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(६७) श्राविका वर्णन (२) ... सुश्राविका, पुण्य प्रभाविका, प्राचारवत, विवेकवत । मुशील, सहजइ १सलील । तप उपधान रहा विषय न करइ ढील, टीदारु दीसइ डील सुविचार, अवसरनी उलखणहार । समस्त कुटु व सौख्य करिवा बुद्धि, त्रिपक्ष शुद्ध, स्वभावि मुग्ध । + भर्तार नउ मन राखीइ, न रह सकइ अध घडी घर पाखइ । सहू जिमाडी जोमइ, घणु बोल्यु न गमइ । कण रा विकण करइ, देव गुरूना पग अणुसरइ । चालइ पूर्वज रीति, न करइ किणहनी कफीति । करइ सासू ससुरानी सार, सरिखी मोटा घर नइ भारि । पछइ सूयइ, पहिलेउ जागइ, आपणइ मुखि काई न मागइ। . इत्यो काई सरज्यौ माणस पूरऊ, किणही नउन बोलइ अपूरू 3.। एवडी अंग माहि लाज, आपणऊ अर्थ विनासी सारइ कुटुम्ब ना काज । गोरूनी पीडि लीजई, पुण्यवन्त नइ पतीजै । श्रापण परनी विगति जाण्इ, सद्गुरू न्यायि श्राविका बखाणइ । को कहिसइ गुरू' चाटूया बोल बोलई इस्या । पणि परमेश्वरे वखाणी, रेवती नइ सुलसा । ( सू० और जै० )
(६८) सात क्षेत्र इस्यइ दुःषमाकालि, पसरइ पाप नइ जालि । , सुकृत ना श्राचार साचवइ, सत क्षेत्रीय वित्तु बावइ । . - - . अतिहिं पवित्र, वहिल क्षेत्रु ।' कगवह श्री वीतराग ना प्रासादु, लिय जगत्रय जयवादु । वीजउं क्षेत्र वित्र भरावई, जइ मनि वार एक प्रथम श्रावकु भरतेश्वर वेह न्हइ हरावइ । त्रीनउ क्षेत्र तपोधनु, किसी परि रंजवइ तीह'ना मनु ।
१ तदन्तर अधिक-अतहिं, लक्ष्मीना अवतारी चित्तनीउढार, अवसर नी भोलखलहार। मुसपन दलकार, करइसा,-वडघरिमहा___ द्वादशव्रतधार । अवसरइ उपकार नी इडी, ए वातनथी कृडी। सर्व स्त्री - रोषरहित, शीलादि गुणेसहित । १ सील+वाणी वोलड मीणी जाण्र मिश्रीनइ दुग्ध । २. अफीति ३ अपुरु ४ पीडा ५ स्त्री ६ कुशलधीर । - - -