન્ધકારને હરવાને સારૂ એક
અસામાન્ય પ્રદીપ-દીપ સમાન ! ૨દ્દારૂ વિિરજિનશ્રી મરૂદેવા માતાના ઉદરપ
ગુફાને વિષે સ્થાન મેળવનાર બાલસિંહ ૨૧દાર ધોમુદ્દેયંતિ=ર ભુજાદંડથી પ્રચંડ મેહને ખંડિત
કરનાર. શદ્વાર ટુરિમયાન!–હાથીની જેમ પાપસમૂહને નાશ
કરનાર સિંહ ! ૨૨દ્દા કામરાજસ્ટિસવિંટાળ=ઉત્તમ અને તપેલા
સુવર્ણ કલશના સમાન સંસ્થાનવાલા ! ૨૮૭૭ વિતાવ=મન મન્દિરમાં. ૨૨૮૨૮ તામિ નિયં=આશંસાવિના આગમિક-આગમકથિત
આ તપને તપો. ૨૨૮૨૧ સમાધિrdi=સમતારૂપી તીણધારાવાલા ક્ષાતિરૂપ
ખથી. ૨૨૪ર૦ મિલિય-આઠ પ્રકારના સદસ્થાનરૂપી આઠ
- મહાન શિખરેવાલે. ૨૨ા૨ મવિશવજોf=માવતા એજ એક વજથી. ૨૨૨૨૨ કોસુમપચંમરમો કૌશુંભ પતંગ અને મજીઠેસ
માન રાગવાલા ત્રણેય પ્રકારના રાગે. ૨૩૮ તરિણાનાધ્યાપિકા =સેવકલેકેની ચિન્તાઓથી : નાથ
વૃત્તિને કરનાર.
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( ૧૨ ). ૨૨૮ીર મવમુત્ય આપને સ્વીકારીને. શરૂડારૂ ચઢારિ =ગલચીને પકડીને. શરૂડાક વતર્મા !=મલીનતાને જેમણે દૂર કરી છે. રૂાક દાતિવિસ્ટાણાક્ષમાર્ટીન !=હાસ્ય શસ્ત્રોને વિલાસ,
જપમાલા વિગેરેથી રહિત. છol માપસરા તી તારા શરણને પ્રાપ્ત કરનાર મુજસમા
| દીનને વિષે. ૧૪૭ રવિિના !=શુભભકિતથી વશ્ય ! શશ૮ વાગવધારિતો નથી= હે જિન ! તારા દ્વારાયે ઉપેક્ષિત. ૨૪૨૨ સાક્ષાસૂતા જમાવી=જેણે સર્વ અન્યભાવને સાક્ષાત્કૃત
- કર્યા છે, શર૦ વિદ્યાર્મરાવમૂનાશ પામી ચૂકયા છે, કમરૂપ કાશક
જેનાં તેવું મારું ચિત્ત. ૪૨૨ મોઇરાકી =મારી ભુજારૂપ શિખડિક-કલગી
વાલે. કરા૨૨ સ્ક્રીસ્ટાવકલ્પ =અસ્પષ્ટ અક્ષરના ઉલ્લાપને
કરનારે. ર૪ર૪(૩) સૂરસિં=લૂડની જેમ શ્કરાર હે ! વા =હે દેવ ! તેને તું રેક ૪૩૨૬ જાથાતિવ= દુશ્મનની જેમ કષાયના સમૂહથી
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( ૧૨ )
શ્વા૭ અન્તત્તે વિપુસંધાતઃ = અંદરના શત્રુસમૂહ. કામ-ક્રોધાદિ રાત્રુ વ
II{o સાઈડચત્તો મો છો !=હે નાથ ! સસાર તારે આધીન છે.
ષ્કાર॰ નિતિજોન્નાપમ્ =અભાગીના આલાપને. ૪૪ાર ઉસ્ત્વજ્ઞાચિત પુનઃ=સ્વપ્નમાંથી ઉઠયાની જેમ વ્ય. ૨૪ષ્કાર-રૂં અધાટવિ જ્વાળમ્ =ધડ્યાવિનાનું સુવણું સારી રીતિયે ઘડેલા માટીના ઘડાથી જેમ પ્રશસ્ત છે.
ઉકાઇ અનક્ષત્તે જવુઃ=અક્ષર પાડયા વિનાને લેખ. ૪૪ાખ હિમ્=આ લેાક સબન્ધી.
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परिशिष्ट बीजूं-(२) ग्रन्थना प्रथम अध्यायमा प्रकाशित थयेलां, श्रीत्रिषष्टि-प्रथम पर्वनां श्री जिनस्तवोमांनां शेष रहेलां
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( ३५ ) श्री आदिनाथ जिन-स्तवः । असद्भूतान् गुणान् जल्पन्, जनः स्तोतीतरं जनम् । गुणान् सतोऽपि ते वक्तुमक्षमोऽहं स्तुवे कथम् ? ॥१॥ तथापि हि जगन्नाथ !, करिष्यामि तव स्तुतिम् । . न ददाति दरिद्रः किं ?, श्रीमतामप्युपायनम्
॥२॥ युष्मात्पादैदृष्टमात्रैरन्यजन्मकृतान्यपि । गलन्त्येनांसि, शेफालीपुष्पाणीन्दुकरैरिव दुश्चिकित्स्यमहामोहसन्निपातवतामपि । स्वामिन् ! जयन्ति ते वाचोऽमृतौषधिरसोपमाः ॥४॥ चक्रवर्तिनि रके वा, कारणं प्रीतिसम्पदाम् । समास्त्वदृष्टयो नाथ ! वार्षिक्य इव वृष्टयः क्रूरकर्महिमग्रन्थिविद्रावणदिवाकरः। स्वामिन्नस्मादृशां पुण्यैरिमां विहरसे महीम् शब्दानुशासनव्यापिसंज्ञासूत्रोपमा प्रभो ! जन्मव्ययध्रौव्यमयी, जयति त्रिपदी तव ॥ ७॥
*श्री भरत-सुन्दरीभ्यां विहितः,
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( ३६ ) यस्त्वां स्तौतीह भगवस्तस्याऽप्येषोऽन्तिमो भवः । शुश्रूषते ध्यायति वा, यः पुनस्तस्य का कथा ?
॥८॥
१ *श्री ऋषभादितीर्थकृतां स्तवः । कल्याणैः पंचभिर्दत्तसुखाय श्वभ्रिणामपि । जगत्सुखकर ! नमस्तुभ्यं त्रिजगदीश्वर ! ॥१॥ स्वामिन् ? विश्वजनीनेन त्वया विहरताऽन्वहम् । रविणेवाऽनुग्रहीतं, चराचरमिदं जगत् ॥२॥ अप्यार्याणामनार्याणां, प्रीतये व्यहरँश्विरम् । गतिः परोपकाराय, भवतः पवनस्य च ॥३॥ उपकर्तुमिहाऽन्येषां, व्यहार्भिगवंश्चिरम् मुक्तौ कस्योपकाराय, गतोऽसि परमेश्वर ? ॥४॥ लोकायमद्य लोकामं, भवता यदधिष्ठितम् । मर्त्यलोकोऽयमद्यैव, मर्त्यलोकस्त्वयोज्झितः ॥५॥ अद्याऽपि साक्षात् त्वमसि, तेषां भव्यशरीरिणाम् । विश्वानुगृहकरिणी, देशनां ये स्मरन्ति ते
* श्रीऋषभप्रभोर्निर्वाणादनन्तरं श्रीभरतनरदेवेन अष्टापदादौ विहितः
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॥ ८ ॥
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॥ १० ॥
( ३७ ) उपस्थमपि ये ध्यानं, त्वयि नाथ ! प्रयुञ्जते । प्रभो ! प्रत्यक्षमेवाऽसि तेषामपि महात्मनाम् यथा संसारमत्याक्षीरशेषं परमेश्वर ! | निर्ममोऽपि तथा जातु, मा त्याक्षीर्मानसं मम जयाsजित ! जगन्नाथ ! कषायविजयाजित ! | विजयाकुक्षिमाणिक्य ! जितशत्रुनृपात्मज ! जितारिसूनो ! श्रीसेनाकुक्षिसम्भव ! सम्भव ! | भवव्योमातिक्रमणप्रभाकर ! नमोऽस्तु ते सिद्धार्थापूर्वदिक्सूर्य ! संवरान्वयमंडन ! | ! विश्वाभिनन्दन ! विभो ! ऽभिनन्दन ! पुनिहि नः ॥ ११ ॥ भगवन् ! मंगलादेवीमेघमालैक मौक्तिक ! । मेघान्वयाऽवनीमेघ ! सुमते ! भवते नमः स्वामिन् ! धरधराधीश सरित्पतिनिशाकर ! | सुसी माजाह्नवी पद्म ! पद्मप्रभ ! नमोस्तुते श्रीसुपार्श्वप्रभो ! पृथ्वीमलयावनिचन्दन ! | श्री प्रतिष्ठकुलगृहपतिष्ठास्तम्भ ! पाहि माम् महसेनान्वयनभश्चन्द्र ! चन्द्रप्रभ ! प्रभो ! | भगवन् ! लक्ष्मणाकुक्षिसरसीहंस ! रक्ष नः ॥ १५ ॥
॥ १२ ॥
॥ १३ ॥
॥ १४ ॥
॥ ७ ॥
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( ३८ ) श्रीरामानन्दनाराममहीकल्पमहीरुह !। सुग्रीवसूनो ! सुविधे ! विधेहि शिवमाशु नः ॥ १६ ॥ नन्दादेवीहृदानन्द ! स्वामिन् ! दृढरथात्मज!। जगदाहादशीतांशो ! श्रीशीतल ! मुदे भव ॥ १७ ॥ श्रीविष्णुदेवीतनय ! विष्णुराड्वंशमौक्तिक !। निःश्रेयश्रीरमण ! श्रेयांस ! श्रेयसे भव ॥ १८ ॥ जयाविदुरभूरत्न ! वसुपूज्यनृपात्मज !। वासुपूज्य ! जगत्पूज्य ! विश्राणय शिवश्रियम् ॥ १९ ॥ श्यामाशमीशमीगर्भ ! कृतवर्मनृपात्मज !। भगवन् ! विमलस्वामिन् ! विमली कुरु मे मनः ॥ २० ॥ श्री सिंहसेनभूपालकुलमंगलदीपक !। सुयशःस्वामिनीसूनोऽनन्तोऽनन्तं सुखं तनु ॥ २१ ॥ सुब्रताप्राग्गिरितटीभानो ! भानुनृपात्मज !। श्री धर्मनाथ ! भगवन् ! धेहि धर्मे धियं मम ॥ २२ ॥ विश्वसेनकुलोत्तंसाऽचिरादेवीतनूद्भव !।। श्री शान्तिनाथो भगवन् ! भव नः कर्मशान्तये ॥ २३ ॥ सूरान्वयवियत्सूर ! श्रीशशीकुक्षिसम्भव !। कुन्थुनाथ ! जगन्नाथ ! जयोन्मथितमन्मथ! ॥ २४ ॥
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( ३९ ) देवीशरच्छीकुमद ! सुदर्शननृपात्मज !। अरनाथ ! वितर मे, भवोत्तरणवैभवम् ॥२५॥ कुम्भाम्भोधिसुधाकुम्भ! प्रभावत्यङ्गसम्भव !। कर्मक्षयमहामल्ल ! मल्लिनाथ ! शिवं दिश ॥२६॥ सुमित्रहिमवत्पन्नहृद ! पद्मावतीसुत !। मुनिसुव्रततीर्थेश ! नमस्ते परमेश्वर ! ॥२७॥ वातावज्राकरमहीवज्र ! श्रीविजयात्मज !। जगन्नमस्यपादाब्ज ! नमस्तुभ्यं नमिप्रभो! ॥२८॥ शिवगामिन् ! शिवासूनो ! समुद्रानन्दचन्द्रमः । अरिष्टनेमे ! भगवन् ! नमः कारुणिकाय ते ॥२९॥ अश्वसेनावनीपालकुलचूडामणे ! प्रभो !। वामासूनो ! नमस्तुभ्यं, श्रीमत्पार्श्वजिनेश्वर ! ॥ ३० ॥ सिद्धिसम्प्राप्तिसिद्धार्थ ! सिद्धार्थनृपनन्दन ! त्रिशलाहृदयाश्वास ! श्री वीर ! भवते नमः ॥ ३१ ॥
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નથી સ્વાધ્યાય સમું
બીજું તપકર્મ જગમાં;
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________________ स्वाध्यायधर्मनी महत्ता चारसविहम्मि वि तवे सभितरबाहिरे कुसलदिट्टे / नवि अस्थि नवि अ होई सज्झायसमं तवोकम्मं // -કુશલ પુરુષોએ ફરમાવેલ ખાદા અને આભ્યન્તર, એ રીતિએ બારેય પ્રકારના તપને વિષે સ્વાધ્યાયસમું તપકર્મ કઈ છે નહિ અને થનાર નથી. કારણ કે :सज्झायेण पसत्थं झाणं जाणई अ सव्वपरमत्थं / सज्झाये वट्टन्तो खणे खणे जाई वेरग्गं // –સ્વાધ્યાયથી નિર્મલા ધ્યાન ઉપજે છે, સ્વાધ્યાયના ચેપગે સર્વ પરમ રહસ્યોનું જ્ઞાન થાય છે, અને સ્વાધ્યાયમાં સદાકાલ રમનાર ભાવુક આત્મા ક્ષણે ક્ષણે વૈરાગ્યભાવમાં વૃદ્ધિ પામે છે.