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किसी एक विरदिनी हुई? विरावधा, पाहारिपरि रद अनास्था । सर्व गंगार, माना ग्रंगार । चंद्र तपा पान, ध्या विविवान।
विहानल प्रज्वलइ अंगु, सवी नन विरंग । विरदिनी गृपने हार को तोड़ती है, झागों के चलयों फो मरोद रही है, गहनों को तोड़ रही है, अपडे उतारकर ढेर लगा रही है, किंकिणो की वनि प्रहीनदा लगती श्रतः उसे अलग कर रही है। चए अपने गस्तफ और वक्षस्थल पर प्रहार करती है, बालों को बिखेर रही है और धरती पर लोट फर प्रामुग्री से अपने कंगुफ का भिगो रही है ----
हार रोहती, वलय मोहनी । प्राभाय भागती, गल गानती। फिक्शिी एलाप छोड़ती, मनफ फोड़ती । वक्षस्थल तादती, कुचूड पादती । केश कनाप रोलावती, पृथ्वी तनी लोटती।
श्रीसू फरी पं.चुक सोंचती, डोडलो हटि मोचती । विद विलाप का वर्णन करते हुए प्रेमी के विभिन्न विशेषणों का प्रयोग किया गया है -
हा फात हा हृदयविधात! हा प्रियतम । हा सर्वोचम! हा सौभाग्यसुंदर।
हे प्रेमपान ! स्त्रीस्वभाव का जो वर्णन किया गया है उसमें 'त्रियाचरित्र' को ध्यान में रखफर नारी के चरित्र की अस्थिरता फा मनोवैज्ञानिक ढंग से उद्घाटन किया गया है। स्त्री के कामों की गणना तो निम्न जाति की स्त्री के कार्यों को ध्यान में रख कर की गई है पर उसके जो नाम लिखे गए है वे केवल श्राभिजात्य वर्ग और रानियों के नाम है। हाँ विभिन्न प्रातों की स्त्रियों के नामों का वर्णन अवश्य स्थानगत विशेषता लिए हुए है। पुरुषवर्णन में