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प्रतिलिपियाँ देखने को भेजी तो आपने इन्हें महत्वपूर्ण समझकर संपादित कर देने को लिखा । नागरीप्रचारिणी सभा की ओर से इस ग्रंथ के प्रकाशन में भी अग्रवाल जी का मुख्य हाथ रहा है ।
इसी बीच बीकानेर के खरतर आचार्य गच्छ के ज्ञानभडार से कुशलधीर रचित सभा कौतूहल की ६ पत्रों की एक अपूर्ण प्रति प्राप्त हुई । श्रागरे ज पर विजयधर्मसूरि ज्ञानमंदिर से सभाशृंगार ( नंबर १ ) जो पहले पूर्ण मिला था उसकी सवत् १६७१ की लिखी हुई पूरी प्रति मिली और पाटोदी दिगंबर मंदिर, जयपुर से भी उसकी एक प्रति प्राप्त हो गई । इस तरह वह रचना तो पूरी की जा सकी । सौजन्यमूर्ति श्रागमप्रभाकर मुनिवर्य पुण्यविजय जी को लिखने पर उन्होंने पाटण भडार से 'सभागार ( नंबर २ ) की ६ पत्रों की प्रति सवत् १६७७ की लिखी भिजवा दी। जयपुर जाने पर मुनि जिनविजय जी के संग्रह में खरतर गच्छीय कविवर सूरचंद्र रचित 'पदैक विशति' नासक महत्वपूर्ण श्रज्ञात ग्रंथ की हम पत्रों की अपूर्ण प्रति अवलोकन में श्राई तो उसे भी साथ ले आया । मूल ग्रंथ संस्कृत में है पर उसमें प्रसग प्रसग पर राजस्थानी के गद्यवर्णन स्वर्ण श्राभूषण में जड़ाव की तरह सुनियोजित हैं । अतः उन सब वर्णनों को अलग से छोटकर लिखवा लिया गया । उसके बाद मुनि पुण्यविजय जी और जयपुर के दिगबर भंडार तथा विनयसागर जी के संग्रह की प्रतियाँ प्राप्त होती गई और कुछ अपने संग्रह की प्रतियों का भी उपयोग किया । चितौड़ जाने पर यति बालचंद्र जी के संग्रह से १ पत्र में लिखा हुआ सभाशृंगार ले आया । भारतीय विद्या भवन से जिनविजय जी के सग्रह के सभाशृंगार की प्रति मँगवाई। बड़ौदा, पूना थादि से भी प्रतियाँ मँगवाई गई । इस तरह २५-३० प्रतियों को प्राप्त करके इस मथ को तैयार किया गया है ।
जय
श्रावश्यक स्पष्टीकरण - यहाँ यह भी बतला देना आवश्यक है कि मैं इस ग्रंथ की तैयारी में लगा हुआ था तो डा० भोगीलाल जी साडेसरा से सूचना मिली कि वे भी एक 'वर्णक समुच्चय' ग्रंथ तैयार करने का प्रयत्न कर रहे हैं, इसलिये उनके संग्रह की जो प्रति मँगवाई थी उसका उपयोग मैं अपने ग्रंथ में नहीं करूँ । श्रतः उस प्रति के वर्णनों का इस ग्रंथ
में उपयोग नहीं किया गया । यद्यपि उसके बहुत से वर्णन सभाटगार आदि अन्य ग्रहों में प्राप्त होने से मेरे इस ग्रंथ में भी था चुके हैं पर कुछ वर्णन ऐसे भी रह जाते हैं जो साढेसरा जी की प्रति में ही थे, अन्य प्रतियों