________________
( १७६)
कदाचित् चन्द्रमा अगार वृष्टि करइ ।
पाणो माहि पाषाण तरह। मेरु चूलिका चलइ, वाचस्पति वचन फलइ। शिला तलि कमल विकसइ, गंगा नलु पश्चिम बहइ, अभव्य हृदय धर्मोपदेश रहइ । मानुस सरोवरु सूकह, सत्पुरुष प्रतिपन्नु चूकइ ।
मेदनी मंडलु पातालि जाइ, केवलज्ञानु दृष्ट तोह अन्यथा (न) थाई । पु० अ०
७ केवल ज्ञानी के वचन अन्थया नहीं होते [२] कल्हारई' समुद्र मर्यादा मेहइ, नदी तणां वृंद पाछां पझेलई । क० सूर्य घोरांधकार करइ, क० चन्द्रमा अंगार तणी वृष्टि करइ । क० पापाण" खड जल माहिं लागमा तरह, निर्भाग्य मनुष्य हइ लक्ष्मी वरइ। क० सकल दिशा मंडल फिरइ, क. मेरु पर्वत्त वाय करी साचरह । क० वेद विद्या विदग्ध पुरुष मरइ, क. पवन वन माहि स्थिर पणउ आदरह। क० वेलू माहि पीलता तेस्न नीसरह, क० पूर्व भवान्तर नउं कर्म साभरइ । क० सूंकडं रूख फल फूलि फरी विस्तरइ, क० सूकड इत्तु खड रस क्षरइ' । क० कैलास चूला चलइ, क० वृहस्पति वचनि करी स्खलह। १० क० कुलाचल एक स्थानि मिलइ, क. अघटतउ संयोग मिलइ । क० गगाजल पश्चिम वहइ, क० अभव्यनइ ' मनि धर्म रहा । क० मानस१२ सरोवर सूकइ, क० सत्य हरिश्चंद्र प्रतिशा थकह चूकइ । क.पृथ्वी१3 मडल पातालि जायइ, के वल ज्ञानी कथित तउ ही-अन्यथा न थाई ॥५॥
(जो०)
वृष्टि करइ,
लागमा तरह,
क
ल दिशा मंडल
१ किवारे २ ना उद्धरण ३ ठेलइ ४ झरै ५ जलमा पत्थर तरै ६ लगारेक तरइ ७ फेरिव्यो फिरें
८ ब्रह्मा वेद न उच्चरे ६ सुगुरु १० खल ११ पाखण्डौ १२ रत्न कक्क दहे अन्य प्रति में इसके बाद "कुलवती भर्तार मुके" पाठ अधिक हे । १३ आकाश ।