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(१६५') गोरउ तउ पाडु रोगिउ, कालउ.तउ कबाडी । व्यापारी तउ भडग, विषयी तउ सर्वधर्म बाह्य । विषयहीन तउ नपुंसक । पुरुष लक्ष्मी रहित,'तेहनइ कोइ न चीतवइ हित । बोलतउ होइ मीठउ, तउही न सुहावइ किण ही नइ दीठउ । गुणे करी पूरउ, तउ ही लोक कहई अणूरउ । घणुं किसु झखीवइ, मेलावा माहि नो लखियइ । लक्ष्मीयइ छाडियइ, ते कुण ही मांडियइ । सदोवउ सीयालउ, चड्या भागलि दीठइ पालउ । घरनी कलत्र, तेहइन मानइ जिम सत्रु । मोटायइ वंस नउ, न लेखवइ कोइ किणही अस नउ । इस्यउ दरिद्र पुरुष, सहू करइ कुरुष ।
(सू०)
(२६) निर्धन (२)
निर्धन-उंचउ तउ मसाण खंभ, खाटरउ तउ होनाग । घणउ जीमह तउ छारीउ, थोडउ जीमह तउ भूडऊ टाणउ'। घणउ बोलइ तउ लबाल लापड, न बोलइ तउ मोगउ। भला वस्त्र पहिरइ तउं ईतरवा, सामान्य वन्न पहिरइ तउ दरिद्री। गोरउ तउ श्राम वातीउ, कालउ तउ कबाड़ी । वेवइ तउ खात्र पाडिउ, न वेवइ तउ भडग । विपइ तउ सर्वधर्म वहिकृतः,विषयहीन तउ नपुसंक ।
श्लोकः
वरं रेणुवर• भस्म नष्ट श्रीनपुर्नरः पूज्यते परीणि वापि निर्धनस्तु कटापि न ॥१॥
गाथा:
पथ समा नत्थि जरा, दारिद्द समो पराभवो नत्यि । मरण समं नत्थि भयं, खुहा समा वेत्रणा नत्थि ॥२॥
पाठान्तर-१ भूडउ ऊणाटउ २ परवणि ।