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( ६२ ) कृपण नै लक्ष्मी कुण संचावै ? तिम सजन नै त्वभावै नाणवो।
(सू. ३)
६ सत्पुरुष प्रतिज्ञा (६) कदाचित् समुद्र मर्यादा व्यतिक्रमइ, कटाचित् जइ मेर महीघर चकमइ । कुलाचल चक्रवालइ , ग्रहचक्र निन मार्ग सू चलइ पृथ्वी पातालि जाड, वाउ निश्चल थाइ । वज्र टण्ड जर्जरता धरइ, नल ज्वलइ । ज्वलन शैत्य धरइ, श्रादित्य पश्चिम ऊगद्द, कुमल वन पर्वत विकसइ कदाचिदमृत विष थाइ क्दाचित्पापाण जल माहि तरइ, कदाचित्नारकी सौख्य पामइ कदाचित्वृहस्पति वचन खलइ, गंगानल पश्चिम वहइ कदाचित् अभव्य जीवहृदयि धर्मापदेश रहइ, कदाचित् मानस सरोवर सूखइ कदाचित् हरिश्चंद्र प्रतिज्ञा हूत चूकइ, कटाचित् सिद्ध गर्भवासि अवतरह तथापि सत्पन्य आपणीप्रतिनातउ न टलई । १०८ ।
७ सत्पुरुप के परोपकारों की उपमा (७) सत्पुय परोपकार किहिं पृथ्वी नियमिया छइ शेपराजु पृथ्वीधरइ, आदित्य अंधकार संहरइ चन्द्रमा शैत्य करइ, मेघु जलु पृथ्वी भरइ, गोमडलु दुग्ध क्षरद्द, चन्द्रोपलु अमृतु झरइ, वैश्वानर प्रज्वलइ, वृक्ष फलइ ॥
(पु अ.) ८ सत्पुरुप के परोपकारों की उपमा (८) मत्पुरुषः परोपकारमेव कुत्ते न पुनगरमाथं यथारविस्तमो नाशयति, परं नातं फोट्यति । चद्रः त्वामृतेन जगताप, निर्वापयति न क्षयं । वृक्षाः पंथानामातपं निवारयति, नात्मनः