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पनघट का अंतिम दृश्य तो ध्वन्यात्मक सौंदर्य लिए हुए है। विभिन्न याभूषणों के नाद को लेखक ने अनूठी व्यंजना से व्यक्त किया है
घूधर ते घमके छै, पायल ते ठमके थे। वेहइ अरघट्ट, वर्णेक गगह । बाणवट्ट, यावे दवह ॥ एवं पण घट्ट ।
प्रकृति के प्रति श्रादिम युग से ही मानव फा सहज श्राकर्षण रहा है। प्रभात और सध्या नित्य होते हुए भी प्रति दिन की नवीनता से युक्त रहते है पर इनका मनोहारी रूप नागरिक जीवन के व्यस्त वातावरण में प्रतीत नहीं होता। सभा शृगार में प्रकृतिवर्णन के अंतर्गत प्रभात, संध्या, रात्रि नादि का जो वर्णन किया गया है वह मुस्लिम फाल का है और उसमें प्रमात, सध्या आदि का प्राकृतिक सौंदर्य नहीं है बल्कि तचद् कालों में तगत् के विभिन्न प्राणियो पर पड़नेवाले प्रभाव का वर्णन है। अँधेरी रात का वर्णन नागरिकता लिए हुए है। लेखक की दृष्टि श्रविकाशतः शृंगारपरक होने के कारण वह गणिका, जार, दूती प्रादि के चतुर्दिक चक्कर लगाती रही है।
ऋतुवर्णन में वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत श्रादि का वर्णन है। वंसत का एक ही वर्णन है। उसमें ऋतुराज के प्रागमन के समय कोयल की कूक, मंजरित पान, उल्लसित अशोक, विकसित चंपक फली श्रादि का वर्णन और लोफ पर उसका प्रभाव दिखाया गया है। ग्रीष्म के ३ वर्णन है। प्रथम के श्रारम में राजस्थान की उस भीषण गर्मी का वर्णन है नत्र चारों ओर लू चलती है, धूप के कारण नंगे पैर जमीन पर चलने से पैर ! नलने लग जाते हैं, पेड़ों के पचे जलकर गिर जाते हैं। जलाशय सूख नाते हैं और पनिहारने पानी के लिये लडती हैं, लोग काम पर नहीं जा पाते, गला सूख रहा है, सब छाया की शरण ग्रहण कर रहे हैं
लू वाजै छै, शीत लाजै छै । । पग दाझै छइ, तावड़ों तपै छई। रुख पात झरै छइं, रुख पवनै परे छई। पणिहारी पाणी माटि ल. छइं, बावकूत्रा सुकै छई।
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