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(२७) निर्धन वर्णक (३) पुरुष लक्ष्मी रहित, तेहनह कोई न चीतवह हित ।। बोलता होइ मीठड, तउहो, न सुहावर किणहीन दीठउ ॥ गुणेकरे पूरज, तउही लोक कहइ अगरउ ॥ घणुस्यु झखीयइ, मेलावा माहे न लखीयइ ।। लक्ष्मी छडीयइ, ते कुणइ मडीयइ ॥ सदीव श्रोसीयालठ, चड्या अगलि हीडइ पालउ ।। घर नो, कलत्र, तेह पिणि गिणे सत्रु ।। मोय नइ वसनउ, न लेखवइ कोई किएही अस नउ । जउ ऊंचऊँ तउ एरंड, जउ मातउ तउ संड | गोरउ तर पडु रोगियउ, न बोलइ तउ सोगीयउ ।। कालउ तउ कबाडी, घणु बोलइ तउ लबाडी ॥ थोडउ निमई तउ दूखउ, घणु जिमउ तठ भूखउ ।। सामान्य वस्त्र पहिरइ त छीतर, उचा वस्त्र पहिरइ तउ इंतर I जउ पातलउ तउ विरंग, व्यापारी तउ भडग । विपई त सकामी, निविषई तउ अकामी ॥ दातार तड लंड, सूव तउ भड ।।। झगडद तउ नग, न झगडइ तउ ठग । जिम चालइ तिम त्रोटउ, जिम वालइ तिम खोटउ ।। इसउ दलिद्री पुरूष, तिण जगत्र करइ कुरखं ॥ जिवारइं लक्ष्मी त्रासइ, तिवारइ डील माइ गुण सर्व नासह ॥ . दीन भाषइ, तउही को न राखह ॥ इति दलिद्री वर्णकम् ।। कु.
(२८) निर्धन (४) उचो तो एरंड, खाटरो तो हीनाग ।। घणो भोलो तो लाकु ।। बहु बोले तो लबोल, न बोलै तो मौन । घणुं जीमै तो भुख्यो, योडुजीमै तो अभागीयो ।।