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( १२४) द्राक्षा आविली पान कीजइ, कलमशालि तणा सीघउरा करंबा कीजई ।
आछा कापडा पहिरीयई, लू आहण्या पाणी पीनइ ।। अछाछ चंदन रसाईकरा मृगाक्षो धारागृहाणि कुसुमानि च कौमुदी च । मटोमरुत्सुमनसः शुचिहर्म्य पृष्टं ग्रीष्मेमदं च मटन च विवर्द्धयति । १५२
(स० १) १२ वर्षाकाल-वर्णन (१) आय वर्षाकाल, चिहु दिसि घटा उमटी ततकाल । गडगडाट मेह गाजै, जाणे नालि गोला वानै । कालै अाभै बीजुली झत्रकइ, विरहणी ना हिया द्रबकइ । बन्त्रीहा बोलइ, वाणिया धान वेचित्रा वाखार खोलइ । बोलई मोर, दादुरइ सोर। अधारइ घोर, पइसइ चोर ।
कटर्घ्य करइ जोर, मानिनी स्त्री भरिनइ करइ निहोर । चंद सूरिज बादले छाया, पवेवाऊ श्राप आपणां घरा नइ धाया । रानहस मानसरोवर भणी चाल्या, लोके वस्तु वाना घरा माहे घाल्या । वग पति सोहइ, इंद्र धनुष चित्त मोहइ । श्रामो ययो रातो, मेह ययौ मातौ । मोटो छाट आवइ, लोकानइ भावई । झड़ी लागी, करसणीरी भाग्य दसा नागी । मूसलधार मेह बरसई, पृथ्वी उर्ण-पूर्ण करिवा तरसई । वहइ प्रनाल, खलखलेइ पाल | चूयइ अोरा, भीलई वस्तुवाना रा बोरा । टबकई पटसाल, चिचुंयइ बाल । नदी अावी पूर, कडरिणर रूख भाजि करई चकचूर । बहइ वाहला, लोक थया काहला, जूना ढूंढा पड़इ, लोक ऊँचा चड़इ। हालीए खेत्र खड़या, वाडिस्यु सेढा जड्या । मारग भागा, जे जिहा ते तिहा रहिवा लागा । प्रगव्या राता मामोला, धान थया सुहगा मोला । नीली हरी इहडही, घणा थया दूध नइ दही । नोपना घणा धान, सभा धम्मनइ ध्यान । गयो रोर, लोग करइ वकोर | गयो दुकाल, थयो सुगाल । ईदृशे वर्षाकाले न कोपि, गंतुं शक्नोति । (का०)
१३ वर्षाकाल-वर्णन (२) श्रासाद' मेह श्राव्या, कुणइक नइ मनि उछरग न भाव्या । कालाइणि' वली, सर्व जीवनइ मन ग्ली । उत्तर वाउ वाज्या, आकास मेह गाज्या । ' बाह (नु०), सनाह (मु०) २ कालविणी (मु० ) ३ जगत्रय (नु०) ।