________________
कारणके स्वाध्याय विना सघलीये आत्मसाधना छाळपर लींपणनी जेम वास्तविक फलथी वन्ध्य छे.
बारेय प्रकारना तपधर्ममा ' स्वाध्याय'-तप आत्मकल्याणने माटे परम आलंबन समान छे; परमज्ञानी पुरुषो स्पष्ट रीतीये स्वाध्यायधर्मनी महत्ताने आ शब्दोमां प्रतिपादे छे"बारसविहम्मि वि तवे सभितरबाहिरे कुसलदिडे । नवि अत्थि नवि अ होही, सज्झायसमं तवोकम्म।।१।।"
[कुशल पुरुषोए फरमावेल, बाह्य अने आभ्यन्तर बारेय प्रकारना तपने विषे, स्वाध्यायसमुं तपकर्म कोइ छे नहि अने थनार नथी. ]
कारण के
" सज्झायेण पसत्थं झाणं, जाणइ अ सत्वपरमत्थं ।
सज्झाये वट्टन्तो, खणे खणे जाइ वेरग्गं ॥२॥"
[ स्वाध्यायथी प्रशस्त-निर्मल ध्यान आवे छे, तेमज स्वाध्यायना योगे सर्व परमरहस्योन ज्ञान थाय छे, अने स्वाध्यायमां सदाकाल रमनार-आत्माराम जीव क्षणे क्षणे वैराग्यभावने पामे छे. ]