________________
( २१७ )
तिहां बइठा बल कण लागई, साथ कहइ ईहा रही स्यका आगई। पृथ्वी माहि पामोह, मार्ग श्रमु गमोइ । इस्यउ सरोवर टीठउ ॥५२।। जै०
(९०) रत्नाकर (११) महारत्न नु अागरु, इग्यारमउ स्वप्न देखइ सागर । मच्छ, कच्छ, पाठीन पीठ जलचर जीव अनीठ । महा निरवधि, क्षीरोदधि । अतिहिं उद्दण्डु, डिंडीर पिण्ड । तेहे विराजमान, मर्यादा करी प्रधानु । गंभीरिमा गुणि करि गाजइ, श्रापणी मर्यादा रह्यउ कहइन्ह न विराज । महालक्ष्मी धरु, इसउ स्वप्न देखइ स्वामिनी प्रवरु ॥५३॥ जै०
(११) देवविमान (१२) रहित शोकु, जिसउ बारमउ हुइ देव लोक । इसउं विमानु, सुरागणा ससेव्य मानु । स्वर्णमय कु भ सहस्त्रि परिकलितु, दिसि एकइ नहीं निहा तोरण टलतु । जिहा बार सूर्य ना उदय, रत्ननटित इसा चद्रोदय । दीठो हरइ अलच्छि, इसी चिंहु पखे परीयच्छि । परिमल करी विशाल, माहि लंबायमान फूल नी माल । अगर गधि उच्छलइ, जबाधि ना परिमल मिलई कपूर महकइ, कस्तूरी महकइ, जय पताका लहकइ । भ्रमर गुणगान करइ, बारमुं स्वप्न देखइ॥ (३०)
' (१२) रत्न राशि (१३) चन्द्रकान्त, पद्मकान्त । पपराग, पुष्प राग । हीरिताक्ष, लोहिताक्ष। कर्केतन मणि, वैडूर्य मणि । गुरडोद्गार, पुलकोद्गार । हीरा मणिकलां, अविद्ध मौक्तिक भला । । त्रास रहित, तेज सहित ।