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। मालावस्श राजपूत चारण पुस्तकमाला-१०
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संकलनकर्ता तथा संपादक
अगरचंद नाहटा
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नागरीप्रचारिणी सभा, काशी
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प्रकाशक : नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी मुद्रक : शभुनाथ वाजपेयी, राष्ट्रभाषा मुद्रण, काशी प्रथम संस्करण, ११०० प्रतियाँ, संवत् २०१६ मूल्य २)
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ग्रंथमाला का परिचय
जयपुर राज्य के अंतर्गत इणोतिया ग्राम के रहने वाले बारहट नृसिंहदास जी के पुत्र बारहट बालाबाख्राजी की बहुत दिनों से इच्छा थी कि राजपूतों और चारणों को रची हुई ऐतिहासिक श्रोर ( डिंगल तथा पिंगल ) कविता की पुस्तकें प्रकाशित की जायँ जिनमें हिंदी साहित्य के भाडार की पूर्ति हो और ये अथ सदा के लिये रक्षिन हो नायें । इस इच्छा से प्रेरित होकर उन्हाने ननंबर सन् १९२२ में ५०००) २० काशी नागरीप्रचारिणी सभा को दिए और सन् १९२३ में २०००) २० और दिए । इन ७०००) २० से ३ ॥ ) 1 वार्षिक सूद के १२०००) के अकित मूल्य के गवर्मेंट प्रामिसरी नोट खरीद लिए गए हैं । इनकी वार्षिक श्राय ४२० ) रु० होगी । बारहट चाला राजी ने यह निश्चय किया है कि इस श्राप से तथा साधारण व्यय के श्रनंतर पुस्तकों की बिक्री से जो श्राय हो अथवा जो कुछ सहायतार्थ और कहीं से मिले उससे "बालाचख्रा राजपून चारण पुस्तकवाला” नाम की एक ग्रंथावली प्रकाशित की बाय जिसमें पहले राजपूतों और चारणों के रचित प्राचीन ऐतिहासिक तथा काव्य मय प्रकाशित किए जायें और उनके छपवाने अथवा श्रभाव में किसी जातीय संप्रदाय के किसी व्यक्ति के लिखे ऐसे प्राचीन ऐतिहासिक प्रथ, ख्वात आदि छापे जायँ जिनका संबंध राजन श्रथवा चारणों से हो । बारहट बालाबाख्राजो का दाननत्र काशी नागरीप्रचारिणी सभा के तीसवें वार्षिक विवरण में अविकन प्रकाशित कर दिया गया है । उसकी धाराओं के अनुकूल काशी नागरीप्रचारिणी सभा इस पुस्तक माला को प्रकाशित करती है ।
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प्रकाशकीय वक्तव्य
नागरीप्रचारिणी सभा काशी की बारहट बालाबख्श राजपूत चारण पुस्तफमाला ने अपने क्षेत्र में जो सेवा की है उसका मूल्य हिंदी जगत् जानता है। इस ग्रंथमाला के अंतर्गत अब तक निम्नलिखित नव ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं।
१. वाँकीदास ग्रंथावली भाग १ संपादक-श्री पं० रामकर्ण जी __ . २. बीसलदेवरासो-संपादक-श्री सत्यजीवन वर्मा
३. शिखरवंशोत्पत्ति-संपादक-श्री पुरोहित हरिनारायण शर्मा ४. बाँकीदास ग्रंथावली भाग २-संपादक श्री रामनारायण दूगड़ ५. व्रजनिधि ग्रंथावली-संपादक श्री पुरोहित हरिनारायण शर्मा ६. ढोलामारू रा दूहा-संपादक श्री रामसिंह जी ७. बाँकीदास ग्रंथावली भाग ३-संपादक श्री मुरारिदान ८. रघुनाथ रूपक गीतारो-संपादक महताबचंद खारैड ६. राजरूपक-संपादक श्री. रामकर्ण जी इस ग्रंथमाला का यह दसवाँ ग्रंथ है।
यद्यपि श्रारंभ में इस पुस्तक का श्रायोजन सभा की बिड़ला ग्रंथमाला के अंतर्गत किया गया था तो भी इस ग्रंथमाला के अधिक उपयुक्त होने के कारण सभा ने इसका प्रकाशन इसी ग्रंथमाला के अंतर्गत करना अधिक उपादेय समझा।
श्री अगरचंद जी नाहटा की साहित्यसेवा से हिंदी जगत् परिचित है। उन्होंने विशेष श्रम तथा धैर्यपूर्वक इस ग्रंथ का संपादन कर इस प्रथमाला को श्रीमय करने का सप्रयत्न किया है। सभाशृंगार वर्णक ग्रंथ है जो निम्नाकित दस विभागों में संकलित है:
विभाग १-देश, नगर, वन, पशुपक्षी, जलाशय, नदी, समुद्र वर्णन ।
विभाग २-राजा, राजपरिवार, मंत्री, चक्रवर्ती, रावण, राजसभा, श्रास्थान मंडप, गज, अश्व, शस्त्र, युद्ध श्रादि का वर्णन ।
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विभाग ३-स्त्री पुरुष वर्णन । विभाग ४-प्रकृति वर्णन । विभाग ५-कलाएँ और विद्याएँ । विभाग ६–जातियाँ और धंधे । विभाग ७-देव वेतालादि । विभाग ८-जैन धर्म संबंधी। विभाग :-सामान्य नीनि वर्णन । विभाग १०-भोजनादि वर्णन ।
इस वर्णक में न केवल भेद प्रभेदों एव नामावलियों का विस्तारपूर्वक उपयोगी वर्णनमात्र हे अपितु इसमें साहित्यिक सौदर्य की अलंकृत शैली का भी यत्र-तत्र दर्शन होता है । साथ ही परिशिष्ट के रूप में रक्षकोप' और राजनीति निल्पण, नामक दो सस्कृत ग्रंयों को देकर संपादक ने इसकी उपयोगिता का विस्तार किया है । इस विशिष्ट उपरोगी वर्णक संग्रह के प्रकाशन में कुछ अनावश्यक विलंब अनेक कारणों से हुधा तो भी यह व्यवधान इसे इस रूप में प्रकाशित करने में कुछ अंशों तक सहायक भी सिद्ध हुपा है। श्राशा है इस उपयोगी ग्रंथ का श्रादर होगा।
सुधाकर पांडेय प्रकाशन मंत्री
श्राषाढ १, २०१६
1962
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भूमिका
श्री अगरचन्द जी नाहटा विख्यात शोधकर्ता विद्वान् हैं । उनके द्वारा संपादित सभा-शृंगार ग्रन्थ सास्कृतिक शब्दावली की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। सभा शृंगार के नाम से कई हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं जिनका उल्लेख सपादक ने प्रति-परिचय शीर्षक के तर्गत किया है। श्री भोगीलाल साडेसरा ने स्व-सपादित थर्णक-समुच्चय नामक ग्रन्थ में सभा-शृगार की एक प्रति का प्रकाशन किया है ' । उसकी सामग्री का समावेश भी यहाँ हुआ है ।
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सभा-शृंगार उस प्रकार का साहित्य है जिसे वर्णक - साहित्य का नाम दिया गया है और जो अभी कुछ ही वर्ष पूर्व से साहित्यकों के दृष्टि पथ में विशेष रूप से आया है । इस साहित्य का सम्बन्ध किसी वस्तु के उस परिनिष्ठित वर्णन से है जिसे सार्वजनिक रीति से आदर्श वर्णन के रूप में स्वीकार कर लिया जाता था । इस प्रकार के वर्णन कवि और कलाकार दोनों के लिये सहायक होते हैं, एवं श्रोता और वक्ता दोनों को इस प्रकार के वर्णनों में वस्तु का ज्वलन्त चित्र प्राप्त हो जाता है । अतएव दोनों ही उसमें रुचि लेते हैं; जैसे किसी राजा और उसकी राजसभा का वर्णन अथवा सोलह शृंगारों से सजी किसी रूपवती नायिका का वर्णन, अथवा वृक्ष, पुष्प, फल, सरोवर, पक्षी श्रादि की समृद्धि से रमणीय किसी उद्यान का वर्णन | इस प्रकार की वस्तुओं का वर्णन अनेक व्यक्ति अपनी श्रंपनी. रुचि के अनुसार भी कर सकते है जिनका एक दूसरे से भिन्न होना सभव है । किन्तु यदि कई वर्णनों की तुलना की नाय तो उनमें एक सदृश परिपाटी का विकास होता हुए दिखाई पड़ेगा । ऐसे ही पल्लवित वर्णनों को यदि एक आदर्श वर्णन के रूप में ढाल दिया जाय तो उसका वह परिनिष्ठित रूप कालान्तर में रूढिगत बन जाता है | यही इस प्रकार के वर्णनो की पृष्ठभूमि है जिसका भारतीय साहित्य की संस्कृत, प्राकृत, पाली, अपभ्रंश एव देशी भाषात्रों की कृतियों में प्राचीन काल से ही प्रमाण उपलब्ध होने लगता है ।
इस प्रकार के वर्णन के लिए वर्णक शब्द प्राचीन जैन श्रागम शास्त्र में पाया जाता है जिसे प्राकृत भाषा में 'वरात्र' कहा गया है । उदाहरण के लिए
1
१ – भोगीलाल जी साडेसरा, वर्णक समुच्चय, भाग १ पृ० १०५ - १५६, प्राचीन गुर ग्रंथमाला, महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय, बडौदा ।
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तेगां कालेणं तेणं समयेणं राया होत्था (एणयो)। गरिणी नाम देवी होत्या (वएणो) । चम्पा नान नयरी होत्या (वरणा) इत्यादि । यहा कोष्ठक में वएणो लिख देने ने राज रानी या नगरी का जो आदर्श वर्णन प्रचलित था उसी को ग्रहण किया जाता था और ग्रन्यों की प्रतिलिपि करते
ममय उसे बार बार दोहराने की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी । यह प्रथा । कुछ उन प्रकार की थी जिसे वैदिक मन्त्रों का पाठ करते समय गलन्त हा । जाता था। ऋक् प्रातिशास्त्र (१०११६) के अनुसार ऐसे शळों या वाक्यों की नंजा जो कई बार दोहराए जॉब 'नम थी। इस प्रकार के संगठित वर्णन या ममय वाची शब्द पटपाट में छोड़ दिए जाते थे और एक गोल विन्दु से उनका नकेत बना दिया जाता था जिसके कारण उन्हें गलन्त व्हने लगे। किन्तु गलन्त पाठ में उन सत्र शलों को यथावत् दोहराना आवश्यक होता था | श्वेताम्बर जैन आगम अपने वर्णको के लिए प्रसिद्ध है। उन सबका एक अच्छा संग्रह अलग पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाए तो वह भी इस प्रकार के साहित्य की रोचक कडी सिद्ध हागी । देवर्षिगणि क्षमाश्रमण के निर्देशन में जैन श्रागमो का जो सतरण वलभी में तैयार हुआ था और जो इन नमय उपलब्ध है उसमे वर्णकों का दो परिनिष्ठित रूप प्राप्त होता है वह कुछ तो अवश्य ही प्राचीन काल से मूल रूप में आया होगा. किन्तु हमारा अनुनान है कि गुप्त कालीन संस्कृति के समृद्ध वर्णनों की छाप भी उस पर लगी होगी, जैसा नस्कृत त्रिपिटक साहित्य के सकलन के समय भी हुया। सास्कृतिक शब्दावली के विभिन्न स्तरों की छानबीन की दृष्टि से इस प्रकार का अनुसधान उपयोगी हो सम्ता है।
वर्णक के लिये ही वर्ण शब्द गुप्तकालीन संस्कृति में प्रयुक्त होने लगा था। 'मूल सास्तिवाद विनय पिटक' के अतर्गत प्रव्रज्याक्त्तु नामक ग्रन्थ में इन शब्द का प्रयोग हुआ है - नृष्टाभिधायी समाणवः तेन तथा तथा मध्यदेशस्य वर्णी भापितो यथा ते नाणका. सर्व एव मध्यदेशगमनोत्सुका. संवृत्ता.३-अर्थात् वह विद्यार्थी वडा नधुरभाषी था। उसने ने जैसे दक्षिणा___ -न व वैदय, ८ नोट श्रान टी वर्गकाल (बर्गलों पर एक टिप्पणी), आल इण्डिया भान्विन कानरेन्स, कागी प्रविगन लेख नाह, भाग २, पृ० ४७२-४७३ ।
...जी. जी. काीयत, नन्दन पठ में पलन्नों की ननन्या, ओरियन्टल कानफरन्न, नागपुर मधिवेशन लेबनतह, १०३६ ।
3-नन मानिवाट विनय वन्नु, र ३ खण्ट ४, प्रद्रयान्न, पृट १३, गितगत
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पथ के छात्रों के सामने मध्यदेश का वर्णन सुनाया वैसे वैसे दक्षिण, के वे सब छात्र मध्य देश चलने के लिए उत्कठित होते गए । वर्णक के अर्थ में वर्ण शब्द का यह प्रयोग तेरहवीं शती के सगीतरत्नाकर नामक ग्रथ में भी पाया जाता है। उसमें 'वर्ण कवि' का उल्लेख है जिसका अर्थ टीकाकार कल्लिनाथ ने 'वर्णना कवि' किया है । शाङ्गदेव की सम्मति में वस्तु कवि श्रेष्ठ और वर्ण कवि मध्यम माना जाता था ( वरो वस्तुकविवर्णकविर्मध्यम उच्यते, सगीत रत्नाकर भाग १ पृ० २४५ )। यह स्पष्ट है कि तेरहवी, शती के आसपास के भारतीय साहित्य में प्रायः सभी क्षेत्रीय भाषाओं में वर्ण कवियों की धूम थी। उसी का एक रूप अवहट्ट के सदेशरासक और विद्यापति की कीर्तिलता में प्राप्त होता है। दोनों के वर्णन वर्णक शैली के हैं, यद्यपि शब्दावली की दृष्टि से उनमें अपनी ताजगी भी पाई जाती है । कवि शेखराचार्य ज्योतिरीश्वर ठक्कुर ( १४ वीं शती का प्रथम भाग ) कृत प्राचीन मैथिली भाषा के वर्णरत्नाकर नामक ग्रन्थ में वर्ण शब्द वर्णन, वर्णना या वर्णक के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। श्री सुनीतिकुमार चटर्जी ने ज्योतिरीश्वर के ग्रन्थ का सम्पाटन किया है। वह अन्य इस प्रकार के साहित्य में शिरोमणि कहा जा सकता है। उसमें लगभग साढे ६ हजार शब्द हैं जो सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यन्त मूल्यवान हैं और मध्यकालीन भारतीय संस्कृति का, विशेषतः तुर्क युग में राजा और प्रजा की रहन-सहन का भरापूरा चित्र उपस्थित करते हैं । उस अन्य की सामग्री पर आश्रित एक बडे शोध निबन्ध की आवश्यकता है । वस्तुतः समग्र भारतीय वर्णक साहित्य की सामग्री को लक्ष्य में रखते हुए यदि अनुसंधान कार्य किया जाय तो कोश निर्माण और सास्कृतिक परिचय दोनों के लिये बहुत लाभ हो सकता है।
प्राचीनकाल से ही साहित्यकारों ने परिनिष्ठित वर्णकों को अपना उपजीव्य बना लिया था, जैसा वाण कृत हर्षचरित और कादम्बरी से प्रकट होता है । जंगल या बागबगीचों के वर्णन के लिये वृक्ष और पुष्प पक्षी आदि की नगभग एक सी ही घिसी-पिटी सूचियाँ काम में लाई जाती यीं। उद्यान-क्रीडा और सलिल-क्रीडा, वोड़े और हाथियों के भेद और उनकी चालों के भेदों के वर्णन का भी एक परिनिष्ठित रूप प्राप्त होता है। पर अच्छे कवियो की उन्मुक्त कल्पना के लिये हमेशा ही मौलिकता का अवसर रहता था। हमारा अनुमान है कि अन्य भाषाओ का मध्यकालीन साहित्य भी वर्णक शैली से प्रभावित हुआ था। गुजराती भाषा के मामेरु काव्यों में दान दहेज में दिये जाने वाले वस्त्र और सामान की यथासंभव विशद सूचिया समाविष्ट की गई । प्रेमानन्द कृत मामेरू मे इसकी छाप स्पष्ट है । जायसी के
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पद्मावत काव्य में अनेक वर्णन वर्णक शैली से प्रभावित है। उसमें घोडों और वस्त्रों की एव वृक्षों और पुष्पों की सूचियों वर्णक साहित्य की दृष्टि से गेचक हैं । और भी दो स्थानों पर पद्मावती के रूप-वर्णन एवं विवाह-खंड मे नायक नाविका का क्लिाम-वर्णन अथवा प्रारम्भ मे गढ और नगर वर्णन-इन पर यदि तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया जाय तो वर्णक शैली का प्रभार स्पष्ट दिखलाई पड़ेगा।
यह प्रसन्नता की बात है कि वर्णक साहित्य क्रमशः अब सामने आ रहा है। भारत की सभी प्रादेशिक भाषाओं में वर्णक ग्रन्यो की रचना हुई होगी, यह तथ्य युग युग के भारतीय साहित्य की विकास परम्परा के अनुकूल ज्ञात होता है। अतएच यह श्रावश्यक है कि जहाँ तक संभव हो प्रत्येक भाषा क वर्णक साहित्य को यहाँ के विद्वान प्रकाश में लाएं। जैसा श्री सुनीति बाबू ने लिखा है, बगला भाषा में राय बहादुर श्री दिनेशचन्द्र सेन को इस प्रकार का साहित्य कथा बाँचने वाले कथकों से प्राप्त हुआ था । मध्यकालीन वर्णक साहित्य का सर्वोत्तम प्रकाशन अभी तक गुजराती भाषा में हुआ है। श्री मुनि जिनविजय जी ने अपने प्राचीन गुजराती गद्य सन्दर्भ नामक अन्य के अन्तर्गत पृथ्वीचन्द्र चरित्र अपर नाम वाग्विलास (कर्ता श्री माणिक्यचन्द्र सूरि, वि० सं० १४७८ ) का प्रकाशन किया था। यह भी एक विशिष्ट वर्णक ग्रन्य है और वर्ण रत्नाकर के साथ तुलना करने से स्पष्ट विदित हो जाता है कि मध्यकालीन भारतीय साहित्य की सास्कृतिक पृष्ठभूमि कितनी दूर तक एक सदृश थी | नीवन की एक जैसी रहन सहन प्रत्येक प्रदेश में छाई हुई थी। इसी ग्रन्थ में ८४ हाटों की सूची सुरक्षित रह गई है। भारत की ६६ करोड ग्राम संख्या का उल्लेख भी इस ग्रन्थ में है जैसा म्कन्द पुराण के महेश्वर खण्ड के अन्तर्गत कुमारिका खण्ड में भी उल्लेख पाया है (पएणवत्येव कोव्यः ग्रामा , ३३१६३६ ) । जिस समय वह संख्या लिखी गई उस समय भारतवर्ष में भूमि एवं अन्य स्रोतों से समस्त राष्ट्रीय आय का अनुमान ६६ करोड कार्षापण किया जाता था।
वर्णकों के संग्रह की दृष्टि से श्री साडेसरा द्वारा संपादित वर्णक समुच्चय, जिसका उल्लेख ऊपर हो चुका है, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें लगभग १२ वर्णक मुद्रित हैं। प्रारम्भ मे विविध वर्णक नामक १०० पृष्ठों का १ वर्णक अन्य है जिसमें ये सूचियॉ महत्त्वपूर्ण है-राज लोक, पौर लोक, राजवर्णन (पृष्ठ १३-१४ ), नगर वर्णन (पृष्ठ २१-२२), देश सूची ( पृष्ठ २८-३७, इनमें भी ६६ करोड ग्राम का उल्लेख है), नगर प्रासाद वर्णन ( पृष्ठ ३२), ३६ राजकुली (पृष्ठ ३३), वस्त्र सूची ( पृष्ठ ३४-३५), जिसमें
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( ५ ) १०० से अधिक वस्त्रों के नाम हैं ), कलशान्त प्रासाद वर्णन ( पृष्ठ ३६-४०), जिन मन्दिर (पृष्ठ ४८-७१), राजलोक, पौरलोक चक्रवाल ( पृष्ठ ४६ ) वस्तु पाल-तेजपाल विरुद ( पृष्ठ ५५), अास्थान मंडप वर्णन ( पृष्ठ ७२ ), अश्व सूची ( पृष्ठ ६२), समुद्र में प्रवहण भग का वर्णन ( पृष्ट ६७, इस प्रकार का एक अत्यन्त विशद वर्णन नायाधम्मकहा, अध्याय ६ में भी आया है)। इसी ग्रन्थ में सभा शृगार का भी एक सस्करण ५० पृष्ठो में प्रकाशित हुया है जिसकी सामग्री नाहटा जी ने ले ली है। उसकी प्रतिलिपि मवत् १६७५ में की गई थी। साडेसरा जी के तीसरे सग्रह वर्ण्य वस्तु वर्णन पद्धति में भी देशों (पृष्ठ १६५ ) की सूची और उनकी ग्राम संख्या महत्त्वपूर्ण है जिसमें भारत के बाहर के महाभोट, सिंहल, चीन, महाचीन देशों के नाम भी हैं। चौथे प्रकीर्ण वर्णक में १८ करों के नाम रोचक हैं। (पृष्ठ १७०)। पाचवें सग्रह का नाम जिमणवार परिधान विधि है जिसमें ३६ प्रकार के लड्डु, अनेक मिष्ठान्न भोज्य सामग्री एव लगभग २०० वस्त्रों के नाम हैं (पृष्ठ १८०-१८१)। यह प्रति १६७५ सवत् ( ई० १६१८) में जहाँगीर के काल में लिखी गई थी। अतएव मुगल काल के प्रारम्भ में जितने वस्त्र इम देश में वनने लगे थे और जो गहर से मगाए जाते थे उनकी बहुत ही बडी सुन्ची उस संग्रह में प्राप्त हो जाती है। यह सूची सभवतः किसी सम्राट के वस्त्र भण्डारी की सहायता से प्राप्त की गई होगी। साडेसग जी ने अपने संग्रह के परिशिष्ट १ में प्रयागदास नामक किसी लेखक के कपडाकुतूहल नामक ग्रन्थ का मुद्रण किया है जिसका एक नाम कपडा-बत्तीसी भी था । दूसरे परिशिष्ट का नाम ऋयाणक वस्त्र नामावली है जिसमें ३६० किगने की वस्तुओं के नाम. ६५ वस्त्रों के नाम और १४२ श्राभूषणों के नाम हैं। साडेसरा जी के वर्णक-समुच्चय के अन्त में अकारादि सूची नहीं है । सभवतः अथ के दूसरे भाग में वे उसे प्रस्तुत करेंगे। किन्तु उस ग्रन्थ में सकलित सामग्री गुजराती भाषा तक सीमित न होकर हिन्दी के विद्वानों के भी बहुत काम की है।
नाहटा जी द्वारा संगृहीत सभा-शृगार में ऐसी ही उपयोगी सामग्री का एकत्र संकलन हुआ है । इसके १, विभाग हैं । जो वर्य विषय के अनुसार इस प्रकार है
विभाग १- १-२८ देश, नगर, वन, पशु-पक्षी, जलाशय, नदी, समुद्र वर्णन।
- विभाग २-० २६-८६-राजा, राजपरिवार, मन्त्री, चक्रवर्ती, गवण, रानमभा, अास्थानमंडप, गज, अश्व, शत्र, युद्ध आदि का वर्णन ।
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विभाग ४ - पृ० विभाग ५ पृ. विभाग ६ - पृ०
विभाग -
विभाग ३० ८७-११४ - स्त्री - पुरुष वर्णन |
१२५-१३४ - प्रकृति वर्णन ।
१३५ - १४४- कलाएँ ओर विद्याऍ । १४५ १५२ - जतियाँ और धवे ।
१५३ - २७४ - देव वेतालादि । १७५ - २२२ - जैन धर्मसबन्वी ।
२२३ - २७२ - सामान्य नीति वर्णन |
६ )
विभाग ८ - पृ०
विभाग ६ - विभाग १ - भोजनादि वर्णन ।
नाहटाजी ने इस संग्रह में जिस प्रकार से विषय का विभाग किया है वह उनका अपना है । वर्णन सग्रहों को यथावत् न छाप कर उनमें से एक जैसे विषयों का सकत्वन कर दिया है । इन विभागों का कुछ परिचय श्रावश्यक हैं ।
पहले विभाग में जो विषय सकलित हैं उनमें देश नामों की चार उचियाँ हैं ( पृ०, ३५ ) | पहली सूची मे १५१ नाम है। पुराणों के भुवन कोशों की जनपद सूचियाँ प्रसिद्ध हैं । उनमे से मूल सूची का सकलन पाणिनि काल में हुआ होगा । उसके बाद गुप्तकाल में उससे बडी एक दूसरी सूची तैयार हुई जो बृहत्सहिता और मार्कण्डेय पुराण में पाई जाती है। इस सूची के भी युगानुनार और सस्करण बनते रहे, जिनमें से एक गुर्जर प्रतिहार युग के महाकवि राजशेखर ने काव्यमीमासा मे उद्धृत की है। उसके बाद तुर्क युग की सूची पृथ्वीचन्द्रचरित में मिलती है । उस समय की सूची में ६८ देशों के नाम गिनाए जाने थे । वर्णरत्नाकर मे भी यह सूची रही होगी किन्तु ग्रब वह ग्रश खण्डित हो गया है । सभा-शृगार की यह सूची मुगल काल में संगृहीत हुई होगी । इसमें नए और पुराने नामों की मिलावट है। पुराने नामों में शक, यवन, मुरुण्ड, हूण, रोमक, काम्बोज, कात्र आदि हैं । ताईक ( सख्या १४४ ) नाम ताजिक देश के लिये है | भारत से बाहर के देशों की सूची पर द्वीप नाम के अन्तर्गत लग दी गई है, जिसमे हुर्मुन, मक्का मदीना, पुर्तगाल, पीगु, रोम, अरच बलख, बुखारा, चीन, महाचीन, फिरंग हबम आदि के नाम तो ठीक हैं, किन्तु दीव, घोघा, डाहल, मलवार, चीउल, मुल्तान, जम्मू, आबू और ढाका के नाम इस देश के ही हैं । १६ के अन्तर्गत जो संख्याऍ है उन्हें देशो की उपज कहना ठीक नहीं । वे उसी प्रकार की ग्राम संख्याए है जिनका उल्लेख ऊपर श्रा चुका है। सूची ११८, ११६ में नगरों के नाम है जिनमें कुछ नए और कुछ पुराने मिले हुए हैं | १|११ से १।२४ तक नगर वर्णन सबन्धी वर्णक महत्व -
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पूर्ण है। १।२१ और १।२२ में ८४ चौहट्टो की दो सूचिया महत्वपूर्ण हैं । इनकी एक सूची पृथ्वीचन्द्रचरित्र मे भी प्राप्त हुई थी, जो नाहटा जी की पहली सूची से बहुत मिलती है। पृष्ठ १६ पर स्वयंवर मण्डप का वर्णन करते हुए पञ्चरमी देवाशुक के बने हुए ऊलोच ( शामियाने ) के उल्लेख के अतिरिक्त तलियातोरण उठाने का भी वर्णन है । यह एक विशेष प्रकार का दोमजला तोरण होता था जिसे स्थापत्य की परिभाषा में तलकतोरण कहते थे। पृथ्वीरानरासो के लघु सस्करण मे जिसका सम्पादन पजाब के श्री वेणीप्रसाद शर्मा ने किया है इसी का बिगडा हुआ रूप तिलगा तोरण हम प्राप्त हुआ था। पृ०१८-२१ पर अटवी वर्णन नौ प्रकार से सगृहीत हैं | उसके बाद वृक्ष नामो की छः सूचियाँ हैं। इस प्रकार की सूचियाँ वन वर्णन के साथ संस्कृत साहित्य में भी प्रायः मिलती हैं । विशेषत. महाभारत और पुराणों में वृक्षावली की लम्बी सूचियो के द्वारा ही वन वर्णन करने की प्रथा थी। वृक्षों के प्राचीन नामों मे सहकार कुपाण-गुप्त युग का शब्द था। मूल महाभारत के स्तर में उसे न होना चाहिए था। नन्दन वन के वर्णक की वृक्ष सूची मे वह पडा हुया है, जो इस बात का सकेत है कि वह परिनिष्ठित वर्णन गुप्तकाल मे किसी समय नोडा गया । सरोवर वर्णन के भी तीन प्रकार दिए है (पृ० १२६ )। इनमे शतपत्र, सहस्रपत्र के अतिरिक्त कमल के लिये लक्षपत्र हमे पहली ही बार प्राप्त हुआ है । नदी नामों के अन्त में लिखा है कि १४ लाख ५६ हजार नदियों लवण समुद्र में मिलती हैं । यद्यपि स्कन्द पुराण के नागर खण्ड में हमें उल्लेख मिला था कि केवल गङ्गा ही ६०० नदियों को लेकर समुद्र मे मिलती है फिर भी प्रस्तुत संख्या अब तक की प्राप्त संख्यायों में सबसे बडी है।
विभाग २ के अन्तर्गत राजा के वर्णन के लगभग १५ प्रकार दिए हैं। पहले वर्णन में गौड, भोट, पाचाल, कन्नड, हॅढाड़ (जयपुर ), वावर (सौराष्ट्र) चोड, दशउर (दशपुर मालवा ), मेवाड, कच्छ, अंग आदि देशो की समृद्धि या विभूति पर शामन करने का उल्लेख है । पृष्ठ ३६ पर अष्टादश द्वीप कीर्ति विख्यात एवं एकोनविशति पत्तनों के नायक विशेषण मध्यकालीन प्रतापी चोल सम्राटों के विशाल सामुद्रिक राज्य और दिग्विजय से लिए किए गए अभिप्राय थे। पृष्ठ ४३ पर चक्रवतों के वर्णन में अनेक सख्याओं का उल्लेख है जिनमें ६६ कोटि ग्राम सख्या भी है जिनकी व्याख्या ऊपर आ चुकी है। रानी,
-शतानि नव सगृह्य नदीनां परमेश्वरी । तथा गाभिधा या तु सैव प्राक् सागरं गता।
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राजकुमार के वर्णन सामान्य कोटि के है। किन्तु राजसभा के छः वर्णन ( पृष्ठ ५८-५६) महत्वपूर्ण सांस्कृतिक सामग्री से भरे हुए है जिनकी व्याख्या विस्तार की अपेक्षा रखती है । सिगरणा (श्रीकरण का मुख्य मंत्री निसे आजकल की भाषा में गृह मंत्री कहेंगे ) और वेगरणा ( व्ययकरण का अर्थमंत्री) मध्यकालीन नचिवों के नाम थे। साहणिया या साहणी (अश्वत्ताधनिक) नामक अधिकारी था । राजसभा के पोचवें वर्णन में उसे महामसाणी (=महासाहणी महासाधनिक) कहा गया है। इसी प्रसग में थैवायत शब्द उल्लेखनीय है । नाहटाजी ने सूचित क्यिा है कि राज दरबार में ताम्बूल आदि देने वाला सम्मानित व्यक्ति थैयायत कहलाता था । श्रीपालचरित में उसका उल्लेख है । पृष्ट ६३-६४ पर तीन बार लाहे के महाकाय भोगल का उल्लेख है । हमारे लिए यह नया शब्द है और प्रतोली और पाट के प्रसंग में इसका अर्थ परिघ या दृढ़ अर्गला होना चाहिए। गज वर्णन के ६ प्रकार और अश्व वर्णन के ७ प्रकार संगृहीत हैं। इनमें स्तागप्रतिष्ठित विशेषण हाथी के लिये प्राचीन पाली और संस्कृत साहित्य मे भी अाता है। अश्वों के नान रग एवं देशों के अनुसार रक्खे जाते थे जिसकी पयांप्त नई मामत्री इन सूचियों में है। पृष्ठ ७० पर सेराह, हलाह, उराह,
आदि नाम अरबी फारमी परम्परा के थे। बोरिया या बोर घोड़े का उल्लेख जायसी में भी पाया है। पृष्ठ ७३-८५ पर युद्ध वर्णन के ७ प्रकार मध्यकालीन वीरकाव्यों की रढ शैली पर है। ____ विभाग ३ ३ श्री पुरुषों का वर्णन है। इसमें तत् पुरुषों के गुणों की सूची एवं सजन दुर्जन का परिचय रोचक है । इसी प्रकार पृष्ट ६६ पर उत्तम त्रयों श्री गुण सूची भी सुन्दर है। पृष्ठ ११३-१४ पर मालवा, मेवात, मेवाड, दक्षिण और गुजरात की त्रियों के नामों की सूची पहली ही बार साहित्य में देखने को मिलती है।
विमाग ४ में प्रकृति वर्णन का सत्रह है जिसमें प्रभात, सध्या, सूर्यादय, चन्द्रोदय और छ ऋतुओं के वर्णनों का संग्रह है । माहित्य मे वसन्त, वपां और शरद के वर्णन तो प्राय. मिलते हैं, पर ग्रीष्म के वर्णन कम पाए जाते हैं। बाण के हर्षचरित मे नीप्म का बहुत ही उदात्त और मौलिक वर्णन पाया जाता है । यहाँ उन्हालो या उपगल के तीन वर्णन है । जैसे बावन पल की तोल का नोने का गोला दहकता हो वैने ही सूर्य तर रहा था यह क्ल्पना नई है। बावन तोले माल गलाने का महावरा ही मध्यकाल में चल गया था, जैसा ५२ तोले पाव रत्ती इस लोकोक्ति में सुरक्षित है । पृष्ट १२४ पर वां के कारण पटशाल के टपक्ने का उल्लेख है। पटशाल पट्टशाला का रूप है जो राजप्रासाट के
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आस्थान मडप या नात्यायिका के लिये होना चाहिए जहाँ पाट या सिंहासन रहता था। किसानों को कई वार कर्षणीलोक कहा गया है। इसी प्रकरण में कलिकाल के भी कई वर्णन हैं। कलि वर्णन मध्यकालीन साहित्य का एक अभिप्राय हो बन गया था। प्राचीन राजस्थानी और हिन्दी में कई कलियुग चरित्र मिलते हैं । बान कवि ने संवत् १६७४ में एक कलियुग चरित्र की रचना की थी। उससे २०० वर्ष पूर्व सवत् १४८६ में हीरानन्द सूरि ने कलिकाल रास लिखा था। गोस्वामी जी ने उत्तरकाण्ड में कलिधर्मों का बहुत अच्छा वर्णन किया है। वैसे तो गुमकाल से ही इस प्रकार के कलिचरितों की रचना होने लगी थी। विष्णुपुराण में सर्वप्रथम कलिचरित का सन्निवेश हुआ है। लोकमाया बहुल, अल्प मगल, यही इन कलिमलो का सार था । याउखा स्तोक, निवाणिजा लोक अर्थात अायुर्वल थोडा हो गया और लोगों का व्यवसाय धन्धा जाता रहा यही कलि प्रभाव है । रामचरितमानस का कलिवर्णन उसी परम्परा मे है । ___ विभाग ५ में कला और विद्याओं की सूचियाँ हैं । इस प्रकार की अन्य कई सूचियाँ सस्कृत साहित्य मे भी मिलती हैं। उनके साथ तुलनात्मक अध्ययन के लिये ये सूचियों उपयोगी हैं। प्राचीनकाल की अनेक विदग्ध गोष्ठियों में इन कलाओं की आराधना की जाती थी, जैसे वक्रोक्ति, काव्यशक्ति, काव्यकरण, वचनपाटव, वीणा, कथाकथन, अडविचार, प्रश्न-पहेलिका, अन्ताक्षरिका अाटि विषय मनोवनिोट के साधन थे | पृष्ठ १४० पर ४७ राग-रागिनियों की सूची है और पृष्ठ १४१ पर बाजों के नामों की दो बडी सूचियों हैं। पृष्ठ १४० पर बद्ध नाटक में ३२ अभिप्रायों द्वारा संपादित नाट्य विधि का उल्लेख है जो जैन-परम्परा में प्रसिद्ध हो गई थी और जिसका विस्तृत वर्णन रायपसेनिय सूत्र में पाया है। पृष्ठ १४३ पर लिपियो की ३ सूचियाँ हैं जिनमें कुछ नाम तो काल्पनिक और अनेक नाम वास्तविक जीवन से लिये गए हैं, जैसे नागरी लिपि, लाट लिपि, पारसी लिपि, हमीरी लिपि, ( अमीर या तुर्की सुल्तानों की लिपि), मरहठी लिपि, चौडी (चोल देश की तमिल लिपि), कुकुणी, कान्हडी, सिंहली, कीरी (कीर या टक्क देश की टक्की लिपि)।
• विभाग ६ में जाति और धन्धो की उपयोगी सूचियाँ हैं । इनमें ३६ पौनि या नेगियों की नामावली भी है जिनका उल्लेख साहित्य में पाता है। अनेक पेशेवर जातियों के नाम रोचक है जैसे दोसी (दूप्य या वस्त्र का व्यवसाय करनेवाले ), पारखि ( रत्नों की परीक्षा करनेवाले ), पटउलिया ( पटोला बुननेवाले ), भोई ( सस्कृत भोगी, हाथियों के अधिकारी), वेगरिया ( सस्कृत वैकटिक, रत्न तराश ), परीयट (बरहठा या धोबी जिसे देशी नाममाला में परीयदृ कहा
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गया है ), लुई ( संस्कृत-सौचिक या दर्जी ), ताई ( संस्कृत प्रायी या आरक्षक, रक्षा करनेवाला पुलिस अविकारी ) इत्यादि । एक सूची में ८४ प्रकार की वणिक नातियों के नाम हैं और दूसरी में ३४ प्रकार के ब्राह्मणो के । राजपूतों के ३६ कुलो की सूची वर्णरत्नाकर के समान यहाँ भी है। यह पुरानी सूची थी। कालान्तर में जत्र और भी जातिया राज्याधिकार सम्पन्न हुई तब एक दूसरी बड सूची संकलित की गई जिसमे ७२ राजकुलों की गिनती थी। यह सूची भी वर्णरत्नाकर ( पृष्ठ ६१ ) में है । ३६ कुलों की सूची के अन्त में कुली शब्द है, ७२ वाली के अन्त में नहीं। पहले अपने ग्रापको सत् क्षत्रिय ( वत्सराजकृत किरातार्जुनीय नाटक ), तुक्षत्रिय ( श्रीधरदासकृत सदुक्तिकर्णामृत, २९० ) या शुद्ध क्षत्रिय (य. कोऽपिवा साहसी लोके यस्थास्ति वा क्षत्रियतावदाता, पृथ्वीराज विजय, ६ । २२४ ) मानते थे । राजतरंगिणी में भी ३६ क्षत्रिय कुलों का उल्लेख आया है ( ७११६१७ ) जिससे ज्ञात होता है कि ३६ कुलों की कोई एक सूची बारहवीं शती से पहले ग्रस्तित्व में या चुकी थी । इन सूचियों की ऐतिहासिक परख से बहुत से तथ्य हाथ लगेगे । पृष्ठ १५१ पर साहूकार के कई विन्डो में एक 'छत्रीस बेलाउल विखनात' भी है जिसका तात्पर्य यह था कि बड़े साहूकारों की कोठियों या लेन देन के छत्र ३६ बेलाउल या समुद्र तटवती पत्तनों के साथ जुडे रहते थे और उनके साथ उनके हुण्डी - परचे का भुगतान चलता रहता था ।
संवत्सर मुद्रा कणहार विद भी किसी महत्वपूर्ण तथ्य का व्यञ्जक है । सभवत' नये वर्ष के आरम्भ में संवत्सर सूचक व्यापार मुद्रा या भाव-ताव का प्रारम्भ करने का श्रेय रखने वाले शिरोधार्य महाजन के लिये यह विरुद्ध था । इसी प्रकार कडाह समुद्र विरुद भी ध्यान देने योग्य हैं । काह- द्वीप के पूर्वी समुद्र या द्वीपान्तर के साथ व्यापार करने का प्राचीन गुप्तकालीन संकेत इसमें
चच गया था 1
विभाग ७ में देवी देवता आदि का वर्णन है । पृष्ठ १६३ पर श्रेष्ठ के वर्णन में कहा गया है कि उसके यहाँ लक्ष्मी के निधान कलश रहते हैं और लाख धन के सूचक दीप जलते है एक फहराती है । श्रेष्टिप्रवहण्यात्रा के वर्णन मे या माल को देशान्तरोचित क्रियाणा कहा गया है और कूपदण्ड या मस्थूल के लिये कुश्राखम शब्द है ।
करोड की सूचक ध्वजाएँ देशान्तर के योग्य भाण्ड
विभाग में जैन धर्म सबंधी वर्णकों का सग्रह है । समवसरण के वन रत्नमय पीठ, प्राकार, कौशीश, चार प्रतोली द्वार, देव प्रतीहार, सुवर्ण स्तम्भ
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मणिमय कुम्भ, रत्नमय तोरण, बन्दनमाला, छत्र, पुतली, मगरमुख, ध्वजा, पीठ, सिंहासन, पादपीठ, आतपत्र छत्र, गँवर, भामण्डल, धर्मचक्र, देवदुन्दुभि, इन्द्र-ध्वज आदि पारिभाषिक शब्दावली ध्यान देने योग्य है । इसके बाद जिनवाणी, जिनोपदेश, तपभावना, धर्म माहात्म्य, युगलिया सुखवर्णन, श्रावक आदि के वर्णक है । पृष्ठ २११-२१२ पर ८४ गच्छो के नामो की सूची है और अन्त मे चतुर्दश स्वप्नी के वर्णन हैं । १४ वे स्वप्न मे निधूम अग्निशिखा को सदान्वाला युक्त ऊर्ध्वमुखी धक-धक करता हुआ वैश्वानर कहा गया है । सन्ति मे लक्ष्मी देवी और उनके पासरोवर में खिले मुख्य कमल का बहुत ही भव्य वर्णन है ।
विभाग ६ मे सामान्य नीतिपरक वर्णको का संग्रह है। यह समस्त प्रकरण अत्यन्त सुपाठ्य और बुद्धि की चतुराई से भरा हुआ है । द्रामड़ का सकेत शेरशाह-अकबरकालीन मुद्रा से है ( कहाँ द्रम्य या दाम कहाँ रुपया)। पृष्ठ २५६ पर चचल मन के वर्णक मे उपमानो की लडी पढते हुए चित्त प्रसन्न हो जाता है-चञ्चल मन ऐमा है जैसे हाथी का चञ्चल कान, पीपल का पान, संव्या का बान, या दुहागिन ( परित्यक्ता ) का मान, मिट्टी का घाट, वादल की छॉह, कापुरुप की बॉह, तृणो की आग, दुर्जन का राग, पानी की तरग और पतग ( तकडी) का रग | पृष्ठ २५८-५९ पर विशिष्ट पदार्थों के वर्णक मे वस्तुयो का उल्लेख ध्यान देने योग्य है-सोरठी गाय, मरहठी वेसर श्रावू तणउ देवडो (श्रावू के जैन मन्दिर ), पाटण तणो सेवडो (पाटन के श्वेताम्बर यति ), वाराणसीउ धूर्त । इसी प्रसग में ३६० प्रकार के किरानों को उत्तम और ३६ नाणक को अच्छा कहा गया है। ३६० किरानो की सूची साडेसरा के वर्णक-समुच्चय के परिशिष्ट २ मे सौभाग्य से बच गई है। ३६ नाणक या सिक्कों को श्रेष्ठ मानने का कारण सभवत यह था कि ३६ दाम या तॉवे के पैसों का एक चाँदी का रुपया माना जाता था । विशेष पदार्थों मे ( २५६-२६० ) निम्नलिखित ध्यान देने योग्य हैं -
चतुराई गुजरात की, वासा हिन्दुस्तान का,
चूडा हाथी दाँत का, चौहट्टो की भीड दिल्ली की, देवल बाबू का, रूपा ( चॉटी) जावर का इत्यादि । अपने वर्ग में विशिष्ट पदार्थों का उल्लेख करते हुए वस्त्रों में नेत्र वस्त्र की प्रशसा की गई है। 'भला क्या' इस सूची में भी अनेक उल्लेख बढिया है, जैसे--कच्छ की घोड़ी भली, पाग खाँगी (टेढी) भली, सेज चित्रशाली भली, कोरणी कोरी भली ( अर्थात् नकाशी या उकेरी चारो ओर गोल कोरी या उकेरी हुई नक्काशी अच्छी समझनी चाहिए ।
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विभाग १० में मगल, वर्धापन, उत्सव, विवाह, भोजन, वस्त्र, अलंकार,धातुरत्न आदि के वर्णन हैं | पृष्ठ २८१ पर वर्धापनक के अन्तर्गत ही तलिया तोरण का उल्लेख है जो पृष्ठ १६ पर भी आया है। जैसा ऊपर कहा है यह संस्कृत तलक-तोरण का रूप था । पृष्ठ २८२ पर धात्रियों की संख्या पाँच कही गई है। दिव्यावदान अादि बौद्ध संस्कृत ग्रन्थों में अंकधात्री क्षीर-धात्री, क्रीडा-धात्री और मल-धात्री ये चार नाम आते हैं। यहाँ अन्तिम के स्थान पर मजन-धात्री और मडन-धात्री नाम पाए हैं। बाल-क्रीडा-वर्णन के मुख्य अभिप्राय सूर-सागर के विशद वर्णनों की नक्षिप्त सूची के समान हैं। विवाह समय नामक वर्णक मे (पृ. २८३) घडे सहित वृत मोल लेने का उल्लेख है जो उस युग का स्मरण दिलाता है जब पचास माट वर्ष पहले तक गाँवों में घी गोल, घडे अादि मिट्टी के पात्रों में भरकर रक्खा जाता था । घाघरखालि से तात्पर्य बड़े और बजने बस्यो की उस माला से है जो घोड़े, खच्चर आदि के गले में डाली जाती थी और जिसे गढवाल में ग्राज भी वॉवरयालो कहते है। भोजन के प्रसग में रसोई के चार वर्णक सगृहीत है । लगभग २८ पृष्ठों में वह सामत्री अत्यन्त विशद है और इसमें मध्यकालीन साहित्य में प्रयुक्त भोजन सबंधी शब्दों का एक पूरा भाडार ही मिलेग । 'जिम महद्भुत गाडू तिम लाई' ( पृष्ट २८३ ) उल्लेख ध्यान देने योग्य है। गाड का अर्थ गडवा या लोटा है जिसे यहाँ बडे लड्डू का उपमान कहा गया है। विद्यापति की कीर्तिलता में भी गाड़ शब्द अाया है (खणयक चुप भै रहह गारि गाडू दे तवहीं, द्वितीय पल्लव, अर्थात् तुर्क के मुंह में जब निवाला अटक जाता है तब वह गडबे से पानी मुँह में उँडेल लेता है)। महत या महानद्भुत गाडू सम्भवतः उस प्रकार के लोटे को कहते थे जिसके पिटार पर टस अवतारों का अक्न किया जाता था। सम्भवतः यहाँ उन बड़े लड्डुओं का प्रसंग है जिन्हें मगट के लटु कहते है। पकवानो में खाजा नामक मिठाई की उपमा महल के छाजे से दी गई है (पृष्ठ २८३, २८६)। इस मिठाई का चलन अब चन्द हो गया है किन्तु ज्ञात होता है कि मध्य युग में फते हुए बहुत बडे मतपदे खाजे बनाए जाते थे। क्त्तुत इस प्रकरण में अनेक प्रकार के लड्डू, मॉडे, फल. नेवा, चावल, मसाले, मिठाई आदि के नाम हैं जिनकी व्याख्या के लिये पूरे शोव-निवन्ध की आवश्यकता होगी। वर्ण-रनाकर और वर्णक-समुच्चय की सामग्री के साथ तुलना करने से इन नामों पर प्रकाश पड़ने की सम्भावना है। इन शब्दों में अपभ्रश युग की भाषा की परम्पग भी व्यान देने योग्य है,
ने पारिहेटि महिसिं तएउ दूधु ( पृष्ठ २८४ ) इस वाक्य में पारिहेटि बाखडी मन की मंत्रा थी जिम हेमचन्द्र ने देशीनाममाला में परिहट्टी कहा है (देशी०
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( १३ ) ६१७२)। पृष्ठ ३०३ पर लड्डुश्रो के दो वर्णक है और पृष्ठ ३०४ पर सूखडी. या मिठाई के तीन वर्सकों में अनेक नाम भाषा के इतिहास की दृष्टि से रोचक है. जैसे इमरती के लिये पुराना नाम मुरकी था जो दो वर्णकों में पढ़ा है और पद्मावत में भी प्रयुक्त हुआ है । भारतीय भोजन और पकवानों का इतिहास अभी नहीं लिखा गया यद्यपि वैदिक युग से लेकर आज तक की तत्सम्बन्धी सामग्री बहुत अधिक है। उदाहरण के लिये इन सूचियों में बरसोला शब्द कईबार
आया है। यह एक प्रकार का खाँड का लड्डू हता था जो पानी में डालते ही गल नाता था। नैषधचरित में इसे वर्षांपल कहा है। अब इसका चलन कम हो गया है। पृष्ठ ३१० पर फल-मेवों की सूची में भी बिजोरा के साथ बरसोला नाम आया है। इससे ज्ञात होता है कि मिठाई के अतिरिक्त नीबू की तरह के किसी फल के लिये भी यह शब्द प्रयुक्त होने लगा था । सुगन्धित वस्तुओं की सूची में मोगरेल, चॉपेल, नाचेल, केवडेल, करणेल, इन पॉचो शब्दों का अन्त का 'एल' प्रत्यय तैल-वाचक है । ये शब्द मोगरा चम्पा, नाही, केवडा
और करना (एक प्रकार का श्वेत पुष्य ) नामक फूलों से सुवासित तेलों के नाम थे।
पृ० ३११-३१४ पर वस्त्रों के पाँच वर्णक अत्यन्त रोचक है। इनमें पाँचवीं सूची में लगभग १४० वस्त्रों के नाम हैं जो ऊपर उल्लिखित वर्णकसमुच्चय की सूची के समान महत्त्वपूर्ण हैं। इन सूचियों में भैरव शब्द कई बार आया है जो श्राईन-अकबरी के अनुसार एक वस्त्र का नाम था। बीसलदेव रासो मे भैरव की चोली का वर्णन है, जो आइन से लगभग २०० वर्ष पुराना उल्लेख होना चाहिए। मसज्जर अरबी मुशज्जर का रूप है जिस पर शजर या पेड़-पौधों की बूटियों बनी रहती थीं। पोपटिया, जैसा नाम से प्रकट है, तोते की बूटी से छपे वस्त्र को कहते थे। नारी कुजर वस्त्र का नाम भी नारी कुमर भाँति की छपाई के कारण ही पड़ा था। कमलवन्ना ( कमल के रंग का), मूंगवन्ना (मुंगिया रंग का ), गंगाजल, चक्रवटा (चक्र की छाप से छपा हुआ ), सेजी (शत्रुजय, सौराष्ट्र का बना हुआ ), पाम्हड़ी ( स० पद्मपटी, कमल बूटी से छपा हुश्रा ), हंसवेडि ( हसपटी), गनवेडि ( गजपटी), प्रवालिया (मंगिया लाल रंग का वस्त्र), कोची (कोच बिहार का बना हुआ), गौडीया (गौड, बगाल के वस्त्र सभवतः जिन्हें जायसी ने पडुआ के बने पंडुवाए वस्त्र कहा है ), सुनारगामी कपूरधूली, लोवडी ( स० लोमपटी ) पट्टकूल, मेघाडम्बर, खीरोदक, पैठाणी (पैठण या प्रतिष्ठान का बना हुआ) आदि नाम सस्कृत प्राकृत परम्परा के हैं जो मध्यकालीन संस्कृति में सुविदित रहे होंगे। आगे चलकर
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महमूदी, सिरीवाफ, जरवाफ, तानबाफ, कमखाव, सूमी आदि मुसल्मानी युग के नाम भी पुरानी सूचियों में जुड़ते रहे जैसा वर्णरत्नाकर, वर्णकसमुच्चय और नभाशृगार में पाया जाता है। इनमें कई नामों की अब ठीक पहचान ज्ञात नहीं है।
इस ग्रन्थ के परिशिष्ट रूप में जो रत्नकोष और राजनीतिनिरूपण नामक दो साकृत ग्रन्य मुद्रित किये गए है उनमें भी मध्यकालीन जीवन की बहुविध सामग्री का उल्लेख पाया है। हमें प्रसन्नता है कि ग्रन्थ की उपादेयता बढाने के लिये श्री नाहटा जी ने उन्हें इस संग्रह में तकलित कर लिया है क्योंकि जितनी भी इस प्रकार की विखरी हुई सामग्री प्रकाश में लाई जा नके स्वागत के योग्य है।
इस प्रकार इस विशिष्ट वर्णन सग्रह का कुछ संक्षिप्त परिचय यहाँ दिवा गया है । तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से इसकी विशेष छानबीन की आवश्यकता है । हिन्दी साहित्य में यह एक नया क्षेत्र है। प्रयत्न करने पर इन प्रकार के
और भी ग्रन्थ मिलने की संभावना है। हम श्री नाहा जी के अनुगृहीत हैं कि उन्होंने परिश्रम पूर्वक इस प्रकार के उपयोगी साहित्य की रक्षा की।
काशी विश्वविद्यालय
६-४-१६५६
वासुदेवशरण अग्रवाल
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प्रस्तावना
विश्व अनंत वस्तुओं का भंडार है जहाँ प्रतिपल अनेक प्रसग बनते रहते है। उन वस्तुओं और घटनाओं को हम सभी देखते एवं जानते हैं पर उनका ठीक से वर्णन करना विरले ही व्यक्तियों के लिये सभव है। इसीलिये कहा गया है-'कहिवो सुनियो देखि बो, चतुरन को कछु और' ।
वस्तुओं और प्रसंगों को वर्णन करने की एक कला है। किसी बात का वर्णन करते समय उसका तादृश चित्र सा खड़ा कर देना तो बड़े महत्व की बात है ही पर उसे सुदर शब्दों में दृष्टांतों और उपमाओं के साथ वर्णन करना यह उससे भी अधिक महत्व की बात है। भारतवर्ष में प्राचीन काल से वर्णनकला की परपरा पाई जाती है। प्राचीन जैन थागमों से तो यह भली भाँति सिद्ध है। वैसे तो सभी भागों में जब भी नगर, राजा, चनखड, उद्यान, चैत्य श्रादि का प्रसंग पाया है, वहाँ उनका बडे सुदर ढंग से वर्णन किया गया है । पर उववाह (ओपपातिक। नामक उपांग सूत्र में तो वर्णनो का संग्रह विशेष रूप से पाया जाता है और अन्य भागमा में नगर, राजा श्रादि का वर्णन -- 'उववाइ सूत्र के जैमा जान लेना या कहना' इस प्रकार का मिलता है । ,इन वर्णनों में सास्कृतिक सामग्री प्रचुर रूप से संगृहीत है जिसके सबध में मैंने एक स्वतंत्र निबध में दिशानिर्देश किया है और पटना से प्रकाशित 'साहित्य' नामक पत्र में 'जैन श्रागमों की वर्णन शैली' का सक्षिप्त परिचय भी प्रकाशित किया गया था।
“वर्णनसंग्रह के दो महत्वपूर्ण ग्रंथ-जैन आगमों की वह पर परा परवर्ती साहित्य में भी पाई जाती है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश काव्यों और कुछ गद्यग्रंथों में भी कवियों एवं विद्वानों ने विविध प्रसंगों में नगर, राजा रानी, ऋतु श्रादि का वर्णन किया है। प्राचीन राजस्थानी और गुजराती में वह परंपरा और भी विकसित रूप में पाई जाती है। मैथिली और महाराष्ट्री भापा के भी 'वर्णरत्नाकर' एवं 'बैजनाथ कलानिधि' इस परंपरा की व्यापकता को सूचित करते हैं। इनमें से वर्णरत्नाकर को तो काफी प्रसिद्धि मिल चुकी हे पर 'बैजनाथ कलानिधि' का विवरण अव से २३ वर्ष पूर्व पत्तनस्थ प्राच्य
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( २ )
जैन भढांगारीय ग्रंथसूची के पृष्ठ ७४ से ७६ में प्रकाशित होने पर भी इस महत्वपूर्ण ग्रंथ की घोर अभी तक विद्वानों का ध्यान नहीं गया । इस ग्रंथ की ११५ पत्रों की एक प्रति सघवी पाढे के जैन भडार में है । ग्रथ अभी तक प्रकाशित होने से इसका थोड़ा सा अंश पाटण भंडार सूची से यहाँ उद्धृत किया जा रहा है
श्रातां नगरवर्णन
आटालिया, ऊपरीया, सालीया, गजद्वारें, राजद्वारे खढकीहारें, बाइलवाढे, चौकिया, मनोरम विलासमुरें ।
प्रसिद्ध सिद्धांचे निवेश
बौद्धाचे विहारा, जिनाचीं जिनालयां, कनकशाला, टकशाला, होमशाला, श्रध्ययनशाला, गीतनृत्य वाद्यशाला, जेणशाला, चित्रशाला, धर्मशाला, मद्यशाला, हस्तिशाला, ब्रह्मशाला |
श्रतेक मठ मढिया
'करुप्रायें नडें चौकिया धवनहारें वसुश्रारें मालवघें कोचनि बद्ध कोठारें, कोटिना, कड़ी, घोड डी, [क] ल्हस, दुबाले श्रावासगिया । सिंपणहारी, धूपताकासह ( ख ) प्रकटिते, उत्तगगिरि शिखरमकार्से देवतायतनें, चतुष्पथें २ विचिन्न चित्रित सभा मंडप | स्वर्णकलशा लंप्रासादसहश्रु ( स्रु ) । जैसे - गगन सरोवर कनककमलमुकुलीं अलकृत, मयूर, पारावत, चकोर, राजहस | तेया चित्रां प्रासादावरि इतवेतश्च संवरतेति श्राकाशसरोवरों जलविहंगमा ब्राह्मणभवनीं ऋचा व सामाचे उद्घोष सायंप्रातरग्निहोत्र हवने मंगलप्रकासक होमधूम । सुरभिपरिमलालकृत श्रीमंत भवनीं वहकते अगरुधूम । क्रय-विक्रय व्यवहारीं, लसभ्रम हट्टशाला प्रदेश | ठाई ठाई सतीस दढायुधां वे सरांवाचे या गरुडी | तांडवलास्यभेदें | भावका नटांसि पात्र परिपाठ वाचीं श्रभ्यासस्थानें । गोववते श्रगसरादींविश्वसाला । घटप्रासादसाधकां देसी मार्गसाधनें । तत feaत वन सुखिर वाद्य वादका सरावांची एकांतस्थानें परमप्रवोधा नंदनिर्भरां मुनीं वेद्याख्यान मठ राउलि वांसिह वारीं डाचिये कजिवीये भुने तीं तीं भूमींचीं भूविलासिणिचों धवलहारे।' इसके बाद सभा आदि के वर्णन है ।
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वर्णन प्रकार - वर्णन करने की प्रणाली में मुख्यतया दो बातों की चोर हमारा ध्यान जाता है श्रर्थात् प्रधानतया वर्णनों को दो प्रकारों में विभाजित
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कर सकते हैं ( १ ) भेद प्रभेदों एवं नामावलियों का विस्तार ( २ ) वस्तु और घटना का छटाकार अलंकृत शैली में चित्रण । इसमें तुकांत प्रासयुक्त गध की प्रधानता इसकी रोचकता में चार चाँद लगा देती है। छंद के बंधन से सुन्त होने पर भी तुकांत और मामयुक्त वर्णन शैजो बहुत ही मनोहर एवं श्राकपंक है । प्रस्तुन संग्रह में उपरोक्त दोनों प्रकार के वर्णन पाठको को देखने को मिलेंगे।
दो अन्य राजस्थानी वर्णनसंग्रह ग्रंथ-इस ग्रंथ में संगृहीत सभी वर्णन जैन विद्वानों के लिखे हुए है पर जैनतर लेखकों ने भी ऐमी कुछ रचनाएँ की है जिनमें से दो गजस्थानी रचनाएँ 'खीची गगेव नींबावतरो रो दोपहरी और राजान राउतरो बात बणाव' मेरे विद्वान् मित्र श्री नरोत्तमदास जी स्वामी संपादित राजस्थान पुरातत्यान्वेपण, प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से राजस्थानी साहित्यमग्रह भाग ५ में प्रकाशित हो चुकी हैं। ये दोनों ही रचनाएँ किसी चारण विद्वान् की लिखी हुई प्रतात होती हैं। इनमें प्राप्त होनेवाले दर्णन बहुत ही सुदर और लान्कृतिक दृष्टि से बड़े ही महत्वपूर्ण हैं। बात बणाव का अर्थ है कि बात किम तरह बनानी अर्थात् कहनी व लिखनी चाहिए। राजस्थान में हजारों बातें (वार्ताएँ, कथा कहानियाँ ) बड़े चाव से कही सुनी जाती रही हैं। बातो को अच्छे ढग मे छादार चोली में कहनेवाले व्यक्तियों को राजानों ठाकुरों श्रादि के यहाँ बड़ा संमान तो मिलता ही था पर जनसाधारण में भी उनका बड़ा श्रादर था । यद्यपि सैकड़ों राजस्थानी बातें लिखित रूप में भी मिलती हैं पर मौखिक रूप से कहने का ढग वड़ा ही अनोखा और निराला होता है जो कि लिखित रूप में प्रायः नहीं पाया जाता। फिर भी कई बातो में कई प्रसंग बड़े सुंदर रूप से लिखे हुए मिलते हैं।
वर्णकों के प्रति श्राफर्पण -वर्णकों के प्रति मेरा यार्पण बाल्यकाल से है जय मै ८-१० वर्ष का था तो पर्युपणो में कल्पसूत्र सुनने के लिये पिताजी आदि के साथ व्याख्यान में जाया करता था। कल्पसूत्र की लक्ष्मीवल्लभी टीका कल्पद्रुम कलिका में कई जगह राजस्थानी भाषा के सुदर वर्णक हैं जिन्हें सुनकर मुझे वढा श्रानद मिलता था। टीकाकार लक्ष्मीचल्लम ने ऐसे वर्णकों को 'वागविलास' ग्रंथ से उद्धृत करने की सूचना दी है अतः उस वागविलास ग्रथ को , प्राप्त करने की बड़ी उत्कठा हो श्राई पर कई वर्षों तक उसका कोई अनुसधान नहीं मिल सका।
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अब ये करीव ३० वर्ष पूर्व बड़ौदा शोरियटल मिरी से प्रकाशित 'प्राचीन गुर्जर काव्यसंग्रह' और मुनि जिनविजय जी संपादित 'प्राचीन गुजराती गद्यमंदर्भ' में संवत् १७८८ में मायास्यवसूनि रचित 'पृथ्वी चंद्र चरित्र' श्रपर नाम 'वागविलास' नामक बंध देखने को मिला तो पदी प्रसन्नता हुई। पर हम अथ में लक्ष्मीबानमनयि ने 'वागविताम' के हो वर्णन कल्पसूत्र की टीका में दिहैं वे प्राप्त नहीं हुए, इसलिये टीक्षा में उल्लिखित 'वागविलाम' नामक रचना और कोई होनी चाहिम धारणा के साथ उसकी शोध में लगा रहा।
संग्रह का प्रयत्न-महावि मम समंदर की रत्तनाशों के अनुसंधान फे प्रसंग मे जब बीकानेर के हस्तलिखित जैन ज्ञानभडारों की प्रतियों का अवलोकन शुरू किया तो सर्वप्रथम 'कुतूहन्नन् नानक एक छोटी सी सुदर वर्णनांवाली रचना मिली । उसके बाद मंवत् १७६२ की निनी हुई 'समाशृगार' (नंबर ३ ) की क प्रति प्राप्त हुई। इन दोनों की नस्लें करवा के रख ली गई । तदनंतर सन् १९५० में जैसलमेर की हितीय यात्रा में १६ वों शनानी की लिसी हुई एक थपूर्ण प्रति बड़े उपाय के गति लक्ष्मीचंद जी के पास देखने को मिली । अपूर्ण होने से इस रचना का कोई नाम ज्ञात नहीं हुश्रा । पर पत्रों के प्रत्येक टपात में 'मुक्लानुप्रयाम' नाम लिया था या । प्राप्त ८ पत्रों में १०८ वर्णन प्राप्त हुए पर बहुत खोज करने पर भी इसकी पूरी प्रति प्राप्त नहीं हुई।
जैसलमेर से बीकानेर लौटते समय मुनि पुण्यविजय जी के पास जैसलमेर पधारे हुए ढा० भोगीलाल साडेसरा और ढा. जितेंद्र जेतली से सर्वप्रथम मिलना हुया तो उन्हें अनुरोध करके बीकानेर साय ने पाया । प्रसगवश ढा० साडेमरा से यह ज्ञात हुआ कि उनके पास भी वर्णनों की एक विशिष्ट प्रति है । तो मैंने उनसे वह प्रति भी मंगवा ली। ४० पत्रों की वह महत्वपूर्ण प्रति भी अपूर्ण थी । सन् १९५१ के मार्च में ही मैंने उसकी प्रतिलिपि करवा ली। उसके बाद जोधपुर जाने पर वहां के केसरियानाथ जी के भडार में सभाभंगार ( नवर १) के ५८ पत्रों की एक अपूर्ण प्रति प्राप्त हुई इसमें १५८ वर्णन थे। इन सब प्रतियों व रचनाओं के श्राधार से 'जस्थान भारती' में 'कतिपय वर्णनात्मक राजस्थानी गद्य प्रथ' नामक लेख प्रकाशित किया । जिसमें उपरोक्त रचनाओं के छ चुने हुए वर्णन प्रकाशित किये गए । मानवीय वासुदेवशरण जी अग्रवाल को उपरोक रचनानी की
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प्रतिलिपियाँ देखने को भेजी तो आपने इन्हें महत्वपूर्ण समझकर संपादित कर देने को लिखा । नागरीप्रचारिणी सभा की ओर से इस ग्रंथ के प्रकाशन में भी अग्रवाल जी का मुख्य हाथ रहा है ।
इसी बीच बीकानेर के खरतर आचार्य गच्छ के ज्ञानभडार से कुशलधीर रचित सभा कौतूहल की ६ पत्रों की एक अपूर्ण प्रति प्राप्त हुई । श्रागरे ज पर विजयधर्मसूरि ज्ञानमंदिर से सभाशृंगार ( नंबर १ ) जो पहले पूर्ण मिला था उसकी सवत् १६७१ की लिखी हुई पूरी प्रति मिली और पाटोदी दिगंबर मंदिर, जयपुर से भी उसकी एक प्रति प्राप्त हो गई । इस तरह वह रचना तो पूरी की जा सकी । सौजन्यमूर्ति श्रागमप्रभाकर मुनिवर्य पुण्यविजय जी को लिखने पर उन्होंने पाटण भडार से 'सभागार ( नंबर २ ) की ६ पत्रों की प्रति सवत् १६७७ की लिखी भिजवा दी। जयपुर जाने पर मुनि जिनविजय जी के संग्रह में खरतर गच्छीय कविवर सूरचंद्र रचित 'पदैक विशति' नासक महत्वपूर्ण श्रज्ञात ग्रंथ की हम पत्रों की अपूर्ण प्रति अवलोकन में श्राई तो उसे भी साथ ले आया । मूल ग्रंथ संस्कृत में है पर उसमें प्रसग प्रसग पर राजस्थानी के गद्यवर्णन स्वर्ण श्राभूषण में जड़ाव की तरह सुनियोजित हैं । अतः उन सब वर्णनों को अलग से छोटकर लिखवा लिया गया । उसके बाद मुनि पुण्यविजय जी और जयपुर के दिगबर भंडार तथा विनयसागर जी के संग्रह की प्रतियाँ प्राप्त होती गई और कुछ अपने संग्रह की प्रतियों का भी उपयोग किया । चितौड़ जाने पर यति बालचंद्र जी के संग्रह से १ पत्र में लिखा हुआ सभाशृंगार ले आया । भारतीय विद्या भवन से जिनविजय जी के सग्रह के सभाशृंगार की प्रति मँगवाई। बड़ौदा, पूना थादि से भी प्रतियाँ मँगवाई गई । इस तरह २५-३० प्रतियों को प्राप्त करके इस मथ को तैयार किया गया है ।
जय
श्रावश्यक स्पष्टीकरण - यहाँ यह भी बतला देना आवश्यक है कि मैं इस ग्रंथ की तैयारी में लगा हुआ था तो डा० भोगीलाल जी साडेसरा से सूचना मिली कि वे भी एक 'वर्णक समुच्चय' ग्रंथ तैयार करने का प्रयत्न कर रहे हैं, इसलिये उनके संग्रह की जो प्रति मँगवाई थी उसका उपयोग मैं अपने ग्रंथ में नहीं करूँ । श्रतः उस प्रति के वर्णनों का इस ग्रंथ
में उपयोग नहीं किया गया । यद्यपि उसके बहुत से वर्णन सभाटगार आदि अन्य ग्रहों में प्राप्त होने से मेरे इस ग्रंथ में भी था चुके हैं पर कुछ वर्णन ऐसे भी रह जाते हैं जो साढेसरा जी की प्रति में ही थे, अन्य प्रतियों
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में नहीं। साडेसरा जी का वह वर्णक समुच्चय ग्रंथ महाराजा सयाजी राव विश्वविद्यालय, बड़ौदा से प्रकाशित हो चुका है। उनमें प्रमाणित समा. भृगार तो मुझे प्राप्त समाभंगार (नंबर १) ही है। अतः 'वर्णक ममुच्चय' के प्रथम भाग में मांडेसरा जी की प्राप्त प्रति में पत्राक २ न मिलने से पाठ त्रुटित रह गया था, उसको मैने उन्हें भेजकर वर्णक समुच्चय भाग २ प्रकाशित करवा दिया है। इस दूसरे भाग में प्रथम भाग के वर्षों का सास्कृतिक अध्ययन और शब्द सूचियाँ प्रकाशित की गई है जो बहुत महत्वपूर्ण हैं।
अपूर्ण प्रतियाँ काफी खोज करने पर भी सभा कुतुहूल, पदेक विंशति, मुत्कलानुप्रयास की पूरी प्रतियाँ कहीं से भी पूती नहीं हो सकीं
और न लक्ष्मीवल्लभो टीका में उल्लिखित 'वागविलास' अथ ही अभी तक प्राप्त हुा । इसलिये उसके अनुसंधान एवं प्रशाशन का कार्य श्रव भी वाजी रह जाता है।
सभाश्रृंगार नामक संस्कृत ग्रंथ-सस्कृत में भी समागार नामक एक पबद्ध ग्रंथ प्राप्त हुवा है जो अंचलगच्छ के कल्याणसागरसूरि के शिष्य द्वारा रचित है । इमथ ही ३प्रतियाँ देखने को मिली हैं। जिनमें से नित्यमणि जीवन लायब्रेरी, कलकत्ता की प्रति की नकल परिशिष्ट में देने को भेज दी गई थी, पर जब तक वह अन्यत्र प्रकाशित हो गई । राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर ( पुरातवान्वेपण संदिर ) भार बढ़ौदे आदि के जैन भंडारो की प्रतियों का भी उपयोग नहीं किया जा सका । 'ममा तरंग' नामक एक संस्कृत पथबद्ध अथ की एक प्रति भामेर भडार से मंगवाई गई थी और भडारकर श्रोरियटल इन्टीट्यूट पूना में भी इसी नाम वाले ग्रंथ की २ प्रतियां हैं पर उनका उपयोग इल अध में करना आवश्यक नहीं प्रतीत हुया क्योंकि उनकी वर्णनशैली भित प्रकार की है।
नेतर सस्कृत रचनाओं में गीर्वाण पद मंजरी और गीर्वाण वांगमजरी क्रमशः वरद भट्ट और दुढिराज के रचित , वर्णक पद्धति की रख्लेखनीय रचनाएँ हैं। इनमें से एक की प्रति हमारे संग्रह में भी है। ये दोनों रचनाएँ डा० उमाकांत साह द्वारा सशदित होकर जनंन ऑफ श्रोरियटल इस्टीट्यूट भाग ७ नंबर ४ ( जून १९५८ ) के अरु में प्रकाशित हो चुकी हैं।
परिशिष्ट-परिशिष्ट नंबर १ और २ में दो और महत्वपूर्ण रचनाएँ दी गई हैं जिनमें से प्रथम रत्नकोप'नामक ग्रंथ तो बहुत ही प्रसिद्ध रहा है ।
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उसकी हमारे संग्रह और बड़े ज्ञानभंडार की प्रति से पहले प्रेस कापी तैयार की गई पर उसके बाद अनूप संस्कृत लायब्रेरी की : प्रतियाँ और मँगाकर देखी तो उनमें काफी पाठभेद मिला । पर उन सब पाठभेदों का देना संभव न होने से केवल उनमें जो विशेष वस्तु प्रकारों के नाम मिले हैं उन्हीं की सूची दे दी गई है । परिशिष्ट नंबर २ में राजनीति निरूपण नामक संस्कृत ग्रंथ दिया गया है । वह मुगलकालीन शब्दों एवं संस्कृत पर महत्वपूर्ण प्रकाशडालता है | इस रचना की एक मात्र प्रति जैन भवन, कलकत्ते की लायब्रेरी से मिली है । परिशिष्ट की सामग्री प्रतिपरिचय छपने के बाद तैयार की गई. इसलिये उसमें इन रचनाओं की प्रतियों का परिचय नहीं दिया गया है ।
उपयोग - वर्णकों का उपयोग ग्रंथों में किस प्रकार किया जाता है इसका सुंदर उदाहरण 'पृथ्वीचद चरित्र' और 'पदैक विशंति' ग्रंथ हैं । एक ही वर्णन को, भिन्न भिन्न लेखकों ने कुछ घटा बढ़ा कर भी लिखा है । कुशल धीर ने पुराने वर्णनों में किस तरह अपनी ओर से कुछ मिलाकर परिवर्धन किया है इसकी कुछ सूचना इस ग्रंथ में प्रकाशित 'सभा कुतूहल' के वर्णनों से पाठकों को मिल जायगी । फुटकर पत्रों में भी ऐसे वर्णन लिखे मिलते हैं । जिनमें प्रकाशित वर्णकों से कुछ भिन्नता है, पर उन सब वर्णनों के उपयोग से यह ग्रंथ काफी बढ़ा हो जाता है ।
'नवीन उपलब्ध ग्रंथ-अभी अभी मेरे भ्रातृपुत्र भँवरलाल को 'श्राभाएक रत्नाकर' नामक ग्रंथ का प्रथम खंड प्राप्त हुआ जिसमें बहुत सी कहावतों के साथ कुछ ऐसे वर्णनों का भी प्रारंभ में संग्रह किया गया है । इससे मालूम होता है कि वर्णकसंग्रहों का व्यापक प्रचार था और ऐसे श्रनेक संग्रह समय समय पर तैयार होते रहे हैं । खोज करने पर और भी ऐसी मूल्यवान सामग्री अवश्य मिलेगी | सभागार की तो अनेक प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं।
वर्णनसंग्रहों के नाम-वर्णन करने की प्रतिभा प्रत्येक व्यक्ति में समान रूप से पाई जाना संभव नहीं इसलिये कुछ प्रतिभासंपन्न व्यक्तियों ने वर्णनों के संग्रहप्रथ तैयार कर दिए, जिनको अन्य लोगों ने अपनी रचनाओं में यथाप्रसंग स्थान दिया । ऐसे वर्णनसंग्रहों का नाम सभाशृंगार, वागविलास, वर्णना सार, सभा कौतूहल, आदि रखे गए ।
१. दे० मरुभारती वर्ष ८
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प्रस्तुत ग्रंथ का संपादन- इनमें से जितने ऐसे ग्रंथ राजस्थानी गद्य में प्राप्त हुए उनकी प्रतियों को कई ज्ञानभंडारों से मँगवाकर विषय वार वर्गीकरण करके इस ग्रंथ में दिया गया है। पहले ऐसी रचनाओं को मूल रूप में अलग अलग प्रकाशित करने के लिये उनकी प्रतिलिपियों की गई पर बहुत से वर्णन एक दूसरी रचना में समान रूप से मिलते थे इसलिये उस रूप में प्रकाशित करने से बहुत अधिक पुनरावृत्ति होती । ग्रतः पुनरावृत्ति न होने और उपयोगिता को बढ़ाने के लिये प्रत्येक वर्णन को अलग अलग लिखवाया गया फिर समान वर्णनवालों का पाठ मिलान कर पाठभेद लिखा गया और उन्हें लमबद्ध करके १० भागों में विभाजित किया गया । इस कार्य में कई महीनों तक कठिन परिश्रम करना पड़ा । इसलिये ग्रंथ को तैयार करने में अधिक समय लग गया और फिर मुद्रण में भी देर होती रही । फिर भी पाठकों के समक्ष इस रूप में रखते हुए, किंचित् संतोष का अनुभव होता है ।
श्राभार -- इस कार्य में श्री भँवरलाल नाहटा, ताराचंदजी मेठिया, नरोत्तमदास जी स्वामी और श्री वदरी प्रसाद जी साकरिया मे बड़ी सहायता मिली है । श्री वासुदेवशरण जी अग्रवाल ने भूमिका लिखकर मुझे बहुत उपकृत किया है। श्री चद्रमेन जी मोरल ने इसके माहित्यिक सौदर्य पर लिखा है । ना० प्र० सभा काशी ने इसे प्रकाशित किया है । एतदर्थ तभी सहयोगियों का मैं हृदय ने श्राभारी है ।
अगरचंद नाहटा
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सभा श्रृंगार का साहित्यिक सौंदर्य
वर्णकसाहित्य में विभिन्न वस्तुओं के वर्णन का संग्रह होता है। इसी प्रकार का एक संग्रह 'सभा शृगार' है जिसे 'वर्णन संग्रह' भी कहा गया है । यद्यपि डा० साडेसरा ने भी अपने ग्रंथ में सभा श्रृंगार का समावेश किया है। पर वह वर्णन एक ही संग्रह का है और अधूरा है जिसका त्रुटित अंश उन्होने बाद में प्रकाशित किया है। वह श्राकार में भी छोटा है। प्रस्तुत 'सभा शृगार' को श्री अगरचंद जी नाहटा ने अलग अलग ५ 'सभा शृंगार' के वर्णनों की कई प्रतियों के आधार पर संकलित किया है। इन पॉचों का तथा विभिन्न प्रतियों का परिचय ग्रंथ के अंत में दे दिया गया है।3 डा० साडेसरा ने 'वर्णक समुच्चय' (भाग १) नामक ग्रंथ में जो वर्णक संग्रह दिया है वह महत्वपूर्ण है पर नाहटा जी के 'सभा शृंगार' की विशेषता यह है कि उन्होंने सभा शृगार के पाँचों संग्रहों को ज्यों का त्यों नहीं छापा है बल्कि उन्होंने समान विषयों को अलग अलग करके एक जगह प्रकाशित किया है। साथ ही डा० साडेसरा द्वारा प्रकाशित 'समा शृंगार के अंश को उन्होने छोड़ दिया है।
'सभा शृंगार' निम्नलिखित १० विभागों में विभाजित है१. देश, नगर, वन, पशु-पक्षी, जलाशय २. राजा, राजपरिवार, राजसभा, सेना, युद्ध । ३. स्त्री-पुरुष वर्णन , ४. प्रकृति वर्णन [ प्रभात, संध्या, ऋतु श्रादि ] ५. फलाएँ और विद्याएँ
१. डा० भोगीलाल ज. सांडेसरा, वर्णक समुच्चय, भाग १, पृ० १०५-१५६
२. डा० भोगीलाल ज. सांडेसरा, वर्णक समुच्चय, भाग २, पृ० १२०-१२३
३. श्री अगरचंद नाहटा-सभा शृंगार, परिशिष्ट २, पृ० १-४
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६. नातिन और बधे ७. देव, वेताल श्रादि ८. जैन धर्म मुन्धी ६. सामान्य नाति वर्णन १०. भोजनादि वर्णन
वर्णकसाहित्य में वन्तुयों के विभिन्न नामरूपों का वर्णन होता है। इस प्रकार का वर्णन लेखक के शानभडार की तो मनना देता ही है, साथ ही पाठक वा श्रोता भी उसे अपने ज्ञान की वृद्धि कर लेता है। इन वर्णनों के द्वारा पाठक के समक्ष एक चित्र उपस्थित हो बाता है और वह वर्य विषय को सरलता से ग्रहण कर लेता है। हम प्रकार फा परिनिष्टित
और रूढ़िगत रूप हमारे मस्तिष्क की बौद्धिक चेतना को तो उद्बुद्ध करता है पर वह हमारे हृदय की मार्मिकता को सजग करने में अधिकारातः असमर्थ रहता है। पर वर्णकसाहित्य के सभी लेखक समान नहीं होते। उनमें से कुछ कविहृदय होते है और उचित प्रसंग पाकर उनका अंतर भावुकता के साथ विषय का चित्रण करने लगता है। 'सभा शृगार' भी इसका अपवाद नहीं। इसमें अधिकांशतः वस्तुओं के नामलों का ही वर्णन है पर कहीं कहीं फाव्यछटा के भी दर्शन होते हैं ।
साहित्यिक दृष्टि से सभा शृगार का 'युद्धवर्णन' उत्कृष्ट है। इसमें स्वामाविकता के साथ साथ रसमन करने की शक्ति है। यह वर्णन या तो लेखकों ने पूर्व ग्रंथों के आधार पर किया होगा अथवा यह भी संभव है कि उनमें से किसी की व्यक्तिगत अनुभूति इसमें अभिव्यक्त हुई हो। पंथ में ७ युद्धवर्णन हैं। इनमें परस्पर कुछ न कुछ समानता होते हुए भी भिन्नता है। प्रथम युद्धवर्णन के श्रारंभ में दोनों दलों की सेना के मिलने पर लो दृश्य उपस्थित हुत्रा उसका चित्रण किया गया है। जब दोनों ओर की सेनाएँ भिड़ गई तो चारों ओर रेत ही रेत छा गई । उससे अंधकार हो गया और वातावरण की धूमिलता के कारण अपने पराये का भी ज्ञान न रहा । इसके बाद युद्ध का वर्णन किया गया है । कहीं कहीं श्रारंम में युद्ध के वाब बचने और वीरों के सजने का वर्णन है यथा चतुर्य युद्धवर्णन में
वीर मादल वाज्या, सूर साज्या । जय ढक वाली, नीसत नीकली गया तानी । त्रंबक- त्रत्रहायड, नेजा लहलहायइ ।
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____ कहीं कहीं युद्ध में भाटों द्वारा वीरों को उत्साहित करने का भी वर्णन है। द्वितीय युद्धवर्णन सबसे विस्तृत है और उसमें संघर्ष का जो चित्रण है वह काल्पनिक प्रतीत नहीं होता। ऐसा प्रतीत होता है कि मृत्यु के ताण्डवनृत्य को अपने सामने देखकर ही लेखक ने लेखनी उठाई हो । सेना के न्यूह बनाकर खडे होने के बाद युद्ध के बाजे बजे और रण प्रारंभ हुआ। धनुष से निकलकर तीर मस्तकों से जा टकराए । खाडे ऐसे चल रहे थे मानो वर्षा की झड़ी लगी हुई हो। वीर एक दूसरे को काटने लगे। कई वीर सिर कट कर गिर जाने पर भी लड़ते रहे। फइयों की तलवारें टूट गई। कायर लोग भागने लगे। इस प्रकार के युद्ध को देखकर वीर युद्धोन्माद से भर गए पर फायर फॉपने लगे
भाजेवा लागा धनुदंड। जाएवा लागा शिरः खंड । पड़ेवा लागी खाडा तणी झड़। बजेवा लागी सुत्रट तणी काटकड़ । नाचेवा लागा भड़ फवंध । फोटिवा लागा धन विंध । त्रुटेवा लागा खड्गफल । नासेवा लागा फायर दल। इसइ सग्रामि सुभट गाजह ।
फायर थर थर धूनह । कहीं कहीं हाथी, घोड़ों और रयों की तैयारी और सृष्टि पर पड़नेवाले उनके प्रभाव की व्यंजना वन्यात्मक ढंग से की गई है
रथ थडहडइ, रण काहल बडबडइ । गजेंद्र गडगडइ, घोडे पाखर पडइ । पृथिवी चलचलइ, समुन्द्र झलझलइ ।
शेष सलसलह, सूर सामला हलफलइ । यद्यपि युद्धवर्णनों से पूर्व 'सभा शृगार' में शस्त्रवर्णन अलग से दिए हुए हैं पर इन युद्धवर्णनों से भी अनेक प्रकार के शस्त्रों का वर्णन किया गया है बो लड़ाई के समय काम में लाएं जाते थे । यदि किसी युद्धवर्णन का श्राधार
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ऐतिहासिक घटना हो तो उसका वास्तविक स्वरूप समझने में भी सहायता मिलती है, यथा ७ वें युद्धवर्णन से जो फालिकाचार्यकथा से लिया गया है। इसमें कालिकाचार्य का गईभल के साथ युद्ध का वर्णन है। युद्ध श्रारंभ होने से पूर्व जीते जी मैदान न छोड़ने की सौगध ली गई -
श्रामल पाणी फीधा, मानण रा । स लीधा । पर नत्र युद्ध में कालिकाचार्य और उसके दल की विफट मार पड़ी तो विपक्षी दल के लोगो की चे दशा हुई उसका वर्णन इस प्रकार किया गया है
P
फाबलि मीर, नखह तीर । लागी खडा खड़, वागी भड़ाभड़ि । गभल्लरी फौज भागी, सवल लीक लागी । जे हूँतो सेनानी, ते तो धूरखी थयो कानी । जे हूँतो कोटवाल, तेचो भागतो ततकाल । जे हूँतो फौजदार, तिणरै माथै पड़ी मार । जे हूता चौरासीया, ए दाते त्रिणा लीया ।
जे हूँता खवास, तीर जीव वा री मुंफी पास । युद्धवर्णनो के पूर्व विभिन्न प्रकार के शस्त्रों, गज, अश्व, ऊँट, रथ श्रादि का वर्णन किया गया है। शस्त्रों के वर्णन नहाँ सूचीमात्र हैं वहाँ गन, अश्व, ऊँट श्रादि के वर्णन में उनकी विभिन्न जातियों व श्राकृति का भी वर्णन किया गया है।
नायिका के अंगों का, उसके श्रामरणों का और सुष्टु स्वभाव का वर्णन शृंगार रस की निष्पत्ति में सहायक होता है। पर सभा शृगार में सुन्नी के अतिरिक्त कुस्त्री के जो वर्णन है वे रति के स्थान पर जुगुप्सा भाव उत्पन्न करते हैं। विरहिणी के दो वर्णन है । दोनों में ही वियोगिनी की मानसिक दशा के साथ उसकी उद्वेगजनित क्रियात्री का वर्णन किया गया है। विरहदशा में भोजन से विरक्ति हो जाती है और सब प्रकार के शृगार विरहिणी को अंगारवत् प्रतीत होते हैं। चंद्रमा की शीतल चाँदनी उसके-लिये वृष राशि के सूर्य के समान दग्घकारी हो जाती है। वियोग की याग से उसका शरीर मलता है और सहेलियों का साथ उसे नहीं सुहाता ---..
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किसी एक विरदिनी हुई? विरावधा, पाहारिपरि रद अनास्था । सर्व गंगार, माना ग्रंगार । चंद्र तपा पान, ध्या विविवान।
विहानल प्रज्वलइ अंगु, सवी नन विरंग । विरदिनी गृपने हार को तोड़ती है, झागों के चलयों फो मरोद रही है, गहनों को तोड़ रही है, अपडे उतारकर ढेर लगा रही है, किंकिणो की वनि प्रहीनदा लगती श्रतः उसे अलग कर रही है। चए अपने गस्तफ और वक्षस्थल पर प्रहार करती है, बालों को बिखेर रही है और धरती पर लोट फर प्रामुग्री से अपने कंगुफ का भिगो रही है ----
हार रोहती, वलय मोहनी । प्राभाय भागती, गल गानती। फिक्शिी एलाप छोड़ती, मनफ फोड़ती । वक्षस्थल तादती, कुचूड पादती । केश कनाप रोलावती, पृथ्वी तनी लोटती।
श्रीसू फरी पं.चुक सोंचती, डोडलो हटि मोचती । विद विलाप का वर्णन करते हुए प्रेमी के विभिन्न विशेषणों का प्रयोग किया गया है -
हा फात हा हृदयविधात! हा प्रियतम । हा सर्वोचम! हा सौभाग्यसुंदर।
हे प्रेमपान ! स्त्रीस्वभाव का जो वर्णन किया गया है उसमें 'त्रियाचरित्र' को ध्यान में रखफर नारी के चरित्र की अस्थिरता फा मनोवैज्ञानिक ढंग से उद्घाटन किया गया है। स्त्री के कामों की गणना तो निम्न जाति की स्त्री के कार्यों को ध्यान में रख कर की गई है पर उसके जो नाम लिखे गए है वे केवल श्राभिजात्य वर्ग और रानियों के नाम है। हाँ विभिन्न प्रातों की स्त्रियों के नामों का वर्णन अवश्य स्थानगत विशेषता लिए हुए है। पुरुषवर्णन में
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उसके विभिन्न अंगों के सौंदर्य का चित्रण किया गया है और अनेक गुणों की सूची दी गई है। दुष्ट व्यक्ति के स्वभाव का चित्रण कर संग न करने योग्य पुरुप का स्पष्ट परिचय दे दिया गया है।
सभा शृगार के वर्णनों पर मध्ययुगीन सामंती वातावरण का स्पष्ट प्रभाव है । राजाओं के अनेक प्रकार देकर उनके विभिन्न चित्र प्रस्तुत किए गए हैं। झहीं वीर, कहीं उदार, कहीं न्यायी, कहीं दानी, कही यशस्वी और कहीं इन सबका समवेत रूप लिए हुए राना का वर्णन है। रानायो का केवल उदात्त रूप ही नहीं है, उनके अहंकारी लप, कोपातुर रूप, रूठे हुए रूप नादि भी दिखाए गए हैं । रानकुमारों, रानियों और मंत्रियों का भी एकाधिक वार वर्णन किया गया है। पौराणिक नरेशों में राम, रावण, वासुदेव श्रादि का वर्णन है। राजसभा का वर्णन तो विस्तृत है ही, राज्य के अंगों और कई अन्य कर्मचारियों का मी परिचय दिया गया है।
प्रथम विभाग में देशों के नाम देने के बाद जो नगरों का वर्णन किया गया है वह कई जगह तो विशेष नगरों का है, जैते पृष्ठ ८ पर नगरवर्णन संख्या ६ में उजयिनी का वर्णन है। लेकिन यह वर्णन भी किसी कालविशेष का वास्तविक वर्णन न होकर लोकाश्रित है। इसीलिये विक्रमादित्य की विभिन्न लोककथाओं में श्रानेवाले विभिन्न नाम इसमें है। कई वर्णनों में यद्यपि नगर का नाम नहीं दिया हुआ है पर उस वर्णन से नगर की समृद्धि और सुव्यवस्था का ज्ञान होता है
नगर ने विष खुश्याली दीनै छैभरिया दीसै हाट, अनेफ स्वर्णमय घाट । मोकली पोली वाट, चालै घोड़ा तणा थाट ।
लोफ नै नहीं फिसो उचाट । नगरवर्णन के अंतर्गत चौरासी चौहटों का नाम दो जगह है। इनसे वानार में मिलनेवाली विचित्र वस्तुत्रो और उनके विक्रेताओं के नामों का पता चलता है। निश्चय ही चौरासी चौहटे किसी बड़े नगर में ही संभव हैं । यहाँ पाई जानेवाली भीड़ इतनी अधिक है कि मनुष्य धीरे धीरे चलते हैं। भीड़ के कारण लोग एक दूसरे का बिलकुल स्पर्श करते हुए चलते हैं । मीड़ के कारण सॉस लेना भी कठिन है। भीड़ इतनी अधिक है कि एक तिनका मी नीचे नहीं गिर सकता। ननर धुमाकर, पीछे मुड़कर, देखना
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फठिन है। यदि थाली फेंकी जाय तो वह सब लोगों के सिरों के ऊपर ही तैरती रहे, नीचे न गिरे
चौरासी चौहटा भीड़, मनुष्य शनै शनै फिरै । हिइ हिई दलै, हारइ हार त्रूटै । पूर्वी पूठ मिले, वाहे बाह घसाइ । सास न लिवराइ, धड़ाधड़ हुई। तिणखलो धरती पड़ि न सकै, दृष्टि फेरवी न सके।
याली माथा ऊपर तरै, इम अनेक भीड़ हुई। नगरवर्णन के उपरात वहाँ के लोगों का, घरों का, प्रासाद का वर्णन किया गया है और बाद में अनेक प्रकार के वृक्षो, पक्षियों, चतुष्पदों, कीटों व पर्वतों के नाम गिनाए गए हैं। इनका वर्णन प्रायः रूढ है। इनके बाद सरोवर व पनघट का वर्णन करके नदियों व समुद्रों के नाम देकर इस विभाग को समाप्त किया गया है। सरोवरवर्णन में तो विशेष रमणीयता नहीं है पर पनघट का जो चित्र अंकित किया गया है वह स्वाभाविक होने के साथ साथ श्राफर्पक भी है। राजस्थान मे जहाँ पानी का प्रभाव होने के कारण दूर दूर से जल लाना पड़ता है, इस प्रकार का दृश्य किसी भी पनघट पर देखा जा सकता है। पानी भरने के लिये भीड़ हो रही है। कोई तेजी से दौड़ रही है, कोई सिर पर वेहड़ा रख रही है, कोई किसी से टकराकर गिर रही है। कभी कोई स्त्री दूसरी स्त्री की साड़ी मिंगोकर उल्टे उसी से लड़ रही है। मोटे अंगवाली तो गाली दे रही है और दुर्बल अंगवाली वैसे ही श्रप्रसन्न हो रही है । सास भी बाद में उन्हे बुग भला कहती है
बईरां नी भीड़, हुइ पीड़, जूटें चीड़। एफ ऊतावली दोडे छै एक माथै वेहई चौहडे छ। लूगुंडु ते मार्थं श्रोछई, बेहड़ों ते फोड़े छई । एफ एक नै अडै छई धडाधड पडै छई। माहो माहि लडे छई ।। हवें नान्ही लाडी, चीखल थी पड़ें श्राडी। वीनी नी भींचाइ साडी, ते माटेइ करे राडी। सोक सोफनी फर चाडी, ढीले नाडी। खीने माडी, सासई पाछी ताडी ।।
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पनघट का अंतिम दृश्य तो ध्वन्यात्मक सौंदर्य लिए हुए है। विभिन्न याभूषणों के नाद को लेखक ने अनूठी व्यंजना से व्यक्त किया है
घूधर ते घमके छै, पायल ते ठमके थे। वेहइ अरघट्ट, वर्णेक गगह । बाणवट्ट, यावे दवह ॥ एवं पण घट्ट ।
प्रकृति के प्रति श्रादिम युग से ही मानव फा सहज श्राकर्षण रहा है। प्रभात और सध्या नित्य होते हुए भी प्रति दिन की नवीनता से युक्त रहते है पर इनका मनोहारी रूप नागरिक जीवन के व्यस्त वातावरण में प्रतीत नहीं होता। सभा शृगार में प्रकृतिवर्णन के अंतर्गत प्रभात, संध्या, रात्रि नादि का जो वर्णन किया गया है वह मुस्लिम फाल का है और उसमें प्रमात, सध्या आदि का प्राकृतिक सौंदर्य नहीं है बल्कि तचद् कालों में तगत् के विभिन्न प्राणियो पर पड़नेवाले प्रभाव का वर्णन है। अँधेरी रात का वर्णन नागरिकता लिए हुए है। लेखक की दृष्टि श्रविकाशतः शृंगारपरक होने के कारण वह गणिका, जार, दूती प्रादि के चतुर्दिक चक्कर लगाती रही है।
ऋतुवर्णन में वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत श्रादि का वर्णन है। वंसत का एक ही वर्णन है। उसमें ऋतुराज के प्रागमन के समय कोयल की कूक, मंजरित पान, उल्लसित अशोक, विकसित चंपक फली श्रादि का वर्णन और लोफ पर उसका प्रभाव दिखाया गया है। ग्रीष्म के ३ वर्णन है। प्रथम के श्रारम में राजस्थान की उस भीषण गर्मी का वर्णन है नत्र चारों ओर लू चलती है, धूप के कारण नंगे पैर जमीन पर चलने से पैर ! नलने लग जाते हैं, पेड़ों के पचे जलकर गिर जाते हैं। जलाशय सूख नाते हैं और पनिहारने पानी के लिये लडती हैं, लोग काम पर नहीं जा पाते, गला सूख रहा है, सब छाया की शरण ग्रहण कर रहे हैं
लू वाजै छै, शीत लाजै छै । । पग दाझै छइ, तावड़ों तपै छई। रुख पात झरै छइं, रुख पवनै परे छई। पणिहारी पाणी माटि ल. छइं, बावकूत्रा सुकै छई।
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लोग काम चूर्फ छइं, पंथीमार्ग मूकै छई।
तावड़ो लुफैं छई, कंठ सूफैं छई।। पर इसके उत्तरार्द्ध में गर्मी से बचने के लिये श्राभिजात्य वर्ग द्वारा प्रयुक्त उपकरणों का वर्णन है। वर्षा :काल के ५ वर्णनों में लगभग समानता है। लगभग सभी में काली घटा उमड़ने का, धारासार वर्षा का, मेढकों के बोलने का, जलप्रवाह बहने का, पथिको की यात्रा रुकने का वर्णन है। कहीं कहीं वर्षा से मकान गिरने, 'छप्पर टपकने, हरियाली होने, मोर नाचने, किसानो के हल चलाने श्रादि का वर्णन भी है। ___ 'सभा शृंगार' में अलंकारों का सुंदर प्रयोग हुअा है। गद्यमय तुफात होने के कारण अनुप्रास तो लगभग सर्वत्र ही मिलता है। कहीं कहीं उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा श्रादि अल कार भी पाए हैं। 'सभा शृंगार' का विषय और उसका उद्देश्य बौद्धिकता से सबधित होने के कारण जो अलकार पाए हैं के सहज रूप से ही श्रा गए हैं। राजसभा में बैठे हुए राजा की शोभा का वर्णन करते हुए निम्न प्रकार से उपमा दी गई है -
सभा माहि राजा बइठा थको सोभइ छै ते केहवोअक्षर माहि जिम ओंकार, मत्र मांहि ह्रींकार । गंधर्व माहि तुवर, वृक्ष माहि सुरतरु । सुगंध माहि निम कपूर, श्रोत्सव माहि निम तूर । वस्त्र माहि जिम चीर,........ वाजित माहि जिम त्रंभा, स्त्री माहि जिम रंभा । शास्त्र मांहि जिम गीता, सती माहि जिम सीता । देव माहि जिम इद्र, ग्रहा माहि जिम चंद्र।
द्वीप माहि जिम जंबू द्वीप, प्रदीप माहि जिम रत्न प्रदीप । 'सभा शृंगार' किसी एक व्यक्ति की रचना न होकर कई वर्णन ग्रंथों का समूह है अतः उसमें भाषा का भी एक रूप नहीं है। कहीं संस्कृत, कहीं अपभ्रश, कहीं व्रजभाषा, कहीं गुजराती और कहीं मारवाड़ी का रूप होने के कारण पाठक के लिये भी यह आवश्यक हो जाता है कि वह उपर्युक्त भाषाओं का ज्ञाता हो अन्यथा उसे वर्णनो को सम्यक् प्रकार से समझने में. कठिनाई हो सकती है। कहीं कहीं अरबी फारसी के भी शब्द पाए हैं। ऐसे शब्द विशेषत: मुस्लिम काल से प्रभावित वर्णनसूचियों में हैं। -
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( १० ) 'समा शृंगार उस वर्णकसाहित्य की एक बहुमूल्य कड़ी है जो संस्कृत, प्राकृत, अपनश एवं देशी भाषाओं में अपनी एक दीर्घ परंपरा बनाए हुए है । डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने कई उदाहरण देकर बताया है कि इस प्रकार के वर्णकसाहित्य के प्रमाण प्राचीन काल से ही उपलब्ध होने लगते हैं।' हिंदोसाहित्य का विद्यार्थी पृथ्वीराजरासो, पद्मावत, सूरसागर श्रादि ग्रंथों की वर्णनसूचियों से तो परिचित है पर अभी वर्णकसाहित्य की इस विशाल पृष्ठभूमि की ओर विद्वानों का ध्यान कम गया है। श्री नाहटा जी ने बड़े श्रम से जो वर्णन संग्रह तैयार कर हिंदीसाहित्य के विद्वानों के सामने प्रस्तुत किया है उससे इन नये क्षेत्र में कार्य करने की अन्य विद्वानों की भी प्रेरणा मिलेगी, ऐसी आशा है।
--चंद्रगदान चारण
भारतीय विद्यामंदिर शोध प्रतिष्ठान,
बीकानेर ।
1.हिंदुस्तानी, भाग २१ अंक [जनवरी-मार्च १९६० ] में 'वर्णकसाहित्य' शीर्षक लेन ।
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प्रति-परिचय
सभाशृंगार नं० १ संकेत
स्पष्टीकरण ( स० १)सभा श्रृंगार नं०१-इसकी दो पूर्ण और दो अपूर्ण, कुल चार प्रतियाँ प्राप्त हुई, जिनका परिचय
(१) विनयधर्मसूरि ज्ञानमंदिर, आगरा की प्रति । शुद्ध । पत्र २ से १६, पक्ति १५, अक्षर ४८ से ५०, ले० १७वीं का पूर्वार्द्ध । अत-इति सभा शृंगार वचन चातुरी ग्रथ समाप्तः ।
(२) पाटोदी दि० मंदिर, जयपुरपत्र २०, पक्ति १७ ाक्षर ५२ लेखन स० १६७१ वर्षे बाह मासे शुक्ल पक्षे ३ दीतवार । लेखक साह दासू सुतेन । मा. सारंगपुर वास्तव्य ।
(३) केशरियाजी मदिरस्थ खरतरगच्छ भंडार, जोधपुर । डा. १५, पोथी १६६, पत्र १८, पं० १५, अक्षर ४८, वर्णन १५८ वां चालू, फिर यपूर्ण । शुद्ध । लेखन काल १७ वीं शती। प्रारम्भ के पत्र में पीछे से लिखा गया है 'व्याख्यान पद्धति वचनिका।'
(४) (अ० पु० ) मुनि पुण्यविजयजी सग्रहपत्र ६ से १५, पंक्ति १७ अक्षर ६५ (यादि के ५ पत्र नहीं) लेखन काल १७ वीं शती। अत में-"स्त्री गुणाः ४२" के बाद ग्रंथ का नाम व प्रशस्ति नहीं है। पुरुष की ७२ कला से पूर्व "इत्युपदेश लेशः समाप्तः मिति भद्र शुभं भवतु ॥२॥" लिखा है अतः वही समाप्ति संभव है। मुनिजी ने प्रति के कवर पर 'पदार्थ वर्णनां' नाम लिखा है।
सभा शृंगार नं०२ (सं० २ ) इसकी एक ही प्रति मुनि पुण्यविजयजी से प्राप्त हुई। इसके
वर्णन अन्यों से भिन्न व मौलिक है। मगलाचरण श्लोक में इसका नाम "वर्णन सार" दिया है।
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प्रति=पाटन भंडार । डा० २६४ नं० १२६४० पत्र ६, (अत का एक पृष्ठ रिक्त, पत्र ५३ लिखे ), पक्ति ३६, अक्षर ५३ । अंत-'इति सभा शृगार ग्रंथ लवलेशोयं । लिपिकृतः संवत् १६७७ वर्षे आश्विन २०८ दिने मगल । छः॥
समाश्रृंगार नं० ३ ( स० ३-इसकी दो पूर्ण और तीन त्रुटित (अश रूप ) प्रतियाँ मिलीं ।
१-मोतीचंद खजानची सग्रह । पत्र १२ की पूर्ण प्रति । न्य एक गुटका सं० १७६२ के लिखित से नकल करवाई थी उसे बहुत वर्ष होने से स्मरण नहीं, वह कहॉ का था।
ले० प्र० इति सभा शृगार सम्पूर्ण । सवत् १७६२ वर्षे फाल्गुन सुदी सप्तम्या तियो भृगुवारे, गणि महिमाविजयेन लिपिकृता श्रीरस्तु । श्लोक ग्रन्याग्रन्थ ७५६ । ए ग्रन्थ सख्या जायते ।
२-भाडारकर अोरियन्टल रिसर्च इन्टोन्यूट पूना, की प्रतिन०६७१ सन् १८६६ से १६१५ का संग्रह । इसमे न० १ प्रति के 'अंधारी रात' वर्णन तक का प्रसग श्राया है। नं० १ में इसके बाद कुछ वर्णन और है।
अत इस प्रकार है-इति सभाशृंगार सपूर्णम् । स० १७८१ वर्षे जेठ सुदी ७ चद्भवासरे । लिखितम् बानपुर नगरे । शुभभवतु ।।
सभाशृंगार नं०४ (सं० ४) उपाध्याय विनयसागरजी सग्रह कोटा की प्रति, पत्र १०, पंक्ति १७,
अक्षर ४३ । इसके प्रारभिक वर्णन तो सभाशृंगार न० ३ के ही हैं । पीछे के स्वतंत्र हैं और वे अधिकतर जैन सबवित ही है । लेखन प्रशस्ति इस प्रकार हैं :-इति सभा_गारहार सपूर्णम् । लिखितं गणि उत्तमकुशलेन श्री श्रामेठ नगरे श्री पाश्वं प्रसादात् । प्रति १६वीं शताव्दि की लिखी हुई है। भारतीय विद्याभवन, बबई से मुनि जिनविजयजी संग्रह की प्रति पीछे से मिली, जिस में प्रारभिक अश ही या और नई लिखी हुई थी इसलिये उसका उपयोग नहीं किया गया ।
सभाशृंगार नं० ५। (सं० ५) चित्तौड़ के यति बालचदजी के संग्रह से १ पत्र १८ वीं शती का
सभाएंगार के नाम का मिला था, जिसमे कुछ वर्णन थे ।
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(सू०) खरतर गच्छीय कविवर सूरचंद रचित 'पदैकविंशति' नामक ग्रंथ के
१८ पत्रों की अपूर्ण प्रति मुनि जिनविजयजी से प्राप्त हुई थी । मूल प्रथ संस्कृत में है, पर बीच-बीच में प्रसगानुसार राजस्थानी भाषा में वर्णन दिये गये हैं। प्रति १७ वीं शती के उत्तरार्द्ध की, अर्थात् रचना के समकालीन लिखित है। ग्रथ अपूर्ण अवस्था में मिला है, अतः पूर्ण प्रति
के मिलने पर और भी बहुत से सुदर वर्णन प्राप्त होगे । कु०-१८ वों शताब्दि के कवि कुशल घोर रचित सभा कुतूहल की भी अपूर्ण
प्रति प्राप्त हुई है। इसके बहुत से वर्णन तो पदै कविंशति के ही हैं । उसमें कुशलधीर ने बीच-बीच व अंत मे कुछ पक्तियाँ बढा दी हैं । उन पक्तियों में कहीं 'वीर' कहीं 'कुशल वीर' नाम भी निर्देश किया है। पत्र ६ पक्ति १७ अक्षर ७२, प्राप्त वर्णनो की सख्या ३६ है । पत्रो के परस्पर चिपक जाने से कहीं-कही अक्षर नष्ट हो गये हैं। यह ग्रथ कितना बड़ा
था, पूर्ण प्रति मिलने पर ही विदित हो सकता है। कौ०='कोतुहलम्' इसकी प्रतिलिपि बहुत वर्षों पूर्व श्री भंवरलाल द्वारा की हुई
हमारे सग्रह में थी। इसमें २५ वर्णन है, जो स्वतत्र, मोलिक और सुदर हैं । श्रत में इति 'कौतुहलम' लिखा होने से इसको यह सज्ञा दी हुई
है । यथास्मरण प्रति १८ वों शताब्दि की लिखी हुई थी। मु०='मुत्कलानुप्रास' जैसलमेर के यति लक्ष्मीचद जी के संग्रह में १६ वीं
शताब्दि के लिखे हुए ७ पत्र प्राप्त हुए जिनमे १०८ वर्णन है । इस प्रति के वोर्डर में 'मुत्कलानुप्रास' नाम लिखा हुआ था। वैसे है यह अपूर्ण ही। इसके कई वर्णन संस्कृत में हैं और कई राजस्थानी में | उपलब्ध प्रतियो मे यह प्राचीनतम है । इसकी पूरी प्रति प्राप्त होना श्रावश्यक है ।
पत्र ८ पक्ति १८ अक्षर ६२ । पु० अ०=यागम प्रभाकर मुनि पुण्यविजयजो द्वारा यह प्रति प्राप्त हुई। यह
१६ वीं शताब्दि की लिखित है। इसके ६ पत्र ही मिले, जिनमे भो बीच
का १ पत्र नहीं था । ग्रंथ अपूर्ण होने से 'पु. अ.' सजा दी गई। का० कालिकाचाय की गद्य भाषा कथा से केवल वर्षी योर युद्ध के दो ही
वर्णन लिये गये हैं। पु०=इस प्रति का १ पत्र मुनि पुण्यविजयजी से प्राप्त हुअा था ।
इन प्रतियों में से समा शृगार न० २ और सभा कुतूहल के प्रारम में ही मगलाचरण श्लोक मिलते हैं। अन्य प्रतियो में मगलाचरण का अभाव है। इन दोनों प्रतियों के मगलाचरण नीचे दिये जा रहे हैं
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सभा-शृंगार नं० २
मगलाचरण ॥६०॥ ऐं नमः ॥ पडित श्री दयाकुशलगणि गुरुभ्यो नमो नमः ।
सर्व-जीव-निकायस्य, सर्वयापि हितप्रदाः । सुरासुर-नरै. स्तुत्या, जैनी जयति भारती ॥१॥ कोविदा देशिन विचित्, हट शास्त्रेषु किचन । किचेचात्ममति-जात, वर्णनासार' मुच्यते ॥१॥ समा- हुतूहल (शलधीर )
प्रणम्य पाच प्रकट-प्रभावं, अानद-कनोदय-बारिवाहं । तुरासुरावीश-नताप्रियुग्म्मनन्तकानि महिमानिधानं ॥१॥ नत्वा गुत्न् प्रक्ट-पुण्यर सातिरेकान् लोक प्रमोट करण वितनोमि शास्त्रं । चंचमत्कृति-विधायफ्मातलोक मान्य मनोरथवरद्रुनबोजकल्पम् ॥२॥ सम्यक् सभाकतूहल मिदमधिकरस तनोमि गुरु शक्ता । दृट्वा शास्त्र-समूह सानुग्राम यथावुद्धि ।।३।। नगर-नरे वर-राज्ञी-मव्या दिपदार्थ-वर्णन-विशिष्टम् ॥
वात्ता प्रबन्ध सयुतमेतन्मोदयतु जन-चित्त ॥२॥ नोट-सभा शृगार न० १ से ५ की भिन्न-भिन्न प्रतियो के सूचक सकेत इस प्रकार हैंजो०-४० १ जोधपुर जात पु०सं० २ पुण्य विजयजी प्रति पू०सं० ३ मा रि. इ० पृना की प्रति वि० स० ४ विनयसागर जी प्रति चि०स० ५ चितौड़ प्रति ०='मुत्य लानुप्रास' की प्रति जैसलमेर की होने से कहीं-कहीं 'मु' के
त्थान जै' सकेत भी लिखा गया है।
१- सरन'सार को क भय प्रत 20 मिर्च की. पूना से और प्राप्त हुई थी
पर देरी से मिलन के कारण इसका उपयोग नही किया जा सका ।
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अनुक्रमणिका विभाग १- देश, नगर, वन, पशु पक्षी, जलाशय
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१. देशनाम (१) २. देशनाम (२) ३. देशनाम (३) ४. देशनाम (४) ५, पर-द्वीप नाम (५) ६. देशों की उपज (१) ७. नगरादि पर्याय ८. नगर नाम (१) ६. नगर नाम (२) १०. नगर वर्णन (१) ११. नगर वर्णन (२) १२. नगर वर्णन (३) १३. नगर वर्णन (४) १४. नगर वर्णन (५) १५. नगर वर्णन (६) १६. नगर वर्णन (७)
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( २ )
२५. नगरलोक वर्णन (१६) २६. धवल गृह वर्णन २७. जिन प्रासाद २८. स्वयंवरा मडपु २६. वाडी वर्णन ३०. श्राराम वर्णन (१) ३१. श्राराम वर्णन (२) ३२. सुगंध वृक्ष नाम (:) ३३. , , (२) ३४. , , (३) ३५. , , (४) ३६. अटवी वर्णन (१) ३७. , , ३८. " , (४) ३६. , , (५) ४०. " , (६) ४१. , , (७) ४२. , , ४३. " ४४. वृक्ष नाम (१)
४५. "
४६. ,, (३) ४७. , , (४) ४८, ,, (५) ४६. 3,1, (६) ५०. वृक्ष वर्णन ५१. पक्षी नाम (१) ५२. " , (२) ५३. चतुष्पद नाम (१) ५४. " " (२) ५५. " " (३)
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५६. कीट नाम ५७. पर्वत नाम ५८. सरोवर वर्णन (१) ५६. , , (२) ६०. , , (३) ६१. पनघट वर्णन ६२. नदी नाम (१) ६३. , , (२) ६४. नदी वर्णन (१) ६५. समुद्र वर्णन (१) ६६. " " (२)
विभाग २-राज, राज परिवार, राजसमा, सेना, युद्ध १. नरेश्वर वर्णन (१) २. नृप वर्णन (२) ३. राजा वर्णन (३) ४. राजा (४) ५, , (५) ६. , (६) ७. , (७) ८. , (८) ६. " (६) १०. , (१०) ११. , (११) १२. , (१२) १३. , (१३) १४. , (१४) १५. राजा शरीर वर्णन (१५) १६. महाराजाधिराज (१६) १७. अहकारी राजा (१) १८. कुपित राजा (१)
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१६. रानी वर्णन २०. मंत्री वर्णन २१. रावण वर्णन (४) २२. हस्ती वर्णन २३, कोपातुर राजा (२) २४. रूठा राना (१) २५. राना नाम २६. चक्रवर्ती ऋद्धि (१) २७. वासुदेव राज्य (२) २८, रावण वर्णन (१) २६. (पुनर्वणकातरं लंकेश) रावणस्य (२) ३०. रावण (३) ३१. राम वर्णन ३२. सीता ३३, दशार्णभद्र सवारी (१) ३४. रान यश ३५. राजा शोभा उपमा ३६. राजा रानवाटिका गमन ३७. राज्य सुख ३८. राजा को पाशीर्वाद ३६. पटराज्ञी वर्णन (१) ४०. राणी वर्णन (२) ४१. , , (३) ४२. , , (४) ४३. राज्ञी वर्णन (५) ४४. , , (६) ४५. कुमार वर्णन (१) ४६. कुमार (२) ४७. राजकुमार (३) ४८. , (४) ४६. , (५)
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५०. राजपुत्र शिक्षा
५१. राज्य के चंग
५२. राजसभा (१)
५३.
(२)
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५५.
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५८. जवनिका
५६. मंत्री वर्णन (१)
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६२. महामात्य वर्णन (४)
६३. मंत्रीश्वर ( ५ ) ६४. मंत्री विरुदानि (६) ६५. प्रतिहार
६६. मडलीक
६७. खड़ायत ६८. राज सेवक
६६. सुभट
७०. गढ (१) ७१. गढ (२)
७२. ,, (३)
७३. ग्रास्थान मंडप ( १ )
७४. ग्रास्थान सभा (२)
७५. गज वर्णन (१)
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६५
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८१. गज वर्णन (६) ८२. ग्रश्व वर्णन (१)
८३.
(२)
८४.
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८६. श्रश्वी वर्णन ६०. कंठ वर्णन
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६१. रथ वन
६२. शस्त्र वर्णन (१)
६३.
६४.
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६६.
६७.
६८. छुरीफार ६६. धनुर्धर १००. योधपायक
१०१. युद्ध वर्णन (१)
१०२.
(२)
(३)
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(५)
(६)
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( ६ )
विभाग ३ - स्त्री पुरुष वर्णन
१. पुरुष वर्णन (१) २. पुरुष गुग्ण वर्णन (२)
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३. सत्पुरुष गुण वर्णन (३) ४. सत्पुरुष के स्वाभाविक गुणों की उपमा (४) ५. सजन स्वभाव उपमा (५) ६. सत्पुरुष प्रतिज्ञा (६) ७. सत्पुरुष के परोपकारों की उपमा (७)
६६
६.
, (६) १०. सत्पुरुष के कोप की उपमा (१०) ११. पुरुष के ३२ लक्षण (११) १२. संग योग्य पुरुष (१२) १३. कीर्त्याभिलाषी पुरुप (१३) १४. रूपालो (रूपवान) पुरुष (१४) १५. प्रतिभावैशिष्ठय पुरुष उपमा (१५) १६. दुर्जन वर्णन (१) १७. दुर्जन पुरुष (२) १८. दुर्जन वर्णन (३) १६. दुष्ट पुरुष (४) २०. कुपुरुष (५) २१. अंध वर्णन (६) २२. मूर्ख संग (७) २३. सग न करने योग्य पुरुष (८) २४. " " " " (६) २५. कृपण (१०) २६. दुष्टागमन (११) २७. स्त्री गुण (१) २८. , , (२) २६. स्त्री (३) .
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३१. सगर्वा स्त्री (५) ३२. सुत्राला (६) ३३. नायिका अंग उपमा (७)
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३४. नायिका श्राभरण (८)
३५. कुस्त्री (१) ३६. (२) ३७. (३)
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३८.
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३६. (५) ४०. दुष्ट स्त्री (६) ,,,, (७)
४१.
४२. स्त्री दुर्गुण (८)
४३. प्रथम स्त्री (६)
४४. फूहड़ स्त्री (१०)
४५. विरहिणी (११)
(१२)
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( ८ )
४६.
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४७. विरह विलाप (१३) ४८. वेश्या वर्णन (१४)
४६. स्त्री स्वभाव (१) ५०. स्त्रीना काम (२) ५१. स्त्री उपमा (३)
५२. स्त्री नाम (४) ५३. मालवी स्त्री नाम (५) ५४. मेवात स्त्री नाम ( ६ ) ५५. मरुधर स्त्री नाम (७) ५६. दक्षिणी स्त्री नाम (८) ५७. गुजराती स्त्री नाम (६)
विभाग ४ - प्रकृति वर्णन, प्रभात, संध्या, ऋतु आदि
१. प्रभात वर्णन (१)
२.
(२)
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३. सूर्योदय वर्णन (१)
४. संध्या वर्णन (१) ५. चंद्रोदय वर्णन (१)
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६. अंधारी रात वर्णन ( १ ) ७. वफार वर्णन (१) ८. वसंत ऋतु वर्णन (१) ६. ग्रीष्म ऋतु वर्णन (१) १०. उषाकाल वर्णन (२)
११.
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१२ वर्षाकाल वर्णन (१)
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१७. शरद ऋतु वर्णन (१) १८. हेमंत ऋतु (१) १६. शीतकाल वर्णन (१)
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२२. दुष्काल वर्णन (१)
२३. कलि वर्णन (१)
२४. कलिकाल वर्णन (२)
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२६. कलिप्रभाव वर्णन ( ४ )
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विभाग ५ - कलाएँ और विद्याएँ
१. कलाभेद (१)
२. ७२ कला पुरुष (२)
३. ६४ कला स्त्री (३)
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५. ( वशीकरण ) विद्यासाघन ( ५ )
६. अथ राग नाम ( ६ )
७ ३२ बद्ध नाटक (७) ८. वाद्य (८)
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६. रणनदी तूर (6) १०. वादित्र नाम वर्णन (१०) ११. ३६ वाजिन (११) १२. काव्य ना भेट (१) १३. विद्वान लक्षण (२) १४. वादी (३) १५. १८ लिपि (१) १६. १८ लिपि (२) १७. लिपिएँ (३)
विभाग ६-जातियाँ, धंधे और व्यक्ति नाम १. १८ वर्ण ३६ पौन २. पेशेवार जातियाँ ३. चौरासी वणिक जाति ४. नैष्टिक ब्राह्मण ५. ब्राह्मण नी नाति ६. विरुदावली वाचक छात्र नाम ७. विरुदावली ( राजकुमार शिक्षक पंडित ) ८. राजपूत नी छत्रीस वंशावली ६. महाजन नाम १०. महानन विरुदावलि ११. साहुकार विरुदावलि १२. गुजरात श्रावक नाम १३. दक्षिणी श्रावक नाम १४. सीरोही श्रावक नाम विभाग ७-देव, ताल, शाकिनी, सिद्ध, व्यक्ति
तथा व्यक्तिकप्टादि वर्णन १. देवता २. अथ शाफिनी १. वेताल (१)
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४. वेताल (२) ५. । (३) ६. , वर्णन (४) ७. महासिद्ध ८. सिद्ध ६. योगींद्र १०. पूतली वर्णनम् ११. रोपातुर व्यक्ति १२. प्रसन्न , १३. प्रेमी १४, कातिहीन १५. भाग्यवान १६. पुण्यवंत १७. , (२) १८. लक्ष्मीवंत वर्णन १६. " " (२) २०. ऋद्धिवतु (३) २१. वणिक वर्णन २२. श्रेष्ठि २३. सुखी श्रेष्ठि २४. श्रेष्ठिपुत्र २५. श्रेष्ठि प्रवहण यात्रा २६. निर्धन वर्णन (१) २७. निर्धन (२) २८. , वर्णक (३) २६. " (४) ३०. दरिद्री ३१. , वर्णन (२) ३२. जुयारी ३३. चोर ३४. , वर्णन (२)
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३५, वृद्ध वर्णक ३६. क्षतांग मनुष्य ३७. फूहड़ स्त्री ३८, व्यक्ति कष्ट ३६. व्यक्ति श्रापद (२) ४०. , रोग (३) ४१. , , (४) ४२. उपचारक प्रचार ४३. व्यक्ति कष्ट दुष्काल वर्णन
विभाग ८-जैनधर्म संबंधी वर्णन १. तीर्थंकर २. प्रथम ऋषभदेव लिन वर्णन ३. यादिनाथ (१) ४. जिन बिंब (१) ५. परमेश्वर की नत्र फाति ६. केवल ज्ञान से देखा हुअा अन्यथा नहीं होता (१) ७. केवल ज्ञान के वचन अन्यथा नहीं होते (२) ८. केवल ज्ञान ६. समव सरण (१) १०. समव सरण (२) ११. समव सरण (३) १२. समव सरण में देवों की विविध भक्ति १३. जिनवाणी वर्णन (१) १४. जिन वाणी वर्णक (२) १५. जिन वाणी (३) १६. जिन वोणी वर्णन (४) १७. धर्म उपदेश १८. जिनोपदेश (२) २६. धर्म कृत्य' २०. धर्म कृत्य
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२१. दान वर्णन २२. दाने पुण्यसंख्या २३. शील वर्णन २४. शील वर्णन (२) २५. परस्त्री गमन दोष २६. तप वर्णन २७. अथ तप २८. भावना २६. भावना ३०. दया धर्म प्रधानता ३१. जीव दया रहित धर्म (६) ३२. जीव दया रहित धर्म (२) ३३. धर्म माहात्म्य ३४. वीतराग धर्माराधन ३५. जिन धर्म ३६. धर्म माहात्म्य ३७. धर्माधार ३८. धर्म
३६. युगलिया सुख वर्णन - ४०. पुण्य माहात्म्य
४१. पुण्य प्रभाव (२) ४२. पुण्य प्रकार (३) ४३, पूर्वभव के पुण्य से प्राप्ति ४४. पुण्य विना नहीं मिले ४५. विना पुण्य नहीं मिले (२) ४६. अथ पाप फल ४७. धर्म में प्रमाद ४८, प्रमाद (२) ४६. जिन धर्म छोड़ मिथ्यात्व ग्रहणस्थिति ५०. असाध्य शुद्ध धर्म ५१. नवकार महिमा (१)
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५१. (x) नवकार महिमा (२) ५२. संघ
५३. तपोधन
५४. तपोधन वर्णन
५५. मोक्षार्थी (१) ५६. सुनि वर्णन (२) ५७. गुरु वर्णन
५८. गुरु वर्णन (२) ५६. तपोधना महासती साध्वी
६०. साधु (१)
६१. श्रावक (१)
६२. सु श्रावक वर्णन (२) ६३. श्रावक वर्णनम् (३)
६४. श्रावक (४)
६५. श्रावक (५)
६६. दस श्रावक नाम (६)
६७. श्राविक वर्णन (२)
६८. सात क्षेत्र
६६. गच्छ
७०. तपागच्छ शाखानाम्
जैन मत
७१. ७२. ११ अंग सूत्र
७३. १२ उपाग
( १४ )
७४. १० पयन्ना
७५. छः छेद
७६. मूल श्रागम
७७. नवतत्व
७८. विगय
७६. नमूच्छिंत उत्पत्ति १४ स्थान
( तीर्थंकर माता देखे ) चतुर्दश महास्वप्न वर्णन क्रमेण
८०. गज वर्णन (१)
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८१. वृषभु (२) ५२. सिंह (३) ८३. लक्ष्मी देवी (४) ८४. 'पुष्पमाला (५) ८५. चद् (६) ८६. सूर्य (७) ८७. वन (6) ८८. कुंभ (६) ८६. सरोवर (१०) ६०. रत्नाकर (११) ६१. देव विमान (१२) ६२. रत्नराशि (१३) ६३. निधूम अग्निशिखा (१४) ६४. वैमानिक देव वर्णन ६५. सौधर्म देवलोक स्थिति ६६. देवलोक सुख ६७. देव वर्णक (१) ६८. मोक्ष इन बातों में नहीं ६६. मोक्ष इन बातों में नहीं १००. लक्ष्मीदेवी वर्णन
विभाग 8-सामान्य नीति वर्णन १. कौन किसके लिये सुखकारक नहीं (१) २. सुख रूप नहीं (२) ३. सुख रूप नहीं (३) ४. इनमें ये दोष ५. कोई न कोई कसर सब में (१) ६. दोष सब में (२) ७. अनुसार (१) ८. अन्योन्याश्रित (२) ६. परिमाणानुसार (३)
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१०. परिमाणानुसार (४) ११. परिमाणानुसार (५) १२. अन्योन्याश्रय (६) १३, अन्योन्याश्रय (७) १४. अन्योन्याश्रय (5) १५. ये इनको जानते हैं (१) १६. ये इनको जानते हैं (२) १७. ये इनको जानते हैं (३) १८. इनसे यह नहीं हो सकता १६. अशक्यता २०, स्वामाविक २१. ऐसा प्रयत्न व्यर्थ है २२. असमवप्राय २३. असंभव २४. प्रतिज्ञा वर्णक-प्रतिजा अन्यथा नहीं होती २५. यदि ऐसा हो तो कोई उपाय नहीं (१) २६. यदि ऐसा हो तो कोई उपाय नहीं (२) २७. यदि ऐसा हो तो कोई उपाय नहीं (३) २८, इनकी त्रुटि इनसे पूरी नहीं हो सकती २६. अंत ( सीमा) ३०. अत सीम अंत (२) ३१. गुण प्रधानता ३२. संग से वृद्धि (१) ३३. सग से वृद्धि (२) ३४. सग से वृद्धि (३) .३५, विनाश (१) ३६. विनाश (२) ३७. क्सिसे किसका विनाश, इणां विना इणारों विनाश (३) ३८. विनाश (४) ३६, इनके बिना ये नहीं (१) ४०. इनके बिना ये नहीं (२)
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(१७) ४१. थोड़े के लिये अधिक विनाश मत कर ४२. अल्प के लिये बहुत का नाश (२) ४३. थोडे के लिये अधिक विनाश (३) ४४. अति (१) ४५. अति (२) ४६. करने में असमर्थ ४७ करने में असमर्थ (२) ४६. बराबरी कैसे करेगा ५०. अधिकस्य सार्थकत्वम्, ५१. अधिक होने पर भी व्यर्थ खोने को नहीं होता ५२. विनाश फरके विचार करना ५३. अंतर ५४. महदंतर (२) ५५. अंतर (३) ५७. श्रातरा वर्णक अंतर (५) ५८. अतर (६) ५८. अतरा (७) ६०. परोक्षा '६१. सहज वैर १) ६२. सहन वैर (२) ६३. गुण के साथ दोष भी रहता है ६५. काम कोई करे फल अन्य को मिले ६६. संसार “६७, संसार के दो छोर ६८. संसारस्वरूप (२) ६६, शरीर ७०, अर्थ ७१. द्रव्य की अशाश्वता ७२. धनोपार्जन रक्षण ७३. अथ लक्ष्मी चंचलत्वम् .
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(१८) ७४. राना के चंचलत्व की उपमा (२) ७५. थोड़े समय के लिये (३) ७, अस्थायी व चंचल ७७, क्षणिक चंचल ७८, चंचल (२) ७६. चंचल वाक्य ८०, मन ८१. ससुराल की स्थिति ८२. विशिष्ट पदार्थ ८३. विशिष्ट पदार्थ (२) ८५. विशेषताएँ (४) ८६. अपने वर्ग में विशिष्ट पदार्थ ८७. श्रेष्ठतर ८७. गुण में विशिष्ट पद ८८. अनुपमेय पदार्थ ८६. अनुपमेय पदार्थ (२) १०. दुर्दशाग्रस्त होने पर भी विशिष्ट ६१. भला क्या ? ६२. भला क्या ? (२) ६३. द्विगुणित विशिष्ट ६४. द्विगुणित विशिष्ट ६५. द्विगुणित शोभा (३) ६६. निकृष्ट पदार्थ (१) ६७. निकृष्ट पदार्थ (२) ६८, सार्थक पदार्थ ६६. ऐ फिण काम रा ६००. एता किसी काम का नहीं (२) १०१. द्विगुणित निकृष्ट (१) -२०२. द्विगुणित निकृष्ट १०३. अच्छा दिखने पर भी बुरा १०४. निरर्थक (१)
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(२९) १०५. निरर्थक (२)
२७१ ३०६. निरर्थक (३)
२७२ १०७. विहीन १०६, चूका (१)
૨૭૨ १०६. चूका (२)
२७३ ११०, कौन किससे शोमा पाता है ? (१)
२७३ १११, कौन किससे शोभा पाता है ? (२) ११२. किससे कौन शोभा पाता है ? (३)
२७४ ११३. कौन किससे शोभित होता है ? (४) ११४. फौन शोभा नहीं पाते (१)
૨૭ ११५. कौन शोभा नहीं पाते (२) ११६. कौन शोभा नहीं पाते (३)
૨૭૬ '११७. फौन शोभा नहीं पाते (४)
२७६ ११८, अनावश्यक (१)
२७७ ११६. अनावश्यक (२)
विभाग १०-भोजनादि वर्णन ( मंगल, वर्धापन, उत्सव, विवाह, भोजन, वस्त्रालंकारादि) १. मांगलिक
२२१ २. वर्धापन
२८१ ३. महोत्सव देखने की उत्कंठा ४, पुत्रजन्म महोत्सव
२८१ ५. धात्री
२६२ '६. पुत्रपालन
२८२ ७, वालक्रीड़ा ८. विवह समय ६. भोजन १०. श्रेष्ठ भोजन
२६४ ११. रसवती वर्णन
२८४ १२. रसवती वर्णन (२)
२८८ ३३. रसवती वर्णनम् (३)
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( २० ) १४, भोजन वर्णन (रसवती) (1) १५. घृत १६. धान्य (१) १७. धान्य (२) १८. लाडू (१) १६. मोदक (२) २०. सुखडी (१) २१. सूखडी नाम (२) २२. सूखडी (३) २३. सालिजाति (१) २४, सालिनाम (२) २५. शालि (३) २६. तदुल (४) २७. कूर (५) २८. दाल नाम (१) २६. व्यंजन (१) ३०. व्यंजन (२) ३१. साक नाम (३) ३२. साफ सालणा (४) ३३. बड़ा (५) ३४. शाक (६) ३५. श्रयाणा ३६. भाजी ३७. घोल ३८. पक्वान्न (१) ३६. पक्वान्न (२) ४०, पक्वान्न (३) ४१. पक्वान्न (४) ४२. पाक ४३. पाणी (१) ४४. पाणी (२)
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पृष्ठ
परिशिष्ट (१)
सभा शृंगारादि वर्णन संग्रह रत्नकोष इति सूत्राणां संग्रहः वस्तुविज्ञान रतकोश समारभत पाठभेद की टिप्पणियाँ १
परिशिष्ट (२)
समा शृंगारादि वर्णन संग्रह यावन परिपाच्यनुकृत्या राजरीतिनिरूपण नाम शतकम् श्रय शालामेदाः श्रय देश विभागस्तदधिपाश्च फच्यन्ते (२) छचीस कारखाना रा नाम पातताही में
परिशिष्ट (३) सभा शृंगारादि वर्णन संग्रह
(१) देश नामानि
(२) चतुरशीतिर्देशाः परिशिष्ट (४)
त्रिशला शोकाधिकार
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सभा-श्रृंगार
अथवा वर्णन-संग्रह
विभाग १ देश, नगर, चन, पशु-पक्षी, जलाशय
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१ अग २ दंग ३ कलिंग ४ तिलंग ५ भग. ६ गौड
चौड ८ कर्णाट ६ लाट १० पाट ११ राष्ट्र
महाराष्ट्र १३ कीर १४ काश्मीर १५ सौवीर १६ आभीर १७ चीन १८ खुरसाण
दशाण - २० यूर्जर
देश-नाम १ २१ वर्जर ४१ जालंधर २२ बर्बर
४२ लोहित २३ शर्वर ४३ किरात २४ बंगाल
४४ तामलित नेपाल
४५ पारिजात २६ पचाल
४६ वरूट २७ कुणाल
४७ भट्ट जहाल -- ४८ शकट जागल
४६ नलदतट डाहल
५० लोहतट ३१ कौशल ५१ समुद्रतट ३२ सोसल ५२ मेदुपाट ३३ सिंहल
५३ वैराट . ३४ हिमाचल ५४ भोट ३५ मरुस्थल ५५ महामोट ३६ कुशस्थल ५६ नगरकोट ३७ पुंसस्थल ५७ वागड ३८ कुरू
५८ कामरू पीठ ३६ जंगल
५६ छोकाण ४० दिल (ल्ली!) मडल ६० केकाण
१२
१६ दश
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( ४ ) ६१ कुकण ६१ उड्डीयाण ६२ टक्क
६२ गुडीयाण ६३ तटक्क
९३ बगलाण ६४ कान्यकुञ्ज ६४ खान ६५ काबोज
६५ चद्रकुमार ६६ भाडेज
६६ मलबार ६७ श्रीरज
६७ समुद्रपार ६८ मगध
६८ छप्पर ६६ मध्य
६६ सक्खर ७० अध्य (दे० १३६) १०० भक्खर ७१ वध्य
१०१ काय ७२ पारसकूल १०२ गोट । ७३ शककूल १०३ पक्कण ७४ वेलाकूल १०४ श्राख्यक खस
१०५ खास
१०६ रोमक' ७७ काछ
१०७ पारस ७८ सिधु
१०८ द्रुमिल ७६ सवालख - १०६ ८० सूरसेन - ११० बक्कुस ८१ पोकाण १११ प्रामापक ८२ गधहार
'११२ अनक्ष बहलीक ११३ लास ८४ नल्ल . ११४ मेटर ८५ राम ."११५ मठ ८६ मोष
११६ मौष्ट्रिक मलव . ११७ प्रारब ८८ चूलिका- ११८ कुहण८९ स्वर्णभूमिका
११६ केकय ६० मोग्गर
१२० रौरव
७५
१२१ मिल्लिन्द्र १२२ पुल्लिद्र १२३ क्रौच १२४ भ्रमरक १२५ कोय १२६ चचका १२७ शक १२८ यवन १२६ उड १३० मरंड १३१ प्रोड १३२ भेडक १३३ भित्तक १३४ कुलाक्ष १३५ क्रोध १३६ अन्वय १३७ द्रविड १३८ चि (विर ) ल्लल १३६ आरोष । १४० डॉत्र १४१ मरुक १४२ साल्न १४३ कारव १४४ तायिक (तासिक) १४५ सारस्वत १४६ वाल्हीक (दे०८३) - १४७ तुरूष्क १४८ कारूष १४६ कुतल. १५० फिरग १५१ सौराष्ट्र इत्यादि सू.प.
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3 4 3 में
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२ देशनाम (२) अग, अनग, किलिग, तिलग, । बंग, भंग, बंगाल, वच्छ; वत्स, विदेह,' वैराट, कर्णाट, लाट, धाट, भोट, महाभोट, कोणाल, कामर, काश्मोर, कुकण, कच्छ, केकी, गोड, तोड, वहस, बन्नस, हवस, मालव, मागध, मरुस्थल, मेवात, मेवाड, मरहट्ट, राष्ट्र, सौराष्ट्र, पचाल, पारकर, सिध, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, इत्यादिक देश नाम । (स ३)
३ देश-नाम (३). गौड, द्रविड, मालवउ, नेपाल, जगल, अग, वग, तिलग, हर्मुज, गुर्जर, राष्ट्र, महाराष्ट्र, कुरु, काश्मीर, राट, लाट, धाट, कर्णाट, मेटपाट, भोट, महामोड, विदेह, ऊच, मूलथाण, कुंकुरण, चीण, महाचीण, खुरसाण, सवालख, सिंधु, ढोरसमुद्र, महरटा, नमियाड, कनून, महाकनूज, अकज, अवज, कुरक, कोरटक, कौशिक, पाणीपथ, पाडवा, मरुस्थल । ( स० १)
४ देश-नाम (४)
अग, ग, कलिंग, मगध, माधर । मालव, विदर्भ, वाल्हीक । हूण, रूण । उडीयाण, आनर्त, त्रिगर्त ।' सोरठ, मरहट । कुकण, कस्मीर । कीर, गूर्जर, जालधर | गोड, बूड, कर्णाट लोट, भोट । कान्यकुज, काबोज । बर्बर, बगाल नेपाल, भाहल, सिंहल चीण, महाचीण इत्याटि देश ॥१०॥ (मु०)
५ पर-द्वीप-नाम (५) हरमज, वखार', गोहा, सवाकीन, कोची, मक्का, मदीना, मूसन, पुरतकाल, पेगू, टीव, घोघा, डाहल, मलवार, चीउल, पथेगु, मुलतान, जावू,
आबू, ढाको, रोम, साम, आरव बलख, बुखार, त्रीण, महाचीण, फिरंग, हवस, इत्यादिक परद्वीपनाम ( स०३)
१-वरका ( ववरण ) --पीगु
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६-देशों की उपज (१) ७२ (लक्ष) गाजण', ३४ (लक्ष) कनूज, १८ लक्ष बाणू मालवउ
६ लक्ष गौड, कारू, ६ डाहालू , ७० सहन गुजरात, ६ सहस सोरठ, ४० जेनाहुत, २४ सहत गगापरू, २१ लाड देस, १४ सहस व्यालकुकुण' नमियाड स० १
७-नगरादि-पर्याय नगर, निगाम, ग्राम, आगर, पुर पाटण, खेट कछड, मडब, दोपण, द्रोणमुख, सबाध, सनिवेश, आश्रम, उद्यान, द्वीप, बदर इत्यादि पृथिवी।।
८-नगर-नाम द्वारावती, देवपुर, दसोर', देवकोपत्तन६, सौरीपुर, सुदर्शनपुर, सामेरी, कावेरी, कुन्दनपुर, कोसबी', कोसल, काशी, कोगाल', कोइलपुर, कनकपुर, काकटी; विनीता, विशाला, वाराणसी, दल्लि, अहिछत्ता, अयोव्या, अवंती, एलचपुर, पावा, पाटलीपुर, चदेरी, चंपावती, गधार, गजपुर, गधिलावती, भहिलपुर, भरूच, तिलकपुर, बावती, मथुरा, हथिणापुर इत्यादिक मोटा नगर । स०३
8--नगर-नाम (२) ग्रागरो
उजैण उदैपुर ईडर श्रावेर अजमेर
अहमदाबाद दिल्ली दोलताबाद दरियाबाट दीव फतियात्राट दसोर
गोधा
गोलकुड लाहोर लखमीपुर बर्हानपुर बहादुर पुर
राजमहल राजनगर भागनगर खभाति
सूरति
पाटण जेसलमेर विकानेर सागानेर योधपुर जालोर
नागोर मेडत् मलकापुर मुरादाबाद साड्याबाट फत्तेपुर
इत्यादि नगर छ।
वरगावाट
विजापुर
बूढी
पटणू
, २० लक्षण गाजणउ, २ ५५ सहस सोरठ, ३ १४ सहस चाल कुकुरण ४ प्रमुख देगा। ५ क्लौर, ६. पाटण ७ कुलाल, कोपालाणा, ८ वलभी। .
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( ७ )
१०-नगर-वर्णन (१) देवकुल विभूषित, सप्तभूमिक धवलहर अलकृत सविस्तर तर हदश्रेणि विराजित, समस्त क्रियाणक विश्रामभूमि, कूप, वापि सरोवर सनाथ । प्राकारवेष्टित, खातिका दुर्ग । इसउ नगर नगरी।
११-नगर वर्णन
__ महा मनोहर हिमगिरि शिखरानुकारिए प्रसाद करि सुन्दर । प्राधान प्राकार करि परिकलतु, वापी कूप प्रपा ताक आराम करि अति शोभितु । धनत्यक्षानुकारि, धनवते व्यवहारिए करि शोभायमानु । झात्कार एव विधु द्वादश तूर्य निवाषि निरुपम चउहि दिशि द्वारि, प्रतोली द्वार । अनिवार शत्राकरि । तेही करि सचिभ्रम स्वयं समानु, अतिहि प्रधानु रत्नपुर इसइ नामि नगर ॥ २ ॥
(मु०) १२-नगर-वर्णन । ३) यत्र खल तैलिका पणेषु, गुप्तिः शुक सारिका पुंजरेषु । उपसर्ग निपातो व्याकरणेपु, कंटकापद्मनालेषु । मारि• सारिघु, बन्ध. पुष्पेषु । चिन्ता काव्येषु, व्यसन दानेषु ।
आकाक्षा कीर्तिषु .." , तुच्छता बधूना मध्य भागेषु, । चपलता लीलावतीनां नयनेषु, दण्डः छत्रेवु, । वक्रता कामिनीना भ्रयुगेषु | निम्नता वनता नाभीपु, मौरयर्य वाद चर्चाषु । पुरन्दर, पुरी सहोटरु । . क्वचित्कथा कल्यमान, चिन्तन कथानकु । क्वचिद्वाट वृन्दारकारब्ध वाद, क्वचिन्नाटक प्रस्तावनाकर्ण्यमान महल निनद । क्वचिद्विविध वधू विधीयमान धवल मगलाचार, क्वचिद्वणिक जनोद्यम द्यमान क्रयाणकः। क्वचिद्विजय मगलोट् घोण्यमान वेटोद्गारः एव विध नगर (मु०)
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(८)
१३-नगर-वर्णन (४) पत्तन, विशाल, पथिकशाल, निरपवाद प्रसाद, नाना प्रकार तत्रूकार । तिरस्कृत त्रिविष्टप, प्रपा मडप, अगाधोटर सोटर सरोवर, पृथ्वीमडल मडन । लक्ष्मी सकेत निकेतन, रमणी जन निधान । विद्वजन कृतावस्थान शत्रु सघातानाकलनीय । ईति अनीति अखडनीय । ( स० १)
१४-नगर-वर्णन (५)
नगर ने विप्रै खुश्याली टीसँछैभरिया दीसैहाट, अनेक स्वर्णमय घाट । मोक्ली' पोली वाट, चालै घोडा तणा थाट । लोक नै नहीं किसो उचाट । जिहा पुण्य विशाल, तिती ही पोसाल, जिहा छात्र पढ़े चौसाल । पाणी पिंइ सुभावि, तिसी वावि । देखता पाणट हुवा, तिसा कुवा मोटैमड, पनवन खड। जिमा रग कीजै खाडि, तिसी माहि वाडि जिहा शीतल फुरकै पवन, तिसो पालि वनि । इम अनेक प्रकार सोभैछे ।- (त० ३)
१५-नगर-वर्णन (६) उजयिनी-वर्णन जिहा तिप्रा नदी विराजमान, महाकाल प्रासाद शोभमान । हरसिद्धिदेवी निवास, · चडसिटि योगिनी सविलास। भागीया वेताल स्थान, कउडीया जूयारी अहिठाण । खापरा चोर प्रबल आत, गइंदमा मसाण विख्यात । अनेक देव देवी होइ यात्र, प्रग्ल निद्ध पुरुप बसइ पात्र । सिद्ध वड भूषित परिसर, युगादि नगर । महा मनोहर हिमगिरि शिखरानुकारीए प्रमादे करी सुदर । (जिहा) विक्रमादित्य नरेश्वर, (जिहा) साक्षात् पुरटर । "
१ नोकलि घेली वाट • लोक ने किती उचाट ३ दिलास, ४ जिहा
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प्रधान प्राकारि करी परिकलित, निहा- बसइ लोक सम्मिलित । वापी कूप तटाक पारामि करी अति शोभित, पर दलि करि अक्षोभित । धनद यक्षानुकारिए व्यवहारिये करी शोभायमान । स्वस्व क्रिया सावधान, · जन वसइ प्रधान' । । । कीजइ पडदर्शन विचार, परमार्थि यात्मजान अधिकार । चिहुँ टिसि च्यारि प्रतोलीद्धार, अनिवार, “सत्रागार । अति प्रधान, स्वर्ग समान । ठामि ठामि फूल पगर, इस्यउरे उजयनी नाम नगर । सू०
कुरालधीर संकलित 'सभा क्रुतुहल' में परिवद्धित पाठद्वादश तूर्य निघोंप पडित वइ सुजाण वह कोष । धनधान्य समृद्ध, त्रिभुवन मइ प्रसिद्ध । . आराम जलाश्रयादि रम्य, परचक्र अगम्य ।। अनेक देवकुल सकुल, नाचइ रगइ प्रमादाकुल । मेदनी शृंगार, वसइ वर्ण अढार । अति ऊचा आवास, पूजइ सहु आस । चसइ जिहा पडित, हट्ट श्रेणि मडित । जिहा भोगी करइ रेवाडी, इसी विशाल वाडी। जिहा पढइ छात्र चउसाल, तिहा इसी अनेक लेसाल । अति डूडी धर्मसाल, नगर नइ बिचाल । , बखाणइ आवइ गुरु समीपइ बाल - गोपाल । मधुर वाणीयइ पद गुरु धरम उपदिसे विशाल । श्रावक पडिकमइ उभइ काल, अतीचार टाल । जिहा अध्यात्मी जोगी दृढ, तिसा महाकाय मढ । रग विमासीउ लीये वाद, तिसा पुष्कल प्रासाद । . निहा माहि गुरुया भवन, वाहिर गुरुत्रा उपवन । माहि मनुष्य दख्य, बाहर पंखीयातणा लख्य । माहि बसह भोगी, वाहिर बसइ योगी। माहि चउरासीहट्ट श्रेणि, वाहिर अरहट्ट श्रेणि ।' - ठाम ठाम फूल फगर, इसउ धीर कहइ उजेणी नगर ॥
१ मनुष्यनउ, कुण जानइ गान (इतना पाठ प्रधिक है ) २ इसउ वीर कड्इ उज्ने नगर ।
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( १० ) १६-नगर वर्णन (७)
समस्ति स्वस्तिक पुरं नाम पुर । यत् कीदृशंपृथ्वी तिलकावमान | सर्व सौंदर्य निधान । लक्ष्मी जन्मावास । सरस्वती निवास । ववल देव कुल मडित । पर चक्र अखंडित । अतुल धवल गृह विभूषित । कु कवि अदूषित । विकट हट्ट माला मालित । सदा सुठक्कर पालित । उतुग प्रथुल प्राकार परिवेष्टित । अगाध परिखा वलय । सर्वाश्चर्य निलय । वापी कूप मडित परिसर । चिटुंगमे दृश्यमान सरोवर । उद्यान वाटिका अभिराम । मनोज दृश्यमान विविधाराम । जनित दुर्जन क्षोभ । सज्जन जनित शोभ । पुरुप रत्नोत्पत्ति रत्नाचल । कुलवधू क्ल्पलता कनकाचल । जीणइ नगरि देवगृह मेरु शिखरोपमान । धवलहर सुरविमान समान । हाथीया ऐरावण अनुकरइ । अश्व उच्चैश्रव अनुकरइ ।
वृषभ शिव वाहनानुकारि । रथ सूर्यानुकारि । ८४ चोहटा-जीणइ नगरि गधिका पण कुत्रिका पण, सौवर्णह, दोसोहट्ट !
सूत्रहट्ट । कपासहह | धान्य हट्ट । घृतहट्ट । तैल हट्ट । मणिकार हट्ट । कादविक हट्ट । लोहकार हह ।
प्रमुख चरासी चव्हट्टा । अतिहि मोय । पीठ-तथा बलट पीठ । शास्त्र पीठ ! काठ पीठ प्रमुख अनेक पीठ । शाला-नंतु वाय शाला रजक शाला । चर्मकार शाला | पिंजारकशाला।
प्रमुख अनेक शाला। निवासी तथा महा सार्थवाह । इभ्य श्रेष्टि । व्यवहारिक । टौपिक । नैस्तिक ।
प्रमुख अत्तोक । कवित्रलोक । __ तथा सुवर्णकार । कात्यकार | दंतकार । लोहकार । शिल्पकार । ग्यगर । सूत्रधार । उपकार । चित्रकार। कुंभकार । मालाकार रूप प्रमुस सद।
ताबड़ा । तीताहढा प्रमुख टीसह । वामि ठामि सत्राकार । अनेक टोसई देणहार ।
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( ११ )
वर्ण-यत्र वर्णव्यवस्था | नागर ज्ञातीय । श्रीमाल ज्ञातीय । डीडवाल । सडेर
वाल | जालंधरीय । सत्यपुरीय । प्रमुख ब्राह्मण | सोम वंशीय | सूर्यवंशीय । हरिवंशीय । उग्रकुली । भोग कुली । नोलकीय गुहिल्ल । उच्च । परमार । प्रतिहार । चौलुक्य । सकल प्रमुख क्षत्रिय । शिल्पकार | स्वर्णकार | प्रमुख वैश्य वर्ण । प्रमुख, सौद्र । तथा काव्यकार | पदानुसारि लाक्षणिक | प्रामाणिक प्रमुख पडित मडित । तथा जन सिद्ध । गुटिका सिद्ध, योग सिद्ध, चूर्ण सिद्ध । लेप सिद्ध | पादुका सिद्ध । मत्र सिद्ध । विद्या सिद्ध । वचन सिद्ध । प्रमुख अनेक सिद्ध वस । जेणि दीठइ उत्तम ना मन विकसइ ।
।
4
वृक्ष लतादि - तथा । त्रि । चतुष्क । चत्वर । रमणीय । हिंताल ताल । तमाल । मालूर । खर्जूर । अर्जुन चटन । चपक । वकुल । सहकार । काचनार । नित्र | कढव | जबु । जंबीरक । करणवीर | वानीर । कपित्थ । ग्रश्वत्थ । करुण । वरुण । धव । खदिर । पलाश । कुल । सरल | सल्लकी । नाग । पुन्नाग | नागर । ल्ल । मल्लिक | यूथिका । मालती । माधवी लता । मडपाभिराम । परपरा विराजमान परिशर । गंगाफेनदी फेनपट्टलसह प्राकार पाडुर ।
यत्र नगरे | जड़ता । सरस्सु । नमनुजमनस्सु । खलस्तैलिका पणेपु । गुप्तिः शुक सारिका पजरेपु । ' उपसर्ग निपाता व्याकरणेषु । कटकाः पद्म नालेपु । वधः काव्येषु । दडश्छत्रेषु । कुटिलता कामिनामलकेषु । निसता वनिता नाभीपु । चपलता लोलावती लोचनेपु | चिंता शास्त्रेषु । व्यसन दानेषु । मौखर्यं वादचर्याषु । धन कनक समृद्ध, पृथ्वी तल प्रसिद्ध । अत्यत रमणीय, सर्वजन स्पृहणीय |
जिहा वाडा, वाडी, कुत्रा, परव । तलाव । ग्राराम । गढ । देहरा । विहार | सत्रागार । कोष्टागार । भाडागार । धउल हर | पिंडहर | जोगहर । मोगहर । पीटणो हर । पडवा । पटसाल | घटा । फडहटा । माडवी । दड कलस । ग्रामलसारा । तोरण | वदनमाला झलकइ । पचवर्ण पताका फरक |
तिहा नगर मध्ये किसा लोक वसइ । भगइराय राणा । मडलीक । महाघर | मउड़धर | सामत । सेलुत । वर वीर । राउत । पायक । डिडिमायन ।
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( १२ ) भया मत । पटायत । फलह कार । छुरीकार | नलिकार । कुंतकार । खागडीत्रा। सावलिश्रा । जेठी । यंत्रवाह । जालंधर । प्रभृति राजवर्ग । अनइ व्यवसाईया किसा-सोनी। गाधी । दोसी । नेत्ती ताहत्र । साह ।
सेठि । सोणावई। पडसूत्रीया। कंसारिश्रा । बीउरीया। खजूरिया । कणसरा । भणसरा । मयारा । मणीयार । सुतार । मूत्रधार । तूनारा । बंधारा । चौताहारा | लुहार । नाचक्र | भोज कर । कवी अर । करीय वेश्यादि वत । योगि । भोगि । विरागी। नट । विट । खुट । खरट । लाट | मीठा । जूगर्व सिगार । वातहडा । रसिक । रगाचार्य । एइते। मागणहार मंडित । पाचमइ व्यवसाईया। व्यवसाईया माहिं वर्तइ । एवं विधनगर प्रवर्तइ ।। छ॥ ( स० २)
१७--नगर-वर्णन ( =) गट, मट, पोल, पगार, मंदिर, मालीया, सेरी, चोहटा, चोक, चचर, चोतरा, गली, गोचर, घर बार, बारणा, कागुरा, कोरणी, बइठक, बारी, खाल, खूणा, खूट, पुह, पछिल, गोख, गवाक्ष, बोकडसाला, टानसाला, देहरा, उपासरा एहवु नगर सोमे छे। (स० ३)
१८.-नगर-वर्णन (8)
_(विषम प्रवेश) नगर पाखती कटक वन, एकुमार्ग अगाधि खाई, अभगु प्राकार । अनै अनादिकालीन श्राबद्ध मूल, परचक्र अगम्य, थिर सन्निवेशु, विषम प्रवेशु।।
“ (पु० अ०) १६-नगर-वर्णन (१०) चौराती चौहया, बहोत्तरि पावय, अनेक शत' ' वावि नहीं गावि । कमल खडे करि कोटड़ी कमाडि, अति मनोहर, सप्तभूमिका धवलहर । जिसी नगर लक्ष्नी तली प्रलब वेणि, तिसी हद्द श्रेणि । अति सुंदर प्रधान राज मदिर। (स० ५)
२०-नगर-वर्णन (११) नगरि-जहि ८४ चौह्या ८४ टाडा, ८४ देवकुल, ८४ शाला, ८४ बावि, ८४ कूया, ८४ सरोवर, ८४ श्राराम, किंबहुना ८४ स्थानक । (पु० अ०)
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( १३ ) - २१--नगर-वर्णन (१२)
. [चौहटा- नाम] १ सोनीटी २ नाणावटहटी ३ जवहरी हटी ४ सुगधियाहटी । ५ फोफलिया ६ सूत्रियाहटी ७ पटसूत्रियाहटी, ८ घीया । ६ तेलहरा - १० दताग ११ वलियार १२ मणिहार हटी। १३ टोती . १४ नेस्ती । १५ गाधी १६ कपासी १७ फडिया १८ फूलहटी १६ एरंडिया २० रसणिया २१ प्रवालिया २२ त्राबहडा २३ साखहडा २४ पीतलगरा २५ पन्नागरा २६ सोनार २७ सीसाहडा २८ मोती प्रोया २६ सालवी ३० मीणाहरा ३१ चूनाहरा
३२ कूटारा । । ३३ गुलियारा - ३४ परीयटा ३५ घाची ३६ मोची ३७ सूई .. ३८ लोहटिया ३६ लोढारा । ४० चीतारा ४१ लखारा .. ४२ कागलिया। ४३ मद्यपहटी, ४४ वेश्याहटी ४५ पणगोला ४६ गाछा ४७ भाडभूजा ४८ भाइसाइत ४६ मलिननापित ५० चोखा नापित ५१ पाटीवणा ५२ त्रागडिया ५३ वहिना ५४ काठपीठिया ५५ चोखावटिया ५६ पत्रसागिया ५७ सूखडिया ५८ साथरिया : ५६ टउढिया ६० मूजकूटा ६१ सरगरा ६२ भरथारा ६३ पीतलहडा ६४ कसारा ६५ खासरिया ६६ पाथरिया- ६७ तेरमा । ६८ वेगडिया ६६ वसाह ७० साथूया ७१ पेरुया ७२ आटिया ७३ दालिया ७४ मजीठिया . ७५ साकरिया ७६ सागर ७७ लोहार ७८ सुथार (सूत्रधार) ७६ वणकरे ८० तबोली ८१ क्दोई ८२ बुद्धिहटी ८३ कुत्रीक पणहटी ८४ तूनारा
__ . ( संग्रह फलसे) २२-नगर-वर्णन
--चौरासी चौह?.. १ अकीक हट्ट २२ चितेरा ४३ पस्ताक ६४ लखेर २ अफोण २३ चोखावटी ४४ पाननी .६५ लुहार ३ अमल २४ छीपा ४५ प्रवाल ६६ लूण ४ इधण २५ जवाहर ४६ फड। ६७ लोहनी
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५ कडव
६ कपास
७ कसेग कोई
६. कागल
१० काछो
११ कापड
१२ कीलिका
१३ कुभकार
१४ कुडिया १५ गलियार
१६ गध
१७ गधी
१८ गाधा
१६ गुलनी २० धात्रीनो
२१ घीवटी
२६ जीर्णशाला
२७ जोड़ा
२८ तलाविट
२६ तूनारा
३० त्रापडिया
३१ दात
३२ दूध
३३ टोरावली
३४ टोसी
३५ नाण
३६ नापित
३७ नालिकेर
३८ निस्ती
३६ नीराग
४० पटुना
४१ पट्टकुल
४२ परीपद
( १४ )
४७ फूल
४८ फोफलीय
४९ कर
५० बलियार
५१ वाजित्र
५२ विंधरा
५३ वेश्य
५४ बंधक
५५ भडभुंजा
५६ भरतार
५७ भागुड़ा
५८ भैसा
५६ मणियार
६० मंजी
६१ मांडविया
-६२ मोची
६३ रंगरेज
२३ नगर वर्णन (१४) भीड़
६८ शत्र
६६ षामर
'७० पीनर
७१ पेडागर
७२ सकद
७२ सत्यारा
७४ सरहिया
७५ सराशिया
७६ साकर
७७ सायरिया
७८ सिलाव
७६ सुई
८४ सूत्रहार
( नाहर जी को प्राप्त प्राचीन पत्र से )
२४ नगर-वर्णन ( १५ )
चौरासी चौहटा भीड, मनुष्य शनै शनै फिरै । हिंहं हिई टलै, हारइ हारत्रुटै
१ - सम६ नउट मउडिद, हारिहार
८० सुनार
८१ सुवर्ण
८२ सुडी (सुखडी)
८३ सूत्र
मुड मुडि फूटइ', खुरु खुरि त्रुटइ |
हियउ हियहं दलिया, पूठि पूठइ मलियइ ।
वाह वाह घास, ऊसासु निसासु नासइ । तिलु पड़उ खिरइ' नहीं, पर दृष्टि फिरइ नहीं । इसी बहुस ॥
( पु० अ० )
०खिम (स० )
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( १५ ) पू] पूठ मिले, बाहें बाह घसाइ । सास न लिवराइ, धडाधड हुई । तिणखलो धरती पडि न सकै, दृष्टि फेरवी न सके । थाली माथा ऊपर तर, इम अनेक भीड हुई ।
___ २५ नगर लोक-वर्णन (१६) सक्ल कला कलितु । सर्व शास्त्र विशारट । अनागत त्रिवेलितु स्वभाव सरलः प्रियालाप तरलः परदोष वार्ता विरल । दुस्थित जन दयालु, धर्म श्रद्धालु । परस्त्री सभोग भीरु, पयः पवित्रित शरीरु । प्रतिबंध बन्धुर व्यवहार, नयानुवुद्ध बुद्धि व्यापार । सत्पथ विज, सर्वज्ञ शासनाभिन । एव विध लोकु ||१०५।। (मु०)
२६ धवल गृह वणन स्वर्णमय प्रकार, अतिमनोहराकार | विचित्र कलिकाइ शाल मान, सहस्त्र सोपान । समस्त जन मनोहरु ते कि चद्रमा किरण धवलितु कि छोहि करी कलितु। स्फुटित कोल घटितु । कि मुक्ताफल राशि निर्मित । इसउं धवल गृह निर्मल ॥६३॥ (मु)
२७ जिन प्रासाद लेवा हीडीइ जगि जसवादु, तउ माडावीइ प्रासादु । पुण्य नउ भारउ, एकासी बागुल गभारउ । सूत्रधारि घाट नइ विषइ नथी कीधी मउली, कउलीवटि सहित कउली। अतिहि प्रचण्डु, पाखा मंडप अखण्डु । किसु एक नवचउकिउ, जाणे सृष्टिकर्ता आपहणी किउ । सुघट पणइ केतलउं एक बखाणउ, आगलि गूढ मंडप मडाणउ । अहर्निशि अभगु, रग मडप नउ रगु। चिहु चउवीसी नी विगति, पाखलि जगति । मूर्तिवंती कला बहुत्तरि, देइसी देहुरी बहुत्तरि । सुवर्ण्य ड कलसि अलंकरी, ध्वना परहरी । हिमाचल श्रीभरु, सूलिगउ शिखरु ।
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( १६ ) जाणे मेल पर्वत शृंगु, एहवउ गरि स्वर्ण्यमय कलश नउ रंगु । लोह धातु, लक्ष्मी गंजातु। वर्म व्वजानु चिहु पखेर कोठरी, कोसीसे करी आकाशि अड़ी, सुधा करि धवलितु। विविध बाटि करी तारूबार, एवं विध निन विहारु । सकल पणइ करी महा स्फूर्ति, माहि माडी वीतरागनी मूर्ति । परिगर करी शोभायमान, छत्र त्रय करी नइ विराजमान । अाठ मागलिक मडाणा छइ, पुण्यवत पूजा करइ छई ।। प्रासाद वर्णन ॥ ३६ ॥ जै० (मु०")
२८ स्वयंवरा मंडपुचउदिसि माच, हेठि रत्नमय भूमिका, स्वर्णमय स्तम, ऊपरि पचवर्ण देवाशुक तणा अलोच, तलिया तोरण जमविया, खेत चगर लबाविया, फूलमाला लावावी, सिखरि प्रारीसा झलकइ, गगनि चिंछ पताका झलहलइ, अच्छारायणु, इसउ जसउ देव निमियर तिस्तु मडपु । (पु० अ०)
२६ वाडी वर्णन बीजउरी ना अखाडा, नौबुइना वृक्ष लक्ष, नवरग नारगि। द्राख मंडप, जोइवाजिससी जंत्रीरि, दीठी हाथ उपशमइ तिसी दाडिमि फूल्या फ्णत करणी नी कोटि केलि वृक्ष असख्य अनेक विध आवा रूढ़ि रायणि चार वृक्ष रसाल नक्षथ लगइ वाधीना नीलिएरि पान वारी प्रगटक खारिक खरि वडोरि वोरि फूटी फोफलणी गूंद नरीना गंजा इसी वृक्ष अलंकारी वाडी ॥ ३५ ॥ (मु०)
३० आराम-वर्णन (१) नारिंग, लवंग, प्रियंग । - पूफ, पुन्नासा, नाग, मागधी । घव, अर्जुन, सर्ज, खर्ज। . गलूर, वीजपूर, ऋतमाल, तमाल । नत्त माड, प्रियाल, ताल, हताल, श्रीताज । चंपक, सहकार, तगर, अगर !
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( १७ )
खदरी, बदरी, कदंब, निम्ब । जत्र, जंबीर, वानोर, कणवीरू । रक्षा, अक्ष, प्लक्ष,अखा श्रोवट, कुटज । पटोली, पनस, वैतस । पलास, सल्लकी, अकोल, किकिल । नागवल्ली, गिरिकर्णिका, कर्णिकार, सिंदुवार, मंदार । कोविदार, कल्हार, दाडिमी, करुणा, वरुणा । कपित्य, अपत्य, किकिरात, पारिजात । पटाजा, सपूला, मालती, पद्मस्थल । पद्म तिलक, बकुल प्रभृति वनु । पुष्पित, फलितु, मंजरितु, पल्लवितु । स्निग्धच्छाया, सश्रीक, साड्वलं, निचय, पत्र बहुल । परिमल पवित्र सपुष्प सफल, अनेक पथिक विश्राम मूर्ति । विविध पक्ष कुलाचार, दृष्टि आनंदक । मन सतोषक, एवं विध प्रधान वृक्षा ॥ ६५ ॥ (मु०) '
३१ आराम-वर्णन (२) सच्चायु महाकायु लताकीर्ण द्रुम संकीर्ण पल्लवितु कन्दलितु पुष्पितु फलितु सजनु शीतलु साड्वलु इसउ उद्यान वनु । ( पु० अ०)
३२ सुगंध वृक्ष नाम (१) जाई, जूही, जासूल, नाग, पुनाग, चंपो, दमणो, वालो, वेल, पाडल, कुंद, मचकुंद, केतकी, केवडो, मोगरो, मालती,' मरुभो, गुलवास, सेवत्री, शतपत्र, सहस्रपत्र, सहकार प्रसुख एहबू वन छै। तेहना फल केहवा छई १
" रुडा, रगीला, मीठा, मधुरा,२ फूटरा, फरहरा, पाका, पड़वाडा सुंहाला, सुगंध, सुकोमल, सदाकर, फूल, फल, पत्र, माल, प्रवाल, पल्लव. मकरंद, मनरि' पराग, परिमल, छाया, सोहामणी । एहवू वन तिहा स्त्री क्रीड़ा करै छ।
३३ सुगंध वृक्ष नाम (२) कायर प्रवर । कुद, मुचकुद ।
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---गुलाव -~- खाटा। प्रति (की ) में अकित नामों के बाद ये नाम
विशेष है।
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जाइ, जूही । वेल, वउंला निरुपम निरवाली । सेवत्री नासइ मनोज मल्लिका राज गिरी नी रचना । फूल्या चपक रहित शोक । कुम्हलित केतकी । मनोहर माडणीया अगथीया असख्य क उतिगा वणा कोरटक इत्येव मादल पुष्प वृक्षा (३३) (मु०)
३४ सुंगध वृक्ष नाम (३)
चम्पक, राज चम्पक, विचकिल, स्वर्ण जूथिका केतकी पुन्नाग, मालती जाप कुसुम कुन, नुचुकुंद मंदार टमनक, कुल्वक शतपत्र बंधुजातिका पारिजात हरिचंदन, कल्पवृक्ष प्रमुख - कुसुम समूह तेहि रम्यु । ( पु० अ०)
३५ सुगंध वृक्ष नाम (४) . मल्याउ देखिवा जिसी देव गंधारि सविशेष सुरहि विविध वालउ गधि विमणउ, दमणउ । बहु विध बाबची, त्रिभुवन विख्यात तुलसी। . एवं विधि पात्री ।। ३४ ॥ (मु०).
३६ अंटवी-वर्णन (१) अरण्य, उजाड, झाड़, जाल, माल, जल, थल नटी, निवाण, नाल, खाल, खेड़, खोह, वांका, विषमा, गिरि, गोबर (गह्वर) इत्यादि ।
३७ अटवी वर्णन (२) ॥ अटवी वर्णक || रौद्र वोर भयंकर । मनुष्य रहित । अनेक स्वापद सहित । किहां इक शिवा फूत्कार । धूहड़ तणा घु घू शब्द कार । सिंह तणा सिंहनाट । बाघ तणा गुंजारव । सुअर तणा घर घरा रख । बानर फूकार करइ । चित्र कबरकइ । वेताल क्लिकिलई । दावानल प्रज्वलई । भील गीत गाइ । कष्टि चलाई। रीछ तणा समुदाय । चरू तगा घाट । साहसीक तणा हृदय कंपइ । कातर कोइ उभउ न रहइ ॥ इति रौद्र महाटवी ॥ छ ।।
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( १६.)
३८ अटवी वर्णन (४) . अटवी-अथाऽटवी वर्णनं । अनेकोत्कट वृक्ष गहन । विविध व्याल शार्दूल । काल ककाल । वेताल । क्षेत्रपाल । शाकिनी । डाकिनी योगिनी। यक्ष । राक्षस । गधर्व विद्याधर । खेचर । भूत । प्रेत । पिशाच । क्रीडाटिक करि । कोलि डंब डंबर । श्मशान भिल्ल कर्वर । शबर | तस्कर । शबर। सरभ । कासर । व्याघ्र । सिंह । शृगाल । वृक । शूकरादि । स्वापद । रौद्राकार घूक । शिवा । । फेतकार । डाकिनी। डमर डात्कार । यक्ष राक्षस महा हुंकार ॥ एवं विधा अटवी ॥ छ । ( स० २)
___३६ अटवी वर्णन (५) . जिहा सिवातणा फेत्कार, ' चूक तणा धूत्कार । व्यात तणा घरहाट, न लाभइ बाट नइ घाट ।' लाघता दोहिली छइ, चीत्रा बुरकइ, वेडि विलाउ घुरका । वेताल किलकिलइ,२ दावानल प्रज्वलइ । . . रीछ साचरइ, वीरूतणा यूथ विस्तरइ। वेडी रा साड त्राकइ, ठामि ठामि वनरा भइसा टूकइ । सादूला सीह गाजइ, कायर ना हीया भाजइ। . . . सूरा हथियार साजइ, उइंड वाय वाजइ। - . रूख कडकइ, वटाऊ भडका | ताड खडहडइ, पखी भडहडइ । बालइ वाट साधि छड हडइ, कुमार जागइ छह । इसी रौद्र अटवी, किसी घणी वान रटवी। जिंहा न लाभइ माग, न लहीयइ नदी तणा थाग ।।। न सकइ चाली हाथी", न कोइ मिलइ साथी । विपम पर्वतमाला, डावी निमणी दव तणी ज्वाला । । जई न सकइ चढ्याना पाला, टीसवा लागा भील अत्यत काला। आवो विषम वेला, साथी हुवा लागा भेला। - झाड सधि मिली, न सकीयइ टली। . ठामिठामि टीसइ ज्वाला, माहि अोझीसाला ।
' १ फुतकार, एक एक स्. मिलइ, वणराइ बलड (विशेप पाठ ), ३ मनीभ्य मारग थी चूका ऊचा शिखरि चढि कृई (विशेष पाठ) ४ एक एक सू अडेड, चालइ नाथ छड़ई। ५ दीसह अरण्य ना हाथी ।
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( २० ) जिहा रहइ सापकाला, न करी सका टाला, बडानइ बाला' । इस्यउ महा अरण्य, तिहा एक परमेश्वर सरण्य । (मू०)
४० अटवी वर्णन (६) शिवा तणा फेत्कार, घूअड़ तणा घूत्कार । सिंघ तणा गुंजारव, व्याघ्र तणा घुर्धरारव । सूयर धुरकइ, चित्रक बरकइ । वेताल किल किलइ, दावानल प्रज्वलइ । रीछ उछलई, अघ्रणी भ्रमह । मृग रमई जिसा हुइ दविधा रूख इसा दीसह भोल इसी वन भूमि ॥ ४ ॥ (मु०)
४१ अटवी-वर्णन (७) महात घोर निर्मानुषी अटवी, जहि-कवहि ठाइ शिवा तणा फेत्कार । कवहि ठाइ अलिंजर तणा फूत्कार, कवहि ठाइ वानर तणावोंकार । कवहि ठाह घूयड़ तणा हूँकार, कवहि ठाइ सीह तणा गुंजारव । - कवहि ठाइ व्याघ्र तणा घरघरारव, कवर्हि ठाइ सूकर धरकइछइ। कवहि ठाइ चीत्रा बरकइ छइ, कवहि ठाइ वेताल किले गिलइ छइ'! कवहि ठाहि दवानल प्रज्वलइ छइ, कवहि ठाहि रीछ सांचरइ छइ ।' कवहि ठाहि विरूतणा यूथ हीड छइ, इसी महाभय वणी अटवी ॥
४२ अटवी-वर्णन (८) , किहाई धूवडना घूत्कार, कि० शिवा तणा फेत्कार । कि० अलिंजर तणा फूत्कार, कि० शाकिनी तणा रासडा।। - कि० डाकिनी तणा काचडा, कि० कलहस ना कलकलाट । कि० काबरि तणा कर्वराट, कि० चीतरा तणा वर्वराट । कि० सीह तणा गुंजारव, कि० व्याघ्र तणा घुर्घराव । कि० क्षेत्रपाल तणा भैरवारव, कि० वेताल तणा क्ल कल | कि० वलइ दावानल, कि० रीछ तणी श्रेणी साचरइ ।
२ गुण छोर कुण वाला । सूरा सजे भाला, चतुष्पदरा चाला। घणा पंखिया रा माला। (विशेष) • इसी रौढ अटवी, वसाणइ कुशलधीर कवी ॥ (विशेप)।
-सभा कुतूहल से
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( २२ )
४६ वृक्षनाम (३) अथ अत्र, नीत्र, बीली, बाउल', बोर, बीजोरी, बदाम, कंकोल, केलि, कमल करणवर, करंज, कणन, कयर, कढब, केसु, कोरट, कवच' कालुबरी, कंथर, ताल, तमाल, तगर, अगर, अरणी, खिरणी, श्रीखड, अखोड, अपनस, असोक, आउल
आविली, इ, एलची, श्रामला, अंजीर, सालर, सदाफल, सोपारी, सरद्द, गूगल, गूटी, जावू , नीबू, नागरवेल, रायण, दाडिम, नाल । (स०३)
४७ वृक्ष-नाम (४) वन वर्णनम
अगर तगर, निंब, अंब, जंबू, कदव, बड़, कुडा, कर, खैर, बाउल, बोर, वीजोरा, अंकोल, कंकोल, करंज, कण्यर, केस, कोरट, कवच, उंबर, कछुवर, कथार, ताल तमाल, करणा, नीबू, दाडिम, अावला, हरडइ, बहेडा सेव, अखरोट बिदाम, पिसता, निवजा, टाख, किसमित, अवनूस, असोक, आउल, प्राविली, इक्षु, एलची, अंजीर, सीताफल, नालेर, सोपारी, सालर, गूलर, मूंदी, रायण रत्ताजणी धव, सोनम, पीपल, टीवरू, करमटा, प्रमुख, (को०)
४८ वृक्ष नाम (५) वनस्पति नाम
अंत्र, निव, कढब, जब, ताल, तमाल, हिताल, प्रियाल, नन्दमाल, रसाल, नाग, साग, पुन्नाग, मंदार, केटार, देवदार, कोविदार, सिद्वार, कर्णिकार, जंबीर करवीर, वानीर, मालूर बीजपूर, खजूर, नारेल, नारिंग, लविंग, प्रियंगु, कुंद, मचकुंद, पाउल, कमल, उत्पल, चपक, केतकी, किंशुक, अशोक, ककोल, कलि प्रमुख वनस्पति जाणवी ॥
(स० ३) ४. वृक्ष नाम (६) नारग, लवंग । प्रियगु पूग । पुन्नाग साग । मगवी धव । अर्जुन, शोभाजन । सालरि वीजपूर । धत्तूरं वानीर । करवीर करीर । जवीर जबु । कदम करंजन । कृतमाल, तमाल, ताल, हिताल । रसाल, सजसाल । प्रियाल, पीतसाल । महाकाल अक्षरोट । अश्वथ, कपित्थं, अक्ष लक्ष, वट, कुटज । पनस, वेतस । तिनिश, पलाश काशं । अंकोल्ल, कंकोली । मल्लिका, नागवल्लिका । गिरि कर्णिका, श्री पर्णिका । कर्णिकार, कोविदार । मदार, सहकार । सिंदुवार कल्हार वृद्धटार, दमनक, वाहमी करणावरणा । किंकिरात पारिजात, आम्रातक श्लेष्मतक । विभीतक
2-वाहुल २-किवच ३--मरवू
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( २३ ) हरीतक । आमलक गुडफलक । भावुक, गुग्गुल । पिचुल, निचुल । वजुल जाई जुई । कुद, मुचकुंद । पाटल कमल | बंधुक मधूक । भूर्जा खंजूर । मालती, नव मालिका । केतकी चेतकी हरीतकी। चारकुलिक तिलक वकुल, कटुफली उंबर, कालुवरि, नालिकेरि । प्रमुख नाना प्रकार, वनस्पति संभार । पुष्पित, फलित । मंजरित, पल्लवित । सच्चाय स्निग्धच्छाय । नीलच्छाय, हरितच्छाय, शीतलच्छाय। शाबल प्रवल । वरलटल सकल, अतुल परिमल । अनेक पथिक विश्रामभूत लक्षपति सभूत । निप्पीड नीड विराजमान प्रधान, । अखंड वनखंड। (सू०)
५० वृक्ष वर्सन वृक्ष फलित, पुफित, मंजरित, पल्लवित स्निग्ध, सच्छाय, शीतलच्छाय, सश्रीक, शास्वल, भात्वल, निचितपत्र, बहुल, परिमल, परिकलित पुण्यकर शोभित', विविध विगमाधार, अनेक पथिक-जनागार, श्रानटदायक ।
(चि०) ५१ पक्षी-नाम (१) अथ पनी नाम___ हंस, क्लहत, गजल, चकोर, चास, चातक, चकर, कंत्रु, चक्रवाक, क्रोच, कपोत, कपिजल, क्लक, क्लविक, क्लकठ, केकी, नीलकट, कूर्कट, कोसीट, कहुअा, बारड, भारंड, कुडल, कावर, कादंब, काग3 खग, बग , चातिक, ढीकण, वलात्क लावक, तीतर, भ्रमर, सुक", सारस, सारिका, खंजन, सूकविक, भार इत्यादि ।
कतार, जतार, बाज, कुई, सीकरो, कोइल, समलो, चडकली, चडी, कमेडी, देवी, लावा, बटेर, कबूतर, होला, बगला ॥
५२ पक्षीनाम (२) हंस कलहस, राजहस सारस, चकोर, चक्रवाक, कोकिल, कोकनट, बक, मदनशाल, कुक्कुर, क्लविक, क्रौच, अरिष्ट, पारापत, कपोत, शुक, सारिका, वल, लीका, कपिजल, चातक, चास, मयूर, तित्तिर, लावक, कुरर, शकुनिका, भैरवा, भ्रमर, दुर्गाकोशटक ,टिटिभ वेलाक, ढिक, काकजीव, जीवक, हारीज, कारड, कुंडल, खजन, पिज, मृगार, वितत पक्ष, सिंचानक, गुरुडं । इत्यादि पक्षी वर्णन (सा०२)
१ पुष्प प्रकर गोभित २ अप्यायक (स० १, ३ काक ४ वक ५ शुक ६ कोकिल
(पु० अ०)
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( २४ )
५३ चतुष्पद-नाम (१) स्वापद नाम---
सिंह, शार्दूल, सरभ, साबर, व्याघ्र, व्याल, वरु; वरगडा, वराह, चमर, चीतरा, महिष, जरख, रीछ, रोम्म, सियाल, हरिण, गडक, गोमायो, ससलो, वणेटी, वानर, भूड, भैसा, खर, करत (भ), हरती, इत्याटि चौपट ।
५४ चतुष्पद-नाम (२) बोकडो, गाडर, मीढो, भैसो, शसल, सूर, सारब, हिरण, रोझ, रीछ, सरभ, प्रमुख, चतुष्पद वर्णन ॥
५५ चतुष्पद (३) सिह-वर्णन
सिंह पुच्छयच्छोटित भूपीठ । सिंहनाद प्रति शब्दित वत्तातु । विस्फारित मुख कुहर विकराल दष्ट्रा दुः प्रेक्षः। तीक्ष्ण नख विदारित करि कु भस्थल । पिंगल लोचन, केशर भासुर स्कंध देश । रक्तोत्पल कमल कोमल रसना सनाथ, समस्त श्वापद नाथ (स० १)
.. ५६ कीट-नाम कीडी, कथुनो, कीडो, कमीयाकीला, घीवेल, गदहीरा, माकण, मकोडो, मंकोडी, चाचड, चूड़ेल, फाका, बगतरा, उदेही, अलसिया, गडोला जलोक, चदाण, भमरा, भमरी, तीड, माखी, मसा, डांस, कसारी इत्यदि जीव ।।
५७ पर्वतनाम अर्बुदाचल, सिद्धाचल, विध्याचल, मलयाचल, उदयाचल, अस्ताचल, रेवताचल, हिमाचल, कनकाचल, रोहणाचल, हिमवत, महा हिमनत, त्रिकूट, चित्रकूट, रूपी, सुरूपी, नीली' महानीली२, सिखरी, मुक्तागिर, धोलागिर, मानुषोत्तर, समेदसिखर, अष्टापट, नैपध, वैताढ, कैलाश, गोवर्द्धन, गंधवाहन, इत्यादि ।।
"नील २ महानील
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न तु अमृतत पिंडीभूत ह ग बला
( २५ )
५८ सरोवर-वर्णन (१) . अगस्त्रि ना रोस लगी सृष्टि का अभिनव समुद्र सरिज्यउहुइ, आठ दिग्गजे दंतूसले थिरू हुतउ निरालब भणीउ जिसउ आकाश विसम्य हुइ। आदि वराह पृथ्वी ऊधरी तीणइ म्लान कि जल सरित हुइ वन लक्ष्मी नउ जिसउ क्रीडा सरोवर हुइ किवाहइ नीलकंठ तण्हंउना कठ विपु वितु घूटिवा भणीनइ भय ब्रह्मा पाताल हूंतउ लोक जीवन हेतु अमृतकुड आणी मेव्हउ हुइ सत्कवि सहस्रमुख विनियंतु जिसउं वचनामृत पिंडीभूत हुउ हुइ धवल स्फटिक पापाण तणी पालि वृक्षावली शोभितु हस बग बलाहक चकोर चक्रवाक मछय कच्छप कूर्म पाठीन पीठ जलचर जीव विशेषि विराजमान । वन हस्ती जलक्रीड़ा करई, तापस जन.वल्कल प्रक्षालइ छइ
सुरसुदरी विद्याधरी जल केलि करई भ्रमर गुण गणाट करइ वाइं पाणी झलकइ घट नाला सूसूई पाणी घूमूइ पथिक जनना श्रम हरइं एवं विध सरोवर ॥ ५ ॥ (मु)
५६ सरोवर-वर्णन (२) पानि तणो परिगरु, देहरी तणउ समहरु ।। चउकी चउखंडे झलहलइ, उारे पाणी खलहलइ । पगथिया रा सारुयार वरडी उदार लहरी मला उछलइ । मत्त वारणा ऊपरि पाणी वलइ समुद्र नी परि गभीर, निरुपमान नोरू । उपरि जाण भर इं, खडगू ए तरीई । नहवाली अगोरिजालि । प्रवाह छूटइं, बंध फूटइ । देहरि दंड कलस अामलसारा सोना तणा झलकह । जला ढिरिणि कुल वधू तणे पागि नूपर खलकइ । तडिई किर्तिस्तभ दीसई, लोक हिया विहसइ । मेघ मल्हार (राग) गाईयह वीणा वश मनोहर वाईयइं। देहरीए पूजा कीजइ, जन्म फल लीजइ । शत पत्र, सहस्त्र पत्र लक्ष पत्र ।
सूर्य वशी, सोमवंशी कमल करी सश्रीक दीसइ । "" - " रासा उयारा २ तीर ३ भरीयइ ४ तरीए ५ जलादिरिणी।
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( २६ )
जिहा हस सरलइ, सारस करलई। कपिजल कलई, वृक्ष ना पान चल चलइ । राजहस रमई, भ्रमर भमइं। चकोर चक्रवाक मयूर कूजइ, जलकेलि तणा मनोरथ पूजई । महा काय पोलि, पावड़ियारा तणी अोलि । निर्मल जल कमनीय, विपुल पालि रमणीय । पथिक जनाधार, वृक्ष परपरा सार । कल्लोल माला मनोहर, एवं विध सरोवर । सरस्या भोगलयंभोग जाज्याम्बुज षट् पराः। हस चक्राटयास्तीरोद्यान श्री पाथ केलयः ।। (मु०)
६० सरोवर-वर्णन (३)
तलावसखरी एकल्लोल, देखोने समुद्र नी पडे भोल ॥ 'पंखोनी वेटीग्रोल, उछलेइ कल्लोल.॥ दोसे अमोल, घणाइक रंगरोल ॥ धणाहक वायरना झंकोल, भला पगथीयाना वोल ॥ घणीक पंखीयानी कलबल, घणीइक हलफल || धोबी धोई मलमल, भला विकस्था कमल ॥ पाणी पिण अमल, भला परिमल || ख्याल देखीइ मुख पखालीइं पथी पाणोले पीइछै ।। झारी भरी लिजीइंछ, हाथोहाथ दीइछे ।। मसकते भरीइछै, भैसा उपरि धरीइ छै॥ मोजकरीइं छे बाभण न्हावे छै॥ धोतीया ते ल्यावे छै, ईश्वर ते व्यावेइ छै॥ सहसनाम ते गिणे छ, सरस्वती पाठवद तैभणे छ । वेद वाचे छई, प्रभाति ख्यालते माचे छइ ॥ सहुकोई राचे छै॥ रसोई जिमीइं, श्राखो दिन तोज रमीइं ।। - बीजे स्युं भमोइ ।।
१ पसी।
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(२७ ) एहवा तलाव, परमेश्वर मिलाच ! . - इति तलाव वर्णनम् ॥
(पू.) ६१ पनघट-वर्णन बईरां नी भीड़, हुइ पीड, टें चीड । एक अतावली दोड़े छै एक माथै वेहई चोहडेछ । लूगुडु ते माथे प्रोटें छइ, वेहडों ते फोड़े छई। एक एकनै अडै छई धडाधड पडै छ।। माहो माहि लडे छई॥ हवे नान्ही लाडी, चीखल थी पडे आडी । त्रीजी नी भीनाइ साडी, ते माटेइ करे राडी। सोक सोक नी करइ चाडी, डीले जाडी। खीजे माडी, सासूई पाछी ताडी ।।. एक पणवारी भरे छई, वाता ते करे छइ । नजर ते अरई परह फिरें छइ, एक एक ने हसे छइ ।। बीजी ते पाणी माहि धसेछड़ पग ते पागोथियासू घसइ छ। । एक एक टोली नाइ छ, आपणी आपणी पाछे आवे छ । एक एक नो छेहडो साहे छ, उपाडवा उमा हे छ । उतावली धाइ छ, वाता ते चाहै छ। जीवाणी पाझं रेड्य छ, छोकरो तेड्य छ। माथा उपरि वेहह चोहड्य छै, जेडे झमके छ । घूघर ते वमके छ, पायल ते ठमके छ। वेहइ अरषद, वर्णेक गहगह । वाले अणवट्ट, आवे दहवह ॥ एहवै पणगट्ट । इति पणगट्ट वर्णनम् ।।
६२ नदीनाम (१) गंगा, गोमती, गोदावरी, सिंधु, चामल, सिप्रा, सोवनभद्रा, सरस्वती, सीता, सीतोदा, रेवा, रिक्ता, रक्तवती, बनास, जमुना, मही, सरजू, तापी, सतलज, भूवि, ऐगव, १४ लाख ५६ हजार ६० समुद्र, भेली थई छइ । (का)
६३ नदी नाम (२) गगा, गोमती, गोदावरी, सिन्ध, सिप्रा, सरस्वती, सोवनभद्रा, सीता सीतोदा, रेवा, रिक्ता, रक्तवती, सुवर्णकुलिका, रुप्पकुला, नरकता, नारिकता
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( २८ ) हरिकंता, हरसलिला, यमुना, मही, तापी, बनास, गंभीरी, चाबिल, कृतमाल, नकामाल, प्रमुख, चौटलाख, छप्पन हजार नदी, लवण समुद्र माहि भिलै । (स० ३)
६४ नदी-वर्णन (१) नदी, दो तह पाड़ती, कचवर उपाडती । रुखउन्मूलती, कुमिणि घालती। सावन हणती, जडी मूली खणती । माग्र्गलोक खलती, वलणि वलती। तरू तोपती, नीचउ जोअती। महापूरि कलकलती, कल्लोलि उछलती । लहरि करी सू सूती, वाहले फूफूती । जिसी कृतांत तणी मूर्ति तिसी रौद्र, वेउतटलेई श्रावी नटी । ( स० १)
६५ समद्र-वर्णन समुद्र उच्छल दूहुल कल्लोलमाला मालित गगन मंडलु । मत्स्य कच्छप कमठ कूर्म नक्र चक्र पाठीन पीठ जलचर सकुल । अतिशय गंभीर, समुदंड नीर डिंडीर । अनेक तायात्रिक लोक सेवित, सोल नाति रत्ननउ अागर एवं विध अपार सागर । (स० १ और स० ५)
६६ समुद्र-वर्णन (२) समुद्र अगाध, अलब्ध मध, गुहिर गभीर, आवर्त दुर्ग, कुतीर्थ विषम, मकर भयंकर।
(पु० अ०)
-
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सभा-श्रृंगार
अथवा
वर्णन-संग्रह विभाग २
राजा, राज-परिवार, राजसभा, सेना, युद्ध
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नरेश्वर वर्णन (१) समुद्रनी परि लक्ष्मीनिधान, सहिजि ही सावधान । मेरुनी परि सर्व जनाष्टभ, आति निर्दभ । कार्तिकेय नी परि अप्रतिहत शक्ति, देव गुरु नइ विषइ निविड भक्ति । आसमुद्रान्त भूमंडल भर्ता, आश्चर्यमय महा कार्य कर्ता । सूर्य नी परि नित्योदय, सत्पात्र कृत संचय । दिग्गज नी परि अनवरत दानाद्री' । कृत करु, जय श्री वस। ईश्वर नी परि जितमन्मथु, प्रजापति वकटित सत्पथु । मित्रं प्रति, उदयशेल अति | सशील, सलील । विक्रमाक्रान्त भूतलु, अतिहि प्रबलु । .. रूपइ अभिनव कंदर्पावतार, अति सुविचार । यशस्वी", तेजस्वी। प्रतापि लंकेश्वर, एव विध नरेश्वरु ।। १ ॥ जिणइ राजायइ गौड़ देश नउ रोउ गाजिउ, भोट नू' माछिः । पंचाल नउ पालउ पुलइ, कानड देश नउ कोठारि रुलइ । हूंढाडि नउ ढोयणउ टोयई, वावर देश रउ वारि बइठउ टगमग जोयइ । चौड नउ त्रापिउ', काश्मीर नउ थरहर कापिउ । सोरठी (य) उ सेवइ, दसउर नउ दड देवइ । मेवाड नउ माल यापइ, काछ नउ कापइ । अग देश नउ अग अोलगड, जालधर नउ जीवितव्य तणइ कारणि° रिगइ
१ दिग्गज नी परि निरतर, दानाद्रीकर • प्रगटित ३ मित्र प्रति उदयशील, शत्रुहृद्रय सील। ४-सीकर चोर अ धार (विशेष पक्ति) ५ जयस्वी ६ सार्वभौम नरेश्वर (विशेष पक्ति) ७,भज्यउ ८ चाप्यउ ६ काजि १० वयरीया कृतात, मेवका परम सात। काल वाच निकलक, नी नी परि निन्मक (विशेषपक्ति)
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( ३२ ) घp किसु रिपुकुल कालकेतुवर, शरणागत वज्र पंजर' । पंचम लोकपाल 3, जिमइ सोना रइ थालि । जिणइ रिपु सवे निर्धाट्या; दुर्ग सवे आपणा कीधा, वइरी नइ५ देसवटा दीधा । इस्यु निःकटक साम्राज्य राज्य पालइ । (मु०)
२ नृप वर्णन (२) एकागवीर, रणागणधोर' । पराक्रम निर्भय भीम, साहसिक सीम | विसम धाडि मोडण, पर भूमि पचाणण । परदल खंडण, छत्रीस राजकुली मडण । लडवाय भडकोडि भजन, अगज गंजन । रद रावण, अरिटल ऐरावण ।। अहकारी माण मोडण, मूछाला बीर माण खडण । शरणागत वज्र पजर, गढ मजन कुंजर-1. अडवड्या आधार, वाका वोर पाधोरणहार । सीकरि घोरधार, विकट पर महाहंकार धिक्कार । कलकीया केदार, पवाडा कोडि जइत्त यार । रण रंगमल्ल, अरडकमल्ल । वीर टोकर मल्ल । पर बीर हृदय सल्ल, बावन्न वीर कटार मल्ल । रण भग्न सुहडावष्टभन मेरू, साहण" समुद्र विलोडण मंथाण मेरू । वीर कंकाल वेताल काल, चमर बिवाल । . परदल हल्ल कल्लोल, वैरि वर्ग द्रह बोल । - भय भीत भडकोडि रक्षा वज्र कमाड, दूठ राया हीयइ-दण्ड ।
१ विस्तीर्ण कर (विशेष) • हृदय विसाल ३ जिण रायइ वडावटा विरुद्ध खाट्या, सकल वइरी निर्धाट्या । ४ अपणइ वसि ५ वीहते ६ लीधा ७ रामचद्र नी परइ चालइ । इसउ नि कटक धीर जितशत्रु राजा राज्य पालइ ।
पाठान्तर कुशलधीर कुत 'समाकुतूहल' से । पाठान्तर
१ अटग गजण, रढरावण । २ भजन । ३ भट। ४ भाले भयकर । कराल करवाल तर, ललधाराधर । ५ सीहण । ६ परदल । ७ भमकोडर। ८ रणागण भिदमाल पाठान्तरसमा श्रृंगार विनयसागर प्रति।
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( ३३ ) गय घड़ विभाड, चोर चरड दुफाड । नीसाण निसक, रिपु राय तारामयंक । महारिपु कीर्तिलकार हनुमंत, घणघोर बल घूमंत । डाकीया ऊतारण होप, धयवड घय टोप । इत्यादि ।
३ राजा वणन (३) विक्रमाकान्त भूतल, शक्तित्रय भासित रिपुबल । प्रजापति जनक जननी समानं, सेवक कल्पद्रुमोपमान । युधिष्ठिर जिम वचन प्रतिष्टु, श्रीराम जिम न्याय निठु । विष्णु जिम प्रजापालन व्रत, तरुणादित्य जिम प्रौढ प्रताप । समुद्र जिम अनाकलनीय स्वरूप, एहवउ भूप ||
४ राजा (४) निज विक्रमाक्रान्त क्षोणि मडल, शौर्य श्री वदनारविन्द प्रद्योतन । सकल महीपाल लीला लालितुः, रिपु कुल काल केतु । सरणागत वन पनर, पचम लोकपाल मुद्रावतार | हसउ राजा । (पु० अ०) सीमाल सवे वश वत्तिया किया, गढ़ सवे ढालिया । गढवई सवे निर्धाटिया, दुर्ग सवे आपणा किया । समुद्र पर्यन्त श्राण फेरी, इणपरि एकत्र निःकटकु राज्य परिपालइ । (पु० अ०)
५ राजा (५) महाशासनु, अरडक मल्लु, जग झंपणु, प्रताप लकेश्वर पर राष्ट्रीक हृदय शल्यु। जसु तणइ प्रार्थित प्राण भिक्षा हुंता राय अोलगइ केइ हाथि दर्पण लियइ अोलगइ केइ पुण स्त्रीवेश मुडित कूर्च हुता श्रोलगइ । केइ दाते आगलि लेइ अोलगइ । केइ वेला बाढी ओलगइ। केइ कोढ कुहाड़इ अोलगइ । केइ लोटीगणे। बिहु नाकेइ हाथु खालइ लोटइ। इसउ प्रतापी राजा। पु० अ०
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( ३४ )
६ राजा (६)
राजा ग्रादित्य निम प्रतापियड, सिह जिम सौर्य सयुक्त, इस जिम उभय पक्ष विशुद्ध, हार जिम कामिनी वल्लभु चद्रमा जिम कलावतु, पट जिम गुणवंतु, घनट जिम श्रीमतु, हस्ति निम दानवंतु, मकरध्वज जिम रूपवतु ।
७ राजा (७)
याचक लोकु कामधेनु, उग्र विग्राहक ।
राज नभा चक्रवत्तिं,
नीति विधातु । साहसैक स्यातु,
जेह प्रसन्नु तह धनदावतार,
जेह प्रति कुपितु | नेह कुपितातावतार,
टोप दरिद्र । गुण द्रव्य ईश्वरू, परदोषान्वेषण जात्यन्ध | तत्त्वावलोक्न सहस्राक्ष, परदोपोदघाटन मूक | सद्गुण ग्रहण व्यवदूक,
एव विध राजा || १०७|| ( मु० )
८ राजा (८)
जमु राय तराइ खड्गि राज लक्ष्मी वसइ । सरस्वती जिवाग्रि वसई, वचनालापि अमृत वसइ | महाजन हुई गौरव टरिसइ, सेवकजन मन सतोस । डीट एंड करइ, ठउ दखि हरइ ।
रूठरं सर्वस्व अपहरई, अन्याय तरणी बात परिहरन् । कीत्ति कामिनी काम, देव गुरू मेल्दी कुहिदुइ सिर न नामइ ।
मधुर प्रसन्न मुख, इद्र पटवो तउ सुख ।
परनारी सहोदर, दान सन्मान सढाटर | ऊचित्य चतुर, प्रतिपन्न वाचा सार । सर्वजन श्राधार, पंडित जन श्रृगार । स्खलित कीति, सूर वीर विक्रान्त | परम स्कूतिं
उदार कार मूर्ति |
पाप नि क्दन, सजनानंदन । एवं विध राजा । उड़वातान् प्रति रोपयन कुसुमिता विन्चन लघुन वर्द्धयन ज्ञान कटकि नो बहिर्नियमयन् विश्लेपयन् सहतान ।
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( ३५ ) अत्युचान्नमयन् शनैश्चवित तानुन्नामयन् भूतले । मालाकार इव प्रपच चतुरो राजा चिरं नदतु ॥११७।। ( स० १)
९ राजा (8) जसु राव तणइ खझि राज्य लक्ष्मी वसइ, जिह्वा सरस्वती वसइ । वचनालापि अमृत वरसइ, महाजन किहि गौरव दरिसइ । सेवक लोक मन सतोपह, दीठउ आणंद करइ । तूठउ दारिद्गु हणइ, रूठउ सर्वस्व हरइ । नीति अनुसरइ, अन्याउ परिहरइ । कोर्ति कामइ, देव गुरु मेल्ही सिरूकुणहइ न नामइ । नमु राय तणइ ग्राणदु मधुरु प्रसन्न मुख, प्रीति तरगित मनु दान सन्मानु अालापु । अमृत सहोदरू, वचन कारूण्य रस कूप तुल्य, उचत्य चतुरु वाचासारु । शौर्य उपशम श्री विलासु, तत्त्वविचारणक फल बुद्धि । सर्वत्र विख्याति कीर्ति, सत्पात्र सेवा रसिक मंत्रि ||१|| पु० अ०
१० राजा (१०) प्रतापि लकेद्र , सत्यवाचा हरिश्चंद्र । साहसि विक्रमादित्य, त्यागलीला कर्ण । वचन प्रतिष्ठा युधिष्ठिर, धनुर्वेद अर्जुन । याज्ञा अजयपाल, परनारी सहोदर गागेय निर्भय भीम, श्रापन्न सत्व जीमूतवाहन, विवेकी नारायण, विद्या वृहस्पति । लावण्य लवणार्णव, रूपि कंदर्प, प्रतपि मातंड
औदार्य बलिराज, अद्भुत दानि चिंतामणि सेवक जन कल्पतरु, चतुरग वाहिनी समुद्र सौभाग्य गोविन्ट, ऐश्वर्य सुरेन्द्र । सिंह जिम सौर्यवत, चद्रमा जिम कलावत । शीलि सुदर्शन, विक्रमाकात क्षोणीमडल अतुल बल, पचम लोकपाल शरणागत व्रज पनर, सकल वैरि महीपाल दुर्जर ॥५७॥ ( स० १.)
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( ३६ )
११ राजा (११) छत्रीस राजाकुलीनो नरेश्वर, सहजै श्रलवेसर । प्रत्यक्ष परमेश्वर, कपाले राज्य लक्ष्मी वसे, मुख सरस्वती उल्लर्से । तूठौ दारिद्र हरे, दीठौ अानन्द करे ।
१२ राजा (१२) पीनोन्नत कध, सत्य संध । कमल वदन, उज्ज्वल रटन । सुरभि निश्वास, लक्ष्मी निवास । सदल नासावश, पृथ्वी पीठावतश । प्रलन कर्ण, नुवर्ण वर्ण । विशाल नेत्र । सर्व कला क्षेत्र । . अष्टमी चंद्र समान भालस्थल, अनाकलित बल । कजल श्यामल केश पाश, सर्व जन पूरिताश । सत्वैकतान वृत्ति, उभय पक्ष निर्मल प्रवृत्ति । त्रिशक्ति समन्वित, चतुराज विद्या अलकृत । जित पचेद्रिय विक्रम, पण्मुख सम विक्रम । सप्ताग राज विरानित, अष्ट विध मद विवर्जित । नव निवानाकार, भाडागार । दश दिशि विख्यात नामासार, अकादश द्रइ कलाधार । द्वादश दिवाकर, प्रताप विस्तार । त्रयोदश वक्ष कृत सानिध्य, चतुर्दश विद्यालब्ध मध्य । पंचदश तिथि दत्त दान, सोल क्ला सपूर्ण । सप्त दशक युसवना अन्य व्यवहारक । अष्टादश द्वीप कीर्ति विख्यात ।। एकोनविशति पाटण नायक, वीत विसा परोपकारक । दानी र्ण, पवित्रता ऋतुपर्ण । उपक्रमि राम, पितृभक्ति परशुराम । राधा वेधि अर्जुन, रससिद्धि नागार्जुन । संग्रामि भीमावतार | शरणागत वज्र कुमार। द्रोणाचार्य धनुर्विद्यायां । नुश्रुत आयुर्विद्यां । अाज्ञालकेश्वर । न्याइ विभीषण । इस्यो राजा भूमि भूपण । तथा । प्रतिपन्न विध्याचल, अगि भोगि मलयाचल । कीति गंगा । हिमा गुण रत्र रत्नाचल । तया नयन नट वा चंद्र । पृथ्वी धर नागेंद्र ।
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(३७) पराक्रमि कार्तिकेय, शत्रु सैन्य सेंहिकेय । स्त्री जन रति पति, प्रतापि दिनपति । ऐश्वर्य सहस्राक्ष विभूति धनद यक्ष । रूपि अश्वनी कुमार, लोकवसंतावतार | तथा । जस प्रतापि। मध्य देसीय मूझइ । सौराष्ट्रीय सूझई । मालवीउ आंच मांडइ । मेवाड़उ मद छाडइ । कनूजो कापइ । वाणारसउ बरकइ नही । मागध तणउ मुणकइ नहीं । तिलंगु तडफडइ बारि । कलिंग तणड रूलइ कोठारि। , मरहठु होट दमइ । कुकणउ हाथ वसइ । तथा । जू राजा दिन गमनिका करइ । किवारह श्रास्थानि किवारह देवस्थानि । कही देहवासरि । क० अतेउरि । क० सर्व उसरि। . क० राज पाटिका । क० पुष्पवाटिका । क० सत्तागारि । क० वडइ प्रकारि । तथा । जीणइ गीत प्रवृत्तइ तुबरु ताल मुझइ, रंभा नाच मुंकइ । हा हा हू हू डर फर किन्नर कान धरि । गधर्व गीत मुकइ । स्वर्गह देव साभलवा दूकई । तथा । जेह तणी दृष्टि इ दाधा पालुईइ। .
या संघाई । भागा समिईइ । सुका नीलाइई । जीर्ण पुनर्नव हुइ । अशक्त शक्त हुइ । बाधा छूटइ । कुकवि कल्प त्रूटइ। दारिद्र जाइ । लक्ष्मी अमाइ । इस्पु, सत्यवंत । सूर्यवंत । कलावत । गुणवत । प्राकृतिमंत । दान पर । मान पर । ऋजु स्वभाव । मृदु स्वभाव । गीत प्रिय । काव्य प्रिय । दक्ष दातार । विधु विचारज । अस्खलित सासन । सार्व भौम । राजा चंद्रातप राज्य करइ ॥छ।।
१३ राजा (१३) राजा सूर्यवत अखड प्रताप, साख्यात कटपं बाप । दुष्ट निग्राहक, शिष्ट परिपालक । , नीति प्रधान,' पुण्य प्रवान । पाठान्तर- निधान
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( ३८ )
विवेक नारायण, परनारी सहोदर,' भरै अनेक ना उदर ।
पराक्रमवंत, दानवंत |
सत्यवंत, सोमवंत । याचक जन कामधेनु,
एवं विध राजान ॥ चि०
१४ राजा (१४)
दान वीर, सग्राम घीर 1 वैरी कुल खंडन, निजकुल मंडन । सत्यवाच अविचल, अति गाढो कल | संग्रामे स्थिर, प्रतापै युधिष्ठिर ।
पर राष्ट्र इंदप सल्ल,
बीडी चयरागर, गुणं रत्न सागर । साहरण समुद्र, दान खडै निर्जित दखि । कप्पूर धारा प्रवाह, अति स्वोछाह । सेवक जन क्ल्प वृक्ष, अति दच्छ । विचक्षण, छत्रीस लक्षण । याचकजन चिंतामणि, राजा मडल चूडामणि । प्रतापै दिनेश्वर, गाढो मलवेसर ।
इसौ जित शत्रु नरेश्वर ॥ चिन्
१५ राजा शरीर वर्णन (१५)
राजा कर्ण, गौर वर्ण, लंब कर्ण ।
विशाल नेत्र, फूल गात्र ।
उपराही रोमराय, हीएं श्रीवत्स, पाय पद्म, हस्त चक्र
एक अखंड प्रताप, ऊंचो लक्ष |
कटि लक, मूल वक
इति शरीरवर्णनम् ( चि० )
* सेवक जन वत्सल । इस प्रति में ऊपर लिसे प्रथम चितौड़ की प्रति के अत में यह शरीर वर्णन भी लिखा है ।
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( ३६ )
१६ महाराजाधिराज (१६) जीह रायतणी याज्ञा पंचाल देश स्वामी मस्तकि वहइ । नेपाल देश स्वामी, द्वारि रहिउ, प्रासाद लहइ । मलया देश स्वामो पाहुड पाठवई । द्रविड़ देश त्वामी वाज धयक अोलगइ। सिन्धु देश स्वामी पडपडी दिइ । कछ देश त्वामी दिवसोदव नगइ श्रोलगइ । गउड देश० कोठारि योलगइ ।। मरहठ देश० वज्र पजरि खडहडइ । जालधर देश० पग पखालइ । सोरठीउ राजा अाठील प्रास्फालइ । केई गोतिहरइ तडफडइ, केई लोह खंडे खडावडई। केई टाँति श्रागुली लेई अोलगइ, केइ स्कधि कुठार घाति अोलगइ । कि बहुना जीणइ सीमाडा सवे वस कीधा। गढ सवे ढालिया, रिपु सवि निर्धाटिया । समुद्र पर्यंत आजा पाठवो, अनेकि परि प्रजा सुखिणी कीघो । इण परि राजाधिराज राज्य करइ । ५६ । ( स० )
१७ अहंकारी राजा (१) अट्कारी कहवा छई
अटाला, अणियाला, पटाला, हठाला, मुछाला, मामला, करडाला, मरडाला, मछराला, मतवाला, मलपता, मरड़ता, मसलता, आखड़ता, अडता, आपडता, पडता, पाडता, पकडता, अत्रीहता' बलवता, बोलता, बुद्धिवंता, रूपाला, रंगीला, रसीला, रढीला, रेखाला, रतीला, रिद्धाला, सूरा, पूरा, छयल, छबीला, एइवा गुमानी राजा। ।
श्रोष्ट युगल फुरकावतउ, वचन विन्यासि खलतउ । भीषणाकार मुख करतउ, आरक्त लोचन धरतउ॥
___ इस्यु राजा कुप्पउ ।। पु० १८ कुपित राजा (१) .
कृटिल भ्रकुटि ताडी, चपेटा ऊपाडी। २ प्रतिहन्ता
.
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( ४ )
३३ रानी वर्णन तेह तणी कलत्र-जिसीरभा, जिसी उर्वसी, जिसी तिलोत्तमा, जिसी अप्सरा, जिसी पातलागना । इसी राशी ॥ (पु०)
३४ मंत्री वर्णन रूपि करी रूडड, पाट प्रति नथी कूडउ । राउला अर्थ निधानु, विण झूझ पृथ्वी आपणी करइ, अनेरइ राय नइ चउका सरि सरह । अनेइ खडि आस जगीस, ताडी वखाणयइ विश्वावीस । लोक ना कार्य समारइ, अने प्रजा उगारइ । वाद विग्रह राखइ, असत्य न माखइ । शास्त्र कुशल, यशि करी निर्मल । प्रना नउ पीहरु, अतिहि अलवेसकरु सविहु बुद्धि निधानु एहबु प्रधानु ॥ १८ ॥ जै० मु०
३५ मंत्री-वर्णन तेमहाराय तणउ चतुर्बुद्धि विलासु, समस्त जन विहितोल्लानु । नीति शास्त्र विचक्षणु, विद्यामान सामुद्रिक लक्षणु । महाराय तणउ प्रतिशरीरु, अवर्णवाद भीरु । कनकमय मुद्रालक्रियमाणु दक्षिण हत्तु, अति प्रशस्तु । मंत्रिमंडलुमुखाभरणु, सकल राज सभालकरणु । अनेक साधित दुर्घट कार्य सिद्धि, महतउ सुबुद्धि । तीणपरि सुख सदोह भरि पच प्रकार सोख्यसारु, परि पालइ राज्य सारु ॥
२७ रावण-वर्णन (४) त्रिकूट पर्वतु, लंकापुरी समुद्र खाई । दश मिरु बीस भुजु, त्रैलोक्य कटकु । रावण मंडलेश्वर, तूछो ईश्वर । ... .. "वरु, नवाणवइ कोडि राक्षस बल । नव कोडा कोटि नक्कोडि नवाणवलद नवाणवइ सहस्र नवसई
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( ४१ )
नवोत्तर राक्षस कुल 1 कुभकर्ण विभीषण प्रमुख बाधव लक्ष, मदोटरी प्रमुख सवालक्ष तेवरी । इद्रयम मेघनाद प्र० सवालक्ष कुमार । साली सूर्पनखा प्रमुख अढार बहिन । सातलक्ष वेटी, तेर कोडि चेटी ।
विहि बैठी कोद्रवा दल, आदित्य रसोई करइ | भैंसा रूपी घटवाजते यमुदेवतापाणी श्राह ।
विश्वकर्मा सूत्रधारउं करह, शुक्र दैत्यगुरू पोथी वाचर, कथाकहद्द | इन्दु माली रूपि फूल आइ, साड छेहिखाट तणी उडाणी तापइ | तैंतीस कोड देवता श्रलगकरइ, इठियासी सहस्र ऋषिश्वरपाणी परत्रभरइ । वेद उच्चरद्द, शिव शान्तिक करइ ।
देवगुरु बृहस्पति रिस देखाडर, मगलू क्षेत्र खेडावइ । कामदेव कडी कटारउ बाधइ, धनुषाग्नि बाग साधइ । महेश्वर पवन (१) वायर, ब्रह्मा वीण वायइ | •, पवन देवता धूलि बुहारइ ।
नारायण
नवदुर्गा आरती उतारद्द, गंगा यमुना वे चँवर ढालइ । गणपति गोकुल चारइ, कृतान्तु कोटु गखइ । सनिश्चरू रसोई राइ, जीव रति ढोलडी झाडइ । केतु भामणा भमाडइ गोरी सणगार करावइ । लाछि वस्त्र सत्तावद्द, नवग्रह खाट पाइयेवाधा । ", धनदु भंडारि भरइ ।
'करइ,
'रावण राज करइ ।
सात समुद्र माजरगड करावइ, अढार भार वनस्पति फूल पगर भदर । तक्षक केउ भडारि पहिरउ करह ।
हस्ती - वर्णन
बालान स्तंभ मोडी, निवड लोह तरणी शृंखला त्रोडी ।
पुतार पाडी, कपाट सपुटु फाडी ।
पडिहारु गानी, वरण सबधीया त्रिगडा भाजी |
वरंडा पाडत, माणंस मारतउ, राउत रसाडतउ ।, टाल टलटलावर, हाद हलहलावई ।
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आराम उन्मूलइ, ऊभा मनुष्य ऊलालइ । क्षत्रिय खलभलावइ, खंडगृह खडहडावद, धवलगृह धाकलह । तरल तुरगम त्रासई, नाइका नासइ । इसु मूर्तिमंतउ कृतांतु महाकाय, पर्वत प्राय । सप्ताग मट प्रतिष्ठतु, देवताधिष्ठितु, त्रिदंड गलितु । सारसी करतु, मद प्रवाह झरतु । हस्ति राजु, नियाजु । कृष्ण वर्गु, सूर्यमान कर्ण। लीला साचरइ, जयश्री वरइ । परस्त्री परिहरइ, शत्रु वर्ग टलइ । पर मानु मलइ, कोपि बलइ । मही तलि चालतउ, मेघजिम गाजतउ । इस हस्तिराजु चाल्यु । पु०
१६ कोपातुर राजा (२) कृत भीम भृकुटि उत्कट ललाट पट्ट घटित त्रिशूल । उत्पाटितु दृष्टि सपुटु । दसन संदष्टौप्टः प्रकम्पित देह यष्टिः इणि परिराना कोपि चडिउ । पु० अ०
२० रूठा राजा (१) रूठो साते पताल फोडे, रणागणि गववर तणी गडी गाजे, शत्रु भड भाजै । दानेश्वरै कर्ण तणो अवतार, धनुर्धरइ अर्जुन प्राग्भार । जेह तणो अतुल भंडार, प्रबल कोठार । वडा जुझार, कटक तणो नहि पार । करें शत्रु सहार, महा उदार।
एहवो पराक्रमी । अजनाचल रे कैलास पर्वत तणी पदवी श्रापी। यमुना तणे स्थान कीधो गंगा प्रवाह । मित्रकीधा चद्रनैराह । सरीखा कीधा हारने नाग, अतर यलियो जगनै काग । एहवो जाणवी ॥स ३०
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( ४३ )
२१ राजानाम
जितशत्रु, जितारी, जयसिह, जनक, जयराज, कनकभ्रम े, कनककेतु; कनकसिह, कुंभकर्ण, कुरु, मदनभ्रम, मदनसिंह, मदनकेतु, मदनवेण, मकरध्वज, मृगाग, महिघर, मन्मथ, विजयसिंह, वैरीसल्ल, वैरीमल्ल, वीरसेन, विजयकरण, चंद्रसेन, प्रजापति, पृथ्वीपति, पृथ्वीमल्ल, प्रतापसेन, महीसेन, एहवा राजान महाबलिया है ।
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२२ चक्रवर्त्ती ऋद्धि (१)
नव निधान १४ रत्न, सोल सहस्रयक्ष, बतीस ' सहस्त्र मुकुट वर्द्धन राय, ६४००० ग्रतःपुर, सवालाख बारागना, १४००० वेलाउल, ३२००० देश, २१००० संनिवेश, ५६ तरद्वीप, ६६ सहस्त्र द्रोणमुख, ६६ कोडि ग्राम, ६६ कोडि पदाति, ४६ सहस्र उद्यान, १८ श्रेणि, १८ प्रश्रेणि, ८० सहस्र पडित, १०० कोडि± कौटुंबिक, ३२ कोडिकुल १४ सहस्र चतुर्बुद्धि निधान, १४ मंत्रीश्वर, ३२ सहस्र नव बाहरी नगरी, ४६ कुरराज्य प्रताप संपात १६ सहस्र म्लेच्छ राय, १४ सहस्र मंडप', १४ कडवट १४ सहस्र संधान, १४ सहस्रखेट, ४८ सहस्र पत्तन, १८ कोडि अश्व ८४ लक्ष उत्तम गज, ८४ लक्ष रथ ७२ लक्ष पत्तन, ३६ लक्ष वेलाकूल, ३२ सहस्त्र प्रवर देश, ६४ सहस्र कुलागना, सवा लाख वारागना, ३२ भेट भिन्न नाटक, ३० सहस्र ग्रागर, ८४ लक्ष तालारक्षु, ८४ सहस्र सूत्रधार, सवा कोडि व्यापारिणः, १४ सहस्र जलपथ, २४ सहल कटक ३६० सूपकार ।
श्रन्यपि श्रेष्ट सार्थवाह मार्डत्रिका कोडंत्रिकादयः ।
ग्रामो वृत्त्यावृतः स्यान्नगरमुरु' चतुगों पुरोद्भासि शोभ ।
खेटं नद्याद्रिवेष्टं परिवृतमभितः कर्यट पर्वतेन ।
१ जनक भ्रम ( न० ३ )
१-१००० कोटि २ श्रापाताप सघात ३ मडव ४ – सह कर्नट ५ मुउरु । ग्रामैर्युक्त मटबंडलित दश शतैः पत्तन रत्नयोनिः ।
द्रोणाख्य सिंधु वेला वलयित मथ संबाधनं चाद्रि शृ गे ।
इति चक्रवत्ति ॠद्धिः ॥
( मु० )
पाठान्तर - १ छत्रीन २ १००० कोडि ३ श्रताप ताप सवात ४ मटव मटन ५ सह-कर्बट ६ चउरासी लक्ष जात्य तुरगम अ त पुर मुउन
विशेष - बहुत्तरि महन पुरवर, छत्रीस सहस्र जनपद चउवीत सहस्स कर्पट खोल सहस खेटक चउद्र सहल मनाउन पचास कम्धान अधिपत्य, पुरावृत्तित्व, स्वामित्त्व, भत्तृत्व अनु भवति ॥ ( अन्तिम ) ६६ (स० १)
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( ४४ )
२३ वासुदेव राज्य (२) केवडंउ राज्य वासुदेव तणउं जिहा समुद्र विजय प्रमुख दस दसार । पजून प्रमुख अहूठि कोडि कुमार । शब प्रमुख एक सहस्र दुर्दीत कुमार । बलदेव प्रमुख पाँच वीर। वीरसेन प्रमुख एकवीस सहस वीर | उग्रसेन प्रमुख सोल सहस मुकुटबद्ध राजा । महसेन प्रमुख छप्पन्न सहस बलवत । रूपिणि प्रमुख सोल सहस अतःपुरी जन । अनग (सेना) प्रमुख सोल सहस वेश्याजन ७० ( स० १)
२४ रावण-वर्णन (१) लका नगरी राजधानी त्रिकूट पर्वत गढ । अनेक अक्षौहिणी दल, अढारकोडि तूर । जिणइ मृत्यु पातालि घाल्यउ, नवग्रह खाट पाईयइ बाधा। बाउ देवता आगणउ बुहारइ, बार मेघ छडउ दीयइ ।. वनस्पती फूल फगर भरइ, सूर्य रसवत्ती करइ । चद्रमा घडी-घड़ी अमृत लवइ, यम देवता पाणी वहह । सात समुद्र माजणड करावइ, सात सात रसा' भारती उतारइ । विश्वकर्मा शृगार करावड, तेत्रीस कोटि देवता अास्थानि अोलग आवइ । गगा जमुना चमर ढालइ, तुबर गीत गावइ । सरस्वती वीणा वावइ, रमा नाचइ, वृहस्पति पुस्तक वाचइ । इन्द्रमाली, ब्रह्मा पुरोहित । जीमूत रिषि छोरू खेलावइ । कामदेव कटारउ बाधइ, वासुगि खटि पहुरउ दीयइ । कुलिक उपकुलिक बेउ पाउ उलालइ, अर्द्ध प्रहर श्रीखड घसह । वैश्वानर वस्त्र पखालइ, चाउँडा तलारड करइ । विधात्रा कोद्रवा दलइ, गणेस गर्दभा चारइ।
पाठान्तर
१. सातरिनी • श्राम्बानि ३ वाजट ४ विहि ५ विनायक
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( ४५ ) २५ (पुनर्वर्णकान्तरं लंकेश ) रावणस्य ।। २ ॥ पहिलङ त्रिकूट पर्वतनी विसमाई, पाखलि (अनी) समुद्रनी खाई । लंका नगरी पाखलि गढ़, अति सदृद्ध । श्रोलगइ निन्नाणवइ कोडि राक्षस ना कुल, बलि करि अतुल । बांधव कुंभकरण विभीषण जिसा, वेटा मेघनाद, इद्रजित् जिसा । बहिनी असाली सूर्पणखा जिसी, रावणनइ दस मस्तक, वीस भुज, ए वात साभली कुणहइ इसी। लाधउ ईश्वर नउ वर, वाउ बुहारइ घरु । मेघ करइ छाटणउ, देवागणा करइ ऊगटगुं। यम देवता' पाणी वहइ, सूर्य देवता रसोई रहइ। ब्रह्मा वेद वखाणइ, इन्द्राणी केस ताणइ । गंगा यमुना चमर ढालइ, नवदुर्गा आरती उतारइ । विश्वकर्मा सूत्रहारूं करावह, विश्वामित्र श्राभरण घटावइ । मगल पडिउ क्षेत्र नीत्र परिवारइ, छइ ऋतु आपापणी अोलग संचारइ । देवता मिलि प्रागलि नाटक माडइ, विधात्रा कोद्रवा खाडइ । धनद भडार भरइ, रावण इस्यउ राज करइ । सू० मु०
२६ रावण--(३) लंका राजधानी, त्रिकूट दुर्ग, जीणइ मृत्यु बाधी पातालि पालिउ, नवग्रह खाट तगइ पाइयइ बाधा। वाउ देवता अागणउ बूहारइ, चउरासी मेघ छडा छावडा दिइ । वनस्पति फूल पगरि भरइ, जमराउ भइसा रूपि पाणी वहइ । सातइ समुद्र स्नान करावइ, सात मातर आरती उतारई । विश्वकर्मा शृगार करावइ, शेषनाग राजछत्र धरइ । गंगा यमुना चामर ढालई, छइ रितु पुष्प पूरइ । सरस्वती वीणा वायह, तुंबर गीति गायइं। रंभा तिलोत्तमा नाच, नारद ताल धरई । श्रादित्य रसोई करइ, चंद्रघडी २ अमृत झरइ । मंगल महिषी दोहइ, बुद्ध पारीसउ दिखाड़इ। वृहस्पति घडियारडं वायइ । शुक्र मत्री बहसइ, शनैश्चर पूठि पग देई खाट बहसह । १. ममहप (महमहण =) २. अपरावर ३.'थटावर (घदावर)।
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( ४६ ) ३ कोस समुद्र खाई, टस सिर, बीस भुज, ३० सहल वर्ष श्रायु, २१ धनुषउच्च, त्रैलोक्य कंटक, रावण राना जेहनइ-६६ कोटि राक्षस कुल, ६ कोड़ाकोडि, ६६ लक्ष, ६६ सहस्त्र, ६०६ राक्षस बल, कुभकरण विमीपण प्रमुख लक्षबाधव, मदोदरी प्रमुख सवालक्ष अंतेउर, इन्द्रजीत मेघनादादिक सवालक्ष वेटा, ७ लक्ष वेटी, श्रासाली सूर्पनखाटिक ०८ भगिनी, ३ कोडि चेटी, विहिनोदवा दलइ।
८८ सहल ऋषि पर्व पाणी भरइ, ३३ कोडि देव उलगइ आस्थानि इंद्रमाली।
ब्रह्मा पुरोहित पणउ करइ, भृगरी ति पाचमन दिइ । जीमूत ऋषि छोरु खेलावइ, कामदेव कटारउ बधावइ । वैश्वानर वस्त्र पखालइ, कार्तिकेय तलार करइ । चामुडा चाउरि संचारइ, विणायक गादह चारइ । अनइ सवा लाख पुत्र जेह तणइ । इसिउ त्रिभुवन सल्ल, महामल्ल, राणउ रावण । १-४ ( स० १)
२८ राम-वर्णन
यथा क्षीर माहि गोतीर, जल माहि गंगानीर । - पट्ट सूत्र माही हीर, वस्त्र माही चीर ।
अलंकार माहि चूडामणि, ज्योतिपी माहि निशामणि। अश्व मांहि पच वल्लभ किशोर, नृत्य कलावंत माहि मोर । गज माहि ऐरावण, दैत्य माहि रावण । वन माहि नंदन, काष्ठ माहि चंदन । तेजस्वी माहि आदित्य, साहसी माहि विक्रमादित्य । वाजिन माहि भमा, स्त्री माहि रभा । सुगंध माहि कस्तूरी, वस्तू माहि तेजमतूरी । पुण्य श्लोक माहि नल, पुष्य माहि सहल-दल-कमल । सत्यवादी मांहि धम्मपुत्र, ज्ञानी माहि ज्ञातपुत्र । वाण कला माहि अर्जुन, सूर माहि सहस्रार्जुन । उपगारी माहि जीमूतवाहन, देव माहि मेघवाहन । शीलक्त माहि नारट, रतावण माहि पारद । वृक्ष मोहि सहकार, भोगेश्वर माहि कृष्णावतार ।
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(४७ ) दातार माहि कर्ण, धातु माहि सुवर्ण । देव माहि अरिहत, ऋतु माहि वसत । भोगाग माहि नारी, क्रीडाग माहि सारी। धान्य माहि चोक्ष, सुख माहि मोक्ष । नाग माहि धरण, मत्र माहि परमेष्ठि स्मरण । पक्षी माहि हस, भूषण माहि अवतस । शास्त्र गाहि गीता, स्त्री माहि सीता । रूपवत माहि काम, तिम पूर्वोक्त गुणोपेत न्यायवन्त श्री राम ।
२६ सीता प्रधान, सर्व गुण निधान । भर्तारनी भक्त, वर्म नइ विषइ रक्त । राम नइ प्रेमपात्र, सुदर गात्र । शील गुल विभूषित, सर्वथा अदूषित । कमल नेत्र, पुण्यक्षेत्र, । जेहनी मीठी वाणी, सगले जाणी। रूपवन्त माहि वखाणी, घणु स्यू इंद्राणी, पणि जे आगइ आणइपाणी ।
(सू०) __३० दशार्णभद्र सवारी (१) महा गहगहाटि हाटि हाटि गूडी ऊभवी, विविध वदन माल शोमी। विचित्र वर्ण संपूर्ण उल्लोच ताड्या, मनोहर मडप माड्या । गृहि गृहि आरीसानी अोलि' झलकइ, काचन तणी किंकिणी खलकइ । स्यानकि स्थानाक सुवर्णमय पूर्ण कलश श्रेणि चड़ावी । नीसरिणीनी ओलि मडावी, कल्याण झल्लरी तडावी । पचवर्ण पुष्प प्रकर भरी, अविद्ध मौक्तिक चत्रक पूरइ । कृष्णागरु धूपहडी मेल्हियई, रग नइ तर गि रास खेलीयइ। शृगार सार रस गाइयइ, वीणा वशादि वादि वाईयई। पताका फरहरती कीधी, कस्तूरी नी गु हली दीधी। मोती तणा झूवखा झूत्राव्या, माहि पद्मराग पटल लंबाव्या। . केलि ने स्तभि तोरणि तिग तिगाव्या, दुगंध ऊपजता राख्या। मण पगाम कपूर लाख्या। केसर कु कू तणा छड़ा छाबडा नोपना, कमलिनी कमाल सपना । छत्र चामर गहगहइ, केतकी दल परिमल ममहइ । १ उलि २ मण गमे (गते)
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इम सर्व नगर सश्रीक करी, सर्वा ग भूपण धरी । हस्ति राजाधिरूद, प्रतापि प्रौढ । पाखलि लाख खाडा तणउ भडिवाउ, मंडलीक तणउ समवाउ । गजेंद्रनी घटा, घोडानाथाट, पायक ना पहट । रय तणी रामति, मेघाडबर, छत्र नउ' आडंबरु । सीकिरि तणा झमाल, अलब तणा डमाल । मेरि तणे भाकारि, झल्लरी तणो झात्कारि । शख तणो ऊकारि, तिविल तणो दोकारि, मादल तणो धोकारी । ढोल तणो टमटमाटि, पटहने गुमगमाटि । रणतूर ने रणरणाटि, घोडा तणा हींसाटि । गजेंद्र ने गड़गडाटि, राजा श्री दशाणभद्र चालिउ । ( स. १)
३१ राज-यश जिसिउ चंद्रमडल, निसर स्फटिक कोमल' । जिसउ क्षीरसमुद्र जलु, जिसउ हिमाचलु । जिसउ विकसित केतकी टलु, जिसिउ प्रधान मोतीहारू । जिसउ शेषफणा संभार', जिसउ कामिनी कटाक्ष निकरु । जिसउ कास कुसुम प्रकर, जिसउ डिंडीरु । निसउ गोक्षीर, जिसउ गगा तरंग पूर" । तिसिउ महाराव यशः पूर।
३२ राजा शोभा उपमा सभा माहि राजा बइठा थको सोभइ छै ते केहवोअक्षर माहि निम श्रोकार, मत माहि ह्रींकार । गंधव माहि तुंबर, वृक्ष माहि सुरतर।
१ तराट २ अलवा ३ आकारि । पाठान्तर
१नीरार्णव २ जिस्यउ शरदभ्र जलु ३ जिसउ मल्लिका कुसुम प्रारमाझ ४ जिमउ हर हात्य प्रशारू ५ जिउ कात्य कुसुम निकरु ।
-१ जैसलमेर प्रति से
२ पुण्यक्जियजी अपूर्ण प्रति से (१) न्फटिकोपल
पुरव विनयजी अपूर्ण प्रति से
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(४६ )
सुगध माहि जिम कपूर, अोत्सव माहि जिम तूर । वस्त्र माहि जिम चीर,..." वाजित माहि जिम भंभा, स्त्री माहि जिम रभा। शास्त्र माहि जिम गीता, सती माहि जिम सीता। देव माहि जिम इद्र, ग्रहा माहि जिम चद्र । द्वीप माहि जिम नबूद्वीप, प्रदीप माहि जिम रत्न प्रदीप । तिम सर्व छत्रीस राजकुली माहि राजा बइठो सोभै छइ ।।
३० राजा राज-वाटिका गमन राजा राज वाटिका चालिउ, गजेन्द्र चडिउ । पाखती अगरक्षक तणी ओलि, मडलीक नइ परिवारि । पताका लहलहती, अजालबि झलकतई। मेवाडवरि, छत्र तणइ आडंबरि । सीकरि तणइ झमालि, सुखासण नइ दडवडाटि। घोड़ा तणइ थाटि, पायक तणी पहटि । रथ तणइ चीत्कारि, भट्ट वदी तणइ जयजयारवि ।। ६१ ॥ ( स० १)
३१ राज्य सुख जीह नइ राज्य इसिउ सुखकुणहु सूता मुह न अघाडइ, पडिउं को न अपाड़ई । आहा कोइ न बोलइ, .... आज्ञा कोइ न लोपइ, पराई भूमि कोइ न चापई। चोर चरड का नाम को न जाणइ, आपणइ मनि शका कुणह न आणई।
सोनूं उछालते हीडियइ ॥ ६० ॥ ( स० १)
पाठान्तर-- (१) प्रलव सूटाढट, स्थूल दत मुसल
विपुल कुभस्थल चडिउ, - (प्रथम पक्ति के पूर्व, विशेप ) (२) तणड (३) फुरकती (४) अलवी (५) अड़मड (६) थाकि । (७) भाट नगारी तणइ कश्वारि । (८) राजा राम वाटिका चालिड (विशेष)
-पुण्यविजयजा को अपूर्ण प्रति से
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( ५० )
३२ राजा को आशीर्वाद "अथ देसोत नै बासीस वचनिका"। काइम कबंध, विरद धजावध । मोजा समंद, आचार इंद। दुरजोधण माण, अर्जुन वाण । भुजबली भीम, सूरति सींह । षट भाषा जाण, तप तेज भाण । विप्र गोपाल, लीला भोपाल । वीराधिवीर, हेला हमीर । मधुकरि सुतन, कर्तव्य विक्रम । त्रासहि हजार फोजारा भाजणहार, छह खंड खुरासाणरा विध्वंसणहार । मसती' हाथियारा अामोडणहार, पतिसाह रा विन्नाणहार । राजनि के हार, अरी साल, केताइक साल । लख टीयण, जस लीटए । राजा के राजा, तप महाराजा । इति पासीस वचनम् ॥ ( स० ३) ।
३३ पटराज्ञी-वर्णन (१) जिस्यो मोर तणो कलाप, तिस्यो केश कलाप। जिसी शोभा अष्टमी चंद्रमा, तिसी भाल चंगिमा । लिसी जोत्र मालिका, तिसी कर्ण पालिका । जिसी खंजरीट नी देह यष्टि, तिसी आकारि दृष्टि । जिसी पुष्प नलिका, तिसी नासिका । जिसा दर्पण तणा वलक, तिसा कपोल फलक । जित्यो त्रिंबी फल, तित्यु अधरोष्ट दल । जिसी दाडिम कली, तिसो टंतावली । जित्यो सूकड़ि तणो घास, तिस्य मुखं तणोउ वास । तिस्यु मुख तणोउवास।
पाठान्तर---
(१)मात हाथिवारा मारणहार (0) विनाटण, परगाहण ।
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पंजस्यू पूर्णिमा चंद्र नो अवतार, तिस्यु मुख तणो आकार । निस्यू दक्षिणोवर्च शंख नू मंडल, तिस्यु कंठ कंदल । जिसी कोमल मृणाल कदली, तिसी बाहु युगली । जिस्या रक्त कमल, तिस्या चरण तल | जिसी अशोक तणा दल तरली, तिसी अंगुली सरली । 'जिसी पन राग मणि, तिसी नख तणी मुणी। जिस्या मुकुलित सरोज, तिस्यो उरोज । 'जिस्यु सिंह तणौ वाक, तिस्यु मध्य तणों लाक । जिसी नील वर्ण तणी युक्ति । तिसी सामल रोम पक्ति । लिस्युं गंभीर हुइ कूप, तिस्यू नाभि नु रूप । 'जिस्यू हाथियानुं कुभस्थल, तिस्यू जघनस्थल । जित्यो केलि तणो मध्य भाग, तिस्यु उरु तणौ सोभाग । जिसी वृत्तानुपूर्व शुंड हस्ति तणी, तिसी शोभा जघा तणी । जिस्या कूर्म तणा पृष्ट भाग, तिस्या उन्नत पाग । नित्यौ रक्त गेरु तणौ पराग, तिस्यौ तला तणौ राग । जिस्यौ कमल तणौ विकास, तिस्यौ लोचन तणौ प्रकाश । तथा विकसित वदन, शिखराकार रदन । सुललित कर्ण, चपक वर्ण। पीन स्तन, अकुटिल मन । मुष्टिमेय मध्य, चतुःषष्ठि कला लब्ध मध्य । कोमल कर, सुलक्षण घर चक्राकार जघन, मत्त गज गमन । सुघटित चरण । जेह तणी मुख चंद्रमा भामणुं कीजई, विकसित कमल नुं लंछणु कीजई । जेह तणी दृष्टि दृष्टिई..... ...... . .. . .. .... निर्जित हरिणी वनवासि गई, कमलिनी जल दुर्ग रही । खनरीट दृष्ट नष्ट चरई, वेडी समुद्र मांहि फरइ । जेनई स्तन सुवर्ण कलस प्रसादि चडाव्या, चक्रवाक वियोगित्रा भणाव्या । तुंबाहलूवाधियां । जेहना वर्ण आगलि सुवर्ण सामलउ । चापा फूल मामलउँ । हरिद्रामसि वर्ण । गोरोचन धूम वर्ण । तथा । जेहना वचन रस आगलि साकर मउली, द्राख लींबोली ।
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( ५२ )
मधु नीरस, दूध विरस। अमृत खान । अनेरुं । कित्यु उपमान विचारूं? तथा । कत माधुर्व भागलि किनरी मौन करइ गंधर्व गर्व परिहाइ । सिद्ध कन्या कानोडइ, नाग कन्या हरख लोडइ । रभा तुरासक्त । तिलोत्तमा त्रिटिशानुरक्त । अप्सरा निःप्रत्तर, लक्ष्मी अस्थिर । सरस्वति हीन जाति लोषिणी, नागकन्या अवस्था रोषिणी । विद्याधरी, यामिावनी। ऋपि क्न्या तपस्विनी, गंधर्वी गीत व्यसनिनि । रति प्रोति अनगनी । कलत्र करेणु उपमा न दोजह । निरूपम चरित्र । इसी सुपरीक्षित दक्ष । दाखि नालू, मिति मयालू , टेण हारि दयालू । सुललित, सुमलित । . न हत्व, न दीघ, न कृश, न त्यूल । न तोपाली । न रोपाली । न हठीलो, न गहिली। अनुकिंतु सुपरीछणी । सु वूझणी । विछूटणी सुमुखि, सउलखि । सुजाणि । सुपरीयाणी। सुपरठी, भर्त, चित्त वइठी। सइणी, गुहिणी । असिथिल, अकुटिल । धर्म परा, नियम परा। इसी सोलालंकारिणी, गुणानुरागिणी । कला संग्रह कारिणी। विवेकवती, सौदर्यवती । लावण्यवती, पुण्यवती, प्राकृति मति देवी वर्तन् । तिणीस्यू राजा श्रानंद मय वर्तई छ।। ( स० २ )
३४-राणी-वणेन (२) ते राजा नै अतःपुर माहि प्रधान, गुण निधान ।
भर्तार तणी भक्ति नै विर्षे महासावधान पाठान्तर
१. भक्तिनिवेपर।
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( ५३ )
कमल लोचना इस्यै नामै वत्तै ॥ (स० ३ ) तेराणि, सहिनैं मधुर वाणि ।
शीलवंत माहि वखाणी, गुणै करी सत्य जाणी । चण किस्युं इंद्राणी, जे गलि व पाणी । रहे घणै परिवारे, सखी अनेक प्रकारे । (स० ३ ) लीलावती, पद्मावती, चद्रावती ।
चपकली, फूलकली, रामकली, गोकली, स्यामकली । हसी, सारसी, बगली |
सुविधि प्रमुख इसि राजा नी स्त्री वर्णनं ॥ (स० ३ )
३५ - राणी-वर्णन (३)
सुवर्ण वर्ण, प्रलत्र कर्ण ।
सुकमाल हस्त, स्त्री गुणै लक्षण करी प्रशस्त । - कमल दल समान श्राखडी, माथै रतनमय राखडी । देवागना नी परै रूप रूड़ी, हाथै सुवर्ण मय चूडी । लखमी अवतार, हृदय कमल रूलै मोती नो नवसर हार । लंकाली कडि, कानै मोती जड़ित सुवर्णमय घडि ।
बोलै मृत वाण, अति सुजाण ।
पंडित लोकै वखागी, इसी मटनमजरी राणी || १४ || ( चि० ) ३६ - राणी - वर्णन (४)
रंभा निम रूप सपन्न, पार्वती जिम निःसीम सौभाग्य लावण्य । अरुंधती जिम निजपति पट चरण निरत, धर्मरत । -सीता निम शीलालकार
1
-चीज तणी चन्द्रकला जिम सर्व वन्दनीय, अति कमनीय । चक्रवाकी जिम निश्चय, अति प्रेम, करइ पुण्य ना नेम । चालापिकरी कोकिलारूप, गति करि राजहसी स्वरूपु । विनय गुणि करी वेतसमय, मनि शुद्धि करीय गगोटक मय । इति राणी वर्णन ||५८|| (मु० )
३७ - राज्ञी - वर्णन (५)
अद्भुत भाग्यवती, सौभाग्यवती । । पट्ट प्रतिष्ठावती, सत्वानुष्ठान वतो ।
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( ५४ )
निर्मल शीलवती, उज्वल गुण झलकती । लावण्य निधान, ग्रतःपुर प्रधान । निष्कलंक, कृत पाप पंक 1 सुकर्तव्य सज, सलज | विदित कार्य, पूजिताचार्य |
औचित्य चतुर ।
पाप कर्त्तव्य कातर, सकल लोक मातर ||६० || (स० १ )
३८ - राज्ञी - वर्णन (६)
सर्वं श्रुतेउरी माहि प्रधान, सर्व गुण निधान ।
लावण्य कूप, श्रुति स्वरूप | भर्तार नी भक्त, धर्म नइ विषइ रक्त । सुंदर गात्र, राजा नइ प्रेम पात्र | सर्वथा दूषित, शील गुणे भूपित । कमल नेत्र, पुण्य क्षेत्र |
सत्य गुणि कली, रूप गुण उर्वसी ।
सुवर्ण वर्गकात, दीर श्रावर देवागना सभ्राति ।
स्नेह कला रति, भारती सम मति ।
सौभाग्य हस तलाइ, कनक चूड़ि मंडित कलाई । सदा सन्ररी, कामदेव पूरी ।
त्रिभुवन तत्व माटी, अमृत बिंदु साटी ।
पुण्यती वाटी, तिरंग दाटी ।
रूपई रति निर्घाटी, न करई राटी ।
लावक, द्रावक, सावक ।
ऐरावण कुंभ विभ्रमाकार स्तन, त्रस्त हरणी लोचन -
मदन मुद्रावतार, प्रलंवित हार ।
क्षीण कटि, प्रति सुघट |
जेहनी मीठी वाणी, सगलै जाणी ।
रूपवंत माहि श्रधिकी वखाणी, घणूंन्युं इंद्राणी,
‘घीर' कहइ जे आगइ घडट ले आणइ पारणी ॥ . इति राज्ञो वर्णन || कु०
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( ५५ )
३६ कुमार वर्णन (१) असम साहलैक मल्ल, वैरि हृदय सल्लु । अग्र प्रहारि धाडी तिलकु, त्रैलोक्य कटकु । कृतान्त मूर्ति, सिह स्फूर्ति । इसउ दुटान्त कुमरु ||७६ll (मु०)
४० कुमार (२) अति प्रौढ, योवनाधिरूढ । स्त्री जन नइ विश्राम भूमि, निरखद्य विद्या लास्य रंगभूमि । सर्वांगीण शुभकारु, राज्य लक्ष्मो शृंगार हार । मकरध्वजावतार, एवं कुमार ॥५६॥ (मु० )
४१ राजकुमार (३) तयोश्च पुत्रो जनि । यौवनं प्राप्तः सन् । जिस्यउ चद्रमा नु वित्र कोरिउ हुइ । जिस्यउ अमृत कुण्ड न्हाई होई । जिस्य कमल तणउ कोश आवरिउ हुई। जिस्यउ कि मोहनवल्लि प्रसविउ हुइ। किं सौभाग्य मजरी हू तु समव्यु हुइ । कोदड तणउ फूल हरु । किं काति तणी कुल भीति । कि ए रूप-प्रतिछदक तणी मूलगी रीति । किं मयण तणु मूल । किं सर्व रामणीयक तणउ अवचूल । इस्यु नयनानंद टाईउ । नेत्रामृत आविउ । सुललित सुघटित । सुवासु सोहग निवास । अद्वितीय रूप, लावण्यामृत कूप । सर्वजन मोहक, मन नइ अद्रोहक । [सुकुमाल, सु विशाल । ] सुविचार, [जोश्रण हार । तणा मन विहसइ, दृष्टि जाइ अगि पइसिह । ] पाय थभीइ, वाणी निरुभीइं। [सयल रोमंचिइ । आत्मा अयूर्व रस सींचिद।] [जाणे बीजो कामावतार, जाणेत्रीजु अश्विनिकुमार । ] जेह तणइ नाम श्रवण लोक काकुली गीत निवार। दृष्टि प्रसारि काय कथा मूकद, कान उरडी इकइ ।
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( ५६ )
तृषित पाणी न पीइं । भूखा भोजन न लीइ । इस्यु सर्वजन वल्लभ, देव दुर्लभ । सलूणउ सदाखिउ |
मित्र वत्सल, स्वजन वत्सल । इस्यउ राजकुमार शोभइ ||छ || इति नगर राजादि वर्णन स्वरूपमिटं ॥ छ ॥ ( स० २ )
४२ राजकुमार ( ४ )
अति लखावत, गाढौ संत ।
सकल शास्त्र भण्डार, राजवश शृगार । रूपइ करि जयंत अवतार, विवेक सुविचार | पिता माता भक्त, लक्षण संयुक्त |
सकल विद्या निवास, करै बहुत्तरि कला अभ्यास । वत्रीम' लक्षण लक्षित शरीर, पहिरणि निर्मल चीर । जेह नी लोक नै गाढी हीर, सग्रामे वीर धीर । चपक वर्ण अग, अति सुचंग । नश्चल रणरंग, न करें मंत्री भंग ।
अति दातार, प्रताप अपार । मनोहार, याचकजन साधार । इस्यौ राजकुमार || १६ ( चि० )
४३ कुमार ( ५ )
प्रतिज्ञा सूरू, अवष्टंभ कैलासु । राजपुत्र पतल्लिका, बंदि कोलाहलु । लोकरक्षा प्राका, माहात्म्य सार । परनारी सहोदर, इसर कुमरु | पायक पहटु, ऊठवणि सुहडु | खांडा समुटु, त्राण सडवडु | तेल धूसर, भाला डंबर | रिण महाधर, अतिशय दुद्धर ।
इसउ कुमद ।
६. छत्रीय
( पु० अ० )
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( ५७ )
४४ राजपुत्र शिक्षा राज्याभिषेक पुत्र शिक्षा । । । वत्सं प्रजासुखि पालेवि, अन्याय वाट टालेवी । भलउ न्याय आदरवउ, जसवाउ उपार्जेवउ । चिर परिचितं वार ही परहीन करेवी, कुणाहि विश्वास न जाण विउ । अकुलीन पसाउ निसेधववउ, वेजाइ ससर्ग वर्जेवउ । महाजन समानेवउ, मडलीक प्रति उचित्य वर्त्तवउं । सीमाला सवेऊस सत्यराखेवा, लोक रूड़इ नीति मार्ग दाखिवा । चोर चरड निग्रहेवा, पायक प्रति यथा योग्य ग्रास देवा । किंबहुना राज्य भलउं करिख । (१५५ ) ( स० १)
४५ राज्य के अंग
करि, तुरग, रथ, पायक, चतुरगसेना, भाडागार, कोष्टागार, गढ । सप्ताग राज्य लक्ष्मी ॥ १२६ ( स० १)
४६ राजसभा (१)
गणनायक, दण्डनायक । सेगरणा, वेगरणा । देवगरणा, यमगरणा । सामंत, महासामंत । मडलीक, महामंडलोक, । चोहट्टीया, मुकुट बन्ध-संधिपाल सधि विग्रही, आमात्य, कानुगा, कोटवालं, सार्थवाह, महाजन, अंगरक्षक, पुरोहित, नृत्यनायक, विहीवायक । दण्डधर, खङ्गधर ।
वाणहीधर, छत्तधर, चामरधर, छत्तधर, दीवीघर ।
प्रतिहार, सेनपाल, तत्रपाल, अंगमर्दक, मोठाबोला, साचाबोला, कथाबोला, गुणबोला, समस्याबोला ।
साहित्य वधक, लक्षण बधक, अलकार बंधक, नाटक बधक । यंत्रवादी, मत्रवादी, तंत्रवादी, तर्कवादी एहवी सभाछ।
१. जाएवउ २ सता पाठान्तर
१ पारिविग्रही २ वहीनायक ३ पटवटियात, कपटायत ताकतमाली ( ढाकढमाली) इंद्रजाली धनवादी, धातुवादी
४ सहसबोला विशेषनाम, समागार से।
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४७ राजसभा (२) युवराज, मत्री, महामंत्री । गणनायक, दण्डनायक, तत्रपाल । माडविक, कौडत्रिक, श्रेष्ठि, सार्थवाह, पडित सभा, ज्योतिषक, प्रमुख राजसभा। (पु० अ०)
४८ राजसभा (३) राजराजेश्वर, मण्डलेश्वर । सामत मंत्रि, महामत्री। चौरासीकट नायकु, सेनापति प्रतिहारु, उपतारु । साहणिया, मसूरिया, दीवटिया, द्वारवटि, दौवारिका । सधिविग्रही, भाडारिक, महाजनिकु, श्रेष्ठि सार्थवाइ, सभ्यसभापति, एव राजलोकु ॥ १०६ ॥ (मु०)
४६ रोज सभा वर्णन (४) श्रीगरणा वयगरणा, धर्माधिकारणा। मंत्रि,महामंत्रि, मंडलेश्वर । सविधान, प्रधान, नायक, दण्डनायक संधिविग्रही, श्मसाहणी । सुविचारु, प्रतीहार आ (र) क्षक, जद्वारिका कथक, लेखक । गायण, वायण । वीणाकार, वसकार । ज्योतिष्को वैद्य, महावैछ । गजवैद्य, अश्ववैद्य । मात्रिक, तात्रिक । कुतगीया, काठीया । प्रखर, सत्पात्र, नट, विट । इसी राजसभा ॥६॥ (मु०)
५० राज सभा (१) अनेक गणनायक, दंडनायक, राजेश्वर, तलवर, माडविक, कौटविक । मंत्री, महामलि, गणक, दौवारिक । आमात्य, चेटक, पीठमर्दक, श्री गरणा, वयगरणा, श्रेष्ठि, सार्थवाह, दूत, संधिपाल, प्रतीहार, पुरोहित, थईयायत, सेनानी । अनेकि संधिविग्रही, त्रिधरणी, चउधरणी । पंचउली, खटतर्क विदुर, सात सेजवाल, आट ग्रह गण जोसी, नव पडिहार, दस प्रति सुवर्णकार, इग्यारा सामत बार महा मडलेश्वर, तेर पसाइता, चउद चडियाता, पनर पडतार, सोल महा मसाणी, सतर पाडणीया, अठार झूझार, अगुणीस माणिक्य विनापी, वीस रत्न पारिखो। परिवारि परिवारिउ राउ सभा बइठल ॥५८॥ ( स० १)।
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( ५६ )
५१ राज सभा-(६) सभा माहि रामण काचढालिउ', कुकमतणा बडा छाबडा दीधा । कस्तूरिका ना स्तनक पडिया, श्री खडुतणी गूंहली दीधी । काचइ कपूरि स्वस्तिक पूरिया, अविद्ध मोती तणा चउक पूरिया । परवाला तणा नंदावर्त रचिया, अतरातरा पुष्प प्रकर भरिया । कृष्णागरु उखेविउ, पचवर्ण पट्टकूल तणा उल्लोच ताडिया । मोतीतणी श्रेणि त्रिसरी चउसरी लबाबी । मोर पीछ तणे वीजंणे वाउ बीजियइ । ५६ । ( स० १)
५२ जवनिका राजस, मोर, सभा, आतपत्र-केतु, भवन, वृक्ष, अबर, नदी, पुष्करनी, जलनेधि, रत्न, सरोवर, वाडि प्रमुख लिखीते रूप । एवं विधि आश्चर्य विराजमान । ,
५३ मंत्री वर्णन (१) सरस्वती कठाभरण, राज्य श्री अलकरण । विचार चतुर्मुख, कृत सर्वजन सुख । लघुभोज, अत्यत ओज । कूर्चाल सरस्वती, साक्षाद्भारती । कलिकाल कल्पवृक्षावतार, समस्या सत्रागार । खाडेराय, करइ न्याय । षड दर्शन पारिजात, सर्व राजकुली विख्यात । समग्र ग्राम नगर चैत्य पूजा प्रवत्तक, अन्याय निवर्त्तक । सकल ज्ञाति अलकार, सुविचार, उदार, स्फार, शृङ्गार । सचिव चक्र चूडामणि, प्रताप दिनमणि । सरस्वती पुत्र, आचरण पवित्र । दातार चक्रवर्ति, अपहृत जन अत्ति । बुद्धिइ अभयकुमार, रूपि कदपावतार । चतुरिमा चाणक्य, मत्रिगण माणक्य । . सदैवोत्साह, ज्ञाति वराह । ज्ञाति गोपाल, दूबला मुसाल । शत्रुवश क्षय कारक, वैरिराज मान मर्दक । १. काब • मन्मार्ग प्रवर्तक ३ शान ४ सारक
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( ६० )
मजा जैन, अप्रतिहत सैन | जिनधर्मं धरा धुरधर । भोग पुरदर ।
सर्वज्ञ शासन प्रभावक, जिन ग्राजा प्रतिपालक ।
कुल क्रमागत, सदाचार रत ।
लीला ललित गर्भैश्वर । साक्षात् लक्ष्मी वर' |
जग ज्येष्ठ, प्रति श्रेष्ठ | चतुर्बुद्धि निधान, एवं
विध प्रधान | ( खू० )
५४ मंत्री ( २ )
चाणक्य जिम वुद्धि निधान, राज्य भार स्वीकार मूल स्तभायमान | चतुरशीति मुद्रा व्यापार परिपालन दक्ष, सकल लोक कृत रक्ष । अभयकुमार जिम राज्य पालनोपाय सावधानु,
वृहस्पति जिम निखिल नीति-शास्त्र नाणु । एवं विधु मत्री || ६० | ( मु० ) सरीर सकलापु, स्नेहाग श्रालापु । ग्राडंवर मूल, रिपु नन सिरि सूल । उपरोधि नमइ, सर्व जनी कउ वीनवर | समय कहावद्द, समय रहावइ । कूड नी सारह, आलू आरु वारइ ।
प्रयोजन पृच्छकु, चालतउ उच्छक्कु ॥ ६१
( मु० )
५५ मंत्रि वर्णन ( ३ )
चाणक्य जिम बुद्धि निधान, अभयकुमार निम राज्य राखिवा सावधान | वृहस्पति निम निखिल नीति शास्त्राधिगत परमार्थ,
चडरासी मुख मुद्रा मथन दक्ष | सकल लोक कृत रक्ष । राजार्थ प्रनार्थ स्वार्थ कारक | अन्याय निवारक । एवं विध महामात्य ॥ छ ॥ ( स० २ )
५६ महामात्य वर्णन ( ४ )
चतुर्बुद्धि निधानु, महा प्रधानु ।
कुल क्रमागत, सदारत | नीति शास्त्रिकरी, सगुण धीर ।
१. नरेश्वर स्वामिधर्म सावधान ( पाठ यहाँ अधिक हौं । )
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अलुब्ध, प्रबुद्ध । सर्व राज्य उद्वहन धुरंधरु, पुरवरु । लीला ललित गर्भेश्वरु, ज्ञाने करि साक्षात् लक्ष्मीवरु । जग ज्येष्ट, अति श्रेष्ट । सुविचारु, उदारु । एवं विध महामात्य ।। ३ ॥ (मु०)
५७ मंत्रीश्वर (५)
अच्छेद्य, अभेद्य, गुहीर, गभीर । प्राकृतिमतु, कलावन्तु । मर्मज्ञ, उचितज्ञ, सर्वार्थ करण समर्थ । उद्यम प्रधान, सर्वमहिमा निघान । बुद्धिमय रहर, नग झपणु । रानार्थ स्वार्थ, लोकार्थकारक, न्यायशास्त्र तारक । गभीर धीर स्यैर्य मदर, गुणग्राम सुदर । षड् दर्शन दत्ताधार, निरीह, निस्पृह, योगीन्द्रावतार । अमात्य ५६ (स० १)
५८ मंत्री विरुदानि (६) सुरताण सुभाषत, दीवाण दीपक । अश्वपति, नरपति, गजपति, रायस्थापनाचार्य । राज सभालकार, राजसूत्र सोधन सूत्राधार । रायसाधार, रायवंटी छोड । राय वालेसर, मर्यादा मनोहर । परनारि सहोदर, कलिकाल निकलंक । विचार चतुर्मुख, रूपरेखा मकरध्वज । वज़ाक भालस्थल, चतुः चिन्तामणिः । वाचा अविचल, बालघवल । शील गंगाजल, गोत्र वाराह । उभय कुल विशुद्ध, एकोत्तर शत कुलोद्योतकारक । उभय कुलपक्ष निर्मल, राजहसावतार । हर्पवदन, सत्यवाचा युधिष्ठिर । इत्यादि मंत्री विरुदानि । ( स० ४)
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( ६२ )
५६ प्रतिहार शरीरि सकलाप, स्नेहल पालाप । श्राडबर मूल, रिपुजन शिर शूल । अपरोधि मनइ, सर्वनाकुल वीनवइ । समय कहावइ, असमय रहावइ । कोप वीसारह, अलू पार वारइ । गुप्त आदेश प्रयोजन पृच्छक, चालतोच्छेक । एव विध प्रतिहार ॥ छ ।। ( स० २)
६० मंडलीक सग्राम सीहु, रिण सीहु, महेन्द्रसीहु । सग्राम विक्रम, नरविक्रम, रिण विक्रम । सग्राम मल्ल, रिणमल्ल, भवनमल्ल । पृथ्वीमल्ल, आसा मडलीकः । (पु० अ० )
६१ खड़ायत ठाकर भक्त, वाड सक्त । सयरि त्राणयनु, पडवइ प्राण इतु । हाथ वासइ । बाह खाडा तणी काल, आत्रणी अकल । आगलीउ साकार, भाट तणो जय-जय कार । फरड उडवइ, माथउं मीडवइ । पयसी बोलावइ, सामहउ चलावइ । धाइ गाजइ, खाध भाजइ। एव विध खडायत !! छ। (स० २)
६२ राज सेवक तसु राय तणइ आसन्न अोलगा पसायता पायक श्रान छह । कवहणइ चउट चयाल वृत्ति पलइ छइ । कवहणइ सोलसइ (बृत्ति ) पलइ छइ । कवहणइ वीर मुठियल (वृत्ति) पलइ छइ । कवहणइ वीर वलकु (वृत्ति) पलइ छह । कवहणइ सासणबद्ध गामु (वृत्ति) पलइ छ ।
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( ६३ )
कवहरणइ सुखासण ( वृत्ति ) पलइ छइ । कवहरणइ चउखंडी सीकरि । वृत्ति) पल छइ । कवहरणइ सुवर्णमय कलस पलइ छइ । कवणइ धन बिन्धु पलद्द छह ।
कवहरणइ पताका ०
कवहरणइ घंटा.
कवहरणइ चमर० "कवहरणइ श्रागच्छीता शृंगार०" | कवहरणइ भुंजाई रूप्यमय स्थालु प० कवहरणइ शालिउ कुरु ।
कवहरणइ रू
• ( पु०
33
,,
""
साहण समुद्र, वयरि घरछु । विपक्ष कंटक, चहुच्छ मल्लु । 'धाडी तिलकु, दगदेक वीर । इसा सुभट | ( पु० ० )
० ) ( पत्राक ५ वा श्रप्राप्त )
६३ सुभट
६४ गढ (१)
ग गउ, न विसमउ,
जसु तरणा पाइया पातालि पइठा, भीति गगनि गई,
महागज इसा कोठा,
गरुई पोलि, निवड कपाट, लोहमइ भोगल, ऊपर कसीसा तणी पक्ति, विद्याहरा तणी पद्धति, यंत्र तणी श्रेणि, ढीकुली तणी परपरा, गढ़ बाहरि वा कवला मणा तणउदुर्ग, खाई तगउ दुर्ग, जल तरणउ दुर्गा, थल तणउ दुर्ग,
नइ परचक्र तणउ प्रवेश नही, हाथिया ढोह नहीं, पाखरिया रहण नहीं, सूयण थानक नहीं, पायल वाह नहीं, नीसरणी ठाउ नहीं, भेद सभावना नहीं, निसर वज्र खटितु, विश्वकर्मा निर्मापित हुइ ।
किं बहुना | पराक्रम असाध्यु,
बुद्धि मंतर योग्य, देवहद्द असाध्य इसउ गढ़ । ( पु० ० )
६५ गढ (२)
किलास जिम उंचउ । प्रधान प्रतोली द्वार । सघर कपाट । लोह मय भोगल विजय हरी तणी बरज ।
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(६४ ) कोठा तणी पद्धति यत्र तणी श्रेणी । ढीकली तणी परंपग । खाई गढ़ । पाणी गढ़ । कटक तणउ गढ । बैरी तणो प्रवेश नहीं । हाथीया तणो ढो नहीं । पाखरीमा रहण नहीं । भेद संभावना नहीं । जिस्यु व मय घडिउ हुई। घणु कित्यु । ग्रेक का देवता रहि अगम्य । गढ प्राकार ॥ छ । ( स० २)
६६ गढ़ (३) गढ़ गरूअउ अनइ विसमउ। जीह तणउ पायउ पातालि पइठउ, पर्वत नई शृगि बइठ । उच्चस्तर पोलि, लोहमयकपाट, महाकाय भोगल । विजहारी तणी पद्धति, यत्र तणी श्रेणी। कुली तणी परम्परा, जल निभृत खाई तणउ दुर्ग। पर प्रवेश नहीं, हाथिया ढोउ नहीं, पाखरिया रहण नहीं । नीसरणी ठाउ नहीं, भेद सम्भावन नहीं। जिसिउ बज़ घटित विश्वाकर्मा निर्मापित । किं बहुना देवइ हुई अगम्य ॥५५ (सह १)
६७ आस्थान-मंडप (१) आस्थान मंडप, क्षोभ ऊपनउ, कवणु सुभट सग्राम रसिक हूतउ, भुंइ अाहणिउ, ऊठइ छइ, केऊ धसह छइ, केउ प्रलयकालु समान उंकार मेल्हइ छइ, अटहास्यु नीपजावइ छइ, केऊ वक्षस्थला परामारश छइ, केऊ खवा फुरकावइ छइ, के भुजाडडनिरहालइ छई, केऊ भ्रंकुटि ताडइ छइ, केऊ नेत्र अारक्त करइछइ, केऊ खडगि दृष्टि निवेसइ छइ, केऊ कटारइ हाथु घालइ छह, इणिपरि अास्थानु क्षुभियउ । ( पु० अ०)
६८ आस्थान सभा (२) पुरोहित । सेनापति । तंत्रपाल । दड नायक
श्री गरणा । वइगरणा | मध्यगरणा। देवगरणा । पाखंडली । धर्माधिकरणी ।
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कानडा। महीअड़ा। सोरठा । मरहठा। राठउड़ । बारहट । भाड़िा । भयाड़िा । जालंघर | काश्मीर | मालवित्रा । प्रमुख सुभट । कोटि । संकट । अव विध लोक अलंकृत अस्थान सभा । (स० २)
६६ गज वर्णन (१) सिंघलद्वीप तणा, अंगमइ गुण घणा । भद्रजातीक प्रचंड, उल्ललित सुंडा-डंड । पर्वत समान , जलधरवान, चपल कान । मदबलभूरता श्रालिकरता, अतुल बल उच्छ खल गलगर्जित करता। सप्ताग प्रतिष्ठित, प्रमत्त, मदोन्मत्त । प्रचंड उदंडी विंध्याचल, समान, कजलवान। कोपारण, जाणे साक्षात ऐरावण, अविचल दतूसल । छूटा हूंता पर्वत प्राय गढ़ पाडइ, कुणातिह स्युं पइसइ आखाडइ । कुभस्थलि सिंदुर नउ पूर, अनइ अपरि कपूर । सुवर्णमय साकलि करी अलकरया, गजवरत्रा पाखा , च्यारि शय चौयालिस लक्षण अनुसऱ्या । रूप्यमय घंटानाद, जेहना जगत्र सगलइ जयवाद । पगिघोर, करइ सोर, श्रम करता दीसह जाणे लक्ष्मीना क्रीडा-मोर ।
जि वारइ कुंडलाकारि रमइ, ति वारइ इस्यु जाणीयइ जाणे पृथ्वी पद्मिनी ऊपरि भमरड़ा भमइ ।
इस्या काइ हलूयह फिरइ, परीक्षकना हृदय माहि सचरइ । सारसी करता, जय श्री वरता । इस्या अनेक प्रवेक, उत्तुंग मतंग। सू
७० गज वर्णन (२) सप्ताग प्रतिष्ठित, सुंडा डड परिकलित । सुगंध मदजल वासित, गजेन्द्र गु... । ....." विंध्याचल समान, कज्जल वान । चपला कान, लावण्य विधान । प्रमत्त, मदोन्मत्त । तेजकरी प्रचंड, साख्यात मार्तड। - कोपारुण, नाणे ऐरावण ।
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परमित मध्यदेश, स्थूलतम पश्चिम प्रदेश । स्निग्ध रोम रानी विराजमान, अति प्रधान । चंद्रावर्त भद्रावर्त्त, प्रशस्ते समस्तावत परिकलित शरीर, सग्राम शौडीर । झाप, टाप । राग, वाग । अर्द्ध फल गति विशेषि । प्रवीण, धुरीण' । चतुः शत लक्षण समवाय, पर्वतोत्तुग काय । समुद्र कल्लोल निम चचल, सर्वत्र प्राजल । वेगि करी पवनोपमान, उच्चैश्रवा समान । असमान रूप विलास, सलील चरण विन्यास | शालहोत्रादि शास्त्र प्रणीत, जाणइ असवार चीत । मान संस्थान सपन्न, प्रशस्य देशोत्पन्न । राज्याभ्युदय करण, सदा जय लक्ष्मीशरण । रेवत देवताधिष्ठित, पंचधारादिकाश्व । गति समाश्रित, सुवर्ण सकला विभूषित ।
किस्या एक तें"- हयाणा भयाणा, कूदणा, कास्मीय, हयठाणा, पहठाणा, उत्तरपया, पाणीपथा, ताना, तेजी, तोरका, काछेला, काबोजा, भाडेजा।
क्षेत्रशुद्ध, प्रमाण शुद्ध, चंपल, ऊँचासणा। जोइउ सहइ, वपूकाया रहइ, वाको द्रेठी, सभर पूठि। छोटे काने, सूचे वाने । मुहि रूघा, आसणि सूधा । हसमसत, हय हेषारवि अंबर वधिर करता । सूरवीर साहसी, आम्हा साम्हा मिलइ पसि ।
कालूया, किराडिया, किहाडा, नीलडा, कविला, धूसरा, माकडा, हांसला, जांबूया, दोरीया, बोरीया, शालिहोत्र शास्त्र लक्षण प्रणीत ।
१ विराजित जीए । २. प्रधान चरण। ३ देवाधिष्ठित रेवत, पंचम धारावत। ४ नृत्य कलानी विपइ उचित, ५ हिव, तेहना, देश, कहियइ सुविशेष । ६. क कणा ७ कनोजा कुहका, कावेला, मुकराणी, खुरसाणी, सतेजा, खरिंगा, तिलगा एहवा तुरगा।
ते केहवा, घवखाणियइ जेहवादील घणा । दृष्टचोर, करइसोर । पीलडा, रातड़ा। कबोजडा, मागउड़ा, मेघ वरणिया, हिरणिया, अगंजिया । हासला, वासला, चलइ उछाछला । अवुधा--(कु० ) में विशेष । + प्रति (मु० ) का पाठांतर—देशसम्पन्न, कालाभ्युदय कारण, प्रतिमारण । सदाजयवाद, लक्ष्मी संपन्ना, क्षेप विक्षिप्त ।
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(६६)
ससइ, घसइ, साटि पइसइ । जुडइ, दुडइं। . इस्या अनेक हृदयंगम, तुरंगम । सू० .
७७ अश्व-वर्णन (२) परिमित मध्य प्रदेश, विशोष्टोभय प्रदेश । निष्ठुर खुरो श्वात भूमंडल, निर्मासल मुख मंडल। . स्तोकतर कर्ण युगल, विशाल वक्षस्थल । हेषारव वधिरित भवनोदर, मनोहर दर्पोद्धर । ' सग्राम सोंडीर, समुद्र कल्लोल चंचल । ४६ ( स० १)
- ७८ अश्व-वर्णन (३) काछी, कंबोजा, कलुजा, कश्मीरा, कसेला, काबरा, फमेत, काला, पंचाला, अणियाला, हंसाला, हरियाला, हयाणा, भयाणा, पतंगा, उत्तंगा, उनगा, जलगा, पाणीपंथा, उत्तरपंथा, ऊर्धपंया, अधोपथा, पहठणा, तेजाला। लोहधार न मुडइ, ऊँचै आसण भडइ । ___ धूसरा, भूसरा, माकडा, वाकडा, राकडा, खुरसाणी, तुरकी, नीलड़ा, पीला, घोलडा, जलबाघी, भरेजा, खेचरा, खेतरा खरा (त), नासै परा, भाखड़ता अनिहंता, रिघाला, जुवाधिया ।
- (स० ३) ___७६ अश्व-वर्णन (8) तेजी उरंडा । गह्वर तोरा । खुरासाणा । भयाणा । हयाणा । रोहवाल । रु डमाल । तोरकामंद कोरा | पीलुा । भादिजा । दक्षिण पंथा। पाणी पथा। माकड । नीलड़ा । कीहाडा। गंगाजल । सिंधूत्रा। पारकरा । पारसीका भद्रेश्वरा। कावूना । इसी घोडा जाति । पु०
.८० अश्व-वर्णन (५). . अथ अश्व लक्ष्णानि . . , नरागुलानि द्वात्रिंशात् । मुख, भाल त्रयोदश।
अष्टागुल शिरः कौँ । घडगुलमिती मतौ ॥१॥ चतुर्विशत्यंगुलानि । हयस्य हृदय तथा। अशीतिश्च समुछ्यै। परिधिस्त्रिगुणो भवेत् ॥ २॥ एतत्प्रमाणसंयुक्ता । ये , भवति -तुरंगमाः। राज्यवृद्धिंमहीपस्य । कुर्वत्यन्य स्व “वाछित ॥ ३ ॥ अंकः प्रमाणे भाले च द्वौ द्वौ रध्रापरध्रयोः । द्वौ द्वौ वक्षसि शीर्षे च ध्रुवावर्ता हये दश ॥ ४ ॥
(स०२)
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(
७० )
८१ अश्व-वर्णन (६)
क्याहडा, खूगड़ा, नीलड़ा, हरियाड़ा । सेराहा, इलाहा ऊराहा, बराहा । सिरि खंडिया, वोरिया ।
इसा नेक जाति तरणा तुरगम अश्व ||
रूपि हीरउ, कंठि हीरऊ । माणिकउ, फटिकड़ड |
रेवंतु जयवंतु । विसालु, सुकमालु, सावष्टभु, गरुयारंभु । गगाजलु, संसारफ्लु । इसा नामाकित घोड़ा ॥ ( पु० श्र० ) ८२ अश्व-वर्णन (७)
केहाड़ा, नीलड़ा, हरियाडा, । सेसहा, हराहा, वराहा । कोहाणा, भायारणा । ताई, तुरगी ।
ऊवसिया, पीवसिया ।
फाटकिया, भोटकिया । खोलाविया, मल्हाविया,
लडाविया, पुलाविया । सरला, तरला । छोटकर्णा, एकवर्णा । ५२ ( स १) ८३ श्रश्वी वर्णन
जइ हुई घरि व्याउर' घोड़ी, तंउ घरस्युं दाद्रिय काढीइ झाड़ी पखोड़ी' । पुण प्रिय जोइ लीन, दरिद्रहई जलाजलि दीसह । वरस मह दीसि विवाह, घरि घणी ऋद्धि थाइ । लाखीराउं जिus, घणी हईं डाकुर मानइ गिराइ | निहनइ घरि घोडां सुनाति, देसि विदेसि^ तिहनी विख्याति ।
किसोरो साखीइ पृथ्वी प्रमाणइ, वात सहु को बोलइ ऊखाणइ । द्रव्य कइ घोडी नइ कोटि, कइ वउणि नई खोटि ।
घोडी साखियइ एह कारण, निम घणियाणी पिहरइ सोनाना मुण' । एह स्यु' कूलं, घर दोन घोड़े जि रूहूं ।
नइ तूसह रेवतु, तर वेगड श्राणि दारिद्र् नू । ( मु० ) ८४ ऊंठ-वर्णेन
गोली वीतली रट, लांबी नली रउ ।
जाडै गोडह रड, ससा सेरीयह बगलां रउ |
•
+ क
१. प्यार २ ६ व ७ को राजवीनी प्रोटि = प्रकीति निवारण |
री ३ टीजर ४ णीनः ठाकुर इंडा नाहि गिगइ ५. परदेस
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________________
T
11
( ७१ )
सिघोड़ा जेहे ईडर रउ, बाजवट प्रांश्रा रउ । लाखेरी, रंग रउ, कुंमराले थंमे रउ । लटीयाले पूंछ रउ |
"
वलिवीं फींच रउ, लावे गडदाणइ रउ । कोरीयइ कान रउ, सोपीयइ दात रउ । रतनाले श्राखि रउ, दमामा जेहइ कोपट रउ |
1
*.**.
गाले बिहु गूंजत लाबाण इरे ( दूरे ),
भामण ज्यु नेसे चसडका करतउ,
घसला देतउ, ऊंठ तर इसउ |
अंबर सुंबरा चडण रउ । ( कु )
१ चक्र ५. कृपाणी
६
शक्ति
१३ भल्ल
-१७ गदा
२१ यष्टि
...
२५ मुशल
२६ तरवारि
·
चारु चीत्कार कलित, विशाल सालभजिका शालित । धवल पताकाचल मालित, विचित्र चित्र परम्परा विराजित । पर पथिनी निर्दलन | ७३ ( स० १ )
८६ शस्त्र वर्णन (१)
२ धनु
६ तोमर
....
८५, रथ-वर्णन
१० पासु
१४ भिडमाल
१८ शखी
f
८
२२ सपन
२६ कुलिस
३० कुद्दाल
३४ सिका
३३ बाहिरिए इति दडायुधानि । १२५ । (स० १ )
-
1
३ वज्र
७
कुत
११ मुग्दर
१५ गुरुज
१६ परशु
२३ पठसु
"१७ कातरि
३१ यत्र
३५ कुहाडी
14
1
24
४ खड्ज
८ त्रिशूल
१२ मषिका
१६ लूंठि
२० पट्टसु
२४ हल
२८ करपत्र
३२ गोफण
३६ लिपुख
१
}
८७ शस्त्र वर्णन (२)
सिल्ल, भल्ल, वावल्ल, कुत, करवाल, तीरी, तोमर, नाराच, श्रर्द्धनाराच, चक्र, शंख, शक्ति, क्षुरप्र, दुस्फोट, कोदड, हल, मुशला, गदा, तरवारि, कातरि, शस्त्रिका, खड्ग, मुग्दर, तद्वल, भिंडमारि । ११५ ।
(स० १ )
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( ७२ )
८८ शस्त्र-वर्णन (३) तरवारि । त्रिशूल । नाराच । कौशल । कृपाण ।' चक्र। कुंत । सक्ष । गडीव । सहापट्टि । मुसहि । गदा । मुशल । लकुटी । मुग्दर । छुरिका । शस्त्री । कस । अर्द्धचंद्र । कर पत्र । वाण । यष्टि । असि पत्र । तुरुप मुखी । अर्द्ध मुखी। भिंडमाल । तोमर | भल्लि | लागल | पाश | परश। तुर । विस्फोट । वज्र । शक्ति । मूल । भन्लल । सबला । इत्यादि शस्त्राणि । (स०२)
८९ शस्त्र-वर्णन (४) हथनाल, हवाई, हल, मुंशल, चक्र, नाल, गदा, गुरज, गेडि, गोलो, गोफण, गुपती, फरसी, तरवार, तीर, तरकस, कटारी, कसी, कुद्दाल, कवाण, कोकवाण, काती, भाला, बरछी, बगतर, पाखर, अकुश, अणी, छुरी, सांकल, दारू । इत्यायुध ।'
१० शस्त्र-वर्णन (५) तीरी, तोमर, नाराच, अर्द्धनाराच, भल्ल, सिल्ल, आवल्ल, कुत, खड्ग, छुरिका' तरवारि, यमटष्ट्रा, पटह, फुरसी कर्तरी, धनुष, शींगिणि, चक्र, शक्ति, गदा, मुद्गर, गर्न, त्रिशूल, फलक, प्रोडण प्रमुखा । ( स० १)
११ शस्त्र-वर्णन (६) छुरसार लोहतणी घणी, पौगर मेल्हती, बीजनी परि झलकती, तीन्ही घाराली, बढाली, अणियाली पइसाई, नीसारुई । ७४ (स० १)
१२ छुरीकार हाकइ, ताकइ । दडइ, दावरइ । ऊधसइ, विहसह । हणइ, धुणइ । पुलह, मेल्हइ। उविलइ, रहइ । हसइ, घुरका । चड़इ, पडइ, अडवडइ । हुलइ, ढुलइ । छुरीकार । (स०२)
९३ धनुर्धर सामितणु वयक, नव यौवन शरीरु । सीगणि तत्र अभ्यासु, आगुलि तणउ प्रासु ।' सौर्य वृत्ति तणी गांठि, उधसि झाटि । जोइ त्रिविविध गणु, लाखइ बाणु ।
हाय वावरइ, भवरलं वीसरइ । -१ फासी । वन, त्रिशूल, मुदगर, उड, वगदो, ढाल, चक्रवाण, कुट-इति विशेष (स० ३)
१ तुरिक २ उहण।
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(७३ ) समरु सांघइ वेझउं वीघह। कोसीसा उतारइ, निटोल मारइ ।
४ योध-पायक जेह तणुं जाणइतुं कुल, स्वामि तणुं बल । ' आगलि आचार चालइ, थोडूं बोलइ। ." छह दर्शन नमइ, ठाकरहिं गमई। सग्रामि युद्धर, परनारि सहोदर । पागे काम करइ, स्वामि काज मरइ । रणि वहरी नई हाकइ, हथीबार ताकइ ।' बोलावी दिइ घातइ, जाणइ युद्ध तणु उपाय ।
६५ युद्ध-वर्णन (१) बिहुँ पखा दल मिल्या । . . सर्वत्र धूलि-पटल अछल्या। . . कोई आप-पर बूझा नहीं। न जाणीह आपुदल सर्वे एकंकार प्रतिभासइ । केतलउ गज सारसी करतउ जाणियह । तुरंगम हेषारवि जाणियइ । रथ चीत्कारि जाणियइ, विधि पताका जाणियइ, किंकिणी नारि जाणियइ, सुभट मनोरथ मालियइ, - होन हृदय ना शस्त्र ऊदालिया । तुरंगमे खुरे करी पृथ्वी दलीइ । काहली बडबडद। प्रहारि जर्नरित खडहडई। कवध धरा पडई। राजपुत्र घोड़ चडइ। सूरवीर गहगहइ, कातर डहडहइ । विध लहलहइ,
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( ७४ )
सेनानी महमहइ । घड़ झूमर, इतर मूझइ । एकि खड्ग काढइ, एकि गन तणी वस्त्र वाढई। अनेकि शस्त्र झलहलइं, हाथियानी गुढि ढलइ। कायर खलभलई, घोड़े पाखर गणगई। . विहित सर्व जन डमरि, इसइ समरि ॥ ७१ ॥ (मु०)
१६ युद्ध-वर्णन बिहुँ पखा वृहत पुरुष साचरिया
क्षेत्र सूडावियउ बिहु पखा सन्नद्ध बद्ध नीपना सुभटे पाखर लीधी मयगल गुडा सुण्डि-दण्डि मुहवड़ घाता पंच वल्लहा किशोर पाखरा । जाति तुरग पलाणा। रथ पाखरा । वीर पुरुष महा सुभट प्रगुण नीपना ।
केई आगि लोहमय अागी करिड मस्तकि सिरि कुनिसि ओ हुआ संग्रामोद्यत ।
केइ परिकर सपूर्ण लौह चूर्ण हुया सोत्साह । केई आबद्ध तोणीर वीर हुया युद्ध प्रगुण । सेवागत राजान चक्र हुयउ सावष्टंभु चक्रव्यूह गरुड़ व्यूह तपी रचना नीपनी। श्रागवाणि सींगडीया तणी श्रेणी। पश्चात् मागि फारक मंडल तणी पद्धति । तदनंतर इस्ती घटासीत्कार करती। पाखरा तणी श्रेणी हेपारव मेल्दती।
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बिहुँ पखा पंच शब्द तणा निर्घोष उछलेवा लागा। - रणतूर्य वाजेवा लागा। नौसाणे घाय वलेवा लागा। बिहुँ पखे भाट पढेवा लागा । बिहुँ पखे सुभट तणा सिंहनाद प्रवर्त्तवा लागा । सिल्ल भल्ल वावल्ल नाराच प्रमुख प्रहरण पडेवा लोगा। बिहु पंखे हाकि २, हणिउ २, मारि २, नाठउरे २, भागउ रे २, त्राटउरे २ इणि परि सुभट शब्द नीपजेवां लागा। गयण आच्छ-दियं । श्रादित्य किरण निरुद्धा। तेतलइ समइ टेवा लागा कपाल । भाजेवा लागा धनुद्दण्ड । जाएवा लागा शिरःखएड । पदेवा लागी खांडा तणी झड । वाजेवा लागी सुमट तणी काटकड । नाचेवा लागा भड़ कबंध । फोटिवा लागा धज विंध ।
टेवा लागा खड्गफल नासेवा लागा कायर दल । इसह सग्रामि सुभट गाजह । कायर थरथर धूजइ। वीरे बाधी कसणि। कायर झूरहि खणि खणि। कुभ सेल लीजइ। कायर खीजइ । वीर तणा भाला झलकह । कायर तणा मन टलकइ । पचब्दि पड़ घाय। कायर भणइ पाय पाय ध्रसके जाइ। निसारण, कातर तणा पडइ प्राण । दल आघा खिसइ। कायर खूणे खुसइ । दल हियरद पड़ा।
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( ७६ )
कायर तक्खणि पड़इ। दल आफलइ, कायर खलभलइ । मड़ मूझइ, कायर मूझद। भड मल्हइ प्रहार।। कायर जोय बार। वीरह मुडी पड़ा। कायर पीडी चड़ा। तिणि सग्रामि हृदय दृढ करी सन्नाहु करिउ । एक मनु धरिउ । खाभनी खणीउ। पय घरट्ट बाधित चाण साघिउ। रिणि राना चढिउ। जिहा धूलि पटल सर्वत्रइ ऊछलिया।कोइ आपु पर विभागु न बूझह । पिता पुत्र न सूझा। न जाणियह आत्मदलु। न जाणियइ हायिया तणह गुलगुला-रवि । तुरंगम तणइ हिणहिणकारि । रथ तणइ चीत्कारि भाट नगारी तणइ कयवारि । इसइ समरि भरि वर्तमानि हृतह सुहड सूडइ, सगुण हाथि लूडइ । रथावली उथिलावइ, मउडबद्धा माकड्ड जिंव खिलावइ । पाखरिया थाट हणाइ। दल समदाय भाजइ, दलवह गांजा सत्रु कंधावार तणा कंट। समग्र तृण समान करिउ गणइ । . . इसउ संग्राम । बहल कुंकुम तराइट छडउ दीन्हइ कत्रिका तणा त्तत्रक पडिया चावना श्रीखंडहणी गृहली दोन्ही
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( ७७ ) काचइ कर्पूरि स्वस्तिक भरिया . अवीधा मोती तणा चउक पूरिया । प्रवालाधोखंडे नंदावर्त्त रचिया । अंतरा २ पुप्फ तणउ प्रकरु भरियउ कृष्णागर अखवियउ। . . पंचर्ण पाटू पटुला तणा अलोच बाधा मुक्ताफल संबन्धिनी त्रिसरी मोतीसरी लबावी राना स्वयमेव अास्थानु दे बइठइ मोरवीछ तणे वाउ वीजणे वाउ खेपियइ छ। अपरि सजल जलद पटलाय मान मेघ डंबरु धरित्रो मस्तकि त्रिशेखरु मुकुटु रचियउ दीति विनिर्जित मार्तण्ड मंडल कर्णि कुडल निवेस क्क्षस्थलि स्थूल मुक्ताफल प्रथित सर्व सारु नवसरउ हारु लबावियउ । सहस दलु हस्ति कमलु, निरुव करु पाय टोडर पुरुष प्रमाणु सिंहासनु कटी प्रमाणु पादपीछु, पश्चिम दिग्ग विभागि थईयायतु वाम प्रदेशिमंत्रि, जीवणह पुरोहितु । बिहु पक्खइ अंगरक्ख तणो श्रोलि । सर्वत्रह काबडिया फिरिया। तेतइ समइ सुपहुत्तउ ।। जोड काहली तडपडइ सार उठिया हाथि गडया सीगी तणा शब्द कल्त्रोल ऊछलइ नीसाण घाइ वलइ तुरंगम तणा हिणहिणाकार सुभट तणा बापूकार घंटा हरपा टंकार कवीहणा झकार हूया - वीर सिरि पट्ट बाधा फरोहणा मडप ठाडा खाडा तणा समुद्र विस्थारा कडोरण कोठार भरिया सुभट तणी पाटी भरी श्रारेणि तणी सूत्रण धरी प्रलय तूर्य वाजेवा लागा
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( ७८ )
चीर मोदला रुण ऊणेवा लागा असी परि संग्राम प्रगुणु हूया ।
(पु० श्र)
६७ युद्ध वर्णन (३) सोमाडा सवे वसि कीधा, सवे गढ लीधा । गढवई सवे निर्धाटिया, दुर्ग सवे आपणा कीघा । समुद्र लगइ आपणी आण फेरी। एकछत्र निष्कटक राज्य प्रतिपालता सग्राम विषय कदाचित् उपजइ । बिहु पखा वृहत्पुरुष साचरिया । क्षेत्र सुडाविउ, बिहुगमा सन्नद्ध बद्ध नीपना । सुभटे जरहि जीण साल लोधी । मयगल गुडिया, सुडादडि मुहवडि घातिया । पच वल्लह किसोर पाखरिया, जाति तुरगम पलाणिया । . वीर पुरुष महा सुभट प्रगुण नीपना । चक्रव्यूह गुरुडव्यूह तणी रचना नीपनी । अगेवाणि सीगडिया तणी श्रेणी । पछेवाणी फारक तणी पद्धति । ततो हस्ति घटा सोतकार करती। पाखरीया नो श्रेणि हेषारव मेल्दती । .. . पच शब्द तणा निर्घोष जमला उछलइ । रणतूर वाजई, नीसाण घाय गाजई । बिहु गमे भाद पढई। बिहु गमे सुभट तणा सिंह नाट हुवा लागा। सिल्ल भल्ल तीरी तोमर नाराच प्रहरण पडवा लागा । बिहु पखाहा कि २ हिणि हिणि मारि २ नाठउ २ भागउ २ इण परि सुभट शब्द नीपजावइ । गयण आछादिउ, सूर्य किरण रूंध्या । तेतलइ समह फूटेवा लागा कपाल मडल । जिवा लागा धनुमंडल, जाएवा लागा शिरः खंड। - पडवा लागी खांडा तणी झड, वाजेवा लागी सुभड़तणी काटकडि । नाचेवा लागा धड़-कबंध, पडिवा लागा ध्वज चिंध: ...
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प्रहार जर्जर कु नर पड़ा ।
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सुनासणा तुरगम तडफड़इ, भाले भरडीता गजेद्र श्रारडई | रीरीया करता राउत हथियार हलई, घाह घूमिया सुभट ढलई । पडिया पाइक न उसासीयई, हिवा हाथीया आश्वासीयहं । मउड़उ धाम उड़वडइ, रेवत. रडवडइं ।
पडिमा पचायण नी परि हाकइं, रोस लगी मुँछ मूंछफरकावई । रथ चक्र चापीति करोड कडकड़इ, वेताल हडहडइ । भाग्यवंत जय लक्ष्मी वरइ, आपण कान करइ | १२२ (स० १) ६८ युद्ध-वर्णन (४)
चीर मादल वाज्या, सूर साज्या ।
जय ढक्क वाजी, नीसत नीकली गया लाजी । कहायह, नेजा लहलहायइ ।
त्रिभुवन लवलवा लागा, माहोमाहि वंइर जाग्या । सूर्य्यं श्राछदिउ, रजो गण उन्मादिउ । सेष सलसलिउ, दिग्गज हलवलिउ । श्रदि वराह घुरहरिउ, उच्चैथवा घरहरिउ | - परदल मिलइ, चींघ चलवलइ । -नीसाण वानइ, नाणे श्राकासि मेघ गाजइ । रथ थडहडइ, रण काहल त्रडनडइ | गर्जेन्द्र गडगडइ, घोडे पाखर पडइ । छत्रीस दंडायुध भलहलह, कायर खलभलइ । पृथिवी चलचल, समुद्र झलझलइ । शेष सलसलाइ, सूर सामला हलफलइ । कापुरुष टलवल, हाथीया गुलगुलह । कार ना मनोरथ फलइ ।
अति रागी रा मन छूडायइ, रूडा रणक्षेत्र सूडाइ | चित्त
ढोल ढमकई,
चमकइ ।'
प्रतिहि फार, फुंकार, हुंकार ।
सुह इसइ, अंगि ऊधसइ ।
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वीर किलकिलह, सूरना टोल मिलइ ।
बिहुँ दल विचालि प्रधान फिर, थापिउ भूझ सिरह ।
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( ८० ) वाणावली विकृटइ, पर्वतना शिखर त्रूटइ । घोडां ने खुरे उडी खेह, जाणे श्राकासइ आव्या मेह । धूलि गगनांगिणि लागी, मार्ग प्रचारनी वात भागी। अधकारि विश्व व्यापिउ, इसु रणक्षेत्र याप्यु। घारा मडप गाज्यउ, जगत्रय अमूभयउ । सेष सलक्यउ, वाराह चमक्यड । माहो माही हंस्या, इस्या सुभट धस्या । भाट बपूकारइ, पूर्वज संभारइ। हाथीयइ हाथिउ, घोडेइ घोडउ । रथइ रथ, पायकिई पायक । हुयवा लागू झूझ, स्युं वर्णवि वस्यह अबूझ । वात करता रोमाचीयइ अग, ते सुभट भला जे मरइ रणरग। उड्यालोह, मेल्या घर ना मोह । आपणा स्वामी श्रागलि ऊभा, नयी किसी वात नी छोभ । अख्या भाटके, कायर ऊडी गया गोफणि ने त्राटके । रथना धडधडाट, वाणना सडसडाट। . रणतूर ना गडगडाट, कहुक बागना पडपडाट । तुबक ना भडभडाट, गोली ना कडकडाट । चंद्रवाण ना तडतडाट। सर धोरणि साधी, माहोमाही चाल बाघी। अणीसर फूटइ सेल, देव जोवह खेल । सन्नाह त्रूटइ, खंग ना अंगार विछूटइ। घड पडइ, मस्तक रडवडह। कबंध नाचइ, नीर याचइ । अति उ गाढ, फूटइ जम दाढ ।। तेहने अगि उपरापरइ झाटके तरवारि त्रूटइ, ते मरद अखूटइ। पड्या ऊठइ, धायइ एक एक नह पूठह। ग्ध ऊपरि सांचरइ, अपछरा वरइ, देवता जय जयारव उच्चरह । सूर वाहई भाला, न छूट चड्या नइ पाला । वहद फोला, लोक ल्यइ अोला । गूहा आवइ वांण, कायरां रा पडद प्राण । बाधी चाल, निपटि घोडी विचाल ।
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( १ ) भाला री भचाभचि, बकतर भेदी लागइ विचाविचि । घोडे घाली पाखर, आडो पाया जाणे भाखर । कहता तो घणाही कहइ, ते विरला सूर जे इसइ रिण ऊभा रहइ । एहवा सब्द सहइ, ते कवि कहइ । देठ लागा, माहो माह बहर जागा । जे हुंता सेनानी, ते धुर थी हुया कानी । जे हुता कोटवाल, ते पिण नाठा तत्काल । जे हुता एक एकडा, तीयारइ नाम नामइ दीया छेकडा । जे हुता फोजदार, तीयारइ सिर पडी मार । जे हुता फउज विडार, ते हुआ कहार । जे हउसे बाधता कटारी, तीयानइ ते पडी मारी। जे हुता खवास, तीया मुकी जीविवारी पास । जे वणवत्ता सागी बाकी, तीया नासिवा नइ वाट ताकी । जे पहिरता मोटा साडा, तीया नासता कीधा कोडि पवाडा । जे ढोलरइ ढमका मिलता तिकेपिण दीसइ टलता। काविली मीर, नाखइ तीर । इस्यै रणि जे पामइ जय, तेहनइ पोतइ पुन्य निचय । सू०
युद्ध-वर्णन (५)
परदल मिलई, सुभट कल कलइ । नीसाणि धाय वलइ, पताका झलहलइ ।
ओरणि माडीयइ , अर्द्धचद्र बाण खडियइ । भट्ट हक्का हक्क करइ , देवागना वीर वरइ । विद्याधरी पुष्प वृष्टि करई, धनुर्धर बाण तणी श्रेणी वावरई ।
आकाश मंडलि ग्ध्र फिरइ, सीचाणा समली साचरइ । हाथियानी घटा गुडी, घोड़े पाखर पडी। विहुगमा दल मिलइ, धूलि पटल उछलइ जेतइ सुभट गाजइतेतलइ कायर थरहरई। जेतइ सुमट बाधइ कसणा तेतलइ कायरथाइ नासणा । जे० खङ्ग खङ्गिइ, लीजई, तेतलई कायर मन माहि खीजह ।
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(२२) जे० वीर भाला झजकई, तेतलई कायर ना मन टलकई ० पच शनि पडई वाय, ते० कायर करईपाय । जे० घूसके बाजा नीताण, ते० कायर ना पडई प्राण । जे० टल आघां खिसइ , ते० कायर खूणे खिसई। जे. वेदल ही चडइ , ते० मतर तत्काल पडिन । जेन० विटल बाफलइ . ते० गतर मनि खलभलई। जेतलई सुभट झूझइ , तै० कातर लोक अमूझई।
० सुभट मेल्हइ प्रहार, तेतलई कायर जोअइ नासिवा वार | जे० वीर मन्तक पडइ , तेतलइ कायर पगि पीडी चडड्। हाथिउ हाथिह , घोडउ घोडइ । ग्य थिइ , पायक पायकिइ । भथाउत भयाउतिइ , खड्गायुद्ध खड्गायुटिइ। कुतायुव कुतायुधिड, गदायुध गदयुधइ । गर्जायुध गर्जायुवई। इलायुध० मूशलायुध शुल्लायुध०, त्रिशुलायुधः । . बेउ दल मिलइ , सर्वत्र धूलि पटल उच्छलइ ।। कुण हूँ अायण परायउ विभाग वूझाइ नहीं, पिता पुत्र सूझ नहीं। न० जाणियात्मटल, न जाणियइपर दल । न० भूतल, न० नभोमंडल । न० रात्रि, न० दिवस । न० पूर्व, न० पश्चिम। तह एकाकार हुइ, इसिइ समय समग्र दलि वर्तमानि । राजा सन्नद्ध वद्ध लोह चूर्ण हुई सुहडइ सगुड हाथीया लूडइ । रथावली ऊथलावई', मउडया माक्ड लिम खेलावइ । पारवरिया गट हराइ, महायोध सनुख मणइ । टलवइ भाजई, जल समुदाय गाजई । एतलइ तमह समकाल साहली बाजई, मदभभल गजेन्द्र गालइ । नीगडियानी श्रेणी कमममह, नीसाण तणा घाय बमवमइ । तुरग तणा देसारव, धवा तणा टंकारव । चीर रण भूमिभरी, आरेणि तगी सूत्रधरी । प्रलय धवल तूर्य वाजइ ||६७ (स १)
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( ८४ ) १०१ युद्ध-वर्णन (७)
श्राम्हो साम्हो कटक आविया बडी, फोजइ फोज अडी। बगतर नइ जीन साल, मुभटे पहिरया तत्काल । माथइ धरया टोप, सुभट चन्या सबल कोप । पाचे हथियार बाध्या, तीर-तीर साध्या ।
आमल पाणी कोधा, भाजण रा झूम लीधा । घोड़े घाली पाखर, जाणे पाड़ा भाखर ।
आगइ कीया गज, ऊपर फरहरे वज । दमाम दीधी बाई, सभ वीर आया धाई। रण तूर वागइ, ते वलि सिंधूडइ रागइ । ठाकुर वपुकारइ, बडा-बडा बापारा बिरट सभार । छूट नालि, निपटि थोडी विचाल । वहइ गोला, लोकल्यै श्रोला । छूट कुहक बाण, कायरा रा पड़े प्राण । काबलि मीर, नखइ तीर । लागी खडा खड, वागी भड़ाभड़ि । गईभल्लरी फौज भागी, सबल लीक लागी। जे हूँतो सेनानी, ते तो धूरखी थयो कानी । जे हूतो कोटवाल, तेत्तो भागतो ततकाल । जो हूँतो फौजदार, तिणरै माथै पडी मार जे हूता चौरासीया, ए दाते त्रिणा लीया । जे हूंता खवास, तीए जीववा री मुकी श्रास । जो हूता कायर, तिणने साभरी पापणी वायर। जे चढता वाहर, तेह थया छोडी कायर । जे ढोलरै ढमकै मलता, ते गया पासे टलता । जे बाघता मोटी पाघड़ी, ते ऊभा न रह्या एका घडी। जे हूँता ग्रेक कडा, तिणरे नामइ दिया छेकडा। जो मायै धरता आकडा, तीए मुहडा कीया बाकडा । जे वणावता सारगी वाकी, तीए तर रण भूमिया को । जे बाधता विहूं पासे कटारी, तीयानइ नासता भुई पड़ी भारी।
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सभा-श्रृंगार
अथवा वर्णन-संग्रह विभाग ३ स्त्री-पुरुष वर्णन
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पुरुष-वर्णन (१)
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कजल श्यामल केश पाश, श्रष्टमी चन्द्रोपमानु भालस्थल | कामदेव कोटण्डाकृति भूभगु, विकसित नीलोत्पल दीर्घ लोचन सजन चित्त वृत्ति तुल्य सरल नासा वंस परिपक्व चिंबाफल तुलिताधरोष्ट' कुदकलिकोपमान दत पक्ति निर्मल परिपूर्ण पूर्णिमा चंद्र मण्डलायमान वटन मडलु सख सदृश त्रिरेखाकित कठ कंदल लबमान स्कधन्यस्त करर्णपालि मासल स्कंध देशु पृथुलु वक्षस्थल नगर दुर्ग परिघा समान वतुल भुजाडु सर्वथा अलक्ष्य क्षामोटर गंभीर नाभि प्रदेश कटली स्तभोपमानु उर युगुल कूर्म पृष्टि प्रदेश लिय उन्नत चरण अशोक तरुपल्लवानुकृत इस्तपाद तलु विहुमारण नखमणि निकर छत्रीस लक्षण लक्षित शरीरु पृष्टि पालकु बहत्तर कला कुशल । लिखित पठित प्रमुख चौसठ विज्ञान विचक्षणु उदय यौवन पुरुप नीप जइ । पुरुष वर्णन (पु०)
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( ६० ) २ पुरुष गुण-वर्णन (२)
श्रीटार्य,
गाभीर्य,
धैर्य, सत्य,
साहस,
रूप,
सौन्दर्य, शील-स्वभाव, राग, कान्ति, विद्या, शस्त्रशास्त्रभेद,
लावण्य, जान, विवेक,
भाग्य , लालित्य, विज्ञान, विचार, प्रमाण, शकुन, निरुक्ति,
लक्षण
कला, विनय, वेट विदान, साहित्य, गीत, पिगल, एहवागुण
तक,
सामुद्रिक,
सगीत,
निमित्त,
निघंटु, ज्योतिष ।
पुराण,
गणित, ( स०४) -
३ सत्पुरुष-गुण वर्णन ( ३).
विवेकी
कोर्तिवान्
सूरः
कुलीन -शीलवान दाता
भोक्ता -
साहसिकः सत्यवान्
गभीर घीर
सलज कलावंत
गुणग्राही कृतज्ञ
धर्मवान् सवृत मत्र
क्लेश सह नितेन्द्रिय
सतुष्ट अल्पनिद्र मितभाषी जितरोष
अलोभ सुभग
तेजस्वी प्रतापी
सुसस्थान
शुभगति सुकान्ति इत्यादिक पुरुप गुणाः ।
सत्ववान् प्रियवाग बुद्धिवत उपकारी महोत्साह पात्र रुचि अल्प भोजी उचितज स्वरूप बलिष्ट सुगध देह सुस्वर ( मुखर)
( स० १)
सुवेप
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( १ ) ४ सत्पुरुष के स्वाभाविक गुणों की उपमा (४)
सत्पुरुष स्वभाव
कः शशिन' शीतलं करोति, को दुग्ध धवलयति । को मयूर पिच्छानि चित्रयति, कः शर्करा · मधुरा* करोति । कोमृत सर्वरसा - स्वादं धत्ते, को गगा पवित्रयति । हंसाना को गति शिक्षयति, कः पद्मरागं रंजयति । कश्चपक' सुरभी करोति, को जात्यमणिपु काति कलाप । कः सरस्वती पाठयन्ति, को लकाया अलकारं कुरुते । तथा साधु पुरुषस्य त्वभावेन गुणाः ॥ ( स० १)
५ सज्जन स्वभाव उपमा (५)
चद्रमा नै कुण शीतल करै ? अगनि नै कुण दाह करै ? दुग्ध नै कुण धोले छै? . . मयूर पीछ नै कुण चित्रै ? लक्ष्मी नै कुण नोत्रै १ क्मल नै कुण मधुरा करें ? गंगोदक नै कुण पवित्र करे ? हस नै गति कुण सीखवै ? जुआरी नै कुण भीखवै ? चपक नै कुण सुगध करें ? सारदा नै कुण भणावै ? लोका नै कुण दीपावै ? स्त्री नै कपट कुण गोखावै ? वृहस्पति नै कुण वचावै ?
१ शिशिरी २ मधुरी 3 ब्रह्म ४ को मेघानभ्यर्थयति, ५ इनके बदले में यह पाठ-को नालिकेर जल क्षिपति
क कोकिला स्वर 'माधुयं विदधाति। -
को वृत्तता नयति मौक्तिकान्। मु. कु में विशेष पाट-तथा को पुत्रो विनय नयति ।
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( ६२ ) कृपण नै लक्ष्मी कुण संचावै ? तिम सजन नै त्वभावै नाणवो।
(सू. ३)
६ सत्पुरुष प्रतिज्ञा (६) कदाचित् समुद्र मर्यादा व्यतिक्रमइ, कटाचित् जइ मेर महीघर चकमइ । कुलाचल चक्रवालइ , ग्रहचक्र निन मार्ग सू चलइ पृथ्वी पातालि जाड, वाउ निश्चल थाइ । वज्र टण्ड जर्जरता धरइ, नल ज्वलइ । ज्वलन शैत्य धरइ, श्रादित्य पश्चिम ऊगद्द, कुमल वन पर्वत विकसइ कदाचिदमृत विष थाइ क्दाचित्पापाण जल माहि तरइ, कदाचित्नारकी सौख्य पामइ कदाचित्वृहस्पति वचन खलइ, गंगानल पश्चिम वहइ कदाचित् अभव्य जीवहृदयि धर्मापदेश रहइ, कदाचित् मानस सरोवर सूखइ कदाचित् हरिश्चंद्र प्रतिज्ञा हूत चूकइ, कटाचित् सिद्ध गर्भवासि अवतरह तथापि सत्पन्य आपणीप्रतिनातउ न टलई । १०८ ।
७ सत्पुरुप के परोपकारों की उपमा (७) सत्पुय परोपकार किहिं पृथ्वी नियमिया छइ शेपराजु पृथ्वीधरइ, आदित्य अंधकार संहरइ चन्द्रमा शैत्य करइ, मेघु जलु पृथ्वी भरइ, गोमडलु दुग्ध क्षरद्द, चन्द्रोपलु अमृतु झरइ, वैश्वानर प्रज्वलइ, वृक्ष फलइ ॥
(पु अ.) ८ सत्पुरुप के परोपकारों की उपमा (८) मत्पुरुषः परोपकारमेव कुत्ते न पुनगरमाथं यथारविस्तमो नाशयति, परं नातं फोट्यति । चद्रः त्वामृतेन जगताप, निर्वापयति न क्षयं । वृक्षाः पंथानामातपं निवारयति, नात्मनः
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( ६३ )
यथा खड्गोऽन्येषा शरीराणि विदारयति, नात्मशाणा घर्षण यथा वैद्योऽन्य नाटिका' विलोकयति नात्मनः ।
यथा मत्रवित्तर विषाणि छिन्नति तथा न स्वदेह विप | यथा रत्नाकरः पर दारिद्र्य निराकुरुते तथा कस्मान्न क्षारत्वम् । तथा चिंतामणि कल्पद्रुमाद्याः कामान् कुर्वते ।
तथा स्वाचेतनत्वं कस्मान्न स्फोटयति || ७६ ( स. १ )
8 सत्पुरुषों के परोपकारों की उपमा ( ९ ) सत्पुरुष परोपकाराय अवतरति ।
कर्पासः परार्थे विडवना सहते, मौक्तिकं पर शृंगाराय वेधसहते । सुवर्ण परालकाराय, ताप ताडनादि ।
अगर पर सौरभ्याय दाह, चंदन पर तापोपशातये घर्षणं ।
कर्पूर पर सौगध्याय मर्दन, कस्तूरिका पर पत्रभंगी कृतेवर्त्तन । ताबूलं पर गाय चर्वण ।
दधिविलोडन परार्थं सहते, मजिष्टा वस्त्र रंजनार्थ कुन खडनादि सहते । धुर्यः परार्थमेव भारमुत्पाठ्यति, सूर्यः परार्थमेवोद्गच्छति । जलधरः परोपकारायेव वर्षति || २१ | ( स० १ )
१० सत्पुरुष के कोष की उपमा (१०)
सत्पुरुषस्य कोपो मनस्येव विलीयते । यथा दरिद्रस्य मनोरथा मन विलीयते । यथा कूपस्य छाया कूप एव० वि० । यथा सुरगाया धूली सुरगायामेव वि० । अरण्य कुसुमानि अरण्य एव विलीयते । कतारच्छिन्न कूट शैल फलानि शैल एव० ।
यथा वध्यावपुरपत्यानि तत्रैव विलीयते । विधवा जन स्तना हृदय एव विलीयते । कृपण लक्ष्मीः भूमावेव यथा विलीयते । ७७ । (स० १ )
११ पुरुष के ३२ लक्षण (११)
इह भवति सप्तरक्तः षहुन्नतः पंच सूक्ष्म दीर्घोयः । त्रि विपुल लघु गंभीरो द्वात्रिंशल्लक्षणः सपुमान् ॥ १ ॥
१. नटिका २ भिन्नति ।
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( ४ ) नख चरण पाणि रसना टशनछद तालु लोचनान्वेषु । रक्तः सप्त स्वाध्यः सप्तागा सलभते लक्ष्मीम् ॥ २॥ पटक कक्षा चतुः कृकाटिका नासिका नखात्यमिति । यत्येदमुन्नत स्यादुन्नन यत्तस्य जायते ॥३॥ ढतत्वम् केशागुलि पर्व नखाः पच यस्य सूक्ष्माणि । धन लक्षम्यायेतानि च जायते प्रायसः पुंसां ।। ४ ।। नयन कुचातर नासा हनुभुज मिति यत्य पचक दीर्घ । दीर्घायुर्भवति नरः प्राक्रमी जायते सह ॥ ५ ॥ भाल मूरो बननमिति त्रितय भूमिश्वरस्य विपुल स्यात् । ग्रीवा जघा मेहनमिति त्रिकं लघु महेश्वरत्य ॥ ६ ॥ यत्य स्वरोअप्य नानी तत्त्वमितीद त्रय गंभीरस्यात् । सप्ताबुधि पर्यत भूमे स परिग्रह कुर्यात् ।। ७ || इति द्वात्रिंशल्लक्षणानि ॥ १२३ । ( स० १)
१२ संग योग्य परष (१२) सुमति, शीलवत, सतोषी, सत्संगी, स्वजन, साचाबोला, सत्पुरष, तमेला', सुलखणा, सलज्ज, सुकुलीग, गंभीर, गुणवंत गुणज्ञ । एइवा पुरषनो संग कीजे ॥
(स० ३) १३ कामिलापो पुरुष (१३) चौदह विद्यानिधान, समस्या शत्रुकार, पड्भाषा चक्रवर्ती, जाणराय कालिकाचार्य, कालिकाल सर्वज, सरस्वती कठामरण, प्रत्यक्ष वृहस्पति, वाटी विभाड, कवि-कामधेनु, इत्यादि विविध गुण वर्णना कीत्या भिलाषिणः ॥ (स० ४)
(वि०)
१ सामल
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रंगीला,
लटकाला,
( ६५ ) १४ रूपालो ( रूपवान) पुरुष (१४) छयल, छत्रीला, रूपाला रलियामणा, ललिताग,
ललितगर्भ, लीलाभोपाल, लीलावत, सुश्राला,
भटकाला, लवणवत, मीठाबोला, मलपता, मा (म्हा) लता, विनोदी, विनयी,
ख्याली,
खुस्यालो, सौभागी, सुदर ॥ एहवा
रूपाला ॥
( स०३) निर्द्धन होने पर भी सत्पुरुष
१५ प्रतिभा-वैशिष्ठय पुरुष उपमा (१५) निर्द्धनोपि सएवोतमः पुत्प. यथा-भग्नमपि वाराह । श्रातोपि पारसीको हयः, रक्तोपि कपूर समुद्कः । खडोपि निशाकरः, अच्छादितोपि दिवाकरः । दुर्बलोपि सिंहः, शुष्कोपि वकुलश्री विद्धापि मुक्तावली । फाटितमपि रत्न कत्रल' । मलिन मपि दुकुलं,तृप्तमपि गंगाकूल । ग्लानमपि इक्षुखंड, जीर्णमपि शर्करा खड ।। ७४ । ( स० १)
१६ दुर्जनवर्णन (१) दुर्जन एवउ दीसइ, बाहिर हेजालूयोहीयउ हीसइ । अतरग वलइ रीसइ मिलइ सुजगीसइ ।। अाघेरउ जात (प्र) टॉत पीसइ , मुहि मीठउ, चित्त वीठउ । पराया छल छिद्र जोवइ, विणास विण विगोवइ ॥ परम प्रसंसायइ खीजइ, उपगारन सहसे न लीलइ । पर मर्म भाखड़,
साच करी दाखइ ॥ पहिलउ विचार माँहि आवइ, अवसरे खिसी जावइ ।। मुहडइ सहू सु लिबास, वाह नउ न करइ बिसास । केहनइ वचनि न पतीजइ, जड आपणउ चित्त दीजइ ।। तोही भीजइ न सीजइ, वार वार स्यु कहीजइ ।। न सगा, न सणीजा, जाणु मो तारिखा करू बीजा ।।
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१ लावण्यवत
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( ६६ )
न सहइ बीजा साथइ, ठाक ठोक ल्यइ आपणइ माथइ । इसउ दुर्जन, तिण सु न मिलइ कोई मन ।
इति दुर्जनकम् ।। (कु.)
१७ दुर्जन पुरुष मुहि मीठउ, चित्ति विण ठउ । पिराया छल छिद्र जोयइ, विणास विण विगोयइ । पर प्रशंसाई खीनइ, उपकार ने सहस्त्रि न लीजइ । परमर्श भाखड्, साच करी दाखइ । न सगा न सणीजा, नविहु छइ इत्या लोक बीजा । न सहै जैइ बीजा साथइ, ठाक ठोक कल्पइ अापणइ माथइ । नहीं कोई नेह नइ सज्जन, इसिउ दुर्जन ।। १६ ॥ (मु०)
१८ दुर्जन-वर्णन (३) दुर्जन, कृतघ्न, निष्ठुर स्वभाव, अप्रतिष्ठ, वंदनानिष्ट स्वकार्य बद्धकक्ष परकार्य निरपेक्ष । (पु० अ०)
१६ दुष्ट पुरुष (४) रे रे दुराचार, अधर्म व्यापार । जनित कुल कलक, दूर मुक्ति मर्याद । पापिष्ट, निकृष्ट, दुष्ट दृष्ट इण परि निभछउ । १५६ ( स० १)
२० कुपुरुष (५) प्रत्यक्ष मधुरया गिरा अमृत वर्षतां परोक्षे दोष जल्पता । नीचाना व्यसनैर्वती कृताना इद्रियैः ' पराभूताना। पल्वल जलाटपि निर्मलाना। अमावाश्याया अपि अंधकार मुखाना । गुरुपुः विद्वेषिणां। बंधुषु वद्ध वैराणा, पितृमित्र द्रोह कारिणा । मातृ शुक्लाना, स्वपुच्छादि कारकाणा । समुद्र जलादप्यनुप भोग्याना। अंत्यन चरितादपि मलिन चरिताना।
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(६७ )
सर्पनाते रपि अनात्म नीताना । प्रदीपा दप्याश्रय विध्वसिना । नदी कूलादपि नीच गामिना । मृत्पात्राप भंगुराणा। हरिद्रा रागा दिपि क्षण विनश्वराणा। उदवा न दृश्यते कुपुरुषाणा । यत:
परवादे दश वदन पर टोप निरीक्षणे सहलाक्षः । सद्वृत्त वृत्त हरणे बाहु सहस्रार्जुनो नीचः ।। ६७ (स० १) ॥
२१ अंध-वर्णन (६) रणाध, रोगाध, बुभुक्षाध, तृष्णाघ', लोभाध, कामाध, दप्पांध, मद्याध, क्रोधाध', विद्याध, वित्ताध, अहंकाराध', जात्याध, चित्ताय । पुल्प सर्वथापि न देखई काई ।
न पश्यति मदोन्मत्त. कामाधो नैव पश्यति । न पश्यति जात्यंधो श्रर्थी दोषा न पश्यति ॥ १।१३६ ( स० १)
२२ मुखे संग (७) कुमाणस नउ ससर्ग न कीजइ, वरि व्याघ्र सिंउ, क्रीडा कीजइ । परि सूता सीह' मुखि हाथ घातीयइ, (आ)अजीसाप२ सिउं साई दीजइ । श्रजी हलाहल त्रिप पीजइ, वरि अगिनी ज्वाला लीजइ । वरि वयरि घरि वासउ वसीयइ, वरि चोर साथि वइसीउ । वरि पाताल विवरि पइसीइ, वरि बलतइ दावानलि जईयह । पुण” सर्वथापि मूर्ख साथि न जाईयइ ।।
न स्थातव्यं न गंतव्यं, क्षण मप्यसना' सह । पयोपि शुडिनी हस्ते वारुणी त्यभिधीयते ॥ १ वरं पर्वत दुर्गेषु,, भ्रात वनचरैः सह ।
नतु मूर्ख जन संपर्कः सुरेन्द्र भुवनेष्वपि ।। २८५ ( स. १) १ राना दपि अति लाभ १ कोपाथ • मदाध ३ तृषाधु ।
(पुन्य विजय जी अपूर्ण प्रति) १ समर्ग • जिसापस्यु 3 वरि ४ वरि यरि ५ पण ५ सती सता ६ वारी
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(१००)
अवर रूप तणी रेख, लावण्य केरउ कसवह कनीयता तणउ भडार, काति केरउ अाधारु पसइ प्रमाण लोचन, जसी कामदेव तणी सोंगी घणुहो त साभमुह, जस जाइलउ हीरउ, तिसी झलकती दत पंक्ति त्रिहु पहटे वहतउ सीमतउ, अति सुकोमल रोमराजि बोलती जिसी अमृत तणीवेलि, वचनि करी पाहण तेई पल्हाल इसी स्त्री ॥
(पु अ०)
१. मुखी
, शीलवानस्तनी,
चद्रमुखीचकोराक्षी, चित्तहरणी, चातुर्यवती, शीलवती सिंहलकी, सुलक्षणी श्यामा, नवागी, नवयौवना, गौरागी, गुणवती, पदमणी, पीनस्तनी, हेनाली, हस्तमुखी, एहवी स्त्री पुण्य नइ योगइ (पामइ )
प्रति स० ३ का पाठ इस प्रकार हैरूपाली, चद्रमुखी, चकोराक्षी, चातुर्यवती, हसगतिगामिनी, चित्तहरणी ( मनहरणी), हसत मुखी, पमिनी, पीनस्तनी, गोरागी, गुणवंती, नवागी, नवयौवना, सिंहलकी, भ्रूहवंकी, शीलवती, सुलक्षणी, पद्मगंधी, सुकोमल शरीरी, पातल पेटी, मोहनगारी, अतिहलवी, नहीं भारी, हेनाली, शील गगेव, मधुरभाषिणी, कोकिलकठी। एहवी स्त्री क्रीड़ा करै छै।
३१ सगर्वा स्त्री (५) हस गति चालती,मयगल जिम माल्हती।
कामिनी गर्व भाजती, चद्रकला जिम वाधती । १ शति नभा गार वचन चातुरी ग्रन्थ समाप्त
स०१ प्रति, में इसके बाद का पाठ नीचवाला न होकर इस प्रकार हैनुवरणि, सुसची, मुस्त्रणी, सुशील, अनृत वाणी बोलती, पाहण पल्हालती हार्थि कोमली । महजि प्राजली
सर्व गुए सपूर्ण । इसी कलत्र महा भागि लाभइ, स्थाने निवास ॥ नोट-१० की दूसरी प्रति मे पाहण के स्थान पहाण और कोमली के स्थान मोकली
पाठ है।
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( १०१) नयण बाण नण चींघती। तरण तरहि, करुण तरुहि । वाकर जोग्रती,जन हृदय वाल्हादता । मचुक ताटती, सीमंवर पाटनी । मट कंटलि हार रोलवतो, जोवतु न इसी बाल सुकुमाल, तत्काल उत्तलित काम काल ।
विरह
हा कान्त । हा हृदय विश्रान्त ! हा प्रियतम हा सर्वोत्तम हा सौभाग्यसुन्दर हे प्रेमपात्र | || ६६ ॥ (मु०)
३२ सुबाला (६)
हसगति जिम चालती, मयगल निम माल्हती। कामिनी गर्बु भाजती, चद्र कला जिम गुणिहि वाघती । नयण-वाणिहि जण मण वींधती । नाथइ सीमतउ फाटती, हिया कुंचक ताडती। वाकड जोयती, विरहिया चित्त बोबती। अति रूपवती, साक्षात रति तणउ रूप । लक्ष्मी तणउ लावण्य, पार्वती तणी रेपा । ग्भा तणी काति, रन्ना देवि नउ तेन । रोहिणी तणी कला, सीता देवि नी लीला । द्रौपदी तणड सौभाग्य, लक्ष्मी तणउ भाग्य । अग्नि देवता नउ वान, रूपिणी तणउं सस्थान । कठि नवसरह हारि लतइ जिम दीठि। तिम चित्त माहि पइठी । इसी बाला । इदुर्वकस्य वीप्ता सदन मुपकथा पाटयो पंकजाली पर्यायोलि याननुतनु महसा वर्णिका कर्णिकारं ।
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( १०२ )
ग्रामातः कुभि कुभ द्वयः मुरसि जयो काम कोदंड दंड: । पाखड भ्रूलत्ताचारतिरभि नयनं पश्य रूपस्य यत्यः ॥१३१॥
३३ नायिका अंग उपमा ( ७ )
काजल श्यामल केश कलापालकृत उच्च मस्तक | जिसिट अष्टमी तर उ चंद्र तिसिङ भालस्थल | जिसौया वतत मास तरणा हीडोला तिलिङ कर्ण युगल । पुरुष प्रति प्रमाण कमल परिलोचन ।
जिसी कामदेव तणी सागिणी, तिसी भुमहि ।
जिसी तेल तणी धार, तिसी सरल तरल नाशावश । जिसीड पूर्णिमान चद्रमा तिसी मुख कमल । निसिया प्रवालिया, तिसिया ोष्ट पुट । जिसी दाड़िमनी कल, तिसी ढंत पक्ति । नि० विशाल करि कुभस्थल, तिसिउ वक्षस्थल | नि० कमल कोमल नाल, तिसी बाहु लता । जिसिड तीह तर लाक, ति० मध्यदेश जि० पर्वत शिला, तिसिउ नितत्र चित्र । जि० केलिना स्तभ, ति० वेऊर ।
नि० ऐरावण सुंडादंड, ति० नघ युगल | FETO ० अलता' नी पोली, ति० सुकुमाल पादतल । जि० यमुना प्रवाह तिसी वेणी लहलहइ |
जिसी चापानी कली तिसिउ सकल शरीर ।
रूप तणी रेखा, लावण्य तरण्उ कसवड |
काति तरण्ड श्रागर, सौभाग्य भंडार ।
बोलती मृत बलि, जे वचनि करी पाहण पहालइ १ । ६५ ( स० १ )
१. छलना
१ पल्हग्ल
(स०-१)
३४ नायिका आभरण (८)
ललाटि तिलक, काने झलक .
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(१३)
बाहे वलक', श्रागुलि अगुलियक, कटि कंटिका, गलह हार, माथइ मोतीसरि, हृदय सोवन ऊतरी हाथे दोरा, पाए पोलरा, इसे आभरणे बाहरी दोहरी नायका ॥ ( पु० अ.)
३५ कुत्रो (१) काली, काली, कोचरी, काणी, कुरूपी, कुत्सित, कुरुर, काफसरी, काकजघा, कुहाडी, कुलक्षणी, सापिणी, पापिणी, सखिणी, सउखिणी', सवणी, निरगुणी, चचल, चोपडी, कुखेडी, कूबडी, बोबडी, मुकडी, नुबडी, लवडी, सडी, पडी, वली, उछाछली, भूतेछली, चितावली, पागुली, सलीखली, खुली अली, खेलेजाडी, मुल, पाखा चिपडी, या खेवाडी, डीलेजादि, कामकाज माडी, आखेंचूंधी, कानि ऊची, हाथिट्टटी, कानि बुटी, लावा टात, करेरात, नीलज, अकज, छिनाल, टारी, कुतरी, निसनेहो, कुहाड, दुगंध देह, जीभाली, रीसाली, झूटानोली, निद्रवीण, अकुलीण, सेडाली, एहवी न्त्री पाप ये होइ । एहवी स्त्री भला माणसने वरजवी। ( स०३)
३६ कुस्त्री (२) । काली, कुलित, कुहाड़, राड, रीसाली, रोमाली, रोती, चूची, चीपड़ी, सूगाणी, सखिणी, हठीली, सेडाली, हराम जाति, कलेमणी, कुपात्रणी, कुनाति, एहवी झंडी स्त्री पाप नई उटय पामइ प्रति स०३ का पाठ___काली, कुल्लित, कुरूप, कुहाद, कुतरी, गटी, रीसालो, रोमाली, रोतो, चूची, चीपडी, सुगामणी, सखामणी, सोझाली, माजाली, सेडाली, माजरी, हठीली, हरामजादी, झूठा बोली, कलेसणी।
३७ कुस्त्री (३) बोलती हूती छड ऊतारइ, चाट फाडड महा विकरालि, अति अागि झालि सान्त्री अलछि, बोलती सर्वांग सूल उपजावइ २ बल • सौवर्ण ३ हाथै ककण रव झलत्कार, पगें नेवर झात्कार।
(म० न०१10 के अतर्गत) । नदिणी २ नुली ३ श्राखे चूची
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( १०४ )
मिरी तणी ऊगटि, गार तणी सउडि चालत पलेवण, दाघ ज्वर तणि वहिन निसी केवलइ हालाहल विष बडी हुइ तिसि स्त्री ॥
३८ कुस्त्री (४)
कुहाडि ढंड स्त्री
बोलती छउड ऊतारह, दृष्टि देखती मनुष्य मारइ |
५
ना माथइ सइ थड फाड, चालती' मुहि फाडइ |
नव धाया तिर पाउड, वालि बाबी कुडी श्राहणइ ।
काशि उडता परखीया गराइ, कुहणी छेहि खान पाउइ । वि पुरुष देखता वाट उठाइ |
गाई करत याचा लुवि त्रोड, पग केहिं गाठि छोडइ !
श्राखि हुतरं काजल हरइ, केसि धि शिल घरइ ।
जीभइ नब छोलs, निष्ठुर वचन बोलइ |
जीरा " बोलाविती माथा ना केस ऊभा धायइ । ना चालती अलच्छि जागवी ।
दुरित वन घनाली, शोक कासार पाली ।
भव कमल मगली, पाप तोय प्रणाली । विक्ट कपट पेटी, मोह नूपाल चेटी । विषय विष मुजगी, दुःख सारा कृशानी ॥ ८॥
३६ कुस्त्री (५)
जीभ जब छोलह, बोलतु छउड उतारइ |
चालनी भूमि फोडई, नव धामा तेर पाडई |
बालि बाधी कोडीया हराई, कुहणी छेहि वात्र पाडई |
( पु० अ० )
पग छेडइ गाठि छोडई, साची अलछी
मिरी तणी ऊगटी, चालनु पलेव
श्रागरण तणी दाह, जूर तणी बहिनी,
( न० १ )
१ नाथ फाटहि मुहि८५ ला ७ जेरी पनी
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(१०६) बोलती छउड उतारइ, रीसई छोरू नई मारई । जइ को वारा, तउ साहमु तेहनइ विडारई । जण जण त्यु आफलइ, बोलती विसइ हाथ उछालइ । जाअइ खेत्र खलइ, घरि वित्रोड़ करि बाहिर मलइ । पूरी पापिणी, फूफ़्ती सापिणी । जे चालती कृवच्छ, साची अलच्छ । जीभइ जत्र छोलइ, सासू सुसरा नू नाखइ अोलइ । अगार तणी सउडि, विटइ सहू मुं टउडि । बोलता केस ऊभाशय, मनुष्य नासी घरे जाय । बिलाड मुखी, धणी नइ दुस्त्री। बगाई खाती, ... । गोडउ गिलइ, झाडे मुहडउ छिलइ । जाणे श्रारण नौ राख, छोरू नइ लागइ जेहनी चाख । पर मर्म चापह, पागल बोलतउ थरहर कापइ । जे जे चालतू पलेवण, एहनूं नाम न लेवणूं। जिवारई गृहस्थ नह "जोग, तिवारइ होइसी कुकलत्र तणउ सयोग । चालती चीतरी, ...। लावा लूतरी, किता कहू कूतरी । पुण्य द्वार तणी अागल, मोक्ष तणी भागल । जेह जीव नइ होह पापकर्म भारी, इसी सतापकारी तऊ सपजइ नारी । कहइ 'धीर' अणगारी।
इति दुष्ट स्त्री वर्णक ॥
४१ दुष्ट स्त्री (७) काली, मकाली! काणी, कोचरी । कुरूप, कुत्सित । काक जंघा, काकसरी। कुहाडि, कुलक्षिणी, सापिणी, पापिणी मुंत्रिणी, नरगिगी लावडी, बोबडी। सही, पडी।
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(१०८)
४३ अधम स्त्री (8) बोलती खाल पाडइ, फूक देती पाहण फाडइ । महाकालि, विकरालि । सपूरी आगि झालि साची अलछि । जाची जेऊ काल रात्रि । वचनि सर्वांगि शूल ऊपजावई, मिरी तणी अगटि । अगार तणी सउडि, चालतउ पलेवणउ । टाघ ज्वर तणी बहिन, नव धाया तेर ऊपाडइ । बगाई करता घाटी रोडइ, फॅक वेहि गाठि छोड । जिसी केवलइ हालाहलि घडी हुइ, प्रलयकाल तउं नीपनी हुई । चीछी ना पाकुडा नी परि वाकुडी, कूड कपट कारि साकुडी। कुलक्षण तणी पाकुडी। इसी सर्वाधम स्त्री जाणिवी । श्रावत. सशया नाम विनाय ।
(म० १) १३७ ४४ फूहड़ स्त्री (१०) कुघरणि, महा कुहाड़ि। सना वरद आटोपु, अइठी भरतार दिइ निगेपु । डोला हेटि कि कि उधर, नुहि साम्ही थी बरबरई। राधणा सीवणा नितु श्रणाह करइ, नकल दिवस सूअर जिम चरड । ऊँचा नीचा वाक्य बोलाई, यही पाहुण उटल कोलई । घोर छाकम भिडड, बाट+ गुलाम ऊपरि मुहि चडड । घरि थकि मीकडं त्रोडइ, बोलावी माथड फोडइ । पाणी माहि कलि ऊठाडद, कुटुम्ब नदा दुःखि पाडट्ट । इसी घर नारि दुमुखि, अधकार मुखि । सताप कारिणी, उद्वेग कारिणी, क्लह कारिणी। महापाप तण्ड उटयि पामीया, रोभि चडी कुणही न मनावीयद । रावती सीधती सारउ मउलउ करइ टाधड कावड करइ । ढीलड गीलड करइ । जे खाघउ ते वाघ १ मति • अन्धा हि १ वीवर +गट जगत अवानयु-टगको -छोर बगरकवा कवारी अपरिनिवड चा
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( ११०) जिम थोडे पाणी मारलु, तिमि विरहि कीधउ अात्मा आकलउ । निमि द्विविध ससार देखइ, तिम आपणपू उवेखइ । पुणि रोअइ, अनि अाखि ना पास लूही टिमि पखा जोग्रह जिसी बाग विछोही हरिणी, तिमी विरहि व्याकुलि तमणी । गाढइ दुख सागर बूडी तउ निद्राइ न तेडी ॥ ३७॥
(मु०) ४६ विरहिणी (१२) हार नोड़ती, वलय मोडती।
आभरण भाजती, वन्त्र गाजती । किंकिणी कलाप छोडती, मस्तक पोडती । वक्षस्थल ताडती, कुचूड फाडती । केश' कलाप रोलावती, पृथ्वी तली' लोन्ती । ऑयू करी कु चक सीचती, डोडली दृष्टि मींचती । दीन वचन बोलती, सखी जन अपमानती। थोडइ' पाएणी माछली जिम तालो वली जाती, शोक विकल थाती । क्षणि जोयह, क्षणि रोअह । क्षणि हंसइ, चणि इसई। क्षाणि श्राक्रंटइ, क्षणि निदइ । चणि मूझइ, क्षणि बूझह । तेह तणउ तणु, संतापइ चंदणु । कमल नाल, पुण मेल्हइ भाल । चद्र काति ज्वलइ, पुष्प० शय्या बलइ । हार, भावइ अगार। पाठांतर
१ कुन कलाप रोलती (पु० १०), पातुल कलाप रोडती (मु०) २ नण्टल (पु०प्र० और मु०) ३ सकनलि वा पाजलि (पु० अ०) सकल वाप्पि (मु०)
। इसके वाढ प्रति (पु० अ०) में 'गुणवुण रोइती, अपरापरु दिगमण्टल जोइनी ।। पाठ है।
पाणीय रहित नच्छी जिन तिलोवलिजाती, विकलथाती (पु० ० ) पाणीय रहित मल्य जिम वैल्लती, (मु०) ६ विकलइ (पु० अ०) विहसई (नु०)-चद्रोपलपलई । ७क्षणि एफ टयूकड, नणि एक सदई (मु०) ८ नृणाल नाल : ज्योत्ना (पु० प्र०) चद्रिका (मु०) १० चद्रोपलवलई (पु० अ०) चद्रोपल खलइ (मु०)
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( १११ )
कदली हर, ' मानइ जमहर ।
जे जल सीकर ते उद्वेग कर ।
"
जड शीतलोपचार ते करइ उ विकार ।
परि प्रज्वलित स्नेह पटल |
विरहानल नीपजइ,
विरह ताप निश्वास चिंता मौन कृशागता । व्द शय्यानिशादैर्ध्य नागरः शाशिरोष्णता ||
प सारथ्य घनसार कुरु हार दूर एव किं कमलैः । अलमल गलि मृणालैरिति वदति दिवानिशं चाला || अथ सा पुनरव विह्वला, वसुधालिंगन धूसर स्तनी । विललाप विकीर्ण मूर्द्धजा सम दुःखामिव कुर्वती स्थली ॥ ११८ । (सं० २)
( स २ ) मे विशेष पाठ
जे तरू किसलय तप, सोइ सताप कर
( स. ३ ) में विशेष पाठ
ग्राखि चचाले । बैठी डोले । घूँघटरी नोट धरती लौटे 1
ग्रासूइ धरती सोंचै, दुखै श्रख मी ।
कुंटुंब नै करै कानै, सहेलिया ने अपमानै । मूर्छा पामती वरती ढलाई,
त्रिण उघाडै मुहडइ मूडैधरह, होराजकुल दिवाकर, हो करुणासागर दो असर-सरण, मुझनह मूकी नै किहा गयो । ४७ विरह - विलाप ( १३ )
--
हा हृदय विश्रान्त |
हा सर्वोत्तम !
हा कान्त ।
हा प्रियतम !
हा दयत' ।
हा प्राणहित
हा सौभाग्यसुंदर ! हा भाग्य पुरदर ।
हा अमृत वचन ! हा चन्द्रवदन !
हा सुदर गात्र । हा प्रेमपात्र !
1
( पु० अ० )
१ गृह (मु० ) २ शीतलकर (पु० अ० ) शीतलु (मु०) ३ भज ( पु० अ० ) (मु० ) : पिर प्रवल, प्रज्वलित स्नेह पटल ( पु० अ० ) (मु०)
१ दचित ( ० १ )
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( ११२ )
४८ वेश्या वर्णन (१४) चनुपष्टी कला'कुशल, कोमलालाप पेशल । निरुपम स्प लावण्य सरूप, विलसद् गुण निवान कुप । चतुरिम चाणक्य', ज्योत्सना माणिक्य । इंगिताकार निपुण, कामशास्त्र विचक्षण" | चंपक कलिकावत सुकुमार, सत्पुरुप सार मुकुमार । इत्यउ पुन्ष देखि, कुणि भणइ विशेखि । वस्थि करै भक्ति, बडी आसक्ति । श्राव्यउ आपणै गृहागणि, चावत जाणै चिंतामणि । निवृत्ति करु, साक्षात कल्पतर। (सू०)
४६ स्त्री स्वभाव (१) खिण से, खिण तूमे । खिण मुलके, खिण धुरके । खिरा मुरझे, खिरण बुझे, खिण झूझे । खिण धीजे, ख्रिण सूझै । खिरा ह्ते । खिण सलेह साहमुं जोवे,
खिण प्रीति तोडे, खिण प्रीति खिण रोवे । खिए टले, खिरा मिले। खिण कोप उछले, खिण वले । खिस्स तारे, खिण मारें। खिण राचें, खिण माचें । खिरा विरचे, खिण वढे ।
खिण गाइ, खिण उदास थाइ । खिशापडे, खिला 'पाडे,।
खिण राग दिखाडे, ख्रिण महिला मर्म उघाडे । खिण हंसे, खिण मा र वापसे । खिण भूडी, खिणरुडी। ॥ एहवो स्त्रीनोस्वभाव ॥
(स० ३)
१ विशन (मु) २ 'दखता मोहिया वडावडा भूप, विमल सद्गुण निधान कूप ।' इससे पूर्व अधिक पाठ-'महा एक अनूप, जोवता अवगुण्इ छाह नइ धृप ।' (कु) ३ चतुर वाणिज्य (मु) ४'श्रग मइ घणा गुण' (प्रति कु, में अधिक) ५ जाणइ नरनारी ना लनण ( में अधिक ) इसके आगे और अधिक
वनस्थल विशाल, अत्य त नुकमाल । रूपड उवमी, मिलड लोचन विसी।
साक्षात् रंभा, देखता उपजइ अचमा । ६ कत्ति (कु) वत्मे (मुं) ७ चालतट (नु) श्राविट (कु) १ खाई
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( ११३.)
५० स्त्रीना काम (२) “ दलवा, भरडवा, पोसवा, थालधोवा, झटकवा, छाण पूछा, लीपणा, वासीदा, राधवा, प्रीसवा, कालवा, साधवा, इत्यादि स्त्री का काम ।
(स०४) ५१ स्त्री उपमा (३) रति, प्रीति, रंभा, तिलोत्तमा, इन्द्राणी ४ अपछरा, उर्वसी, लक्ष्मी, गंगा, देवकन्या, नागकन्या, किन्नरी, विद्याधरी, खेचरी भूवरी, सरस्वती, गौरी इत्यादिक [ एहवी कन्या ]
(स०३) __५२ स्त्री नाम (४) कपूरदे, रन्नादे, रूपादे, अमृ प्रतापदे, सहनलदे, मूमलदेवि, चापलदेवि, रामलदेवि, पाल्हणदेवि, पाल्हणदेवि, राणी कपूरमंजरी, रत्नमंजरी, मदनमंजरी, सोभाग्यमंजरी, कुमरि ।।
(पु० अ०) ५३ मालवी स्त्री नाम (५)
गगा, चंपा, गोभा, जसोदा, जागसा, जसमा, वरजू वेणि,
लाली, लखमी, नीला, तिलका, अगरा, आसा, , फूला, अनूला,
चंगा,
सोना,
खेड़ा, तेजू,
इंद्रा,
सुंदर,
गुलालदे, गुमानदे, सोहागदे, दुरगादे, चमेली, राकली
५४ मेवात स्त्री नाम (६) ।, गुलाबदे, गोरादे गूजरदे। गोपालदे, साहिबदे, चतुरंगदे, सुजाणदे, सुरताणदे, देवलदे, साहिया दे', राययादे,
सोभागदे कसेरी, कपूरी, कस्तूरी, गाकली,
१ साहिवादे
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१ प्रभात-वर्णन (१) हवै कूकडा बोल्या, लगारेक नींद थी डोल्या । नीटे झकोल्या, मूको संभोग नी लोल्या, स्त्री भर्तार डमडोल्या । आवी नारी, बार उघाडी, राति अँधारी । भतरइ लूग' आल्यू, वासै पाछै घिल्यूं । दही संभाल्यू, विलोवणूं घाल्यूं। . राति ज दीसे छई, घरटी पीसै छई। इतरइ शंख वाग्या, झत्रको नै जाग्या । अठ्या नागा, लूगडा पहिरवा लागा । पहिया वागा, आपण कामै लागा । दीवइ जोति घटी, चाकी परीवटी । दती परी सटी, चंट जोति मटी। गणिका नी महिमा घटो, माथा नी बॉ वै लटी, पाप मति फटी । तितरे झालर वागी, स्त्रियो पण जागी । ऊठवानै लागी, भावठि भागी, पुण्य दिसा जागी । किंवाड़ खोली, मुँहडे बोलीउठो बाई, जागो भाई, राति बिहाई । प्रह पीली थई, राति परी गई। कली चूण लई, होइं सरदई । श्राकाश लाली भई, स्त्रियो गहगई, सबकू भली भई । शैया संकेली, अलगी म्हेली।
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( ११४ )
ALLIKASH
५५ मरुधरस्त्रीनाम (७) हरकी, वीरकी, केसकी, रामकी, मोनकी, पूरकी, देवकी, रानकी, चापली, पेमकी, यासकी, कोडकी, जमली, सिवली, देवली, दीपली, जगली खेतली, मानकी, नेतली, पासकी, इत्यादि मरुधरस्त्रीनामानि ॥
५६ दक्षिणी स्त्रीनाम (८) तेलाई, तुकाई, तुलजाई, जोगाई, झरवाई, झवाई, जम्यवाई, मोगाई, भोगाई, गंगाई, मगाई गोमाई, रंगाई, रेवाई, शिवाई, देवाई, चगाई. लबाई, केसाई, कोडाई, कोकाई, · कनकाई, नमुनाई, हसाई, भंगाई, मणिकाई, भीमाई, कासाई, कामाई, जीवाई
फूलाई, द्वारकाई, पीलाई, राजाई, इति दक्षिणीनीनामानि ॥
५७ गुजराती स्त्री नाम (8) छोटी, चड़कली, मडकली, मागवाई गाबाई, गोरवाई, लाडबाई, लाछावाई लीलबाई, लालबाई, वीरवाई, वणवाई सेजवाई, वेनबाई,
बालबाई, गेलवाई तेलबाई,
फूलगई, पूतली बाई, सेवित्रीबाई, कुंअर बाई, कीकी वाई, रीडली वाई, मटूबाई, मटकूबाई, फटकूबाई, फणकूबाई, झाकूबाई, वीमूत्राई ।।
( स०३)
१ रीवाई
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सभा श्रृंगारादि-वर्णन संग्रह
विभाग
प्रकृति-वर्णन प्रभात, संध्या, ऋतु आदि
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( ११= )
रजनी खेली, स्त्री रही इकेली । वात सभार पेली, ऊभी देहली, नययै रेली |
प्रभाती गावो, मंगल ध्यावो । ग्राण्ट पावो, दरवार जावो । घोडे जीरा करहूं, कोतल श्रागल करई । झॉखी नै मुजरें, बड़े गुजरें ।
तीन हजारी, पच हजारी ।
सात हजारी, महा बजारी ।
बार हजारो, लाज वधारी, कान सधारी । मुजरे या, मोजा पाया घोडा लाया । निवाज गुदारं, मेजत वै ।
तुरक मुगल, सईद वल ।
काजी गें, पगे लागें ।
नोबत गडगड़ै छै, पारसी भर है, खुदा खुदा करें है । चोपू उछेरयूं, गोवालै घेरयूं, श्रधुं स् प्रेरयू |
पथी परा चाल्या, आघा हाल्या ।
सोंग साउ वाल्या, साथै संबल घाल्या ।
वांका मारग टाल्या, सज्जनिया पाछा वाल्या । सूरन उग्यो, संसार जग्यो ।
व्यापारे लग्यो, पनघट लग्यो ।
आप आपणा धर्म करोइं पुण्य करीइं, अरिहंत धरीइं ।
सुणो हो भ्रात, करो पुण्य नी वात ।
पवित्र करो गात, गई रात, थयो प्रभात ॥ ( स० ३ )
२ प्रभात - वर्णन ( २ )
प्रभात समउ हुयउ प्रद्द फूटउ' ।
लोक तराइ घ छूटउ ।
तारागण विरलड हुयउ, चंद्रमा विच्छायु थियउ । कूकडउ' लवइ, देवतणावार ऊघड़ा । प्रभातिक सूर्य वाजिया, राजभवन वैतालिक पढइ
१- धकार फीटउ | गाय तरणा गाला छूटा । २- कुकडा तणी ऊलि लवइ,
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( ११६ )
इस्ति सिखलारवि कानि पडियउ न सांभलियइ । । विलोणा तणा झरडका ऊठिया,'पथिया मार्गिथिया । ब्राह्मण तणे घरे वेदझुणि विस्तरियउ ।। धार्मिकलोक अनुष्ठान पर हुया ।। . (पु० अ०)
३ सूर्योदय-वर्णन (१) उदयाचल चूलिकालकार, निज किरण विकाशितान्धकार । प्रवर्तित सकल महीतल व्यापार, चक्रवाक प्रीतिसूत्रतणा सूत्रधारू । निजकर निकर प्रतापाक्रान्त भूतल, इस्यउ सूर्यमंडल । कातिसमूह प्रकासइ, उदंड पमिनी खंड विकासइ ।। ६५ ॥ (मु० )
४ संध्या-वर्णन (१) सूरज ना किरण पश्चिम ढल्या, पथी सगा नै मल्या । विरही ना हिया बल्या, गोवाल घरै वल्या । चोपू लाव्या, आप आपणा धरै श्राव्या । पखी टलवल्या, माले जावान खलभल्या । चोर सलसल्या, आर्वे हडफल्या । आकाश राता, मेहें करी माता। किहाकिण नीला, किहाकिण- पीला । नानाप्रकार ना रग, भला सुरग। राछ-पीछ सकेल्या, ठिकाणे मेहल्या, कारीगर धरै खेल्या । सक्का पाणी भरें, छटकाव करें, देसोत डेरौं । फूल विखेरै छइ, छडीदार जी-जी करें छई। दुलीचा विछावै छह, उमराव श्रावै छइ । मोजा पावै छइ, कीर्तन था छइ । गुणियन गावै छइ, अवखास जुडै छइ । - पाछा ते मुद्दे छइ, दुसमन ते कुढे छह । हीयो हीपाते अडै छइं, असवार ते खड़े छई। -- एक-एक मा पडै छइ, कुजड़ियां लडै छहं । गुदडी जुडाणी छई, अनेक वस्तु मडाणी छह । दलाल बोलावै छई, रसिया मोलावै छ।। माला गूथावै छइ, बीडा खावै छई। १-उपज । २-ध्वनि । ३--प्रतिक्रमण ( स० १११५०)
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(१२०) पान मिठाई ल्ये छई, पईसा दे छई। झालर झणकै छई, रणीसींगा रणकै छई। शंख भएकै छह, कतेक भणे छह । तसबी गिणे छइ, खटकर्म ते करै छ । लोक अरापरा फरै छइ, दीवा हाटै घरै छ । तेल ते भरै छई, सध्या ते फनै छइ ।। ( स-३)
५ चन्द्रोदय-वर्णन (१) गजलक्ष्मी स्फाटित टप्पणु, चकोर संतपणु । अमृतमय किरणु, तिमिर हरणु । मुग्धवधू विदग्ध शिक्षिणोपाय, प्रणय कुपित कामिनी माननोपाय । विरहिणी हृदय करपत्रधातु, चकोर टत्तलातु । चक्रवाकु नि.कारण शत्रु, कन्टपराजनउं छठ । अमृतइ भरिया चन्द्रकान्तु, यामिनी-कामिनी कान्तु । प्रकाशित कुमुदाकार, इत्यउ अग्यउ रजनीकार ।। ६४ (मु०)
६ अंधारी रात-वर्णन (१) साझ परी गई, गुटड़ी परी थई, टीवे जोति भई । चोहटें भीड़ मिटी, व्यापार नी महिमा घटी, हाट तालूं नटी ।
आप-आपणै घरै आया, फॅची लाया । स्त्री सोले सिणगार सजे, गणिका जारनै भने, घडियाले घडी वजै । सर्वकारज साध्या, पाडा वाध्या, रघारण राध्या ।। व्यालू कीधा, किमाड श्राडा दीधा । सीरख माचा सभाल्या, ढोलिया ढाल्या । ऊपरि पहतेडा वाल्या, सूवा नै भाल्या, जामण घाल्या । मिठाई खाइ छै, कहणी कहवाइ छै, नींद श्रावै छै। सूपा पडया, नार परस्त्री नै अडथा । अघकार व्याप विस्तरै, कुमाणस पर घर सचरौं । काजल जेहवी, स्त्रियोनी वेणी जेहवी । यमुना ना प्रवाह जेहवी, रेवतकाचल जेहवी । अजनाचल जेहवी, पटाझर कुंजर जेहवी, कालीघटा जेहवी। काली काली स्याम, ..."। हाथे हाथ न सूझै, कोई कोईनै न बूझै, विचार माणस मूम। .
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( १२१ )
काइ न कहवाई छै, दूती उतावली धाई छै, संदेसो कहवा जाइ छै ।
केड़ते कसै छै, चोरते धँसै छै, कूतरा ते भसै छै । है, नीला जवते चरै छै ।
घोड़ा ते ह
कोटवाल ते फिरै छै, चोकी ते करै छै ।
रणतूर बजावै छै, 'खबरदार- खबरदार -- जागते रहियो - जागते रहियो' कही नै जगावै है, चोर-चकार नै भजावे है ।
घणी सी कहीइं वात, दुसमणनी न पूगै घात ।
मनुष्यनी नो यात, एहवी अंधारी रात । (स० ३ ) ७ अंधकार - वर्णन (१)
काली लली - रात्रि रात्रि प्रतिइ मिली ।
निसी भ्रमरनी पाख, जि० श्रजनाचल नउ शिखर | जि०
० कुमारास सुख, जि० स्त्रीतरणी वेणि ।
जि० यमुना प्रवाह, नि० कजल नउ वार |
जि० गुलीनउ रंग, निसिउ कसीसनउ जल || ७३ ( स० १ )
वसंतऋतु - वर्णन (१)
८
विरहिणी हसंतु, पुहतउ वसतु ।
फूलइ वणराइ, नगरमाहि न फिराइ |
लीइ तिम' निजईय वनि ।
मेल्ही वइराग, खेलीइं फाग ।
कामरान ना कूंप, तिसा मस्त कि रचीह चूप । ति सुविशाल, श्राव नी डाल !
तिहा बाधीइ हिडोला, रमइ नर भोला । फूलहरा भरीइ, भला कदलीगृह अनुसरी | कोइलि वासs, रुलीईत विलासी नासइ | भर्त्ता स्त्री र लिए, खेलहि खडोसली ए । विहसी वउलसिरी, भमई रहइं भमर पाखलि फिरी । चपक नी कली, चपक ऊपर नीकली । मस्त कि मरू, पहिरे लोक गरुश्रा । रितुराज नउ भालु, वनि मद्दक्यउ वालउ | परिमल भारी, उल्लसी देव गंधारी । दमणउ पहिरी, कुण एक चित्तु न हरीह ।
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( १२२) नोकली निरवाली, हियह पहिरी बाली । सुकृतीया हुइ सुखकरणी, इसी विहसी करणी। टीसह महामरि, श्रावानी मानरि। उल्लत्या अशोकु, वतत रागु थालवइ लोक । इम वसंतश्रो विलउई, नुररान हुई हसह ।। ४१ (मु०)
8 ग्रीष्मऋतु-वर्णन (१) गयो सियालो, आयो उन्हालो । लू वाजै छै, शीत लाजै छ। पग दाझै छ, तावडो तपै छ । रूख पात झडै छइ, ल्ख पवन पडे छई। पणिहारी पाणी माटि लडे छड, वावया सुकै छई। लोग काम चूकै छइं, पंथोमार्ग मूकै लई । तावडो लुकै छइ, कंठ सूकै छइ । . जोगी जाप जपें छई, जीव रूख नै लपँ छ । सर्वछाया छिपें छहं, तावडो त छइ ।
" " ", चंटन प्याला भरावीजै । तैखाने पोटीजै, मलमल अोढीजै । एलची साकर ना पाणी पोजें छइ, वाय लीजै छ। । मोन दीजै छइं, करतूत कीजै छई। लाहो लीजै छइं, श्राबा मोरया छइ । फाग खले छई, पचरका मेले कइ । मुहडै गुलाल छेलै छई, लोक हाय झेलै छइ । हीया विकसे, लोक हसै। बागवाड़ी लाइने, तलाव न्हाईनै । कमल लाइजै, चाग वाइजै । राग गाइने, आणंद पाइजै । दुलीचा विछाइजै, यार बोलाईजै । गोठ कराइने, पात्र नचाइने । बाना बनाइने, पाय नचाइ नई। रंग रमीइं, परदेस काइ भमीइं
१ रास।
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(१३):
अवल्ल जीमिई, .... । केसरीलाल, रमोगुलाल । बइसौ च उसाल, एहवो उमणकाल । ( स० ३)
१० उष्णकाल-वर्णन (२) महा पित्त' नउ श्रालउ, श्राव्यउ उन्हालउ । जून वाजइ, काननी पापड़ी दाझह । झामुमा वलइ, हिमाचल ना शिखर गलई। निवाणे खूटा नीर, पहिरीई श्राछा चीर ।
थेली जेवडा, जीमई भोना वडा । एवड़उ ताप गाढउ, भावइ करंबउ टाढउ । पाचइ वण, राणी ना ढीला थायइ काकण । वायु वाजइ प्रत्रल, उड़द धूलि ना पटल । सियालइ हूती राति मोटी, ते उन्हालै थई छोटी । - सूर अापणपई तपइ, जगत्र संतापह" ।
जे जीव यलचरई, ते जलाश्रय अणुसरह । लोक ल्यइ आत्रलवाणी६, मेली टाढा पाणी । केइक जीमई खाटा, तड़कउ टालहं बाधा बाटा । साहूकार ल्यइ साकर, तपति नई सिर धइ टाकर । एवउ उष्णकाल, फूलइ अब डाल ।
११ उष्णकाल-वर्णन (३) जिसी दावानल तणी ज्वाला तिसी लू वाई । निसिउ बावन्न पल तणउ गोलउ घमिउ हुइ, तिसिउ आदित्य तपइ । जिसी भाड तणी वेलू तिसी भूमिका धगधगइ । मस्तक तणउ प्रस्वेद पानी उतरइ । धर्मि जीवलोक गलगलइ, श्रीमत तणा चउबारों झलहलइ । जलद्रा शरीरि लगाडीपई, गुलाल १०, तणा अभ्यगम'१ कोजह । बावन्ना श्रीखडघसीयई, चउदिसिहि वीजणा फिरई ।
१-पित्र २-जीमइलोक ३-रणीय हुइ ढीला थाइ काकण ४---सीयालइ हुती मोटी रात्रि, ते नान्हीथई रात्रि, ५-जगयउ तपइ ६-श्राछिल वाणी ७-तपति माहि फिरइ कागलिया चाकर फलीयइ अ वा कालि। ६-पाल्ही। १०--गुलाम ।
११-अभ्य ग।
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( १२४) द्राक्षा आविली पान कीजइ, कलमशालि तणा सीघउरा करंबा कीजई ।
आछा कापडा पहिरीयई, लू आहण्या पाणी पीनइ ।। अछाछ चंदन रसाईकरा मृगाक्षो धारागृहाणि कुसुमानि च कौमुदी च । मटोमरुत्सुमनसः शुचिहर्म्य पृष्टं ग्रीष्मेमदं च मटन च विवर्द्धयति । १५२
(स० १) १२ वर्षाकाल-वर्णन (१) आय वर्षाकाल, चिहु दिसि घटा उमटी ततकाल । गडगडाट मेह गाजै, जाणे नालि गोला वानै । कालै अाभै बीजुली झत्रकइ, विरहणी ना हिया द्रबकइ । बन्त्रीहा बोलइ, वाणिया धान वेचित्रा वाखार खोलइ । बोलई मोर, दादुरइ सोर। अधारइ घोर, पइसइ चोर ।
कटर्घ्य करइ जोर, मानिनी स्त्री भरिनइ करइ निहोर । चंद सूरिज बादले छाया, पवेवाऊ श्राप आपणां घरा नइ धाया । रानहस मानसरोवर भणी चाल्या, लोके वस्तु वाना घरा माहे घाल्या । वग पति सोहइ, इंद्र धनुष चित्त मोहइ । श्रामो ययो रातो, मेह ययौ मातौ । मोटो छाट आवइ, लोकानइ भावई । झड़ी लागी, करसणीरी भाग्य दसा नागी । मूसलधार मेह बरसई, पृथ्वी उर्ण-पूर्ण करिवा तरसई । वहइ प्रनाल, खलखलेइ पाल | चूयइ अोरा, भीलई वस्तुवाना रा बोरा । टबकई पटसाल, चिचुंयइ बाल । नदी अावी पूर, कडरिणर रूख भाजि करई चकचूर । बहइ वाहला, लोक थया काहला, जूना ढूंढा पड़इ, लोक ऊँचा चड़इ। हालीए खेत्र खड़या, वाडिस्यु सेढा जड्या । मारग भागा, जे जिहा ते तिहा रहिवा लागा । प्रगव्या राता मामोला, धान थया सुहगा मोला । नीली हरी इहडही, घणा थया दूध नइ दही । नोपना घणा धान, सभा धम्मनइ ध्यान । गयो रोर, लोग करइ वकोर | गयो दुकाल, थयो सुगाल । ईदृशे वर्षाकाले न कोपि, गंतुं शक्नोति । (का०)
१३ वर्षाकाल-वर्णन (२) श्रासाद' मेह श्राव्या, कुणइक नइ मनि उछरग न भाव्या । कालाइणि' वली, सर्व जीवनइ मन ग्ली । उत्तर वाउ वाज्या, आकास मेह गाज्या । ' बाह (नु०), सनाह (मु०) २ कालविणी (मु० ) ३ जगत्रय (नु०) ।
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(१२५) कुडा बहक्या, केवड़ा महक्या । कुंद उलस्या, करसणी हरस्या । फटंव महमह्या, मयूर गहगह्या । पपीहा वासइ , विरहणी उसासई। पर्वत' नइ सिखरि स्नेह नइ भरि । सीगडू वायइ, मल्हार गाइ । भील नाचइ, महिपी माचई ।
ठा मेह, उलस्या स्नेह । नदी पूर वहिवा लागी, पग न लहई पागी। जल सू भरया निवाण, पृथ्वी प्रवत्ता मदन नी प्राण । हरी प्रगर हुआ, दीसइ वराह रा जूथ जुजुमा । सालूर ना सांभलीयह स्वर, जाइ दीसई विकस्वर । भला केलिवीयइ वालर, वावीयइ झालर । अति सरूप, नींबूना नीपजइ झूप । ठामि-ठामि' मन मोहीयइ, शालि ना क्यारा डोहीयइ । गुहिरउ मेह गाजह, दुर्भिख्य तणा भय भाजइ ।
आगम नरेसर ना जाणे नीसाण वानइ, वग पक्ति विरानइ । वाव्याकरण वाघद, लोक धर्म कर्म वेवै साधइ । वेला लहलहइ, सर्वलोक' आचारइ रहइ । पर्वत थी नीमरण छूटइ, भरिया सरोवर फूटइ । मघा अधकार विस्तरइ, कमल परिमल निस्तरइ। , अखड धार पाणी पड़इ, करसणी क्षेत्र खडइ । सीम नड़इ, लोक ऊँचा चडइ । केई एक तिलकी पडइ, कोठार खोलीनह । . कढीयारा दीजइ, एक-एक नइ पतीनइ । धान रा धणी छीजइ, कागदी पीजइ (काम दीपीजइ) असबाब सहु भीजइ । इसउ वर्षाकाल जाणी, हीयइ 'सतोष आणी। साधुमास च्यार एक ठउड़ि रहइ, पीठ फलक संग्रहइ । घणू स्यू कहीयइ, जइ रूडू थानकि लहीवइ, तउ चउमासि एक रहीयइ ।
१ वप्पीहा (सु०) (सु) • सोंगलू (सु० ) (मु०) ३ देश-विदेश नी वाट भागी (मु०) ४ कोलविइ (मु०) ५ अणवावै (मु० ). [(सु) और (मु) प्रतियों में यह पाठ महीं है।
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( १२६)
फोरवियइ तप री' सगति, श्रावक करड२ भगति । स्यउ बंधुवर्ग,3 साधु नह इहाई स्वर्ग । लाभइ प्रासुक" आहार, तउ लेवउ ६ व्यवहार । बहसइ श्रावक सुजाण, भला करइ वखाण । पुण्यवंत नइ सगलइ पूरउ, नहीं मुनिसर' नइ काई अधूरउ ।
(कु०) १३ वर्षाकाल-वर्णन (३) ऊमटी घटा, बादल हुई एक्ठा । पडइ छय, अलसै१० कुलटा । भाजै भटा, भीजै लटा। पुहवि पुण्य प्रगटा, ऋषिराजान ठामि बइठा । मेह गाजे, जाणे नाल गोला बाने। दुकाल लाने, सुवाय बाने। इन्द्र राजै, ताप११ पराजै। बोनली झत्रके, पाणी भभकें। मेह टवकैं, हीया द्रव । नदी खाल उवकै, वनचर भवकै,१२ आयो अवकैं। घणा जीवनी उतपत, को पंथ चालो मत। . बोलें मोर, डेडक जोर,१3 दादुर करें तोर । अंधार घोर, पइसैं चोर। भी. ढोर, स्त्री करैं निहोर । चंद सूर बादलै छायो, पथि घरे श्रावि धायो । मेघ बरसै सवायो, रूठो नाह मनायो। खलक खाल, वहै प्रणाल। चचूई बाल, चूई अोरा साल । साप गया पयाल, नदी वहै असराल । झडो लागी, करसारी१४ दिसा जागी । वरसइलो पूर, भाले रूख चकचूर ।
१ जोमवानी हुई २ गाढी (मु ) धणी (सु) ३ सू करइ अपवर्ग (मु) ४ महात्मा हुई (नु) ५ परपल 'विशेष पाठ' (मु) ६ स्याकार करइ विहार (मु) ७ सहु करइ (मु) ८ तपोधन हुई। ६ घाटा १० उलट ११ दाप।
१२ लवकै १३ टेड करै सौर १४ लोक दशा (को)
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, ( १२७ ) हाटि बिचै वाहला, लोक थया काहला',.. जूना घर पडै, लोक ऊँचा चढे । श्राम हुश्रो रातो, मेह थयो मातो। हाली हल खडया, वाडी सूं सेरा जडया। नीली हरियाली महमही,२ घणा दूध नै दही। ' मारग भागा, जे निहा ते तिहा बहसवा लागा । गयो दुकाल, हुप्रो सुकाल। पाणी छडै पाल, एहवा वर्षाकाल । (स०३),
१५ वर्षाकाल-वर्णन ('४') वर्षाकाल हूउ वहतउ रहिउ कूडं। कालूत्रणि वहह, मेघतणा पाणी वह।। । पथिक3 गामि जाता रहा, पूर्व दिशि तणावाय वायइ । लोक हर्षित थाइ । .........। श्राकाश घडघडई, खोलड५ खडखडइ । पंखी तडफडई, वडा मानुस अडवडइ। काष्ट खंड सडइ, हाली लोक हल खेडई। ..... श्रापणा घरबारि कादम फोड़ई, तिहा मुडि २ वेलू रेडह । पाणी पार न लहइं, साधु साध्वी विहार न करई। श्रावण लोक जयणा करई ।... अनेक जीवाधि१० नीपजई, विविध धान्य ऊपजहं। , लोक तणी श्रास पूजइ, गोकुलना वृंद दूझई। . अनेक कोठार भरियई, जूना धान्य वावरियइ । १२ श्रावई रेलि, बाधइ वेलि। १३ऊपजई नीलि फूलि, कुटंबी कणवीकइ मूलि । १ फीटउ दुकाल, नीपनउ सुगाल ।। . एवं विध वर्षाकाल || ४१ ।। ( स० १).
१-पाकुला २--हरी टहडही । “३-वाविपाणी भरतो रखा, वादल उनह्या। ४-पथी। ५---खाल । ६~-लड़यडै ७-फे.। -वीजा काजमे है। हथई । १०-जीव । ११-~-गाय भैंस । १२-अनेक लपस, लोक ह से । १३-अनेक वनस्पति फूलै । १४ दुकाल नासीजे, सुकाल होइजै ।
(स०३)
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(१२८)
আর আম বা বিরদ্ভেব ?
१६ वर्षाकाल वर्णन (५) ऊपरि मेव गडगड़इ, अमोच धारा पाणी पड़ह, अनेक घर खडहड़इ, कद्द मि वृद्ध अड़बड़इ, दुर्दुर रडई । बीज झत्राक नाइ, पामर लोक घर छाइ, पथिकलोग ठामि ठाइ, पृथ्वी हरिताकुल हुइ । सरोवरहुया गडलु, सर्वत्री टोडा प ( ख ?) डई । बगुला रूखसिहर ऊपरि चडई, वासर गिरी कदरि वीसमइ हंस पहुचइ मानसिसरि, " .....। मयूर नाचइ, विरहणि सोचइ । करसणी लोक हल खेडइ, धनवतलोक धान खेडइइसउ वर्षाकालु ||पु० अ०
१७ शरद ऋतु वर्णन (१) जन्दालो नउ भाई, अनी लेई वैश्वानर नऊ अंगु काई । न जाणीइ किहाई हूंतउ दिशि सप्रकाश, शरदऋतु पहुतउ फूल्याकाश । अगस्ति अगिउ, मेहनठ भरग्यउ । पाणी थ्या निर्मल, करसण सफल । - चद्रज्योत्स्ना शीतल, पीजई अभावताई जल । हंस स्वर सुखावा विलसिश्रा लागा ललभ (त) वर्ण गावा । स्त्रो सुनेत्र, डोहइ क्षेत्र । साड मावइ, कोठीबड़ा पावई । वैद्य सुविचारू, करइ पित्तोपचार । करीइ स्यूंस खाइंई, खांडु नइ पुहुंक खाईई। पूगी लोक नी आस, महा भरिवा परया कपास । कोठा अन्न भरीई, कुणहि हुई काई न करीई ॥ ३८ ॥ (मु)
१८ हेमन्त ऋतु (१) , . अति वसंतु, आविइ ऋतु हेमन्तु । - जिहा सोयना भर, सेवीइं निर्वात घर । तुलाईए पुढीई, मी तुलाई उढइ । अति ही मोटी, प्रलंब दोटी। अोढी बईसीइ सीयाल हुइं हसीई। निमतो न थाई त्सक वेटा जिमई अनेक विध मोदक ।
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( १२६ )
मुहुंडा रइ कांइ लागी कुटेव, सदैव जिमइ सातू जल सेव । गजीणा खानां, चिहुँ श्रामि साजां ।
परीसरि हारि किम नइ थाहं श्राकुली, जीमह भली साकली ।
घणी खाड करी बहू मूल्या,.. अमृत पाहिइ मोठी, ताप अंगीठी ।
ते तलाई माहि सगुण, श्राव्यउ माह नइ फागुण |
सीय ना कोट टीसइ, दरिद्र ताढि मरतां दात पीसइ ।
...... ...
हिम नाम, न खडाई श्रोढणु लामई ।
काष्ट दाघ सीय पडई, दांत खटहडइ ।
-
घर जीमइ सपराणी रोटो, पुण न सकीइ नीगमी रात्रि मोटी ।
फूल माहि पडवड, फूल नह मिसि विइस्यु -टीसइ कूदड़उ ।
राति सघळीइ रहट वहहं, ऊन्हाळऊ धान गहगहह ।
पुण्यवत लोक, रहित शोक ।
रम होळी, फागु दिइ भमल भोळी ।
ऋतु सारी सबळ, सेवीइं आदा गुळ ।
रोग नउ ममु, जड सोयाळइ कोइ श्रस् ।
भल तळ्या गुळ्या नीमद्द, सोयाळा ना दिन सुखिइ गमीह ||४०|| ( मु० )
१ याईजइ २ वह्नि ।
Σ
१६ शीतकाल वर्णन (१)
विउ ऋतु हेमंतु, भोगी प्राणीयह अत्यंत । जिहा सीय ना भर, सेवीयइ निवति घर | तुलाईयह पढीय, सखरी सीयरक्ख श्रोढीया | श्रति हि मोटी, मजीठी दोटी ।
प्रोढ़ी बहसीयह, सीयाळा नह हसीयइ । निमता न घरईयर' उत्सुक, भावइ विविध मोदक | मृत पाहि मीठी, लोक तापइ अंगीठी ।
तेतला माहि सगुण, श्राव्या माहन्नइ फागुण | सीना कोट दोसs, दरिद्री टाढि मरता दात पीसइ ।
'
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हिम नामह, न छडाइ अोढणुघणइ काम । काष्ट दाघ सीय पडइ, दात खडहड६।।
घणुइ जीमीयइ चोपडी रोटी, तउहीं'नीगमी न सकीयह सीयाळानी राति मोटी।
राति सघली अरहट वहइ, ऊन्हाळ धान गहगहइ । पुण्यक्त लोक, दूरी कृत शोक।
जन रमइ होळी, फाग द्यइ भंभर भोळो । ऋतु सारी सबळ, सेवीयइ याविनइ सूठ नइ गळ । भला तल्या, गल्या जीमीयइ, तउ सीयाळा य दिन सुखद गमीयइ ।
(सू०) __ २० शीतकाल-वर्णन (२) शीत कालि-टिवसि २ गोधूम वृद्धि थाइ । ' वेटी आपणा सासुरे जाई, व्यास रग महधा थाई । कंबळि जोई ती न लाभइ, घरे फलसा वापरइं। तपोधन विहार क्रम करह, श्रीमत घर माहि पडमी सूयइ । दारिद्री लोक सीयइ कापइ, सकळ लोक अगीठे तापई । . तादि खड बाखड खडइ, गति मिरी जिम साकुडई। श्वान नी परि कुणमणड, हाथ पाय आगुळी चणमणइ । हेमते दधि दुग्ध सर्पिरसना० । १५३ ( स०१),
२१-शीतकाल-वर्णन ( ३ ) . भोगी भमर नै प्यारो, योगीश्वर नै न्यारो। महा. ताढो, वाऊ वाजे गाढो, जावा नो न मिलैं किह साढो । । दाहे रूंख बाल्या, सज्जन हीइ साल्या । . । विलोवणा घाल्या, बीजा काम टाल्या, स्त्रीना पालव झाल्या । वायई खीजै, पान बीड़ा दोनै । संग कीजै, उडै पडवै पोढीजै । सखरा सीरख श्रोढीजे, हीये होश्रो भीडीजै। . १.नीठ २ गणिकुशळ धीर सु विशाळ, यू वखाणियां शीतकाळ । ३ पास ४ ताढिहड।
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(१३१) बी. नडीजै, लाड लडीजै । . . . . . स्त्री स्युं घणी गोठि, खावा-लाडू सोंठि कोई न चहरें, दुसाला पहिरैं। -- दुख हरें, प्राणद करै । . , , . - पासें त्रागडी' धखें, अवलं चीज भखें, सांधों पास रखें। मावठो होइं, लोक ऊंचो जोइं - गाय भैस दूझै, विरही धूनें। तपसी बूम, गगियो म.। .
. , . हिमाचले पडें बरफ, रोगी . पणु चालें सडफ। हीइ वधई कफ. वैद्य करें शफ उफ, लबाडी करें लपलफ । फिर हरीफ, मागे गरीब । - - - -
झाड झूह झडझडया, श्राक उजडया' । पात झड़पड्या, दरिद्री तडफडथा, पाणी पत्थर सम अड़या । भोगी खाइ औषध ऊपर पीइ दूध, तेथी थाइ कोणे शुध । राबडिया दूध चार्ट, ता. होट फाटें । '' ख. घान लाटें, व्यापारी लाभ खाटें। । श्रावे हाटे, फुलेल वार्ट, देवै पईसा साटें । । साध पागरथा, पग ठांगरया । गरढा डोकर, पग लागै ठोकर, हसै छोकर । । ठाकर ठरथा, साथ सोड मा घरथा । हाथे न लवैवाइ शस्त्र, श्राघों श्रोदि वस्त्र। लोक सीसीयाट करें, पाणी नीठ भरें। चोप उछरें, ता. न चरें। धूमैं बाल गोपाल, विरही मा पडें हवाल । विपम हवाल, सहु बैठा चउसाल । साचव्या देहरा ने पोसाल, एडवो शीतकाळ || ( स०३)
२२-दुष्काल वर्णन (५). एहवं एक पहिउ दुकाल, ठामि दीसइ नर कपाल ॥ वंड मुंड घरापीठ, चाचरि चाली सकइ नीठ-1, . . १-सगड़ी । २-वाटइ । ठारै करि ठन्या। । । ।
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(१३२)
नैरती बाय वानइ, भूपति ना हीया मानइ मिल्या मेह नासइ, न रहद को केहनइ पासह । धनवंत सीदाय, तउ रांक नी सी गति थाय । मारग हुआ महाविषम, सचरइ चोर चिहुगम गोरू विण दीसई गाम नह देस, वाल्दा छोडि राया विदेस । माणस माणस नइ भखइ, आपणौ परायड नोलखा लोक वेचवा लागा पुत्र, छाडीजइ.फूटरा कलंत्र रोता बालक देख, तू पनहु दयानइ देख । लोक घणा निर्धन यया, उत्तम सु नीच घर गया । वडा जे जंगम यती, तेह पिण ताकइ कोइक सती । केइक घांन ना घणी, तेतउ वावरइ अन्नमिणी । पाताळ भोग लीजइ, सगड सगा नहन पतीजइ । पहिलउ जे लेता वनस्पती, तेह पिण न दीसइ रती लोक भला लान छोड़ी, मांगिवा लागा हाथ ओडी। बीला सहू भोग भागा, सहु ध्यान धान लागा। कहालता जे दातार, ते पिण मांगइ कही करतार । वोसरथा सर्व कला गीत, घरि घरि कीजह अन्न री चीत रूड़ा जे राउत राजा, ते पिण ताकइ लोक ताजा । सर्व लोक निर्धन हुवा, बाप वेया रहे जूजुश्रा । वंचिवा लागा लोक, सगपण सेंघ हूई सहू फोक । घl किंतु पतिसाह, ते पिण करइ धान ऊमाह । केतलुं कहीये एक रूप, जेहनी वात भय रूप । एहवइ महा दुकालि, घोर पुन्यवंत दीयइ दान सालि ।
इति दुर्भिध्य वर्णनम् ।। कु० ।
२३-कलि-वर्णन (१) ईणइ अवसर्पिणी कालि, समइ समइ अनंत गुणी हाणि । बलि माति सम्य, अबुद्ध नरेन्द्र लब्ध । रस निरास्वाद, लोक स्तोक मयाद । - अविवेकि वासु, धर्मवन्त नासु । हुएड संस्थान, अल्प विज्ञान ।
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(. १३३ )
तुच्छ मच्छर, कर्कश स्वरु | धर्म रंगु, गुरुजन प्रशंसा भंगु ।
तुच्छ
सुकृत करणी प्रमाद, बहु मृषावाद ।
साप्रत वत्त'द्द इसउ कलिकालु, जिहां को नहीं कृपालु, दर्शन उत्खलु ।
श्रार्यजन स्वल्प, घणा कुविकल्प 1
बहु कराक्रान्त देश मंडल, पृथ्वी मंद फल |
नारी विकल निरर्गल, ऋषि भाजन खल |
साधु लोक श्राकुल, रान तुच्छ बल ।
गुरु कलह कदल, धर्माचार्य चंचल, भविक धर्मं विकल ।
खड वृष्टि, बहु स्त्री सृष्टि |
लोक द्रव्य दृष्टि, सर्व लोक मिध्यात्व दृष्टि ।
लोक घटियइ कपटि दल, इसी प्रवर्त्त कलि ॥ १०० ॥ ( मु० )
२४ --- कलिकाल -वर्णन ( २ )
सप्रति वर्त्तह्नं कलिकाल, महा कूड़ कपट काल !
चोर चाड साक्षात हालाहल, सासू बहू परस्पर कलि ।
गुरु शिष्या जायद खांध बलि, अन्याय कुरीति देश मंड़लि /राजकुल रुंघा खली, राय राखा वर्त्तई छली ।
क्षत्रिय नासहं दीठहूं दलि, भला माणूस हुइई तांतलि | पृथ्वी मद फ्ल, मंत्र सवे निफल ।
ast मूली रस विकल, कुल स्त्री निरर्गल ।
न्यायी राय तुच्छ दल, चरड बहुल 1 वाट पाडा तणा कलकल, धर्म गुरु चपल । पापोपदेश कुशल, मिध्यात्व निश्चल |
लोक माया बहुल, अल मंगल |
इइ कुकालि, श्रवसर्पिणी कालि ।
अल्प क्षीर गाइ, निःस्नेह माह | ----
भक्ष्यभोज्य निरास्वाद, स्त्री तणी जाति श्रमर्याद, 1
रहस भेट, रस छेद |
क्रूर संचना, गुरु वंचना ।
ऊषा स्तोक, निवाखिना लोक ।
1
०
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.
( १३४ ) देह वातली, भक्ति पातली अल्प मृत्यु, पगि पगि अकृत्य ।। । बाप बेटा तणा गर्थ सातई, पापणा छोरु 'कुक्षेत्रि घातई। श्लोक सीदंति सतो विलसत्यं संत ।, , . . . . . पुत्रा म्रियते जनकश्चिरायुः । परेषु तोष. स्वजनेषु रोषः ।, - पश्यतु लोकाः कलि केलितानि । दाता दरिद्रः कृपणो धनान्यः। । पापी चिरायुः सुकृती गतायुः। . राना कुलीनः, कुलवाश्च भृत्यः । पश्यंतु लोकाः कलि केलितानि । ११४ । ( स० ३)
- २५–कलिकाल-वर्णन (३) इसी स्त्री अनर्गल, देव निःकल। - - - - पृथ्वी अफल, राजान अबल। चोर प्रबल, शत्रु बहल । साधु विरल, मंडलीक कुटल । दर्शनिया शिथिल, इसी कलि । (पु
, २६-कलि प्रभाव-वणन (४)
पापि नउ, धर्मि खउ। साचउ अविगणियह, झूठउ वखाणियह । गुरु शिष्य तणउ' खमइ, वाप-वेटा लमह । , सासू पाटलइ, बहू खाटलइ । ए कलि तणा प्रमाव ॥ १२१ ।। ( स०.१)१ तण ख० इ (पु० श्र०)
१-तण खवइ (प्र० अ०)
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सभा-श्रृंगार
अथवा
वर्णन संग्रह
विभाग ५ कलाएँ और विद्याएँ
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१ कला-भेद (१) ७२-कला वणिक २३- कला वेश्या ७४-" जूवारु ७५--,, रस-चणिक
( पु० अ०) . ७२-कला पुरुष (२)
१ लेखन २ पठन ३ सख्या . ४ गीत . पू नृत्य ६ ताल ७ पट ८मरुन ६ वीणा १० वंश ११ मेरी १२ द्विरद १३ तुम १४ शिक्षा १५ धातु १६ हग - १७ मंत्रवाद. १८ वलित पलित नाश १६ रत्न २० नारी लक्षण २१ नरलक्षण २० छंट ०३ तर्क २४ नीति . २५ तत्वविचार २६ कविता २७ ज्योतिष २८ श्रुति २१ वैद्यक ३० भाषा ३१ योग ३२ रसायन ३३ अजन । ३४ लिपि ३५ स्वप्न
६ इन्द्रजाल ३७ कृषि ३८ वाणिज्य ३६ नृप सेवन ४० शकुन ४१ वायस्तंभन १२ अग्निस्तंभन ४३ वृष्टि ४४ लेपन ४५ मर्दन ४६ ऊर्ध्वगमग४७ घट बंधन ४८ घट भ्रमण ४६ पत्र छेदन ५० मर्म मेदन ५१ फल वृष्टि ५२ अवु वृष्टि ५३ लोकाचार ५४ जनानुवृत्ति ५५ फलभृत, ५६ खङ्गधारण५७ चुरि बंधन ५८ मुद्रा ५६ लोह . ६० रद: ।
पाठान्तर--
३ गणन, १०, १७ मन्त्रवाद के बाद तन्त्रवाद विशेष है । २६ व्याकरण । ३० घड. भाषा 1:४१ वाक स्तम्भन । ५१ कला वृष्टि। ५४ जातानुवृत्ति। ५५ पल भरण। ६१ काष्ट छैदन,। ६२ चित्र कृति के वाद वाहु युद्ध है । ७२ अष्ट शान। (मो०) .... -
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(१३८ )
६१ कार ६२ चित्र कृति ६३ हग युद्ध ६४ मुष्टियुद्ध ६५ दडा युद्ध ६६ असि युद्ध ६७ वाक युद्ध ६८ गारुड दमन ६६ सर्प दमन ७० भूत दमन ७१ योग ७२ अब्ज । यया श्लोक
६४ कला-(स्त्री) (३) चौसठ कला, तन्नामानि यथाः-१ नृत्य २ उचित्य ३ चित्र ४ वाद ५ मंत्र ६ तंत्र ७ यत्र ८ ज्ञान ६ विज्ञान १० दण्ड ११ जलस्तभन., १२ १२ गीत-गान १३ ताल मान १४ मेघ वृष्टि १५ फलावृष्टि १६ श्राराम रोपण १७ श्राकार गोपनं १८ धर्म विचार १६ शकुन विचार २० क्रिया कल्प २१ संस्कृत जल्य २२ प्रसाद नीति २३ धर्म नीति : ४ वर्ण वृष्टि २५ 'सुवर्ण सिद्धि २६ सुरभि तैल करण २७ लीला सचरण २८ गज तुरग परीक्षा ६ पुरुष स्त्री लक्षण ३० सुवर्ण रत्न-भेद ३१ अष्टाटस लिपि परिच्छेद ३२ तत्काल बुद्धि ३३ वस्तु सिद्धि ३४ वैद्यक क्रिया ३५ काम क्रिया ३६ घंट भ्रम ३७ सारि परिश्रम ३८ अजन योग ३६ चूर्णयोग ४० हत्त लाघव ४१ वचन पाटव ४२ भोज्यविधि ४३ वाणिज्य विधि ४४ मुख मडन ४५ सालि खडन ४६ कथाकथन ४७ पुष्प ग्रयन ४८ वक्रोक्ति ४६ काव्य शक्ति ५० स्फार वेष ५१ सकल भाषा विशेष ५२ अविघान ज्ञान ५३ श्राभरण ५४ नृत्योपचार ५५ गृहाचार ५६ काव्यं करण ५७ परिनिराकरण ५८ धान्यरंधन ५६ केस वधन ६० वीणा वजावी ६१ वितंडो वाद-६२ अक विचार ६३ लोक व्यवहार ६४ अन्ताक्षरिका-प्रश्न प्रहेलिका स्त्रियोनी चौसठ कला।
.६४ स्त्री कला (४) नृत्य १ उचित्य २ . चित्रु २ वादित्र ४ मत्र ५ तत्र ६ ज्ञान ७ विज्ञान ८ दम ६ . अलस्तम १० गीतगान ११ तालमान '१२ मेघवृष्टि १३ फलाकृष्टि १४ श्रायमरोपण १५ श्राकारगोपण १६ धर्मविचार १७ शकुनसार १८ क्रियाकल्प १६ संस्कृत जल्य २० प्रासादनीति २१ धर्म नोति २२ वर्णिका वृद्धि२३ स्वर्ण सिद्धि २४ सुरमि तैल करण २५., लीला करण २६ गज तुरंग परीक्षण २७ स्त्री पुरुष लक्षण २८ सुवर्ण रत्न भेट २६ ' अष्टादश लिपि छद ३० तत्काल बुद्धि ३१ । वास्तु सिद्धि ३२ 'वैद्यक क्रिया ३३
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( १३६)
कामण
काम विक्रिया ३४ 'घटभ्रम, ३५, सारिपरिश्रम ३६ अजन योग ३७ चूर्ण योग ३८ हस्त लाघव ३६ वचन पाटव ४०० 'अंताक्षरिका ४१ ' भोज्य विधि '४२१' । वाणिज्य विधि ४३ मुख मंडन ४४ - 'शालि खडन ४५ कथाकथन ४६ पुष्प ग्रंथन ४७ . वक्रोक्ति ४८ . काव्य शक्ति ४६ स्फार वेष ५० ' सकल भाषा विशेष ५१ अभिधान ज्ञान ५२ श्राभरण परिधान ५३ भूतोपचार ५४ . गृहाचार ५५
व्याकरण ५६ । । परिनिराकरण"५७ रधन ५८
केश बन्धन ५३ वीणा निनाद ६०. " वितण्डावाट ६१ अंक विचार ६२ . लोक व्यवहार ६३. हस्त'प्रहेलिका ६४ स्त्री चतुषष्टि कला ॥ (१५५ जो०), " ५-( वशीकरण ) विद्या साधन ( ५) ..
निर्जीव सजीव करण मोहन
. , . आम्नाय उपासन थभन
अकाल फल वसीकरण ।
मोहन वेल । आकर्षण
काली वेल , . उच्चाटन . सातन पातन
यत्र अजन
जडी ( चू!) रण
स्याल शृगी पाताल गमन
, स्वेत चरमी पाद लेपन
1. स्वेत अरंड इद्र दर्शन
। स्वेत प्राकडो अदृष्टीकरण
स्वेत पलास श्राकाशगमन
बंदो हाथाजोडी इत्यादि रमणी मोहन..
'.., ... - (वि०) . १-~-प्रस्त (प्रश्न !)।
मत्र
तत्र
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(१४०)
अथ राग नाम (६) १ श्री राग १३ जयजयवंती . २५ केटार
३७ रामगिरी २ सारग
१४ प्रभाति २६ मारू ३८ सामेटी ३ दीपक १५खंभाइति (यची)२५ सिंधु
३६ श्रासाउरी ४ सोरठ १६ ललित २८ मधु ४० धन्यासरी
१७ वरात २६ माधव ४१ हिंडोलन ६ विहागड़ो (विहगड़ो) १८ वेला उल ३० परज ४२ मालकोश ७ कान्हडो १६ भैरव (भयरव) ३१ पूरवी -
४३ श्राशा ८मालवी २० भूपाल ३२ विभास
४४ काफी ६ गोलो २१ बंगाल ३३ कल्याण ४५ दीपक १० गोडी २२ रामकलो ३४ धोरणी ४६ माहव ११ टोडी (तोडी) २३ मल्दार ३५ जयतसिरी ४७ श्रडाणो १२ वैराडी २४ देव गंधार ३६ गूजरी
३२ वद्ध नाटक (७)
Ghed
१ गय
६ देवगण १७ हरिण २५ भडा(दा!)सन २ रथ १० विद्याधर १८ चामर २६ सिंहासन ३ तुरंगम ११ गंधर्व
१६ वनलता २७ पारिसा ४ सीह १२ विग २० पद्मलता २८ विमान ५ वृषभ १३ सरभ २१ सख
२६ हस १४ सर्प २२ नदावर्त ३० कोकिल असुर १५ सुकराज २३ पूर्ण कलस ३१ वास ८किन्नर
१६ सारस । २४ स्वस्तिक ३२ लाव रथाग पडह
मेरी मृद्ग ताल
भुगल
चतुपट . वायु (८) १ ममा, २ मडंग ३ मद्दल, ४ कडंव, ५ झलरि, ६ हुडुक्क, ७ कसाला ८ काइल, ६ तिलिमो १० वंसो, ११ राखो १२ पणचोय बारसमो।
द्वादश तूर्य निर्घोषो नांदी नाम रख ।
लांगळ
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रस नंदी तूर (8) १ ढक्का २ इक्का ३ डमरूय ४ काहल ५ पुप्फ-मेर ६ भाणंग, ७ पडहो ८ जुग सख ६ करड १० पुग्गय ११ मद्दल १२ कंसाल रणनंदी । इतिरणनंदी तूरः।
(१२७ नो०) वादित्र नाम वर्णन (१०)
भेरि
भुगल
पडह
ढोल
लरि
मादल
वंस
पणव
वीणा भाली निसाण
ताल . तूर बुक्कर रावणहथंथ दुडदडि
कसाला डाक शखमाल
दभि
पखाउज सुग्मद्दल 'घूघरि नफेरी शंख करडि भभा दमामा सींगी सींगा काहली
तिवल
कांसी
बरघू
श्राउन अघउडी टमकीउ चाग
पिनाकी पटाउन रुद्रवीणा मदनभेरी
डमरू महुँयारी घाट सरणाई कादबरी . (सू०)
१ मेरो २भमा ३ भूगळ ४ नफेरो ५ नीसाण ६ ददा मे मा ७ दडबडी ८ ताळ ६७साल
३६ बाजित (११) १० श्री मंडल १६ मृदंग ११ तिबल २० त्रिबल १२ ढोल २१ मूलरी १३ करनाळ २२ दुंदुभी १४ कासी २३ बरघू . १५ सरणाई २४ सारंगी १६ बासरी २५ रणसिंघो १७ वोणा २६ जन्यघंटा १८ चंग २७ राई
२८ गडबडी २६ नाद ३० केदारी ३१ होक ३२ पूंगी । ३३ झाझ ३४ तंदूरो .३५ [प] खान । ३६ नरसिंघो
'१ साल
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(१४२)
काव्य ना भेदं (१) काव्य, कवित्त, छंद, सवैयो, योतिस, चैटक, प्राकृत, तर्क, वितर्क, प्रमाण, चिंतामणी, चतुराई, रघु, किरात, माघ, मेघदूत, नेमदूत, नैषध, कुमारसम्भव चम्पूकथा, गीता, भागवत, स्मृति पुराण, वेद, विचार, वखाण, गाहा, गूढा, दूहा, प्रहेलिका, हरियाळो, कमलबन्ध, छत्रबन्ध, नागबन्ध, गरुडबन्ध राजवध तोडरबन्ध, मादळवन्ध, अहर, अलग्ग, हटापखरा, छपखरा, नटपखरा, पखाळ, पारगत श्लोक, संगीत, गीत इत्यादि काव्य (शास्त्र) ना भेट ।
विद्वान लक्षण (२)
काव्य, कवित्व छट, सवैया, ज्योतिष, वैद्यक, प्राकृत, सम्कृत, तर्क, वितर्क प्रमाण, गीता, भागवत, पुराण, वेद, विचार, इत्यादिक ना जाणणहार छ।।
(को०)
वादीन्द्र (३)
अदारहई लिपि तणइ विषय कुसल, चारि विद्या कठस्थ चेष्टानुवादु, अक्षरानुवादु, अर्धानुवादु परवाटी सउं करइ पर पटित अष्टोत्तर शत काव्य अर्यु देइ . . एक पटी द्विपदी त्रिपदी समस्या पूरइ तुरग पद पाठि कोटक पूरण करह गूढ पंद क्रिया-गुप्तक तण लेखउ न लेई त्रिवर्ग परिहारु पचवर्ग परिहार .बोलइ प्रच्छन्न लिपि तणी अलवि करह . कुर्चाल सरस्वती, प्रत्यक्ष वाचत्सति पंडित घटु, भग्न वादी मरुटु. . इसउ वादीन्द्रः ।।
(पु० प्रा०)
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( १४३ )
१८ लिपि (१) हंसलिवि' भूवलिवि२ नक्खाका तह रक्खसीय बोधन्वा उड्डीह नवणी तुरकी करी टवडीय सिंधविया१° ।
मालविणी'' नडि १२ नागरी13 लाड लिवि१४ पारसीय बोधछा । तय निमिति ६ लिब्या चाणकि मूलदेवीय ॥ १ ॥ लिपि नामानि
१२४ न० ( १२६ जो०) १८ लिपि (२) १ हस लिपि ७ तुरकी लिपि १२ लाट लिपि २ भूत लिपि ८ द्राविणी लिपि ४१ सारसी लिपि ३ यक्ष लिपि ६ सैंधवी लिपि १५ अनिमित्तिलिपि ४ राक्षस लिपि १० मालवि लिपि १६ चाणक्की लीपि ५ उड्डी लिपि ११ नडी लिपि १७ मूलदेवी लिपि '६ यावनी लिपि १२ नागरी लिपि १८ करी लिपि
मौ०
लाडी सोरठी ससी हमीरी महायोधी
चौडी मरहठी सिंहाली कास्मीरी मालवी
लिपियें (३)
कान्हडी गूजरी कुकुणी खुरासाणी डाहली
कीरी परतीरी
मागधी ॥ इत्यादि लिपयः ॥ (११३ नो०)
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सभा श्रृंगार
अथवा
वर्णन-संग्रह
विभाग ६ जातियाँ, धंधे और व्यक्ति नाम
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१८ वर्ण ३६ पौन (१) घाची, घाछा, मोची, मणीहार, मइणारा मेर, मैणा, सुई, सुतार, सोनार, चूनगर, चित्रगर, नीलगर, तेरमा, लूणगर, ठंठारा, मठारा, लोहार, लोबाना', लोचना, लोढा, भोपा, भरडा, भिखारी, भील, कोळी, काठी, वणगर, कठीयारा, क्ळबी, कसारा, कुभार, चूडीगर, काली, वाणीश्रा, विप्र, वैद्य, वेश्या, वणगर माली, तेली, मरदनीया, मठवासी, गोला, गाधी गारडी, योगी, यति, संन्यासी, निंदा, सोफी, भगत, भ्रामीक, भेषधर, इत्यादि ३६ पवन ( स०) प्रत्यंतरे-छीपा, सिलावट, सीसगर, तुरक, तबोळो, तोरगर ( विशेष)
पेशेवार जातियाँ (२)
सोनी, पारखि, जवहरी गाधी दोसी, नेस्ती कणसारा, मपारा,
मणियारा, सोनार, कु भार, ठंठार लोहार, वलार3 पटउलोया, पटसूत्रीया, माली, तबोली हरथेरवलिया, जोगी, भोगी, वइरागी, नट, विट, खूट, खरड, लाठा, माठा, रंगाचार्य, उचितबोला साहसोला, मोटा बोला, मेलगर, मामगर, कउतिगिया, कुलहटीया नटावा, गांछा, छीपा, परीयट, सुई, ताई, तेली, मोची, सतूपारा, बंधारा चीत्रारा, तूनारा कोळी. पंचउळी, डबागर, बाबर, फोफळिया, फडहटीया फडिया, वेगडिया, सींगडिया, भोई, कंदोई, देसाळी कलाळी, गोली, ग्वाळ,
पसूयाळ राजपात्र, विद्यापात्र, विनोद पात्र । १०८ । ( स० १)
चौरासी वणिक जाति (३) । श्रीश्रीमाल, श्रीमाली, श्रोसवाल, पोरवाल। पल्लीवाल, बघेरवाल, दिसावाल५, मेड़तवाल।
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-
१. लवाना। २. गाटरी । ३. तराल । ४. मठा । ५. देसवाल ।
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मोढ, नीमा,
वाल,
(१४८) खंडेलवाल, अगरवाल,
जैसवाल,
सेझवाल। डीडवाल, कठोडा, सूराणा, सोनी। लाट,
भागद्रा,
नागद्रा । नागर,
हरसोला, नरसिंघपुरा । टसोरा, मेवाड़ा,
श्रामेटा, मेडतिया। सोरठिया, बीयाड़ा, खड़ायता, साडेरा। भटेरा, कुमा,
धाकड',
चीतोडा । लाडू, हरसोरा, हूबह,
नागोरा। नलोरा, साचोरा, वधनोरा,
सोझोता। कपोला, इत्यादि वणिक जाति ।
नैष्टिक ब्राह्मण (४) उत्तरासंग धोती, सऊतरिऊ जनोइ, हाथि प्रवीती, सिरु भद्रियउं, सिखा फरहरती, तिलकु वधाग्यिउ, गात्री सारु, त्रिकाल सध्याराधनु, प्रभात स्नानु, नित्यदानु । वेट पढइ, वेदान्त जाणइ, सिद्धात वखाणइ, देव तर्पणु, गुरु तर्पणु, ऋषि तपणु, पितृ तर्पणु, इसउ नैष्टिकु ब्राह्मणु ।
ब्राह्मण नी जाति (५) नागर, राजर, उदवट, भटनागर, सिणोरा, साचोरा, ढसोग, उदबर,५ साहोद्रा, नागद्रा, गेडवाल, खेडावाल, इटावाल, पल्लीवाल, श्रीमाल, गोलवाल, चोवीसा, लोडी सीखा, वडी-साखा, मथुरीया, सिनोडिया, कन्होलिया, वालिमिया, श्रीगोड, गुजरगोड, गोड, मेवाडा, चितोडा, कन्हडा सारस्वत, उदिच, घेणोजा, तदुप्राणा, मालवी इत्यादिक ।
विरुदावली वाचक छात्र नाम (६) एक राजा ने ब्राह्मण महा पंडित बोलाइ छइ ।। मुंहडा आगल छात्र भणे वृटावलि बोलइ छइ ॥ कुण २ ते छात्र तन्नामान:--
१.सेमवाल । २ वायढा । ३. थाकड़ । ४. गायत्री साधनु ( स० १) प्रारभ के कुछ धागे पीछे है। ५ गोंदा।६ मिवोठा ।.७. नागोद्रा.। = मिसा। ..पारणी।
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(१४ ) उपाध्याय, शकर, ईश्वर, महेश्वर, धनेश्वर, सोमेश्वर, गगाधर, गदाधर, विद्याधर, महीधर, धरोणोघर, भूधर, श्रीधर, दामोदर, महादेव, सिवदेव, रामदेव, मेवाडी, त्रवाडी, उमापति, गंगापति, गणपति, भूपति, देवपति, पंडित, जनार्दन, गोवर्धन, मुकुन्द, गोविंट । एहवा नाम विरुदावलो बोले ॥ . .
विरुदावली ( राजकुमार शिक्षक पंडित) (७) सरस्वती कंठाभरण, वाटि विजयलक्ष्मी सरण । ज्ञान सर्व पुराण, वाटी कटली कृपाण ॥ जोतवादि वृन्दवादि, गुरो गोविंद वादि। . घुक दिवाकर, अज्ञान तिमिर निसाकर ॥ वादि मुखभजन, रामसभा रजन । कुवादि प्रस्त्रर खडन, पडित सभा मडन । चादि गोधूम घरट्ट, मर्दित वादि मट्ट। , वादि मृगसिंह सार्दूल, वचोवात्या विकृतवादि मूल ॥ षडभाषा वल्लिमूल, परचाटि मत्तक सूल || वादि कुद कुद्दाल, रजितानेक भूपाल || वादि वेस्या भुजग, शब्द लहरी तरंग || सरस्वती भण्डार, चवद विद्यालंकार ॥ सूर्य सास्त्राधार, बहुत्तरी कला भरि ॥ महाकवीश्वर, प्रत्यक्ष परमेश्वर ॥ कूर्चालि सरस्वति, प्रत्यक्ष सारमेति ॥ जितानेक वाद, सरस्वती लघुप्रसाद ॥ ते षासंभलि पडित जाणी, पोताना कुवर नइ कुवरी मणवा मूको ।
राजपूत नी छत्रीस वंशावली (८) परमार,' राठौड, चौहाण, गहिलोत, दहिया, सेणचा, बोरी, वगछा,3 सोलकी, सीसोदिया, खेरमोरी, नाकुभ, गोहिल, पडिहार, चावडा, झाला, छूर, कागवा, जेठवा, रोहर वूस,° वोरड, खीची. खरवड, डोडिया, हरिअड, डाभी, तूंबर, कोरड, गौड, मकवाणा, यादव, कछवाहा, भाटो, सोनिगरा, देवडा, चंद्रावत । ए छत्रीस राजकुलो छह ।
१ पमार • वीर ३. काया ४. खयरमोरी, ५ निकुंभवक ६ गहिलोत, दिया, ७. भाला - गवाह छूता १० बारह । (में ३)
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( १५० )
."
महाजन नाम (8) पासणागु ग्रासणागु देवणागु पासचंद्र श्रासचन्द्र देवचन्द्र पासवीर जसवीरु भासवीर इसउं महाननु
__ महाजन विरुदावलि (१०) सुरताण सनाखत, दीवाणदीपक। अश्वपति, गनपति, नरपति, राय स्थापनाचार्य । राजसभालकार, राजसूत्रधार, रायबंदिछोड, राजवाल्हेसर । मर्यादामयरहर, पर नारी सहोदर । कलिकाल निष्कलक, विचार चतुर्मुख । रूपरेखा मकरध्वज, वज्राक भालस्थल, चतुः पथ चिन्तामणि । वाचा अविचल, बाल धवल, शील गंगाजल । गोत्रवाराह, शील गांगेय । - उभयकुल विसुद्ध, एकोतरशत कुलोद्योतकर, उभयपक्ष निर्मल हंसावतार । हर्ष वदन, सत्यवार्ता युधिष्ठिर ।' सोना जलहर, कूर सागर । कडाहि समुद्र, सालि समुद्र, वाहण वरिस । दारिद्रय मुद्रा विहडणहार, विहि लिखिताक्षर मीटणाहार, पचार्कादि संवत्सर मुद्राकणहार अछित ना विक्रमादित्य, विमणिम भोज । जगजीवन जीमूत वाहन, दुबला मुसाल, दुबला पीहर । ताक्या रउ तीर्थ, याचका रउ जीवन, राक रउ रक्षक। मारूनउ मालवउ, सकल जीव लोक कनक धार प्रवाह । ऋण मोक्षण कामधेनु, दोनोद्धरण धीर, दुस्समय सावधान । छत्रीत वेलाउल विख्यात, अष्टादस वर्ण पारिजात ।
विषम दुप्काल नीतूयार, कलिकाल कल्यावृक्षावतार । इत्यादि । दातृविरूदानि । (सू.) ।
साहुकार विरुदावलि (११) दान व्यसन वासित चेतसः । अय एकोत्तर शत कुलानि । पितृपक्ष १४, अमाव पद २०, अपन पक्ष १६, असुतापक्ष १२, भगनी पक्ष ११, अफूई पक्ष १०, १७६, अमासी पद १८, एवं १०८ पक्ष । . :
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( १५१ )
सोना जलहर, कूर सागर । कडाह समुद्र, शालि समुद्र वाहन । दारिद्र मुद्रा विहडनहार विहि लिना.(रक्त !) अक्षर मेटणहार, पचायन वादी, सवच्छर मुद्रा करणहार । अछति इला विक्रमादित्य, जीमणे भोज, जगत जीवन, जीमूत बाहन, दुबलानो पीहर, सकल जीव लोक कनक धारा प्रवाह ।। कृण मोक्षण कामधेनु, दीन धरण हार । दुःसमय सावधान, छत्रीस वेलाउल विख्यात, अष्टादश वर्ण पारिजात, विषम मार्ग भजनहार । इत्यादि साहुकार विरुदानि (वि०)
गुजरात श्रावक नाम (१३) रामजी, रतनजी, रूपनी, राघवजी, रायसिंघ, विजयसिंघ, जैसिंघ, जसवत जिणदास, विमल दास, वर्द्धमान, वीरजी, वजीर, 3 सामल दास, सूरदास, शातिदास, शिवदास । ऋखभदास, राघवदास, सोमजी, सुदर, सोमचद, करमचंद, कपूरचद, कमल' सी, अमरसी, विमलसी, अमथो, श्रोधव, हेबुश्रो, ढबूड, धरमौ, धींगड, धनराज, मनराज इत्यादि।
- दक्षिणी श्रावक नाम (१४) अथ दक्षणना श्रावक नामानि । बासवा, पासबा, आसबा, बोरबा, हीरबा, नारवा, सोनाबा, दानाबा, गोमाजी, रामाजी, तानाजी, कानाजी, मांनानी, खानाजी, इत्यादि ।
सीरोही श्रावक नाम (१५) अथ सीरोहीनी धरतीना श्रावक नामानि । भूधर, भाखर, परबत, डूंगर, राउत, दुलीचद, टेकचद, समरचंद, उत्तम चट, उग्रसेन, वीरसेन, भगोतीदास, भिखारीदास, भइरोदास, नंदलाल, बंदलाल, जगतसिंह, सबलसिंह, जेठमल्ल, टोडरमल्ल, टेकमल्ल, झाझण, खाखण, खारवण इत्यादि ।।
१-मेवाड़ । २. खेतन । ३. वजिट । ४. नीरवा । ५. सभाचद ।
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सभा श्रृंगार
अथवा
वर्णन-संग्रह
विभाग ७ देव, वेताल, शाकिनी, सिद्ध, व्यक्ति तथा
व्यक्ति कष्टादि वर्णन
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(१) देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, भगवती, शक्ति, राम, कृष्ण, हनुमान ।
आसपास [ लोक देवता] -खेत्रपाळ, गोगो, पाबूदेव, शक्तिदेव, रामदेव, रामापीर, भैरव, पीर, गउलपीर, भूत, सीतळा ।
(२) अथ शाकिनी करि माळ, दिती ताळ । मुख बोलती श्राळ माळ, उर्द्ध कीधा मुत्कल केश जाल । टेष्टा कराळ, हाथि धरती रक्त कपाळ । मुखि बोलती जाणे वैश्वानर झाळ, इस्यउ शाकिनी चक्रवाळ । जिसा मरु देशि कू तले, तिसा नयन युगल । जिसा पुरातन कोद्रव पलाळ, इसा पीळा केश जाळ।। निसा साप पणे, तिसा टपरा कर्ण। जिसी सिला उच्च सरल, तिसी अगुली विरल । जिसा ताल वृक्ष तरल, तिसा जघा युगल जिसी पर्वत नी दोतडि, इसी मोटी कडि । इसी शाकिनी ।। ७२ ।। ( जै.)
. (३) वेताल (१) । साग पाग समान कर्ण, श्यामल कजल समान वर्ण । निलाट चटित विकराले, महा भैरवानुकारि मुख ।। ज्वलन ज्वाला कलाप पिंगल दृष्टि, निरतर अंगार वृष्टि करतउ । कडकड़त महिष मोडतउ, पाताल विवर नी परि पेट संकोडतउ । आपणउ कपाल श्रास्फालतउ, दुदंरा रवि ब्रह्माण्ड फोडतउ ।' श्राकाशि तारा मंडल नोडतउ, कुलाचल पर्वत पातालिं घाततउ । हाथि तीक्षण काती नचावतउ, महा केपालि रुधिर पीतउ । गलइ रु डमाल वहता, अट्टहास करतउ, कातर आतुर वीहावउ
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(१५६)
प्रत्यक्षकाल, ककाल, कराल वेताल । काकीडा उदिर सर्प घेरोला नी माल धरतु । ताल तमाल जघा घर हरतउ। पग छापरा, कान टापरा, पाखि ऊंटी, निलाडी भूडो, धमिया लोह गोला, तिसिया वेउ होला । एवं विध वेताल ।। ११२ ।। जी०
(४) वेताल (२) सूप निसा नस्व. लोहउ निमि प्रांगुली, लोह तणी नीसाह निमा पाय ।
ताल वृक्ष निमी टोर्च जघ, जिसी कभी तणउ खापस तिगड उदरू । जिमन प्रवहण तणउ कूया खमउ, तिसि वाह । लामा छोट, नोवउ नाकु, वाकउनिलाह, त्रीभीटउ माथउ । इसउ रौद्र विकरालु वेतालु ।
(५) वेताल (३) मनुष्य फीटि हुयो वेताल,
फठि विलंबित रडमाल । करसल पातके, वभुनाभिभूत,
जिसो जमदूत । कान टोपरा,
पग छापरा । अाख ऊडी,
पेट कूडी। आख राती,
हाथे काती। भूडी छाती। विकराळ वेस,
विहावे देस। हडहडाट हॅसे,
धरामडळ फंसे । मस्तके अगार बळे,
रवि जिम कळाले। इस्यो रौद्र रूप,
तेहनो स्वरूप । कान कूप केतलो वखाणू,
इत्यो वेताल । (५) वेताल वर्णन (४)
भीषणाकार, अति रौद्राकार । मुखि करतउ फार फुत्कार, कृतान्तावतार । मुखि मेल्हत उ झाळ, हाथि देतउ ताळ । मस्तकि कपिल केश, स्थपुठ, ललाट । घटितका कराल दृष्टि, मुख विवर विरचितागार दृष्टि । कर्ण कुहर विहरमाण, भुजंगराज भीषण । ,
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(१५७०) चिपट नाशिका, श्रोष्टपुट विनिर्गत दीर्घ दृष्टि । , ताल विशाल जघा युगल, सकल स्थाली बधू कठ कालकायकाति। कटि कलितु कपाल । लोहितारुण पाणि विकराल, हास वाचालित दिगंतराल । एव विध वेताल ॥ ७३ ॥ जै० ।
(६) महासिद्ध मंत्र तण उ जाण योगींद्र', स्वर्गलोक समग्र अवतारइ२ । गगनागणि चंद्रादित्य: स्तभई, आकाशि वैश्वानर बालइ । आपणा वस्त्र आगि पखालइ५, पाणी माहि६ पलेवणउ प्रवालइ । पाताल कन्या प्रत्यक्ष दिखाइ, कउपर करता वन खड मोडइ । पातालि बालि तणा बध घोडइ, लोह शृंखला'° फुक जोडइ । पर्वत'१ ना शृग ढालड, शचर शृग गालइ १२ १-२४ ।।
(६) सिद्ध कर कमल कलित योगदड स्कध प्रतिष्ठित योगपट्ट१३ । प्रसाधित प्रचड चडिका मत्र, पिशाच साधन स्वतत्र । शाकिनी निग्रह साहसिक, रसायन प्रयोग रसिक। प्रदर्शित वलि पलित नाश, वशीकरणि अमूढ लक्ष । खडी चापडी प्रमुख विना कुतूहली। असाध्य साधक, आकाश पाताल बंधका। . ,
(८) योगीन्द्र ऊपर हुतउ इद्रिसहितु स्वग्रलोक पाणइ गगनागणि चद्रमादित्य स्तभइ
आकाशि अग्नि बालइ. पाताल कन्य का प्रत्यक्ष देखाडइ कडयड़रभु करता वनख: पोडइ
१ जोगी। २. अवतारें। ३ चद्रसूर्य थमे । ४. आकाश विश्वानर वले । ५. मां पखाले ६. माहे पलेवा प्रज्वालै । ७ देसाड़े। ८ कटक परोकरता वनखड मोडे। १. पताल वलि तणा वधन छोड़े, १० फूकै त्रौ । ११. पर्वत शृग उवा । १२. गाले। १३ व्यायोग।
इत्याटिक महासिद्ध जाणवो ॥ (पू०)
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( -१५८)
पाताल वलि तणा बंघ त्रोड़इ पर्वत ता शिखर फोड़इ इस महा मां थिकु शक्ति मंतु योगीन्द्र ॥
( ६ ) पूतली वर्णनम्
पूतली, जाणे काचइ कपूरि घड़ी, नाणे रंभा तिलोत्तमा श्राकाश हुंति पडी | जिसी श्रमृत सारिणी, इसी मनोहारिणी ।
निणि दीठि ऊपजइ रती, इमी पूतली ।
सा देखी नाणियइ चित्रामु चित्रितु, निमड पाषाण घटितु ।
जिसउ काष्ट उत्कीरितु, जिस मंत्रि स्तंभितु |
जितउ महाग्रह ग्रहित, जिसउ भूताधिष्टितु, जिसउ सन्निपात पूरितु । जिसउ मदन भिंभलु, इसउ हुइ प्रहिलु ।
न वेलई, न वेद्दं ।
न चालई, न हालई ।
न खेलइं, न बोलई |
- न नियई, न रमई ।
न नासई, न सम्मुख लागइ ।
-मन मध्यकरइ कमाउ || ३ ||
(१०) रोपातुर व्यक्ति
सोप नरः, भ्रकुटि ताडतउ ।
विकट चपेटाऊ पाड़तऊ, होठकरी फुरफरतउ ।
- वचन विन्यासि प्रमुख लतउ । विभीषणाकार मुखवरतउ, चारक लोचन फेरत । दुर्वाक्य बोलत, महा कोपि सयर डोलतड । जाणेकरि प्रज्वलत बड़वानल |
:
प्रति रोपावण, निचिड रात श्रवण । निष्ठुर वदन क्रूर लोचन । सर्व स्फुटोप कुटिल |
कन्जल दल श्यामल, निर्नालित निह्ना युगल ।
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( १५६)
चूड़ामणि प्रभा प्रहतांधकार नालु । सज्जित सज्ज सरल स्फालु स्फारस्फूत्कार भीषण | अत्यता' मर्य दूषण । अवनि वनिता वेणि दंडायमान, यमुना समान कायमान ॥ ४० ॥
(११) प्रसन्न व्यक्ति किरि धनदु यक्ष तूठउ, किरि वेतालु तसु सेव पयठउ । किरि क्ल्पद्रुम फलियउ, किरि कामु घटु माझि दलियउ । किरि कामधेनु निहागणि बाधी, किरि नवनिधि तणि लाधी । किरि चिन्तामणि रत्न हायि चडिट, किरि उदयु पुण्य अवडिउ । इसउ हृष्ट तुष्ट सानट हूयउ ॥ (पु० अ०)
(१२) प्रेमी सहर्ष, सस्नेह, सोल्लास, सविकास, सविभ्रम, सप्रेम, सोत्कठ, विहसित-वदन, उल्लसित वचन, रोमांच, कुचकित शरीर, सर्वालकार विभूषित, सर्वशंकादिदोषा दूषित, प्रेम संयोग ||३||
(१३) कांतिहीन [२विच्छाय श्याम दीन बदन हूड 1] जिसिउ चपेटा श्राहणिउ माकड, जि० डाल चूकउ वानर । जि० घाय चूकउ सुभट, जि० दाय" चूकउ जुबारी । विद्या चूकउ विद्याधर, फालै चूकउ दर्दर । जिम ठाम चूकउ भडारी, यूय भ्रष्ट चूको हरिणु। जिसिउ चौर अत्राण श्रशरण । राज्य चूकउ राजा", पदवी चूकउ पदस्थ, . लान चूको नारि, भीख चूकउ भीखाले ( स०१) ।
१ अल्पता । २. सकल विकास । ३. म० ३ में नहीं। ४. ऊच पेटा। ५. घावा ६. दुख । ७. जिम । ८. राजश्री। ६. पदवी ।
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( १६० )
(१४) भाग्यवान
तसुताइ रूपइ कुलि वहद्द, सोनमा मोर ऊडइ मोन बेले राति विहार, पटउवे भूमि बहुरिय चीतविया पासा पडद, ऊघउ करता पाधरउ था लक्ष्मी बाहिरि मूसाविइ, उपरि परसह, इस दीहाडउ ||
(१५) पुण्यवंत
जसु तराइ प्रदक्षिणा वर्त्त शख ।
चिंतामणि रत्न फरस पाखाण, सोना तण्उ पुरिसउ ।
कोटीं वेध रम, काली चित्राचलि वेलि ।
चोटिया द्राम, नल तरणि हीरउ ।
कवडी पोतइ, साखिणी पढमिणी वेउ लक्ष्मी निधान कलस श्राणइ | लाखी कर दीवउ प्रज्वलइ, कोटिध्वज लहलहइ ।
जसु तराइ रूपइ कोलू वहइ, सोना ना मयूर उडइ । सोवने फूले राति विहाइ सपाल्य सोना पहिरियइ । पटउले भूमि बाहिरियइ, चीतविया पासा पड़ा । ऊधउ करता पाधरउ थाइ, लक्ष्मी वारणई लाखई । अनइ ऊपर वाडइं पइसइ, इसिउ दीहाइत ।
(१६) पुण्यवंत (२)
नाणे धनढ यक्ष तूठउ, नागे करि वेताल सेवावाहि पइठउ । नाणि करि कल्पद्रुम फलिउ, किरि काम घट श्रावी मिलिउ । किरि कामधेनु गृहाणि बाधी, किरि नवनिधि तीणि लाघी ।
किरि चिंतामणि रत्न हाथि चडिउ, किरि पूर्व भवभाग्य ऊघडिउ ।
अथवा कल्प वैलि घरी गराइ पइठी ।
अथवा महालक्ष्मी मूर्ति मले घरि पइठी । भवति भूरिभिः ॥
१- गृणामणि ।
2
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(:१६१)
(१७) लक्ष्मीवंत वर्णन:उँची तो' अजान पाहु,' वागनो पानुदेव ॥ गोरी तो फटर्प, कालो" तो कृष्ण ॥ चलो जीने नो यामागे, योटो नीम तो पुन्यवन्त । जो ऊँचा बन्न पहिन तो राजेश्वर, सामान्य वस्त्र पहिरै तो तुमो टाता तो कवितार, जो न दे तो' 'छाना पुन्य करें वगुं बोले तो भोलो, न बोले तो मितभाषी जो लपट तभोगी, जो नपुंमक तो परनारि सदोटर इत्यादि ।
(वि० पु०)
एक अन्यप्रति में उक्त पाठ विशेष मिलता है। नुक्तिनारी प्रतोलीद्वार, सकल तत्व भहार कर्मवल्ली छेदन कुठार, चतुर्दशयोद्वार पचपरमेष्टि नवकार, पंदपावतार
(पू०)
थोदुं जिमइ तउ सुकुमार, झगडदू तउ व्यवहार अपहुंचवाण तउ पूरउ, जउ पहुचइ तउ सूरत लक्ष्मीवत जिमि करइतिमि छाजइ, 'धीर' जिम बोलइ तिम विराजह
इति वर्णकसभा कुतुहल में यह पाठ अधिक मिलता है।
(१८) लक्ष्मीवंत ( २ ) लक्ष्मीवतु । जइ ऊचउ तउ अजानु बाहू, जउ खाटरठ तउ वामण वासुदेव । गोरउ तउ कटर्प, कालउ तउ कृष्ण सोह गालउ ।
१ उचउ तउ • अर्जुनवाहु ३ वामणउ तउ ४ गोग्उ ५. कालउ ६ पूरउ आहार ७ खूनउ ८ जर दातार ६ जइन घइ १० तउ ११ साचदापी १२. महायोगी।
११
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( १६२ )
चणउं जिमइ तउ पूरठ श्राहार, थोडा नीमउ तउ पुण्यवंतु ।
नउ पटउला पिहरइ तउ राज राजेसरु |
नउ सामान्य वस्त्र पहिरड तड लवेसर 1 नउ दातार तउ वलि कर्णावतार ।
उ लक्ष्मी न वावर तउ प्रछन्न पुण्य करइ ।
जउ घण्उ बोलइ तउ भोलउं, न बोलइ तर मित भाषी ।
भोग चपल तड कंपवितार; जउ श्रविषह तउ परनारी सहोदर | नउ टालि माथइ, तर टालिये पुण्यवंत जि हुइ ।
श्लोकाः -
यस्याति वित्तं स नरः कुलीनः सः पंडितः सश्रुतवान विवेकी, स एव वक्ता, सच दर्शनीय. सर्वेगुणाः कांचन माश्रयंति ॥ - गुण वृद्धा तपोवृद्धा ये च वृद्धा बहु श्रुता ।
सर्वे ते घन वृद्धस्य द्वारे तिष्ठन्ति किंकरा: ॥ १०६ ॥ जे०
(१६) ऋद्धिवंतु - ( ३ )
ऋद्धिवंतु, पुण्यवंतु।
कर्पूर कुलगला करइ, श्रद्भुत शृंगार रस माचरइ
नितु नव नवालंकार बावरइ, उत्फुल्ल पुष्प शय्या श्रादरह | हींडोलाट खाटनी लीला घरइ, भोग पुरंदर हुनउ फिरइ । सकल स्त्री लोक लोचन हरइ, दृष्टि दीठउ मनि विकार करह । नव नवे लीला विलासे रमइ, मूँह पूंछी जिमह ।
कडि पूछी पहिरइ, खडोखली तणा पाणी लहिरइ । ललित गर्भेश्वर, द्रव्य अविनश्वर ।
शालिभद्रानुकार, मदन मुद्रावतार |
अश्रात तत्रोल समारइ, पंच प्रकार विषय सुख श्रमाणइ । ऊगि प्राथमिउ काई न जाणई ।
गाया
जाई विज्ञावं, तिन्निवि निवडंतु कंदरे विवरे । प्रत्युच्चियं परिबुद्धो जेण गुग्गा पायडा हुंति ।
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(१६३ )
( २० ) वणिक वर्णन रिद्धिवन्त पुन्यवत, कपूरे कोरला करे । अद्भुत शृंगार समाचरें, नित नवा अलंकार बावरें। कमल फूल त्रिदश आदरें, हिंडोला खाटनी लीला करें। भोग पुरन्दर होइं फिरे, सकल स्त्री जन लोचन हरें । दृष्टि राधो ठाम विकार न करें, नवा नवा विलास करें। महता भोजन जीमे, खडोखली तणा पाणी नहर । दयावंत चित्तधर, पर उपकार कर । ललित गर्भेश्वर, द्रव्य अर्चनेश्वर ( अविनश्वर ?)। सालिभद्रानुकार, मद मुद्रावतार । निरतर तत्रोल संभरें, पंच प्रकार विषय सुख माणे, अग्यो श्राम्यो न जाणे, दिन प्रति विलास हँसे, एहवा महाजन वर्से । भोग पुरंदर, सौभाग्य सुन्दर । भवादि जलधर, ताबूल सनागर । बोडी वैरागर, माननीय मनोहर । लीला अलवेसर, लीला शालिभद्र, इत्यादि भोग पुरंदर ।
(२१) श्रेष्ठि जसु बणइ प्रदक्षणावर्त संखु, चिन्तामणि रत्नु। . फरस पाषाण पुरिसउ, कोटि वेधु रसु, कालउ चीत्रउ । चोटीया द्रास, जलतरणि हीरउ, कवडी पोतह, सखिणि पदमिणि । वेड लक्ष्मी निधान कलस आणइ, लाखि दीवउ ज्वला । ध्वज लहलहइ, इसउ पनउतउ सेठि ॥
(२२) सुखी श्रेष्ठि श्रीमंतु, रिद्धिमंतु । काकनि करला करइ । फोफले कग्ग जडावइ । महु पूछी नीमइ । कहि पूछी पहिरइ । ललित गर्भश्वरु । शालिभद्रावतारु ।
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ऊगियउ प्राथमिउ कार्य न बाणदः । श्रश्रान्त तोल ममागह। पंच प्रकार विपय सुख माणइ । इसउ धनान्य सुखिउ तेठि॥
( २३ ) श्रेष्ठि पुत्र तुजन, सरल प्रकृति, दाक्षिण्यशील, प्रीचित्य गुग्गो पेत कृतम, नोतिपक्ष, सदाचार, उपकार निरत, दातार शिरोमणि, वजन, वच्छल, नगर मुख, रानमान्य प्रसिद्धि पात्रु , इसउ श्रेष्ठि पुत्र ।
(२४) श्रष्ठि प्रवहण यात्रा समुद्र अगाध मध्य, गुहिर गंभीर, प्रसप्राप्त तीर । तीहि समुद्र नइ तीरि, वावन्नउ बोहित्य नागरिउ ! आउला सूचिया, देशातरोचितक्रियाणा भरियां । का खभ ऊभविउ, 'नीजामा सज हुश्रा । ग भेला लोक भाडिउ, इधन पाणी पक्कान संग्रहिया । खाडिया पीसिया संवलु", सिढ़ ताडिउ । बलि बाकुलि किया, दिकपाल पूजिया । नाटक पेखणा कराविया, स्वजन लोक मोक्लाविउ । भले शकुने भले मुहत्ते, भले दिवसि, 'हूते प्रवहणि 'श्रेष्टि चडिउ ।
(पु० अ०)
( २५ ) निर्द्धन वर्णन (-१)
उंचउ तउ एरंड, खाटडेउ त3 हीनाग । घणुं बोलइ तउ लाफु, न बोलइ तउमोगु । घणु जीमह तउ भूखउ । उचा वस्त्र पहिरइ तउ ईतर, सामान्य वस्त्र पहिरइ तउ सुखीउ ।
वि० पु० प्र० में प्रथम पंक्ति नही । १ समुद्र तणइ, तीथि वापन्न - नीजाव सचिया ३ कमारउ ४ माडियउ ५. सावल, सिङ ६ प्रेक्षणक ७. शुभ ८. वर्त्तमानि हूते ६. पुत्र चडियउ ।
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(१६५') गोरउ तउ पाडु रोगिउ, कालउ.तउ कबाडी । व्यापारी तउ भडग, विषयी तउ सर्वधर्म बाह्य । विषयहीन तउ नपुंसक । पुरुष लक्ष्मी रहित,'तेहनइ कोइ न चीतवइ हित । बोलतउ होइ मीठउ, तउही न सुहावइ किण ही नइ दीठउ । गुणे करी पूरउ, तउ ही लोक कहई अणूरउ । घणुं किसु झखीवइ, मेलावा माहि नो लखियइ । लक्ष्मीयइ छाडियइ, ते कुण ही मांडियइ । सदोवउ सीयालउ, चड्या भागलि दीठइ पालउ । घरनी कलत्र, तेहइन मानइ जिम सत्रु । मोटायइ वंस नउ, न लेखवइ कोइ किणही अस नउ । इस्यउ दरिद्र पुरुष, सहू करइ कुरुष ।
(सू०)
(२६) निर्धन (२)
निर्धन-उंचउ तउ मसाण खंभ, खाटरउ तउ होनाग । घणउ जीमह तउ छारीउ, थोडउ जीमह तउ भूडऊ टाणउ'। घणउ बोलइ तउ लबाल लापड, न बोलइ तउ मोगउ। भला वस्त्र पहिरइ तउं ईतरवा, सामान्य वन्न पहिरइ तउ दरिद्री। गोरउ तउ श्राम वातीउ, कालउ तउ कबाड़ी । वेवइ तउ खात्र पाडिउ, न वेवइ तउ भडग । विपइ तउ सर्वधर्म वहिकृतः,विषयहीन तउ नपुसंक ।
श्लोकः
वरं रेणुवर• भस्म नष्ट श्रीनपुर्नरः पूज्यते परीणि वापि निर्धनस्तु कटापि न ॥१॥
गाथा:
पथ समा नत्थि जरा, दारिद्द समो पराभवो नत्यि । मरण समं नत्थि भयं, खुहा समा वेत्रणा नत्थि ॥२॥
पाठान्तर-१ भूडउ ऊणाटउ २ परवणि ।
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( १६६ )
(२७) निर्धन वर्णक (३) पुरुष लक्ष्मी रहित, तेहनह कोई न चीतवह हित ।। बोलता होइ मीठड, तउहो, न सुहावर किणहीन दीठउ ॥ गुणेकरे पूरज, तउही लोक कहइ अगरउ ॥ घणुस्यु झखीयइ, मेलावा माहे न लखीयइ ।। लक्ष्मी छडीयइ, ते कुणइ मडीयइ ॥ सदीव श्रोसीयालठ, चड्या अगलि हीडइ पालउ ।। घर नो, कलत्र, तेह पिणि गिणे सत्रु ।। मोय नइ वसनउ, न लेखवइ कोई किएही अस नउ । जउ ऊंचऊँ तउ एरंड, जउ मातउ तउ संड | गोरउ तर पडु रोगियउ, न बोलइ तउ सोगीयउ ।। कालउ तउ कबाडी, घणु बोलइ तउ लबाडी ॥ थोडउ निमई तउ दूखउ, घणु जिमउ तठ भूखउ ।। सामान्य वस्त्र पहिरइ त छीतर, उचा वस्त्र पहिरइ तउ इंतर I जउ पातलउ तउ विरंग, व्यापारी तउ भडग । विपई त सकामी, निविषई तउ अकामी ॥ दातार तड लंड, सूव तउ भड ।।। झगडद तउ नग, न झगडइ तउ ठग । जिम चालइ तिम त्रोटउ, जिम वालइ तिम खोटउ ।। इसउ दलिद्री पुरूष, तिण जगत्र करइ कुरखं ॥ जिवारइं लक्ष्मी त्रासइ, तिवारइ डील माइ गुण सर्व नासह ॥ . दीन भाषइ, तउही को न राखह ॥ इति दलिद्री वर्णकम् ।। कु.
(२८) निर्धन (४) उचो तो एरंड, खाटरो तो हीनाग ।। घणो भोलो तो लाकु ।। बहु बोले तो लबोल, न बोलै तो मौन । घणुं जीमै तो भुख्यो, योडुजीमै तो अभागीयो ।।
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(१६७') भला वस्त्र पहिरें तो ईतर, सामान्य वस्त्र पहिरें तो दरिद्री ।। व्यापारी तो भडग, विषइ तो सर्वधनवाह्य ॥ विषयहीन तो नपुंसक ॥
(२६) दरिद्री, पुरुष लक्ष्मी रहितु, तिह हुई कुणहुं न चीतवइ हितु । बोलतउ हुइ मीठउ, तथापि न सुहादू कुणहई दीठउ । गुणे करी पूरउ, तोइ लोक देखइ अणूरउ । घणउ किसिउ झखीयइ, मेलावह न उलखीयइ । लक्ष्मी छाडियइ, सुकुणिइ माडियइ । सदैव उसी श्रालउ, सुखासणि बहसण हारउ। श्रागलि हीडइ, अण वाहणे अनइ पालउ । घरनी कलत्र, तेहइ मानइ भणी शत्रु । मोटावइ वंस नउ, पुणि रिणि राउलि निमइ, इसउ दरिद्रो ॥ २० ॥ जै०
(३०) दरिद्रो वर्णन-(२) दरिद्री ना टापरा, जूनागढ ना छापरा ।। तिहा रहे माणस वापडा, ते महा लापरा । न जाणे श्रापरा ।। वाका वला, उपरि पडे सला। नीकन्ते कानसला। वासडा काला । घणा चडकलीना माला, विचमा साप ना चाला || कुणर दोसे ख्याला, गोरोली ना इडा ॥ मकोडा ने कोडा, धरती, माननी निरती, घडाधड करतो, जिणतिणसु लडतो, पागणे पडती ॥ घणा मेलना थोक, हीया यी न जाइ शाक, जे बोले ते फोक ॥ एह फुड, बोलें सदा कूड ॥ , घरमा दीसे धूड, धणीमा पिण चूड ।। परसाले चूई, अागणे सूइ, रीट रालो लुई ।। तितरें भिंतडा पडें, वइर बढें, वली वापडो उंचो चढे ।
१.
खट।
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विणठी हांडी, ते पिण किनारे खाडी ॥ थाली नी पर्डे माडी, पीसवानी वेला मारे डाडी। तुस ना ढोकला ते पिण बहीं मोकला, माथे चढ़े जुना टोकला, रोव छोकरां, समझावे डोकरा ॥ खावा न मिले धान, देखीने भडकें सान, देखीने नाइ डील नु चान ।।
(स्वा०) आगणे कुतराना घुरघुराहट, रहेता महा उचाट। सुवा न मिले खाट घणा माखी ना भिणामिणाट || वारणे पिण तुटी त्राटी न मिले एक सूतनी अाटी, दिले पछोडी पणफाटी, निागणे रोडी ।। गाठे न मिले कोडी, घणी धणीयानी नी सरखी जोडी ।
आगणे काटानी वागर, नाता न मिलै श्रादर । वेसवां न मिले किहा पाधार, जाता ऊघपजे डर || घणा अजगर, शरदीना घर ।। उदेही ना भर' अनेक कोल ना दर । उदरना भर, एहवा दरिद्री ना घर ।। इति दरिद्र घर वर्णनम् ।। ५ ।। ( क ) (कु.)
(३१) जुबारी निरतर जू रमइ, आपणउ सयर दमा सगल धन गमइ, भीख भमइ, अलीख (क.) भाषण करइ, निज कुटुंब परिहरइ । अपमान श्रादरइ, अनर्थ परम्परा वरइ जाणी पाणी दिव्य करइ, अनेक नीच कर्म समाचरह सात पूर्विज तणी क्षणि (ऋद्धि) क्षयं करइ, आपणा मस्तक ताइ रमइ ।।२।।
(३२) चोर
निविष वेस, करइ विवरि प्रवेसु । चडइ श्रटालि मालि, पइसइ परनालि खालि । महा निसंकु, अतिहि त्रिवंकु ।
१-चर।
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((१६६ ) :
छाने पगि चालs, कुणहई हुई ! श्रापणु चित्त नालइ ।
चार चद्म उपवाडइ, कमाड नी कोडि उघाडइ ।
नउल ना साकल वाढद्द, भुहरा ध्याकेकारण काढइ
दीह सूर, राति पग हंठिद्द करइ,
T
नगर सहु सूत्रइन मिलइ कहि नइ साथि, रुधइ नाइ ताली देई हाथि |
राय ने भंडार, खात्रि पाडइ, पग रमाइ इसउ चोरु || १७ ॥ जै०
( ३३ ) चोर वर्णन (२)
विविध वस्तु हेर, बोलाव्यउ बोल फेरइ । चढ़इ माल प्रालि, पइसइ परणाल खालि । कमाड ऊघाडइ, पणि सूतउ को न जगाडइ |
घोर निद्रा द्यइ, कान कोटिरा श्राभरण ल्यइ । कटारी यइ बधन वाढ़इ, पर्वत प्राय केकाण काढइ ।
चढ़िउ चोर पवाडइ, राउला भडार फाडइ ।
खलक नइ घरि द्यइ खात्र, न छोडइ छइल नइ छन ' थात्र ( पा १ ) |
घण निस्यउ गाउ गात्र, दारिद्रय छेदिवा दात्र ।
दीसह दीसह शात, पण रात्रिइं तउ साक्षात् कृतात ।
विणासीयइ त हइ न मानह चोरी, बाध्यउ वाढी जाइ दोरी ।
लोहनी साकलोडर, घडी न रहइ खोडइ' ।
हाकिउ ऊठी ऊजाइ, संधिउ ऊधसी धाइ । करि कोइ करवालि, इ लक्ष लोक विचाली । गढ़नी परनाल, पहसतउ वाघड झालि ।
पाणि ए महापापी, जेणह प्रजा सतापी । सू०
१ छात्र
१ कु० विशेष पाठ इसके वाद -- सीसम ना किमाट फोटड, मरण मीम श्रोट दीठु कार न छोटर, पगे छछोहउ दोटर, डीलइ जोर, कर्म हि शोर । मननउ कठोर, जाणे खा परउ चोर ।
२ इसके वाढ का विशेष—काठउ वाधउ, पोता नउ कमायउ त्लाउ । ३ कहिये सी वात, गणि धीर कहइ ए चोर अवदात |
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( १७०) (३४) वृद्ध वर्णक
जिवारइ जरा चापइ, तिवारह कर वेवे कापह, पग थरहरइ ।। कडि थाइ कुबी, वांसा नीसरह दूवी, तडपडई 'थीमीट, तास कायइ वहइ रीट, माथउ धूजइ, चालता मासन पूजइ, अाख गई ऊडी, जेहवी धोबीनी कुडी, डागडी झालइ, हलवे हलवे हालइ, मुइडइ पडइ लाल, हसई वाल नइ गोपाल, टागे पडइ वल, सगले टीलइ सल, दाढ दात सगला पड्या, काने तउ ताला जड्या, खाजखिणेइ जिसइ, पीहिरणु खिसइ तिसइ, हाल हुकम न गालइ, डोकरा नु भाख इ कानई, मास गल्यउ, चामडउ नीचउ ढल्यउ, चिंता करी बल्यउ, माथज पल्यउ मुंश्रा रउ जालउ । टाबरा नउ श्रोत्यालउ॥ सहू ना करइ विषास, इसउ वृद्धावास ।। घणातण डोकरा दुखी, ना केईक पुन्यवत सुखी ।। मन सवेग श्राणउ, जउ इसउ बूढापणउ जाणउ, गणि कहइ कुशलधीर, इम नाणि धर्म सूं करिज्यो सीर,
इति वडपण वर्णनम् ।। कु.
(३५) क्षतांग मनुष्य टूटा, पागला, आधला, असम, अनाथ, असरण । होन, दीन, खीण, राक, रोगी, बधिर, बोबडा, गुगा । गहेला, टोहिला, दूबला, भूखा, तरस्या, इत्यादिक ना जाण ।
(३६) फूहड़ स्त्री
कानसियाली भरिया राखडा, फूहड़ा भरिउ साडलउ । श्रोघरसाला भरिउ ओढणउं, हाथि पाणिउ नहीं, पगि पाणी नहीं ।
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( १७१) मलि मलिन सरीरि, दीठि श्रोकारि आवइ, इसी फूहड़ी सुगावणी धरनारि कलिकालु प्रचुरु ।। (पु० स०)
(३७) व्यक्ति कष्ट
तृषा, भूख, भावठि, ठाढि, यह तापता, बडो, लू उंगाल, धूसर, भारत, उचाट, अनो अजप, इत्यादिक भोगव्याजीव ।
(३८) व्यक्ति प्रापद (२)
श्रापदा, कष्ट, कलेस, गड, गुबड, ताव, सीसक, मथवाय, आफरो, अजीर्ण, उपद्रव, मार, छल, छिद्र, भूत, प्रेत, पिशाच, साकिणी, डाकिणी, यक्ष, योगिणि, व्यतर, वाल वेरि ।
रोग ८४ जाति ना वाय, ३६ जात ना फोडा, २१ जाति ना प्रमेह, २८ जातिना, आखना रोग १३ नाति ना सन्निपात, १२ जात ना ताव, ६ जाति ना श्लेष्म, ६ जात ना पित्त, दया पाली हो तो एती आपदा न पामियइ । रोग सोग वियोग।
(३६) व्यक्ति रोग (३) १२ ज्वर, १३ संनिपात, - १६ प्रमेह, ५०० आमवत, ८४ वायु, ३६ महावयु,, - ८४ दोष ४५ खाधा विकार १०८ फोड़ी, ५ गुल्म, ५ क्षयन, २० श्लेष्म, ८उदर,
१०८ व्याधि, १०८ सइमउमृत्यु ७६ चक्षुरोग, कास श्वास, हरिषा, (हास) अतिसार, गुडगूबड। देह रोगाः ॥ १०६ जो०, ।
(४० ) व्यक्ति रोग (४) । जलोदर, भगदर, क्षार, खयन, खास, स्वास, हडकी, हरस, हीक, कुलण, वलण, अजीर्ण श्राफरो, अतिसार, अमार, आधासीसी अतर्ग्रल, वाय, वेमचीवेगवमन, वासी छडप्रमेह, पाणहिपीन सपघरी प्रवाला नासूर, नकलोही, नीनामी, गोलो, गुल्मगोलो, फोहो-फूलीफोडो, रागपित्ति रगतविकार, पाणी विकार, सोनोश्लेष्म छाया, छाणी उदर विकार, कफ, कोढ, कोरड, कहमीया लोहीगण,
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((१७२'), सग्रहणी, सीताग, सन्निपात, श्रूललीसक, चादी दाट, वातपित्त, मूळ, मधुरो, बभूत, राघण झोलो, दृष्टिदोष नेत्रदोष, धात, निर्धात, पुन्य यकी ए माहिलो एकेह प्रकासन पामे।
(वि०)
आमिक, मेषधार, जागजोती उपचारका रेछणा, उर, मीलारी, देव, देवला
वेद, वारा, जाणनोसी, देव, देवला, डाकोनरा भोपा, भरडा, भगत, भ्रामिक, भेषधर, भीखारी, भूत्रामडल, जोगी, जती, नदा सोफी, सन्यासी, पछणा, इछणा, उजणा, उतारणा, डोरा मादलिया, तेल, अम्निाय उपचार इत्यादि ।
(४२) व्यक्ति कप्ट-दुस्काल वर्णन दुष्काल वर्णन एहवइ एक पडिउ दुकाल, ठामि २ दीसह नर कपाल । रुंड सुंड मय धरा पीठ चाचरि 'लाली सकीवइ नीठ । नेरती वाय वाजइ, भूपति नांइ हीया भाजइ । मिल्या मेह नासइ, को केहनइ न रहइ पासइ । धनवंत पणि सीटाइ, तउ रांक री किमी गति यायइ । मारग हुया महा विषम, संपरइ चोर विहुगंम' । गोरू विण दीसह गाम देस, वाल्हा छउगया वि)देस । माणस माणस नइ भखइ, आपण पारका नो लखइ । लोक वेचवा लागा पुत्र, छाड़ोजइ फूटराइ कलत्र । रोता बालक देखि, नूपजइ टया (नइ) रेख । लोक घणा निर्द्धन यया, उत्तमइ नीचनइ घरे गया। बडायइ जे जंगम जती तेहइ पणि ताकइ कोई सती। केईक जे घांन रा धणी, तेहइ पणि वावरइ धान मिणी। पाताल भोग लीजइ, सागउ सगानइ न पतीनइ । पहिलं जे लेता वनस्पती, तेह पणि न दीसइ रती। लोक भला लाज छोड़ी, मागवा लागा हाय प्रोडी।
(जो०) बीना भोग सर्व भागा, सत्तु धांनरइ ध्यानि लागा। जे कहीजता दातार ते पगि मागइ कही करतार । वीसासर्व कला गीत, घरि घरि कीजइ अन्नरी चीत। . १. चाली २. किनी ३ चिडु ४ अन्न ५ सहू
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( १७३ ) रूडायइ राउत राजा, ते पणि ताकइ लोक ताजा । सविलोक निर्द्धन हुया, बाप बेटा रहइ जुजूया । वचिवा लागा लोक, सगपण 'सधि हुई फोक । घणुं कित्यु जे पतिसाह, ते पणि करइ धान ऊमाह । कितनुं कहीयह ए सरूप, जेहनी बात भय रूप । एहवइ महा दुकालि, २जगडू टीयइ दान विसाल । सूल
इति दुर्भिक्ष वर्णन।
१. सेंध सहू २ धीर पुन्यवत धरिदीयइ दान सालि ! (कु.)
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सभा श्रृंगार
अथवा
वर्णन संग्रह
विभाग ८ जैनधर्म सम्बन्धी वर्णन
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(१७७)
- (१) तीर्थकर नगभूषण, जगदेकरक्षण। तीर्थकर, सर्व पाप क्षयंकर। विस्तीर्ण ससार सागर, गुण रत्नाकर करुणा निधान, सकल देव प्रधान, त्रिभुवनाधिप रूप, प्रकाशित संसार रूप । लोकोत्तर चरित्र, गंगाजल पवित्र गात्र । परमानंद दायक, सकल कर्म घायक । निर्टसित दोष, नि:प्रतिम संतोष । सकल क्ल्वाण कारक, अाठमद निवारक । पाटकर्म जीपक, पेंतीस वाणीगुगा कथक | आर्यदेश भविक जीव उपदेशका चउतीस अतिशय विराजमान, बार गुण विराजमान । सहवा वीतराग देव (पू०)।
(२) प्रथम ऋषभदेव जिन वर्णन युगला धर्म निवारणु, संसार समुद्र'तारणु । मरुदेव्या स्वामिनी कुक्षि सरोवर राजहंसु, इक्ष्वाकु कुलावतसु। . श्री नाभि नरेन्द्र नदनु, मुक्ति श्री हृदय चदनु । शत्रुनय मौलि मडनु दुष्टारिष्ट खडनु । केवलजान भास्करु, सर्व सौख्य करु । अशरण शरणु, कुगति हरणु । अनाथु नाथु, नगपति श्री जुगादिनाथु । अयश हरण, परम सौख्य नउ देणहारु तउ दानु देवउं अति चारु ॥१३॥ (ले०),
(३) आदिदाथ (१) नाभि नदनु, सकल जगत्त्रय' मडनु । पचशत धनुष मान, तापोत्तीर्ण सुवर्ण समानु। अति श्यामल कुंतलावली विभूषित स्कधु, जगत्त्रय तणउ बंधु । १ मही । २. प्रमाणु। ३ हरगल गवल । १२
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(१७८) केवल ज्ञान लक्ष्मी सनाय, मन्य लोकन्दि मुक्ति मार्ग तणउ दिखाडह साथ । संसार कूपि पडता प्राणि वर्ग' हुइ दिइं हाथ । युगला धर्म निवाग्वा समर्थ, परमेश्वर सदर्थ । श्री आदिनाथ श्री संघ तणा मनोरथ पूरउ ।१। जो०
(४) जिन विंव (१)
नासाग्र न्यस्त दृष्टि युगल, श्रीवत्सलाछित वक्षस्थल । पशासन विधृत कर युगल, प्रकटी कृत वस्त्रांचल । शरीर तेजच्छटा छोटिताधकार जाल, त्रैलोक्य सुखाल वाल । ६३जो (२)
नासाग्र विन्यस्त दृष्टि युगलु, श्रीवत्स लाछित वक्षस्थलु, पमासनोत्सग विधृतकरकमलु, प्रगटीकृत वस्त्रांचलु शरीररश्मिच्छटाच्छोटितान्धकार । अस विंबु । ( पु. अ.)
(५) परमेश्वर की नख कांति निसउ गुजा तणउ अर्द्धभाग, जिमउ पद्मरागु। . जिस्वउ मजीठ रगु, सिट बासू ण उ पुष्प, जिसउ प्रवाल भंगु । जिसउ चोल मजीठ, जिसी राती टसरि । जिसी अशोक तणी कूपलि, जिसी कुपति कपि कपोल । जिसउ विंची तण फूलु, जिसउ अभक्रक । ' जिसउ सिंहरू, जिसउ ऊगतउ सूरू। जिसउ कुंकुम, जिसउ कुसुमउ । जिसउ हिंगुल, जिसउ शुक चचु । तिसी परमेश्वर तणी चरण नख काति ।। ८६ ॥ जै० (६) केवल ज्ञान से देखा हुआ अन्यथा नहीं होता (१)
कटाचित् समुद्र मर्याद मेल्हइ, कदाचित् श्रादित्य पश्चिम जगइ ।
" अमृत विषु परिणमइ, ४ पटता। ५. भगवत।
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( १७६)
कदाचित् चन्द्रमा अगार वृष्टि करइ ।
पाणो माहि पाषाण तरह। मेरु चूलिका चलइ, वाचस्पति वचन फलइ। शिला तलि कमल विकसइ, गंगा नलु पश्चिम बहइ, अभव्य हृदय धर्मोपदेश रहइ । मानुस सरोवरु सूकह, सत्पुरुष प्रतिपन्नु चूकइ ।
मेदनी मंडलु पातालि जाइ, केवलज्ञानु दृष्ट तोह अन्यथा (न) थाई । पु० अ०
७ केवल ज्ञानी के वचन अन्थया नहीं होते [२] कल्हारई' समुद्र मर्यादा मेहइ, नदी तणां वृंद पाछां पझेलई । क० सूर्य घोरांधकार करइ, क० चन्द्रमा अंगार तणी वृष्टि करइ । क० पापाण" खड जल माहिं लागमा तरह, निर्भाग्य मनुष्य हइ लक्ष्मी वरइ। क० सकल दिशा मंडल फिरइ, क. मेरु पर्वत्त वाय करी साचरह । क० वेद विद्या विदग्ध पुरुष मरइ, क. पवन वन माहि स्थिर पणउ आदरह। क० वेलू माहि पीलता तेस्न नीसरह, क० पूर्व भवान्तर नउं कर्म साभरइ । क० सूंकडं रूख फल फूलि फरी विस्तरइ, क० सूकड इत्तु खड रस क्षरइ' । क० कैलास चूला चलइ, क० वृहस्पति वचनि करी स्खलह। १० क० कुलाचल एक स्थानि मिलइ, क. अघटतउ संयोग मिलइ । क० गगाजल पश्चिम वहइ, क० अभव्यनइ ' मनि धर्म रहा । क० मानस१२ सरोवर सूकइ, क० सत्य हरिश्चंद्र प्रतिशा थकह चूकइ । क.पृथ्वी१3 मडल पातालि जायइ, के वल ज्ञानी कथित तउ ही-अन्यथा न थाई ॥५॥
(जो०)
वृष्टि करइ,
लागमा तरह,
क
ल दिशा मंडल
१ किवारे २ ना उद्धरण ३ ठेलइ ४ झरै ५ जलमा पत्थर तरै ६ लगारेक तरइ ७ फेरिव्यो फिरें
८ ब्रह्मा वेद न उच्चरे ६ सुगुरु १० खल ११ पाखण्डौ १२ रत्न कक्क दहे अन्य प्रति में इसके बाद "कुलवती भर्तार मुके" पाठ अधिक हे । १३ आकाश ।
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( १८० )
( ८ ) केवलज्ञान
विशेष अतिशय निधान, सक्ल ज्ञान' प्रधान । मोहाधकार विच्छेदन भानु, त्रोटिता शेष कर्म सतानु | त्रिभुवन जन सकल संदेह छेदक, श्रच्छेद्यभेद्य प्राणी-गण हृदय मेदक । अनतानत विज्ञान, इसिउ ऊपनउ केवल ज्ञान ३ | ३ || जो०
( ६ ) समवसरण ( १ )
उत्पन्न दिव्य विमल केवल ज्ञानावलोकित सकल लोकालोक स्वरूप । सुवर्ण सिहासन छात्र चामरादि श्र महा प्रातिहार्य्यं शोभमान समानरूप देवाधिदेव, विहित सुरासुर सेव ।
त्रिभुवनैक नायक, सकल सौख्य दायक ।
त्रिभुवन जन नयना प्यायक, निर्जित पंच सायक ।
चउत्रीस ३४ अतिशय सहित, पात्रीत ३५ वचनातिशय परिकलित । चउस ि६४ इन्द्र सहित, श्रष्टादश १८ टोष रहित ।
घात्य कर्म चतुष्टय मुक्त, देवता कोटि युक्त ।
यदा कालि नगर समीपि श्रवइ, तिवारइ आपणइ भावइ । चतुर्विध देव निकाय समोसरण नीपजावइ ।
तिहा पहिलू देव निर्मित, सवर्त्तक वायु विस्तरइ |
तृण काष्ट, कचवर अपहरह, आकाश मेह पटल पसरइ । सुगधोदक वृष्टि करइ, फूल पगर भरइ |
योजन एक प्रमाण भूमिका, विरचित अगर धूमिका । मणि रत्न सुवर्ण सिउं साधी, गुरूड रत्नमय पीठ बाधी ।
ऊपरि जानु प्रमाण पच वर्णं कुसुम वरसई, चिटिसि दिव्य परिमल विलसइ ।
उदार रत्न, १ सुवर्ण २ रुप्य ३ मय त्रिणि प्रकार 1
मणि, रत्न, हेम मय कोसीसे करी सदाकार, समस्त विस्व माँहि सार ।
पुण्यावतार, तेजि करी पूस्कार |
च्यारि (४) प्रतोलीद्वार, जिहा देवज प्रतीहार |
तिहा बिंहु पासे उच्चैस्तर सुवर्णमय स्तंभ, ऊपरि मणिमय कुभ |
१ किवारइ • लगारेक तरख ३ ।
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( १८१ ) . इद्र 'धनुप मान मूरण, तिसिउं रत्नमय तोरण ।
ऊपरि प्रत्यक्ष जिसी मागलिक तणी पालि, तिसी वंदर माल । अति पवित्र, विसाल छत्र । उदार स्वरूप, कनक रत्नमय पूतली तणा रूप नयनइ जोता उपजावइ सुख, इस्या इद्रनील निर्मित मगर मुख । जिहा लिख्या सिंह, शाल, गज, इसा निर्मल नीरन पचवर्ण धज । एहवा समोसरण विचालि, मणिबद्ध पीठ विशालि । सकल मागलिक मुख्य, बार गुण र अशोक वृक्ष । तेह तणइ तलइ, स्वर्ण रत्नमय सिंहासण, जगन्नाथ नइ वइसण । तेजि करी जोई सकीयइ नीठ, इन्यु, सुवर्णमय पायपीठ । निस्या हुवइ यवल कमल सहस्त पत्र, इत्या पनरह (१५) प्रातपत्र छन । व्यतर मध्यस्थ अमर, देवाधि देव न इं ढलई चमर । अधरी कृत दित्य मडल, तीर्थकर लक्ष्मीकर्ण कुडल । जगदीस पुठिइ झलकइ भामडल । जेहनइ दर्शनि मिथ्यात्व पटल टलइ, तित्यु आगलि धर्मचक्र झलहलइ । आकाशि मधुर ध्वनि देव दुदुभि वाजइ, गाजइ । तेह नइ निर्घोषि करी गगनागण । पारतीर्थिक तणा भडवाय भाजइ, पापीजन पइसत्ता लानह । रुडा सवे विरूद बाजड, सहस्त्र योजन उच्चस्तर इंद्रध्वज लहलहइ । धूप तण परिमल मह महइ, इद्रादिक देवता गहगहह । वामित्र तणी कोडा कोडि द्रद्रहइ, मनुष्यनी कोडि आवइ मननइ रह रहइ । इसिइ प्रवसरि, एक देवगति गान करइ, एक श्रुति धरह । एक सिंहानाद उच्चरह, एक जग्गनाथ पासइ फिरइ । एक विचित्र वाजिव वा यइ, एक रग करिवा सज्ज था यह । अासरागरम नाचइ, तीर्थकर तणी भक्ति करीवा राचह । दुष्ट वनचर प्रापणा श्रापणा जाति वइर परिहरइ, परस्परइ प्रीतिवत हूता सचरइ । एणइ एहवइ समोसरणि, मार्गि काटे जवे थाइते । पृष्टानुगामी पवने वाइते, पोखी ए प्रदक्षिणा वर्तिजाइते । परमेश्वर तीर्थंकर । नव सुवर्णमय कमलि पाय स्थापतउ, तेजिकरि दसइ १० दिसि व्यापतउ । पूछिया तण उत्तर प्रापतउ, जन परम्परा नइ पाप थकी मूकावत्तउ।
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( १८२ )
गज गतिर चालतउ समस्त भव्य लोक तरणा लोचन नह श्रानंद उपजावतउ | भव्य जीव दराइ हृदय कमलि बोधि बीन वावतउ ।
पूर्व टिसि तणइ द्वारि पइसी, पूवाभिमुख सिंहासन वइसी । चतुर्मुख होइ, भविक सम्मुख जोइ ।
वारइ (१२) परिषद पूरी, मिध्यात्व मान मूरी, पापकर्म चूरी । सर्व सत्त्व साधारिणो, योजन नीहारिणी, अमृतानुकारिणी । वारणीयइ करी, लोक ऊपरि हित आदी ।
चतुः प्रकार, सर्वसार, जग त्रयनइ श्राधार ।
धर्म्म मार्ग उपदिसइ, भविक लोक तराइ हीयइ वसइ । श्रनेक भव्य जन आदरइ धर्म्म, त्रूटइ जिथी अशुभ कर्म्म | पामीयइ मोक्ष सम्म, इति समव सरण । (सू०)
(१०) समवसरण (२)
योजन लगइ खेहनुं विस्तार | देव कृत कचवरा पहार |
गंधोदक सींचवइ । सौचाम्यसार । पचवर्ण जानु प्रमाण जिह कुसुम सभार
देव कृत मणि कनक रूप्यमय त्रि प्राकार
विशाल शाल भंजिका सहित रत्न मय दो जेहनु द्वार |
यथा स्थान स्थित गणवर देव देवी प्रभृति वार सभा परिवार ।
उच्चैस्तर तोरण पताका किंकिणी नउ झात्कार ।
धूप घटिका निर्गछत् । कृष्णा गुरु कु ढरुक तुरुकनो निहाँ धूपोद्वार । चतुर्द्वार | एवं विघ समवसरण || छ || पु०
(११) समवसरण (३)
जानि इन्द्रादिक देव श्रावइ, समवशरण तणी भक्ति भावहि ।
एक देव स्कार नीपजावर, रुप्यमय प्राकार, एकदेव विस्तारित तेजः प्रकार निरजावर स्वर्णमय प्राकार |
एक देव मणि रतोद्योत विघटितांधकार निपजावइ, रत्नमय प्रकार |
एक देव श्रति उदास, नीपनावर प्रतोली द्वारा |
एक देव लोक लोचन समुल्लासन, नीपलावर सिहासन । एक देव प्रकाशित टिग्मण्डलु, नीपनावर भामडलु ।
एक देव वित्मापित जगत्त्रय, नोपजावर छत्र त्रय ।
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(१८३ ) एक देव पल्लव निकुरंब पूरितान्तरितु, नीपजावइ किकिल्लि वृक्षु । इस धजविंध पताका समलंकृतु समवसरणु रचहि । पु० अ०
(१२) समवसरण में देवों की विविध भक्ति ज्ञानि ऊपनद, इद्रादिक देव श्रावइ समवसरण तणी भक्ति साचवइ'। एकि देव अतिस्फार, नीपजावइ प्राकार । एक तेनः संभारभासुर सुर करइ सुवर्ण प्राकार। एकि रत्न द्युति विघट्टिताधकार करइ रत्न प्रकार । एक उदारस्फार नीपजावई प्रतोलीद्वार । एक लोचन समुल्लासन नीपजावइ । सिंहासन प्रसारित दिग्मडल, नीपजावइ भामंडल । विस्मापित जगत्रव, नीपजावई छत्रत्रय । कोई संपादित भुवनोत्कर्ष, करइ कुसुम वर्ष । के० भूमि स्थित धवल ढालइ चमर युगल | के० दवेक्षण करइ प्रेक्ष (ण)। के० विस्तारउ सर्व सार, वीणा झंकार । केई अति स्फीत, गायई परमेश्वर नउ गीत ।
१३ जिनवाणी वर्णन (१) बारइ परिषद पूरि, मित्थात्व मान मूरि, पाप कर्म चूरि । सर्व सत्व साधारिणी, योजन नीहारिणी । चतुर्दा धर्म प्रकाशिनी, यारि कषाय निर्नाशिनी । भव्यजन कणामृत साविणी, कुमत विद्राविणी। ससार समुद्र तारिणी, आश्चर्य कारिणी। पर दर्शन क्षोभिणी, चतुत्रीस वचनातिशय शोभिनी । सकल क्लेश विश्वासिनी, उत्तम चतुर्विध सघ प्रशसिनी। अष्ट कर्म बल विदारिणी, दुर्गति पतजनतोद्धारिणी। सभा जन ससय हारिणी, मोक्षोपाय विधायिनी, सर्व वंछित दायिनी । इसी वाणीयइ करी, लोक ऊपरि हित श्रादरी । चतु. प्रकार, सर्वसार, जगत्रनर आधार । धर्म मार्ग उपटिसइ, भविक लोक तणइ हीयइ बसइ । सू० । १ भावदि रुप्पमय प्राकारू ।
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( १८४ )
(१४) जिन वाणी वक ( २ )
श्री जिनवाणी, सुणिज्यो भविक प्राणी । एछ मुक्ति श्रहिनाणी, परभव नउ सवल जाणी || रउ विवेक आणी, छोडउ ग्रवर विकथा कहाणी | नउ वाउ मुक्ति रूप पटराणी, घणुं स्युं कहु ताणी । जिसी मिद्धात बखाणी, श्रमिय समाणी ॥ वाणी बारह परपद पूरी, मिथ्याध्वमान मूरी । पइत्रीस वचनातिशय सनूरी, पापकर्म-पूरी ॥ सर्वसत्वर्धारिणी, योजनानुहारिणी । भव्यजन कर्णामृत लावणी, कुमति विद्राविणी ॥ ससार समुद्र तारिणी, महा श्राचार्य कारिणी |
2
ष्टकर्म बल विटारिणी, दुर्गतिपतजनतोद्धारिणी ॥ सभा जन ससय हारिणी, मोक्षोपाय विधायिनी । चतुर्धा धर्म प्रकाशिनी, च्यार कषाय निर्नाशिनी ॥ मालव कौशिक सग शोभिनी, पर दर्शन क्षोभिनी । सकल कर्म ध्वमिनी, कलिमल ख्यालिनी ॥ उन्मार्ग मेदनी, मिथ्यात्व छ नी ।
इसी वाणीय करी लोक उपरि हित श्रादरी ।
चतुः प्रकार, सर्वसार, जगत्र नद्द आधार ॥
धर्म मार्ग उदिसइ, भविक लोक वणइ "वीर" हीये वसन् । एवं चिव भगदद्वाणी- सर्व वान छिद्रापनी । स० कौ०
(१५) जिन वाणी - ( ३ )
वीतराग तणी वाणी, भव वेलि कृपाणी ।
ससार सागर समुतारणी', मद्दा मोहाधकार दिनकरानु कारिणी ।
क्रोध दावानलोपशम्मिनी, मुक्ति मार्ग प्रकाशनी ।
कलिमत प्रक्षालनी, मिथ्यात्व छेदिनी ।
त्रिभुवन पालिनी, पाप विशोधिनी, मन्मथ प्रतिपंथिनी ।
१. समार समुद्र तारणी । विश्वसनी ।
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अमृत रसास्वादिनी, हृदयाल्हादिनी, आक्षेपकारिणी, विक्षेप विस्तारिणी । सर्वननचित्त चमत्कारिणी' जगत्त्रयोपकारिणी। आगमोद्गारिणी, योजन विस्तारिणी । भगवद्वाणी । रा० जो० । श्रागे अन्य प्रति सेसर्व विघन हारिणी, ससारोछेद कारिणी। चतुर्विध सघ मनोहारिणी, चतुर्विध धर्म प्रकाशनी। चतुः कपाय विनासनी, भव्य जन कर्णामृत श्राबिनी। सकल कुमति विद्राविणी, त्रैलोक्य आश्चर्य कारिणी। सर्व संसय निवारिणी, योजन भूमि विस्तारणी। विक्षेप विस्तारिणी, योजना विस्तारिणी।
(१६) जिनवाणी वर्णन (४)
चतुर्धा धर्म प्रकाशिनी । च्यारि कपाय निर्नाशिनी । भव्य जन कल्यामृतस्राविणपाना हारिणी । ससार समुद्र तारिणी आश्चर्य कारिणी । योजन हारिणी । अखलित, पात्रोस वचनातिराय परिकलित ॥ ८ ॥ जै०
(१७) धम उपदेश
निद्रान्ते परमेष्टि सस्मृति रथो देवार्चन व्यावृतिः । साधुभ्यः प्रणतिः प्रमाद विरतिः सिद्धान्त तत्त्व श्रुतिः । सर्वस्योपकृतिः शुचि र्व्यवहृतिः, सत्पात्र दाने रतिः । अयोः निर्मल धर्म कर्मणि रतिः, श्लाघ्या नराणा स्थितिः ।। तुम्हें सदैव पुण्य कर्त्तव्य करिवू, मनुष्य जन्म नउं फल लेवउ । निद्रा प्राति पच परभेष्टि नमस्कार गुणिवउ, श्री सिद्धात सुणिवउ । श्री सर्वज्ञ देव पूजियउ नवनवे स्तवने स्तविवउ । श्रीसद्गुरु सेवविउ, कुसंग मेल्हिवउ,
१ सम्मोहकारसी। २ वीतरागवाणी ।
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(१८६ ) विकथा प्रमुख प्रमाद-टालिवउ । मनि धर्मोद्यम अाशविउ । । सामायिक, पोसह, दान, शील, तप, भावना प्रभावनादिक पुण्य कार्य करिवो। निद्रादिक' पाप करणीय परिहरवा । मन उन्मान्गि नातउ वालवु । वैश्वानर नउं२ कर्म वन बालिवउं । परोपकार करवउ पुण्य भंडार भरिवउ । शुद्धव्यवहार श्राराधिउ, मोक्ष, मार्ग साधविउ । न्याय उपार्जित वित्त क्षेत्र नइ विषइ वेचिवउ । तीर्थयात्रा प्रमुख पुण्य लाभ लेवउ । जीवटया कीजइ, उचित दान टीजइ। - 'सकल लोक माहि प्रसिद्धि लीनइ, पूर्वोपार्जित पाप खीजइ । मनुष्य भव क्षतार्थ नीपजावीयइ, श्रावकाचार साचवीइ। सर्घ दुःख प्रमाजीय । ईण परि श्रीधर्म समाराधया जिय उत्तर मंगलीक माला पामउत्तिम भी धर्म नइ विषद सदैव सावधान हुया ।। इत्युपदेश।।
(१६३ जो०)
(१८) जिनोपदेश (२)
सत्संगत्या १ जिनपति नुत्या २ गुरु सेवया ३ सदा दयया ४ तपसा ५ दानेन ६ तथा तत्सफल सुकृतिभिः कोप ।। तन्मानुष्य जन्म लब्ध्वा यो विपली कुरुते स एवं कुरुते ।। भस्मकृते स टहति चारुचदन जे मनुष्य जन्मेद कामार्थे नयते सततं धर्म परिमुक्ताः । २ । अतत्सफली कार्य मेवा यतः ।। पुष्णाति गुण मुष्णाति दूषण सन्मते प्रबोधयते शोधयते पाप रनः सत्संगतिरंगिना सततं ॥ १ ॥ कीरद्वयवत् माताप्येका पिताप्येको ममतम्यच पक्षिणः अहं मुनिभि रानीतः सचानीतो गवाशने ॥ २ ॥ ना. फलति कामा वामा कामा भय नयतते । न भवनिर्भव भीति जिनपति नति मति मतः पुंसः ।।२।।
१ निंदा २ तउ ४ क्षत्री
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( १८७ ) कुमारपालाशोकमालिवत् गुरु सेवा करण परो नरो नारागै रभिडतो भवति । ज्ञान सु दर्शन चरणे राद्रियते सद्गुण गणेश्च ।। ३ ।। केशि प्रदेशि वत् । नरय गइ प्रौढ स्फूर्ति निरुपम मूत्रि, शरदिदु कुंद सम कीर्ति। । भवति सि सौख्य भागी सदा दयालकृतः पुरुपः।। ४ ।। दामन्नक वत् पूर्व भवे जालिकः जलमिव दहनः स्थलमिव जलधिर्मंग इव मृगाधिप स्तस्व इह भवति जे न सतत निज शक्तया तत्यते सु तपः ।।५।। सनत्कुमार दृढ प्रहारि वत् । तं परिहरति भवातिः स्पृहयति सुगतिविमुंचते कुगतिः यः पात्रता कुरुते निज कन्यायार्जित विर्त ।। ६ ॥ चतुस्सुत जनक जिनदत्तः श्रेष्टी च शालि भद्र चदना श्रेयास धन सार्थवाह वत् ।। ६ ।। इत्युपदेशलेशः समाप्तः ॥१६८ जो०
(१८) धर्म कृत्य देव पूजनु, गुरुषदनु, तीर्थयात्रा गमनु, शील परिपालनु, अध्ययनु स्वाध्याय, ध्यानु, तपोविधानु अनुष्ठान, दानु सुधी भावना, जिन शासन प्रभावना
(पु० अ०)
प्रमुख धर्म कृत्यः
(२०) धर्म कृत्य
यथा शक्ति दान दीजह । शील पालीइ । तप तपीइ । भावना भावीह । सम्यकत्व पालीइ । मिथ्यात्व वालीइ । देव पूगीइ । गुरु सेवा कोजइ ।
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(२८) सिद्धान्त सभिलीइ । तत्व अभ्यासीइ । विचार पूछीइ । वटनक दीजीइ । सामायक लीजीइ । अधीत शास्त्रा गुणीइ । धर्मना फल लुणीह । पर स्त्री परिहरीइ । नियम सपौषध लीनइ । तीर्थ यात्रा कीजइ । निन शासन नी प्रमावना कीजइ । अठाही महोत्सव कीजइ । गुरु सन्मान दीजइ । एवं विध जिन धर्म भाव सहित कीजह ।। पु० ।
(२१) दान वर्णन
दानु, विश्व रंजनु । भवामोघि निस्तरण शोकु, यशः प्रकाश केतु कीर्ति नर्तकी रंगभूमि, सकल मौख्य बीजाकुर क्षेत्र रग भूमि । कल्लोल कमला वशीकरण, ममग्र गुण गणामत्रण । करइ लोक गान, जिणइ लाभइ सन्मान । निः समान, वधारइ कीर्ति विमान । रुडउ भावइ संतान, पामोइ शुभ स्थान । भदांवातर लहीद घणु धान, प्रतापि करो नीपइ भान । पापणइ उदार पणइ वमावइ रान, लक्ष्मी नइ उछइ वान जिह नह मनि हुयइ सान, तिणि माहि मानि दान, देवउ दान ।। ८८ ॥ जै०
जै
( २२ ) दाने पुण्य संख्या
यदि मेवस्य धारा संख्या भवति । दिवि तारा सख्या। भूतले रेक कण सख्या । समुद्रे मत्स्य सख्या। मेरु गिरी स्वर्ण सख्या । मातृ स्नेह सख्या । सर्वज गुण संख्या । दुज्जने दोप संख्या । श्राकाशे प्रदेश तख्या । जीवस्य गति सख्या । सत्तात्र दाने पुण्य संख्या भवति || छ ।। पु.
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( १८६) (२३) शील वर्णन
तीर्थ विण स्नान, दत्त' विण बहुमांन । चंदन विण विलेयन, अलंकार विण विभूषण । लोके लेई न सकीयइ एहQ निधान। . मुक्तिदान, सावधान, अमूलमत्र वसीकरण, दुर्गति हरण । अमू तु शृगार, सयम श्री हार । भवाभोधि तारण, संकट निवारण । मोह महीपाल सिरि कील, करइ पुण्य कउ उन्मील । नासइ मटन रूपीउ भील, उन्मूलइ अवेसास रूपी3 उखील । न करवी एह नइ विषइ ढीलि । तिण पालिवउ निर्मल शील ॥ सू० ।।
(४) शील वर्णन (२) शील, अति सुशील । विण स्नात्र पवित्री करणु, विण अलंकार आभरणु । नग त्रय वश्य करु, दुग्गंति हरु । विश्वास तणु कारण, अकीति निवारण ||१४।। नै०
(२५) पात्रो गमन दोपपरदार संग लगी घरबार चूकिया।
धनधान्य चूकिया। खाएवा पीएवा चूकिया।
अोढेवा पहिरेवा चूकियइ ! , स्वजन परजन चूकिया। .
देह वान चूकिया। , श्राचार व्यवहार चूकियइ । , सत्य शौच चूकिया । , देवगुरु चूकिया। " धर्ममार्ग चूकियइ। -
१ प्रदत्त बहुमान २ नउ ३ रूपीयउ ४ श्री शील । ५ मूकिया ६ स्तेहवान ।
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(१६०) परदार संग लगी इहलोक परलोक चूकिया
, एक नरक ढकियाइ' ||+ पु. अ.
(२६) तप वर्णन
तपु, साक्षात् परम जपु । अष्ट कर्म क्षयंकर, महा शोक हरु । मुक्ति श्री वशि करिवा परम मंत्रु, मदन गढ गाजिया मगर वइ यत्र । मुनि जन शृंगार, अरिष्ट तर कुठार । इस्यउ तप ।। १५ ।। जै०
(२७) अथ तप त्रिभुवन वशीकरणु मनु, कन्दर्प दर्प ग्रहोच्चाटन परम यंत्र । लोभार्णव शोषण बड़वानल, मोक्ष श्री कमल । माया वल्ली कुठारु, दुरितोपताप तस्कर, धर्म महाराज नगर, मानाचल चूलिका वज्र धातु, केवलि श्री कान्तु, जु वहह तपु, ते (घ) लहइ संसारि संतापु ।। ६० ।। ०
(२८) भावना
मुक्ति श्री प्रति सगलाइ भावे जाणे हाव भावना । स्यूं घणइ वादि, भानु हुइ तउ स्या जईय प्रासादि । भावु मूलगउ योगु, भावु लगी वइठा पुण्य नु समायोगु । ध्यान ध्येय धारणा, भावु लगी सगलाइ कारणा। एवं विध भाव ॥ १६ ।। जै०
१ एक नि केवल नरक दुख देखइ+एक अन्य प्रति में-"खढत्वमि द्रिव्य० मव स्वहरण बघ."-पाठ अधिक मिलता है।
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( १६१-)
भावना
निम तुंग प्रासादु दण्ड कलश प्राग्भार, जिम स्त्री सोहइ कंठ कदलि हारि । जिम मस्तक सोहइ केश प्राग्भारि, जिम कमल सोहइ वारि । जिम कर्ण सोहइ स्वर्णालकारि, जिम सोहइ गुहु नारि । निम नेत्र सोहह कनल सारि, जिम विवाहि सोहइ करि, जिम सोहइ उच्छव तूरि, जिम वीडउं कपूरि। नदी जल पूरि, रात्रि चद्र मण्डलि, जिम हारु मुक्ताफलि, निम सरोवर सोहह कमनि, निम मुख सोहइ तबोलि, जिम पृथ्वी सोहह वेलाकूलि । जिम सोहह रसवती जिम सोहइ सरस्वती पचनि तिम सोहइ धर्म भावना ।। ६१ ॥ जै०
(३०) दया धर्म प्रधानता
धर्म माहि दया धर्म वीतरागि भाखिउ मुख्य नाणिवउ । जिम पर्वत्र माहि मेरु, तुरंगम माहि पंच वल्लह किसोर । हस्ति माहि ऐरावणु, दैत्य माहि रावणु । वृक्ष मांहि कल्प वृक्ष । रत्न माहि चिन्तामणि, अलंकार माहि चूडामणि । क्षीर माहि गोदीर, नीर मांहि गंगा नीर । वस्त्र माहि'चीर, पटसूत्र माहिहीर । पुष्प माहि कमल, वाद्य माहि शख यमल । काष्ठ माहि चंदन, वन माहि नदन ॥ २४ । नो० +
१ ते २ जिसो ३ हाथी ४ जिम ५ जिम ६ जिम ७ खीर ८ जिम ह जिम २० रंग माहि धवल
+ एक अन्य प्रति में “वाजिव माहि भमा, ली माँहि रंभा। शास्त्र माहि गीता, सती माँहि जिम सीता" यह पाठ और मिलता है।
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( १९२) (३१) जीवदया रहित धर्म (६) जिव लवण रहित रसवती, वचन रहित सरस्वती । दघी' रहित अोदन, घृत रहित भोजन । कठ रहित प्रासाद, माधुर्य रहित साट । खड रहित मोदक, आधार रहित गंगोदक। कर रहित गायनु, छंद रहित वायनु । शक्ति रहित पौष, ध्यान रहित गौत्य । मद रहित रावण, वेद रहित ब्राह्मण । परिवार रहित नायक, शाल रहित पायक । फल रहित वृक्ष...| वस्त्र रहित शृङ्गार, सुवर्ण रहित अलकार । तीम जीवदया रहित धम न शोमइ ।। १२, स० १
(३२) जीवदया रहित धर्म (२) नीव दया रहित धर्म न शोभह, जिम मद रहित गजेद्र, लजाहीन कुलवधू , नीति विकल' राजा ।
-
-
१ दधि । २ उद्धन। ३ नृत्य रहित गदनु। ४ पुत्स | ५ गुरुव । ६ हाथी, सेवा सहित साथी । ७ इसके दाट “गुण हिन भागर' विशेष - इसके बाद "तप रहित भितुक" वि० फिर वेग रहित घोडे, केस रहित नोडे ।
प्रेम रहित नगम। दान रहित राजा, सट रहिन सान।
तेज रहित सविता, वारी रहित काविना । (विशेष) ८ जिम एतता बाना विना न शोने, तिवा जाणदो। (सू०-३) 'पु०' प्रति के प्रारंभ में इतना पाठ अधिक धन वर्णका। अहो धार्मिक लोकउ । फल्गु
भाषित परित्यजी क्षए मात्र । एक तात्विकी वृत्ति । नन सावधान करी पर
मानहूँ क्उ धनं नुं नरवत्व नामलउ । ६ हीन १०. हीन नी पु० प्रति में इतना पाठ और अधिक मिलता है - धृत रहित भोजन । लवए रहिन रमवती। आकृति हीन तन्वती। छंद रहित कवि । क्षमा रहित मुनि, जिम ानला पदार्थ मृत्युलोक न शोमइ ।।
निम डीव दया रहित धनं न शोमा छ। पु०
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( १९३) बद्ध मुष्टि नायक, शस्त्र रहित पायक । अति निष्ठुर वाणिउ, खासणउ' चोर । आलसू कमारउ, दुर्विनीत चेलउ, ध्वनरहित देवकुल । जिम गाबडि छोटउं ऊंट, उसियालइ (अनइ) खुंट । वेग पाखद घोडइ, गृहस्थ माथइ बोडइ । एक स्त्री अनइ बूटी, एक ध्वज अनइ अंतरालि त्रूटी । (स.१)
( ३३ ) धर्म महात्म्य
परम मंगलं धर्मों धर्मो बुद्धि समृद्धि दः इष्टार्थ साधको५ धर्मो धर्मो मोक्ष दायकः॥ भो भविक लोको, निर्मल विवेको, श्री सर्वज्ञ प्रणीत पुण्य कर्त्तव्य करवउँ । आपणा मनुष्य तणउ फल लेवउ । ए धर्म परम उत्कृष्ट मंगलीक कहियइ, एह प्रसादिइ सर्व कल्याण लहियई। जिम तेज सनलाई सूर्य तेज माहि समाई। निम नदो सवली समुद्र मांहि माइ । जिम पग मधलाइ गजेंद्र पगि अंतर्भवइ । जिम श्राकाशि माहि सर्व पदार्थ श्रावई।
तिम दधि, दुर्वा, ऽवत, चदन, कुसुम कंकुम, पूज्यवृद्धाशीर्वाद द्वादश तूर्य निनाद । विवाहादि हर्षणाकल अनेराइ पुत्र जन्मादि महोत्सव सानुकूल ग्रह वैरि निग्रह, भला स्वप्न, शुभ शकुन, प्रमुख प्रमुख सकल मंगलीक माहि अंतभवई देखउ।
ज्ञानत्रय सहित श्री तीर्थकर तणइ गर्भावतारि माता अद्भुत १४ स्वप्ना लहइ । चलितासन देवेन्द्र तेऊ फल कहई।
देवता गृहागणि निधान संचारइ, रत्न मणि, मौक्तिक, प्रवाल, पराग, दक्षणावत सखे करी भंडार भरई । कण कोठार वृद्धिवत हुइ । गज तुरंगम रथ पदाति समधिक थाइ, अनेक देश संविशेष आपणइ वसि सपजइ, राज्य संपदा वृद्धिवती नीपजइ । अनेक राय राणा आज्ञा मानइ । जन्म समइ छप्पन्न दिक्कमारिका सूति कर्म करइ, श्रापणी रली चउसठी देवेन्द्र जन्माभिषेक करद ।
१. खापणउ, खोसणउ २. रहित ३ स्त्रीकानि ४. वृद्धि ५. ऽनिष्ठ बाधका । ६ आणा ७. आणी
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(१६४) मेव पर्वति मिली सुवर्ण, रूप्य, वस्त्र नी वृष्टि निरतर करई, ज ज जोइई तं तं श्राणी । नृपागण मरई वालपणि देवागना लालई। देव सबे टोहिला यलइ, अंगुष्ठि अमृत स चारइ, देव पच धात्री वधारई, बौवनि जं जोइय तं नपाडइ, सहू काज कीघउ, लि दिखाडई, दीक्षा लेता महा महोत्सव करह। !
परमेश्वर तणी स्तुति समाचरइ, केवलि जानि जपनई समवसरण रत्न, सुवर्ण, रुप्य मय प्रकार रचई। अढई गाऊ तीह नोएडा' वध खञ्च । जानु प्रमाण पुष्य प्रकर भरइ, त्रिन्नि छत्र परमेश्वर नइ मत्तकि धग्ड । व्यंतर भारि रूप्यं करइं, अंगुष्ठि अमृत सचारिई । रत्नमय दड चामर ढालई, हर्प लगइ आप न सभालइ । । नव सुवर्ण कमल पाय हेठि सचारड, अष्ट मगलीक नवा अवतार । इन्द्र ध्वजादि ध्वन लहलहइ, धूपवटी परिमल महमहई। हर्ष प्रकर्ष लगइ देव गाजई, असख्ये भव तणा सदेह भाजई । रंभा तिलोत्तमा अप्सरा नाचइ, सविहु न मन पतीजह माचः । चउत्रीश अतिशय, अष्ट महा प्रातिहार्य सहित अढार टोप रहित, ३५ वाणी ना गुण सहित, इम तीर्थकर देव धर्म लगइ सदीव मगलीक महोत्सव अनुभवडं।
अनइ दश विध भवन पति निकाय, सोल व्यतर तणा निकाय, पंच ज्योतिषी निकाय, वार देवलोक देव, पंच अनुत्तर विमानं देव ज सपूर्ण सुख अनुभवइ । तेउ धर्म हीज नउ निःकेवल माहत्म्य जाणिव । (१६३ जो.)
(३४) वीतराग धर्माराधन
देव श्री वीतराग देव प्रणीत धर्म तेउ एकाग्र मने अाराधीइ एहु जिन धर्म दश लक्षणोपेतु, भवार्ण्य वनइ पहलइ परि जाइवा तेतु । सर्व सौख्य दायकु, समस्त जीव लोक नउ नायकु । निर्मलु, पाप प्रति सबलु। विश्व वात्सल्य कर, दारिद्र हरु | त्रैलोक्य छुई श्रार्दार
१. नउबड़ा २. घटी।
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( १६५ )
चिन्तामणि कल्पवृक्ष कामधेनु तेहनु केवल उद्यापीरा जेहना । देश कराया चन्द्रमा सूर्य जलघर, स्वर्ग्य विवर्ण्य करु | इस धर्म राउि ॥ ३१ ॥ जै०
( ३५ ) जिन धर्म
जिम देव मध्य इन्दु, तारा मध्य चन्दु | स्नग्ध मध्य वृतु, औषध मध्य श्रमृतु । बुद्धिमत मध्य वृहस्पति, निरीह मध्य यति । तिम धर्म मध्य जिन धर्मु ।
( ३६ ) धर्म महात्म्य
जे गया विदेश, पडिया सबलह क्लेश, ताण्या पाणी नइ पूरि श्राक्रम्प अक्रूर, चाप्या सधरि, डसिया विसधर,
1
धरिया राये, लेल्या घण घाए मुरडिया भोगे, दूहविया रोगे,
पाडिया बंदी, पंडिया विछदी,
तिहा सविन धर्मनों श्राधार, एह साचो विचार,
'वीर' वटई बारम्वार, बीजऊ कारिमउ व्यवहार || ( कु० )
( ३७ ) धर्मावार,
जे गया विदेसि, पडिया क्लेशि ।
ताण्या पाणी नह पूरि, श्राक्रमण क्रूरि । चाप्यात घरि, डसीया विषधरि । घरीया राए, लेल्या घण धाए । मुरडीया, मोगे, दूहवीया रोगे । पाटिया चंटि, पडिया विछदि ।
तिहाँ सविहु नइ धर्म्म नउ श्राधार । एसाच विचार, वीज कारिमड व्यवहार । ( ३८ ) धर्म ससाराभोधि तरण हेतु, यशः प्रसाद केतु ।
विचक्षण कीर्ति नर्त्तकी रंगभूमि प्रदेश सकल सौख्य बीजाकुरोहम क्षेत्र निवेस Haषि तोल कल्लोल चपल लक्ष्मी तगु वशीकरण । समय गुण गणामनय
( पू० )
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( १६६) (३६) युगलिया सुख वर्णन हिव युगलिया नां सुख साभलउ अति रुडी नित्योयोति रत्नमय भूमि, तिहा दश विध कल्पट्टम मनोवांछित पूरइं, एकि कल्पद्रुम अष्ट भूमिका रत्न निर्मित श्रावास तणऊ आकार धरई, तेहि माहि नित्योद्योत पल्यंक रत्नमय सिंहासन सहित एकि चंद्र सूर्व नी प्रभा श्रापणी काति करी पराभवई। एकि श्री पुरुष योग्य दिव्योपभोग्य आमरण विस्तारई, एक चकवत्तीनी रसोइ पाहिइ अनत गुण सुस्वाद । अटोतर सउ खाद्य, चोसठि व्यजन रूप श्राहार श्रापई। एकि स्थाल विशाल वाटुला वाटुली सीप कच्चोल शृंगारादिक, भाजन सवे समोपई। एकि क्षोभ, पट्टकुल, चीनाशुक, क्षीरोदक, प्रमुख पच वर्ण विचित्र भाँति स्वच्छ' निर्मल वस्त्र पूरई। एकि वल बुद्धि आयु, वृद्धिकारक शीतल सरस श्राप्यायक पाणी आपता तृषा चूरइ। एकि वीणा, वेणु मृदग, यमल, शख, पटह कंसाल' प्रमुख अगुण पचास वादित्र स्वर साभलावई मधुर । एकि तिलकु, वकुल, अशोक, चम्पक, कुद, मचकुदाटि, पुण्य प्रकर संपाडइ प्रचुर । एकि १ दीवानी परि उद्योत करइ, रात्रि ना अधकार निराकरइ । तेह युगलीया ना च्यारि मेद छप्पन अतर दीवा,
१ हेमवत, ऐरण्यवतः २ हरिवास रम्यक तणां ३ देवकुरु उत्तर कुरु ४ एकेकि पाहिइ अनुकमिह, अनंत गुण बल, रूव, सुख ते आठ सय धनुष १ एक गाऊ १ वि गाऊ ३ तिन्नि गाऊ ४ ऊँचा । एक १ एक रबि ३ त्रिन्नि ४ दिन अंतरि भोजन इगुणासी इगुणासी चउसटि ३ अगुण पंचास ४ दिन अत्य कालि अपत्य लालना। चउसहि १ चउसहि २ अटावीसं सउ बि सय छप्पन ४ पृष्ठ करंडा । त्रीजा १ वीना २ बोजा ३ पहिला ४ श्रारानी सुखिया । पल्योपम शाठमउ भाग १ एक पल्य २ वि पल्य ३ त्रिन्नि पल्य ४ श्रायः ।।
ते मवे जुगलीया दिव्य रूप, चउसष्टि लक्षण लक्षित देह स्वरूप, सम , बश्य । २. कंसाला पाठा-३ तण प्रनादि
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(१६७) चतुरस्त्र संस्थान, वज्र, ऋषभ, नाराच, ४ प्रधान परम सौभाग्य सहित वलिपलित विवर्जित, अशिक्षित सर्व कला तणा जाण । केवलउ पुण्य नउं प्रमाण । जन्म माहि रोग, शोक, दु:ख, जरा, मरण छीक, , बगाई, ऊपमरण, अल्प कषाई, ऊपनइ देव माहि । तेह माहि कुण हूँ न स्वामी, न दास, न मूक, न ऊमसूक, न बधिर, न विधुर, न कूबड़ा, न वामणा, न हुँठा, न छोटा, न पागुला, न अाधुला, तिहा डास मुमा माकुण जू, प्रमुख न उपजई। साकर पाहिइं धूलि ना सुस्वाद अनत गुणा पूजाइ । ए इस्या सुख सत्पात्र दानिइ युगलिया लहइ । कुपात्र दान लगिइ पट्ट हस्ती, पट्ट तुरगम थाइ । अधिकी सद्गति न जायइ । अनई अभय कुमार जिम च्यारि बुद्धि धर्म प्रभावह लाभइ , अनइ धर्म नई प्रसादिई लक्ष्मी वृद्धि, कुटुंब वृद्धि, स्वजन परिजन वृद्धि, गन तुरंगम, वृषभ, रथ धण, ढोर, वृद्धि हुई । देखउ तुम्हे अशोक माली नव पुष्पनी पूना लगह नव भवे क्रमिहं नव द्राम लक्ष, नव द्राम कोडि, नव स्वर्ण लक्ष, नव स्वर्ण कोड़ि, ४ नवरत्न, लाख ५ नव रत्न कोड़ि ६ नव ग्राम लाख ७, नव ग्राम कोडि ८ तणउ स्वामी हूयउ । श्री पार्श्व कन्हइ दीक्षा लेई, अनुत्तर विमानि गउ, तेउ मोक्षि पुण लाइ सिइ । इम धर्म नइ प्रसादि धर्म-वृद्धि संप इ । श्रनइ धर्म समृद्धि ऊपनइ, अत्रुट अक्षय लक्ष्मी चिंतामणि, दक्षिणावर्त शंख, सौवरणं पुरिसा नी सिद्धि, अभीष्ट मत्र सिद्धि, अचिंतित देवता वर, अद्भुत निधान, लाभ, राज सन्मान, उचित दान, एइसि अनेक समृद्धि होह, अनइ न ज वाछिइ इष्टार्थदुस्साध, सर्व कार्य रूप सौभाग्य अद्भुत भोग महा सुख, ते ते सहू धर्म महात्म्य लगड, नीपनउ हीज दीसइ, अनइ विघ्न क्षुद्र उपद्रव, रोग, हानि दारिद्रय दुःख, शोक, चिन्ता अरति प्रभृति अनिष्ट कोई धर्म लगइ न सम्भवई । घणुं किस्यु कहोयह एह धर्म लगई, अनंत सौख्य, मोक्ष पुण्य लहियइ । एह भणी तुम्हें पूना प्रभावना दान शोल, तप, भावना, अमारि प्रवत ना, तीर्थयात्रा, सामायिक, पौषध, सवेग, वैराग्य, परोपकार प्रमुख पुण्य कार्य नह विषइ तिम उद्यम करवउ निम उत्तरोत्तर सकल मंगलीक माला पामउ । यतः -पुंसा शिरोमणियंते धमार्जन परा नराः ॥ इत्युपदेश छः ।। ( १६५० ) जो ।
(४०) पुण्य माहात्म्य । पुण्य लगइ पृथ्वी पीठि प्रसिद्ध पुण्य लगे'मन वछित सिद्धि | पुण्य लगे निर्मल बुद्धि, पुण्य लगे घरि २ वृद्धि। १ ऋद्धि वृद्धि पुण्य-सुपरिवार तणा योग (अधिक पाठ)
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( १६८ )
3
पुण्य लगे नवे निद्धि, पुण्य लगे घरि थिर रिद्धि 1 पुण्य लगे शरीर निरोग, पुण्य लगे अभंगुर भोग । पुण्य लगे नव नव' रंग, पुण्य लगे चढीयह? तुरंग । पुण्य लगे सुकलत्र संयोग, पुण्य लगे टलइ सहु सोग । पुण्य लगे सिगला थोक, पुण्य लगे वसि सहु लोक । पुण्य लगे घरि गज घटा, पुण्य लगे सउदा सटा । पुण्य लगे उलटा पटा, पुण्य लगे रहs विकटा | पुण्य लगे लहइ चउहटा, पुण्य लगे चदन छटा | पुण्य लगे सूर तुभटा, पुण्य लगे सेवक थटा । पुण्य लगे निरुपम रूप, पुण्य लगे मानइ भूप । पुण्य लगे अलख सरूप, पुण्य लगे पुत्र नृप । पुण्य लगे सुम आवास, पुण्य लगे पूजइ" ग्रास । पुण्य लगे रहइ उलास, पुण्य लगे तेन प्रकास | पुण्य लगे कशृंगार, पुण्य लगे मानइ कार । पुण्य लगे शुद्ध आहार, पुण्य लगे रहइ आचार । पुण्य लगे जस सोभाग, पुण्य लगे द्रव्य प्रभाग । पुण्य लगे बाधइ भीर, पुण्य लगे बाघव सीर । पुण्य लगे चतुर सुजाण, पुण्य लगे अविरल वाण । पुण्य लगे तान नइ मान, पुण्य लगे फोफल पान | पुण्य लगे मुंहडइ वान, पुण्य लगे अमृत पान । पुण्य लगे 'धीर" सुभ ध्यान, पुण्यह पामीयइ केवल ज्ञान ! इति पुण्य फल | ( कु० )
( ४१ ) पुण्य प्रभाव (२)
सर्वोपार्जित पुण्य प्रभावि, जे सौख्य- लहर ते सम्भावि । जिस्य निर्मल शंशाकु, तेहं पाहिईं कुल निक्लंकु । तिहा जन्म लहइ, नीरोग थ्य रहह ।
२ नवा २ पल्हाणीया ३. चालता दीनइ | ४ वसिवा प्रधान ५ पुण्यत्र पूज मन चीतवी । ६ अनेक ७. भला । ८ सर्वत्र वहुमान ।
+ दूसरी प्रति में पाठ बहुत कम है उसी का यह विस्तार किया गया है। निम्नो पाठ उसमें अधिक है ।
"पुण्यः श्रानददायिनी मूत्ति, पुण्यः अद्भुत स्फूति ।
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(१६ ) अंगो पाग करी प्रौढ, हुई यौवनाधिरूढ । • सर्व शास्त्र करी परिकलितु, विज्ञान न इ विषय अश्वलितु |
सर्व लक्षणो पेतु, कुल हई केतु। - विविध भोग तणी प्राप्ति, अनि भोगविवानी नाणइ युक्ति । शालिभद्र नी परि, विविध स्त्री घरि । पालन सूभव्या गजेन्द्र मट झिरइ, तुरगम हेखारव करइ । विबुध जन बइठा शास्त्र वाचई, अागलि त्रिवेली पात्र नाचई। ती-ता गुण करी प्रबल, नागवल्लो दल । ते अश्रान्त बीडा समाणीई, ऊग्या प्राथम्या अतक न जाणोइ । स्वजन तिडइव्या, रहइ निष्पृहा । सप्त भूमिक धवल गृह, ऊपरी स्वर्णमय कलश झलहलड, वारि बटिजन कलकलइ , देवदूष्य व पहिरीडं । चढन काष्ट विहरीइ । दुर्जन ना नामइ प्रक्ष, नीपजई चतुर्मुख गवाक्ष, सारि पाने रमीइं । इम दिन नीगमीइ,
सूबा मालही हस मयूर लही तिहनई विनोद लागीइ । जइ माग्यउ लाभइ, तउ वीतराग कन्हलि इ स सौख्य मागीइ ॥ ३० ॥ जै०
(४२) पुण्य प्रकार (३) नाणु, भाणु, खाणु, पीणु, कयाणु, वसाणु, दोझाणु, वीयाणु, इत्यादिक पुन्यना प्रकार छे। वि०
(४३) पूर्वभव के पुण्य से प्राप्ति वेटा, वेटी, बइयर, बल, बुद्धि, सोना, रुपा, मणी, माणिक, मोती, मुंगीया, मान, मही, मयगल, मोटाई, मर्यादा, हर्ष, कुटत्र, परिवार, स्वजन, सम्बन्धी, संपटा, मोहणवेल, चित्रावेल, कामकुभ, कल्पवृक्ष, कामधेनु, दक्षिणावर्त शंख, पारसपाषाण, एतला वाना पूर्वला भवनि पुन्याई होई तिवारे पामीइं ।।.
(४४) पुण्य विना नहीं मिले
माता, पिता श्राड, काका, बाबा, मामा, मामी, भाई, भत्रीजा,भोनाई, भाडर, मित्र, कलत्र, पुत्र, पुत्री, पौत्र, प्रपौत्र, भाणेज, पीत्राई, पडपीतराई, सगा सणीजा, नम्वन्धि, कुटब, परिवार, नफर, चाकर ।
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२०० ) काम कुम्भ, कामधेनु, कल्पद्रुम, चिंतामणी, चित्रावेल, मोहणवेलि, रुद्रुवती, तेनमत्रि, स्पीपल, सुवर्णफरसो, रत्न कंबल स्यालनंगी, व्रणसरोहिणी, पद्मिनी स्त्री, भद्र जातिनाइस्रो, ए योगवाई पुन्य विना न पामें । वि० .
(४५) बिना पुण्य नहीं मिले-(२)
सुठाम, सुगाम | सुटान, सुमान । सुनात, सुभ्रात । तुतात, तुमात, । तुकुल, सुबल । तुस्रो, सुपुत्र । सुपात्र, सुखेत्र । सुरुप, सुविद्या । सुदेव, मुधर्म, मुगुरु । सुदेश । सुवेश । ए योगवाई पुन्य विना न पामीइं ॥
(४६) अथ पाप फल ।। पाप लगइ मध्यम जाति, पाप लगे भमह दिन राति । पापथी पामियह प्रियवियोग, पापसी पामिये रोग ।। पापथी पामियइ सोग, पापथी पामिये कुनारि नउ सयोग । पापथी पामिये क्षय, पापयी पामिये भय ।। पापथी पामिरह परवस, पापयी पामियइ अनस || पापथी पामिये धनहाणि पापथी पामिये दुख खाणि ।। मुनि धीर मुखिनी वाणी, ए पापना फल जाणि
इति पापवर्णक ।। कु.
(४७) धर्म में प्रमाद जे कोई जिन धर्म तणे प्रमाद करें ते नाणे ठीकरी कारण अमृत कुम्म फोहे ॥ निष्कारण श्रानन्म तणो लेह वोडें । कामधेनु अलीढी मेल्हीइ चिंतामणी रत्न श्रावतो पाय फेडई ।। कल्पद्रुम आ णा घरथी उन्मूलं ।
"ईश्रा, आई, बहिन, माई भूषा, फूफा, फूफी, देवर, जेठ, स्त्री, पुत्र, नानो, मोटो, गरवो, बूढो, खावो, पिवो, पहन्बु, वश्त, जावु, आँवु ख्याल विनोद ए पुण्याइ पामका पाठ अधिक मिलता है।
ठीकरी कारणि कोई कानकुभ फोटा
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(२०१) प्रवहण आपणा समुद्र माहि घोले ॥ सोनातणे कारणे पीतल ल्यावें । अमृत नोजाइगा विस घोले ।। इत्यादिक जिन धर्म जाणवो ।। पू०
(४८) प्रमाद (२) अजइ व्यानि ससाईउ दीजइ, सर्पि सउं क्रीडा कीजइ । अनइ हालाहलु पीजइ, महाविष तणउ कवलु लीजइ । अग्नि मध्य पयसियइ, शत्रु सउं वसियइ । पुण प्रमादु न कीजइ ॥
(४६) जिन धर्म छोड़ मिथ्यात्व ग्रहण स्थिति यो जिन धर्म मुक्त्वा मिथ्यात्व प्रतिपद्यते, स स्वर्णस्यालेन रजः पुज मुद्धरति ।
, कल्पतरुणा छाया लाभ वाछति ।
चदन वन ज्वालनेन भस्म लाभं । अगरु काष्ठेन लागूलं । सुवर्ण पिंडेन कुशीं सभी। चिन्तामणिना काको डायन विधत्ते। अमृत धारया पाद शौचं चिंतयति। मत्त करीन्द्रेण काष्ट भारः। . कस्तूरीका वीणा' केन सिंखी। कदली स्तमेन गृह भार मुद्धतु मिच्छति । कमल तंतुभिः मत्त वारण बघ्नाति ,
(१६ जो०) (५०) असाध्य शुद्ध धर्म शुद्ध सर्वज्ञोक्त धर्म करी न सकीयइ । जिम मेरु पर्वत्त तुलानि धरी न सकीयइ २ । निम समुद्र भुना दडि तरी न सकीयह। जिम लोह मय चिणा चर्वण करी न सकी यह ।
१. वीणा कन मपी-त्रीणक्रेन मपों। • सकीइ। ३ तरिउ । ४ चावी ।
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( २०२) जिम खड्ग धारा ऊपरि फिरी' न सकीयई। .. जिम वैश्वानर मध्य प्रवेश करी न सकीयइ,।' जिय राघावेध साधी न सकीयइ । निम पाणी पोटलह बांधी न सकोयइ । जिम वायनउ कोथल उ भरी न सकीयई। ४३ जो० ।
(५१) नवकार महिमा (१)
त्रिभुवन माहे सार,
धर्मकल्पद्रुम प्रकार। समरण मात्र,
करे भवापहार । प्रकृति ही उदार । लक्ष्मी निवास,
निजि श्रीया वास' लडां धर्मफल देखि,
प्रमाद उवेखि । आलस परिहरी,
आदर करी ॥ (पू०) (.५१ अ०) नवकार महिमा (२) पुण्य तणे विषे भावना सहित लाभ लेवो, जिण कारण भणी इस्यू कहीइंजिम प्रसाद सोहें कलस सहित, जिम सरीर सोमे शील शृंगार । निम सरोवर सोमे कमल, जिम पुष्य सोमे परिमल । जिग मुख सोमे निगल नेत्र जुगल, जिम रात्र सोभे चद्र मंडल | निम विवाद सोभे कूर, जिम उछव सोभे तूर, जिम नदी सोभे पूर। जिम हृदय सोमे हारि, जिम गृह सोभे अम नारि । जिम मस्तक सोहे केस प्रागभारी, जिम कर्ण सोहें स्वर्णलकारी । लिम समक्ति सोमे भावना, तिम मुख सोभे नवकार । एहवो पचपरमेष्टि नवकार"
(विनयसागर प्रति) (५२) संघ
सवु, वंदनीयः वन्दनीयु, पूजनीय हइ पूजनीयु महनीय हइ महनीयु, त्गृहणीहइ स्पृहणीय
१. जाती। २ नाहि । ३ पनी। ४ वधु वीधी। +क अन्यनि ने-निमम गठबत पाली न सकिया' पाठ अधिक मिलता है।
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(२०३ ) अभिषणीय हह अभिषणीय, अनुगमनीयहइ अनुगमनीय । मान्य हइ माननीय, गल्याहइ गरुयउ।
• (पु० अ०)
(५३) तपोधन अनुवरतु ग्रामानु ग्रामि विहार क्रम करहि, अढार सहस सोलाग धरइहिं । अनुवरतु परमेश्वर तणी आज्ञा अनुसरहिं, अनुवरतु गुरूपदेसु स्मरहिं । अनुवरतु पुण्य भडार भरहि, अनुवरतु मोक्ष लक्ष्मी स्मरहि । अनुवरतु तप तपहिं, अनुवरतु कर्म क्षपहि, खगधारा चंक्रमण कल्पु, निर्विकल्पु । व्रतु परिपालहि, इमा महासत जंगम तीर्थ तपोधन भणियहिं ॥ (पु. अ.).
(५४) तपोधन वर्णन पाँच भरत पाँच ऐरावत पॉच महाविदेह, सत्तरि सउ ार्य क्षेत्र ॥ पइतालीस लाख मनुष्य क्षेत्र माहि जे साधु ॥ साधु रत्नत्रय साधइ, जिनाजा आराधइ ॥ च्यारकषाय परिहरइ, नवकल्पी विहार करइ ।। अढार सहस सीलाग धरइ, दस विघि यती धर्म आचरइ ।। बाईस पसह ऊपनइ न डरइ, चवदह उपगरण घरइ ।। पचमहाव्रत पालइ, छाउ रात्री भोजनचार'ऊचालइ ।। तेत्रीस श्रासातना टालइ, अाठे मद गालई ॥ वर्तमान कालई, इग्यार अंग सूत्र प्रकासह जिणइ करी मिथ्यात्व पडल नासह ।। तेरह क्रिया ठाण वरूपई, सत्रे विध सजम धुराअह पह। - सत्तावीस गुणे सयुक्त माया मिथ्यात्व नीयाणाटि साल विप्रमुक्त ॥ बइतालीस दूषण रहित आहार ल्याइ पाच टोप मांडलना लागया न ग्रह । पंच सुमतइ सुमता, त्रिहुं गुपतइ गुपता। , संयम रमणो सुरमता, दुक्कर पंचेंद्री दमता ।
१-टारइ।
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( २०४ )
क्रिया कलाप सावधान, सदा धर्मं ध्यान । महा एक तपोधना, करंत देह सोचना । एहवा मुनीसर, पीहर जीवना पीहर श्रनाथ जीवना नाथ, मेलइ मुक्ति नउ साथ | सकल जीव अभय दायक, सर्व श्रोपमा लायक || नाणी ससार असार, श्रोपण पइथ...।। उन्मार्ग कथापक |
नव.. थापक,
साधु भगती या पालइ, प्रतीचार सर्वथा टालइ || मेरुनी पर कंप, कासनी परे निराल ||
बायनी पर प्रतिबंधु भारंड पखीनी परइ श्रप्रमत्त ॥ सूरो इव तेन लेस्या, चंद्रो इव सोम लेस्या ||
सागर नी परे गभीर, कुंजरनी परे सोंडीर ।
खीरो इव खधारे, जलोइव सच्च फासे, सखो इव निरंगणे |
ससार समुद्र तारण तर गुण करड | सचरित्र, गंगाजलनीर नी परे पवित्र ॥ सर्व दोष रहित, चितव ́ सकल जीव हित ॥ चारित्र करी पवित्र गात्र, ससारोद्धि यान पात्र ॥ दुःकर्मवल्ली वन छेटन दात्र, सुकृत तणू एक पात्र । जेहनइ दर्शन हुइ पाप श्रन मात्र, तपइ करि साखित गात्र । वली ते तपोधन केहवा श्रागम माहे गुणधरे गुध्या जेहवा ।
(५५) मोक्षार्थी (१)
बाल लगी सिर मुंड मुडन कीनइ, खारा तोरा पाणी पीजइ । ग्रंत प्रान्त आहार लीजइ, सीत वात श्रातप सहियइ । एकत्र तदैव न रहिवइ, यथावस्थित धर्म कहियह एतदर्थस्य (स्व) कर्म उठहियि ।
शुक्ल ध्यान धरिउ श्रनंतर मरिउ, मुक्ति पय सरिउ ।
ईणहूं परि सिद्ध होइयद्द, सकल त्रैलोक्य टगमग जोईयर ||१|| -
इसके बाद चित्तवाला गच्छीय देवेन्द्रसूरि के नुसरा कथा की तपोधन के वर्णन वाली गाथा है ।
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( २०५) (५६) मुनि वर्णन (२)
संसार समुद्र तारण तरएड, गुण करण्ड । सच्चरित्र, गगाजल नी परि पवित्र । सर्व दोष रहित, समस्त बीव हित । शान्त, दान्त । विचित्र चारित्र करि पवित्र गात्र, ससारोदधि यान पात्र । दुःकर्म वल्ली वन छेदन दात्र, सुकृत तणू एक पात्र । जुहनइ दर्शनि हुइ पाप अल्प मात्र, तपस शोषित गात्र IIEI| ने
(५७) गुरु वर्णन पाँच इन्द्रिय ना व्यापार सवरणु, नव विधिश्रा ब्रह्मचर्य श्राभरणुं । चउहि कषाये विनिमुक्त । पाच महाव्रत सयुक्त । पाच समिति समितु, त्रिहुंगुप्ति गुपितु । शान्तु, दान्तु । सर्व सिद्धान्त तणु जाणनहार, धर्मोपदेश नु देणहार । तरण तारण मूर्ति, पुण्य नइ विषह स्फूर्ति । अभव्य जीव प्रतिबोधकरु, शुद्ध चारित्र धरु । श्री जिन शासन शृगार हारु । अतिहि सुविचारु । अति सुरूप, क्षमा रूपु। सम तृण मणि लोष्ट काचनु, पाप निकदनु । इसउ सहरु ॥ २५ ।। जै.
(५८) गुरु (२)
गुरु क्रियानुष्ठान पक, जिन वचन धुरंधरु । - सरश्वती लब्ध प्रसाद वर ज्ञान दर्शन चारित्र प्रतिपालन तत्परु । सकल गुण मणि भंडारु विज्ञान सार तरागम विचार । श्री गच्छ श्री सघ श्राधार, स्फुरद्रुप साहित्य तकलिकार। सुविज्ञात व्याख्यात, जीवाजीवादि तत्त्व विचार। विद्वज्जन सभा शृंगारहारं, अमद सौर्द ( १ सौहार्द ) सह दयालंकार ।
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( २०६ )
अक्रोध, विरोध, विबुद्ध, विशुद्ध ।
आदेयोदार स्फार तर वचन, टतात्यत सशीति निर्वचन । एव. गुरु ||४ | जो.
( ५६ ) तपोधना महासती साध्वी
पुण्यवति तपोधना, करइ देहनी साधना ।
सदैव भणिवा गुणिवा नउ आक्षेपु, नथी लागतउ विलेषु । श्राविका हृइं भणावद्द, धर्म भाव भावई ।
प्रत्युत्तम नारि, महासती चटनवाला नइ अवतार |
गच्छ चिन्ता चतुरि, विज्ञान विद्या विदुरि ।
नी कन्हलि प्रतिबोधनी शक्ति एवडी, रघु हुंतउ मान गजेन्द्र चडी । वचन छलि प्रतिबोध बाहुबलि ।
श्री युगादि देव नइ समवशरण प्राण,
केवल श्री अलकरतउ देखी नगडीसि वखाणउ । ते ब्राह्मी सुन्दरि, जेह श्राचार करी ऊधरी । एव विध महासती ॥ ८ ॥ जै.
(६०) साधु (१)
उत्तम नगर, गुरु क्रियानुष्ठान पर,
जिन वचन धुरंधर, सरस्वति लब्ध प्रसाद वर,
त्रिण तत्व पालन तत्पर ।
नकल गुण भंडार, विज्ञ श्रागम विचार,
सकल सब ग्राधार, शास्त्र ना लकार । जीवादि तत्व विचार, विद्वज्जन सभा शृंगार हार,
त्रिण गुप्ती कारक, पंच सुमति पतिपालक |
चैतालीस सटोप टालकं, प्रहार सहस्र स्त्री सीलाग रथ धारक । तेर काठीया जीपक, भ्रष्ट कर्म छीपक । त्रिगुण गुमि प्रवर्तक || ( पू० )
( ६१ ) श्रावक ( १ )
द्वादस व्रत धारक, शुभ ध्यान मन चालक । श्री बिनपाट श्राराधक, अगणित पुण्यकारक ।
दर्शन पोषक, दान शील तप भावना भावक ।
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( २०७ )
एकवीस गुण सयुक्त उत्तमोत्तम कार्य प्रसक्त । पितृ मातृ भक्त ।
दक्ष विवेक विधि, दक्षिण उदधि ।
भलो भावना भावक, सर्व जीव श्रावर्जक | गुरु वचन श्राराधक, जिन शासन प्रभावक |
धन धान्य समृद्धि, प्रत्यत समृद्धि ।
टानेक वीर, प्रति ही गभीर ।
देव गुरु चरण मधुकर, सर्व कार्य धुरधर । एहवा श्रावक ।
(६२) सु श्रावक वर्णन ( २ )
पाप नह विषद विरक्त चित्त, शत्रु मित्र सम युक्त |
शुद्ध व्यवहार नउ करण हारु, सन्मार्ग नु सचार हारु | धर्म धुरन्धर, मेवक जन सुखकार ।
उचित उलखइ ।
- दया दान पूरउ, सुकृत साचिवा तरउ ।
चार वतु, हाटि इस तउ कृतान्तु |
कुह प्रतिकूट न चवई, त्रिकाल देव पूजा साचव ।
सुश्रावकु, बारह व्रतु प्रति पालक ।
मद्गुरु नी श्राजा वहइ, पुण्यवत माहि लीह लहर || २६ ॥ नै.
(६३) श्रावक वर्णनम् (३)
श्रावक धुरा सूघउ समकित धरइ, विकथा च्यारे परिहरिह || परभव थकी उरइ, सदगुरु ना पाय अगुसरइ ॥ जीवनी जयगा करइ, सकृत भडार भरइ ॥ विसेष ना जाए, गुरु मुख सुणइ वखाण || राखइ सहूना प्राण, जिन वचन करइ प्रमाण ॥ चारह व्रत राखइ, पर मर्म न भाख ॥
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श्रापना अवगुण दाखइ, सहूनी साखर ॥
उपगार कइ अवसर लहो, साइमी सु धरणइ बइसइ नही || कुही नु श्रालि नद्य, नव तत्वादिक नउ अर्थ ल्यइ ॥ देवाधिदेवनी कर रचा न करइ कुराही री चरचा ॥ उत्तरासण घाली, लाबाक्षमाश्रमण द्यइ मन वाली ॥
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पण पर नी विगत नाइ, तर सद्गुरु श्रावकनई वखारगद ||
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( २१० )
(६७) श्राविका वर्णन (२) ... सुश्राविका, पुण्य प्रभाविका, प्राचारवत, विवेकवत । मुशील, सहजइ १सलील । तप उपधान रहा विषय न करइ ढील, टीदारु दीसइ डील सुविचार, अवसरनी उलखणहार । समस्त कुटु व सौख्य करिवा बुद्धि, त्रिपक्ष शुद्ध, स्वभावि मुग्ध । + भर्तार नउ मन राखीइ, न रह सकइ अध घडी घर पाखइ । सहू जिमाडी जोमइ, घणु बोल्यु न गमइ । कण रा विकण करइ, देव गुरूना पग अणुसरइ । चालइ पूर्वज रीति, न करइ किणहनी कफीति । करइ सासू ससुरानी सार, सरिखी मोटा घर नइ भारि । पछइ सूयइ, पहिलेउ जागइ, आपणइ मुखि काई न मागइ। . इत्यो काई सरज्यौ माणस पूरऊ, किणही नउन बोलइ अपूरू 3.। एवडी अंग माहि लाज, आपणऊ अर्थ विनासी सारइ कुटुम्ब ना काज । गोरूनी पीडि लीजई, पुण्यवन्त नइ पतीजै । श्रापण परनी विगति जाण्इ, सद्गुरू न्यायि श्राविका बखाणइ । को कहिसइ गुरू' चाटूया बोल बोलई इस्या । पणि परमेश्वरे वखाणी, रेवती नइ सुलसा । ( सू० और जै० )
(६८) सात क्षेत्र इस्यइ दुःषमाकालि, पसरइ पाप नइ जालि । , सुकृत ना श्राचार साचवइ, सत क्षेत्रीय वित्तु बावइ । . - - . अतिहिं पवित्र, वहिल क्षेत्रु ।' कगवह श्री वीतराग ना प्रासादु, लिय जगत्रय जयवादु । वीजउं क्षेत्र वित्र भरावई, जइ मनि वार एक प्रथम श्रावकु भरतेश्वर वेह न्हइ हरावइ । त्रीनउ क्षेत्र तपोधनु, किसी परि रंजवइ तीह'ना मनु ।
१ तदन्तर अधिक-अतहिं, लक्ष्मीना अवतारी चित्तनीउढार, अवसर नी भोलखलहार। मुसपन दलकार, करइसा,-वडघरिमहा___ द्वादशव्रतधार । अवसरइ उपकार नी इडी, ए वातनथी कृडी। सर्व स्त्री - रोषरहित, शीलादि गुणेसहित । १ सील+वाणी वोलड मीणी जाण्र मिश्रीनइ दुग्ध । २. अफीति ३ अपुरु ४ पीडा ५ स्त्री ६ कुशलधीर । - - -
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( २११ )
चउमासि रहावई, धर्मकथा कहावई ।
पोसाल करावई, श्रोत्रघ वेखद, वस्त्र, पात्र । अनी उपगरावई छात्र, -सयनासननीं चिंता श्राजु लगइ ढीसहु दीसह देववा चथर क्षेत्र तपोधना
कहीयर, तेहना भारण हनि पुण्याते वहीयह 1,
पाचमउ क्षेत्र श्रावकु जाउ,
नेहनी सार पर्युपास्ति करता देखी विस्मउ करइ | छह त्रिनेत्र नउ
- सातमउ क्षेत्र, पुस्तक भरावद, प्रशस्ति लिखावर |
ए सात क्षेत्र वावइ प्रशस्य, नीपनइ पुण्य रूपिया शस्य ।
भली तीर्थ यात्रा करद्द, कलिकाल गर्न हरई ।
भला तीर्थोद्धार करावई सुविचार |
विबुध जन इसु नि कहइ, जिन शासन नउ भार एहेजि निर्वहइ । इसा, तुम्हा जिसा ।
सुश्रावक, पुण्य प्रभायकु ।
देव गुरु नइ आशीर्वाद जयवता वर्त्त उ ॥ २६ ॥ जै०
६६) गच्छ
तपागछा १, श्रोसवालगछ २, जोराउल ३, वडगछ ४, गागेसराय (?) ५, मेरटीश्रा ६, भरुचा ७, चानपूरा ८, प्रोडविया ६, गूंदवा १०, दिकाऊचा ११, भिन्नमाला १२, मोडासीया, १३, दासरुत्रा १४, गछपाल १५, घोषवाल १६, भगडीया १७, ब्रह्माणीश्रा १८ जालोरा १६, वोकडीया २०, मढाका २१, चित्रोडा २२, साचोरा २३, कुचडीया २४, सिद्धातीया २५. रामसेणीया २६, मलवारा २७, श्रागमीत्रा २८, नवराजीश्रा २६, पल्लवीया ३०, कोरंडावाल ३१, नागेन्द्राक ३२, धर्मघोषा ३३, नागोरा ३४, उछित्तवाल ३५, नाणावाल ३६, सारा ३७, मडोरा ३८, सुराणा ३६, खभायता ४०, वडोदरा ४१, सोपारा ४२, मांडलोश्रा ४३, कोटिपुरा ४४, जागडा ४५, मंका ४७, दोवंढनीक ४८५, चित्तावाल ४६, वेगडीश्रा ५०, विज्जाहारेगछ ५२, कतत्रपुरा गछ ५३, कावेलागछ ५४, महुकरा गछ ५६, कन्नरसा ५७, मुगतेला ५८, रेवईश्रा ५६, धूंधूखा ६०, छाभारणीया ६१, पचनलीना ६२, पालणपुरा ६३, गधारा ६४, गूंदेलीयां ६५,
छापरीया ४६, वोर
चाडगव गछ ५१, सटोलिया गछ ५५,
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( २१२ )
सार्द्धपूनमिया ६६, नगरकोटीया ६७, हसकोटिश्रा ६८, भट्टनेरा ६६, जालोरा साठिया ७०, भीमसेणिया ७१, तांगडीया ७३, कवोना ७४, सेवंत्रीया ७५, बछेरा ७६, बहेडा ७७, सिंघपुरा ७८, घोघरा ७६, सजाती ८०, वारेना ८१, मोरंडवाल ८२, नाडोलीया ८३, चोलीया ८४, इति चौरासी गछ नाम । (वि०) ( ७० ) तपागच्छ शाखानाम
विजय १, विमल २, कुशल ३, रुचि ४, हस ५, सुदर ६, सौभाग ७, धर्म १५, सागर ८, आणंद ६, हर्ष १०, राज ११, सार १२, रत्न १३, पुत्र १४, उदय १६, चंद १७, सोम, वर्द्धन १८, एवं १८ शाखानाम् । (वि०), ( ७१ ) जैनमत
दिगम्बर, श्रागमीया, पूनमीया सादपूनमीया, लूका, पासचदीया, अध्यात्ममती, वीनामती, ब्रह्मामती, कोथलामती, कडूश्रामती, सागरमती, कानामती, द्वढ्यामती, इत्यादि मत जाणवा । ( वि० )
( ७२ ) ११ अंग सूत्र
श्रथ एकादशागा
आचारांग, सुगडाग, ठाणांग, समवायाग, भगवती, ज्ञाता धर्मकथाग, उपासागदशाग, तगडदशाग, श्रणुत्तरोववाई, प्रश्न व्याकरण, वियाकसूत्र इत्यादि - एकादशांगा ।
(७३) १२ उपांग
उववाई, रायपसेणी, जीवाभिगम, पन्नवणा, जम्बूदीव पन्नत्ति, चदपन्नचि, सूर पन्नति, कप्पिया, कप्पविडसया, पुफिया, पुप्फचूलीया, वराहीदशा, इत्यादि
बार उपाग |
( ७४ ) १० पयन्ना
देवदथो, तंदुल वेयालियं, चढावज्जियं, गणि विज्जा, श्राउपच्चक्खाण, महापच्चक्खाण, मरण समाघि, चउसरण, मरण विभत्ति, गल्छाचार, इत्यादि
दश पयन्ना ।
(७५) छः छेद
निशीथ, महानिशीथ, वृहत्कल्प, व्यवहार, पचकल्प, दशाश्रुतस्कंध, छःछेद ग्रंथ ।
इत्यादि
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( २१३ )
(७६) मूल श्रागम
श्रावश्यक, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, पिंड नियुक्ति इत्यादि मूल सूत्र च्यार । नंदी सूत्र, अनुयोगद्वार, इत्यादि पैंतालीस ४५ श्रागम जाणवा । वि०
(७७) नवतत्व
(१) जीव, (२) श्रजीव, (३) पुण्य, (४) पाप, (५) श्राश्रव, (६) सवर, (७) निर्जरा, (८) बध, (६) मोक्ष |
धर्म-श्रधर्म | हेयज्ञेय, उपादेय । निश्चय, व्यवहार । उत्सर्ग अपवाद । श्रव, परिश्रव । श्रतिचार, उपचार । श्रतिक्रम, व्यतिक्रम । इत्यादिक साभल्या विना शास्त्र ना भेट न जाणिइ । ( सभागार की द्वितीय प्रतिका प्रथम पत्र ) ( ७८ ) विगय
तेल, गुल, घृत, दूध, दही, कडाविगय, आमिष, माखण, मधु ६ वियनाम । ( ७६ ) संमूच्छिति उत्पत्ति १४ स्थान
(१) लघुनीति, (२) बडीनीति, (३) श्लेष्म, (४) वमन, (५) पित्त, (६) राघि, (७) थूक, (८) लोही, (६) वीर्य, (१०) वीर्य खरडीया वस्त्र, (११) मृतक, (१२) स्त्री नर संग में, (१३) नगर ने खाल, (२४) अने शुचि, इत्यादि में मच्छिम पचेद्री ऊपने ।
( तीर्थकर माता देखे ) चतुर्दश महास्वप्न वर्णन क्रमेण । (८०) गज वर्णन - ( १ )
ससग प्रतिष्ठितु ! शुरडा दण्डि परि कलितु
मत्तु, मदोन्मत्त ।
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प्रचण्ड, उदण्ड |
विन्ध्याचल समानु; उज्ज्वलवानु ।
कोपारण, जिसउ हुई ऐरावण ।
उज्ज्वल, प्रधान दन्तूसल ।
छूटड हॅूतउ पर्वत प्राकार पाडइ, कुण तिहस्यउ पइ सइ श्रखाडे ।
कुम्भस्थलि सिन्दूर नू पूर; ऊपरि कपूर ।'
सुवर्णमय शृखले करी श्रृलकरउ, गज वस्त्रा परिवरिउ ।
रूप्यमय घंटा निनादु, जेहनउ जगत्र जयवादु ।
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( २१४ ) पगि योरु, श्रम करतउ दोसड जाणे तड लक्ष्मी नउ मोर सारमी करतउ; जय श्री वरतउ इस्यउ गजेन्द्र मरुदेव्या स्वामिनी कुदि अवतरिउ श्री ऋषभु ॥ ४३ ।। १०
(८१) वृषभु (२) बीजउ स्वप्न देखइ वृषभु। उद्वाल धवल, प्राणि करी प्रबल । गेम राइ करी सुकुमाल, पूठिई सुविशालु । पृथ्वी नउ भार बहउ समर्थ, परमेश्वरि सिरिज्य उ एणि अर्थ । काधि मोटउ, पूठि घोटउ । नथी दोगु, इत्यउ धुरीणु ।। ४४ ॥ (जै )
(८२) सिंह (३) अकलु अबीहु, त्रीजउ स्वप्न देखइ सीहु । जीणं करि सधणीइ वनु, परिपूर्ण पंचाननु । तीखी दाढ, सविहु जीव माहि जगाटु । अतिहिइ सूरउ, सर्वागि पूरउ । उल्लालित पुच्छच्छय छोपु, सकोपु । मुख सुविकासु, अनइ देखता सप्रकास । छइ वोहामणउ अनइ नहरालउ, सौर्य वृत्ति नउ बालउ । श्राधे नलि घाती बइठउ, राणीइ स्वप्न माहि दोठउ ।। ४५ ।। जै
(८३) लक्ष्मी देवी (४) त्रिभुवन स्वामिनी, चउथउं स्वप्न देखई अनी । रंगरेलि, मूर्तिमती कल्पवेलि । विभूषण ने सहस्ती करी अलंकरी, हाथिए परवरी । सुवस्त्र सुवेष, जेहनी अत्युत्तम रूपनी रेख । नगत्त्रय जीवनु, सुहणइ टोठइ अने सउ थाइ मन । सर्व दुःख निर्नाशिनी, पद्मद्रहनिवासिनी। सकल सौख्य कारिणी, महा मनोहारिणी। परम दैवत्तु , इह लोकि परम तत्तु । परमेश्वरी, इसी स्वप्न माहि राशी अनुसरी ॥ ४६ ॥ जैः
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( २१५ )
(८४) पुष्पमाला (५), पाचमउ पंच पुष्प माला, पांचमउ स्वप्न देखइ बाला । भरीई परिमल ना केउल, एहवा बउल ! गंधिकरी गाढा लांपा, इस्या चापा । सेवत्रा, सौरम्य गुण भरया। लोचने नाशिका पुट अनुहरा, वेल विकस्वर । पहिरिवा दरिद्रीइ, थाइ वाही उर ईश्वर। अनेरा पुष्प प्रति कटक, इसा पुष्प कोरटक । पाखलि फिरइ भ्रमरना वृंद, इसा कुद मुचकुद । अति हिइ बहु मूल, जाइ ना फूल ।। मस्तकि पहिरता करणी, बिवणी शोभा थाइ करणी। सोनडी हह कइ जासूना, जूजउ फुलीना सूना । अति सुविशाल, राणी देखइ प्रधान पुष्पमाल || ४७ ।। जै
(८५) चंद्र (६)
जेह नइ नथी कलकु, इसउ शशाकु । छउ स्वप्न देखइ, अमृत नह उवेखइ । नक्षत्र माहि नाथु, शीतत्व गुणि करि ऊभ्यउ हाथ । जगत्रय न्हइ आणंदकरु, भालस्थल थ्यु न मेल्हइ अध घडोइ ईश्वर । रोहिणी नउ भतर, ज्योत्स्ना करी अपार । अमृत नउ कुण्ड, महिणारभु। मयी देवे मेल्हड हुइ, निसउ मारवण नउ पिंडु । सूर्य ने किरणे गलिवा बीहइ, तउता अधिक न दीसह ते दोहइ । जल निधि रुपीया ज भमंतु, थ्यउ वडवाग्नि बीहतउ। जाणे झडयउ पारउ, लोचन नह पियारउ । श्राकाशि महिषी ना मुख फेणु, वाहणि पणु । इस्यउ चन्द्रमा टीठउ ।। ४८ ।। जै.
(८६) सूर्य (७) अति हिया घणउं, सुयणु सातमउ । तेज नउ भर, देखइ दिनकरु ।
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( २१६ )
जिसउ के प्रधान, अथवा गुन्जार्ध राग समानु । अति हिंगुलो नउ रगु, ऊगतउ एहतउ सुरगु । अधकार हरु, जगत प्रकाश करु ।
आकाश विभूतिइं प्रोटहयउ, प्रलयाग्नि जिसउ हुइ रह्यउ । सत्कर्म साक्षात्कु, दिग्वधू ना नाक नउ जिसउ मौक्तिकु । लोचन विसमउ, सुहणउं सातमउ ।। ४६ ।। नै.
(८७) ध्वज (८) पंच वर्ण पानड़े करी गहगाउ । साथीए करी सनाथु, जिस्यउं हुई साचउ सुकृत नउ हाथु । वली पुष्प वृक्ष नउ अकूरउ, दानव वंश दलिवा सूरउ । वाइ करि फरहरइ, जय श्री वरइ । विज्ञान करी विचित्तु , स्वप्न माहि पवित्त । देवीइ इसउ ध्वज दीठउ ।। ५० ॥ जै.
(८८) कुम्भ (8) स्वप्न माहि निर्दभु, सुवर्ण मइ कुम्भु । गूंहली उपरि माडउ, अलक्ष्मी छाडउ । महामानि, अलंकरथउ श्राबा ने पानि । चिहुँ वाटि करि पट्ट वड़ी, अपरि प्रधान टीबडी। मागलिक माहि पहिलउ, आवउ वहिलउ । तडि आठ मागलिक अविद्ध मोतीना, किम न उल्हसइ स्त्री जोतीना । स्वामिनि मरदेव्या, पूर्णकलश सु नव स्वप्न अनुभव्या ।। ५१ । ने.
(८६) सरोवर (१०) महा मनोहर, दशमउ देखइ सरोवर । पाणी भरिउ, राजहंस ने युग्मे अलंकरिउ । चकोर चक्रवाक नासइ, महा मत्स्य हसइं। श्राडिनी उलि एक लग, बहु विध ढीक बक । सार कुटलई, पर्वत प्राय मगर गल लइं। . माहे कमल उन्निद्र, जाणेच्छह समुद्र । चन्द्रमा मिलवा नइ करइ कल्लोल । हिम वर्ण टीस्यह पालि वली, जिहां छह सच्छाइ वृक्षावली ।
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( २१७ )
तिहां बइठा बल कण लागई, साथ कहइ ईहा रही स्यका आगई। पृथ्वी माहि पामोह, मार्ग श्रमु गमोइ । इस्यउ सरोवर टीठउ ॥५२।। जै०
(९०) रत्नाकर (११) महारत्न नु अागरु, इग्यारमउ स्वप्न देखइ सागर । मच्छ, कच्छ, पाठीन पीठ जलचर जीव अनीठ । महा निरवधि, क्षीरोदधि । अतिहिं उद्दण्डु, डिंडीर पिण्ड । तेहे विराजमान, मर्यादा करी प्रधानु । गंभीरिमा गुणि करि गाजइ, श्रापणी मर्यादा रह्यउ कहइन्ह न विराज । महालक्ष्मी धरु, इसउ स्वप्न देखइ स्वामिनी प्रवरु ॥५३॥ जै०
(११) देवविमान (१२) रहित शोकु, जिसउ बारमउ हुइ देव लोक । इसउं विमानु, सुरागणा ससेव्य मानु । स्वर्णमय कु भ सहस्त्रि परिकलितु, दिसि एकइ नहीं निहा तोरण टलतु । जिहा बार सूर्य ना उदय, रत्ननटित इसा चद्रोदय । दीठो हरइ अलच्छि, इसी चिंहु पखे परीयच्छि । परिमल करी विशाल, माहि लंबायमान फूल नी माल । अगर गधि उच्छलइ, जबाधि ना परिमल मिलई कपूर महकइ, कस्तूरी महकइ, जय पताका लहकइ । भ्रमर गुणगान करइ, बारमुं स्वप्न देखइ॥ (३०)
' (१२) रत्न राशि (१३) चन्द्रकान्त, पद्मकान्त । पपराग, पुष्प राग । हीरिताक्ष, लोहिताक्ष। कर्केतन मणि, वैडूर्य मणि । गुरडोद्गार, पुलकोद्गार । हीरा मणिकलां, अविद्ध मौक्तिक भला । । त्रास रहित, तेज सहित ।
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( २१= )
रन तयी राशि, प्रवेश करती श्रावासि । जिसउ सूर्य होइ श्रनभ्र, तिसा म गर्भ । जिला लोक चितरनन, तिमा जन । सविहुँ र प्रति मल, इमा मसार गल्ल । तेन ता चुलक, दसां पुलक ।
इसम तेरम स्वप्न दीउड ||५५॥ ०
(६३) निर्धूम अग्नि शिखा ( १४ )
तेज प्रखर, चम्म स्वप्न वैश्वानन |
सप्त ज्वाला करासु, देखता तीका |
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उद्ध मुनु, धूप नए विपद विमुगु ।
धगधगाय मानु, स्वप्न माहि प्रधान ।
होतव्य द्रव्य नउ प्रमगृहारु, तेनु वर्त्त लोक व्यवहार |
श्रुति करि सच्याउ, हसतिका रच्यउ ।
मर्यादा ज्वलत, निद्राना बलइतउ ।
राणी इत्या त्वप्न दीठा, मनन्हइ लाग्या मीठा ।
जै
श्री कल्प मध्ये चतुर्दशस्वप्न वर्णनानि ॥ १४ ॥ ५६ ॥ (६४) वैमानिक देववर्णन
प्रति सुकुमाल, रसाल ।
दिव्य देह, प्रति सस्नेह 1 निरामय शरीर, प्रतिधीर । महामानी, भागी, अमृताहारी, अति प्रोढा, विमानाधिरूढा || ७ || जै०
सोख्य व्यापारी ।
.. *****.
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( ६५ ) सौधर्म देवलोक स्थिति
सामलउ सौधर्मेन्द्र तणी स्थिति । सौधर्म ।
रत्नमय भूमि, शक्र सिहासन, सूर्य जिम झलकतउ, तिहा बाइसइ शक इसिह नामिइ सौधर्मेन्द्र । दक्षिण लोकाद्ध' स्वामी, एरावण वाहण, बत्रीस लाख विमान तणउ श्रधिपत्य पालद्द, लीला लगइ वैरि दुःसह स्फुलिंग (सह) सहस्र वरस त ज्वाला ना सहस्र भरतउ, देदीप्यमान दक्षणहस्ति वज्र ऊलालः । चउरासी सहस्र श्रुति स्वच्छ निर्मल वस्त्र मस्ति, चद्र मंडल सम त्रिन्नि छत्र कनक दड चमर दिव्य आभरण डबरन इन्द्र सामाजिक देव सपरिवार तेत्रीस त्रायस्त्रिंश इसिह
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( २१६ )
नामइ दुगु दुग देव, ४ लोकपाल । पद्मा, शिवा, अजु श्यामा सुलसा, अचला कालिंदी भाणू ए अठ अग्र महिषी, सोल सोल सहस्र देवी परिवृत्त, १२ सहस्र अभ्यतर सभा तणा देव, १४ सहस्र मध्यम सभा तणा देव, १६ सहस्र बाह्य, सभा तणा देव, ७ कटक नाट्य, गधर्व हय, गज, वृषभ, रथ, पदाति रूप ७ कटकतणा स्वामी। नीलंजणारि जसहरि एरावण मातलि दामिही हरिणेगमेषी ७ सर्वा गि सन्नाह पहिरि, दृढकशा बधि बाधी धनुषि गुण चडावी रहया, ग्रीवा भरण विभूष्य मस्तकि। नेत्रादि वस्त्र मय अथवा सुवर्णमय टोप धरता सज्जी. कृत क्षेप्यास्त्र, गृहित अक्षेप्यास्त्र मध्यि बिहु पासि एव बिहु स्थानकि नम्या । त्रिहु स्थानकि साध्या इस्या वज्र मय कोटि धनुष मुष्टि स्थानकि सारहिया, नील वर्ण, पूष पीत वर्ण, रक्त वर्ण, पुख इस्या बाण हाथि धरता, केतलाइ अनारोपित चाप हाथि लेइ रहिया, केइ खेडा हाथि, केइ खाडा हाथि, केइ दड हाथि, केई पाश हाथि, केतलाइ नील वर्ण, पीत वर्ण, केतलाइ रक्त वर्ण, केतलाइ त्रिवर्ण चाप प्रमुख शस्त्र धरइ छइ ।
सर्वे स्वामी शरीर रक्षा सावधान, अनेथि मन अणकरता, मडली नो स्थिति आलोपतां' परस्पइ आतरु पडतु टालता, परस्पर संबद्ध, सदा विनयवंत्त, अत्यन्त भक्त, इस्या त्रिन्नि लाख छत्तीस सहस्र अगरक्षक देव सम श्रेणी निरतरि इन्द्र पाखतो रहिया छई। इम सौधर्मेन्द्र धर्म तण्ड प्रसादि महासुख अनुभवइ, इम अनेराई देवेन्द्र ना सुख जाणिवा छ०॥ (१६४ जो. )
(६६) देवलोक सुखे
देवलोकणी, केवडी ऋद्धि, केवडउ सुक्ख, जहि मनोवाछित विमान सपनइ, मनोवाछित आहार, मनोवाछित सिंगार, मनोवाछित अगभोग, मनोवाछित, आभरण, मनोवाछित रत्न, मनोवाछित नायका, मनोवाछित प्रेक्षणक मनोवाछित नाटक, अने अनेक परि क्रीडावन, सरोवर, पुष्करिणी, वैक्रिय लब्धि संपन्न हूता विचित्र क्रीडा करइ, शरीरि प्रस्वेद नही, फूला कुर्माइ नही, वस्तु मइलियह नही, फूटरा पहिरणा चागण चोटा थका देव सुक्ख अनुभवइ,
१-अलोपता -प्रभावि।
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( २२० )
(६७) देववर्णक (१) "अति सुकमाल, विसाल भाल । करता झाकझमाल, अतिरसाल || 'दिव्य देह, रूप रेह ।। मयण गेह, अति सस्नेह ।। निरामय शरीर, धीर वीर ॥ महामानी, टीसता जेहवा जानी ।। "विराजमान कुडल, दर्प निसा गल्लस्थल ॥ महा भोगी, साक्षात देखइ जोगी ।। अमृताहारी, स्वेच्छाचारी ।। सदय सनूरा, क्रुद्धई करी पूरा ।। 'मलमूत्र रहित अवितशक्ति सहित । विमाने बइठा वहइ, भूमियी च्यार अगुला ऊचा रहह ।। मुनि 'कुशल धीर कहइ', टेव, ... ।।
इति देव वर्णक || कु.
(८) मोक्ष इन बातों में नहीं मोटी छोटी कछोटी मोक्ष नहीं, कापाय धोती मोक्ष नहीं । विकट जटा मुकुटि मोक्ष नही, निष्कारणि शिक्षा मोक्ष नहीं। कठि जनोई मोक्षि नहीं, हाथि अनति मोक्ष नहीं । अखंड त्रिदडि मोक्ष नहीं, कन्हइ कमडलि मोक्ष नहीं । मस्तकि मुडिड मोक्ष नहीं, वन वासि मोक्ष नहीं । किन्तु रागद्वेष परिहारि शुद्धि मनि मोक्ष हुई।
रागी बध्नाति कर्माणि वीतरागो विमुच्यते । जना जिनोपदेशोय सक्षेपास्ध मोक्षयो ।॥८७। जो.
(९६) मोक्ष इन बातों में नहीं नच्छोटी कछो मोक्ष, न विक्रटि जटा मोक्ष । न कण्ठ कंटर स्थित यज्ञोपवी मोक्ष न अखण्डि त्रिदण्डी मोक्ष । न विशालि कपालि मोक्ष, न स्वदर्शन मुण्डनि सिरे खुडनि मोक्ष । न नियंत्रित सर्व करणि विकृष्ट तपश्चरणि मोक्ष । किन्तु राग द्वेष परिहारि सुद्धा निर्मल मनि पावीइ ।
१. शिखा
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( २२१ )
( १०० ) लक्ष्मी देवी वर्णन
पुण्य लक्ष्मी पवित्र, एह भरत क्षेत्र । परइ हिमवत पर्वत सुवर्णमय छइ । एक सहिस्र बावन जोऋण श्रनई बार कला जे पिहुलउ । सउ जोश्रण ऊंचउ । तेह उपरि पप्न द्रइ छइ । जे किसउ ? निर्मल जल परिपूर्ण । दस जोश्रण ऊंचउ । पाँच सउ जोश्रण पिहुलउ । सहिल जोश्रण लावउ । वज्रमय पासा । तेह पद्मद्रह माहि श्री देवता वसिवा योग्य कमलइ । ते किसिउ ? एक योग पिहुलउ, एक जोश्रण लावउ । जोश्रण माहि विकासे पाणी ऊपरि । त्रिणि जोश्रण सविसेष तेहनी परिधि । वज्रमय तेहनूं मूल । रिष्ट रत्नमय कद । वैडूर्य नम निल रत्न | तेह मय नाल । रक्त सुवर्णमय तेहना बाह्य पत्र | किंचि रत्तमय नाबू नइ नाम सुवरणी तेह मय श्रम्यतर पत्र । तेह कमल माहि बीन कोस रूप । सुवर्ण मय कर्णिका छइ । ते किसी ? रक्त सुवर्णमय तेहना केसर । बिकोस तेलाबी नह पिहुली । एक कोस ऊंची । त्रिणि कोस सविशेष तेहनी परिधि । तेह कर्णिका नइ मध्य भागि श्री देवता योग्य भुवन छइ । ते किसउ १ एक कोस लाबू, एक कोस पिहुलु, माहेरडं कोस च । त्रिणि द्वार तेह भुवन तणाएक पूर्व दिशि- एक उत्तर दिशि - एक दक्षिण दिशि । ते बारणा पाचसइ धनुष ऊचा, श्रठीसइधनुष पिहुला । तेह माहि श्रढीसह धनुष प्रमाणमणि मय वेरका | जे ऊपर श्रीदेवता योग्य सघन छइ । हिवइ जे मूलिगउ कमल कहिउ ? तेह कमल नेरे श्रोत्तर सउ कमले वलयाकार पणइ वीटउ छइ । ते सघाइ कमल मूलगा कमल तउ - श्रई प्रमाण जाणवा तेहे सविहु कमले श्रीदेवता तणा आभरण रहह । तेइ वलय पारवतोइ बीजड कमल नउ वलय छइ । विus वलय श्री देवी तथा च्यारि सहस्रि जे छह । सामान्य देव नेहणा वायव्य ईशान उत्तर दिशि च्यारि सहस्रि कमल छइ । ते मुख्य कमल नउ श्रद्ध प्रमाण
जाणवा । तथा श्री तराइ महा मंत्रि कल्प छइ । जे च्यारि महत्तरादेवी तेहना / न्यारि कमल पूर्व दिशि जाणिवा । श्री देवी तराइ अभ्यंतर पर्षद तणा आठ सहस्र
छइ जे मुख्य स्थानीय देव । तेहणा दश सहित कमल श्राग्नेय कूणिवा । श्रीदेवी तराइ मध्य पर्षद तणी दश सहिस छइ ते मित्र स्थानीय देव । तेहणा दश सहिस कमल दक्षिण दिशि जाणिवा । श्री देवी तणा बाह्य परिषद बार सहित्र छइ जे किंकर स्थानीय देव तेह तणा वार सहित्र नैऋत्य कुणि कमल जाणिवा । श्रीदेवी तणइ हस्ति अश्व रथ पायक । महिष नाम गधर्च रूप जे सात कटक तेह तथा जे सात स्वामी तहे तणां सात कमल पश्चिम दिशि जाणिवां । तेह बोना कमल नइ वलय पावतीइ त्रीनउ वलय छर, विहा श्रीदेवी तणा जे सोल सहिल ग
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( २२२ )
रक्षक देव तेह तणा सोल महिन कमल- जाणिवा । तिवार पूठई चिणि वलय बलि कमल ना जाणिवा । तिहा अभ्यतर वलय श्रीदेवी तणा-छत्तीस लाख ने
आभियोगिक देव तेह तणा छत्तीस लाख कमला जाणिवा। मध्य वलय श्रीदेवी तणा-४०००.०० श्राभियोगिक देव तहे तणा ४० लाख कमल जाणिवा । वाह्य वलय श्रीदेवी तणा-४८ लाख आभियोगिक देव. तहे तणा ४८ लाख कमल जाणिवा ।
एवं एक कोड़ि बीस लाख पचास सहित्र एक सउ वीसोचर कमल जाणिवा । एवडा कमलवासी देव अनै देवी एह सगलउ श्री देवी तणउ परिवार जाणिवउ ।
देह प्रभामर विभासुर देव देवी, ससेव्यमान वलमान् छिनाभ हस्ता । रत्नौज्वला भण मंडल मडिताङ्ग । श्री तीर्थराज पटपंक संग भृगा दारियम् “१” इति श्री लक्ष्मी देवता ऋद्धि वर्णन । पं० हर्ष रत्नमुनि पठनार्थ ।
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सभा श्रृंगार
अथवा वर्णन-संग्रह विभाग ९ सामान्य नीति वर्णन
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(२२६)
(५) इनमें ये दोप . चद्रस्य क्लको दूपण, सूर्यस्य प्रताप. समुद्रस्य क्षारत्व, शरीरस्य रोगः ।। तपसः क्रोध, जलघरत्य श्यामत्व, ससारस्य दुख भडारत्वं । धनवता कृपणत्व, दानिना निर्धनत्वं । पुण्यवता अवमित्व, स्त्रीणां बदृस्था । मेघत्य चपलत्वं, कमलेनु कटक्वि । एवं विधातुर्दोपा ।
॥ १० ॥ नो०
(५) कोई न कोई कसर सब में (१) विष्णु दशावतारन्ग उडि भागऊ, ईश्वर नागऊ, ब्रह्मा पंचमा मस्तक नो चूको, चंद्रकोरो, शुक्र काणो, शनीचर कूबडो, श्रादित्य सतापकर सूर्वसारथि पागुलो, मगल-विक्रीयो, रावण परन्त्री कारणे विगतो, राम सीताप्रति बनवान हुप्रो, पांडव कौरव विरोधवाधियो, कर्णराजाइ अापण जिह्वा घोडो वाध्यो, विक्रमाटीत्य माग मास खाधो तोही अजरामर न हूओ, नल गजा परघरि सूयारपणो क्रे, हरचन्द चडाल ने घरि पाणी भरे, परमराम बापणी माय तणो शिर कमल छेदे, माघ जेवडो विद्यास पगसूझि भूखि मुऊ, गांगेय जेहवो सुभट पुत्र ने वरा से पड़ें, सगर चक्रवर्ति माठसहरू वेटा तणो दुख . देखे, वासुदेव बलदेव द्वारिकानो दाध उदेखे, भरतेश्वर बाहुबलि मंग्राम (स) श्राप माहि करे, मृत्यु पग हेठल वसि संसार माहि सहुण्इ हंद्रयाल दीने, तेह. कारण शास्वती कीर्ति उपजाववी, जगत मांहि प्रसिद्ध लेवी, इत्यादि जाणवी। (पू०)
(६) दोप सत्र में (२) नसारे नैव कर्त्तव्यः केनाप्चत्र महोटयः । येनो विनि कस्यापि सहते शास्वत सुख ॥ . विष्णु दशावतारि तणइ झउडि भागउ, ऐश्वर नागउ । ब्रह्मा पाचमा मस्तक तउ चूकउ । . चंद्र कोचरउ, शुक्र काणउ । , शनैश्वर कवडउ, आदित्य संतापक ।
:-प्राधणे २-जिशा
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(: २२७ ) सूर्य सारथि पागुलउइ, मंगल विक्रउ, समुद्र खारउ । रावण परस्त्री कारणिय विगूतउ । राम सीता प्रति वनवास हूउ । पाडव कौरव विरोध वाधिउ । करणिं राई श्रापणी जिह्वा घोडउ बाधउ । विक्रमादित्य काग मास खाधउ, तुही अजरामर न हूयउ। नल राजा परायइ घरि सूवार पण उ करइ । हरिश्चद्र चाडालनइ घरि पाणि भरइ ।
फरूसराम आपणी माइ तणु शिरः कमलच्छेदई । ) माघ जेवडउ विद्वास पग सूझी भूख मूबउ । नागार्जुन रस सिद्धि पूठि घाठउ । गागेय जेवडइ सुभट पुत्र नइं वरांसइ पडइ । सगर चक्रवर्ति जेवडर साठि सहस्त्र वेटां तणउं दुख देखइ । भरतेश्वर बाहुबलि श्राप माहि सग्राम करइ। वासुदेव बलदेव द्वारिका तणउ दाघ ऊवेखइ। मृत्यु पग हेठि बसइ, संसार माहि सहूयह इद्रजाल दीमइ । तीह कारणी शाश्वती कीर्ति ऊपार्नवी, जगत्रय माहि प्रसिद्धि लेवी ॥
(७) अनुसार (१) मंतोष सारु सुख, सत्य सारु वचनु प्रत्यय सारु लेख, आज्ञा सार राजु विनय सारु शिष्य, पुत्र सारु कलत्रु दान सारु विभवु, टया सारु धर्म । (-पु अ.)
(८) अन्योन्याश्रित (२) जेहवो राजा तहवी नीत, भीत सारूचीत ।। रोग तेहवी नीत, कुल सारु रीत, मन केडे प्रीत ।। वाप तेहवो वेटो, बड तेवो टेटो ।। घडो तेहवी ठीकरी, मा तेहवी दीकरी ।। जाल जेहवा मछ, व्याधि तेहवा पथ्य ।।
१ जल जेहवो ठाम ।
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( २२८ ) धन तेहवा व्यय, सैन्य तेहवो जय, चोर तेहवो भय ।। कठ तेहवो राग, कर्मानुसारु भाग ।। व्यापार तेहवो लाग, बालण तेहवी आग || सग तेहवो रंग, अकल सारु ढंग ।। डेरा सारू तग, सरीर सार' ढंग ।। श्राहार तेहवो डकार, अन्याय तेहवो मार ।। विनय तेहवो कार , कर्म प्रमाणे आचार ।।
इत्यादि । ५. (8) परिमाणानुसार (३) जाति मान समाचार,3 विवेक मानि विचार । घर मानि प्राहुणउ, क्रयाणा मानि आध्नु । खाडा मानि पडियार, धनुष मानि पणच । सयर" मानि छाया, पग मानि पाणही।
ऑखि मानि भरणु, जाख मानि बलि । भिराडी मानि पूडा, गुण मानि तिम माणुस पूजा ॥ रज जे.
(१०) परिमाणानुसार (४) खाडा मानि पडियार, धनुष मानि पडच । सयर मानि छाया, पग मानि पाणही । श्राख मानि भरणु, रूख मानि फलु । जाख मानि बलि, भराडि मानि दीवेलु । घर सारइ प्राहुणउ, जाति मानु समाचारु ॥ (पु. अ.)
(११) परिमाणानुसार (५) सकल कल्याण वल्लि पुष्करावर्त मेघ जिन धर्म । जीएई मानि दया, तोणइ मानिई धर्म । जोणइमानि कर्म, तीणइ मानि फलियइ । उपक्रमा जिसिया कुल, तीणइमानि वचन । जिसी भीति, तिसोउ चित्राम ।
१ प्रमाणे । २ उद्गार । ३-प्राचार । ४-ग्राम सारु सिणिो । ५-सरीर । ६ फलिर)
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(२२६ ),
जिसी प्राकृति तिसिया गुण जीणइ मानिइ वय, तीण मानिई बुद्धि । 'जिसिउ भाव, तिसी सिद्धि । जिसीया' जल, तिसिया कमल । जिसीउ श्राहार, तिसियां बल । जिसिया वृक्ष, ससालियइ तिसिया फल । जिसी अंतकालि मति, तिसी गति । जीणइ मानि दान, तीणइौं मानि कीर्ति । ६१ । जो०
(१२) अन्योन्याश्रय (६) जिसोवास,
तिसो अभ्यास ॥ जिसी सीख,
तिसी मति ।। जिसो आहार,
तिसी डकार ॥ जिसो वावीइ ,
तिसो लुणी ॥ जिसो कमावीई
तिसो पामीइ ।। जिसो दीजे
तिसो फल लीज।। जेहवी करनी
तेहवी पार उतरणी इत्यादिक जाणवी । (पू.)
(१३) अन्योन्याश्रय (७) जिसिउ वास, तिसिउ अभ्यास । लिसी टीख, तिसी सीख । जिसिउ श्राहार, तिसिउ उद्गार । जिसिउ वावीया तिसिउ लूणीयइ । निसिउ कमाईइ तिसिउ प्रामीयइ फलु । जिसिउ टीनइ, तिसिउ लीजइ ।। २६ ।। जो०
(१४) अन्योन्याश्रय (८) जिसउ वासु, तिसउ अभ्यासु। जिसी दीख, तिसी सीख । जिसउ आहारु, तिसउ उद्गारु । जिसउं वाविया, तिसउ लूणियह । २ जिसा २ तिसा ३ सेसालिइ ४ फजल
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( २३० )
जिसं थवियइ, तिस खणियइ । जिसउ टोजइ, तिसु लाभइ जिस कमाईय, तिस अमाई || ( पु. अ.)
(१५) ये इनको जानते हैं (१) मनु नाणइ पाप, माता जाणइ बाप । गारुडी नाणई साप, वाणिउ जाणइ माप । प्रासद जाणई घोडा, कडीउ जाण्इ रोडा । सोनार जागइ सोना कडा, कंदोइ जाण्इ बडा । हस जाणइ क्षीर, मत्स्य जाणइ नीर । मुख नाणइ मीठा, दृष्टि जाणइ दीठा ।। २७ ।। जो+
(१६) इनको जानते हैं (२) मन जाणइ पाप, मा जाणइ बाप ।। हंस जाण इखीर, मच्छ जाणइ नीर ।। मुँह जाणइ मीठा, दृष्टि जाणइ टीठा ॥ पग जाणइ पागी, राग जाणइ रागी ।। दाव जाण्इ टासी, कायर नाणइ नासी ।। नारद नाणइ हासी, डोकरउ जाणइ खासी ।। गाडी नाण्इ मन, कापडी जाण जत्र ।। जाचक जाएइ लीयउ, दाता जाणे टीयउ ।। वडर जाणइ कीयउ, छोल नाणइ होयउ ।। चोर जाणे पात्र, अोझा जाणइ छात्र ।। जगम जाणे जात्र, पुण्यवत नाणे पात्र || क्रसण जाणइ जाट, सोनार जाण्इ घाट ॥ कवित्त जाणइ भाट, खराटी नाणइ खाट || तबोली जाणइ पाननी चोली, स्त्री जाणइ पोलो ।। कूड जाणे कोली, मथेण जाण्इ बोली ।। माया नाणे गोली, बाहर जाणे गेली ।। बाणिवर माणइ जोखी, दूपण जाणइ दोषो ।। मोची जाणे जूती, कपट जाणइ दूती ।। ( स्वार + पं जोणे उगु ।
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(०२३१) सकुन जाणइ सिद्धि, पुण्य जाणइ रिद्धि ।। सराफ जाणे परखी, वस्तु जाणे निरखी ।। दलाल जाणे साट, तिम 'धीर' गुरु जाणइ धर्म नी वाट ।
इति नाति वाक्यानि। कु० .
(१७) ये इनको जानते हैं (३) हस जाणइ खीरु, मच्छु जाणइ नीरु ।
आसंदउ जाणइ घोडा, महिरालु जाणइ महु मोडा । कदोई जाणइ बडा, सोनारु जाणइ कडा । गारुडिउ नागइ मापु, मनु जाणइ अापु, मा जाणइ बापु । महु जागड मीठा, दृष्टि जाणइ दीठा ।
(पु० अ०)
(१८) इनसे यह नहीं हो सकता
पगुर्यथा बहु योजनाटवी लघयितु (न शक्नोति )। वामन स्ताल फलानि लातु न शक्नोति । यथा कुञः प्राध्वरी' भवितु २ न शक्नोति । वात भग्न शरीरश्व विषम किरणानि दातु न शक्नोति । विद्यारहि तश्चाकाशे गंतु न श० अधः पुस्तक वाचवित्तु न श० । बधिरः पयर्यालोच क न शक्नोति । तथानिर्भाग्यापि धर्म कत्तुं न शक्नोति ।
(१५४ जो०)
(१६) अशक्यता
(२) जडोप्यह गुरु प्रसादाद्वक्तुं शक्नोमि, . मन श्रान फलानि गृहीतु कथ शक्नोति । ।
२. साध्वरी। २. भावितु।
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(२३२) अंघश्चित्रशालिं चित्रयितुं कथं शक्नोति । चधिरो वाणी निनादं श्रोतुं कथ शक्नोति । पगुस्तीर्थाणि अवगाहयितु कथं शक्नोति । पाषाणः सौकुमार्ये स्थातु कथं शक्नोति । निंबो माधुर्ये स्यातुं कथं शक्नोति । काको हस संसदि स्थातु कथं शक्नोति । क्रमेलक करि वरेषु स्थातु कथ शन्नोति । एव मु.पि पंडितत्त्वे स्थातु कथाशक्नोति ।
(३१ जो)
(२०) स्वाभाविक
मत्पुरुष परोपकार किसिउ सीखवीयइ । सालि किसिउखाडीयइ, रूपि किसिउ माडीयइ । होर किसीउजडीयह, मोती किसिउछडीयइ । अमृत किसीउ कढीयइ, सारश्वत किसीउ पढ़ीयइ । शख किसी धवलीयइ, दूध किसीउ गलीयइ ।
(३० जो०)
(२१) ऐसा प्रयत्न व्यर्थ है
सरस्वती किम पाढियइ, अमृतु किम कढियइ । माणिकु किम घडियइ, मोती किम छडियइ । निगुण किम बटियइ, सुगुण किम निदियइ, वाउ किम बाधियइ । हरिण तणा नेत्र किम आजियइ, कुर्कट तणा चरण किम र नियह । कल्पम किम रोपियइ, साखु किम धवलियइ । सूबरु किम वालियइ, ऐरावणु किम दामियइ । चिन्तामणि किम पामियइ, कामधेनु किम वाहियइ । हिंग किम वारियइ, वेदु किम सस्कारियइ । रूपिणि किम माडियह, सालि किम छडियद ।
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( २३३ ) हारु किम शृगारियइ, लक्ष्मी किम निवारियइ । स्वर्ण किम उनालियइ, हीरउ किम पखालियइ । पु० अ०
(२२) असभव प्रायः वामणो श्राबें पोहचे, मूर्ख काई सोचे, अधक भीति चित्रे, धूर्त कोइ न छिरें । वहिरो वीण सभिले, जूआरी वचन पालें । अंधलो अख्यर वाचे, आडि जलमा छुड़े 'पागुलो, पाघरो होंडे, तो कृपण दान पालें । इत्यादिक जाणवो ॥५
(२३) असभव
यदि मेघ धाराणा सख्या भवति । यदि भूतले रेणुका सख्या भवति । यदि सुमुद्र मत्स्य सख्या भवति । यदि मेरुगिरि सुवर्ण सख्या भवति । ततः अमुक सख्या भवति ।। ८२ ।। जै.
प्रतिज्ञा वर्णक ( २४ ) प्रतिज्ञा अन्यथा नहीं होती कटाचित् समुद्र मर्यादा चलइ । कदाचित् वाचस्पति वचन खलइ । कदाचित् शिला तलि कमल विकसइ । कदाचित् महीमडल पाताल जाई । अथवा प्रतिपन्न अन्यथा न थाइ ॥ छ । पु. (२५) यदि ऐसा हो तो कोई उपाय नहीं (१)
यदि समुद्रस्य तृष्णस्याचदा तां कः स्फोटयति ? यदि भूमिः १ कम्पते तदा कः स्तभयति ? यदि सहस्त्रानो न पश्यति तदा कः उपचार ? यदि नभ स्फुटति तदा की हश रेहण ? चौरेण राजा गृह्यते तदा कस्यापि को रक्षकः ? यदि हिमाचलः शीतेन कम्पते तदा किमावरणं ? यदि सरस्वती सन्देहं न भंजयति तदा को अन्यः ?
१ चूट ।
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(२३४ ) यदि वृहस्पतिर्मतिहीनो भवति तदा को मति' दास्यति ? यदि चन्द्रादगार वृष्टि भवति तदा को रक्षकः ? यदि वाटिका चिर्भटाना भक्षति तदा को रक्षकः १ । ८४ जै.
(२६) यदि ऐसा हो तो कोई उपाय नहीं (२)
जो राना चोरी करे तो बाजो कुण राखें जो सत्यनत खोटु भाखें तो बीजो कुण न भाखें । जो चन्द्रमा शीतल न होड तो बीजो कुंण शीतल होइ। जो सूर्य अधकार न निवारे तो बीजो कुण निवारे यदि सारटा सदेह न भाजै तो बीजो कुण भाजै नो वृहत्पति मतिहीन तो बीजो कुण मति देस्ये जो शेषनाग धरती मूकइ तो बीजो कु ण धारस्ये जो समुद्र मर्यादा मेले तो बीजो कुण गखें जो श्राकाश पडे तो बाजो कुण थमे ।। जो सजन उपकार रहित तो बीजो कुण उपकार करें ।। जो लक्ष्मी भंडार तोडस्ये तो बीजो कुण भरस्वै इत्यादिक जाणवौ ।। पु०॥
(२७) यदि ऐसा हो तो कोई उपाय नहीं ( ३) यदि राजा चोरी करोति तदा को रक्षकः । समुद्रस्य तृष्णा कः स्फोटयति । यदि हिमाचलः शीतेन म्रियते तटा कि दृग प्रवरणं । यदि सहस्त्राक्षो न पश्यति तदा कि गुपचारः। यदि सरस्वती सदेह न भजति तदा को भजति । यदि लक्ष्मी भाडागार द्रव्यं सात्रोट तटा कः पूरयिष्यति ।
२-पृथ्वी २-दक्ष 'पु०' प्रति में यह पाठ अधिक हे
यदि लक्ष्मी भढागारे द्रव्य सत्रुट तदा क पूरयिष्यति। यदि सत्पुरुष उचित रहित. तदा की शिक्षा दास्यति ।।
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( २३५) यदि बृहस्पतिर्मतिहीनस्तदा को मति दास्यति । यदि पृथ्वी कंपते तदा क. स्तमः। यदि नभः स्फुटति तदा की हग रेहण । यदि पुत्री भक्ति न विधास्यति तटा को विधास्यति । यदि शिष्यो विनय न करिष्यति तटा कः कर्ता । यदि सत्पुरुप उपकार रहितस्तदा कः शिष्या (क्षा) दास्यति ||३४|| जो
(२८) इनकी त्रुटि इनसे पूरी नहीं हो सकती
द्राक्षा तणी' आकाक्षा, किसिउ महूडे फीटइ । शर्करानी श्रद्धा किं गुलि पूजा । अमृत काजि किं काजी पीजइ । श्रावा तणउ डोहलउ कि प्रालीए पूजइ । कस्तूरी वान' किं काजलि कीजइ । इद्र नीलमणि काजि कि काचु लीजह । वल्लभ माणुस तणो उमाह किसिइ अनेरइ पूजइ ।
( ११६ जो०)
(२६ ) अंत (सीमा)
कलशात प्रासाद, गजान्त लक्ष्मी, ध्वजात धर्म । नरकात राज्य, गोरसात भोज्य । घधनात व्यापार, हारात' शृङ्गार । व्यलीकात, स्नेह, कलहात गेह । क्षय रोगान्त देह, शरत्कालात मेह ॥२३॥ जो.
(१) नी • नू काज ३ नइ (पु० प्रति) १-हीरात "वियोगात छेह" इत्यादि जाणनो।
प्रत्यतइ मे पाठ अधिक मिलता है।
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(२३६ ) अंत सीम (३०) अंत (२)
कल शान्त प्रासादु, राज सभान्त वादु । प्रवासान्त स्नेह, नामान्त केवली। स्वर्णान्तु शृङ्गार जान्त गुणितु, नर्कान्त पठितु पटान्त दुर्जन स्नेह, गजान्त लक्ष्मी, नायकान्त युद्ध, हट्टान्त व्यवहार कसवटात स्वर्ण ॥१०१।। जै०
(३१) गुण प्रधानता
समुद्रच्चद्र इव कृमिकुला दुकूल मिव । उपलात्सुवर्णमिव, गो रोम तो दुवित् । पंकात्ताम रसमिव, गोमया दिंदीवरमिव । काष्ठ कोटरात् वह्निरिव, नाग फणादिव मणिः। गो पित्ततो रोचनावत्, चद्रकांतादमृतवत् । मृगात्कसतरी केव, द्राक्षाया इव माधुर्य । शर्करात इव पित्तोपशमः, चंदनादिव शैत्यं । मंजिष्ठाया इव रागः, मेघादिव विद्युत्। तथा सर्वोपि ननो गुणैरेव ख्यातिमान भवति ननतु कुले । शील प्रधानं न कुल प्रधान, कुलेन किं शोल विवजिनेन, बहवो नरा२ नीच कुलेपु जाता, स्वर्ग गती शीलमुपास्य धोरा ॥ १ ॥ गौरवं लभते लोके नीच जातोपि सद्गुणः । सौरभ्यात्कस्य नाभीष्टा कलूगे मृग नाभिजा ।। ६३ || जो०
(३२) संग से वृद्धि (१) सुवचनेन मैत्री वद्धते । इदु दर्शनने ममुद्र । शृगारेण रागः । विनयेनगुणाः । दानेनकीर्तिः । उद्यमेन श्रीः । मत्येन धर्मः । पालनेन उद्यानं । अभ्यासेन विद्या ।
१. दुर्वा, दुर्वा २. बहुवोन न+चदनादि वागेत्य।
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(२३७ ) न्यायेन राज्य । उचितेन महत्वं । औदार्येण प्रभुत्व । क्षमया तपः । पूर्ववायुनाः जलदः । वृष्टिभिर्धान्यानि । घृताहुत्या वह्निः । भोजनेन शरीर । वर्षाकालेन नदी। लोभेन लोभः । ताडनेन कौँ । पुत्रदर्शनेन हर्ष। मित्रदर्शनेनाहाद । निन दर्शनेन पुण्यवर्द्धते । सर्वत्र संवधः ।
दुर्वचनेन कलहो वर्द्धते । तृणै वैश्वानरः । नीचसगेन दुःशीलता। उपेक्षया रिपुः । कडूयनेन कडूः । असंतोपेण तृष्णा । व्यसनेन विषयाः । निदया पापं । प्रवासेन राजा । विरहेण रात्रि । शोकेन दुख । ज्वरो घृतेन । सर्वत्र संबंध ।
(३३) संग से वृद्धि (२)
सुवचने प्रीति वाधे, दुर्वचनें कलहो वाचे । नीच दर्शनें कुशीलता वाघे, वेरी करो दुष्टता वाधे । अपथ्ये रोग वाघे, व्यसने विषय वाधे । न्याइ राज्य वाधे, विनये गुण वाधे । दाने करी कीर्ति वाधे, उदायें प्रभुत्व वाधे । दमाई तप वाघे, निर्दयें पाप वाधे । घृते ताव वाधे, तिम सत्यकरी विश्वास वाधे । इत्यादिक सगथी वाधवू जाणवु ।
उद्यमें लक्ष्मी, सत्येकरीधर्म, वनमालाइकरी वन, शृंगारे राग वाधे, भोजने करी शरीर, व्यापारे धन वाधे, जल पूरे नदी वाधे, लाभे लोभ वाधे, घृते वह्नि वाघे इत्यादि जाणवो।
(३४) संग से वृद्धि (३)
सुवचनेन मैत्री वर्द्धते, दुर्वचनेन कलहो वद्धते । नीच दर्शनेन कुशीलता, उपेक्षया अरि कुटुब । अपथ्येन रोगोबद्ध ते, कडूयनेन कड़वद्धते । असतोषेन तृष्णा, व्यसनैर्विषयाः, निंदया पाप । घृतेन ज्वरोवर्द्धते, सत्समाचारेण विश्वासो वद्धते । अभ्यासेन विद्या, न्यायेन राज्य । विनयेन गुणाः, दानेन कीर्ति ।
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( २३८) औचित्येन महत्त्व, श्रौटार्वेण प्रभुत्व । ' क्षमया तपो वह ते, उद्यमेन श्री वद्धते । सत्येन धर्मो वद्धते, पालनेनोद्यानं वद्धते । चद्र दर्शनेन समुद्रो वईने, शृगारेण रागो बर्द्धते । पूर्व वायुना जलदो वद्धते, वृष्टि मिर्धान्यानि । वृताहुत्या वह्नि वद्धते, भोजनेन शरीर ।। जल प्ररेण नटी, लाभेन लोभो वद्धते । ( ३६ जो०)
(३५) विनाश (१)
तप क्रोवे विणसे, सनेह विरहे विणसे । व्यवहार अविश्वामे विण मे, गर्व गुण नासे। धान्य अवरसणे नासे, रूप दूर्भाग्ये नाते । भोजन तेले नारों, सरीर अयत्ने नारों। तिम धर्म प्रमादे नाने, इत्याटिक जाणवा ॥ पू० ॥
(३६ ) विनाश (२)
तप क्रोवेन विनश्यति, स्नेहो विरहेण विनश्यति । व्यवहारो अविश्वातेन विनश्यति, गुणा गर्वेण विनश्यति । कुल स्त्री अरक्षणेन विनश्यति, धान्यं अवर्षणेन विनश्यति । लप दुभाग्येन विनश्यति, भोजनं तैलेन विनश्यति । शरीरं यत्नेन विनश्यति, धर्मस्तया प्रमादेन विनश्यति । ३७ जो०
(३७) किससे किसका विनाश-३ इणां विना इणारो विनाश
अनभ्यासेन विद्या नश्यति, प्रमादेन द्रव्य नश्यति । दुर्वचनेन मैत्री नश्यति, लोमैन विवेको नश्यति । अनौचित्येन महत्वं नश्यति, अन्यायेन कीर्तिनश्यति । कुरागेन धर्मो नश्यति, आलायेन कुलस्त्रीत्वं नश्यति । अनायकेन सैन्यं नश्यति । ३२ नो०
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(२३६ ) (३८) विनाश-४
जिमि विलबह विणमइ काज, कुप्रधानइ विणसइ राज । श्रणवोल्या विणसहव्याज, कसत्री विणनइ प्याज | पडषि विणसइ दान कट विण विणसर गान । लूइ विणमड पान, लूण विण विणसइ वान । कुमरणइ विणसइ अवसानु, व्यावह विणसइ मुखान । पितुनड विणसइ राज सनमान, कूसगत विणसइ सतान दवानल विणसई उद्यान, अात्तई विणसइ ध्यान । कुपडिनइ विणसइ छात्र, क्षयनि विणसइ गात्र । वृक्षइ विणसह प्रसाद, सिंदूरइ विणसइ साट । वेगह विणसइ नेत्र, तीडड विणसइ सेत्र । विषप्रयोगि विण्मइ रसवती, पाक चमडीये विणसइ कणक वाक । कुन्यमनड विणमइ सत्कर्म, तिम जीवहिंसाअड विणसइ सद्धर्म ।
इति विनास वाक्यानि । कु०
(३९) इनके विना ये नहीं (१)
गुरु बिना वाट नहीं, द्रव्य विना हाट नही ।। सूतार विना खाट नहीं, सण विना बाट नहीं ।। काष्ठ विना पाट नही, धात विना काट नहीं ।। कुमार बिना माट नहीं, सोनार विना घाट नही ।। माया बिना ठाट नहीं, बाजा बिना नाट नही ।। जव बिना वाट नहीं, सोग विना उचाट नहीं । स्त्री बिना पुत्र नही, रू विना सूत्र नहीं । ग्राम बिना सीम नहीं, मन विना नीम नही ।। धन विना नर नही, मा विना पीहर नहीं । दान बिना जस नहीं इक्षु बिना रस नहीं ।
आकश बिना मेह नहीं, बांधव विना स्नेह नहीं ।। दरसन बिनां सिद्धि नहीं, पुण्य बिना रिद्धि नहीं । झाड विना साखा नही, रोग बिना राखा नहीं । सील बिना धर्म नहीं, पाप विना कर्म नहीं ।
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( २४०) सूर्य बिना तेज नहीं, परीणि बिना हेज नहीं ।। भण्या बिना मर्म नहीं, कुल बिना सर्म२ नहीं।। तिम दया विना धर्म नहीं।
(४०) इनके विना ये नहीं (२) पुण्य बिना सुख नहि, अग्नि बिना धूमो नही । वीज बिना अंकूरोद्गमो न, सूर्य विना दिवसो न । सुपुत्र बिना कुलं न, गुरुपदेश बिना विद्या न । भाव सिद्धि विना धर्मो न, धन बिना प्रभुत्वं न । दान विना कीर्ति न, भोजन बिना तृप्ति न । वीतरागं बिना मुक्ति न, साहस बिना सिद्धि न । जल विना पावित्र्यं न, उद्यम बिना धनं न । कुलागना बिना गृहं न, वृष्टिविना सुभिदं नही । घम्र्मेण विणा जइ चिंतियाइ, ।। (६५ जो०)
(४१) थोड़े के लिए अधिक विनाश मत कर काच खड कारणि म नीगमि चिंतामणि वाटी कारणि अरहटु म वीकणि अंकार कारिणि कल्पवृक्ष म धारि कागिणी कारणि कोटि म हारि कोलिका कारणि देवकुल म चालि विषय सुख कारिणि मानुषउ* जन्म म हारि+ । पु. अ.
(४२) अल्प के लिए बहुत का नाश (२) अल्प के लिये बहुत का नाश जुको जिन धर्म लही प्रमाद करइ । , ते जाणे ठीकरी कारणि अमृत कु म फोडइ, निष्कारण श्राजन्म तणउ स्नेह त्रोडइ । १ सर्ग २ गर्व । ३ अ कार वदि ४ खीली ५ मानखड +"कोचिकूवदि ऋद्धि च इउ दासत्तण अहिलसइ मुनु चिंतारयण, कायमणि कोवगि ण्हेर ॥ उक्त पाठ एक अन्य प्रति में अधिक मिलता है ।
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( २४१ ) तेम० कामधेनु अलीढ़ी मेल्हह, चिंतामणि रत्न श्रावंवउपाय पेखइ । क्ल्पद्रुम श्रापमा घर तउ उन्मूलइ, प्रवहण मेल्ही श्रापस पर समुद्र माहि बोळई। ते सतु० सोना तणइ कारणि पित्तल तोलइ, अमृत तणी श्रास लगइ विस घोलइ । ७ । जो.
(४३) थोड़े के लिए अधिक विनाश (३) ठीकिरि कारणु कोइ काम कुभु फोड़इ, निष्कारण कोइ आत्म स्नेह तोडा कामधेनु कोइ ढोली मेल्हइ, चिन्तामणि कोइ हाथो पेल्हइ कल्पद्रुम कोइ उन्मूलि नाखइ लक्ष्मी श्रावती न कोह राखह जिन धर्म लही कोइ प्रमाद सेवइ । पु. अ.
(४४) अति (१) मिलमलन ते नीठवानइ, अतिघणु मार ते धीठवानह' ।। अतिघणुं नेह ते त्रुटिवानइ, अतिछणुं विलोइ० ते फूटिवानइ ।। अति घणु खाइबु टिवानइ, अतिघणुं ढील ते छुटिवानइ ।। (खू) अतिघणु तानिबुं बेंटिवानइ, खड भडइ चोर ते फाटिवानइ ।। अतिघणुं गरथ ते खाटिवानइ, अति दुरी बातते टाटिवानइ ।।
इति वचनानि ।। कु.
(४५) अति (२) अति ताणिउ त्रुटइ, अति भरिउ फूटइ। - अति लइउ वाडि फडइ, अति माथि काल कूट हुइ । अति चाविउ कूचा थाई ।
(४६) करने में असमर्थ छोतरि छासि" केतलउं पाणिउ खम पातलि छाया केतलउ श्रातप गमइ । कातरु केतलु रणागणि जूझह । निरुक्खरु केतलु कहिउ बूझह ।
२-अलाढी • निफ्कारणि, ३ लाखद ४ राचा ५. छिद्रीच्छासी, छीदरी ६ सहा ७ नीगमद,। -
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(२४२ ), कृपणि केतलु दानु दीजइ । अपरोधि केतलु तपु कीजइ । श्रादि केतलु तूर वाजइ । पाछिलउ मेहु केतिलउ गाजइ । तिणि प्रकारि कारिमउ नेहु केतलउ छाजइ (पु० अ०)
(४७) करने में असमर्थ २ छीदरो छासि वि पाणी न खमंह । पातली छाया केतलातप गमई । आढकई केतउ बाजइ, कृपण पुरूषि केतउं दीजह । गर्दभ केतउं वूझइ, कातर केतउं झूझइ । वाझि गाइ केतउं दूझइ, समुद्र पाणी केतउ पीजइ । दुर्जन केतउ वचनि लीजइ, पापी घणे उपदेशे तिम न भीनह । स्वमावोनोपदेशेन शक्यते तुमन्यथा। संतप्तान्यपि तोचानि पुनर्गच्छन्ति शीतताम् ॥ १-१ जे० - स्वभाव अपरिवर्तन दुग्ध धौतोपि काकः किं हसायते । सुपुष्टो अश्वा किं सिंहायते । सुष्टु अचरित्तोपि खलः किम श्वायते । सुघटितोपि काचः कि वैडूर्य मणि लीला वहति । इतु रसैः सिक्तोपि निवः किं द्राक्षा फलानि प्रसते । सम्यग् उत्तेजितापि । री री कि सुवर्णच्छाया विभर्ति । सु सस्कृता अपि यवाः किं शालि लीला मा कालयंति । सुपूजितोपि खलः किं सजनायते । जलपूर्णोपि पल्वलः किं समुद्रायते ॥ ॥छ० पु० ॥
(४६) बराबरी कैसे करेगा । चहूप चरित्रोपि दुर्जन एव, दुग्धघौतोपि काकः कि हंसायते । सुपुष्टोपि श्वायते, इक्षुरस सिक्कोपिनिंबः किमुद्राक्षयते । सुष्टु उपचरि तोपि खरः किमश्व लीलां विभर्ति। सु शृंगारिनो पि मयुः किमु गज साम्यं लभते । सुष्टु उत्तजितोपि री री सुवर्णच्छायां विमति । गंगाजल स्नापितोपि मार्जार किमु भगवछुचिर्भवति । सुचौतमपि सुराभाडं किं पवित्रतामियति ।
४० । जो०
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( २४३ ) (५०) अधिकस्य सार्थकत्वम् यदि शक्तवो बहव स्ततः किं समुद्रे प्रक्षेपणीया । यदि तैल बहु ततः किं पर्वता लेपणीया । यदि बीज घन' ततः किं ऊपरे वपनीय' । यदि सुवर्ण बहु ततः किं गवा शृंखला कार्या । यदि चन्दन बहु ततः कपाट कार्य । यदि दुग्ध वह ततः किं सप्पय देयं । यदि धनानि रत्नानि ततः किं कउद्दापनीया"। उ० . (५१) अधिक होने पर भी व्यर्थ खोने को नहीं होता सत्पुरुप घणी हुई लक्ष्मी। सुपात्र इ हीज माहि बावरइ, किंतु न जिहा तिहा सर्वथापि न नाखइ । जउ किमइ घण सातू, तउ किसउ समुद्र माहि घातिवा। जउ घणउं तेल, तउ किस पर्वत चोपडवा । जउ घण्उ वीन, तउ किस अखरि वाविवउं । जइ घणइ सुवर्ण, तउ किसउ साकल कराववी। जउ घणउं दुग्ध, तउ किसउ सर्प पाइवउ । जउ घणा गजेन्द्र, तउ किसउ भार वाहविवउ
॥११ जो (५२) विनाश करके विचार करना
प्रथमं शिरच्छित्वा पश्वादग चुंबनं । , प्रथमं गृह प्रज्वाल्य तस्यैव गृहस्य कुशल वाती पृछनं । पर प्राण हरण पश्चादनुशोचनं । पदभ्पा मीनान्मारयति मुखे वेद-वचनं ब्रूते । यथा स्वयं समुद्रे जलानि स्वय मेरकल्पद्गुमोद्गमः । जले पावित्र्यं लक्ष्म्याः सौभाग्यं तथा स्वयं पुण्यवंता सर्वांगे सदयः ।
१०३ नो. १ बहु । २ क्षेप्य । ३. युग्म । ४ स्पेक्षेपणीय । ५. काकोडायेनेन । .
+यदि गजा वहवस्तदा किं ईधनाहरेण प्रयोज्या छ। एह दान ममस्त प्रधान ॥पु०॥ पु० प्रति में उक्त पाठ अधिक मिलता है।
६. इसके बाद । स्वाक कुमेरणा स्वय कपूरे सौभाग्य।
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(२४४)
(५३) अंतर मिथ्यात्व सम्यकत्व जिम अंतर सजन दुर्जन निम अतर सुख दुख ने जिम अंतर पुण्य पापने तिम अंतर, छासि दूध ने जिम अंतर, कपूर लवण ने जिम अतर करतूरी कजल जिम अतर कुकुं केसर जिम अंतर सुवर्ण पीतल लिम अतर गन उंटने अंसर आव नींव ने जिम अतर, कइर कल्पद्रुम ने निम अन्तर, समुद्र कप ने जिम अंतर, खीर कानिने जिम अतर कथिर रुपाने जिम अंतर तिम परस्पर अंतर जाणवो ॥ पू.
(५४) महदन्तर (२) मिथ्यात्व सम्यक्त्वयोमहदंतरं, सुनम दुर्जनयोर्महः । सुखदुःखयोर्महदन्तर, पुण्य पापयोर्महदंतरं । छाया तपयोर्मह०, कर्पूर लवपयोर्मह० । कस्तूरिका अंजनयोर्मह०, कुंकम केसरयोर्मह० । सुवर्ण पित्तलयोर्मह०, गजोष्ट्रयोर्मह० । आम्र निंबयोर्मह०, करीर कल्पद्रुमयोर्मह०। सूर्य खद्योतयोर्मह०, समुद्र कूपयोर्मह० । क्षीर काजिकयोमह०, रूपक टंकक सुवर्णयोर्मह० । २० । जो
(५५) अंतर (३) जेवउ अंतर मोद नइ ससारु, कृपण नई उदार,। शोकु नह उच्छव, शालि नई कोद्रव । सम्मान नइ परिभव, मेर नइ सरिसव । .
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(२४५)
साचउ नई कूड़ड, समुद्र नइ कमउ । लाख नह रूपउ, राम नइ रावण । राणी नइ दासि, श्राछण नई छासि । स्वर्ण नइ पीतलु, स्वर्ग नइ भूतलु ।
आदित्य नई खजूयउ, राय नइ राकु । नक्षत्र नह सशाकु, आतप नइ छाया । तेवडउ अतर स्वभाव नइ माया ॥ ८७ ॥ जै०
आंतरा वर्णक किहा मेरु, किहा सर्षप । किहा राम, किहां रावण । किहा नूपुर, किहा दामण । किहा सोह, किहा सिपाल । किहा सुवर्ण, किहा इंगाल । किहा कपूर, किहा कर्पास । किहा सामी, किहा दास । किहा द्राम, किहां रु। किहां सागर, किहा कुछ। किहा सामो, किहा सालि । किहा मुगदालि, किहा वल्लदालि । किहा सुपात्रदान, किहा मनः प्रधान ॥ छ । पु० जेवडउ अंतर द्राम नइ रुया, जेवडउ अंतर समुद्र नइ कुत्रा । जेवडउ अंतर राम रावण, जेवडा अंतर लाडू लवण । जेवडा अतर साकर खाड, जेवडा अंतर खडी खांड । जेवडा अंतर सीयाल नइ सीह, जेवडा अतर गुल खल । जेवडा अतर पर्वत स्थल, जेक्डा अतर सुवर्ण लोह । जेवडा अंतर तरुण वृद्ध, जेवडा अंतर अकिंचन समृद्ध । ओवडा अतर पडित मूर्ख, जेवडा अतर प्रसाद पीडहर । जेवड़ा अंतर पागड़ पाघ, जेवढउ अतर हरिण नई वाघ ॥ छ । किहा मेरु लक्ष योजन प्रमाण, किहा परमाणु । 'किहां क्षीर सागर, किहा लवण सागर । किहा काला गुरु किहा हीरा गुरु । किहा कल्पतरु, किहा अत्र तरु । किहा ताम्रपणी नदी प्रदेश, किहा मरु देश । किहां उच्चैःश्रवा तुरंगम सार, किहा टार । किहा मुक्ताफल, किहां शुक्तिका शकल ॥ छ । पु०
. . ( ५७) अंतर (५) जेवडो अतर मेरु अने सरसिव । जेवडो माननें अपमान। जे० लोह अनें कचन ॥ - - जे० रामनें रावण । जे० गर्दभनें ऐरावण,। जे० हाथिने ऊंट । जे० सीहनें सीयाल ।
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( २४६ ) जे० गाइने नोलीयो । जे. आब' ने नीबोलियो। जे. राणीने दासी, जे० दूधनें छासि, . जे० २गोल ने खल, जे० गरुड ने घूअउ 3 जे. सुसील में फूअउ, जे० गाय ने छाली जे० बहिन ने साली जे० दीवाली ने होली, जे० बहू अने गोली। जे० हस ने काग, जे अलसीया नें नाग ।। जे० वृद्ध ने बाल, जे० मल्लाखाडा ने पोसाल । जेहवो अंसर जीवनें काया, जे० मारि नें । जे० रत्न नै काकरे, जे० भिखारी नैं राजा जे० धर्म नइ अधर्म, जे० शिव नै छैन । दयातेहवोअंतरजाणवो पू०.
(५८) अंतर (६). जेवडउ अतर मेरु अनइ सरसव |
जेवडउ अंतर मान अनह परिभव । जेवड़उ अंतर लोह अनह' कचन, जेवडउ अंतर राम अनइ रावण जेवड़उ अंतर भइंसा अनई एरावण । । जेवडउ अंतर हाथि अनइ ऊट, जेवडउ अंतर पाघरसी अनइ खूट । जेवडउ अतर सीह अनइ सीनाल, - जेवडउ अतर गोल अनह विनाल । जेवडउ अंतर गणी अनइ दासी, जेवड़उ तर दुध नइ छासि । जेवडउ अतर लूण अनइ कपूर, जेवडउ अंतर खजुश्रा नइ सूर । जेवड़उ अंतर पर्वत्त नइ स्थल, जेवडउ अतर गुल नइ खल । जेवड़उ अंतर गरूड़ अनइ घूअड़, जेवड़ा अंतर फूटरसी नइ फूहडि। जेवडउ अतर गाअ अने छाली, जेवडउ अतर वहिन नइ साली। जेवड़उ अतर दीवासा नह दीवाली, जेवड़उ अतर पुण्यवंत नइ हाली । जेवड़उ अंतर हंस नइ काग, जेवडउ अंतर अलसिया नह नाग। जेवडउ अंतर वृद्ध नइ बाल, जेवडउ अतर मल्लाखाडा नह पोसाल । जेवड़ड तर जीव नइ काया, जेवडउ अतर मारि नई दया । ।
( १६७ नो
, नोकलि घेलीवाट २. लोकना 3. पावे नांव । ४ अलमला ।
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(२४७ )
(५८ ) अन्तरा (७) जेवड अंतर मोक्षनइ ससार, कृपणनइ उदार ॥ शोक नइ उच्छव,
शालिनइ कोद्रव ।। सन्सानिनइ परभव,
मेरुना सरसव ॥ साचिनइ कूड,
तेजन तुरी ने धूड ।। रामन रावण,
सुमत्रनइ कामण ।। राघणनइ टासि,
दूधनइ छासि ॥ स्वर्णनइ पीतल,
स्वर्ग नइ भूतल ।। रायनह राक,
मसकनइ वांक ।। नक्षत्रनइ शशाक,
तोलउनइ टाक ।। श्रातपन छाया,
लुभावीनइ माया ।। आदित्यनइ षअउ,
वइरागीनउ जूअउ ॥ लाषनइ रूपउ,
समुद्रनइ कूउ ।। एवडउ अंतर हूप्रउ ॥
इति अंतरावर्णन | कुल
(६०) परोक्षा दान दुर्भिक्ष परीक्षते, सुवर्ण कषपट्टे परीक्षते । पौरुप रणे, वृषभ वौरेयत्व पके । वाग्मिता पर सभाया, परीष साहसं दुर्दशायर्या परीक्षते ।। कुमित्रं आपदि प०, सन्मित्र व्यसनावस्थाया प० । पुत्रत्व वृद्धत्वे प०, भार्या सपत्नी समागमे निर्द्धनत्वे च परीक्षते । विनयोच्चये शिष्यः परो०, वाधवत्व पृथक् भावे परी । तपस्वित्व क्रोधे परी०, ज्ञान निरहकार वे परी० तथा धर्मोपि निर्दभत्वे प० । यतः-तद्भोजन यन्मुनिदत्त शेष सा प्राज्ञता या न करोति पाप । त-सौहट यस्क्रियते परोक्षेदभैविनायः क्रियते सधर्मः ॥ १८ । जो०
(६१) सहज वैर (१) सहन वैरं, जल वैश्वानरयोः । , देव दैत्ययोः, श्राखु' मानरियोः ।
१. सारमेय
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२४८ )
सिंह गजयोः, गो व्याघ्रयोः काक घूकयोः पंडित सुर्खयोः । सुजन दुर्जनयोः, विप्र वाचंयमयोः । सर्प नकुलयोः, महिय तुरगयोः ।। ३३ । जो०+
(६२ ) सहज वैर (२) जलने अगनि प्रीति, देव दैत्य ने प्रीति । मुषक मानार ने प्रीति, सिंह गजने प्रीति, गो व्याघ्रने प्रीति पंडित मूर्खनें प्रीति सजन दुर्ननने प्रीति || सर्प नोलने प्रीति, सौक सौकनें प्रीति । महिप तुरंगने प्रीति ॥ इत्यादिक अमेल नाणवो । पू०
(६३) । गुण के साथ दोष भी रहता है ।
जिहा गुरुवा' तिहा गाजणउ । जिहा कुलीन तिहां खापण्डं। जिहां भाणउ तिहा भउ। जिहा झूझ तिहा खउ। निहा चोरो तिहा दोरी। निहा चडणं, तिहा पडण । जिहा जन्म तिहां मरणु जिहां रूलण तिहा भरण । जिहां रंग तिहां विरग। जिहा संयोग, तिहा वियोग । जिहा लाइउ तिहा छेहउ । जिहां रूसणउ, तिहा तूसणउं ॥ २८ । जो० +
+ पतिव्रता म्वैरण्यो.' पाठ पु० प्रति में अधिक है १. गुन्तण। • भाणौति । 3. भय ।
+ जिस्, वास तिन्यु अभ्यास । निसी दीख तिसी बीस । नित्यु श्राहार तिन्यू ढकार । जित्यु वावीइ तिस्सु लूणी । जिस्यु पुण्य पाप कीजइ तित्यू भोगवीड । यह पाठ पु० प्रति में अधिक है।
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( २४६ ) जब तब तां खोनानह खान, जा जीमहनासक नान ता० भट्टारक भगवान । जां जी० तां गीत नई गान, जा जी० ता तान नइ मान । जां जी० तां विवाहनइ नान, जा जी० तो फोफल नइ पान । जा जी० ता । धर्म नइ ध्यान, ना जी० ता तपनइं उपधान । जां जी० ता, दरनइ मान । जा नी० ता लगिसरवाकान, ना जी० ता लगि मुहडइ वांन । जां पेट न पडइ रोटिया, ता सवे गल्ला खोटिया । ततः ।
(६५) काम कोई करे फल अन्य को मिले दंताश्चति उपकारो ग्सनायाः। क्रमेलको भारं बहति उपकारः पुण्यवतां । खरश्चदन बहति भोगश्च भोगिनामेव । लिखनं लेखकस्य फलमागम वेटिना । मृदगो धन घातान् सहते फल तु श्रोतृणां । युद्धयते सेवकाः पर जय. स्वामिन एव । वृक्षा फलति उपकारस्तु पाथाना । वर्षति वारिटाः फल तु कर्षकाणा। कदर्यो पात्र वित्ताना भोगो भाग्यवताभवेत । दंता दलंति कष्ठेन' निहवा गितती लीलाया ।। ६६ जौ०
(६६) संसार इस ससारि कवण एक श्रापदि नही श्रावी बलि जेवडउ दानवु बाघउ नलि जेवड़ड राना विहलिउ पाडव जेवडा वनवासु हूयड वलदेव जेवड़उ भाई विछोहु रावण जेवडउ मृत्यु माघ जेवडउ पडित भूख पाय सूरणा तुमत एक कछोटड़ी अनइ ससारि कोई सुखियट नस्थि शुक्र कापउ, सनीछरउ पागलउ १. कष्टेन
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( २५० )
चंद्रमा क्षयउ, समुद्र वडवानलि दहयउ रोहिणी गिरिता कंद खगिया
कसं कीनइ कहा जाइयइ
प्राकास निरालवु, पाताल प्रवेश नही
मृत्युलोक असोच, वन सभय
समुद्र खारउ, इसउ नाणिउ धर्म कीनइ ( पु श्र० )
(६७) संसार के दो छोर
एगमा धवल मगल, वीजागमा कलह कदल | एक गमा शोक, वीजी गमा विव्वोक ।
एक गमा श्रानद, बीजा गमा आक्रट |
२
एक गमा कुतहलना' श्रारंभ, वीजा गमा भूझना सरंभ | एक गमा सस्नेह कोमलालाप वीजा गमा वियोग विप्रलाप | एक गमा अद्भुत शृंगार, वी० सर्वस्वायहार । एक गमा माटल ना धोंकार, वी० शोकना हाहाकार । एक शकना ओंकार, बीना० रोग तथा विकार । एक० विद्वास नी गोष्ठी, वी० मद्ययना कल कल । एक० वीणा तथा निनाट, बी० दुःख तनु विषाद् । एक० अद्वितीय रूप, बी० विभत्स कदर्य विरूप । एवं विघ संसार, दुःख तर उ भंडार । सर्वथापि सार नाणिवउ || १४ | जो०
(६८) ससार स्वरूप (२)
एक गामि धवलमंगल, बीजे गामे कलह कदल । एक गामे श्रानन्द, बीजे गामे श्राक्रन्द | एक गामे विचित्र क्रीडारंभ, बीजेगामे समरसरंभ । एक गामे श्रालाप संलाप, वीजे गामे खावाना कलाप । एक गामे मोटाहार, वीजे गामे रहिवाना उत्पाट । एक गामे नवनवा शृंगार, बीजे गामे शोकना भडार । एक गामे मादलना घोंकार, वीजे गामे रोवाना हाहाकार । एक गामे शखना ऊकार, वीजे गांमे रोवाना रोंकार ।
१. विचित्र क्रियारम । २ समर । ३. ससना । ४. कुरूप ।
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(२५१ )
एक गामे भलो आहार, बीजे गामे पाणीना विकार । एक गामे भला स्वरूप, वीजे गामे दीसें माहाकुरूप । एक गामे विविधना सुख, बीजे गामे अनतना दुख । एक गामे उत्तमनी शोभा, वीजे गामे नीचनी कुशोभा । एक गामे भलो बाजार, वीजे गामे दुःखना भंडार । एक गामि टीसे झलामल वीजे गामे महा हलाहल । एक गामे मोटा महल, वीजे गामे झुपडा माहि (पणि ) खलभल ! इति' संसार असार, महादुखदातार इत्यादिक जाणवा । पू०
(६४) शरीर
शरीरु बाहिरि कुंकुम कस्तूरिका वासियइ, अभ्यतरि अशुचि रसि विणासीचह । सरीरु बाहिरि' पहिरइ सुवरण घडिउ, अभ्यतंरि अस्थि खडे नडिउ । सरोरु बाहिरु श्रीखंडि गोलामि अभ्यगियइ, अभ्यतरि रुधिर रसि रगियउ । सरीरु वाहिरि पाटु वस्त्र पहिराविड,
आभ्यंतरु मामि पिण्डि भावियइ । मुख लीजइं सर्व सारु आहारु, महानीसह खाटउ उद्गारु । नासिका सुगंध गध प्रतिसरइ, महापुण सूगावणउ श्लेष्म नीसरइ। गानि साभलियइ मधुर गीत पटलु, महा नीसरइ तउ पकु समानु मलु । लोचनि लगाड़िय स्निध क्जलु, महा नीसरइ पीहे सहितु जलु । कुडि खड़हदेवा मणी', आयुष्क तुटण मणी५ ।
पाठान्तर -१. इम २. वाह्य ३ सोनउ ४ हामणी ५ त्रुटण
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( २५२)
हंस तउ ऊडमा मएड, इसउ असार, सरीर संयोग ईय ऊपरि ईमहि लोक व्यामोह करइ । पु० अ०
(७०) अर्थ सविहु परि समर्थ, अर्थ लगी महत्त्व । अर्थ नउ प्रभुत्त्व । जेह हुई द्रव्य, तउ सविहु हुइ संसेध्य । द्रव्य लगी अणहूता गुण, द्रव्य तउ मगलाइ जाइ अवगुण । द्रव्य लगी पूजई प्रास, सहु कोई द्रव्य नु दासु । द्रव्याचना विता करइं लोकु, द्रव्याद्य तउ वसह वेगलउ शोकु । द्रव्य तर उपरोधीइं वाका, द्रव्य नउ धणी बोलइ फांकां । सहू को सासहइ, अदत्तु हूतउ प्रतिष्ठा लहइ। इस्युद्रव्य ॥ ३२ ॥ जै०
(७१ ) द्रव्य की अशाश्वता द्रव्य उपार्जिउ कुणहि नणउ शाश्वत न हुई । कुणहि नउ द्रव्य उपार्जिउ चोर हरइ १ । कुणहि नउ द्रव्य राउलि उपगरइ२ । कुण० द्रव्य अग्नि उपद्रवइ । कुरप० समुद्रमाहि द्रवइ । कुणहिनउ नट विट फेडइ । कुण हि० खूट खरड झगडइ त्रोडइ । कुरा० द्रव्यि वाट पडइ कुण० भुहिं सहइ । कुपहइनउं रोलि नाइ, कुण ० वाणउत्र खाइ । कुणहइनउ साझा त्रूटइ, कुण० द्रव्य गुणि फूटइ । इसी परिद्रव्य ऊपाजिउशाश्वततउ कुए हिनउ न हुई ॥ २२ ॥ जो०
(७२) धनोपार्जन रक्षण बड़ कष्टि धनुऊगार्जियई कवणु हल खेड़ि, सवर तएउ ठाउ फेडी धनु ऊपाह
दिद गरीर कस्तूरी कर प्रनृतीन्यपि दप यत्येच पायोद पयान्यूपट भूरि च ॥ , उपगरः २ उपइरिहि ३ मामह ४. गुणे, गूणि
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( २५३ )
कावणु हाट तणउ पासउ मांडी प्रापसापउ धर्महूतउ खाडिउ धन उपार्जह कवणु सीय तापु वाउ सहिउ देसातर रहिउ धनु ऊपाइ क्वणु समुद्र माहि थाइ ऊपरि तिरीइउ धनु उपार्जह कवणु पर घरि काम करिउ छाग पूजउ ऊधरी धनु ऊपाइ क्वा बाटु पाउ सचिउ अापणउ पेटुवंचिउ धनु ऊपाइ आपुणि नइ सुपात्रि न वेयह तउ अप्रमाणु ना धन शास्वतु, कवणहइ उपानिय उतं चोर हरइ कवसहइ राणे उपगरइ कवणहइ अग्नि उपद्रव करइ कवणहइ विटु० नाटु विद्रवड कवणहइ झगड़इ जाइ कवणहइ वाणत्रु खाइ
(७३) अथ लक्ष्मी चचलत्वं निसउ पिप्पलु तणउ पत्रु, जिसउ हाथीया" तणउ कर्ण। निसी बिहुं प्रहर तणी छाया, निसी रावण तणी माया। जिसउ संध्या तणउ रागु, जिसउ दुर्जन तणु विरागु। निसउ तरुणी तणउ कयक्ष विक्षेपु, जिसउ संग्रामि कातर तणउ आक्षेप जिसउ वीन तणउ मालकार', निसुं इद्रियाली तणउ इंद्रियालु, तिसउ विभवु आलमालु ।
(७४) राजा के चंचलत्व की उपमा (२) "प्रय रानाने धर्म चचल' सारिषा -जेहवो पीपलनोंपान, निम कुंजरनो कान । जिम असतीनु मान, निम अदातानुं दान । जेहवो अकंठोयानो कान ।
१. सयर २ शीतवात ३ भमी * भधिकपाठ-कुणहू परायइ धरि दास कर्म करी छाण पूजेउ महतरि धरी द्रव्य ऊ०
कुणहू भूख त्रस सही मार्ग माहि रही द्रव्य ऊ. कु० कृड कपट करी पापि आपणउ पिंड भरी द्रव्य ऊ० . कुणहू परायउ रण भाजी आपणउं पुण्य गाजी द्रव्य ऊ.
कुणहू भीसी भमाढ़ी आपणउ सपरू विनड़ी द्रव्य ऊ8 ४ पात, पर्ण ५. हस्ती ६. कान कणं ७. रण ८. विक्षेप ६. अलकलउ ।
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( २५४)
जिसो सध्यानो राग, जिमो भ्रमरीनो पाग । जिसो माकडनो वइराग। जिसो बिजलीनो स्यात्कार, जिमो पाइणिनोपान । जिसो पाणीनो ठवको' जिसो लबा लीनी जीभनो लटको । निसो खावानो गलको, जिसो पांणीनो खलको, जिसो कागनो डोलो, जिसो समुद्रनो कल्लोल तिसो राजा चचल जाणवो ॥ पू०
(७५) थोड़े समय के लिये-(३). जिसिउ संध्या तणउ राग, पाणी तणउ माग । जि० इंद्रधनुष, जि० वातोद्ध त तूल पटल । जि. वाताह ताभ्र पटल ।। जि० का पुरुष ना बोल, जि० पोला जागी ढोल । जि० नदी तणउ वेगु, रात्रि पक्षीया नउ संयोग । जि० हाथिया तणउ कान, ठाकुर नउ (रान) मान । जि० छोरडानउ दान जि० कंठहीन गान । जि० काला नी सान। जि० रानि रोइउ, दृष्टि बधनउ जोईउ । नि० सउणानउ राज, अण बाधिउ छान । जि. पानी पाज, जिसिउ निरभाग्यनउ कान ।' जि० सुईनो धाडि, नवासानी वाडि । एणइ परि कुमाणंसनी लक्ष्मी । अश्व तरीणा गर्भो दुर्जन मैत्री नियोगिनां लक्ष्मी । स्थूलत्व स्वयधुभवविना विकारेण न भवंति ॥ १०० जो०
अस्थायी व चंचल (७६) नायका कटाक्ष विक्षेपवत् । विद्युल्लता विलासवत् । संध्या भ्राडंबरवत् । वातां दोलित् कूलवत् । पवन प्रेखोलित ध्वजाग्रवत् । सकन कोपवत् । दुर्जन मैत्रीवत् । वेश्या स्नेहवत् । गिरि नदी वेगवत् । गजकर्णवत् । शरत्काल मेघवत् । इंद्रचापवत । कादिशिक नयन मेखोन्मेखवत । हरिदा रागवत् । इंद्रजालवत्, । १. ठछको
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(२५५) स्त्रीजन मानसवत् । वायु वेगवत् । मर्कट चेष्टितवत् । प्राणी गण जीवितवत्, कुशाग्र जल बिंदुवत् ।।छ। पु०
(७७) क्षणिक चंचल श्राभातणी छाह, कुपुरुप तणो बांह । श्रासाट तणउ तूर, नटीतणउ पूर । राय तणउं प्रासाद, मर्कट तणउ विषाद । इद्रजालनउं पेखणउ सूप तण्ड उठीगाउं । हरिद्रा तणउ रंग, टासी तणउं सग । अांबातएउ मउर, सीयाला तणउ प्रहर | गोदडा तणी वाट, पोहणा तणीसाट । पीपल नउं पान, राघउ धान । वहपण तणउं जायु, ढोकूया तण उ पायउ, निगथ तणठं साटउं'। टोवान तेज, मित्रनउ हेज । कारटानउ माग नमाई नउ लाग । मूर्खनउ पढ़िउ, जल कोसनउ मदिउ । उभां खरउ मोर, खासणउ चोर । अखरली खाट चद्र उ, एजाणे पूरउ विगोउ । संध्यातणउ मेह, स्त्री तण उ नेह, तिसइ लामइ छेह ।
यतः अग्नि' रायः२ त्रियो ३ मूर्खाः सर्पराज कुलानि च । नित्य यत्नेन सेव्यानि सद्यः प्राणि हाणि पट् । ९८ जो०
(७८) चंचल (२) श्रमच्छाया वच्चंचल, दुर्जन प्रीति वच्चचल, तृणाग्नि वच्चचल, स्थलजल, वच्चंचल, वेश्या राग वच्चचल । कामिनी नयन विभ्रमवत् , विद्युल्लतावत् । संध्यासमय रागवत् , वाता दोलित पताका वत् । समुद्र कल्लोलवत् , सजन कोपवत् । गिरि नदी वेगवत् , करि कर्ण वेगवत् । शरत्काल मेघ इव, अभाग्यवता विभव इव । द्यूतकारालंकार वत् , पतंग रंगवत् ।। ... १ साट २ दीवाली ने ३ माई ४ तिमइ . ।
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(२५६)
चचल वित्तं अतएव सुपोने नियोज्यं । यतः-- उत्तम पत्त साहू मझिम पत्तं च साचया भणिया । अविरय सम्म दिठी जहन्न पत्त मुणेयव्वं ॥१॥ व्याजेस्या द्विगुणं वित्त व्यवसाये चतुगुणं । क्षेत्रे शत गुणं प्रोक्तं, पात्रेनंत गुण पुनः ॥ २ ॥६२ जो० ।
(७६) चंचल वाक्य
जेहवउ चंचल कुजर नउ कान, पीपल नउ पान । सध्यानउ वान,
दुहागणनउ मान॥ विपहर नी छाया,
रावणनी माया ।। गोदतीनी वाट
माटीनउ घाट ॥ रावनउ घेउ,
राकनउ भउ ।। बादतनी छाह,
कापुरुपनी बाह ।। आढनउ तूर,
पर्वताश्रिनदीनउ पूर ।। वैद्यनउ पंडीगणउ,
सूपडा नउँ ठीगणउ ॥ इन्द्रनाल नउ पेषणउ,
स्वाननउ घीवणउ ।। छालीनउ ऊम,
स्त्रोनउ गूझ ।। दासीनउ स्नेह,
ऊन्हालू मेह ।। ठारनउ बेह,
धूलिनी वेह वेकीय देह, ॥ जेहवउ चचल बीजलीनउ '
मधुबिंदुश्रा नउ टवकर, झबकउ ॥ मोईनउ हेज,
जेहवी खजूया नउ तेज . पाणीतणौ तरंग,
पतंगनउ रंग ॥ माकडनउ विषाद,
। रामनउ प्रसाद ।। जिसी चंचल स्त्रीनीजाति,
उन्हालू राति ॥ त्रिणानी आगि,
दुर्जननउ रोग | जिसउ चंचल मन
निसउ चंचल परेवन। जेहवउ चंचल तुरंगम, तेहवउ चंचल धोर संसारनउँ सगम ।
इति चंचल वाक्यानि।
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( २५७ )
(८०) मन मन' चपल चचल, देवताए पुण घरी न सकीयई। क्षणि हिं जायइ सागरि, २०२ आगरि । क्षणहिं नदी-परि-सरि २० सरोवरि । क्षणहिं नगरि, क्षणहिझगरि । क्षणहिं अंबरि, १० भूधरि । क्षणहि पातालि५, क्ष० कुद्दालि । क्षणहि भूतलि, क्ष० कुतूहलि कुंभकार चक्रवत् । मन एव मनुष्याणां कारण बंध मोक्षयोः । बंधस्तु विषया सगे मुक्तिर्निविषय मनः ॥ ८६ ।। जो.
(८१) ससुराल की स्थिति वच्छे सासुरा तणी इसी स्थिति जाणिवी । सुसरउ अवेषइ, जेठ नीचउ देखइ । वर पुण लड़ह , देवर नडइ । जेठानी कुसइ, देवरानी हसइ । नणद नर-नरावइ, सासु काम करावइ । +
(८२) विशिष्ट पदार्थ
(१) लीला तउ महेश्वर तणो, सृष्टि तउ ब्रह्मा तणी। प्रना तउ वृहस्पति तणी, प्रतिज्ञा तउ राम तणी। त्याग तउ पाधि पति तणउ, पवनवेग तउ हनुमत तणउ । मान तउ दुर्योधन तणउ, तेन तउ सूर्य तणउं । परिमल तउ पारिजात तणउ , निर्मलता तउ गंगा तणी । विवेकता तु नारायण तणी, बल तउ सुद्रिका वीर तणउ । .. सम्यक्त्व तउ श्रेणिक तणउ, ऋद्धि परिहारू तउ श्री शातिनाथ तणउ । अभय दानु तउ श्री शातिनाय तणउ, शील.तउ श्री स्यूलिभद्र तणउ ।
१. मनु दइवि २. क्षणिजाइ ३. द्वीपान्तरि ४ मगटि ५. कुहिली ६. पातालोदरि ७. भूतलाभ्य तरि ८. तणा चक्र तणी परिफिरतउ अछइ ६. अवद्ध ठइ १०. वरदतुः २१. भिडइ + सुख कहाछइ (अधिक पाठ) .
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( २५८)
अलोभता वेर स्वामि तणी, प्रति बोधता जंबू स्वामि तणी । तपु तउ दृढ प्रहारि तण। अल्प देशना प्रतिबोधु तचिलाती पुत्र तणउ, क्षमा गयमुकुमाल तणी। अति भोगता शालिभद्र तणी, अभिग्रह प्रतिपालना बंकचूल तणी ! महा अथु तउ उघ पत तणउ, चउवीस निणालय तउ श्रष्टापट तएउ । सिद्धि क्षेत्र तउ विमल गिरि तराउ, शास्त्र विचारणा हरिभद्र तणो। देव भक्ति प्रभावती तणी, द्यूत-व्यसन नल तणउ । मद्य व्यसन यादव तणउ, सत्य वचन कालिकाचार्य तणउं । अनुमोदना मृग तणी भावना दलाती पुत्र तणी। जैन प्रभावना विष्ण लती तणी, नटी वर्णना गगा तणी। स्नेह तउ लक्ष्मण तणउ, निस्नेहता नेमिनाथ तणी। जैन भक्ति राय कुमारपाल तणी, नगरी वर्णना लका तणी । राज वर्णना मलती तणी, श्री पुरुष वर्णना श्रीविष्णु तणी । राज वर्णना श्री राम तणी, काव्य वर्णना माघ पंडित तणी । त्रिंब निर्मलता कुमार विहार तणी, शीलु रानिमती तणउ । लब्धि श्री गौतम स्वामी तणी, दानु धन सार्थवाह ताउ । स्थिति ऋषभदेव तणी, शीलु सुदर्शन तणउ । शोलु सुनदा तणउ, पुण्य चंदन बाला तणउ | धर्म दया तणउं, गणधरता पुडरीक तणी । बलु बाहुबलि तणउ, चक्रवर्ती पदवी भरतेश्वर तणी । बुद्धि अभय कुमार तणी, एवं विध नामा निसीम ॥६८|मु०
(८३) विशिष्ट पदार्थ (२)
साठीधान, पाटणी पान। .... आहेडीउ सणाहु, हथियार धनुहु। अगरिउ लाकडूं, ........। सोरठी गाय, मलउसी जाइ । कस्मीरउं केसर, मरहठू वेसर । 'पूर्व दिसिउ भाट, शवन तणउ पाट । मेघाडंबर छत्र, सिंघल उरउं पत्र ।
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( २५६ ) श्रावू तणउ देवड़ो, पाटण तणो सेवडो। उजेणी तणु ढोर, अजयमेरु तणो मोर । चाणारसीउ धूर्त, काश्यप गोत्र । चंडाउलउ ठिगु, मालवीउ बगु । नान्हा बोलो लाड उत्तरापंथउ चाड । छत्रीत नाणा, त्रिणिसइ साठि क्रियाणा ।
( स०२)
माणिक दडउ हस्ती, खुरसाणिउ घोड़उ । मस्थली नउ ऊँट, दंडाहि नउ बलद । भीमसेन नउ कर्पूर, जागडउं कुंकुम । काकतुंडउ अगरु, दस' वधउ धूप । सिंहलउ दीवउ हार, बावर कुलनी गजवडि । गाजणी गोजी, वाणारसी काची। खेडावहा चाउल, मालविउ माडउ । पाडवसिंठं खाडउ, गूजरउ लोटउ ।
आबूउ रोटउ , अबूउ दही। एउ वस्तुना पाकर । १५८ । ( स. १) ( १५८ जो०)
(८५) विशेषताएँ (४) प्रथम पिण्ड पाणी रौ, रूपौ तौ जावर रो, टरसण तो परमेसर रो, ताड मानसरोवर रो, हस्ती तो कजली वनरों, पदमनी सिंहलद्वीप री, चतुराई गुजरात" री, वासौ तौ हिन्दुस्थान रौ, स्वाद तो जीभ रो, मतो तो पंचो रो, खेती तो वाड री, घीणो तो भैसरो+, देणो तो माथा रो, गालतो माता री, चूडौ दाँत रौ, विसवास गरो हथियार डाग रो, श्रादर माया रो, गढ लकारो, वाणी व्याकरण रीx, तिलक केसर रो, भगतबच्छल रो, वाजो नीसान रो, हटवाडो कटक रो, चोहटा भीड दिल्ली री, युद्ध जरासध रो, वाण अरजुन रो, गदा तो भीम रीझ,
१ दम । २ चउल । ३ श्रावूट।
४ थाट । ५. ग्वालेर + हाट कोट को (विशेष) x कवित्त पिंगल को। ' मरणो महा पुरुष को, सभा झ्द्र की, ग्वालनद को, निद्रा कुंभकरण की, भेष बद्री को, सेव भगवत की (विशेष)।
* गाहड़ क्षत्री को, कूख कुता की, यौवन भानुमता को। मृग म ढोवर को, ऊंट जालोर को।
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( २६० ) ककण केदार रो, घोडी पाणी पथरी, पुरष पजाब रो, माडा मालवारा, मेहतो मेवाड रा, राजा तो भोज; राणी तो टेंमती, ढाल तो गैडारी, बरछी ऊमट री, कटारी सिकरोदावाद री, रूप तो कामदेव रो, तेन सूरज रो, अमृत चंद्रमा रो, ऋद्धि सिद्धि गणेश री, वह पिराग रो, चावल' कचरी बागड़ री, लूण' सेंधवरो, टया मारु खडरी, सहिर तो लाहौर, दरवाजा अहमदाबाट रा, छाली परबत राजरी, भैस बडाणा री, बलद हडबी जात रो, वेटो तो कलबी रो, घात तो कचन री, पुण्य परब रो, सत सीता रो, हूकडाइ जाट री, झगडो गूजर रो, चोरी थोरी वागरी मीणा री, बुद्धि तो मुगल महाजन री सदासुबुद्धि जतीरो, कुबुद्धि ब्राह्मण री, साचो हीयो धोबी गाडरी रो, भाजणो कायर रो, चोट गोली री, देवल यात्रु रो, पान मधीया रो, वाव सोलीर रा, वाग नवलखो, तमाखू, सूरत री, दिन तौ पुण्याइ रो, वार तो राजा रामचटरी। कौ०
(८६ ) अपने वर्ग में विशिष्ट पदार्थ
देव मध्यि इन्द्रुः, तार मध्यि चन्द्रुः । पाखिया माहि हंस, जाति माहि चौलुक्य वंशः । देश मध्यि मगध देशः, दर्शन मध्यि जैन वेसु । तिथंच माहि सिंधु, धान्य माहि व्रीहि । रागु माहि पंचम रागु, वाणी माहि तर्क वागु । तेजस्वी माहि सहस किरणु, समुद्र माहि संयभू रमणु । राय मध्यि श्री रामु, हाथिया माहि ऐरावणु। घस्त्र माहि नेत्रु, काब माहि वेत्रु ।
१. चोखा। • वडाग । ३ काकरेची । ४ उलवी को।। ' पुन विशेष
भेष वद्री को। सेव भगवत की। गृदवडा वडाणारा। मसीत शकर की। माडणी राणपुर की। पीठ दिल्ली की । ऊचाइ मेरू पर्वत की । व्रत सील को। पर्व पजूसण को। पुहप चपा को । लिखियो विधना को। फल नालेर को। फूल कमल को। न्याय रामचद्र को । रूप कढर्प को । तेज सूरज को। दान कर्ण को। पर दुख कातर राजा विक्रम । नीर गगा को। जटा शकर की। सीत उत्तर खट को। राव भुगली की। राग केदारो। मेह भाद्रवा को। धर्म माहे धर्न दया। मेना चक्रवती री। तीरथ से जो । बल तीर्थकर रो। सुख तो सतोष रो। बुद्धि अभय कुमाररी। ग्छि शालि मद की। लवधि गोतम स्वामी री। केन्नारो सौभाग्य । शास्त्र माहि सिद्धान्त ! वाजिब माहि भभान्त । (स. ४) .
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( २६१ )
कला माहि गीतु, धातु माहि पीतु । सुगध माहि कस्तूरी, मृतिका मांहि तूरी । नगरी माहि काती, पुष्प माहि जाती । रितु माहि हेमन्तु, तीर्थ माहि शत्रुनय । पर्वत माहि मेरु, वृक्ष माहि कल्पवृक्ष । न माहि चिन्तामणि, नदी माहि गंगा । तिम धर्म माहि जिन धर्म ॥ ८५ ॥ पु०
(८७) श्रेष्ठतर
निम पर्वत मध्य वर्णियइ मेरु, तुरगम मध्य पंच वल्लहउ किसोरु । हाथिया मध्य ऐरावणु, टाणव मध्य रावणु । पुष्प मध्य कमलु, पाषाण मध्य स्फटिकोपलु | तिम श्रमुक मध्य श्रमुक | ( पु० ० )
(८७) गुण में विशिष्ट पदार्थ.
न्याये रामः सघाया चाणिक्यः
-माने रावणः सुयोधने
सौ राम सिंहौ ।
साइसे विक्रमादित्य जीमूत वाहनो ।
महसि मार्त्तण्डः
धीरत्वे रामः
शक्तौ कार्तिकेयः । विद्याया भारती,
वाचालुताया वृहस्पतिः टाने कर्णः
-मंगलटाने कल्पद्रुम कामधेनु । चिन्तामणि घटाट
...राव बज्रकुमारः जीमूतवाहनः वाग्या वाल्मीकिः
कलासु चन्द्रः
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(२६२)
सत्ये हरिश्चन्द्रः युधिष्ठिरः भक्तौ लक्ष्मणः स्थैर्य मेरुः विवेके वृहस्पतिः को ...... ..."या इन्द्रः सौहार्ट सुग्रीवः. गांभीर्यब्धिः सौभाग्ये कामः दयायां युधिष्ठिरः आज्ञाया लकेश्वरः लावण्ये समुद्रः उद्यमे रामः गतौ राजहंसः वृषभश्च स्वरे पिक वीणा। केके वंश मधुकराः। रूपे जयन्तः अनल कुंबरा विनेय पुरुष नकुलाश्च ।। १०२ ॥ (मु०)
(८८) अनुपमेय पदार्थ
(१)
गंगा समउ जल नहीं, वाघव समउ हेज नहीं। रवि समउं तेज नहीं। अथवामेघ समउं जल नहीं, बाह समउंबल नहीं। अन्न समान हेज नहीं, अक्षि समान तेज नहीं।
॥ ३५ ॥ स०१
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( २६४ )
(६१) मला क्या ?
मरसती समयं सामणी, वाणी देह वित्त | नमदं गणपति सुमति वा समयं सिव सगत्ति । सक्ति गुरु की भली, भगती मेरी भली । प्राण फेरी भली, व वेरी भली । लू लागी भली, रंग रागी भली । अंत भागी भली, जोति नागी भली । उक्त उठी भली, आई तूठी भली । मोहर बूठी भली, भरी मूठो भली । श्रास पूगी भली, मंग ऊगी भली । लाल लूंगी भली, रात चदरणी भली । पाग खागी भली, केसर रंगी भली ।
ग अंगी भली, चतुर चंगी भली । लाडी जाडी भली, भैंस पाडी भली । खेतवाड़ी भली, पंथ गाडी भली । घरा मेडी भली, तोरण तोडी भली । चचल चेडी भली, गंग नदी भली । मोत मोड़ी भली, ममता थोड़ी भली । नोवन जोड़ी भली, कछा घोडी भली । लोह लाठी भली, नरा नाठी भली । कर्म काठी भली, भ्रम भाठी भली । वीज चमकी भली, सीत चमकी भली । घंट रणकी भली, तत झणकी भली ।
या वाजी भली, वहु लाजो भली । ऊनी भाजी भली, प्रीसी माजी भली । नोवत बाजी भली, जीत बाजी भली । रांणी राजी भली, देह सानी भली । क्रीया कीधी भली, नींद लीघी भली । रिद्ध सिद्ध लाघी भली, दवट दीघी भली ।
प्रीत बाघी भली, भोम साधी भली ।
रसवती ताजी भली, खीर खाघी भलो ।
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(६६) अची ताणी भली जुगत जाणी भली मोन माणी भली ब्रह्मवाणी मली अती तारहणी भली कीरत कैहणी भली भोजन चासणी भली भरी वासणी भली साख पाकी भली घात ताकी भली बोल वाकी भली किरण मिलकी भली सुड ललकी भली छाह ललकी भलो चूड खलकी भली जलेबी फीकी भली धार घी की भली निरमल कीकी भली चंदण टीकी भली कोयल बोली भली गाठ खोली भली नली वसत तोली भली जनस मोली भली दलि दीठी भली गोठ मीठी भली मर्दन पीठी भली नफर चोठी भली भाख फाटी भली पहिल परणी भली घरे घरणी भली धर्म करणी भली पुन्य तरणी भली देव गुरु मान्या मला गुष्ट छानी भली जोध जुवानी भली पाय पानी भलो ब्रह्म जनोई भली धोती धोई भली जोति नोई भली सहरि सीरोही भली चोरी राते भली बूठी वातें भली पात न्याते भली नाची नोते भउ हाडी डोई हाथे भली . पाघ माथे मली वैर बाथे भली माला मनकी भली सेव सिव की भली . धाख धन की भली सूरत अनकी भली .. गरदां बड़ाई भली चदन आडाई भली कड़ाही चढ़ाई भली वापरू लडाई भली भवानी भेटी भली फिकर मेटी भली . कमर पेटी भली बाल वेरी भली बहू मोटी भली तरवार सातरी भलो । बरछी मोटी भलो छूरी वहणी भली, .. घेणु दूझती भली । (पुण्यविजयनी द्वारा प्रेषित २ पत्रों से)
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( २६७ )
( ६२ ) भला क्या ( २ )
अमल खारा भला, खड़ग धारा भला । तमारा भला, घात पारा भला । हाथ वहिता भला, माल खरचता भला । दान मान सूं भला, काथा पान सू भला । खेत नीचा भला, घर ऊँचा भला । राणी पाणी पातला भला, श्रमल जोर का भला । नीसारा घोर का भला, बुध ज्ञान सूं भला । चित्र मोर का भला, हीया चोर का भला । बोल बाप का भला, बैसा खाट का भला । मरद पतंग का भला, तीर तीखा भला | पहिरण पटकूल का भला, युद्ध वीर का भला । घोडा कुमेद भला, कपडा सफेद भला । रंग राता भला, दुरजन जाता भला । हस्ती माता भला, पुत्र पोता का भला । त्रिया ताजणा भला, ज्ञान प्रकाशता भला । चेला विनयवंत भला ।
( ६३ ) द्विगुणित विशिष्ट
( कौ० )
( १ )
एक हरि नै पाखरयो', एक सर्प नै पंखालो । एक इष्ट नै वैद्योपदिष्ट, एक औषध नै मिष्ट । एक सोनू श्रनै सुगध े, एक गुण नै गोविंद ।
एक खीर नै साकर कपूर, एक घेवर अनै प्रीत्या भरपूर । एक चपक माला श्रनै माथे चडी एक मुद्रिका नै हीरे जडी । एक सालि नै प्रोसी सुवर्ण थाल ॥
( स० ३ )
( ६४ ) द्विगुणित विशिष्ट
एकु हरि, श्रायउ घरि ।
एक इष्ट, द्वितियो वैद्योपदिष्टु |
२ वि घरि २ सुरउ । एक सीह नै पाखरिउ ( विशेष ) ( स ० १ ).
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( २६८ ) एक सीहु, पाखर लीहु। 'एकु श्रागइ धण माकणी, पगि बाधी काकणी। एक ऊमाही, अनड मोर हीलव्य। 'एकु क्षोरान्नु, अनइ मर्करा सपर्छ । एकु मधु अनइदादा क्षेपु, एकु प्रेयसी अनह गुणवतो। एकु विद्वांसु अनइ विनीतु, ए वन्तु किंहा लाभह ॥ ६७ ॥ (मु०)
(६५) द्विगुणित शोभा (३)
हरि, अनई श्रावो घरि । एक इष्ट अनई वैद्योपदिष्ट । एक सुवर्ण अनई सुगघ । ग्रेक सीह अनइ पाखरिउ । अक घृत परिपूर्ण अनई निक्षिप्त शर्करा चूर्ण । एक शालि दालि परिसी सुवर्ण थालि । अक रूपवत अनई कामदेव सदृश लहकत । श्रेक ऋद्धि कलित अनइं दान करी अस्खलित । ओक योद्धार अनई शस्त्रे अजित । अक वसत नइ परि प्राविउ कत । ओक यौवन भर अनई चच्चरि घर ।
( स० २)
(६६) निकृष्ट पदार्थ (१)
वृषभ मारीकणउ, ठाकर चूकणड, हाथिउ नासपाउ । तुरगम काढणउ, मृत्यु रूसणउ, स्त्रीजनु बोलणउ । दूरि बर्जेवउ ।
(पू० अ०)
(६७) निकृष्ट पदार्थ (२)
पाछी छासि केतलउएकु पाणी खमइ, पातली छाया केतुएकु आतप गमह । कातर केत एकु रणागण जूझह, निरक्षर केतुएकु कहिउ बूझह । . कृपणि केतउ दानु दीजइ, अपराधि केतउएक तपु कीजइ। आदि केतउएक तरु वाजइ, कारिमउ नेहु केतलउ एक छानइ ।
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( २६६ )
(६८) सार्थक पदार्थ ते द्रव्य साचउ जे सुपात्रि बेचियइ', ते काव्य जे सभा पढियइं। ते श्राभरण जे हीरे नडियइ, ते सोनउ जे कसवटइ नीवडइ । ते वैद्य जे व्याधि फेडइA ते प्रामात्य जे बुद्धिबलि लक्ष्मी जोडइ । तेउ धर्म निंहा पर न संतापिया, ते सयर जे रोगि न व्यापियइ । ते शास्त्र जे जीवदया वर्तावइ, ते राज्य जे अन्याय निवर्तावइ । ते कापड जे घोइउ सूझइ3, ते कार्य जे बुद्धि सारु । ते बुद्धि जे पहिलउ ऊपजइ, ते तुरंगम जे वेगि पूजइ । ते सुभट जे संग्रामि झूझह, ते घेनु जे सर्वदा दूझह । ते उत्तम जे धर्म बूझइ । ८१ ।( स० १)
(88) ऐ किण काम रा गोदता नी वाट, माटी नउ घाट । मद्य नउं पडिवळ, आहेडी ना उद्यम धर्म नउ । राब नउ घउ, मान नु भउ । ऊफाणउ श्राभा नी छाह, कुपुरुष नी बाह । आढनउ तूरउ, पर्वताश्रित नदी , पूर । वेद्य नउपडीगणउं, सूपडानउ ओठीगणउं । छाली नउ झूझ स्त्री स्यउ गृझ । दासि नुं स्नेह, उन्हालु मेहु । तृणानि अागि, एतला स्युं लागि ॥ २२ ॥ मु०
(१००) एता किसी काम का नहीं ( २ ) उन्हाला नौ मेह; दासी नौ नेह रोगी नो देह; स्त्री विण गेह पर" घरनी छासि, कठ विहणो रास अवसर बिना भास; कुकुल नो दास फूसनी आग, जमाई नो भाग १. वाववि २ शरीर ३ सूकह ४ मीठे । A सुवैद्य जे अष्टोत्तर शत व्याधि फेडड
सुराजा जु प्रजा पालइ (विशेष) (पु० अ०) ५ पिराया, ६ विना,
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( २७० )
काचो ताग; पाणी नो साग दीवा' नो तेज, दुर्जन नो हेन
उधारा नो व्यापार; राड नो सिणगार
पखैया नो प्यार, एता किसी काम का नहीं । ( कौ० ) +
( १०१ ) द्विगुणित निकृष्ट ( १ )
चरसइ मेघ नइ राति ग्रधारी । कउही रात्र नह माहि कंसारी । यवनी रोटी नह कागद्द बोटी । ग्राह काली अनह मसी लाई । डाकिणी नहं राउल वाई । उखरडी खाट नइ डाभि वणी | सासू जुड़ी नइ नणंद घणी । पालि चीखल नइ कड़ि कीकली ।
1
चडपण नइ फोफल घूंट । अतिसार नइ श्रासणि ऊंट ।
दुख नह डाकिणी खाधउ । वानर नइ वीछो खाधउ । श्रागण कुउ नइ कुटुंब श्राधलू |......|
........
साप नइ पखालउ, काढव नइ कंटालउ । काणी नहरीसाली, बाडी नइ विदा बोली । सरड़ी नइ श्लेष्मली ।
""
....
(१०२) द्विगुणित निकृष्ट
एक विदेश गमनं श्रन्यत्तत्रापि दारिद्र्य ।
"
एक सेवा वृत्ति दुष्करा अन्य तत्रापि पिशुन समागमः ।
३ दिवाली ।
+ एक अन्य प्रति में निम्नाकिन पाठ और अधिक मिलता है । दहीनो पडगनो; सुपडानो ऊटिगणो ढीकुत्रानो पायो, पढपण नो जायो पागलानो धायो, गहिलानो गायो कागल नो कटायो,
कारटानो भाग, वैश्यानो राग
पर त्रियाप्यार, खड़ी नो सिंगार
ऐदवा अधूरानो सगत कीजै, धर्म विना एतलावाना सोभै नहीं ||
( स० २ )
(सं० उ )
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(२७१) एकं दूरारण्ये गंतव्य तत्रापि शवलं नहिं । एक पान पात्र भगे द्वितीयोमकारणमुपद्रवः । एकं कुभोजनं अन्यतुः प्रथम कवले मक्षकापातः । एक कुथितारख्घा, अंतर्गता च कसारिका । एक यवानो रोटिका अन्यत्काक भक्षिता च । एक पकुला रथ्या, द्वि. कद्या कु सुता। एकं भोजनस्य असंपति, द्वितीयं प्राघूर्णक बाहुल्य । एक दुःख अन्यत् शाकिनी ग्रस्त । एक कुग्रामवासोऽन्यल्लाभोपिन । एक कन्या बहुत्न दुर्मुखी च भार्या । एकं उच्छिष्ट अन्यद्भक्षं दुग्धस्योपरिस्फोटक । तथा एक मिथ्यात्वं, अन्यन्मख्यिं ।। ६४ ॥ ( स० १)
(१०३) अच्छा दिखने पर भी बुरा मृष्टमपि यथा क्षार, विषं मधुरमपि प्राणहरं । यथा कल्याण्यपि अकल्याणकारिणी। भद्राप्यभद्रा, यथा मंगलोप्य मंगलयो वारः । यथा केतुरपि कल्याण सेतूः । यथा अमृतवाल्यपि गुडूची
(१०४) निरर्थक (१) कुपुरुषे उपकारो निरर्थकः । शुष्क नदी तरणमिव, वालुका चर्वणमिव । मृत खंडनमिव, भस्मनिहुतमिव । आकाश कुदृनमिव, तुष खडनमिव । जल विलोडनमिव, उर्षर वर्षणमिव । शुष्क काष्ठ सेचनमिव, यम निमत्रणमिव । द्यूत कटकोपार्जनमिव ॥ २२ ॥ ( स० १)
(१०५) निरर्थक (२) कुपात्रस्य विद्या वृथा, कुशिष्याय व्रतं वृथा । धनाद्ये दानं वृथा, भुक्तस्य भोजनं वृथा। चर्वितस्य चर्वणं वृथा, पिष्टस्य पेषणं वृथा ।
७५। जो०
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( २७२)
मथितस्य मथन वृथा, अचिंतित श्रुत वृथा । अखरे वारित वृथा, ममुद्रे वृष्टिर्वृथा । मुनीनामाभरणं वृथा, अधिरस्याग्ने वीणा वादनं वृथा। अधस्याने प्रेक्षणक वृथा, अभव्याया जैन धमों वृथा || ३६ ॥ (स० १)
(१०६) निरर्थक (३) कुपुरुष ने उपकार कन्यो निरर्थक नाणवो सुकी नटी नायाजनी परि, वेलु चावनानी परि । मृतकना शृंगारनीपरिं, अगनिहोमवानीपरि । भस्ममि नाखवानीपरि, भस्म श्राकाश कुहन परि।। तुस खाडवानो परि, पाणी विलोवानी परि ।। १ऊरवरना वरसवानीपरिं, शुक काट नासीवानी परिं। जूअटानाधननी परि, कुपात्री विद्यानोपरि । इत्यादिक जाणवो ।। (सू० ३) ।
(१०७) विहीन किसो प्रारति विहूणो काम ? किसो प्रेम विहूणो मान, किसी जाचक विहूणी जान । किसी हूँकार विण वात, किसो छयल विहूणो साथ । किसो बल बिहूणो बाण, किसो तरवर विण पान । किसी वादल विण वीज, किसी पोहच विण खोज । किसो विगर दीठा कहणो, किसो कागद विहूणो लहयो । किसी त्रीया परतीत, किसो कंठ विहूणो गीत । किसी निर्लज्ज नारी, किसो अवसाण चूको हथियार ।' किसी लूगडा विण चूंप, किसो वागा विण खूप । किसो उन्मान विण आघो, किसो सघण विण वागो। किसी चद विहूणी राति, किसी अमल विहूणी आय । फिसो छंडारो घर वासो, किसो नुखता विण हासो। किसो अतीत विण चोरो, किसो गर्त विण पोहरो। किसी पूंजी विण लाभ, किसो समझ्या पखे जाव । किसो पूत पखे घर, किसो संपत्ति पखे नर । किसो तीय पखे बन, किसी भाव पखे भोजन । सत्य शष्ट भविनन कहें, कहा जीव्यो जिन नाम विषा। (स० ४)
१. उपरना।
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( २७३ )
(१०८) चूका (१) एहवो पष्ट पड्यो दीसै। उचपेटा पाहणीऊ माकड', जिम डाल चूको वानर जिम घाव चूको सुभट, जिम दाव चूको जूवारी । जिम विद्या चूको विद्याधर, जिम फाल चूको दादरि । जिम ठाम चूको भडारी। यूथभ्रष्ट चूको हरिण, चार जिम अरुण अशरण । राज्य चूको राजवी, पद चूको पटवी लाज चूकी नारि, भीख चूको भीखारि ।। इत्यादिक पष्ठ पडयो जाणवो ।
(सं. ३) (१०६) चूका (२) जिसउ घाय चूकड भडु हुइ, जिसु डाल चूकत्रो वानर हुइ, निसउ विद्या चूकउ विद्याधरु हुइ, जिसउ ठाम चूक उ भडारिउ । निसउ दाइ चूकड जूआरी, जिसउ जून परिभृष्ट हरिणु । तिसर विच्छाइ वदनु ।
(११०) कौन किससे शोभा पाता है ? (१) रजनी चद्रेण शोभते । नभः सूर्येण । प्रसादो देवेन । पुष्प भ्रमरेण । युवती यौवनेन । वल्ली कुसुमेन । कुलं पुत्पेण । मुख तावूलेन । नेत्रं कजलेन । कुल-वधुः शीलेन । प्रेक्षणीक गीतेन । मुख नासिकया । मयूरः केकया । राजा छत्रेण । नगर दुर्गेण । काननं कल्पवृक्षण । योगी ध्यानेन । घनी दानेन । यती निर्ममत्वेन । सूरः सत्वेन । गजो मदेन । तुरगमो जवेन । सरो राजहसेन । मस्तक मवतसेनेति ॥छ। सिंहेन वन, वनेन सिंह । मुख नासिकया, नासिका मुखेन । कमल जलाशयेन, जलाशयो कमलेन । सुवर्ण रत्नेन, सुवर्णन रत्न । अमात्येन राज्य । राज्येनामात्याः । नंदनेन मेरुः, मेरुणां नंदन । सुपुत्रेण कुल, कुलेन सुपुत्रः । दिनेन भानु, भानुना दिन ।
१. उमाफड २. वाम ३. पदस्व, ४ बाट । ५. निशा ६. सत्पुत्रेण
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( २७४) शशाकेन निशा, निशाया शशाकः । नयेन राजाः, राजा नयः । व्यसनेन मूर्खता, मूर्खतया व्यसनं । मदेन नारी, नार्या मदः । नदी जलेन, नद्या जलं । परिमलेन पुष्पं, पुष्पेन परिमलः । नादेन वीणा, वीणया नादः । दंतर्मुखं, मुखेन दताः । विद्युता मेघः, मेघेन विद्युत । तोरणेन मडपः, मंडपेन तोरणं । हारेण हृदय, हृदयेन हारः॥
(म. २)
निर्दन्त करटी हयो गत जवश्चद्र विना शर्वरी निगंध कुसुम मरोवर गत छाया विहीनतरु रूप निर्लवण सुतो गत गणश्चारित्रहीनो यतिः निर्देव भुवन न राजति तथा धर्म विना पौरय ||१|| ( पाठ पु० प्रति में अधिक मिलता है । )
(पु०) __(१११) कौन किससे शोभा पाता है ? (२) कुलबहु ते सीले शोभे, रजनी चद्रमाइ शोभे ।
आकाश सूर्यई करी शोमे, वन चदने शोभे ॥ कुल सुपुत्रे शोभे, कटक राजाई शोभे ॥ प्रधान राजाइ शोभे, राजा प्रधाने शोभे ।। ध्वजा देवेले शोमे, देवल ध्वजाई सोभे ॥ स्त्री भरिइ शोमे, भतर बीइं करी शोभे ॥ 'तिम परस्पर शोभा जाणवी ॥
(स. ३)
वेल फूले सोम, मुख तंबोले सोभै । मोह कम बोले सोभे, सीह वन सोम । मुख नासिकाई सोभै, तिम मनुष्य धर्मइ शोभे ॥ कमल जले शोमे, जल कमले शोभे, सुवर्ण रन्ने शोमे, रत्न सुवर्ण शोमै ।
(११२) किससे कौन शोभा पाता है ? (३) जिम प्राताट सोभे वजधारी, जिम हृदय सोभे हारी। निम गृह सोभे उत्तम नारी, जिम मत्तक लोहे केस प्रागभारी'। । प्राप्तारि
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(२७५ ) जिम कर्ण' सोहै स्वर्णालंकारी, जिम सरीर सोहे शील शृगारी । निम सरोवर सोहै कमलि, जिम पुष्प सोहै परिमलि । जिम नेत्र सोहै युगलि, जिम रात्रि सोहै चंद्रमडलि । जिम विवाह सोहै कूरे, जिम उत्सव सोहै तूरे । नदी सोभै पूरि, तिम सम्यक्त्व सोहै भावना भूरि । इति भावना वर्णनम् ।
(स. ५) (११३) कौन किससे शोभित होता है ? (४) घर ओपइ घरणि, गगन अोपइ तरणि ।। वृक्ष अोपइ पल्लवि, ताम्बूल ओपइ चूर्णलवि । वस्त्र अोपइ रंगि, मउड अोपइ मस्तक सगि । माणुस ओपइ शृगारि, व्यजन अोपइ वघारि । राजा श्रोपइ भंडारि, हाथिउ अोपइ मदवारि । ३१ (स १)
(११४) कौन शोभा नहीं पाते (१) शस्त्रहीनो यथा सूरो न शोभते । मत्र हीनो मंत्री । धुरा हीना गंत्री । प्राकार हीन नगरं । स्वामी हीन बलं । दत हीनो गज । कलाहीन पुमान् । तपो हीनः मुनिः । तेजो हीनो मणिः। वाण हीन धनुः । धारा हीन कृपाण। वेद हीनो विप्रः । कपिशीर्ष हीनो वप्रः । गंध हीनं कुसुमं । नयन हीन वदन । लवण हीनी रसवती । चैतन्य हीनं वपुः । (स. २)
(११५) कौन शोभा नहीं पाते (२) बुद्धि हीन मुख्य नायकु, अति निष्ठुर वणिकु । स्वासणउ चोरु, कलापु हीन मोरु । आलसउ कुमारउ, अध अनइ भरालउ । दुविनीत शिष्पकुलु, बज रहितु देवकुलु । वृतु रहितु भोजनु, स्नेह हीन स्वजन । तेज रहित आरीसउ, गृहस्थ बोडउ । १. कान सोम।
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(२७६)
महिला कानि छूटी, ध्वज अतरालि तूटी । भाग्य हीन मुक्ति, क्षमा रहित मुक्ति । एतली वस्तु शोभा न पामई ॥६६॥ (मु.)
(११६) कौन शोभा नहीं पाते (३)
मद हनो हस्ती न शोभते, कुल स्त्री निर्लज्जा न शोभते । नीति विकलो राजा न शोभते, कृपण धनान्यो न शोभते । रूप रहितः स्त्रीजनो न शोभते, प्राकृति रहिता सरस्वती न शोभते। लवण रहिता रसवती न शोभते क्षमा रहितो मुनि न शोभते । शर्करा रहितो मोदको न शोभते, कण्ठ रहित गान न शोभते । छटो रहितो भट्टः न शोभते, विवेक रहित मन न शोभते । निर्वग्रं पुर न शोभते, निविद्या विप्रः न शोभते । निर्नायकं सैन्य न शोमते, निफलो वृक्षः न शोभते । निर्वृष्टिमेघः न शोभते, तपो रहितो मुनि. न शोभते । प्रेम रहितः सगमः न शोभते, निर्नाशिकं मुख न शोभते । निर्वस्त्र शृगार. न शोभते, निः स्वर्णोऽलंकार न शोभते । ताम्बूल रहितो भोग. न शोभते, रूप सिद्धिः प्रयोगः न शोभते । निःकंकणो बाहुदण्ड. न शोभते, प्रत्यचा रहितः कोटण्ड न शोभते ।
(११७) कौन शोभा नहीं पाते (४) मद रहित हाथी, चोख रहित साथी । लज्जा रहित कुलवधू, जल रहित सिधू ।। बुद्धि रहित नायक, चूकणउ पायक || खासणड चोर, कला रहित मोर ।। आलसूक मारड, पाणी रहित गारउ ।। खान (स्थान) भ्रष्ट गमार, तेज रहित टार || . आकृति रहित सरसती,, लवण रहित रसवती ।। रूप रहित छवि, छद रहित कवि ।। गंभीरता रहित धुनि, क्षमा रहित मुनि ||
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(२७७)
जल रहित बूटी, ध्वज विचाला त्रुटी ।। घृत रहित भोजन, संज्ञा रहित मन ॥ तेल रहित मज्जन, स्नेह रहित सज्जन ॥ मनुष्य रहित घर, विनान रहित वर ।। चतुराई रहित कला, पुरुप रहित महिला || कराठ रहिह्न गान, सोहाग विण मान ।।
आभरण रहित कान, वर विना जान ।। वृक्ष विना पान, जलवा रहित धान ।। 'वला रहित छान, कलावत रहित तान || भाग रहित भागवान, पात्र रहित दान ।। वेग रहित घोडड, गृहस्थ माथइ मोडउ॥ पाठरउ छेलड, दुर्विनीत चेल। तेन रहित पारीसड, नेह जिसउ दारीसउ ॥ प्रसाद रहित छाजा, नीसाण रहित वाजा ।। वृत रहित खाना, प्रताप रहित राजा ।। पासा रहित तारी, पुत्र रहित नारी ।। क्रिया रहित जती, सत्व रहित सती ।। धन रहित गेही, तिम श्रीजिन धर्म रहित देही ।। ॥ इति रहित वर्णनम् ।। कु०
(११८) अनावश्यक (१) मुनिराभरणेन किं कर ति, मर्कटो नालिकेरेण किं करोति । काको रत्नमालया' किं करोति, मत्स्याटको जलच्छादन केन किं करोति । वानरी हारवल्याकि करोति, विधवा स्त्री ककणेन कि करोति । वणिग खड्गेन किं करोति, दिगबरः पट्टकूलेन' किं करोति । असती शीलेन किं करोति, व्याधा जीवटयया कि करोति । तथा निर्भाग्य जीवः सदुपदेशेन किं करोति ।। १७ स. १
(११६) अनावश्यक (२) शुद्ध ऋषीश्वर अाभरण ने स्यु कर, मर्कट नालेर ने स्यु करें ।
१ रत्नेन • मुताफलेन ३ दुकृलेन
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(२७८) काक रतन ने स्यु करे, वानरो हार ने स्युं करें। असती शील ने स्युं करें, वणिकाकूराज्य ने स्युं करें। नपुसक स्त्री ने स्युं करें, दिगम्बर पटकूल नै स्यूं करै । जीव आजीव नै स्यूं करै, अधर्मी धर्म ने स्यूं करै । साजन दुर्जन ने स्यूं करें(दुर्जन सजन नइ त्यूं करइ)+ + "मूर्खः पुस्तकेन । पापी सुकृतेन । अंधा अजनेन । षढोदयितया । दुर्जन
उपकारेण । वको मानस सरसा। सालूरः कमलेन । ग्रामीण पडित गोष्टया । रजकः क्षपनक ग्रामेण, मक्षिका यक्ष कर्दमेन । कापुरुषः संग्रामेण । पणांगना निर्धनेन । पतित कुचा हारेण । गतवयाः शृगारेणेवि (पु०) उक्त पाठ पु० प्रति में अधिक मिलता है।
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सभा श्रृंगार
विभाग १०
भोजनादि वर्णन __ (मंगल, वर्धापन, उत्सव, विवाह, भोजन, वस्त्रालंकारादि )
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(२८१)
(१) मांगलिक दधि, दूर्वा, कुसम, अक्षत, चदन, नंदित', सिद्धार्थ, गोरोचना, कुंकुम, पूर्णकलत, हलिय, तोरण, चमर, जवाग । अहिव तणउ मगलुचारु, घट्ट प्रदीप मणिमाला, प्रवाल, वटरवाल ए द्रव्य मगलीक । देवपूजन गुरुवंदन प्रमुख भाव मगलीक |
(पु०) (२) वर्धापनक नगर तणा प्रधान नर तेडावड, महोत्सव करावइ । स्वर्णमय दीप ज्वाल्या, घर तरणा कूट अजूयाल्या । त्वर्णमय मूसल अभ्या, सुवर्ण कलश स्थाप्या । घर धवल्या, भित्ति भाग कउल्या, तिलिया तोरण बाध्या । प्रसादि वैजयन्ती झलकावी, गोति मेल्हावी, अमारि करावी । सर्वत्र मंगलाचार दीजइ, तर वाजइ । अक्षत पात्र साचरइ, तंबोल वापरइ । अर्थ व्ययना साभल नहीं, इसउ वधामणउ हूसही ॥ ७७ ।। ( जै०)
(३) महोत्सव देखने की उत्कंठा तेण महोत्सवि समय बालिकाहार त्रूटते, वेणीदंड छूटते। नेऊरि फुटते, पटठल फाटते । घट जुअल विणसते, अनेकि अाभरणि खिसते । मुक्तालकारि पडते, स्वेद विंदु चडते। जोवा तणइ कारणि चालिउ । (८६ जो०)
४ पुत्र जन्म महोत्सव राउ करावइ, टण्डपाक निरोक हूउ । सर्वत्र मार्ग वोर वालिया, गोमय पाणी सोंचिया । मचोन्मच बाधा, वानरवालि बाधी । . हट्ट शोभा सर्वत्र रची, सिद्धार्थ स्वस्तिक भरिया, पूर्ण कलश त्याग्या । १ वीजपूर २ जुअल दीप । १३८ जो० मे नदितूर और घट्ट के बाद ये अधिक है ।
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( २८४ )
पाखलि सालणा तणी पालि, माहि सुगध घृत तणी नालि | बिहु पहुर तणइ कालि, परीसइ अाखडियालि नारि । - (६६ जो)
१० श्रेष्ठ भोजन लेहि दूलेसरा चोखा तणउ पीठु सीघरउली खाड तण उ टलु पारिहेटि महिसिं 'तणउ दूधु एल तज तमालपत्र करिड चमचमा काचइ कपूरि करि मगमगाय मान इसा वरसोला जहि आस्वाद खास तणउं उद्भट नहीं श्लेष्म तणउ प्रकोप नहीं रस तणउ विकारु नहीं आसा नीरोग निर्दोष अमृत घटित, देव निर्मित । (पु, अ.)
११ रसवती वर्णन ऊपलइ मालि, प्रसन्नइ कालि । भला मडप नीपाया, पोइणि ने पाने छाया । केसर कु कुम ना छडा दीधा, मोती ना चुक पूर्या, ऊपरि पंच वर्णा चंद्रया बाधा, अनेक रूपि पाछी परीयछि ना रग साध्या । फूल ना पगर भरथा, अगर ना गध संचरया । प्रधान गादी चाउरि चा कलाणा, बइसणहारा बइठा पातला । सारूया घाट, मेल्हाव्या आगलि पाट । अची आडणी, झलकती कुंडली ऊपरि मेल्हाव्या सुविशाल थाल । वाटा वाटली सुवर्णमइ कचोली । रूपा नी सीप ढूकी, इसी घाति मूकी । जीमणहार किसाछत्रीस लक्षणोपेत अलिकुल कजल श्यामल केश पाश चन्द्रार्ध भाल-स्थल । कामदेव कोदण्डाकृति भ्रूभग । विकसित कमल दल समान लोचन
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(२८५)
सरल तरल नाशा वंश हिडोला समान कान। प्रवाल सम कान्ति अधरोष्ठ । टाडिम नी कुली जिसा दात पूणिमा चद्र सदृश वढन कमल शख नी परि त्रिरेखाकित कण्ठ कटल ममासल स्कध प्रदेश प्रथुल वक्षस्थल। कूप समान नाभि यानाभि कृद्ध पाताल कटि यत्र कदला स्तभापमान जघा युगल सुकुमाल कर कमल कुमानत चरगा लाडता लोडता लडसडता रूपवत , प्रवीण जाण, सोभाग्यवत । गुणवत, विनयवत। लीला विलास, पुण्योल्लास । इन्द्रसमान दीटा, इसा पुरुप आरोगिवा बइठा । प्रधान स्त्री परीसणहार आवीहस जिम चालती, मयगल जिम माल्हती। वाक जोयती, जन आल्हादती । आखडी पाली, अति सुविशाली। सुवर्णमय कुरूड हाथि धरती, चिन्ता हरती। सुगंध वासित पाणी, ढाक्या प्राणी हाथि धोयण टीधा-- शृंगाल नइड मालि, परीसिवा लागी उजमालि । फलहुलि किसी परीसिइ छइ ? अखड अखोड मनोज्ञ वायम विविध देश ना बदाम
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जमली चूर्ण रगावलि दीजई, सुवर्णमय इल मूसल अभवीजह । घट जूअल बाधीयइ, समग्र मार्ग सोधियई। रत्नमय प्रदीप बालियइ, गोतिह रातउ बदि तणा बृद टालियई। कर्पूर कुकुमि चदन रसि मार्ग सीचियइ, अर्थी लोक सर्वथापि न वंचियई । जिन भवनि पूजा प्रभावना करावियइ, नव नवा पुस्तक भरावियई । लोक अकर कीजइ, आखे भरिया स्थाल लीजई। लोक तणा वृंद मिलई।........... वाजित्र तणा सहस्त्र वाजइ, कलकलि करी आकाश मंडल गाजई ।।
६४ (नो.) ५ धात्री १ क्षीर धात्री, २ मजन धात्री, ३ मडन धात्री ४ क्रीडा धात्री, ५ उत्सग धात्री, पच धात्री||छ॥
१२८ जो.) ६ पुत्र पालन जिम हेडाऊ तुरगम संभालइ । जिम वणिक-पुत्र हथेली नउ फोडउ सु साला। जिम तबोली पान चालइ। जिम रथी रथ नह चालइ । जिम मुक्ताफल रहइ थालइ । जिम साधु प्राणी ने हालइ । जिम पखिया रहइ मालइ । तिम माता पुत्र नह पालइ ॥ (कु)
७ बालक्रीड़ा हिवइ ते रह्या (१) महादुख थया ॥ घर. विषै एहवा चयन करवा लागौ ॥ किवारइ पाणीना धडा ढोले, किवारें धइसे माने बोले ।। दहीनी गोलि घोले, किवारइ तरितो माखण छासि माहि बोले ।। माता साकडाने झालि पाणे, क्रिवारे स्त्रियोनो काचुयो ताणइं ॥ किवारइ जातो साप साहइ, किवारई आगीनई हाथि वाहैं । १. पालइ २ वणि ३ समालइ ४ समालइ (जै) , जै प्रति में प्रथम की तीन पंक्तियों के बाद की चार पॅक्तिया नहीं है।
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( २८३) किवारइं हतिनह मा सामो जोवइ, किवारइ रूसणो माडिनई रोवई॥ किवारइ सूतो उठाणता बालस मोडइ, किवारइ रीसाणे उत्तेवड फोडें ॥(मो.) इत्यादि वालक्रीडा वर्णनम् ॥
८ विवाह समय
लग्न ऊपरि विहउ पखा हर मारि कटि साम हियह मूडसए आखे उडद केलवीयइ मूडसए गोहू केलवीयइ मूडसए चोखा केलवीयइ मूडसए मूग केलवीयह घड सइ घृत विसायिह कोडिया सह कापडा चोला भरा पान, झउला भरिया फोफल, गोरस तणा द्रह, वडा तणा उकरुड खाना तणा खला, गडि बहत्तरि वहिल चउरासी सुखासण, विंसुत्तरसर भडार गाडा सातसइ सेजवाली, चउदसई वाहण, पाचसह साढि, तेजी, वेसर, नीलडा, हरियडा, पायल लोक संख्या नहीं, सरसी कोठी । जगऊपणि माल्हणि सर्व गिलि प्रमुख अनेक सरसी कडाही वाहण तणी धोरणि- सेजवाली तणइ सेतु बधि सीकिरि तणइ अडमह बोबा तणइ थाटि, पायक तणइ पहट्टि, चक्रवर्ति जिंव चालियउ । नेउर तणइ ऊकारि, घाघर वालि तणइ घर्घरारवि पच-शब्द तणइ निर्घोषि, लोक तणइ हलबोलि कानि पडिय कोई न साभलियइ ।
(पु. अ.)
ह भोजन अनेक जाति तणी फलहलि । जिम मोटा छाजा, तिम खाजा । जिम महद्भुत गाडू, तिम लाडू । विविध वाणी तणउ पक्वान्न, वि आगुली कलम शालि । मुगनी दालि, परीसी सुवर्णमय स्थालि ।
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(२८६ )
चारु चारउली खारकि ना खड। कसमिसि दाख आदनी खजूर बीबाला वरसोला हीरालग साकर नालेवर तणी चीरी बुरहडी सरस सकोमल सेलडी तणा वुटका तेह तणी कातली, दाडिम नी कुली करणा, नबीर, बीजुरा, चुरडी नारिंग तणी फाडि, सहकार तणी कातली किस्युं ते सढकारुवनस्पति राउ, कन्दर्प देवतानु भाउ । रस तणी ऋद्धि, मीडिम तणी अवधि साकर दूधि नीपायउ, काइलि ने समूहि छायु । धुडि घोरू, पथिक जनवधू चित्त चोरू । तेह आबा तणी कातली निवृति परायण, नीकोल्या रायण खाडिस्यड ओल्या, घी स्युं मिल्या । कुंकणा केलां, गात्रि वाका, भेला पाका इसा वेला नी कातलीस्वास त्यूनाइ, घणाइ उदरि समाइ । एव विध फुलहली परीसी, परीसणहारि सजगीसी । अतिही असमान, हिव पकवान आणइ ते केहवा ? मालपुडा, खाजा, तुरत कीधा ताजा । सटला नइ साजा, मोटा जाणे प्रसाद ना छाजा । पछइ प्रीस्या लाडू, जाणे नान्हा गान् । कुण कुण ते नाम, जीमता मन रहइ काम (न ठाम)। मोतिया लाडू, टालीया लाद । सेविया लाड, कीटी रा लाडू ।
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नाद उलि रा लाडू, तिल ना लाइ ।
त्रिगइ ना लाडू, मगरीया लाडू, झगरिया लाडू, सिंह केसरिया लाडू | वली बीना श्राप्या पकवान, जीमता वाधइ मुख नउ वान ।
( श्रा) व्या पकवान
सतपुडा खाजा
सुकोमल सुहाली फाफाती फीणी
दूधवना
देहींथरा
( २८७ )
धृत मय धारी
पडसूधी नी साकुली
मुरकी माडी
मनोहर मोटक
सुतल्या सेघत्रा
साकर सहित घेउर
तिली तिलवटि
चासद्र चूरिया
पचधार लपनश्री
पछड़ ग्रावी पडसूधी नी पोली, खाड घृत झत्रोली ।
रत्नु मालि, मद्दा सालि ।
- कमल सालि सुगंध सालि ।
सुद्ध सालि, कोमोदकी सालि । -कुंकणी सालि, तिलवासी सालि । जीराउलि सालि, सुवर्ण सालि । राय भोग सालि, गुरडा मालि । एवं विधि सालिना कुरुड
णीयालय, सरहरउ, फरफरउ । सरसु, सुकोमलु, ऊजलर, विश्रागुलउ । दूबलउ, पेटि बहसइ, फूटी नीसरइ । sts पीरस्यइड तुष रहित मुडोरा मृग नी पहिति,
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( २८८ )
तत्काल तापितु घृतु सुगंध सुवर्ण्य परिघल मनि परीस्यू, जिमणहार न मन ऊलस्यूं क्रियाएकु शाककोरां वडा । राईता वडा, हलया वडा । घारी, घारडी, वडी, पापडी । ईडरी, पटीडरी । पूरण पलेव खाटा, भरथा वाटा । बालहुलि, तिडूरा, काचरी, कोकला । डोडी, रामडाडी, क्यर, सागरी, भली भाजी, मरीनी माजरी। प्रधान पीपरि, वेणकडा बाउलिया, निपुण नीलूआ । एवं विध मालणा पगम्यापहिल् फलिहलि प्रीसइ, सगला रा मन हीसइ । पाका श्राबा नी कातली, ते बूग खाड सुं भरी अनइ वली पातली । पाका केला, ते वली खाड नूं काधा भेला । सखरा करणा, ते वली पीला वरणा । नीलइ नारगी, रगइ दीसइती सुरगी। नीकोली रायणी, प्रीसी भाइणी। दाडिम नी कली, खाता पूजइ रली । ... "जानइ ...", खाता पूजइ कोड । द्राख नइ विदाम, कोइ कागदी स्याम । सलेमी खारक नइ खजूर, ते प्रीस्या भरपूर । नालेर नी गरी, मालवी गुल सू भरी। नीबू घाटा नइ प्रीसीया, एहवा तो केथे न दीठीया । चारोली नइ पिसता, लोक जीमइ हसता । वली सेल्हडी नइ सटाफल, ते पिण प्रीस्या परिघल । (११-१२ जै०)
१२ रसवती वणन (२) ऊपले मालि, सुवर्णमह स्थालि, प्रसन्नइ कालि । वारू मडप नीपाउ। पोणिने पाने छाइउ ॥
कूना छावडा (छडा), मोती ना चउक । तेह माहि सारूयार घाट, मेल्हाव्या पाट ।
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( २८६)
नदीया ममान नीझरण । गगा समान नीर । सीता नमी (मई) न भार्या, लक्ष्मण सुमु न वीर ||१|| बील १ बाहेडा २ आमला ३ चउथा ( साचा ) गुरु वयणा । पहिला हुदृ कमाइला पछइ हुइ गुलीया ॥ २ ॥ चाउरि चातुला । चूडिया प्रमुख नाना विध अासन्न दूका।। चउरस चउकी वट । ऊची पाडणी। जाल कोशीसा कुडली ना प्रयोग पुग हुया। तदतर त्राट | वाटा । वाटी । कचोला कचोल वटी । सीप । सूनवटी । हकी। तदनतर । लडहीय लडसडतीय लीलावतीय सुवर्णमई करवइ । बरवीय । खलकतइ, चूडइ । झलकतइ ककणि । ढलकतइ हाथि । सीतलि गधोदकि । हस्तोटकि टीधा। तदनतर । ऊरलेइ मालि। प्रसन्नइ कालि । सुवर्णमइ स्थालि । मोटई झमालि । ग्रावी ऊजमालि । परीसइ फलहुलि-अखोल खड । मनोन्यवायम । चाक्ली । साकरलिंगा । वेकस्या वरसोला । होरालग साकरना चूरि । कोलबी नालिकेन्नी पुडहड़ी। छोहारी खारिक । नालिकी । पिछानी खारिना कुटकडा । किसमिस द्राख । कचोले मधु फडद खजूर । हरमजा मधुरू । माकड उटी पमिख समान । मरस फणस सेलडो ना कुटकडा । दाडिम नी कुली तरुणा। करणा। जबीर । बीजपूरक। नीघणी। चडउडी फरग नारगी फालि । अति गुलि भावि । सूरीइ रगि मधुकलश अवानी कातली । परीसइ पातली । किस उजु आवउ । बनस्पती राउ । कटप्पे देव सहाउ । इसा मधुकलम अवानी फालि | नीकोल्या रायणा, निवृत्ति परायण | खाडइ. लुल्या । घीय मिल्या । श्रनइ कुकणा केला । सोनेला । राजेला । मूछेला। नारि सिघेला । तीह कदली फल बीट थका गल्या । लीला लीलावती नाहावत् उटल्या । इसी कूकणा तणी कातली। बाटि शोभइ तीहनी परीसणहारि । शामागि नारि, संपन्न शृगारि । कठाभरण हारि । जिसी रभा नइ वश । देव कन्या नइ असि । इसी फलहुलि । परस्त्री परस्त्री परीसइ । जइ जह लीला विलसइ । तदनंतर सस पडा खाजा, खाडी किसा ति पाजा । जिसा प्रासाद तणा छाजा। तदनतर । भल भला लाडू जिसा रसवती लक्ष्मी अमीना गाडू। घृतमइ पाकि तल्या । साकर सिड मिल्या । मरिचना चमकारि । अत्यन्त सुकुमार । कपूर परिमल सार । स्थल बहुलाकार। महोज्वल । इस । सेवईया लाडू । मोती लाडू । दल लाड । वाजण लाडू । अमृत हल । खड भल खंड । प्रभृति मोदक मूक्या । जे से मुहि मिलइ । १६
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(६०)
घणउ किसउ एवं विध अमृत घट मोटक शोभइ । अनत मुसमसती मुरकी । शिव शिवती सुहाली। फगफगा फीणा-दुग्ध वर्ण दहीथरा । घृत वर्ण धारी । सुकुमाल साकली। अखड माडी। सतल्या सेवेच्या प्रभृति पकवान्न परीत्या, खाड माडा । पूरण माडा । मोकला माडा । कुरकुरा माडा । पत्र वेलीया माडा। खादउ चूरिमू । सुदलित सुललित लापसी । वरनारि परीसइ पातली । तदनतर शालि । महाशालि । कलम श्यालि । तिलवासी शालि । राजन्यक शालि । साटिया प्रमुख मेन ईप्सित । अखड शालिना चोखा । दूबलीइ खाड्या । वलिष्टइ छड्या । नखूतीइ वीण्या । अलवेसरि प्राण्या । समतीह सोह्या भगवतीइ समारिड । ऊन्ह तीन्ह । सरसरउ । भरहरउ । अणीयाला। सकोमला । ऊजलउ । जिसिउ केवडउ । ऊडेली जेवड 3 | दूबलइ पेटि पिसह । फूटी नीसरइ । घृतमह पहति नइ संयोगि । मन नइ ऊलटी । मंडोअरा मूंगनी दालि । बभुक्षा नी कालि । फोतिरे छाडि । हत्थीहत्यीइ खाडि। त्रिछट् कीवी । घण पाणी इसीनी । वानि पीअली । परसामि सीयली । जिमता स्वादिष्ट । परीसणहारि अभीष्ट । सद्य-ताविउ घीय नामिउ । मजिष्टा वर्ण । अवधारइ क्र्ण । सरहरी धार । प्रीणइ जीमणहार । सोभागीउ । नाशा पटु पेउ । साख्यातु अमृतु । एव विध घृत । अनंतर वडा । घणइ तेलि सीना । हाथि तउ वलइ । मुहिं पड्या गलइ । स्वर्गथ्या देवता टलवलइ । इसा अनेक परि वड्या । आटा वडा । मोतीया वडा। काजीया वडा। सुतल्या वडा। सालीया वडा । दालीया वडा । खाड वडा । कुहाडिया वडा प्रभृति । परीस्या । तदनतर मुग नी वडी । उडट वडी । छमकावी वड़ी। पलेह वडी । सउंतली वडी । राब वडी | माहि आदानु वीरु । छमकावी डोडी । टलटलता टीडूरा। चम चमता चोपड़ा । भली वालुहलि । कलकलता कोसभा । सुड़हड्ती सागरी । सडसड़ता डोडिका । छमछमती भाजी। रूडा राइत्ता । चिहुवानी पलेह । कडूत्रा । कसाइला । तीखा । मुधरा । जिसी पाडोसणि तणी जीभ । इस्या कडा ) जिसु टगर तणउ उपदेश इस्या कसाइला । जिसी सुकि नी जीभ इस्या तीखा। जिसउ माता नु चित्त इस्या मधुरा । कउठ कउठ वडी कइरवदा । अबाहुलि । सूरण । पूरण । माडमी । ईढडा । प्रभृति शाक मूक्या । तदनतर वारू साल्योदन तणा करवा । कपूर तणउ वास । एलची नउ उल्हास । भोज्य लक्ष्मी नउ निवास | माहि दही तणउ प्रयोग । जीणइ हुई जीमणहारि रइ अभयोग। इसु करवउ। अमृत मय घोल । क्षीर समुद्र 'क्ल्लोल । प्रीणइ मुखकमल । तदनतर-अथाणा । महमहती मिरी मजरी आग्रं अक आटउ प्रधान पीपलि पाखी आबी। तदनंतर पाणी। तदनतर पान
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(२६१) नागर खंडा, कपूरा वेलीया । प्राधी गामा चेयउला मागुरा बीटि साकडा। अल्पनसा जाल मनोहर पान वारुय जांगर खाडी व पूरवट्टरि वटिका प्रमुख मुख वास दीधा । अनेक वृध वारू पट्टकूल तेह दिवराणा इति भला । वस्त्र दीधा । एव विध स्वजन परजन संतोख्या ॥ रसवती सपूर्णा ।।
( पत्राक १२ वॉ, संग्रह मे १७ वी लिखित)
१३ रसवती वर्णनम् (३)
गगोटक शीतल, थाल नइ धोवण दीधा जल । पछइ नीली फलहलि परीसी, ते किसी किसी।
आवा, राइण, केला, खरबूजा, फूट मतीरा, टाडिम, दाख, वीजोरा मीठा खाटा, खाटा मीठा नींबुया । सेलडी जबीरा, डागरा, फणस, अन्ननास, सेव, -मधुरा कालौंगडा, नारिंगी, नीला नालेर, खारिक, खजूर, खरसूया, अखोड, वाइम, विदाम, वेदाणा, पिस्ता, किष्टा, कमल काकडी, सीघोडा, चारोली, चारवी, जूना करणा, मीठा कमरक, साख पका अाधा, के छोली, के मउली, के घोली, के कातली करी खाड घृत संयुक्त, बूरा तणा पूर । कर्पूर वासित वरसोला, वेकरीया वरसोला । खाडइ भेल्या, घीयइ मिल्या, कुंकणीया केला । सोनेला, राजेला, हाथेला, तेहनी पातली कातली । तेहनी परीसणहारि, श्यामाग नारि । सपूर्ण शृगारि, कठाभरण हारि । जाणइ रमा नइ वंशि, देव कन्या रइ असि । इसी नारि परीसह । पकवान तणी जातिसतपुडा खाजा, सर्व साजा । जिसा प्रसाद ना छाजा, ते जिमता लागइ ताजा । तदनतरि लाडू आवइमोती लाइ, टाल लाडू, सेवइया लाडू, चारोलिया लाडू, झगरीया लाडू, सिंह केसरिया लाड्डू । नादहल, इ दरसा, दहिवड़ा दहिवडी, फीनी, सोट, सु हाली, सेव, भुगदी,
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( २६२) प्रमोटक, सोधक, मोटक, गलगलता घेउर, उन्हत कसाक, तल्या गूद, दधिवर्ण दहीथरा। पडसूधीनी साकुली, दीठइ जीम थाइ अाकुली । परीसणहारी नहीं वाउली। माडी, मुरकी, जलेबी, मगद बरनारि, श्यामा, मृगमट धारि, मुख पन टलाकारि, ऐहवी जे चतुर नारि, ते नाना विध पकवान परीसइ । हिवइ मांडा आवइ-खाड माडा, मोकला माडा, गूट माडा, याचा माडा, आकासिया माडा, कपूरिया माडा। चरिमउ, गलिउ चरिमउ, साकारिउ चरिमउ पाखलि मूकिउ, अाबिल वाणी, दाखवाणी, साकर वाणी, खाडवाणी। तदनतरि सालि (१) सुगध सालि (२) सुवर्ण सालि, (३) कुयारी सालि (४) चद्रणि सालि (५) श्वेत शालि (६ रक्त शालि (७) नील शालि (८) पीत शालि (६) महाशालि (१०) शुद्ध शालि (११) कौमुदी शालि (१२) कलम शालि (१३) कुंकणी शालि (१४) तिलवासी शालि (१५) जीरा शालि (१६) कुट शालि (१७) रामभोग शालि __(१८) मरूडा शालि (१६) देवजीर शालि (२०) धूममोगर शालि (२१) केतकी शालि (२२) नीलोत्री शालि (२३) साठी चोखा . (२४) मूजी चोखा (२५) अखड चोखा।
इसी सालि नउ कूर- . अणियालउ, सुहुयालउ, सुरहउ, सुगन्ध, फरहरउ, दूबलियइ खाडियउ, सबलियइ छडिउ, हलवइ हाथइ सोहयउ, नखवती वीणिउ, फूटर सणि स्त्रीयइ वोयउ, हितुई स्त्रीयइ ओराव्यउ, चतुर स्त्रीयइ अोसाव्यु, सरस, सुकोमल, उजलउ, बि अंगुल उस्यउ कूर परीस्वउ । मडोवरा मूग तणी, त्रिछडी टालि, माधुर्य तणी पालि, वानि पीपली, परिणाम सीयली । इयी टालि परोमी। सद्य सतपित, परमामृत, मजिष्टा वर्ण, वघारइ कर्ण, सरहरी धार, बंडी वार, प्रीणीयइ जीमणहार, सौभाग्य अजेय, नासापुट पेय, साक्षात् अमृत समान । एहयउ घी परीस्यउ । पट सुधीनी पाली पोली, खाड घृत स्यु बोली। बिहु पोलीए एक कवल थाइ, फूकनी मारी फलसा लगि जाई ।
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( २८३ ) हिवइ सालणा आवइ । ते किसा? डोडी, टीट्टरा, टीडरा, चीभडा, वच्चीडा, कोहला, कारेला, कर्मटा, कर्पटा, कालीगडा, करणा, केला, ककोडा, गिलका, गोल्हा, खेलरा, सेलग, सरघूनी फली, अामला, पायरिया, आविली, घीसोडा, मतीरा, तोरीया, त्रुसडी, डागग, खरबूजा, वृताक, मोगरी, नीबूया, जीड्या, वालहालि, कउठ, कोठीमडा, च उलाहली, मरिच नीली, पीपरि नीली, नीलूया चिणा, चढलेवउ, वड, सोया, सरिसव, अजमउ, मेथी, कयरफूल, चीलिरी भाजी, सागरी, काचरी, आमलेटी, वहलि, कयर, भोरटा, पेठा, दूधीना, पटौंडरी, चोली, काचरी, वलिनी, फोग, फोगडी, बाउलीया । वड़ां आवइ, वणइ तेलि सीना, घण्इ-घोलि भीना, मरिचना चमत्कार, अत्यन्त सुकुमार, हस्तिपट प्रमाण, हाथ तह उछलइ, मुंह पड्या गलइ, स्वर्ग थी देव देवी टलवलइ। अादा बडा, डोडीया वडा, काजी वडा, घोलवडा, मिरिपाली बडी, छमकाली बडी, तली वडी, कूर वडी, पेठावडी, रूंडा राईतां। हिवइ पलेव-सूटिया पलेव, हलदिया पलेव, मरचिया पलेव, पीपलीया पलेव। वारू खाड पीस पीपलिया तीमण, समरिचीया तीमण, सलवणा तीमण, सचोपडा खाटा बघार बहुल, तदनतरि परिसीयइ घणा। वारू वघारिया, दही तणा घोल, तिणि भर्या कचोल । सघरा दही, शाल्योदन तणा कढव । कपूर तण उ वास, भोज्य लक्ष्मी तणउ निवास। सीधव जीरा तणउ प्रतिवास । एहवा करबा परीस्या । अमृतमय घोल, खीर ससुद्र तणा कल्लोल । अत्यत धवल, प्रीणियइ मुख कमल । एव विध रसवती । उपरात चलू नइ काजि-केवडीया काथ वाणी, पाडल वासित पाणी, कपूर वासित पाणी, चदन वासित पाणी, सुगन्ध पाणी, एलची पाणी, चपक वास्या पाणी । हिम जिम सीतल जब करी मुख हस्त पवित्र कीधा । तटनतरि, सुरभि अबीर, गुलाल, केसर छाटणा कीधा। हिवइ पान जाति-नागर खडा, अडागरा, मागल उरा, चेउली, कपूरीया, याधीगमा, टोडारा, ग्वालेरा, तेह तणा बीडा। कपूर, लवगी, एलची, मृगमट, सोपारी, जाइफल, जावत्री, खदखडी, सखचूर्ण, मोतीरउ चूर्ण, केवडीउ काथ, तेह सहित बीडा मुख वासि दीवां, जाची जबाधी महमहइ, अगर तेल सहित गधराज गहगहइ । शीतल वाय नइ कानि वारू वींजणा ।
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( २६४) तदनतरि । मुगन्ध पच वर्ण पुष्प पगर फूल । जाइ, जूही, कुद, मुचकुंद, केतकी, केवडा, चपक, मोगर, मालती, जासूल | कमलादिक बहुविध फूल दीपह। तदनतरि बहु विध वस्त्रे करी पहिरावणी, अत्र वस्त्र नामानि अष्टम पदे पंचम कथाया लिखितानि वाच्यानि ।
१४ भोजन वर्णन (रसवती) (४) माड्यउ उत्तंग तोरण माडउ, तुरत नउ कस्यउ नवउ । ते कहवउ ? ऊचर दल-बादल तबू जेहवउ । तेहनइ तलइ पागणउ, तेतउ नील रत्न तणउ । तिहाँ सखरा माझ्या पासण, तउ बइमवा नी सी विमासण ? आगइ मू की सोना नी पाडणी, ते कहउ किम जाइ छाडणी ? ऊपरि धरया स्वर्णमय थाल, अत्यन्त धणु विसाल । विचिमइ चउसहि वाटकी, नव-नव घाटकी । थालइ गगोदक धोवण दीधा, तिणसु कर पवित्र कीधा ।
परीसणहारी सिगली पाति बइठी, तितलइ परीसणहारी परीसिवा पइठी। ते केहवी १ रूपई रभा जेहवी । सोल शृगार सज्या, बीजा सर्व काम तज्या । रूप नी रूडी, हाथे खलकइ सोना नी चूडी। लघु.... .ला, मन कीधा मोकला। चित्त नी उदार, अतिहि दातार । पहिरया गलि नवसर हार, मुख पद्म दलाकार । अपछरा नइ अणुहार,.. .. । .. सर दिहइ मिलइ तेहने उसास, . . । सर्व दूषण रहित, सीलादिक गुण सहित । धसमसती अावी, सहु नइ अति भावी । पहिली फलहलि परीसइ, सिगला ना हीया हीसइ । पाका अावारी कातली, निपुण पणइ कीधी पातली। के छोली के मोली, के बूरा घृत सू घोली ॥ अलबेली...... परीसइ सहेली, नेह गहेली ।।
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भोज्य पदार्थ वली पाका केला, घृत सुखंड सु कीया मेला ॥ वर सोला, वेकिरीया वरसोला । कुकरणीया केला, सोमेला वेला ।। जूना करणा, पीला वरणा ॥ नीला नारगी, रगई दीसता सुरगी ।। रूडी राइणि, परीसइ भाइणि ॥ दाडिम नी कली, खाता पूजइ मनरली ॥ ... ..जिमता.... द्राख नद विदाम के कागदी के स्याम । सलेमी नइ खजूर, ते परीमइ भरपूर । चावउली नह पिस्ता, लोक जिमइ हस्ता । गलवी गुलमु भरी, आगे लइ धरी ।। सखरा सदा फल परिस्या परघल ॥ काविली खरबूजा अउर देसाई दूजा । मीठा उ .छु खाटा नइ मीठा, ते पुरीसता दीठा ।। वि परिसइ पकवान नी जाति, भरि२ पाणीये पराति ।।
नेहनी परीमणहार, स्यामावतार || क्ठाभरणहार, देवकन्या नइ असि ।। दमी नारि परीसइ पकवान, जिमता वाघइ मुखवान ॥ सतपुडा खाजा, चतुर नारि कीया ताजा। सदलानड साजा, जेह जिनता लागइ ताजा, मोहीयइ राउत राजा ॥
लाडू वर्णन पछइ परीस्या लाडू, जाणे नान्दा गाडू ॥ जिण दीठा न रहइ मन ठाम, हिव सुणउ तेहना नाम, केसरिया वेसरिया,.... ... . .. . || सेविया, सु ठिया, मोतिया, मगदिया। मूगिया, कीटिया, कसेलेया, मेथिया ।। किसमिसीया, तेलिया ॥ त्रिगङ्गा, झगरिया।
हल, परीसी परिघल |
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(२६६) वली पकवान आणइ, तेहना नाम वखाणइ ॥ सुहाली नइ सेव, परीसी रूडी टेव ।। वलि परीस्या फीणा, अत्यत झीणा ।। सदर .." , नही का खोट ॥ ठमकते नेउर, परीसइ घेउर । तलिया गूढ, जाणे अमृत ना वृट ॥ भरि २ ग्राणइ तबाक, सखग गृढपाक ।। पडसूधी नइ साकली, जिंमता नह थायइ याकुलि, वली गुलगुला, स्वाटइ भला || दही वडा, गूढ वडा ॥ माडा नइ मुरकी, उपग ल्यइ भन्मार्कनी भुरकी ॥ ऊन्हा कसार, ... ... ॥
सूंखडी परीसइ मोहन भोग, वृद्धा नइ जोग ।। परीसइ चूरिमा, जिमता वाधइ करिमा । दधिवर्ण दहीथरा, जिमता । ग्वुरमा नइ खीर, जिमता वाधी भीर । पेठा नइ पेडा, गुंडवडे कीया निवेडा || मइगल ज्यु माल्हती, चिहुं दिसइ चालती। हंसगति हालती, मानीना गर्व गालती ।। स्यामा मृगमटधार, मुखपन टलाकार ॥ सकल सहेली परिवार, एह्वी चतुर नार || अगिताकार, पकवान परीसइ सुविचार ।। हिव माडा आणइ, भलइ टाणइ ॥ कवीसर वखाणइ, जेहवा एक जाण ॥
मांडा वर्णन खाड माडा, मोकला माडा, गुल माडा, गूड माडा, आसिया माडा, कपूरीया माडा ।।
पाणी वर्णन विचइ पावइ पाणी, झारी भरि २ प्राणी ॥ अाबिल वाणी, द्राख वाणी।
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( २६७ )
खांड वाणी, साकर वाणी । एलची वाणी, कपूरवासित पाणी ॥
करती झाककमाल, हिवह परीसइ साल || नवनवी भाति, पिण कहु कितरीक तेहनी जाति ||
शालि वर्णन
सुगध शालि, कुक्कु शालि ।
कलमली शालि, तिलचासी शालि || जीरा शालि, कुछ शालि । राय भोग शालि, गुचडा शालि || देवजीर शालि, धूम मोगरा शालि । केतकी सालि, नीलउनी सालि || चद्र शालि, स्वेत शालि ॥ पीत शालि, सट शालि ॥
नील शालि, भट्टा शालि ॥
शुद्ध शालि, कौमुदी शालि ॥
साठी चोखा, मुंजी चोखा, खड चोखा ॥
शालिकर
इसी शालि कुर, ग्राणीयइ भरपूर || प्रणीयालय, सूत्रालउ, सुरहउ, फरहउ |
सुगंध, परीसइ मुध ॥
दूबली स्त्री खडबड, सुत्रलीये छडयउ || हलवे हाथे सोहयउ, जा लगें मन मोउ ॥ नखवती वीणीया, सुघड स्त्रीये चीणीया । फूटरी सी स्त्री धोया, हिनूई स्त्रीयइ जोया ॥ भली भाँति ऊराया, राधता जब कस श्राया । तत्र चतुर स्त्री उतारी, भलइ वस्त्र सुंभारी ॥ सरस सुकोमल उज्जलड, वि उगलउ ॥ एहवउ कूर, परीसइ भरपूर ॥
हिव परीसइ दाल, सोहइ स्वर्णनइ थाल || मडोवरा मूंगतणी त्रिछडी टालि, माधुर्य तणी पालि || नानि पीली, परिणाम सीली ||
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( २६८)
दाल नाम सुणज्यो सहू ते दालिनी जाति, बहू काबिली चणानी दालि || तूअरनी दालि, मसूर नी टालि, उडद नी दालि|| झालर नी दालि, मटर नी टालि ॥ भली बिफाड दली, एहवी दालि परीसी वली ।। हिव ऊपरा परीसह घी, सहू कहइ जी जी । साझ ना जमाव्या, परमातिना ताव्या ।। सद्य तपित, परमामृत ॥ मनिष्टा वर्ण, वधारइ कर्ण ॥ सरहरी धार, वडी वार ॥ अत्यंत सुवकार, आणीयइ जीमणवार ।। सौभाग्य अजेय, नासापुट पेप ॥ साक्षात अमृत समान, जिम्या वाघइ देह नउ वान ॥ सुरहउ प्रतिवास, तावीयउ खास ॥ हिव परीमी श्राची पोलो, झाझा वृत सुझकोली,त्रिंहु पोलीए एक कवल थाइ, फूकरी मारी फलसा लगिजाइ ।
सालणा हिव सालणा परीसइ, सहूना हीना हीसइ ।। कवण २ सालणा, हिव तेहनी चालणा || नीली छमकाई डोडी, जिमइ होडाहोडी, पटीरडी वडी, सेलरा खेलरा । सरानी फली, मूगफली, चउलफ्ली, ग्वारफली केला, करेला, कोहला, आमला ॥ नारगी, बगा, टीडसा, पर्पय, कर्पटा । करणा, वरणा, नीलवणा,-- खाटा सालणा, मीठा सालणा तल्या, गल्या, चीमडा, कालिंगडा ॥ भुरडा, तूसडा, पटीरडा, कोठीबडा ॥ मतीरा, खीरा ॥ खरबूजा, तरबूजा, करमदा, घरमदा ॥ मिघोडा, ककोडा । मोगरी, सागरी ।। वृताक, नीलाशाक । निंबू, जवू ॥
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( २६६ ) :
तुरी, सणहारी, सनूरी ॥ चाउलिया, आयरिया ॥ दूधिया, सझोलिया ॥ श्रावहल, वालहल ||
अथाणा नवनवा अथाणा, जिणइ जिमता रीझइ राउ राणा, सालणा ॥ कदमूल, अनइ कपर फूल ॥ नीला कयर, परीसइ बयर ॥ चणा काबिली, अनइ अाबिली ।। मागइ घेठा, तिवारइ परीसइ पेठा ॥ रूडा राईतां, मन भाईता ॥ पीपरि पीली, मरिच नीली ॥ काकडी, वली धावडी ॥ कउठ, छमक्या मउठ॥ काचर, मुठकाचर || कोचला।
. काचरी, ऊभ काचरी ॥ परीसिवा जोग, केवट्यउ फोग ।। बघारया, धू पधारया ॥ अनेक छमकाया, सालणा ल्याया ।।
भाजी झाझा घी नुसाजी, स्यु करइ भाजी, जिणा जिमता म थायइ राजी ।। मरसवनी, सोवानी, पूलानी वथुवानी ।। चणानी, मेथीनी, तेजारानी, चढलेवानी ।।
वड़ी हिव अावइ वडी, एवडी पेठा वडी, श्रादा वडी ॥ मरिच वडी, छमका वही, घोला वडी, पापड वडी ।। काट वडी, दधि वडी, सिरावडी।
वड़ा (दालिया ) हिव ल्यावह, दालिया, वस्या हीया । ते एहवा, घणु वखाणीये जेहवा ॥ घणइ तेलइ सीना, घणइ घोलइ भीना ।
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३००)
मरिच ना चमत्कार, अत्यत सुकमार । ___.. .. . , ... तल्या सुजाण ॥ ... दही• • दही, मउला दही । हाथ लीधी ऊछलइ, मुह्डइ घाल्या गलह ।। सर्गना देव देवी टलवलइ, देखता डाढ गलइ ।। आटा वडा, काजी बटा, घोलवडा, मूगिदाल वडा, मउठि दालि वडा ॥ उडद दालि वडा, डोडीया वडा ।।
पलेव
हिवइ आवइ पलेव, जिमता टेव ।। चोखानी पलेव, पीपलिया पलेव । हलदीया पलेव, सूठिया पलेव, मिरचीया पलेव ॥ वारू वघारया घोल, परीसियह भरि कचोल ।। सीधा जीरा तणउ प्रतिवास, भोज्य लक्ष्मी ।। प्रीणियइ मुखकमल, • • . जाणे क्षीरसमुद्र ना कल्लोल, एहवा अमृतमय घोल ।।
दही
हिव परीसइ दही, तउ जिम्या सही ।। गाइ ना दही, भइस ना दही, लिगार मइला नहीं ॥ कर्पूर तण उ वास, एहवा परीसह व्ही खात || वीजणे वाउ घालइ, गरमी तहनी टालइ ॥ इम भोजनरीति अप . .।
पाणी चलू काजि पाणी अणावह, भारी भरि २ ल्यावइ ।। हिम निम सीतल, अतिहि निर्मल || कर्पूर वासित पाणी, पाडल वासित पाणी ॥ केवडीया पाणी, चॅदन वासित पाणी ॥ एलची वासित पाणी, सुगध पाणी । एहवा जल दीघा, तिणसु मुख हस्त पवित्र कीधा ॥
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( ३०१)
तंबोल तदनतर टीजई तबोल, सुरभनइ बहु मोल ॥ टोडेरा, ग्वालेरा, अजमेरा, नागर खडा, मागल, करिया, मागही, इत्यादि पान नी जाति कही ।। वाकडी सोपारी फाल, पिवल सोपारी फाल ॥ कर्पूर वासित, केसरादि सोभित ।। मृगमट गटिगल, जावत्री नइ जाइफल ।। खडचणे, मोती चूर्ण ॥ केवडा काथ, इत्यादिक तबोल धइ सहू नह हाथ ।। कास्मीरी केसर ना छाटणा कीधा, इम लाछि ना लाहा लीवा | अगर तेल सहित गध राज गहगइ, जा चीज वाधि गहमहइ ।। अछाल्या अबीर नइ गुलाल, भला तिलक कीधा भाल || हरख्या बाल नइ गोपाल , हिव सुणउ ।
- मुख अामा उली, मिहर कुली, कलमली, सिणली। अर्कतूल, पट्टकूल, बहुमूल, कपूरधूल || रत्न कबल, मारु कवल, गगाजल .. .॥ • • धूनउ जूनउ ठाई जोडी, किणही न विखोडी ॥ सिधू दोटी, महीन नइ मोटी ॥ गउडीयउ, चउडीयउ। गगोदक, सोचक, खीरोदक । दुरंगी, सुरगी। सो नार गामी, धरण गामी, थानेसरी, अधउतरी वडवरी अउधी। अमृती, बुलबुल चुस्मा बहुभती ।। कपूर वाटी, मोछण खसखासी । कोरी, बोरी, साडउ, ठेपाडउ । खासउ नइ खेस, पूरवी सुविसेस ।। नवनवी पाथडी, पचवर्ण कास्मीरी पामडी, टूकडी, चरणा नइ चूनडी॥ पलिंग पोस, सतोस, सूफ सकलात, विलाइती विख्यात || भइरु खान जाई, नीलक नइ दरीबाई ।।
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( ३०२)
देश परदेस ना सालू , बंधण नह रगालू || मालदही, मावा पिण सही ।। मजीटी टोटी, पलाली मोटी ॥ करता झकझमाला, लाहोरी वाला || मुलतान सलहटी, पटणी पटी ।। हज्जारी नरमा, काविली दुरमा सूसी नइ सेला, गर्म सूत्र वीणी भेला ॥ कसबी चीरा, झलकइ जाणे हीरा । छीट अनेक भाति धरी, रंग खरी ।। श्रीसाफ, श्रीवाफ, कथीया नरवाफ ।। वास्ता, तास्ता। कुरता, रंग मइ नहीं का खता ।। दुगजा, तिगजा । अदूप्य, देवदृष्य ।। चीनाशुक, पट्टाशुक । सिरबध, तनुवय, • कमरबध ।। इकतारा, दुतारा । हीरागर, वइरागर फूलफगर, टसर, खसर ॥ चादर, वादर | अबर, पीतावर ॥ नारीकुजर, मसजर । तारझार, रउकार, टाडिमसार, चउतार । वस्त्र पहिरावणी इत्यादिक सुविचार || लइ मानुष अउतार, इम करइ भोजनाधिकार, ते धार लहइ सुजस अपार ॥ इति भोजन विधि वर्णनम् ॥(कु.)
१५ 'घृत सद्य तायिउ, धारइ नामिडं। मजिष्टा वर्ण, वधारइ कर्ण । -सरहरी धार, प्रीणइ जीमणहार । सौरभ्य अमेयु, नासा पुट पेउ । साक्षात अमृत, इस्युं घृत ॥
१६ धान्य (१) साल, माल, गोहूँ, जव, वारि, तूर, चणा, चंवला, वटला, मूग, मोठ,
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( ३०३ ) माष, मसूर, मासो, मणचो, बरटी, बाठडो, समलाईया, कागणी, कोदरी, करी, कुलथ, वेकरियो इत्यादि धान ।
(वि.) १७ धान्य (२) लव, गेहूँ, साल, बिही, कोटरी, मूग, मोट, चिणा, चौला, उडट, कागडी तिल, मसूर, तूर, अलस, कुलथ, तूअर, क्वार, (ग्वार ) मक्की, माल, वरटी, बाजरी, मणची, सही, रायमख, वटला, काछाण, राल धान्य नामा ॥ इति सभागार सपूर्ण । स. १७६२ वर्षे फाल्गुन सुद सप्तम्या तिथौ भृगुवारे गणिमहिमाविजयेन लिपि कृताट श्रीरस्तु । श्लोक ग्रथाग्रथ ७५६ एभि प्रथ सख्या जायत ।।
(मोतीचटजी सग्रह प्रति )
१८ लाडू (१) कंसार ना लाडू, कसमसिना लाडू, कसेला ना लाडू, मोतीया' लाडू, कीटीना लाडू, केना' लाडू, मगदीश्रा लाडू, मोतीया लाड, मेथी ना लाडू, मूग ना लाडू, मेदा ना लाडू, चोखा नू लाडू, सिंह केसरिया लाडू, प्रोषधीया' लाडू, अडदीया लाड, अासध" ना लाडू, तिलना लाड, त्रिगडू ना लाडू, लाखण साही लाड्ड, धाणी ना लाड, कुली ना लाड, कूलरिया लाडू-एहवी विविध प्रकार ना लाडू ।
१६ मोदक (२) । तदनतर ।। शुद्ध रवानइ टलवाडइ केलव्या । घृत वर्ण पाकि तल्या । शर्करा पाकि बाध्या । मरी एलची ना चमत्कार | काचां कपूर ने वासे वास्या । स्थूल वाटला महोज्वल । इसा सेवईया लाडू । दल लाडू । बीत्रा लाडू । मोतिश्रा लाडू वाजण लाडू । नाद हल | अमृत हल । खल खड। भल खड । प्रमुख मोदक मुक्या । जाणिइ किरि भोज्य लक्ष्मी तणा क्रीडा-कदुक हुइ जिस्या । अथवा सुकृत द्रम तणा परिणाम मनोहर फल हइ जिस्या। १ मोतीचूर ना लाड़। २ कीटिया लाडू । ३ कणक ना लाई । ४ उखदीया लाडू। ५. भासधिया लाडू ।
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( ३०४ ) परीसणहारि तणा पयोहर सपूर्ण हुइ जिस्या । " अमृत घट हुइ इस्या मोटक शोभइ ।।
२० सुंखडी (१) पुडी, पेंडा, पापडी, पात, पापड, खाजा, खाडकतेली, खाडखुरमा, टहीथरा, दमीदो, दोठा, गूढगणी, गाठिया, सकरपारा, सुहाली, गूदवडा, गूंदगणा, गूजा, गुलपापडी, गलेफी, मुरकी, मोतीचूर, सोह, साकली, सेव, सेवगाठिया, साबूणी, सीरो, साकरिया चणा, हेसमी, घेवर, फीणी, जलेबी, पतासा, कल्याणसाई, बाटरसाई, तल्या, ताया, कुल्या, करकरा, मोला, मीठा, गल्या, गलेफ्या, चीगटा, चूचूता, भरया, भरभराया, एहवी सु खडी।
२१ मुखड़ी नाम (२) पूड़ी, पेड़ा, पापड़, पापडी, खाजा, खाड, खुरमा, दहीथरा, दमीदो, दोठा, गुपचप, गुदगरणी, गाठिया, गुद वडा, गुजा, गुल, गलेफी, मुरकी, मोतीचूर, सोठ,साकली, सेव, सकरपारा, तुहाली, सीरो, साकरीया चणा, हेसमी, घेवर, फीणी, जलेबी, पतासी, कल्याणसाही, तल्या, तावा, कुला, करकरा, मोला, मीठा, गल्या, गलेक्या, चूचूता, भर्या, भरभया एहवो स्वाद ।
२२ सूंखडी (३) ।। सूखडी वक all उपलिइ मालि । सुवर्णमय स्थालि । प्रशस्ति कालि । छोहारि, खारिक । वेकया । वरसोला । हीरागल । साकर । किसमिसि टाख, . दीपशाखा । खजूर । सरंग । नारग । तरुण करण । सरस पनरु । सारस हकार । अमृत निर्यास | अजास । सूनेला । राजेला । नारसखेला। केला तणी कातली । बीजोरा तणी चडउडी । नालीयर नी खड़हडी। दाडिम नी कुली। वारूं चारली । घड्या सीघोंडा। मनगमी वायमी । इक्षु दड । अखोड़ खंड | निउंजा। जंबीर । सुखा स्वादन प्रभृति स्वादह नी पन्न फलहुलि ॥ (पु०)
२३ सालिजाति (१) सुगध साल, सुवर्ण साले, कुकणी साल, देवराजी साल, रायभोग साल, सुद्ध साल, कमोद साल, कमल साल । रामुकी साल, धोली साल, राती साल, पीली साल, जीरा साल, राम केलि साल, पुनासी चोखा, अखड चोखा । राजोरा चोखा, साठी चोखा, इंडणिया चोखा, रायपाल चोखा। सुखदासी चोखा, सोनल साल, गरडी चोखा, एहवा चोखा।
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( ३०५)
२४ सालि नाम (२) सुगध, सुवर्ण, कुकणी, देवजीरी, राजोरा, जीरा, रायभोग, पाथरिया, साठी, कमोद, कमोल, धोली, पीली, राती, काली, इत्यादि सालि ।।
(को०) २५ शालि (३) । तदनतर ॥ रक्त शालि । महाशालि । सुवर्ण शालि। मुगध शालि । तिलवासी शाली । राजान्न शालि । साठिा प्रभृति । सुमनीप्सित ।
__ अखड शालितणा चोखा । दूबली खाडिया । बाली छडसा । निपूती वीणि । अलवेसरि पाणीउ । मुमनि सोहिउ । फूटरीइ धोयउ। वीहती चालिउ । तरणी हईइ पग देई उसायउ । भक्ति समारिउ ।।
२६ तंदुल (४) कापिउ दातु जिम ऊमिलवा, वयरागरउ हीरउ जिम झलकता। वडी खाडिया, बाली छडिया त्राटि पाटि वीणिया, सख कुदावदात सुगंध, अंगुलप्रमाय, सुरभि, कलमसालितणा अखड तदुल (पु. अ.)
२७ कूर (५) उन्हउ । तीन्हउ । सरहरउ । भरहरउ । अणीयालु । सुहालउ । सरस सोहामणउ । ऊजलो जिस्यो केवडड । ऊडेरी जेवडउ । बूबलइ पेटिं पइसतु फुटी नीसरइ इस्यु कूर । घृत पहित तणइ संयोगइ। मन तणी रगि।
२८ दालनाम (१) मूंग नी, मसूर नी, चवलानी, बटलानी, उडद नी, मोठ नी, तूअर नी, इत्यादि । फीशी मडोरा मग तणी दालि । फोतरे छाडि, हलूइ हाथि ऊखलइ खाडी। त्रिछडकी, घसइ पाणी सीधी। वानइ पीली, नेत्र सीली। जीमता स्वादिष्ट, परीसराहारि अमीष्ट । परीसि दालि ॥ २०
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( ३०६)
२६-व्यंजन (१) वडा, सालेबडा, सांगरि, मिरि, माजरी । वालहलि, अबहलि, पूरण, सूरण, इंडरी वडी पापड, ककोडा, घीसोडा, कारेला, चीभड़ा, कोठीभडा, श्रादा, करमदां । प्रमुख व्यंजन ।
(१४२ जे०) ३०-व्यंजन (२)पुष्पागरु, नीलागरु गजवडि, तुरगवड़ि हसवड़ि, राजवडि सोवन, पारेवा मेघवना, पटहीर संझारावा सोनछला, प्रमुख चीमडी कोटीमडी घूसेड़ा आदा मदा, प्रमुख व्यंजन ॥ :
पु . ३१--साक नाम (३) सागरी, मोगरी, चोराली, चोला, खेलरा, काकड़ी, मतीरा, टीडसा, कोहला, कालिंगडा, काचरी, कोचला, सरघूवो, बारीया, तोरीया आंवली, प्रांबोल, आल, आमला, करमदा, कैर, कंकोडा, करेला, फोग, चीलडी, पातोड, सीरावडी, वट्टी, भुजिया, चींव, परवल, किदूरी प्रमुख ॥ . .
. ३२-साक सालणा (४) ___सागरी, मोगरी, चोलेरी, चोला,' चिणा, छोला, सेलरा, सरथूर', सिरंजणो, आरीश्रा, तुरीया यांबिली, पाला, श्रावोल, श्रामला, उलिया. रिडुरा, टिंडता, कोहलां, कालिंगड़ा, काचरी, मोचला, काकड़ी, काजी, केला करमदा, कहर, ककोडा, कारेलां, राबवडी, वडी, वटला, गण, पातोडी, परवल, वालोळ, फोगफली, मूंग', मतीगं, मेथी, गलका, भुजिया, प्रमुख, अनेक जाति
(को)
' सागरी, मोगरी, चोलुशमा आंबिली, काचरी, को
१ चन्ना। • दीना । ३ सरगृट, सरधूम्रो । ४ कै । '' मूगी। अगलीया ।
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(-३०७)
खाग, खाटा, मोथळा, मीठा, कडा, कसायला, तीखा, तमतमा, मधुरा, मिरचीला, फोलाला, रायता', धुगारयां, वधारयां, तलण, अथाणो आंबिलीयाला काचा, पाका, सूकां, नीलां, उन्हा, पढां, वोहल्यां, छू द्या, सेक्या, कास्या, कलकलता, सलसलता, चूचूता, छोल्या-एहवा सर्व साक नी जाति ।
३३-बड़ा (५) ॥ एवं विध वडा || मेथीयां बडा । कांजित्रा बड़ा । हस्तिपद वडा । मालीश्रा । दालिया । सुतल्यां पापडी। मुगवडी। उड़द वडी । छमकावी वडी। पलेह वडी। सूतली वडी । आखामिरी । फूलवघार नइ । वासि वास्या पूरण । वघारीइ धरी । मिरी भरी खांडमी ।
३४-शाक (६) ' अनेक वानी पलेव । छमकोवी डोडी । टल टलना टीडूरां । कलंअलता कोसभा । सुड-सुडती सींग । डुसहुसता डोडिकां । छमछमती भाजी | रूडी रायता । चमचमा चीभडां।
पत्रमय । पुष्प मय । फल मय । मूल मय । त्वचा मय ।
चात हर । पित्तहर। श्लेष्म हर । रोचक । दीपर्क । आप्यायको । कामुक | तिक्त । कटु । कषाय । श्राग्ला । मधुर । जारक । अनेक गुण मय शाक परीस्या ।
३५-प्रथाणा आला, काचा, पाका, सका, नील्हा, उन्हा, सेक्या, वास्यां, कलकलता, सलसलता, वलवलता, चूचूता इत्यादि
३६-भाजी तांदळजा नी भाजी, पोचीश्रा नी भाजी, चील नी. भानी, चिणानी' भाजी,
बाडीया' नी भाजी, वाथला नी भाजी, राईनी भाजी, . सरसव नी भाली, अफीम नी माजी, मेथी नी भाजी, सूत्रा' नी भाजी, रजायण नी भाजी । मुळा नी माजी, चंदलेई नी भाजी,
लालरी नी भाजी, एहवी भाजी।। १. राईता २ पु आण नी भाजी 3. वथुमा नी भाजी ४. रायणी नी भाजी
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(३०८)
३७-घोल . ॥ अनंतर ॥ प्रवणोल्वणी रसाल नाना वाटला । पाणीनां । कचोला मूक्यां ॥
तदनंतर || प्रधान । वारूगल्या घोल । सुदधि निष्पन्न | सुवासिवासित । इस्या घोल परीस्या ॥
ते किस्या ? दही सूं कढिकयां । सु जादि जाम्यां । सुहत्थि हत्य सपन । लबर्थव थव कपडिअ । तंदहि अंकह न सभरइ ।
कडुआ । कसायला । तीखा । मधुरा ।
जिसी पडोसणि नी जीभ तिस्या कडुआ। जिस्यू गुरु तणो उपदेश, तिस्या कसाइला । जिसी सोकिनी जीभ, तिस्वा तीखा। जिस्यु मान उचित, तिस्या मधुरा ।
त्रिहु वानी नी छासि-धणदे । नगदे । पंचधर ।
लापसी । खाड़ माडा । पूरण माडा । दाडिमीया मांडा । कुरु कुरु माडा । पत्र महा प्रधान । एलची पाटला। सीकरी वास वासित । सुगध सीतल । महा मनोहर । एहवा पांसी ॥
३८-पक्वान्न (१) केला, वरसोला खर्जूर, बीनपूर
विनी, दाडिमकुंली, चारउली इक्षुदंड, द्राक्षाखड मोदक, गुडमोदक इसा पक्वान ।।
३६-पक्वान्न (२) पापडी, चुडहडी, काकरिया, सलवलिया, कंसार, घृतपूर, सुहाली, सेब, साकुची तातपुड़ी, खंडमोदक, गुडमोदक, दोहठा, दही वडी, माडी मरकी, सिंह केसर, पंच धार लपनश्री। एव विध पक्कान ॥ छ॥
988 जो ४०--परवान्न (३) खंडोतली, सुहाली, सेव, गणा, मोदक, माडी, मुरकी, फीणी, पापडी, साकुची, सांकुली, सीरि, खाडु, घृत्तु, लचलची लापसी, सालिदालि । घृत नालि, व्यजन पालि।
१ नोर .
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( ३०६ ) पलेह, पानक । माधुर, चुरासी सालसा । चउसठि खांटी। वीस तेल ना छमकाविया । दाधी, भूगी। इडरी बड़क । पापड शालि पापड । कर । दधि, दुग्ध । घोलडाहि ॥ ६२ ॥
४१--पक्यान्न (४) ॥ तदनंतर ।। सप्तपुट जिस्यां हुइ छाजां, इस्यां हुइ खाजां । मसमसी मरकी। शशि विशद सुहाली। फगफगां फीणां । दुग्धवर्ण दही वडा। घृत वर्ण धारी। सुकुमाल । सुहाली। अखंड मांडी। शकरा निचित साकुचीस्य तल्या सेवत्तां । वारु दही वडी। मागलकीयां। प्रमुख पक्वान्न परीस्या ।।
४२-पाक चारोली पाक, चाखी पाक, अखोडपाक, वदामपाक, केसरपाक, करमदा पाक, निमजापाक, पिस्तापाक, केलापाक, कोहलापाक, केरी पाक, किसमिसपाक, कोचपाक, गूटपाक, गोखरूपाक, गुलावपाक, अफीमपाक, आंबापाक, आमलीपाक, श्रासंधपाक, एलचीपाक, सुठपाक, सेलडीपाक, विजयापाक, सीधोडापाक, सोपारीपाक, दूधपाक, दहीपाक, दहीवडापाक, द्राखपाक, विरहालीपाक, पिपरीपाक, तनमनीपाक, त्रिगडूपाक, भिलामापाक, लसणपाक, हरडेपाक, मुसलीपाक, नालेरपाक, विजोरापाक, जावत्रीपाक, जायफलपाक, "" बडबोरपाक, खारिकपाक, खलखलापाक, खुरमापाक, हींगलूपाक, लविंगपाक, लींबूपाक, महुडापाक, मिरीपाक, चणापाक, फूलपाक, फीणीपाक, शतपाक, सहसपाक, . लक्षपाक, कोटिका पाक, कनकबीजपाक इत्यादि जातना पाक ||
४३-पाणी (१) सुगध केवडाना, काथाना, कपूरना, पाडलना, चदनना, एलचीना, बालाना गुलाबना, पालर पानी, गंगोदक, शुद्धपाणी इत्यादि
( को.) ४४-पांणी (२) सुगध पाणी, केवडा पाणी, काथा पाणी, कपूर पाणी, पाडलना पाणी,
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( ३१० ) चंदनना पाणी, एलचीना पाणी, वालाना पांणी, गुलाबना पाणी, पालर पाणी, वाकल पाणी, गंगोटक पाणी, एहवा पाणीनी अनेक जाति ।।
४५--मेवा (१) नालिकेर, सहकार । नाबू, बीजपुर । नारिंग, करणां, कपित्थ, द्राखा, खजूर । खारिक, अखोड़। वायम, दाडिम । राजादन, वारुकलिका। .. कदलीफल, पूगीफल । प्रभृति फलुहलि ॥ ६१ ॥
४६-मेवा (२) केलां वरसोला, खजूर, बीजपूर, आबिली, दाडिमकुली, चारउली, इक्षुटड, द्राक्षाखंड, आंबा, रायण अखोड, वाइम, निमच्या नरगोजां ॥छ। इसां भदय ।।१४३॥
(३०) ४७-मेवा (३) अखोड, अंगूर, किसमिस, छकेला, केला, कमरख, अनार, अखरोट, अालु, अजीर, बदाम, बिही, विजोरा, बरसोला, खजूर, खलहला, खारिक, खरबुजा, खिरणी, फालसा, नारंगी, निमजा, पीस्ता, सेव, सहतूत, सफलजल, सदाफल, श्रीफल, सोपारी, सिंघोडा, सरदा, चारोली, चारुबी, तूत, तरबूज, द्राख, फणस, फाल, जरदालु एडवो मेवो ।।
४-मेवा नाम (४) खारक, खोपरा, किसमिस द्राख, विदाम, पिसता, निवजा, केला, कमरख, अगूर, अनार, अखरोट, आलू, अंजीर, चीहि, विजोरा, वरसोला, खजूर, खलहल, खरबूजा, खिरणी, नारंगी, सेव, सहतूत, श्रीफल, सोपारी, सिंघोड़ा, सरदा, चारोली, फणस, जरदारू एहवा मेवा
(को०) ४६-मुखवास (१) विचित्र पत्र । अतिस्थूल पूगीफस । परत्र प्रतिकूल सौगधिक } तांबूल, कपूर वास वासित मिति भद्रम् ।।
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( ३११)
५०-मुखवास (२) . . , . ) . पान, काथो, चूनो, सोपारी, 'लवंग, डोडा, एलची, जायफल, जायपत्री, तज, तमालपत्र, खेखडी, खइरसार, कपूर, केसर, चिणकबाब, कस्तूरी इत्यादि मुखवास । ; मुखवास । - .
५१-भोग्य तेल, तत्रोल, चूाचंदन, कपूर, केसर, कस्त्री , कसबोही, मईन, उद्वर्तन, न्हावा, धोवो, सोहवा, सिणगारवा, पालवा-पोसवा, पहिरवा, अोढ़वा, खावा, पीवा, इत्यादि भोग्य ।
५२-सुगंध वस्तु केसर, मूकड, चूक, चदन, अबीर, जवाद, गुलाल, मोगरेल, चापेल, जाचेल, केवडेल, करणेल, कपूर, कस्तूरी, अतर इत्यादि सुगंध वस्तु ।
.' . ।। ५३--सुगंध तेल . केवडिअो तेल, कल्पकरण तेल, कुष्टकालानल तेल, कनकवीज तेल, करज तेल, मरसीओ तेल, ओषधीउ तेल, अर्धाग तेल, निगुडीअो तेल, निबोलीतेल, धूपेल तेल, विषगर्भ तेल, वाघेल तेल, भीडीनु तेल, भीलामा तेल, पातालयत्र तेल, मालकांगणी तेल, डोलीओ तेल, तिलगें तेल, टोपरेल तेल, करड तेल, मतावरी तेल, चानली तेल, चांपेल तेल, दाणेल तेल, अलसिउ तेल, एरंडीअो तेल, इत्यादिक तेल |
५४-वस्त्र (१) चीनाशुक, पटाशुक। गोजीनर्म, नीलनेत्र । सचोप, पाटणीपट, पटहीर, विलचलिया । मुगवन, माडलिया। वइराग, रहीराग। । नादर, मेघाडंबर । नेत्रपट्ट, धौतपट्ट, राजपट्ट। गजवड, हंसवड़। वोरियावडि, सुवर्णवडि। कपूरिया, चउकडिया।
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( ३१२) पोतिया, वक्रकोटा । राजवटा, महिवड़ा, नागवटा । प्रमुखाणि ।। ६३ ॥
५५~वस्त्र (२) वस्त्र-एहवा भला वस्त्र पहियां ते केहवा छैः १-सालू , सेला, सीरीसाप, सिणीया, सुसी, सलहेती, ( सण ), सूप तकलात, चौरसा, चीर, चुनडी, चीणी, मीठा, मलमल, छोट, सिंदूरी, मखमल, महिमुदी, पांमडी, पटका, पछेडी, पाढ, पीतांबर, पटोला, पांचपदा, पटु, अराण, अतलस, अधोत्तर, एलाचा, खासा, खेस, खारा, भैरव, बाहदरी, विटामी, दरियाई, दो तारा, घरमा प्रमुख अनेक वस्त्र सोभइ छ ।
५६-वस्त्र (३) देव दूप्य । देवाग। चीनाशुक । पट्टांशुक । पट्ट दुकुल । नील नेत्र । पाटूअ । पट्ट हीर । पट्ट साउली। पंचराईत्रा । नर्म खर्व फूल पगर । नादर । नेत्र पट्ट । द्यौत पट्ट । राजपट्ट । गमवड़ि । सुवर्ण वडि । हस वडि । काल पडि । सूचियां । कपूरिया । इत्यादि वस्त्राणि ॥छ॥
. पु. . ५७-वस्त्र (४) वस्त्रनाम :
तालू , सेला, सिरीसाप, सणीया, सूसी, सलेती, सूप, सिकलात, चोरसा, चीर चूनड़ी, चीणी, सिन्दूरी, छींट, मीठा, मलमल, मुखमल, मिसरु महमुंदी, पामड़ी, पटका, पछेडी, पाट पीतंबर, पटोला, पट्ट, अयण, अतलस, अधोतर, इलायचा, खासा, घिलू , बाफता, अदरत, भैरव, डोरिया, खेस, खाखा, वहादरी, विटामी, दरीयाई, दोतारा, चोतारा, कथीपा, मसंजर, झिलमिल, अवरंगजेबी, कीमखाप, चकला, सीरसकर, थिरमा, काला, पीला, घोला, नीला, राता, पंचवर्ण अनेक वस्त्र पहिर्या छइ ॥ ४ ॥
को ५८-परिधापनिकोपयोगी वस्त्र वर्णन (५) अदृष्य देवदूप्व रतक्रम्बल
खीरोदक तनुबंध शिरबंध
कमरवध
कठ पीठ पइठाणी अटाण खम
प्रताप
नादर साउला चउरता उलवेला
मेघाडवर
यज
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( ३१३)
नाटी
दाडिमसार चीर कमखाव गगाजल पट्टांशुक नीलवेडि सचोप पटंबर वालाचूनडी चूलिया दरीयाई चक्रवटा पोपतिया आसाउली बास्ता खइरावादी सोनारगामी दु तारउ टसरिया एरडी, चाप गजिट खेस कसबी
हीरागर कथीपा अधोतरी खानजाई गजवेडि कालवेडि पाटणी पट्टकूल घाट मटली लाहि चारसा भइरविया कोची सिरीसाप सम्माणा खासा, झूना चट तार पूरिया . चारोलिया कपूरधूलि
टुकडी
वइरागर
फूलपगर सानबाफ
नरबाफ तनसुख
मनसुख अमृती
चीनाशुक सुवर्णवेड़ी हसवेडि नीलनेत्र
मूगवन्ना पटा
पाह पीतावर
नारीकुंजर कमखा
दरीयाखानी
अतलस नावटा
धौतवटा हंसलीया पोपटिया चापानेरिया खाडकी सालू
भइरव श्रीवाप थानेसरी
धरणगामी दहीकोड
दुगजउ चुपटा
गउडीया सिसीया
मिणीया चलवलिया प्रवालिया अर्कतल
पाम्हडी घटी
मुहमूटी मुकमल
नीलक मसज्जर
चीनी साडी
सेल सूप
सकलात लोलिवा
भोटकवल मावा
कोरी गिलम
बापड बोरीया कमलवन्ना (१३०) (सू०)
रोकार
तास्ता सूसी खासर लोवड़ी
चीरा दुरंगा टोटी खरवास कंबल काश्मीरी सेत्रुजी पाटी
नेपाली
बोरी खरडी
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(३१४)
.५8-स्त्री वस्त्र चोलीवरणा, कसबी, कसीदा, कमखा, कुसूबल, पटोली पटोला, पीतांबर, घाट, साडी, सणली, अमरी, बाइल, जूई, राता, पीला, घोला, काला इत्यादि श्री ना वन।
६०-आभरणानि (१) हार, अर्द्धहार । त्रिसर, चतुःसर। पटसर, अष्टसर । नवसर, अढारसर । एकावलि, कनकावलि । . मुक्तावलि, विज्ञावलि । । प्रवरावलि, सूर्यावलि, नक्षत्रावलि । कटीसूत्रु, रसनासूत्र । मुकट । पट्ट, शिखर चूडामणि कुंडल कटक । कंकण, अंगद । मुद्रानदक, दशमुद्रक । अगुलीयक, हस्तागुल कदंब । कर्णापलिका, संकलिका। पादका, अवेयका। प्रभृति आभरणा ॥६४॥ (३०)
६१-आभरण (२) हार, अद्ध हार, प्रालंब, प्रलंव, मुकुट, कटक, कंकण । केयूर, वाहरां, पीडला, टोडरा, नूपुर, कुंडल।
एकावली, कणकावली, मुक्तावली, सूर्यावलि, चंद्रावली, नक्षत्रावली, सौभाग्यावली, श्रोणीसूत्र, काची कलाप, चूडामणि, अंगुष्टक, अगुलीयक, मुद्रिका, नवग्रहा । बहुरखां, वलय, वालला, नगोटर, नागुला, खीटला, छवीटियां, धडि, मोतीसरी ।। ६८।
(जो.) ६२-आभरण (३) आभरण ___ हार, अद्ध हार, प्रलंब, प्रालंब, एकावलि, मुक्तावलि कनकावलि, रत्नावलि, सूर्यावलि, चन्द्रावलि, झलक, तिलक प्रमुख आभरण || ( पु० श्र०) -
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, , . ६३ अाभरण (४) ... ।
श्रणवट, अगूठी, वीछीया, पोलरी; कड़ी, कांबी, कांकण, कटिमेखला, झाझर, बाजूबंध, बहिरखा, पूची, छाप, वींटी, हार, अद्ध हार, दुलड़ी, चौकी, माला, मोरड़ी, धड़ी, चीरु, साकली, तेहड़, जिहडा, पाइल, मोतसिरी, सीसफूल, तलो, नवरंग, नवग्रही, बोर, अकोटा, झाल, खवगाली, खीटली, पानडी, नकफूली, नकवेसर, सिंधो, थूधरी, राखडी, सहेली । टीकी, काजल, कुंकू, हींगलू इत्यादि ।
( कौ.) , -६४-पुरुष अलंकार, स्त्री आभरण (५) तदनंतरि पुरुष अलंकार पहिरावइ तन्नामानि । १ हार २ अद्ध हार ३ त्रिसर-४ चतु.सर ५ अष्टसर ६ नवसर ७ आरसर ८ एकावलि ६ मुक्तावलि १० बजावलि ११ नक्षत्रावलि १२ टकावलि १३ प्ररावलि १४ झूवणा १५ पदकड़ी-१६ माला १७ कुतरी १८ वाली १६ वेढला २० तुगल २१ मोरला २२ कडी,२३ गठोडा २४ कर्णपूर २५ कुंडल २६ पह २७ मुकुट २८ चूडामणि २६ छोर ३० बाजूबन्द ३१ वहिरखा ३२ पेसदस्नी ३३ गिनाई ३४ नवग्रहु ३५ हथसाकला ३६ दसागुलिक ३७ मुद्रा ३८ अंगुलिमुद्रा ३६ वेढ' ४० वींठी ४१ वेलिउ ४२ नवघरी ४३ छाप ४४ कडली ४५ कटिमेखला ४६ कन्दोरा ४७ कडी इत्यादि-1- ।
- स्त्री आभरण-१ गखडी २ वेणी ३ सहेलडी ४ झाबउ ५ सइयउ ६ टोलउ ७ चांदलऊ ८ चाक ६ शीशफूल १० फूली ११ मोरिला १२ पनडी २३ अरहट्ट १४ नकवसर १५ काटउ १६ नकफूली १७ कुडल १८ घडि १६ बीटलो २० अकउटा २१ नागला २२ तांडक २३ बाली २४ हारादिक २५ नींबोली २६ मादलीया २७ हांस २८ चीड' २६ दुलडी ३० सांकली ३१ वालियां वालमी ३२ चूडो ३३ कांकण ३४ कार्कणी ३५ वहिरखा ३६ ग्रहुंचीया - ३७ हथवालडा ३८ काचवा ३९ कटिमेखली ४० झांझर ४१ नेउर ४२ कडला ४३ घडि ४४ घूवरी ४५ घूधरा ४६ पाउलि ४७ काबी ४८ वींछीया ४६ मुद्रा इत्यादि स्त्रीजनाभरणा नामानि। '
६५-धातु नाममृगाक, धातवईन, बग, बंगेश्वर, पारद, अभ्रख, ताम्र, तावेश्वर, तेजानो, रूप रसरस, रमांग, अमलगोली, विजया, पुडी, लोहचूरण, लोहसार । - -
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रागकर
हंसगर्भ मुक्ताफल
विद्रुम
( ३१६) ___ पंचर, पंचरत्तिरस, छमाणिक्य, रसपाचक, रसरूप औषध, वेपथ, इत्याटि धातु नाम,
(वि०) ६६-चाँदी का कटोरा उघसियं नीवसिव पोतासियं चोख चमख ऊजलं नीमल जसं पूनिम तणउ चन्द्र मंडलु क्सिड रूपा नउँ कचोलउ ।
(पु० अ०) ६७ रत्न (१) पद्मराग पप्पराग मकरतमरि कर्केतन चन्द्रकांत
सूर्यकांत जलकांत नील
महानील इंद्रनील विमवकर ज्वरहर रोगहर शूलहर विषहर
हरिन्मणी चूनी लोहिताक्ष मसारी
नल अक
अजनरिष्ट अहिमणि चिंतामसि । इति रत्न जाति नामानि ।।
(१२४ नो०) ६८ रन [२] इंद्रनील । महानील। पद्मराग । पुष्प राग | लोहिताद । कर्केतन । मरासगल्ल । पुलक । कौस्तुभ । सश्रीक । रनाकर । श्रीपति । देवानंद । पुष्टिकर। ज्योतिकर। गुणमालि। सोगधिक। कर्कोटक । हस-गर्भ । अक । वरिष्ट । शिवप्रिय । सौभाग्य कर | विषहर । अजन । पुलक । अरिष्ट । अमालि। तिकर। सूरल । शत्रुहर । जल निलय । पटक । नुभग । चद्रकाति । सूर्यकाति। वैद्य । सूर्यमणि । चद्रप्रभ । सागर प्रभ। भद्रंकर । प्रभंकर । मद्रंकर । अशोक । प्रमा नाय { इत्यादि रत्त ॥ छ।
(पु० ६६ रत्न [३] नील, महानील, चन्द्रकांति, सूर्यकान्ति, वज्र, पैडर्य, कर्केतन, ज्योतीरस, सौगधिक, प्रमुख अशेष, रत्न विशेष ।
(पु० अ०) ७० रत्न [४] चिंतामणी, वैर्य, सूर्यकान्त, चन्द्रकान्त, जलकांत, कर्केतन, नील सासग, लोहिताक्ष, मसारगल, हसगर्भ, पुलक, प्रवाला, सौगंधिक, सुभग, स्फटिक
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(वि० ) -
( ३१७ ) ज्योतिर्मय, तरप, अंजण, अंजण पुलक, अंकमणी, मणिरिष्ट, मरकत इत्यादि जाति ना रत्न ।
७१--रत (५) अश्वरत्न, गजरत्न, पुरुषरत्न, स्त्री रत्न ।
___ पद्मराग, पुष्पराग, माणिक, गुरुडोद्भवोद्गार, मरकतरत्न, कर्केतन, वज्र, वैडूर्य, चंद्रकांत, सूर्यकांत, शिवकात, चद्रप्रभ, साकरप्रभ, प्रभानाथ, अशोक, वीत अशोक, अपराजित, गगोदक, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलग, सौगंधिक, सुभग, सौभाग्यकर, विषहर, धृतिकर, पुष्टिकर, शत्रुहर, अंजन, ज्योतिरस, शुन्नरुचि, स्थूलमणि, गोमूत्र, गोमेद, लसणिया, नीला, तृण चर, वज्रधर, घटकोण, करणी, चापडी, पीरोजा, प्रवाल, मौक्तिक प्रमुख रत्ने करी हाट भयो दीसै छइ ॥
(पू.) ७२ रतनमाला श्राद श्रीनारायणजी। देवां वडो तो देव
१ राजारिख तो विश्वामित्र वडा वडी तो प्रथमी
२ काल तो महाकाल बं (बहु) रतना तो विसंथुरा ३ गुणवंत तो गुणेस देवता तो विश्वनाथ
४ जखराव तो कुमेर (कुवेर) देवी तो पार्वती
५ गधर बीना तो तुवर बध कामनी तो गंगा
६ पंखराव तो गुरड दईत दलण तो कृष्ण जी ७ नगरी तो अमरावती खेत तो आदखेत
८ पुप तो पारजातग महाखेत तो बाणारसी ६ ब्रख (वृक्ष) तो कल्पवृक्ष पछम खेत तो प्रभात १० हत्ती तो ऐरापति मुकत खेत तो गया जी ११ तुरंगम तो उचास सिघ खेत तो श्रीधान
१२ मडारी तो धनाढि आद खेत तो पोहकर १३ पुरष तो पुरुषोतम तीर्थायव (तीर्थराज) तो प्राग (प्रयाग)१४ श्रारंभ तो राम व्याकरण तो पुन्पान
१५ परतंग्वा पुरण बो परसयम वेद वत तो ब्रह्माजी
१६ अमोहित तो सूक ब्रह्मारिख तो दुरवासा १७ अहंकारी तो रत्णो रावस कलहप्रिय तो नारद
१८ माण तो दुर्बोधन
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धनखधारी तो रजन दांत तो भीवसेन
खत्री तो दशरथ श्रारोहित तो भंगदत्त
निरवाहण तो कुंभकरन
सुधापत तो इन्द्रजी
स्याम भगत तो करण
बंध (वीधु) भगत तो लखमणजी
मत्रभगत तो तटावछ
भरतार भगती तो दामोवती
जुग तो सतजुग
चक्रवंत तो मानघाता
वास वसतो तो जीव
तुरता तो मनतत : अरथ तो जागवड
होमदेव तो होतासण
विप्रदेवता तो ब्राह्मण
पुत्रवंती तो सावत्री
पापहरणी तो गावत्री
गिगनाघपत तो आदीत
सोम सीतल तो चंद्रमा विह्माणीक तो वेद वेदायन तो सदापत चवाल तो नेत्रह
क्रम दुलभ तो खीचिरत
धूरत तो माल चक्रवंत -
फण्टा तो सेस
परवत तो मेर
दावार तो दधीच भीच तो हणवत. गोरिषी तो का सिप
( ३१८ )
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३७
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६४
- ६५
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६७
महायनल तो वाणतुर
कृष्णभक्त तो पैहलाद
'सहासीक तो विक्रमाटीत
सत तो हरचट
नोगणी तो हरसधी
सिध तो आदनाथ
जनी तो गोरख
तती तो कम्मारी
तनकर तो खापरी चोर
भाषा तो सन्कृत
पख तो पितर पख्य
परवत तो देवालक
वार तो यादीत
तिथ तो अमावस
वरत तो एकादशी
तरुण तो कसप
जोतकी तो तोखड
उग्रग्रह तो राह
समरथीक तो मेवमाला.
तरत तो जीव
मात तो कारितक
चत तो वसंत
मुरत तो मगरधन
प्रीत तो मद प्रीत
वसतर तो सपेत
त चचल तो वानरो वेगो श्रावै तो मन
रूपवती तो न्यासका
चख तो अंतर ज्या
पुरमला तो कस्तूरी
उदगारता तो कपूर
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•
१२२
१०३ १०४ १०५ १०६
१२७
१०७
११०
( ३१६) शृंगार तो तंवोल ६६ साच तो राजा जुधिष्ठिर चंता तो राजचता ।। १०० टरसणाग तो भाटराजा वेध तो राजवेध
चतरग तो चारण राजा तो भोजराज
१०२ माली प्रिया तो माधव . १२३
उड़ण तो नंदणवण राव तो परूर राव
दान तो अन्नदान
१२५ दुख तो दलद्री
भिख्या तो किण भीखा आगारी तो कपा
सीख तो गुररी सीख विनासकारी तो पाप
अखई तो अाकास सत तो संतोष
अनत तो ऊतरपय . १२६ ग्यान तो मोख
खड तो भरत खड सती तो सीता
१०६
जुली तो लंका नदी तो गगा.
अतरथ तो भरमन सेव १३२ उछह तो पुत्रवती १११ श्रेष्ठ फल तो अब . . . । १३३ प्रभावती तो गोदवती ११२ पोखद तो अमृत
१३४ रतन तो माणक "११३ कूड तो कपलामोचन , १३५ समद तो खार समद ११४ कठण तो भैरव .. पुत्र तो भागीरथ
११५. राग तो मैराग रथ तो नदीघोष
११६ कवि तो माधो वेस्या तो कामसेना ११७ कवि तो कालदास . . १३६ विभीगी तो बछराज ११८ नक्षत्र तो अभीच, . १४० सतपत तो श्राचारज ११६ (अनूप संस्कृत लाइब्रेरी प्रति से)
७३-शैया । मलय चंदन छटा छोटित भूमितल । -- ददह्य मान काला गुरु । कपूर पारी मघमघायमान | पुष्य शय्य निरुपमान स्वर्ग लोक विमान समान । , उभय पाश्वोपधान शोमित, मध्यभाग गभीर । गगा पुलिन समान, अत्यंत सुकुमाल शयनीय । (१५७ जे० )
७४-भवन (१) प्रधानाहार वस्त्रालंकारैः वात्सल्य वर्णन श्री युद्धिष्ठिर राजा श्री चंद्रप्रभ प्रसाद प्रतिष्ठोपरि साहम्मी वात्मत्य करइ ।
.
१३८
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( ३२० )
ते हव कि भवनि ?
उत्तु ग तोरण मंडप । रत्नमय भूमि । स्वर्ग मय श्रासन | वैडूर्य रत्नमय आडणी, न जाइ किणही तैं छाडणी । अति विशाल |
माणिक्य मय स्थाल,
चडसट्टि वाटुली, समइ श्रावर्त्तइ वली ।
७५ - घर नी श्रोषमा
मोटा घर, गया न लागइ कर । वित्त ना डोकर, घणा धाननो भर । चिहु खूणे वासइ अगर, सेज फूलनी पगर । मोटा डागला, तिहा जड्या प्रवाला । मोटीसाला, सोना रूपानी टकसाला | मोटा किवाड, तिहा केलिना झाड़ | जीमइ प्राहुणानी चोल, घूमइ विलोवणा झलझोल, सूहव नारी करइ रंगरोल । साधु नइ दीजै दान, घरणा पकवान, उन्हा धान, रूड़े वान, दया पालै, दुखिया ना दुख टालइ । भिख्यारी नइ दीजइ अन्न, तोल न पाम्यो धन्न । जाता श्रावता आदर करहुएहवा साहूकार ना घर धन सहित छइ । ७६ -- साहूकार रो घर
मोटा घर, गयां न लागै कर ।
बइठां न को डर, घरपा धान नो भर । चिह्न खूरौ वासै अगर, सेफे फूल ना पगर । मोटा श्राला, विहा जडित प्रवाला ।
जीमे साल
दाल |
मोटी साल, तिहा खेले बाल । वरे धणा सोना ना थाल, सुरही घी नी नाल, तोरण मोत्या री माल । सोना रूपा नी टकसाल 1
नै
,
मोटा कमाड, तिहा केलां ना भाड़ ।
नीने प्रारणा नी श्रोल, घूमै विलोरणा नी मझोल ।
सुहृद नारी करें रगरोल,
1
साधने दीजै दान, धणा पकवान । ऊन्हा धान, डैवान | दया पाळें, दुखिवा ना दुख टाळे | भिखारी ने दीने अन्न, तो भलै पान्यो धन्न । जाता वां श्रादर करें, पुन्य तसा पोता भरै ॥
एहवा साहूकार ना घर
.....
G
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স্মৃতিচিহ্ন
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परिशिष्ट (१)
सभा,गारादि वर्णन संग्रह
रत्नकोष
सर्वशास्त्र मयं रम्य, सर्वज्ञान प्रकाशक स्वल्प ग्रन्थ सुबोधार्य, रनकोश समभ्यसेत् १ तो शन सूत्राणा द्वाराणा संग्रहो यथावाक विशेषण विज्ञानं रत्नकोशे समाभेत् २ त द्वार शत प्रोक, नीति शास्त्र विशारदे. तदहं सप्रवक्ष्यामि, बुधाना हित काम्यया ३ रम्यागिण भुवनान्याहुः विश्वेत्रीणि यथा क्रमम् मनुजाना महाश्रेष्ठ, भुवन देव नागयोः ४ त्रिविध लोकमस्थान. कथ्यमानं तु श्रूयते दान न मान सस्थानं, देव स्थान निगद्यते ५ त्रिविधा भूमिरित्युक्ता उच्चनीच प्रदेशगा समानुभूमि विज्ञेया, मुनिभिः परिकीर्तिता ६ त्रिविधा पुरु लोके, उत्तमा मध्यमास्तथा अचमा नग विख्याता, ससारे ससरतिते ७ यथा चिंता वयः प्रक्ता, पदार्याश्च त्रयस्तथा पातु रूपाश्च जीवाश्च तृतीयो मूल सशकः ८ धर्मार्थ काम मोक्षेषु पुरुषार्थो नरोत्तमः चतुरि प्रघोनाय पुरुषः पुरुषोत्तमः ६
रत्नकोश
अथातो वस्तु विज्ञान रक्षकोश व्याख्यास्यामः
सर्व शास्त्र मा रम्य सर्वज्ञान प्रकाशकं । स्वल्प ग्रन्थं सुबोधार्थ रतकोश समभ्यसेत् ॥ १ ॥
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________________
( २ )
तत्र शतेन सूत्राणां संग्रहो यथा
1
१ तत्रादौ त्रीणि भुवनानि
२ त्रिविध लोक सस्थानं
३ त्रिविधा भूमिः
४ त्रिविधा पुरुषाः ५ त्रय पदार्था.
६ चत्वार पुरुषाणामर्था. '
७ षटत्रिंशद्राज वंशा
सप्तांग राज्य ६ षणवतिरानगुणाः १० षटत्रिंशद्राज पात्राणि
११ षटूत्रिंशद्राज विनोदा
१२ श्रादशविधं स्थान
१३ चतस्रो राजविद्या
१४ चतस्रो राजनीतयः १५ सप्तविंशति शास्त्राणि
१६ षट्त्रिंशत् ढंडायुधानि
१७ द्विपचाशत् तच्चानि १८ द्विसप्तति कला
१६ चतुराशीति विज्ञानानि २० चतुराशीति देशा २१ द्वात्रिंशल्लक्षण स्थानानि
२२ चतुर्विशति विगृह २३ अष्टोत्तरशत मंगलानि
२४ त्रिविध दानं
२५ पचविध यश
२६ सप्तविधा कीर्ति
२७ नव रसा
२८ एकोनपञ्चाशद्भाव
२६ चत्वारो अभिनया
३० चतस्रो वृत्तय
३१ चत्वारो नायका
३२ चत्वागे महानायका
३३ द्वात्रिंशद्गुण नायका
1
३४ त्रिविधा महानायिका
३५ अष्टौ नायिका
३६ द्वात्रिंशद्गुण नायिका
३७ त्रिविध३ सौख्यं
३८ चत्वारि सौख्य कारणानि
३६ नवविधो गघोपयोग
४० दशविध शौचं
४१ द्विविध. ६ कामः
४२ दश कामावस्था
४३ विशति रक्तस्त्रीणा लक्षणानि ४४ एकविशति विरक्तस्त्रीणा लक्षणानि ४५ द्वात्रिंशतिकामिनीना विकारोंगितानि ४६ चतुर्विंशति सतीनां लक्षणानि ४७ षोडश दुष्टस्त्रीणा अपलक्षणानि ४८ अष्टोत्रीणां श्रभिसारिका णि ४६ अष्टौना श्रगम्या
७
५० श्रष्टविषो मूर्ख
५१ चतुविशति विध नागरिक वर्त्तनम्
५२ त्रिविध' (त्रिविध ) रूपं ५३ त्रिविधं स्वरूप
५४ द्वादश विष प्रमोदोपचार
५५ पचविधः परिचयः
५६ दशपुरुषाः स्त्रीणा अनिष्टा भवति ५७ दशभिः कारणै स्त्रियो विरज्यते ५८ त्रिभिः कामिन्यः सबध्यते
१. पुरुषार्थी ● सप्तदश 3 द्विविध ८ पात्रोपभोग ५ द्वित्रिविध ७ श्रविश्वास द्विविध |
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५६ सप्तविध कामुकाना क्रीडारमः ६० अष्टविध विदग्धानां सुरतं ६१ नवविध सुरतावसानं ६२ नव शयन गुणा. ६३ दशविध पार्थिवाना प्रमोट ६४ चतुर्विधः प्रबोधः ६५ चतुर्विधा बुद्धि ६६ अष्टौ बुद्धिगुणाः ६७ चतुर्विधं गन्धवं ६८ त्रिविध गीतं ६६ षट्त्रिंशद् गीतगुणा ७० चतुर्विध वाद्य ७१ पोडशधा नृत्योपचार ७२ षोडशविर वाक्यम् ७३ दशविध वक्तृत्व ७४ पविध भाषा लक्षणं ७५. पंचविध पाडित्यम् ७६ चतुर्विंशतिविधं वाट लक्षणं ७७ घट दर्शनानि ७८ अष्टविधं माहेश्वरं ७६ दशविध ब्राझयम् ८० चतुर्विधं सांख्य ८१ सप्तविध जैनम ८२ दश विध बोद्ध ८३ चतुर्विध चार्वाकं ८४ चतुर्विंशति विधं विचारकत्वम् ८५ दशविच गुरुत्व ८६ पच चरितं ८७ पंचविध पार्थिवानां पालनं ८८ सप्तविधं उत्तमत्वं ८६ नवविधा शक्तिः ६० सप्तविघा भुक्ति
६ चतुर्विध ।
६१ अष्टविध अभिमान लक्षण १२ चतुर्विधं वात्मल्यं ६३ पंच विधो महोत्सव ६४ सप्त विधा प्राप्तिः ६५ चतुर्विशति विधं शौर्य ६६ दशविधं बलं ६७ दशविध संग्रह १८ पच विध प्रभुत्व ६६ अष्ट विधो जय १०० अष्ट विधो भोग १०१ षोडश शृगारा १०२ षडविध परिच्छेद १०३ चतुर्दश विद्यानाम १०४ चतुविधा गति अन्य प्रतियो मे इस प्रकार नाम और मिले है१ षोडश विच नाट्यम् २ चतुर्विध परिच्छेद ३ पचविध अप्रभुत्वम् ४ चतुर्विधा प्रीति ५ षडविधा भोज्यरसा. ६ नवविधा भक्ति ७ पंचविधा प्रतापः ८ द्विविध चातुर्यम् ६ त्रिविधं वीरत्वम् १० द्विविध कृपा ११ द्वात्रिंशत् नायका १२ नवविधो गानोपभोग १३ दशविध प्रासाद १४ चतुर्विशति प्रमोद १५ चतुर्विधं नाट्यम्
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१६ षोडश विध परिचय
२६ अष्टादश मित्रस्थान १७ त्रिभिकारण स्त्रीणाम विजंते २७ द्वात्रिशट उत्तम गुण नायका १८ नवविध काव्यम्
२८ द्वादश विध वक्तृत्वम् १६ सप्त विधा भक्ति
२६ अष्टविधा भक्ति २० द्विविधा भुक्ति
३० सप्तविधं गृह २१ एकविधा मुक्ति
३१ अष्टौलब्धः २२ दशविध यशः
३२ अष्टादश विधं पुराण २३ पंचविध परिच्छेद
३३ सप्त विध: कामिनीनां सुरतारम २४ पंचविधा गति
३४ अष्टविधं सुरतावस्थानां २५ पंचविध विप्रत्वं
३५ चतुर्विधत्वम् वाचा कित्वम् इति सूत्राणां संग्रहः वस्तु-विज्ञानं रत्नकोशे समारभेत् । १ तत्रादौ त्रीणि भुवनानि-सुर-भुवनं, मानव भवनं, नाग-भवनं २ त्रिविध संस्थानम-देवसंस्थानं, दानवसंस्थानं, मानवमस्थानं ३ त्रिविधा भूमि-उच्च प्रदेश, निम्न प्रदेश, सम प्रदेश ४ त्रिविधा पुरुषाः-उत्तम, मध्यम, अधम ५ त्रय-पदार्थाः-धातु पदार्थ, जीव-पार्थ, मूल-पदार्थ ६ चत्वारः पु-षाणामाः-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ७ षट्त्रिं गद्र अवंशा-१ ब्रह्मवंश',२ सोमवंश, ३ यादववंश, ४ कदम्बवंश,
५ इक्ष्वाकुवश, ६ बाहीकवश, ७ चौलुक्यवंश, ८ छंदिक्वंश, ६ चाहुवानवंश, १० सेंधववंश, ११ डामीवश, १२ चापोत्कट वंश, ३ पडिहार', १४ लडुक, ५ राष्ट्रकूट, १६ शक, १७ करटपाल, १८ कोटपाल, १६ चंडिल्ल', २० गोहिल, २१ गुहिलपुत्र, २२ मौरिक, २३ मोरी, २४ मंकुया" २५ धान्यपाल, २६ राजपाल, २७ अनंग', २८ निकुंभ, २६ दाडिम', ३० कलिछुर, ३१ दविमुख , ३२ हूण, ३३ हरितट , ३८ डोड, ३५ पमार, ३६ शिव, (सिल्लार, लुलु, पौलिक, कलरव ) ८ सप्तांगं राज्यं-१ स्वानी, २ अमात्र, ३ जनपद'', ४ भाण्डागार, ___ . दुर्ग", ६ पल, ७ मित्र'२
१. सूर्यवंश २ प्रतिहार, 3. करट ४ लदेल ५ कियाण ६, अनक ७. दांभिय ८ दधीचि ६ हरिमोरंभ "० देश ११ सेन्या १२ मन्त्र
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६ परणवति राजगुणाः-१विद्या, २ विनय, ३ विवेक, ४ विस्तार, ५ सदाचार,
६ सत्य, ७ शौच, ८ सम्मानं, ६ संस्थानं, १० समाधान ११ सौख्य १२ सौजन्यं, १३ सौभाग्य, १४ रूपं, १५ स्वरूपं, १६ सयोग 13, १७ वियोग, १८ विभाग, १६ सांगत्यं, २० संपूर्णश्च, २१ सोमत्व', २२ सकलत्व, २३ सजलत्व, २४ प्रसन्नत्व, २५ प्रभुत्व, २६ प्राजलित्व, २७ पालकत्व, २८ पाडित्य, २६ प्रणयित्व, ३० प्रमाण, ३१ शरण, ३२ प्रमोद, ३३ प्रसाद, ३४ प्रताप, ३५ प्रारम्भ, ३६ प्रभाव, ३७ परिच्छेद, ३८ संग्रह, ३६ सदाग्रह, ४० निग्रह, ४१ विग्रह, ४२ अनुग्रह, ४३ तु प्टि, ४४ पुष्टि, ४५ प्रीति, ४६ प्राप्ति, ४७ प्रशसा, ४८ प्रतिष्ठा, ४६ प्रतिज्ञा, ५० स्थैर्य, ५१ धैर्य, ५२ शौर्य, ५३ चातुर्य, ५४ गांभीर्य, ५५ बुद्धि, ५६ बल, ५७ अधीक्ष'", ५८ विरोध, ५९ विषय, ६० विशेष, ६१ विनोद, ६२ वृद्धि, ६३ सिद्धि, ६४ काति, ६५, कीर्ति, ६६ विस्फूर्ति ६, ६७ व्युत्पत्ति, ६८ वात्सल्य, ६६ महोत्सव, ७० मंत्र, ७१ रसिकत्व, ७२ भावकत्व, ७३ गुरुत्व, ७४ स्मृति, ७५ भुक्ति, ७६ युक्ति", ७७ आसक्ति, ७८ अनुक्रम, ७६ अनुराग, ८० अभिमान, ८१ दान, ८२ कारुण्य, ८३ दर्शन, ८४ स्पर्शन, ८५ रसन, ८६ श्रवण, ८७ प्राण, ८८ मर्याद, ८६ मडन, ६० उदात्त, ६१ उदय, ६२ उत्साह, ६३ उत्तम गुणाः, ६४ दाक्षिण्य,
६५ सत्व, ६६ वश ॥१॥ १० षट्त्रिंशद्राब पात्राणि-धर्मपात्र, अर्थपात्र, कामपात्र, विनोदपात्र, १ विलास
पात्र, २, विद्यापात्र, ३ विजानपात्र,, ४ क्रीडापात्र, ५ हास्यपात्र,६ शृङ्गारपात्र, ७ वीरपात्र, ८ देवपात्र, ६ दानवपात्र, १० कर्मपात्र, ११ मत्रिपात्र १२ संधिपात्र, १३ महत्तम पात्र, १४ अमात्य पात्र, १५ अध्यक्ष पात्र, १६ सेना पात्र, १७ सेनापाल पान, १८ प्रधान पूजा पात्र, १६ मान्यपान, २० राजमान्य, २१ पदस्थ पात्र, २२ देवीपात्र, २३ कुलपुत्रिका पात्री, २४ पुनर्भूपात्र, २५ वेश्यापात्र, २६ प्रतिसारका पात्र, २७ दासीपात्र, २८ देशपात्र, २६ गुणपात्राणि, ३० दर्शन, ३१ सत्य, ३२ रानमंत्री,
३३ अाधान, ३४ नगर, ३५ पुण्य, ३६, कुलपति ।। ११ षट्त्रिंश न विनोदा-१ टर्शन विनोट, २, गीत विनोद, ३ नृत्यविनोद,
४ वाजिक विनोद, ५ वृत्त, ६ पात्र, ७ लेख्य, ८ वक्तृत्त्व, ६ कवित्त्व, . १० वाद विनोद, ११ युद्ध विनोट, १२ नियुद्ध, १३ गज, १४ तुरंग, - २३. स्वयोग १४ सौम्यत्व १५ अध्यक्ष १६ रफूर्ति ७ मुक्ति ।
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( ६ )
१५ पक्षि, १६ खेटक, १७ द्यूत, १८ जल १६ यत्र, २० महोत्सव, २१ पत्र, २२ फल, २३ पुष्प, २४ कला, २५ कथा, २६ प्रहेलिका, २७ पदार्थकरण २८ तत्व ग्६ बल, ३० चित्र, ३१ सूत्र विनोद ३२ श्रवण विनोद, ३३ कृत्रिम विनोट, ३४ पठित, ३५ प्रकृति, ३६ खलित्व, ३७ शास्त्र, ३८ बुद्धि, ग्रक्षर, गणन, मत्र, कमल, काया, पाठित, केश क्रीडा ।
१२ अष्टादशविधं स्थानं -१ मल्लस्थान, २ श्रास स्थान, ३ हितस्थान, ४ स्निग्धस्थान, ५ मत्रि, ६ महत्वत्तम, ७ श्रमात्य, ८ बुद्धि सुख, ६ अभय सुख, १० आरामिक, ११ ग्राम्नायिक, १२ देशी पुरुष, १३ धर्म पुरुष, १४ धन पुरुष, १५ काम पुरुष, १६ राजपुरुष, १७ विज्ञान, १८ विनोद पात्राणि च शाबोदक्ष, शासनक, संग्रामिक, ज्ञान पुरुप ।
१३ चतुस्रो राजविद्या - १ ग्रान्वीक्षिकी, २ त्रयी, ३ वार्त्ता, ४ दण्डनीति |
१४ चतस्रो राजनीतयः १ साम २ दान ३ भेद ४ ड |
१५ सप्तविंशति शास्त्राणि - १ शब्द शास्त्र, २ छ्द शास्त्र, ३ अलंकार शास्त्र, ४ काव्य शास्त्र, ५. कथा शास्त्र, ६ नाट्य शास्त्र, ७ नाटक शास्त्र, ८ निघण्टु शात्र, ६ धर्म १० अर्थ ११ काम १२ मोक्ष १३ तर्क १४ गणित १५ गार्च १६ मत्र १७ वैद्यक १८ वास्तु २६ विज्ञान २० विनोद २१ कृत्य २२ कला २३ कल्प शिक्षा २४ लक्षण, २५ बुद्धिशास्त्र, २६ वादविद्या, २७ मंत्र, पुराण सिद्धान्त शास्त्राणि ||
१६ षट्त्रिंशत् दण्डायुधानि - १ चक्र, २ धनुष, ३ खड्ग, ४ तोमर, ५ कुत, ६ त्रिशूल, ७ शक्ति, ८ पाश, ६ अंकुश, १० मुग्टर, ११ मक्षिका, १२ भल्ल, १३ भिंडिमल, १४ मुपदि, १५ लुट, १६ तुरिका", १७ पटु, १८ गुरज, १६ गढ़ा, २० परशु, २१ पट्टितु, २२ कुष्टिकरण २३, कपन, २४ हल, २५ मृशल, २६ हुलिका, २७ पत्र, २८ कर्त्तरि, २६ कोठाल, ३० तरवारि, ३१ दुम्फोट, ३२ गोफणि, ३३ डाह, ३४ डयूस, ३५ लुठि । ३६ दरड शास्त्राणि, वज्र, छुरिका, शृष्टि, शंकु, मुष्टि, यष्टि, करपात्र, कुद्दाल, ग्रसनि, सारग ।
१७ द्विपचाशत् तच्चानि - १ पृथ्वी तत्व, २ अपतत्व,
३ तेजतत्व, ४ वायु
तत्व, ५ ग्राकाश तत्व, ६ शब्द, ७ स्पर्श, ८ रस, ६ रूप, १० गन्ध, ११ रसन, १२, स्पर्शन, १३ प्राण, १४ चक्षु, १५ श्रोत्र, १६ त्वकू १७, पाणि,
१, वीरिका २, बुब्न
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(
७ ।
१८ पाट, १९ गुद, २० उपस्थ, २१ मन, २२ बुद्धि, २३ अहकार प्रकृति, २५ पुरुप, २६ विन्दु, २७ रक्त, २८ मास, २६ मेद, ३० अस्थि, ३१ मन्ना, ३२ शुक्र, ३३ वात, ३४ पित्त, ३५ कफ, ३६ मल, ३७ काम, 5८ कध, ३६ लोभ, ४० मोह, ४१ भय, ४२ मात्सर्य, ४३ राग३, ४४ नयक, ४५ विद्या, ४६ शुद्ध विद्या, ४७ माया, ४८ ज्योति, ४. नाट,
५० शक्ति, ५१ ईश्वर ५२ भक्ति, काल, दान, कला, परमयुक्ति ॥ १८ द्विसप्तति कला-१ गीत कला, २ नृत्यकला, ३ वाद्य,
४ बुद्धि ५ शौच, ६ मत्र, ७ विचार, ८ वाढ, ६ वास्तु, १० नेपथ्य, ११ विनोट, १२ विलास १३ नीति, १४ शकुन, १५ चित्र सयोग १६ हम्त लाघव, १७ कुमुम, १८ इन्द्रजाल, १६ सूचीकर्म, २० स्नेह पात्र, २१ अाहार, २२ मौभाग्य, २३ प्रयोग, २४ गध, २५ वस्तु पात्र, २६ रत्न, २७ वैद्य, २८ देश भापित, २६ विजय, ३० वाणिज्य, ३१ श्रायुध, ३२ युद्ध, ३३ नियुद्ध, ३४ समयवर्त्तन, ३५ हस्ति, ३६ तुरग, ३७ पक्षि, ३८ पुरुप, ३६ नारी भूमिलेप, ४० काष्ट शिल्प, ४१ वृक्ष, ४२ छद्म, ४३ उत्तन, ४४ शस्त्र, शास्त्र, ४५ गणित, ४६ पठित, ४७ लिखित, ८वक्त त्व, ४६ कथा, ५० च्यवन, ५१ व्याकरण, ५२ नाटक, ५३ अलंकार, ५४ दर्शन, ५५ अध्यात्म, ५६ चातु, ५७ धर्म, ५८ अर्थ, ५६ काम, ६० घृत, ६१ शरीर कलाश्चेति, ६२ कवित्व, ६३ वचन, ६४ छंद, ६५ ध्यान, ६५ दान, ६६ सौक्ष, ६७ क्रीडा, ६८ सूत्र ६६
विनय. ७० पान, ७) वर्ण,७० सैन्य, भिक्षा, प्रत्युत्तर, सत्व ।। १६ चतुगशीति विज्ञानानि-१ हेतु विज्ञान, २ तत्त्व विज्ञान, ३ मोहन,
४ कर्म, ५ धर्म, ६ मर्म, ७ शख, ८ टत, ६ काच, १० गुटिका, ११ योग, १२ रसायन, १३ वचन, १३ कवित्व, १५ नैपथ्य, १६ मंत्र, १७ मर्दन, १८ पत्रक, १६ बृष्टिक, २० लेप कर्म, २१ सूत्र, २२ चित्र, २२ ग्ग, २४ सूची कर्म, २५ शकुन, २६ छद्म, २७ नैर्मल्य, २८ गध, २६ युक्ति, ३० श्रासन, ३१ शील, ३२ काप्ट, ३३ कर्म, ३४ कुभ, ३५ लोह, ३६ यत्र, ३७ वश, ३८ नख, ३६ तृण, ४० प्रासाद, ४१ धातु, ४२ विभूषण,४३ स्वरोदय, ४४ द्यूत, ४५ अध्यात्म, ४६, अग्नि जल विद्वेषण, ४७ उच्चाटन, ४८ स्लभन, ४६ वशीकरण, ५० हस्ति शिक्षा, ५१ अश्व, ५२ पक्षि. ४३ स्त्री काम ५४ रत्न, ५५ वस्त्राकार, ५६ पाशुपाल्य, ५७ 3 गेग ४ नियनि
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( ८) काप, ५८ वाणिज्य, ५१ लक्षण, ६० बाल, ६१ शान, ६२ अग्न, ६३ श्रायुधकार, ६४ नियुश्मर, ६५ श्रासेट, ६६ पल, ६७ केरा, ६८ पुप्प, ६६ इन्द्रजाल, ५० पान निधि, ७१ प्रशन, ७२ ग्लिाद, ७) सौजन्य, ७४ सीमाग्य, ७५. गीन, ७६ विनय, ७ नीति, ७ श्रायुट, ७६ व्यापार, ८० धारणा ८ लदनी, देव, दान, निशानानि, ज्योतिष, वधशा, मध, दर्शन, मन्तफ. पटिया, लाभ, चित्र, नाग, मंसिप,
काव्य, वाघ, फाकरत, नामुद्रिक | RATfiशानानि }} २० चतुरशीतिदेशा--१ पूर्व देश, २ प्रदेश, ३ अंग देश, ४ गौर ,
५ कान्यकुब्ज, ६ कलिग, ७ गोष्ट, गाल, रग, १० राठवारद्री, ११ यामुन, १२ नरयूपार, १३ अंतद, १४ मगर, ५मच६ कुम, १७ साइल, ८ कामरू,१९,२० पयाल, २१ नोरन २. जालं, २३ शोर. पाद, २४ पश्चिम, २५ स्थल, २६ बालंभ, २७ सौराष्ट्र, २८ , २६ लाट ३० श्रीमाल, ३० अर्बुद, ३१ मेटपाट, ३२ मा, ३३ करना, ४ मालप, ३५ अवती, ३६ पारियान, ३७ संयोज, २८ तामलित, ३६ पित, ४. रिटक, ४१ सौवीर, ४२ वीणयकाग, ४३ उत्तगपय, ८४ गुर्जर, ४५. सिन्ध, ४६ केकाण, ४७ नेपाल, ४८ भोट) रय, ४६ ताजिय, ५० वर, ५१ सत, ५२ कीर, ५३ काश्मीर, ५४ पज़ल, ५५ दिमालय, ५६ लोहपुर,५६ भीराक्ष, ५७ दक्षिणापथ, ५८ मलन, ५६ शीघल, ६० पांड, ६१ कोशत, ६२ अन्नु, ६३ विन्ध्य, ६४ द्रविड, ६५ धीपर्वत, ६६ वैदी, ६७ विगट, ६८ओरलाजी, ६६ तापीतट, ७० महाराष्ट्र, ७१ अाभीर, ७२ नार्मद, ७३ पामाद. ७४ कडु, ७५ पापाणक, ७६ चौड, ७७ पागध्य, ८८ वरेन्द्र, ७६ गंगापार, ८० सीसग्न, ८१ काता, ८२ तिलग, ८३ मलबार, ८४ पारकर, द्वीपदेशाश्चेति ॥ २१ द्वात्रिंशल्लक्षण स्थानानि-१ म्बर्ग लक्षणा, २ मृत्यु, ३ पाताल, ४ तत्त्व, ५ विद्या, ६ विज्ञान, ७ ज्ञान, ८ वास्तु, ६ विनोट, १०, वाट, ११ कला,
१२ कल्प, १३ गीत, १४ वाद्य, १५ धर्म, १६ अर्थ, १७ काम,१८मोक्ष, • ६ देश, २० काल, २१ पात्र २२ पुरुष, २३ स्त्री २४ गज, २५ तुरग,
२६ पति, २७ रत्न, २८ सदव्यापार, २९ सत्व, ३० वस्तु, लक्षणानि । २२ चतुर्विशति विध गृह-१ प्रासाद, २ हh, ३ श्रायतन, ४ गृहकोश,
६ कोष्टागार, ७ पानीय स्थान, ८ शौच गृह, ६ माल्यगृह, १० मठस्थान, ११ सत्रागार, १२ शृंगार, १३ गृह, १३ धर्मस्थान, १४ विनोद स्थान, १५
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मंदिर, १६ हस्तिशाला, १७ वासभवन, १८ मडप, १६ महानस, २० भोजन
शाला, २१ अग्रासन, २२ अर्थस्थान, २३ राजागणच ।। २३ अष्टोत्तरशत मंगलानि-१ ब्रह्मा, २ विष्णु, ३ महेश्वर, ५ स्कंद, ५
श्रादित्य, ६ लोकपाल, ५ अग्नि, ६ अमरसागर, ७ नदी, ८ पर्वत, ६ गगन, १० ग्रह, ११ गण, १२ गंधर्व, १३ चद्र, १४ विनायक, १५ ज्योतिष, १६ धर्म शास्त्र, १७ द्विज, १८ वर, १६ वेद, २० पद्म, १२ प्रदीप, २२ कौस्तुभ, २३ काचन, २४ रूप्य, ५ ताम्र, २६ घृत, २७ मधु, २८ मद्य, २६ सिद्धान्न, ३० चन्दन, ३१ सितवस्त्र, ३२ वेश्या, ३३ गोरोचन, ३४ मृतिका, ३५ गोमय, ३६ शास्त्र, ३७ अजन, ३८ औषध, ३६ अक्षत, ४० रत्नमणि, ४१ मोरक, ४२ शंख, ४३ प्रियगु, ४४ जव, ४५ श्वेत पुष्प, ४६ सर्पा, ४७ दधि, ४८ आम्र, ४६ उदवर, ५० छत्र, ५१ हस्ति, ५२ बीजपूरक, ५३ मुक्ताफल, ५४ दूर्वा, ५५ खजरीट, ५६ वृषभ, ५७ ध्धव, ५८ हस, ५६ कन्या, ६० दप्पण, ६१ मत्स्य, ६२ तुरंगम, ६३ गीत, ६४ वीणा, ६५ ध्वनि, ६६ सिंघ, ६७ मेघ, ६८ स्वस्ति, ६६ तोरण, ७० कुम्भ, ७१ चामर, ७२ गौ, ७३ सवत्सा, ७४ आर्द्र मास, ७५ स्त्री, ७६ सपुत्र, ७७ वाहन, ७८ प्रदान, ७६ विद्या, ८० पानीय, ८१ पुष्टि, ८° तुष्टि, ८३ प्रसाद, ८४ उल्लोच, ८५ पूर्णपात्र, ८६ श्राशाखा, ८७ प्रियवाक्य, ८८ श्रीवृक्ष, ८६ तालवृंत, ६० पूनानिधि, ६१ नर, ६२ सहस ६३ गौरी, ६४ गगा, ६५ सरस्वती, ६६ नर्मदा, ६७ यमुना, ६८ कमला,
६६ सिद्ध पीठ, १०० कीर्चि । इति मगलानि । २४-त्रिविधंदानं-१ अभयदान, २, उपकारदान, ३ द्रव्यदान । २५-पंचविधंयश-१ जानयश, २ प्रतापयश, ३ सदाचार यश, ४ पराक्रमयश,
५ वर्णनयश। २६-सप्तविधा कीर्ति-१ दान, २ शौर्य ३ पुण्य, ४ वर्तन, ५ विज्ञान, ६ काव्य
७ वक्तृत्त्व । २७-नव रसाः-१ शृगार, २ हास्य, ३ करुण, ४ रौद्र, ५ वीर, ६ भयानक,
७ बीभत्स, ८ अद्भुत, ६ शातरस । २८-एकोनपंचाशद्भाव-रति, हास्य, उत्साह, विस्मय, क्रोध, शोक, जुगुप्सा,
भय, लंभ, स्वेद, भंग, ब्रीडा, चपलता, हर्षता, नडता, मतिमूढी, श्रावेग, विषाद, औत्सुक्य, गर्व, अपस्मार, निद्रा, सुप्त, विवोध, अमर्ष, उन्माद, उग्रता, व्याधि, वितर्क, त्रास, स्वरभेद, रोमाच, वेपथु, वैवर्य,
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( १० ) अश्रु, प्रलाप, निर्वेद, ग्लानि, शंका, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिता, मोह,
स्मृति, अवहित्य, विटाघ, मरणांतं । इति भाव। २६-चत्वारो अभिनया–वाचिक ' यांगिक २ आहार्य ३सात्विक ४ 30-चतखो वृत्तयः-सात्वती, भारती, कैशकी. श्रारभटी २८ ३१- चत्वारो नायका-अनुकूल, दक्षिण, शठ, वृष्ट ३२-चत्वारो महानायका-बीरशात वीरउद्धत, धीरोदात्त, धीरललित , ३३-द्वात्रिंशद्गुण नायका-कुलीन, शीलवान, वयस्थ, शौचवान्, स्वतंत्र, सावयव,
प्रीतिमान, प्रियवट, सुभग, मन्यवान् , कीर्तिमान् , त्यागी, विवेकी, भंगारी, अभिमानी, श्लाव्यवान्, सुमुज्वल वेष, शयान, सकल कला कुशल, मत्यावसह, सुगघ सुवृत मत्र, क्लेश मह, भाषा पडित, उत्तम, सत्यधर्मिष्ट,
महोत्साही, गुणग्राही, क्षमी, परि भावुक । ३४-त्रिविधा महानायिका स्वकीया, परकीया, पण्यांगना । ३५-~-अष्टौ नायिका-विरहोत्कठिता, खडिता, कलहातरिता, विप्रलब्धा, प्रोषित
भर्तृका, अभिसारिका, स्वाधीन पतिका । ३६ - द्वात्रिंशत् गुण नायिका-मुरूया, सुवेपा, सुभगा, सुरतप्रवीणा, सुसत्त्वा,
वेषश्रिता, विनोता, भोगिनी, विचक्षणा, प्रिय भाषिणी, प्रसन्नमुखी, पीनस्तनी, चारलोचना, रसिका, लजान्विता, लक्षणयुक्ता, वास्यज्ञा, गीतज्ञा, नृत्यज्ञा, वाद्यना, मुप्रमाणशरीग, सुगवप्रिया, नीतिमानिनी, चतुरा, मधुरा, स्नेहवती, विमर्षवती, सवृत्तमत्रा, सत्यवती, प्रज्ञावती, चैतन्या
शालवती, गुणान्विता । ३७-त्रिविध सौख्य -- शारीरिक, वाचिक, मानसिक । ३८-चत्वारि सौख्य कारणानि-योगाभ्यास कारणं, अभिमान कारणं, सप्रत्यय
कारणं, विषय कारण । ३६-नव विधो गंधोपयोग-तैलाधिवासः, नलाधिवासः, वस्त्राधिवासः, मुखाधि
वास, उद्वर्तन घिवासः, विलेपनाविवासः, स्नानाधिवास, धूपनाघिवास,
भोजनाधिवास. । ४१-दश विध शौचं-जलशौचं, मृतिकाशौच, गध, स्मश्रु, संस्कार,
पवित्र वाक्य, प्राणिदयाशौचं, अर्थशोचं, आचार शौचं ,स्नान शौच । ४१-द्विविधः काम.-स्वाभाविक, कृत्रिम । ४२-दश कामावस्था-अभिलाप, चिंता, स्मृति, गुणकीर्तन, उद्वेग, प्रलाप,
उन्माद, व्याधि, जडता, मरण ।
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( ११ )
४३ – विंशति रक्त स्त्रीणा लक्षणानि - पूर्वं भापते, दर्शनात् प्रसन्ना भवति समागमे तुष्यति, सभापिता हृष्यति, गुणान् सखीजने कथयति, दोषान् छादयति, सन्मुखीशेते, पश्चात् स्वपिति, पूर्व्वमुतिष्ठति, मित्राणि पूजयति, अमित्राणि द्वेष्टि, प्रोषिते दुर्मनाभवति, स्वधन ददाति, प्रथममालिंगयति, पूर्व चुम्बनं करोति, मम दुख मुखावलोकिनी, सदा विनीता, स्नेहवती, संभोगार्थिनी, हितार्थिनी ।
४४ – एकविंशति विरक्त स्त्रीणा लक्षणानि - चुत्रिता विमुख करोति, मुख परिमाजयति, निष्टीवति, प्रथम शेते, पश्चादुत्तवृति, परान्मुखी शेते, वाक्य नावमन्यते, मित्राणि द्वेष्टि, श्रमित्राणि पूजयति, सदा गर्विता भवति, उक्ता कुप्यति, गमने तुष्यति, दु.कृत स्मरते, सुकृत विस्मरयति, दत्तं न दुखित मन्यते, टोपान् प्रकटी करोति, गुणान् छादयति सन्मुख न पश्यति, सुखिता भवति, विप्रिय वढति, सभोगे सुख न वाछति ।
"
४५ - द्वाविंशति कामिनीना विकारेगितानि - सानुगग
निरीक्षण, श्रवण
सयमन, अगुलीस्फोटन, मुद्रिका कर्पण, नूपरोत्कर्षण, गुप्ताग दर्शन, सख्यासह हसन, भूपणोद्घाटन, कर्णमोटनं, क कडूयन, केश प्रक्षरणं, पुष्प सयमन, नत्र विलेपन, वाससजन, परिधान सयमन, मुख विनृ भिण, बाल चुम्बन, प्रिय भाषण, अतिक्रान्त प्रेक्षणं, ग्रहणं, गुणव्यावर्णनम् ।
४६ - चतुर्विंशति सतीना लक्षणानि -द्वार देशे शायिनी, पश्चादवलोकिनी, पुंश्चली सखी, भोगिनी, गोष्टिप्रिया, राजमार्गाश्रिता, पति द्वेपिणी, पति रहिता, हीनाग भार्या, बन्ध्या, मृतापत्या, बहु देवरालिपिनी, बहु देवतार्चना, विनोदकारिणी, भोगार्थिनी, प्रति मानिनी, कृत्रिम लज्जान्विता, परप्रीतिरता, वृद्ध भार्या, सतत हास्या प्रोषितभर्तृका, लोभान्विता, बहुभाषिणी, क्रीडानष्टचर्या । लवोष्टी
गना,
४७ - षोडश दुष्ट स्त्रीणा ग्रपलक्षणानि - पिंगाक्षी, कूप खरालापी, ऊद्ध केशी, दीर्घ ललाटी, सहितभू, पुष्पितनखी, प्रविरल दशना, प्रतिदीर्घा, अतीव वामनी, ग्रतीव स्थूला, अतीव गौरा, श्रतीव श्रतीव कृशा, प्रलबोदरी |
कृष्णा,
४= -- अष्टौ स्त्रीणां श्रभिसारिकाणिभत्तु स्वैरिता, पुरुषार्थिनी, प्रणतगोष्टी निरंकुशा, विदेशवासी, पुश्चली, पतिरीयदोप |
F
निश्वासोद्वसन परोक्षेनाम
४६ - अष्टौ नार्यो अगम्या स्वगोत्रजा, राजपत्नी, मित्रपत्नी, वर्णाधिका, अशा, पूजिता, कुमारी, गुरुपत्नी ।
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( १२ ) ५. अष्टविघो मूर्ख-निर्लज्ज, शठ, क्लीव, निघृण, व्यसनी, अतिलोभी,
गर्वित, निष्ठुर। ५१-चतुर्विशति-विधं नागरिक वर्चनम्-नगरे सस्थान, प्रसन्नोदक भवन, प्रच्छन्न
महानत, गुप्तकार्य चिकित्सा स्थानं, निकटे नेपथ्यमंडप, विभक्त वास भवन, नेपथ्योपकार प्राचुर्य, गृहोपकरण बाहुल्य, शय्यासन रम्यत्वं, वाछित परिजन, पार्थे प्रविशान स्थानं, मध्ये स्थान पीठ, प्रभाते व्यायाम विधानं, मध्यान्हे भोजन विधान, नित्यमेव विद्याभ्यासनं । कुलोचित विधिना वर्त्तन । प्रटोपे गीतादि विनोद विधानं, निशाया स्वदारा सुरतं, कदाचित् गोटी रम्यत्वं, कदाचित् पात्र प्रेक्षणं, कदाचित् विद्या नवनव गमनम्,
सदैव ऋतु समुचितो भोग । ५२-त्रिविधं रूपं सम्पूर्ण लक्षणावयवं, असंपूर्ण लक्षणावयवं, निलक्षणं । ५:-त्रिविधं स्वरूप-मुग्ध स्वभाव, मुखर, चतुर । ५४-द्वादश विध प्रमोदोपचार-रूपस्विनीना रम्योपचारेण, भीरूणामास्वा
सनेन, चपलाना गाभीर्येण, पडिताना सत्येन, प्रजावतां कलाभिः, शृङ्गारिणा सुवेषतया, विनोदशीलाना क्रीडनेन, हीन सत्वाना कारुण्येन, शठ स्वावानां शाव्य'न, निर्विकल्पाना सुकुमार प्रयोगेन, बालाना भव प्रदा.
नेन, धूर्ताना शध्येन। ५५-पचविधः परिचय-प्रसिद्धि ख्यापन, दर्शनेनावर्जनम् , सभाष माधुयं,
वांछितोपचार प्रयुंजन, विकारसूचनं । ५६-दश पुन्याः स्त्रीणां अनिष्टा भवंति-कुरूप, निर्लज्ज, अभिमानी, असंवन
प्रलापी, संकुचितशायी, निष्ठुर, कृपण, शौचहीन, मूर्ख, क्रोधी। ५७ दशभिः कारणत्रियो विरज्यने-जानता, अभिमान विलेपता, निष्ठुरता,
टन्द्रिता, अति प्रनयता, क्रूर व्यमनता, भोगहीनता, अति प्रसंगता,
सोभाग्यहीनता, अनोचित्यता । ५८-त्रिमि. कामिन्यः सबध्यते-अर्थतः, कामत'. मुकमारोपचारतः । ५६-समविध कानुकाना क्रीडारभ-क्रीडा पात्राणि, भोजनाद्युपचार, विले
- पनाति, धूपनानि, ताबूलादिना. पुष्पादिमाल्यानि, हास्यादि मर्माणि । ६० अष्टविध चटग्धाना मुरतं-प्रालिगर्न, चुम्बन, घावन, केश धारणं, रग
संप्रेशन, शरीराटि कजनं, नव वर्शन, कुन । ६१-नवनि मुस्वायनानं यत्राटि नयमन. पार्श्व पाचमनं, तांब्लाटि
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ग्रहणं, फलादि भक्षण, पान भोज्यादि विधान, क्रीडा पात्र प्रवेश
सुभाषित जल्पं, सानुराग प्रेक्षणं, मनोवाछित विनोदः । ६२-नव शयन गुणाः-अनग्नशायी, मृदु गात्रशायी, प्रसारित गात्रशायी,
सोम्यावयव, अनुशयन, नात्यर्थान प्रात, अशन्ट सन्मुखः । ६३-दशविध पार्थिवानां प्रमोद
ज्ञाने दाने बले राज्ये, विनोदे वैर निग्रहे ।
शौर्ये धर्मे सुखे शौचे, प्रमोदो दशधा मतः ॥ ६४-चतुर्विधः प्रबोध'-शास्त्र प्रबोध, प्रज्ञा प्रबोध, तत्त्वनिश्चय प्रबोध,
'स्वभाव प्रबोधः । ६५-चतुर्विधा बुद्धि -स्वभावनाता, श्रुतोत्पादिता, कर्मजाता, पारिणामिकी । ६६---अष्टौ बुद्धिगुणा
शुश्रुषा श्रवणं चैव, ग्रहण धारणं तथा ।
ऊहापोहो च विज्ञानं, तत्वज्ञानच धी गुणाः ।। ६७-चतुर्विध गंधर्व अवधान गतं, स्वरगतं, पद गतं, तालगत | ६८-त्रिविध गीतं-महागीत, अनुगीतं, अपगीतं । ६६-घट्त्रिंशद् गीत गुणा :-सुस्वरं, सुताल, सुपदं, शुद्ध ललित, सुबंध,
सुप्रमेय, सुराग, सुरसं, सम सदार्थ, सुग्रह, श्लिष्ट, क्रमस्थं, सुमयक सुवर्ण, सुग्क्त, संपूर्ण, सालंकार, सुभाषाढ्या, सुगधस्थ, व्युत्पन्नं मधुरं, स्फुटं, सुप्रभ पसन्नं, अग्राम्यं, कवित्कंपितं, समजात रौद्र गीतं, श्रोजः सगतं,
दशन स्थितं, सुखस्थापक, हतसंविलषित, मध्य प्रमाणं । ७०-चतुर्विधं वाद्यं-ततं, वितत, घन, शुषिरं । ७१-षोडशधा नृत्योपचार कारस्मानि-कंपितं १ समं २, आयतं ३ रौद्रं ४
संगतं ५, प्रसन्नं ६. हसुतृप्ति ७, द्रुतं ८, मध्यं ६, विलंबितं १०, गुरुत्वं
११, प्राजलित्वं १२, सुप्रमाणं १३, कर शुद्घ १४, निर्दोष १५ चेति ।। , मुखस्थापनं १६ । ७२-- पंडशविध वाक्य-समय, प्रतिभा, अभ्यास, विद्या, जाति, गीति, रीति,
वृत्ति वात्सल्यं, पाचक, छंद, अलकार, गुण, दोष, रसभाक, अभिनय । ७३-दशविघं वक्त त्वं-परिभावितं, सत्यं, मधुरं, सार्थकं, परिस्फुटं, परिमित,
मनोहरं, विचित्र, प्रसन्नं, भावानुगतं । ७४-पटविध भाषा लक्षणं-संस्कृतं, प्राकृतं, अपभ्रशं, पैशाचिकं ,मागध,
सौरसेनं।
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( १४ )
७५ -पंचविवं पाण्डित्यं-वक्तव, कवित्व, वादित्वं, आगमिकन्य, सारस्वत प्रमाणं । ७६-चतुर्विंशति विधं बादलक्षणं-उत्पत्ति, सभापति, मत्यवादि, प्रतिवादि,
पक्ष, प्रतिपक्ष, प्रमाण, प्रमेय, प्रश्न, प्रत्युत्तर, दूपण, भूपण, अर्थान्तर, उपन्यास, अनुवाद, आदेश, निर्वाह, निर्णय, निश्चय, न्यान, समता,
निग्रह, जय, अजय । ७७-घट दर्शनानि-माहेश्वर, ब्राझ्य, साख्यं, बौद्ध, जैन, चार्वाकम् । ७८-अष्टविध माहेश्वर-नैयायिक, वैशेषिक, शिवपर्म, शैव, कलामुन्य पाशुपन,
महात्र हैनिक, मुक्ति पयंत । ७६-टशविवं ब्राह्मय-लक्षण, प्रमाण, तस्कार, कर्म. वर्तन, ब्रह्मचारी, गृहस्थ,
वानप्रस्थ, यति, ब्रह्म पर्यन्त । ८०-चतुर्विध साख्य-तत्व, प्रमाण, प्रकार, प्रभेट, प्रमोदपर्यन्त, सर्वात्मपर्यन्त । ८१-सप्त विधं जैन-सर्वज्ञ वर्म, तत्वार्थ, प्रमाण, प्रतिमा, प्रभेद, सिद्धिपर्यन्त । ८२-टश विध बौद्ध-पावासिकम, पद, पारिगत, विहार, प्रमाण, मत्रांतिक,
त्रैमाविक, योगाचार, माव्यमिक, मोक्षपर्यन्त । ८३-चतुर्विध चार्वाक-तत्वार्थ, प्रमाण, प्रभेद, प्रमोद पर्यन्त । ८४-चतुर्विंशति विधं विचारकत्व-विद्या, विनोट, विज्ञान, कला, कवित्व
वक्तृत्व, गीत, वाद्य, नृत्य, देश, काल, पात्र, प्रमेय, पर्याय, जय, रस,भाव
अभिनय, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, लोकवाद, विचार पर्यन्त । ८५-टश विधं गुरुत्वं
वशे ज्ञाने पक्षे सत्वे शौर्ये दाने बले जये।
मंताने सगुणे चेति गुरुत्व दशधा मत || ८६-च चरितं-जान चरित, मान चरितं, दान चरित, वीरविलास चरितं,
धर्मारभ चरितं । ८७-पंचविध पार्थिवाना पालनं-राज्यपालनं, प्रजापालन, भूमिपालनं, धर्म
पालन, शरीर पालन । प-सप्तविध उत्तमत्त्व-वय, कुल, रूप, शील, पट, ज्ञान, प्रयोग पर्यंतचेति । ८९-नवविधाशक्ति-धर्मशक्ति, दानशक्ति, मंत्रशक्ति, ज्ञानशक्ति, अर्थशक्ति
कामशक्ति, युद्धशक्ति, व्यायामशक्ति, भोजनशक्ति । १०-सप्तविधा भुक्ति-शब्द, सर्श, रूप, रस, गंध, अभिमान, देश । ६१-अष्टविध अभिमान लक्षण-ज्ञाने, धर्म, अर्थ, कामे, बले। .
शत्रुघाते, समारभे स्थितं च ।
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( १५ ) ६२-चतुर्विध वात्सल्यं-देवानां सद्गुरूणाव, मत्राणा वल्लभे जने ।
स्नेहेन मानस पच्च, तद्वात्सल्यं चतुर्विधं ।। ६३-पंचविधो महोत्सवः-१ ज्ञान महोत्सव, २ अर्थ महोत्सव, ३ काम महोत्सव,
४ धर्म महोत्सव, ५ मोक्षमहोत्सव ।। ६४-~सप्त विधा प्राप्ति-जाने धर्मे बले कामे विज्ञाने पात्र सग्रहे ।
महार्थे भूभुजां नित्यं, प्राप्तिः सप्तविधा मता ।। ६५ -चतुर्विंशति-विध शौर्य-शब्द शौर्य, प्रतापशौर्य, दान, स्थान, उदय, तेज,
सग्राम, प्रतिपन्न, जय, मान, ज्ञान, साहस, शरणागत, परिबोध, प्रमोद,
उद्यम, अर्थ, आचार, बल, कीर्ति, लक्षण, गुण, जान मान । ६६-दशबिध बल-वाक्काय बुद्धि-मत्रैश्च, स्थान सैन्य मुद्दज्जनै ।
निद्राहारैर, दयाश्चेति, राजा दशविधो जयः ।। ६७-दशविध सग्रहः-ज्ञाने पात्रे गुणे सौर पत्नीयोगे बाल धर्मे जये गुणेषु श्रत
सग्रहः ॥ ९८-पचविध प्रभुत्व-कुल प्रभुत्व, दान ज्ञान प्रभुत्व, प्रभुत्वं, स्थान प्रभुत्वं,
अभय प्रभुत्वं । इति श्रीरत्नकोश सूत्रशत व्याख्यान समाप्त || पं०
सुखनिधानमुनिनालेखि ६६-अष्टविधोजय-१ शत्रुजय, २ मानजय, ३ वादजय, ४ आहारनय, कर्म
जय, ६ क्रोधजय, ७ भूमिजय,८ यानजय ।
वृहत्ज्ञान भडार की प्रति में अधिक। १-०-अष्टविधोभोग-सुगंध वनिता वस्त्र गीत ताबूल भोजन ।
श्राभग्ण मंदिरं चैव अष्टौ भोगा प्रकीर्तिता ॥ १०१-षोडश श गारा-पाटौ मज्जन चारुचीर तिलक नेत्रांजन कुंडल।
नासामौक्तिक पुष्पमाल कु डल, शृंगार कृनूपुरं । अगे चंदनलेप कचुकमणी क्षुद्रावली घटिका ।
तावूलं करकंकणं चतुरता शृंगारका. पोडश ।। १०२-पडविधपरिच्छेद-प्राकार्य परिच्छेद, पाप, दुख, कर्म, भुक्ति, लोभ । १०३- चतुर्दश विद्या नाम-नाट, वेद, पवित, गणित, गुणित, व्याख्यान, ग्यान,
ध्यान, शत्र, शास्त्र, कामिनिनां चरित्र, भेषज, चडीस, सर्व चरित्र,
सर्व विद्याना। १०४ चतुर्विधा गति-नरग गति, तिथंच गति, देव गति, मनुष्य गति।
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पाठ भेद की टिप्पणियाँ १ अतिरिक्त नाम तथा पाठान्तर-पृ० ७-(चुतुर्विंशति देशा) (२०)
काशी, कर्णाट, गोला, साड्वल, लाम, पुंड, उद्दड, विहार, उड्डीस लोहित, जालंधर, मरुस्थल, माल, सपादलक्ष, टक, महाभोज, चीण, महाचीण, तुरुष्क, नायक, वरदेव, संख, सहज, चित्रकूट, दक्षिण, चौडु, तिलंग, द्रविड़ ।
पृ. ८ (२१)द्वात्रिश लक्षणानि-अतिरिक्त नाम तथा पाठान्तर
तनु, वैद्य, नृत्य, रूप, जोतिर् , सर्प, वृष ।
पृ८, चतुर्विशति विध गृह-
सौध, काडास्थान ।
(२२)
पृ. ६ अष्टोतर शव मंगला नि- (२३)
निन, रुद्र, बुध, तीर्थ, देवपुराण, तांबूल, शौचन, पठस्थान, तिलक, वेद, अश्वत्य, उन्मत्तफल, वेणु, स्वस्तिक, वोमर, चापा, स्तुति, गोष्टान बुद्धि, सिद्धि, विद्रुम, कुसुम, किंकिणी, आभरण, अलकतक, कुकम
सिन्धु, रिद्धि, सिद्धि, प्राति । पृ. ६. स २४
२ उचित दान, भक्तिदान पृ. ६. सं. २५
१ बन रंजन पृ. ६ सं २६ -
१ वृद्धजनकार्ति, वर्णकीर्ति, शौर्य कीर्ति, पृ.६ सं २७ -
कंग, दौर्मन, स्यक्तिा, धृति, विलक्षणता, विक्क, अनुरस्ति
त्रास, प्रवासिक। पृ. १० सं ३.
(१) सात्वती। पृ.१. सं. ३३
सतुट, क्रीडावान, सत्यप्रिय, सुजन, सुगंधर्व, महोत्तम,सुपात्र, संग्राही ।
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( १७ ) पृ. १०. सं. ३५
१ वासक सय्या, विवाहोत्कंठिता पृ १०. स ३६
सुनेत्रा, स्वच्छाशया, सुखाशया, भोगिनी, विचक्षणा, पठितज्ञा, कृवशा,
सुगंधत्वासा, शोभावती, विनयवती, गूढार्थमंत्रा । पृ १०. स. ३७
द्विविधिं सौख्य-श्रागिक, मानसिकं । पृ. १० स. ३८
विषयकारणं, मुक्तिकारण । पृ ११ सं ३६.
नव विधोगात्रोपभोग
सुगध, अधिवास, सुखासन, सुवस्त्र, अलकार । पृ. १०. सं० ४०
श्रय द्विविधिम् शौचम् -
स्मश्रु शौचम् , मृतिका शौचम् । पृ १० सं० ४२
उत्कठा, ऊर्ध्वप्रलाप, उन्मत्त । पृ. ११ स० ४४-- ४४-अर्थनिरापेक्षणी, दर्शने प्रसन्नानभवति, तिर्यकमुख कुरुते, अर्थ न भावयते। ४५-स्वकामजल्यन, अग्रावलोकन, सदाप्रसन्नता, मुद्रीकर्षणं, हृदयोत्कर्षणं केश
रचनं, पुष्पारोपण, विलासपठनं, बालालिंगनम् , विरोफेनाम कीर्तन । ४६-पति कलहकारिणी, जनसकुलस्थायिनी, त्यक्तलजा, वृद्घभार्या, चंचला,
रात्रीभ्रमणशीला, कृत्रिम तपा, पाखंड लज्जाकारिणी। ४७ -घर्घरालवापा, स्थूलोटरा, मिलित भ्र । ४८-अविश्वासकारणानि-दीर्घगोष्टी, अविवेका, विवस्त्रा अतिदुष्टा, अतिकोपना। ४६ रजस्वला । प्रवाजिका। पृ १२ सं० ५०५०-अप्रस्तावज्ञ, अन्यात्पंथ , कुव्यसनी, स्वार्थवशा, स्वमर्मप्रकाशक, कोक
व्यवहार अनभिज्ञ, कुपठित, कुबुद्धि अकलाश। . ५१-दोष प्रच्छादनं, सुवेशता, परचित्तज्ञावृत्ति, परिग्रहगमन परा, उदारता
शुद्धाशय, सतोषता मित्रवर्गवा, पार्वेवास, भवन-सस्थानं, प्रभुविद्यापना, प्रदोषाधर्म, गोत्राभिधानं, निशायासुरतोपचार । २ ।
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( १८ )
५१- द्विविधं रूप-सन्दूरवर्ण लक्षण, वयः सस्थाना । ५३-सदभाव । ५४--स्वस्वरूपेण, राज्ञामुपचारेण, भीरणा रक्षणेन, पडिताना काव्येन, दीनानाम
कारुण्येन, पडिताना वक्रोक्ता, मानीना नम्रत्वेन, महात्माना धर्मेण । ५५-तिथि प्रत्याख्यापन, अनुरागपोषण, सतोषोत्सादनम् , वाछित विनोटः । ५६-कृतघ्न, अतिमानी, शौचहीन, सुरतानभिज्ञ । ५७ - सरोगता, अतिमानी, अवलोकता, अतिमगता, अतिक्तता। ५८-त्रिभिः कारणैः स्त्रियो रज्यते-छद्रानुवर्तनेन, सुरताप्र गल्भेन, सौभाग्येन । ५६-पापेन । ६.-भगानिन्यसन, सक्कणिच । ६१--इत्तुरसादि भक्षण, गीतकाभरणं, मग्रहहट । ६२-प्रोकल राापी, पाश्वशायो, निश्च लागशायी। ६३ वैििणजये, वृद्धो। ६४-शृङ्गाराणि काम प्रत्रोध, योगिनां जान, बालानों शान्त, महात्मानाच
निणय प्रबोध । ६५-उत्पातिका । ६६-अवधारण, निरीक्षण । ६७-स्त्रगीत, तालगीत । । चतुर्विधगीत ) ६८-त्रिविध गाधर्व-तार, मद्र, मध्य । ६६७०-पानद्धं । ७१-घोडशधारणमुपचारम्-सुधृति । ७२-प्रतिना, अविद्या, सुविद्या, ध्वनिलक्षण, सरस । ७५-~-शास्त्रसस्कार, प्रौढता। - - ७६-प्रतिपत्ति, सम्प, प्रमेद, उत्तर, अतीत, अत्यन्त, अनुत्पाद, अभेद, विस्मय,
निग्रहस्थान, पराजय, जयपात्र । ७.ब्रह्मचर्य । ७६-मोह, यज्ञ, मुल, भिक्षु । ८०-दशविंशति तत्र ज्ञानानि, पात्र लिनतं, शिवाराधन, प्राति पुरुष सबधनम् । ८१-जीव, अजीव, पुए !, पाप, बंध, मोक्ष, निर्जरा । ८२-त्रिविधं बौद्धं- ।
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( १६ )
८३-गोरववसतान, वज्रोलि, फौलाल, ब्रह्मज्ञानी । ८४-गुणप्रकृति, सदभाव । ८५-ऐश्वर्य । ८७-पंचविधं पार्थिवाना पालनं । परिवार पालनं, अर्थपालनं, ८८-प्रियालापं, अर्थभाषणं, स्वपरार्थकः, अविकथनम्। परदारवर्जनं, कृतज्ञता,
परलोक चिंता। ६०-आहार भुक्ति, शृंगार मुक्ति, द्रव्य, काम, परिवार, प्रभुत्व । ६१-अष्टविध अपमान लक्षणं-१ शुद्ध परगुण-श्लाघा-विमुख, २ यात्म
बहुमानी, ३ असूया, ४ पर निंदा, ५ परविनय विकल ६ कठोर भाषी,
श्रात्म प्रशसाप्रिय । ६२-मित्राणां, मातृपितृणां, प्रतिस्नेहन, मानसशय, वात्सल्यं । ६४-दान, भोमेविज्ञाने । सर्वज्ञत्वे, नरेन्द्रत्वे । ६५---शास्त्र, उदात्त, कुल, विवेक, उद्भट, विद्या, सौभाग्य, वास, दान, सप,
वाट, बुद्धि, वाक, मान, सत्य । ६६-धैर्य, बुद्धि, अवधारण, अभ्यास, शरीर, दैव, मत्र, साहस, दातृ, परिवार । १७-शास्त्र, धर्म, सत्पुरुष, धन, स्त्री, चतुष्पट, वाहन, कला, पात्र, सुभाषित,
उत्तम संग्रह। ६८-नागरिक प्रभुत्वं, डिम्भ, इंद्रिय, दर्शन, मानप्रभुत्व ।
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परिशिष्ट (२) सभा-शृंगारादि वर्णन-संग्रह
यावन-परिपाट्यनुकृत्या
राजरीति-निरूपण नाम शतकम् हजूर के अहल खिदमत कारखाने परगनाती श्रोधादार के लक्षण गोपीवल्लभ पादाब्जं द्वंद्वमाधाय चेतसि । वच्मि राजविधि म्लेच्छपरिभाषानुकल्पितम् ॥ १॥ क्वचिद्रढे क्वचिकोशाक्वचित्स्वानुभवात् पुन. नाम लक्षण सस्थेयमधिकाधिकारिणाम् ॥ २ ॥
आजा भवेद्यदायत्ता हस्तलेखश्च भूपतेः जानीहि त प्रतिनिधि राज्य सर्वस्वधर्वह ॥ ३॥ .
वकील मुतलक नायब मुसाहिब आय-द्वाराधिकारा.. स्युर्यदायत्ता महीभुज. अमात्यं मंत्रिणं विधि प्रधान सचिवत्वत ॥ ४ ॥
वजीर प्रधान दीवान भटानामग्रयायित्वं
वेतन-ह्रास वृद्धय परिवृत्तिश्च यत्रा सेनापतिममुं विदुः ॥ ५ ॥
बकसी कार्यापेक्षाणि वस्तूनि शालाकृत्यानि भूपतेः यदायत्तानि सर्वाणि शालापतिममुं विदु. ॥ ६ ॥
मीरसामान खानसामान कोठारी संदेश-कर्म यः कुर्याद्रानः प्रतिनृपेषु वै भत्रिष्ट-साधनोद्युक्तं तं दूत विबुधा विदुः ॥ ७ ॥
एलची वकील पत्राणि प्रति-पत्राणि लिखेद्योहि नृपाशया सुलेखकं विजानीयाद्राज मंत्र-निकेतनम् ॥८॥
मुनशी
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( २१ ) नृपे निवेद्य वृत्तानां निष्कारण-निवेदकः वैत्रिवर्गस्य योध्यक्ष स विज्ञापक इष्यते ॥ ६ ॥ =अरजवेगी यदधीनानि कर्माणि पुण्य-हेतूनि भूपते. दानाध्यक्ष विजानीयाछांति-र्म पुरोधसं ॥१०॥ =सदर योवरोधस्य कृत्यानि गुह्यादीनि विचेष्टते महत्तर विजानीयात्त प्रतीत जितेन्द्रियम् ॥ ११ ॥ -नानिर अमि-यंत्राणि सर्वाणि तन्नियुक्ता भटादय. यदायत्ता भवेयुः सोनलाध्यक्ष प्रकीर्तितः ॥१२॥
=मीर आतस तोपखाने का दारोगा नदी सरस्तडागादिष्वपारोघश्च मोचनम् नावादीना च यत्र जलाव्यक्ष प्रकीर्तितः ॥१३॥ दुर्ग-मन्दिर-वाप्याटि-सस्कृती निर्मतौ च य. नियुक्तो वास्तुकः सोयं शिल्पशास्त्रविशारदः ॥१४॥ -मीर इमारत् अनाथ वा सनाथं वा गृहाद्य यन्नियोगतः गृह्यते टीयते चापि स ायतनिकः स्मृतः ॥१५॥ =नजूल का दरोगा याराम वाटिकाटीना संस्कारं यः प्रवर्तयेत् उद्यानपालो विज्ञेयः स मालाकार-नायकः ॥१६॥ बागात का दारोगा खग-खेटासि-तूणीरश्चापि कुतादित चराः । मगलानि च सर्वाणि शस्त्राध्यक्ष-नियोगतः ॥१७॥
कोरवेगी,
___= सिलाहखाने का दारोगा जल-स्थल-प्रचाराणा मृगया प्राणधारिणा । यत्-तत्रा तन्नियुक्ताश्च वैतंसिक इति स्मृतः ॥१८॥
= करावल वेगी, शिकारखाने का दारोगा विहगाना विचित्राणां मृगया प्राणधारिणा । यात्रा तन्नियुक्ताश्च विहगाध्यक्ष इप्यते ॥१६॥ = कोशवेगी यदधीनानि वित्तानि श्रीगृहेषु महीभुनः भाण्डागारिणमनं तु निधिपालमवैहि वा ॥२०॥ . = खजानची, भडारी चारानीता प्रवृत्तियस्तदध्यक्षो निवेदयत् प्रवृत्ति-वादुको-राशि प्रत्यनीकाटि-सम्भवा ।।२१।। = हरकारों का टरोगा जनानां यो विसवाद, प्रपन्नाना नृपान्तिकं विवेचयेत्सुनीतिज्ञो न्यायाध्यक्षः प्रकीर्तितः ॥२२।। =अदालत का दरोगा
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( २२ ) चौर-जाराटि दुष्कृत्यकारिणां निग्रहे परः पुररक्षा-समादिष्ट. स वै नगर-गौप्तिकः ॥२३॥ = कोटवाल पुरस्योपांत सीमानं रक्षयेद्योहि विघ्नतः सीमा-रक्षकमेनं तु प्रवदति विपश्चितः ||२४|| = फौजदार श्राचार-व्यवहारेषु प्रायश्चित्तेषु यो जनान् प्रवर्तयेन्मान्यतमो धर्माध्यक्ष प्रकीर्तितः ॥२५॥ = काजी धर्माध्यक्ष-वचः श्रुत्वा श्रुति-स्मृति निरूपित देशकालोचित दडमादिशेत्स प्रवर्तकः ॥२६॥
= मुफती यो हि कूट-तुला-मान-सुरा-चूत-पणांगना. बहिर्दश्याः निराकुर्यात्तीति दृश्वा स कीर्त्यते ॥२७॥ = मुहतसिव दुर्गाणामति-दुर्गाणां भवनाना च भूपतेः रक्षा-विधि-समादिष्टो दुर्गपाल. प्रकीर्तितः ॥२८॥ = किलादार स्कंधावार-निवेशं वा पण-श्रेणी निवेशनं चमूना चापि निर्याण कुर्यात्म स्कघ-याचिक ॥ २६ ॥ = मीरमजिल स्थाने याने च राजोये जनान् सीम्नि नियोजयेत् सोयं पथकराध्यक्षः कथ्यते नीति-कोविदः ॥३०॥ = मीरतुजक भटाटीना गणो यस्य साहचार्ये नियुज्यते राजा स्वाथवृत्तिस्तं ब्रवीमो गण-नायकम् ॥३१॥ = रिसालेदार चतुर्विधं वलं यस्य स्वाधीनं टंडनायक इत्यादयो हि बहवो मध्य-पर्षद्-गता जनाः ॥३२॥ = अमीरठाकुर पीठ-मर्दा अंग-रक्षाः किकराश्चटकास्तथा विदूषका श्रमी अते वासिनोभ्यंतराश्रयाः ॥३३॥ वेत्र-शस्त्र-भृतो ये च शाला सु परिचारका बाह्याधिकारिणो ये च ते बाह्यस्थाः प्रकीर्तिता ॥३४॥
अथ शाला-भेदाः
मचा संस्तरणाद्य च यत्र तत्परिचारकाः शय्यागारं विनिर्दिष्ट राजरीति-विशारदैः ॥३५॥=सुखसेजखाना १ अभ्यंगनोद्वर्तनानि सचरोपस्करं जलं पत्र तन्मजन-गृहं राजरीतिन-भाषया ॥३६॥ गुसलखाना, हम्माम २ इष्टदेव-प्रतिकृतिः पूना भाडानि मालिकाः
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( २३ ) विष्टराद्यं यत्रास्ते तद्देवायतनं विदुः ॥३७॥जसबीहखाना ३ नाना ग्रन्थ समं पृष्ठेर्वेष्टनबंधनैर्गुणै पीटः फलक कर्त्तर्या ध्रियते पुस्तकालये ॥३८॥=कितावखाना ४ देव-भूपादि चित्राणि रेखा-वर्ण-कृतानि वा ध्रियते शिल्पिनश्चैपा चित्रागारं तदुच्यते ||६६||-तसबीरखाना ५ . श्रोषध्यो विविधा यत्रावलेहाद्याश्च पुष्टये भैषज्य-गृहमाख्यातं सभिषक्परिचारक ॥४०॥ =दवाईखाना ६ मृद्वी दाडिम-खजूर-नारंगाम्र-पलाटय. मंचीयते च यत्नेन फलागारे नियोगिभिः ॥४१॥ मेवाखाना ७ खातकोष्टक पल्याटी ध्रयते धान्यराशय. कोठागार तदेवोक्त राजनीति-विशारदै. ॥४२॥ अवार कोठार जखीरा ८ धान्य पण्येन्धनाद्य तु यथापेक्ष प्रगृह्यते यती महौषधी शाला बहुस्थानेषु कल्पिता ॥४३॥-मोटीखाना ६ धात्वादि-मय-भाडानि पाक यग्यानुयन्तवै वियते कुप्यशाला सा रक्षकैमाजिकै सह ॥४४॥रिकाबखाना १० निर्मायते च भाडानि सस्कृते च शिल्पिभि. काम्यागारं तु तत्प्रोक्तं राजरीति-विशारदैः ॥४५॥ =ठठेरखाना ११ पेय लेां चोप्य खाद्यमन्न गोरमः व्यजन पिशित त्रेधा सस्क्रियेत महानसे ||४६ बबीखाना, रसौड़ा १२ हिम जल विविध तद्भाएई धातु मृन्मयं कहारकै रक्षकैश्च सगृह्येत पयोगृहे ॥४७॥ अाबदारखाना, पाणेरो १३ पत्र पूग लवगैला कर्पूराद्यास्य-शुद्धये रक्ष्यते तन्नियोगामस्ताबूल-गृहमीरितं ॥४८॥ = तंबोल खाना १४ टीन दुर्बल रंकात भिक्षु पग्वधरोगिषु । दीयते कृपया भक्त स प्रतिश्रय ईरितः ।।४६ बिलगोरखाना १५ यत्र वस्त्रादि मूल्यानि निणीयते नियोगिभिः मूल्यकारैश्च विक्रेता क्रयशाला प्रकीर्तिता ॥५०॥ इवतियाखाना १६ यत्र वस्त्राणि च्छिद्यते सीव्यते चापि शिल्पिभिः सीवनागारमेतत्तु सूचीघर-समन्वितं ॥५१॥ किरकिराफखाना १७ रेखाकित-प्रगुणित धौतं रक्त च धूपितम् वास सुगधित सज्ज नेपथ्यागार इष्यते ॥५२|| तोशकखाना, कपडदारा १८
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( २४ )
पाटीरागुरु-काश्मीर कस्तूरी प्रभृतीनि वै निस्यदाश्च प्रसूताना सुगधागार ईरिता ॥५३॥ =खुशबोईखाना, सोधेखाना१६ वर्णा नाना-विधायत्र चित्र-मुद्राश्च शिल्पिनः संस्कारार्थ च वस्त्रादेर वर्णागार तदिष्यते ॥ ५४ || = रंगखाना २० हिरण्य घटना यत्र जटना रत्न-निर्मिता तत्कलाद-गृहं प्रोक्तं राजरीति-विशारदैः ।। ५५ ॥ जरगरखाना २१ रत्नमुक्ता-मणि शिला-प्रवालस्फटिकादिकं भिन्न युक्त च धार्येत रत्नागार तटीरितं ।। ५६ ॥ जवाहिरखाना २२ शस्त्राण्यत्राणि वा यत्र कवचावरणानि वा ध्रियते स प्रहरण कोशः सुधीमिरीरितः ॥५७॥-कोरखाना, सिलहखाना २३ तूलिकास्तरणा चैवोपघानं शिविरादिकं यत्र तत्सस्तर गृहं कथ्यते नीति-कोविदः ॥ ५८ ॥-फराशखाना २४ हिरण्यानि सुवर्णानि धृतानि व्यापृतानि वा प्राये व्यये प्रयुक्तानि श्रीगृहं तत्प्रकीर्तितं ॥५६॥ खजाना, भंडार २ सद्यो दानोपयोगीनि कर्षाणि किल भूपतेः ध्रियते दान कोशः स विज्ञ यो नीतिकोविद ॥६० ॥ = बिहला ६६ मंदुरात्वश्वशाला स्यात् पलाणो पक्खरैः समं शिक्षकै. शालिहोत्रः पटकैर्धारकैर्युता ॥६१॥ अस्तबल, तवेला २७ गल-शाला तु चतुरं कुटी कुडादि शालिनी यतृभिः पालकाप्यज्ञैः कशकुंतादिमृद्गणैः ॥६२ फीलखाना २८ सदानिन्युष्ट्र शाला च यान-शाला च कीर्तिता पालकागारमेतत्तु यत्र स्याच्छिविकादिक ॥६३॥
___ गावखाना २६, शुतरखाना ३०, रथखाना ३१, पालकीखाना ३२ दारु-निर्माण साध्यानि क्रियन्ते यत्र शिल्पिभिः दारकालयं विद्धि तदावेशनमुच्यते ॥६४॥ खातिमवंटखाना ३३ ध वसा-मदन-तूलानां वृत्तयो दीपवृष्टयः स्यालो-पंजर पात्राद्यैरन्वितं दीपकालयं ॥६५॥= मै चिरागखाना ३४ एकद्वित्रि-चतुः-पच-दश-विशति-शाखिकाः अभ्यक्ताबर-बृत्यादया यत्र-तन्ज्योतिरालयं ॥६६॥-मसालखाना ३५ श्राय-व्ययाटि लेखा. त्युर्मशीपात्राणि लेखिनी लेखकाः बंधका यत्र लेखशाला प्रकीर्तिता ॥६७॥ दफतरखाना ३६
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( २५ ) मृगाश्चित्रकाश्चापि लुलाया मृगया कृते भवति मृगयागारं वैतंसिकगणैर्युतं ॥६८ शिकारखाना ३७ वज्र तुंडा लोह-तुंडाः श्येना उपरिचारिणः धार्यते मृगया-हेतोस्तद्धि शाकुनिकालय ॥६६॥=कोशखाना इत्यादयो घनेके स्युरागाराइह भूभुजा शालात्वावश्यकी प्रोक्ता क्रीडार्थ मुपशालिकाः ॥७०| उद्देशकः स्थापनिको लेखकोधिकृ तात्रय प्रतिशालामवश्यं स्युरपरे मूल्य कृन्मुखा ||७१।। नृपाज्ञप्तं दिशेत्कार्य शाला परिजनेषु यः उद्देशकः स तस्यान लेखको यो लिखेत्स्वयम् ।।७२।। दारोगा, मुश्रिफ सगृहीयात्स्थापनिकैः (तहबीलदार) मूल्यं कुर्यात् स मूल्यकृत् (मुकीम) तौलिको रत्नमानानि (वजन कश) संपाटनपरश्चरा ।।७३।। =सरबराहकार शालापतेरधीनाः स्युः सर्वशाला हि भूभृता कौत्रिकापणमेतत्तु शाला नाम कत्स्मृितम् ॥ ७४|| कारखाना श्रेणयः पुर-वास्तव्याः शालायत्ता महीभुनः नियतैक-शिल्प-निरतास्ते भक्त भृति-वेतनैः ॥७॥ कुर्यादनियता वृत्तिं श्रमसाध्यातु कर्मकृत् काहारा भारवाहाश्च तृण-काष्ठ फलाहराः ॥७६॥ क्रय-विक्रय-वृत्तियों व्यागरी कीर्त्यते जनः । द्रव्यादान-निसर्गाम्यां वृत्तिमान् व्यवहारिकः ॥७७॥ क्रय विक्रय-शीलानां मध्यस्थो मूल्य-साधक गणिम धरिमं मेयं पारीक्ष्य पण्यमुच्यते ॥७८॥ सख्या ग्राह्यं तु गणिम नालिकेरादिक यथा । धरिमं तुलया देय कर्पूरैलादि कीर्त्यते ॥ ७९ ॥ हस्तागुलादिमानेन मेयं वस्त्रादिक भवेत् । तुरगादि पारीक्ष्यं तुला-मानाटि तत्र न ॥८० ॥
अथ देश विभागस्तदधिपाश्च कथ्यन्ते समुद्र गिरिपर्यन्त-चक्री चक्री तदीश्वरः महास्तस्य विभागः स्याद्राष्ट्र ननपद च तत् ।।८१॥ सूवा तुरग • चमूचचद्राजधानी - समन्वितम् राष्ट्रस्याप्यंशभूतं तन्मण्डले मण्डलेशितुः ।।८२॥ =सिरकार
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( २६ ) मडलाशस्तु प्रगण बहु-प्रामोपवेष्टितम् तस्याधिपः स्वल्प-बलो भवेत्सामत राडिति ||३|| =परगना कृषिक्षेत्र-युतं ग्रामः (मौजे) माकरो लवणादि-भू. (मादन) वर्णेश्चतुर्भिः नगरं शैल-प्राकार-वेष्टितम् ||४|| बलदै खेटं तु धूलि प्राकार पुरमुदासि-कर्बटम् जल-स्थल-पथावाप्यं तद्रोणामुखमिप्यते ॥५॥ =चंदर परितः सार्थ-गव्यूत-ग्रामादि-परिवर्जितम् मडवं कीर्त्यते सुज्ञ रंगम्यं काननैर्घनैः ॥८६॥ विचित्रिं पण्यमागच्छेद्यत्र तत्वत्तन मतं अध्वन्यहेतु-निर्माण सन्निवेशाख्यमुच्यते ॥७॥ चौर्यादेर्वसति. पल्ली तापसाना क्लिाश्रम' निगमो वणिजामेव ब्रह्मवासो द्विजन्मनां ॥८॥ क्षुद्रग्रामं भवेद्वामोशिका द्वित्रिगृह हि तत् तृणाकीर्णोपान्त-भूमिः गोकुलं धेनु-तृप्तिकृत् ||८६| शिल्पिन. कर्मकाराश्च, व्यापारी व्यवहारिण चतुरंग-बलो राजा यत्र तद्रगमुच्चते ॥६०॥ =दयार चक्री चक्राधिप. सम्राड्राष्ट्रपालः प्रकीर्तितः मण्डलेशी महाराज सामतो विषयाधिपः ||६१॥ ग्रामाणिकतिविद्यस्य वशेसो भूमिकः स्मृतः ग्रामणिाम-मुख्य स्याद् ( चौधरी ) रीतिज्ञो देश पण्डित ॥६२॥ कानूगो राजवेत्न-टानाशान् ग्रामाप्तिं दश वार्षिकी लिखित्वा धारयेद्यस्तु लेख-संग्राहको मत. ॥६३॥ =मजमूदार
॥ अथ प्रगणाधिकारिणः॥ संपन्नां कृषिमालोक्य प्रजाया उचितां दशां राज्याशस्य विनिश्वेता कथितो व्यावसायिक ॥६४|| अमीन तेन व्यवसितं द्रव्यमाटद्याद्यः प्रजा-जनात् बलात्सौक- वापि · करोटीरक इप्यते ।।९५|| -करोडो निरुद्ध - वेतन - ग्राम - भोगमादाय भूपतौ स साक्षिक प्रेषयेद्यो निरोधक इतोष्यते ॥६६॥ =कोतल करोडी राज द्रव्य प्रजादत्तमाददीत परीक्ष्य य. घनिके निक्षिपेद्यश्चकथितः प्राप्तधारकः ।।६७|| -पोतेदार
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तेनोपकल्पित द्रव्यं व्ययी कुर्याद्यथोचितम् । शेष नृपे प्रहिणुयाद्धनिकोसौ प्रकीर्तितः ॥६॥खजानची घनाध्यक्षो धन रक्षेत् (-खजाने का दारोगा) तल्लिखेद्धन-लेखकः
(खजाने का मुश्रिफ) प्रवर्तको भटाना तु सेनानी समुदीरितः ॥६६॥ =अखशी । वृत्ति - लेखको वृत्तं लिखेद ग्रामाधिकारिणा । = बकायै निगार छिद्रमर्माणि तेषा तु विलिखेद्गुप्त लेखकः ॥१०० खुफियौनवीश शुल्काध्यक्षो ( सायर का दारोगा ) लेखकश्च ( सायर का मुश्रिफ)
धनिको ( तहबीलदार ) मीत्रयो जना शुक्लाव्व-करमादद्याल्लिखेद्रक्षेत्पृथक् पृथक् ॥१०१॥ चौगदेः ग्राम गुप्त्यर्थ ग्रामागौप्तिक इष्यते । =कोटवाल कृषि-गोप्ता कृपेमदतन् वारये कर्षकाटिकान् ॥१०२॥ =शहनै सीमागौप्तिक आरक्षेद्दीर्घा प्रगण-भूमिकाम् =फौजदार वर्माध्यक्षस्तु ग्रामात्त द्रव्य-लेखादि-साक्षिक ॥१०३।। =कानी राज्याश ग्रहणायुक्त भट लाभान् लिखेत्तु यः श्रादेश-लेखकस्तेषा वेत्नेषु च्छिन्नत्ति य. ॥१०४।। इतलायकनवीस इत्यादयोधिकारा स्युः प्रायशश्चक्रवर्तिनाम् मपत्त रनुसारेण त्वन्येषा विद्धि भूभुजाम् ॥१०५।। एषा पद्धतिराख्याता राज-रीति-बुभुत्सया गमीराद्राज-सेवाब्धेाण पाका च सिक्थवत् ॥१६॥ इति यावन परिपाट्यनुकृत्या राजरीति-निरूपण नाम शतकं
समाप्तम् ।। पं. मोतीचद्रकस्य (प्रति-जैनभवन, कलकत्ता )
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( २८ ) (२) छत्तीस कारखांना रा नाम पातशाही में । १ तालबखांनो, नठे कागद रहे । २ दफतर खानो, नठे नवसदा रहै। ३ तंबोलदार खानो, जठे पान रहै । ४ अबदरखानो, जठे पाणी रहै । ५ जुहर खानो, जठे लाल हीरा रहै। ६ पीलखानो, जठे हाथी रहै । ७ फरासखानों, जठे तवू डेरा रहै । ८ तउसाखानो, जठे घोडा रहै । ६ सराबखानो, जठे दारू रहै । १० अवारतखानो, जठे मेहलाई रहै । ११ ईलम खांनो, नठे तोग झडा रहै। १२ मवेशी खानो, जठे गोरू ढोर रहै । १३ श्रादिदासति खांनो, जठे सारी वस्तु रहै । १४ सराई महसत खांनो, जठे औरता रहै । १५ अत्राईस खानो, जहा सुघो अत्तर रहै । ६ नसटदार खानो, जहा न्हावण रा वासण रहै। १७ जमदार खांनो, जठे कपडो रहै । १८ सुत्र खानो, जठे ऊ ठ रहे। १६ सिलहखानो, जठे टोप बगतर रहै । २० खोवात खानो, जठे टरनी रहै। २१ सीकारी खानो, जठे सिकारी रहे। २२ किसति खानों, जठे नाव डुंडा रहै । २३ तबीय खानो, जठे वेटनाइता रहै । २४ दारुलहर खानों, नठे गनी रहै। १५ सुतलब खानो, जठे रसोई रहै । २६ खजानदार खानो, लठे रुपिया रहै । २७ रके वटार खानो, जठे जीण लगाम रहै । २८ पायगा खानो, जठे घोडा रा चरवादार रहे। २६ सरम खानो, जठे रुसनाई होवे । ३० किताब खानो, जठे पोथी पाना रहै। ३१ मेवा खानों, जठे मेवा मिठाई रहै । ३२ गोदाम खानो, जठे गाडी बैली रहै । ३३ अबारत खानो, नठे धान सारा रहे । ३४ दरी खानो, जठे कचेड़ी मरीजे । ३५ महबृत खानो, जठे छोटा बंदीवान रहै । ३६ कारखानां रा नाम इति ।
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परिशिष्ट (३) सभा शृंगारादि वर्णन संग्रहे
(१) देश नामानि १ अग देश
२५ कुरु देश २ बंग देश
२६ काण देश ३ कलिंग देश
२७ कच्छ देश ४ तिलग देश -
२८ कौसिक देश ५ राह देश
२६ सक देश ६ लाट्ट देश
३० चयानक देश ७ कर्णाट देश
३१ कौसिक देश ८ मेदपाट देश
३२ ....... ..... वैराट देश
३३ कारूत देश १. गौरु देश
३४ कायूत देश ११ चौरु देश
३५ कछ देश १२ द्राविरु देश
३६ महाकछ देश १३ महाराष्ट्र देश
३७ भोट देश १४ सौराष्ट्र देश
३८ महात्रोत्र देश १५ कास्मीर देश
३६ कीटिक देश
४० केकि देश १. कीर देश १७ महाकीर देश
४१ कोल्लगिरि देश
४२ कामरूप देश ११८ मगध देश २६ सूरसेनु देश
४३ कुक्कुण देश २० कावेर देश
४४ कुतल देश २१ कंबोज देश
४५ कनकूट देश २२ कमल देश
४६ करकंट देश ३ उत्कल देश
४७ केरल देश २४ करहाट देश
४८ खश देश
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४६ खर्घर देश ५० खेट देश ५१ विल्लर देश ५२ वेटि देश ५३ जालधर देश ५४ टेकण टक्क ५५ मोडियाग देश ५६ क्हाल देश ५७ तुग देश ५८ लायक देश ५६ तोशक देश ६० दशार्ण देश ६१ दण्डक देश ६२ देशसभ देश ६३ नेपाल देश ६४ नर्तक देश ६५ पचाल देश ६६ पल्लक देश ६७ पूड देश ६८ पाडप देश ६६ प्रत्यग्र देश ७० अबुद देश ७१ वसु देश ७२ गंभीर देश ७३ महिप्मक देश ७४ महोदय देश ७५ मुरण्ड देश ७६ मुरल देश ७७ मरुस्थल देश
८ मुग्दर देश ७६ मंगल देश
८० मल्लवत देश ८१ पवन देश ८. बागम देश ८३ पदक देश ८४ ब्रह्मात्तर श ८ ब्रह्मावर्त्त देश ८६ ब्रहाण देश ८७ वाहक देश ८८ विदेह देश ८६ वत्रवास देश ६० वनापुछ देश ६१ वाल्होक देश ९२ वल्लव देश ६३ अवन्ति देश ६४ वन्हि देश ६५ सिंहल देश ६६ सुहम देश ६७ सूपर देश ६८ सुहड देश ६६ अस्मक देश १०० हूण देश १०१ हर्मक देश १०२ हूर्मज देश १०३ हंस देश १०४ हूहूक देश १०५ हेरक देश १०६ वीण देश १०७ महावीण देश १०८ भट्टीय देश १०६ गोप्प देश ११० गाडक देश १११ गुजरात देश
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११२ पारसकुल देश ११३ शवालस देश
१४ कोरव देश
११५ शाकसरि देश
११६ कनउज देश
११७ टन देश
११= उचीविस देश
( ३१ )
१९६ नोलावर देश १०० गंगापार देश
१२१ सजा देश
१२२ कनकगिरि देश
१२३ नवसारि देश
१२४ भात्रिरि देश
एव देश सख्या
( प्रति पाटोदी मंदिर जयपुर गुटका न० १०५ ) ( २ ) चतुरशोतिर्देशाः
गौड, कान्यकुब्ज, कोल्लाक, कलिंग, ग्रग, वग, कुरंग, श्राचाल्य ( १ ) कामाख्या, श्रीडू, पुड़, उडीश, मालव, लोहित, पश्चिम, काछ, वालभ, सौराष्ट्र, कु कण, लाट, श्रीमाल, अर्बुद, मेहपाट, मरु वरेन्द्र, यमुना, गंगा तीर, अन्तर्वेदि, मागध, मध्य कुरु, डाहल, कामरूप, काची, अवनी, पापातक, किरात, सौवीर, श्रसीर, वाकाण, उत्तरापथ, गूर्जर, सिंधु, केकाण, नेपाल, टक्क, तुरक, ताइकार, बर्बर, जर्जर, कीर, काश्मीर, हिमालय. लोह पुरुप, श्रीराष्ट्र, दक्षिणापथ, सिंघल, चौड, कौशल, पाहू, अभ्र, विंध्य कर्णाट, द्रविड, श्रीपर्वत, विदर्भ, धाराउर, लाजो, तापी, महाराष्ट्र, आभीर, नर्मदा तट दी ( द्वी) पदेशाश्चेति । प० ६१ = हीरुयाणी इत्यादि पक । पत्तनादि द्वादशक । मातरादि चतुर्विंशति. । बहू इत्यादि षटूत्रिंशत | भालिज्जादि चत्वारिंशत । हर्षपुरादि द्विपञ्चाशत |
श्रीनार प्रभृति षट्पञ्चाशत् । नंबूशर प्रभृति षष्टि |प ( व १ ) डवाण प्रभृति षट्सप्ततिः ॥ इर्भावती प्रभृति चतुरशीतिः । पेटलापद्र प्रभृति चतुरुत्तर शत । ष (ख) दिरात्लुका प्रभृति दशोत्तरशत । भोगपुर प्रभृति षोडशोत्तर शतं । धवलक्कक्क प्रभृति पंचशतानि । माइड वासाद्यं श्रधष्टिमशत । कौंकण [ प्रभृति ] चतुर्दशाधिकानि चतुरदशशतानि । चद्रावती प्रभृति अष्टादशशतानि । द्वाविंशति शतानि मही तट । नत्र सहस्त्राणि सुराष्ट्रासु । एक विंशति: सहस्त्राणि लाट देशः । सप्तति सहस्त्राणि गूर्जरो देशः । परितश्च । श्रुहूट्ठ लक्षाणि ब्राह्मण पाटक । नव लक्षाणि डाहला । अष्टादश लक्षाणि द्वि नवत्यधिकानि मालवो देश । षट्त्रिशल्लक्षाणि कन्यकुज: । अनतं उत्तरापथ दक्षिणापथ चेति ।
( काव्य शिक्षा - विनयचंद्र कृन । पाटण ग्र० सू० पृ० ४८ )
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परिशिष्ट नं०४
त्रिशला शोकाधिकार यदा कालि जगन्नाथु माय-तणी अनुकपाकरी थिउ सलीन तनु । यत्कारि दुखि पूरीवा लागुं राग्नी त्रिशला तणु मनु ।।१ अहो! पा किसिउ अकालि उत्पात, हुसिइ किसिंउ वज्रपात ॥ २ अहो सखी! माहरइ गर्मि पामिउ विलयु, हुसिह किसिंड हिवडा जि विश्व प्रलय ।। ३ हिव एउ माहरइ मस्तकि जे अछई मउड, एउ प्रत्यक्ष झउड || ४ एउ हार, साक्षात महार ।। ५ बाहु वल्लरी तणां जे अछह वलय ते दुःख तणा दीसह निलय ।। ६ एउ अपूर्व पट्ट-दकूलु, ते देखतां संताप तण मूलु || ७ एउ अछह सवांगीण शृंगार ते देखना संपूर्ण अंगार ॥ ८ दैव ! मई किसिउ कीघउ, पाछिलइ भवि कुणई तणा छोरू तु विछोह कह नीपजाविउ कुणइ संत रहई वंच द्रोह जेह कारण विफल हुइ छइहरु मोह ॥६ मइ किसिडं कीघउं पापु जेह कारण दैविइ पाडिउ एवउ संतापु ॥ १० मई नागिंउं हतूं हसिइ सुलख्यण कमार थासिइ विश्व रई आधार ।। ११ नाणिउं हत् पुत्र माडिसिइ आडउ, मेलसिइ पाडु (पत्र १ क)॥ १२ जाणिउं हतूं श्राविसिइ जिवारई माहरइ घरि तिवारइं हूँ थासि पुत्रवंती नइ धुरि ।। १३ माहरउ जायु थासिइ मोटउ राउ, देसि वयरी तणि मस्तकि पाउ ।। १४ तउ पापी देवि भागी सवे श्रास, पडिउ सम-काल दुःख-तणउ पास || १५ भागी सघलीइ रुली, संताप श्रेणी ऊछली श्रास वेलि जई बली माहरइ मनि सुख तणी वात जि टली ॥ १६
आसां तश्यर मुहुरीउ नाम फलेवा लग्ग विहि कुंजरि उम्मूलीय एय कुसंघिई भग्ग ॥ १७
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( ३३ )
कय सरोवर पाली, बघ तु मई जि टाळी, किसिंउ दव पनाळी ॥ १८ जीवडा कोडि बाली, कप मनि दीधी गाळी, अाल दीघउं शुद्ध वाळी कह लहीय विचालि, बाळ लीघउं अदाली ॥ १६ सखि ! न गमह गायु, चिंत सोकिइ कमायुं रुचइ नहि निवायु, ताप दिइ फूल लायु असुख सिइरि घायु, हीयडल इ डीव जायुं किसिउ मई कमायु, देवि जं इम नीपायु ॥ २०
हसिउ राज्ञी तणउं त्वरूप, साभलिङ सिद्धार्थ राइ विरूप ।। २० दासी ना वचन तु तत्काल ऊपनु मस्तकि चाटक विसनिउ वित्रीस बद्ध नाटक ॥ २१ जे हंता बड्या, ते थया फडूया ॥ २२ जे गीत गान ( पत्र १ ख ) करता गंधर्व तेह तणा गरुवा गर्व ॥ २३ राज भवनि जीणइ रजीइ चीत ते एकू न सामलीइ गीत || २४ जीणइ ऊपनइ मन रहइ चित्र ते न वाजइ वाजिन || २५ जेहता पंडित, ते यिया दुख मंडित ॥ २६ जे राय रहइ अवस्य कृत्य, ते न दीसइ नर्तकी नृत्य ॥ २७ जेहे विद्वासे धूणीड मस्तक, ते न वाचई पुस्तक ।। २८ जे साभळता थईइ हराण, ते न वाचीइ पुराण ।। २६ जे जाणह काव्य नु अवसर तेहे कवीश्वरे मूकि उ महाकाव्य नु प्रसार ॥ ३० जे साभळना फीटइ व्यथा, ते एकू न सामलइ कथा ।। ३१ श्रीहणे बोले मोतीरिया दीजद सुवर्ण मह त्राट ते कलिरव न करइ भाट । ३२ जे हूँता चाचरीया, ते यया लासरीया ॥ ३३ जे लोक रई परावइ जुहार, ते हूया निसचला प्रतिहार ॥ ३४
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________________ जेहे निरंतर जीभ वावरी, ते मौन करी रहिया टावरी // 35 जे करता नगर नी करणवार, ते बइसी रहिया तलार // 36 जेहे मनि ऊपजइ प्रमोढ. ते एकू न दीसइ विनोद // 37 जे उलगई अाव्या राय, ते सवे दीसइ विच्छाय // 38 जे सभा बहसता राणा, ते सवे मनि उल्हाणा // 36 जे राज धुरधर प्रधान, ते दीसइ दुख तणा निघान // 40 ते तिहा बइठा छइ सेठि, ते जोइवा लागा नीची ट्रेठि / / 41 जे भला भंडारी, तेहनी मुख छाया ( पत्र 2 क ) अधारी // 42 जे राय नइ अगरक्त, ते थिया कुमक्ख // 43 अाकाश छतई सूरि, भेदीवा लागउ दुःखाधकार तणइ पूरि / / 44 तउ अनाथ तणु नाथ, जोयइ जगन्नाथ // 45 जान तणी द्रिटिइं देखइ रान भवनि सपूर्ण दुखोटवि तणी सृष्टि / / 46 सारे! या शाति करता जठिउ वेतात // 37 पडिउं माहरउं साह{ तताप तणउँ जाल तु नगन्नाथि प्रागुलि तणइ स्तदि करी माता तणी असमाधि हरी // 48 गि अनल्प, दु.व तणउ सकल्प // 46 फीटी मन तणी प्राधि, ऊपनी समाधि // 50 वालिवा ला [ गा] मागलिक तणा मृदग राज भवन भाहि सपूर्ण प्राणंद // 51 ( मुनि निन विजयजी सग्रह, भारतीय विद्याभवन, बम्बई )