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सभा-शृंगार नं० २
मगलाचरण ॥६०॥ ऐं नमः ॥ पडित श्री दयाकुशलगणि गुरुभ्यो नमो नमः ।
सर्व-जीव-निकायस्य, सर्वयापि हितप्रदाः । सुरासुर-नरै. स्तुत्या, जैनी जयति भारती ॥१॥ कोविदा देशिन विचित्, हट शास्त्रेषु किचन । किचेचात्ममति-जात, वर्णनासार' मुच्यते ॥१॥ समा- हुतूहल (शलधीर )
प्रणम्य पाच प्रकट-प्रभावं, अानद-कनोदय-बारिवाहं । तुरासुरावीश-नताप्रियुग्म्मनन्तकानि महिमानिधानं ॥१॥ नत्वा गुत्न् प्रक्ट-पुण्यर सातिरेकान् लोक प्रमोट करण वितनोमि शास्त्रं । चंचमत्कृति-विधायफ्मातलोक मान्य मनोरथवरद्रुनबोजकल्पम् ॥२॥ सम्यक् सभाकतूहल मिदमधिकरस तनोमि गुरु शक्ता । दृट्वा शास्त्र-समूह सानुग्राम यथावुद्धि ।।३।। नगर-नरे वर-राज्ञी-मव्या दिपदार्थ-वर्णन-विशिष्टम् ॥
वात्ता प्रबन्ध सयुतमेतन्मोदयतु जन-चित्त ॥२॥ नोट-सभा शृगार न० १ से ५ की भिन्न-भिन्न प्रतियो के सूचक सकेत इस प्रकार हैंजो०-४० १ जोधपुर जात पु०सं० २ पुण्य विजयजी प्रति पू०सं० ३ मा रि. इ० पृना की प्रति वि० स० ४ विनयसागर जी प्रति चि०स० ५ चितौड़ प्रति ०='मुत्य लानुप्रास' की प्रति जैसलमेर की होने से कहीं-कहीं 'मु' के
त्थान जै' सकेत भी लिखा गया है।
१- सरन'सार को क भय प्रत 20 मिर्च की. पूना से और प्राप्त हुई थी
पर देरी से मिलन के कारण इसका उपयोग नही किया जा सका ।