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न सहइ बीजा साथइ, ठाक ठोक ल्यइ आपणइ माथइ । इसउ दुर्जन, तिण सु न मिलइ कोई मन ।
इति दुर्जनकम् ।। (कु.)
१७ दुर्जन पुरुष मुहि मीठउ, चित्ति विण ठउ । पिराया छल छिद्र जोयइ, विणास विण विगोयइ । पर प्रशंसाई खीनइ, उपकार ने सहस्त्रि न लीजइ । परमर्श भाखड्, साच करी दाखइ । न सगा न सणीजा, नविहु छइ इत्या लोक बीजा । न सहै जैइ बीजा साथइ, ठाक ठोक कल्पइ अापणइ माथइ । नहीं कोई नेह नइ सज्जन, इसिउ दुर्जन ।। १६ ॥ (मु०)
१८ दुर्जन-वर्णन (३) दुर्जन, कृतघ्न, निष्ठुर स्वभाव, अप्रतिष्ठ, वंदनानिष्ट स्वकार्य बद्धकक्ष परकार्य निरपेक्ष । (पु० अ०)
१६ दुष्ट पुरुष (४) रे रे दुराचार, अधर्म व्यापार । जनित कुल कलक, दूर मुक्ति मर्याद । पापिष्ट, निकृष्ट, दुष्ट दृष्ट इण परि निभछउ । १५६ ( स० १)
२० कुपुरुष (५) प्रत्यक्ष मधुरया गिरा अमृत वर्षतां परोक्षे दोष जल्पता । नीचाना व्यसनैर्वती कृताना इद्रियैः ' पराभूताना। पल्वल जलाटपि निर्मलाना। अमावाश्याया अपि अंधकार मुखाना । गुरुपुः विद्वेषिणां। बंधुषु वद्ध वैराणा, पितृमित्र द्रोह कारिणा । मातृ शुक्लाना, स्वपुच्छादि कारकाणा । समुद्र जलादप्यनुप भोग्याना। अंत्यन चरितादपि मलिन चरिताना।