________________
विभाग १० में मगल, वर्धापन, उत्सव, विवाह, भोजन, वस्त्र, अलंकार,धातुरत्न आदि के वर्णन हैं | पृष्ठ २८१ पर वर्धापनक के अन्तर्गत ही तलिया तोरण का उल्लेख है जो पृष्ठ १६ पर भी आया है। जैसा ऊपर कहा है यह संस्कृत तलक-तोरण का रूप था । पृष्ठ २८२ पर धात्रियों की संख्या पाँच कही गई है। दिव्यावदान अादि बौद्ध संस्कृत ग्रन्थों में अंकधात्री क्षीर-धात्री, क्रीडा-धात्री और मल-धात्री ये चार नाम आते हैं। यहाँ अन्तिम के स्थान पर मजन-धात्री और मडन-धात्री नाम पाए हैं। बाल-क्रीडा-वर्णन के मुख्य अभिप्राय सूर-सागर के विशद वर्णनों की नक्षिप्त सूची के समान हैं। विवाह समय नामक वर्णक मे (पृ. २८३) घडे सहित वृत मोल लेने का उल्लेख है जो उस युग का स्मरण दिलाता है जब पचास माट वर्ष पहले तक गाँवों में घी गोल, घडे अादि मिट्टी के पात्रों में भरकर रक्खा जाता था । घाघरखालि से तात्पर्य बड़े और बजने बस्यो की उस माला से है जो घोड़े, खच्चर आदि के गले में डाली जाती थी और जिसे गढवाल में ग्राज भी वॉवरयालो कहते है। भोजन के प्रसग में रसोई के चार वर्णक सगृहीत है । लगभग २८ पृष्ठों में वह सामत्री अत्यन्त विशद है और इसमें मध्यकालीन साहित्य में प्रयुक्त भोजन सबंधी शब्दों का एक पूरा भाडार ही मिलेग । 'जिम महद्भुत गाडू तिम लाई' ( पृष्ट २८३ ) उल्लेख ध्यान देने योग्य है। गाड का अर्थ गडवा या लोटा है जिसे यहाँ बडे लड्डू का उपमान कहा गया है। विद्यापति की कीर्तिलता में भी गाड़ शब्द अाया है (खणयक चुप भै रहह गारि गाडू दे तवहीं, द्वितीय पल्लव, अर्थात् तुर्क के मुंह में जब निवाला अटक जाता है तब वह गडबे से पानी मुँह में उँडेल लेता है)। महत या महानद्भुत गाडू सम्भवतः उस प्रकार के लोटे को कहते थे जिसके पिटार पर टस अवतारों का अक्न किया जाता था। सम्भवतः यहाँ उन बड़े लड्डुओं का प्रसंग है जिन्हें मगट के लटु कहते है। पकवानो में खाजा नामक मिठाई की उपमा महल के छाजे से दी गई है (पृष्ठ २८३, २८६)। इस मिठाई का चलन अब चन्द हो गया है किन्तु ज्ञात होता है कि मध्य युग में फते हुए बहुत बडे मतपदे खाजे बनाए जाते थे। क्त्तुत इस प्रकरण में अनेक प्रकार के लड्डू, मॉडे, फल. नेवा, चावल, मसाले, मिठाई आदि के नाम हैं जिनकी व्याख्या के लिये पूरे शोव-निवन्ध की आवश्यकता होगी। वर्ण-रनाकर और वर्णक-समुच्चय की सामग्री के साथ तुलना करने से इन नामों पर प्रकाश पड़ने की सम्भावना है। इन शब्दों में अपभ्रश युग की भाषा की परम्पग भी व्यान देने योग्य है,
ने पारिहेटि महिसिं तएउ दूधु ( पृष्ठ २८४ ) इस वाक्य में पारिहेटि बाखडी मन की मंत्रा थी जिम हेमचन्द्र ने देशीनाममाला में परिहट्टी कहा है (देशी०