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( ८ ) केवलज्ञान
विशेष अतिशय निधान, सक्ल ज्ञान' प्रधान । मोहाधकार विच्छेदन भानु, त्रोटिता शेष कर्म सतानु | त्रिभुवन जन सकल संदेह छेदक, श्रच्छेद्यभेद्य प्राणी-गण हृदय मेदक । अनतानत विज्ञान, इसिउ ऊपनउ केवल ज्ञान ३ | ३ || जो०
( ६ ) समवसरण ( १ )
उत्पन्न दिव्य विमल केवल ज्ञानावलोकित सकल लोकालोक स्वरूप । सुवर्ण सिहासन छात्र चामरादि श्र महा प्रातिहार्य्यं शोभमान समानरूप देवाधिदेव, विहित सुरासुर सेव ।
त्रिभुवनैक नायक, सकल सौख्य दायक ।
त्रिभुवन जन नयना प्यायक, निर्जित पंच सायक ।
चउत्रीस ३४ अतिशय सहित, पात्रीत ३५ वचनातिशय परिकलित । चउस ि६४ इन्द्र सहित, श्रष्टादश १८ टोष रहित ।
घात्य कर्म चतुष्टय मुक्त, देवता कोटि युक्त ।
यदा कालि नगर समीपि श्रवइ, तिवारइ आपणइ भावइ । चतुर्विध देव निकाय समोसरण नीपजावइ ।
तिहा पहिलू देव निर्मित, सवर्त्तक वायु विस्तरइ |
तृण काष्ट, कचवर अपहरह, आकाश मेह पटल पसरइ । सुगधोदक वृष्टि करइ, फूल पगर भरइ |
योजन एक प्रमाण भूमिका, विरचित अगर धूमिका । मणि रत्न सुवर्ण सिउं साधी, गुरूड रत्नमय पीठ बाधी ।
ऊपरि जानु प्रमाण पच वर्णं कुसुम वरसई, चिटिसि दिव्य परिमल विलसइ ।
उदार रत्न, १ सुवर्ण २ रुप्य ३ मय त्रिणि प्रकार 1
मणि, रत्न, हेम मय कोसीसे करी सदाकार, समस्त विस्व माँहि सार ।
पुण्यावतार, तेजि करी पूस्कार |
च्यारि (४) प्रतोलीद्वार, जिहा देवज प्रतीहार |
तिहा बिंहु पासे उच्चैस्तर सुवर्णमय स्तंभ, ऊपरि मणिमय कुभ |
१ किवारइ • लगारेक तरख ३ ।